डॉ राजीव कुमार पाण्डेय अपना गाँव अपना देश ******************* स्मृतियों के पटल खोलकर ,खोज रहे हम वो परिवेश। वो तो केवल स्वप्न बना है,अप...
डॉ राजीव कुमार पाण्डेय
अपना गाँव अपना देश
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स्मृतियों के पटल खोलकर ,खोज रहे हम वो परिवेश।
वो तो केवल स्वप्न बना है,अपना गांव अपना देश।
हुड़दंग गली ,खलिहानों तक,दालानों की कुछ बातें।
प्रेम सरोबर डूब नहाती, सभी पुरानी प्रतिघातें।
दादी माँ के कहानी किस्से,माँ की लोरी हरती क्लेश
गली गली में गुल्ली डंडा,उछल कूद कुछ पेडों की,
चटनी के संग रोटी वाला,करें कलेवा मेड़ों पर।
मिट्टी में सन जाते थे हम,मम्मी धोती मेरे केश।
जामुन की कुछ मीठी यादें, नदिया पार लगी अमिया।
सुरमा आंख लगाकर आई, बनी ठनी सलमा छमिया।
जलने वाला सखा हमारा ,दादा सम्मुख करता पेश।
हंसी खुशी थी संग संग में,मेल जोल त्योहारों पर।
मनमोर बना नर्तन करता, झूमे मस्त बहारों पर।
अगियाने पर कट जाते थे, ग्रामीणों के रंजिश द्वेष।
कर रहें हैं वन्दना
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अभिशप्त प्रस्तर में किया था,
प्राण का नव संचरण।
जिन पदों के आचरण से,
उग उठा नव अंकुरण।
आदर्श के प्रतिमान की हम ,कर रहे हैं वन्दना।
कर रहें हैं वन्दना।
सहस्र अरि होते प्रकम्पित ,
अवलोक भुजदंड बल।
चख मधुर फल हार जाते,
शबरी का प्रेम निश्चल।
भीलनी के इस ज्ञान की हम, कर रहें हैं वन्दना।
कर रहें हैं वन्दना।
सलिल था बृहद पात्र में ,
विस्वास उस गांव का।
था धरा के मनुज हित में,
प्राकट्य उस नाव का।
केवटों के सम्मान में हम ,कर रहे हैं वन्दना।
कर रहें हैं वन्दना।
ज्ञान था हैं पंख निर्बल,
गर्जना दस शीश को।
प्राण अंतिम प्रभु गोद में,
पा गया आशीष को।
प्रतापी जटायु जान की हम, कर रहें है वन्दना।
कर रहें हैं वन्दना।
डॉ राजीव पाण्डेय
नाम- डॉ राजीव कुमार पाण्डेय
माता का नाम- श्रीमती उमादेवी पाण्डेय
पिता का नाम- स्व.श्री ब्रह्मानन्द पाण्डेय
जन्म तिथि - 05-10-1970
जन्मस्थान- ग्राम व पोस्ट -दरवाह,जनपद-मैनपुरी
शिक्षा- एम.ए. (अंग्रेजी,हिन्दी) बी.एड., पी-एच.डी.
लेखन विधा- गीत, ग़ज़ल,मुक्तक,व्यंग्य,छंद,हाइकु, लेख,
कहानी,उपन्यास,ब्लॉग,इंटरव्यू,समीक्षा आदि
प्रकाशित कृतियां-
आखिरी मुस्कान (सामाजिक उपन्यास)
बाँहों में आकाश ( सामाजिक उपन्यास)
मन की पाँखें (हाइकु संग्रह)
सम्पादित कृतियां-
शब्दाजंलि(अखिल भारतीय काव्य संकलन)
काव्यांजलि(माँ गंगा को समर्पित काव्य संग्रह)
सहयोगी संकलन-
मैनपुरी के साहित्य कार(सन्दर्भ ग्रन्थ)
अमर साधना( काव्य संकलन)
काव्य विविधा भाग 1( काव्य संकलन)
पीयूष(काव्य संकलन)
स्वागत नई सदी( अखिल भारतीय काव्य संकलन)
कुछ ऐसा हो( हाइकु संग्रह)
सदी के प्रथम दशक का हाइकु काव्य(हाइकु सन्दर्भ ग्रन्थ)
हाइकु विश्वकोश(हाइकु विश्व कोश सन्दर्भ ग्रन्थ)
सच बोलते शब्द(हाइकु संग्रह)
गा रहे हैं सगुन पंक्षी(काव्य संग्रह)
भारतीय साहित्यकार (हिन्दी साहित्य कोश,सन्दर्भ ग्रन्थ)
प्रयास ( हाइकु संग्रह)
आलेख समीक्षा-
* इदम इन्द्राय
*डॉ मित्र साहित्य अमृतम
*डॉ मिथिलेश दीक्षित का हाइकु संसार आदि
महत्वपूर्ण ग्रन्थों में प्रकाशित
*कई महत्वपूर्ण ग्रन्थों की समीक्षा समय समय
पर पत्रिकाओं एवं वेवसाईट पर प्रकाशित
अन्य-
* यू के से प्रकाशित अंग्रजी लेखिका द्वारा रचित सुन्दर
काण्ड में सहयोग
* लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्डस में दर्ज मीडिया
डायरेक्टरी मीडिया कोश में सम्मलित
*आकाशवाणी एवं अन्य काव्य,भाषण आदि
प्रतियोगिताओं में निर्णायक,मुख्य अतिथि आदि की
भूमिका
उपसम्पादक-हरियाली दर्शन (मासिक)
* देश की प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित
*आकाशवाणी,एवं चैनल्स पर रचनाएँ प्रसारित
*यू ट्यूबपर चैनल
* कई वेबसाईट्स पर अनेकों रचनाएँ,समीक्षा प्रकाशित
सामाजिक गतिविधियां
*विभाग संयोजक-संस्कार भारती ,गाजियाबाद
*राष्ट्रीय अध्यक्ष-काव्यकुल संस्थान (पंजीकृत)
*जिला कोषाध्यक्ष-उत्तर प्रदेश प्रधानाचार्य परिषद गाजियाबाद
*जिला कार्यकारिणी सदस्य-उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षक
संघ गाजियाबाद
*सम्मान एवं उपाधियां-
1 अवधेश चन्द्र बाल कवि सम्मान (मैनपुरी)
2- प्रमुख हिन्दी सेवी सम्मान (गाजियाबाद)
3- मैथिली शरण गुप्त सम्मान(मथुरा)
4- ब्रजरत्न सम्मान (मथुरा)
5- साहित्य कार सम्मान ( मैनपुरी)
6- पत्रकार शिरोमणि सम्मान(मैनपुरी)
7- पत्रकारिता सम्मान( आज कार्यालय मैनपुरी)
8- दुष्यंत कुमार स्मृति सम्मान(राष्ट्र भाषा स्वाभिमान न्यास भारत गाजियाबाद)
9- डॉ भीमराव आंबेडकर नेशनल फेलोशिप सम्मान(दलित साहित्य अकादमी नई दिल्ली)
10-हाइकु मञ्जूषा रत्न सम्मान(छत्तीसगढ़)
11- सर्व भाषा सम्मान 2018(सर्व भाषा ट्रस्ट नई दिल्ली)
12- संस्कार भारती गाजियाबाद द्वारा सम्मानित
13-डॉ सत्य भूषण वर्मा सम्मान( के बी हिंदी साहित्य समिति बदायूँ)
14-नेपाल भारत साहित्य रत्न सम्मान(नेपाल भारत साहित्य महोत्सव, बीरगंज नेपाल)
15-नेपाल भारत साहित्य सेतु सम्मान(नेपाल भारत साहित्य महोत्सव, नेपाल)
16-हैटोडा साहित्यिक सम्मान सम्मान( हैटोडा अकादमी हैटोंडा,नेपाल)
17-क्रांतिधरा अंतर्राष्ट्रीय साहित्य साधक सम्मान (2019) मेरठ
18-भगीरथ सम्मान (संस्कार भारती गाजियाबाद)
19-डॉ हेडगेवार सम्मान (गाजियाबाद)
20-राष्ट्रीय प्रतिभा सम्मान (अखिल भारतीय चिंतन साहित्य परिषद मैनपुरी)
21-अटल शब्द शिल्पी सम्मान 2018(काव्यकुल संस्थान पंजी.) गाजियाबाद
22-श्री लक्ष्मी हरिभाऊ वाकणकर साहित्य सम्मान2019
23एक्सीलेंस इन टीचिंग एन्ड लर्निंग एवार्ड 2019 गाज़ियाबाद
24-सारस्वत सम्मान(बरेली)2019
25-काव्य गौरव सम्मान 2020(दिल्ली)
आदि अनेकों सम्मान एवं प्रशस्ति पत्र
*सह सम्पादक -हरियाली दर्शन (मासिक)
*सम्प्रति- प्रधानाचार्य
किसान आदर्श हायर सेकेंडरी स्कूल शाहपुर बम्हैटा गाजियाबाद
पता- 1323/भूतल सेक्टर 2 वेवसिटी गाजियाबाद
ईमेल -dr.rajeevpandey@yahoo.com
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चंचलिका.
तन्हा #मन....
सोच की राह में भटकते हुए
ये कहाँ हम आते चले गये
यादों की घनेरी छाँव तले
खुद को दफ़नाते चले गये .....
हम " हम " ना रहे अलसाई शाम में
खुद ब खुद डूबते चले गये ......
बेगानों के बीच अपनों को
हर पल हम ढूँढ़ते चले गये ......
दरिया भी था फिर भी प्यासे हम थे
आँखों से प्यास बुझाते चले गये.....
कोहरे से लिपटी ख़ामोश रात में
दिल से दिल को पुकारते चले गये....
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मुरसलीन साकी
सोचता हूं कोई पैगाम-ए-मुहब्बत लिखूं।
अपने हाथों से तेरे नाम कोई खत लिखूं।
तेरी जुल्फों को स्याह रात से ताबीर करूं
और आँखों को छलकता हुआ सागर लिखूं।
चाँदनी टूट के बिखरे उसे रुख्सार कहूं
और होंठों को गुलाबों की जवानी लिखूं।
तेरी खामोशी को तूफाँ की अलामत कह दूं
और बोले तो बहारों का हसीं गीत लिखूं।
तेरे दीदार को सूरज का निकलना लिखूं
और आंचल को महकता हुआ सावन लिखूं।
तेरी चढ़ती हुई सांसो को तलातुम लिखूं
और ठहर जायें तो ठहरी हुई दुनिया लिखूं।
तेरे अबरू को नये चांद से ताबीर करूं
और निगाहों को मचलता हुआ जादू लिखूं।
तेरे चलने की अदा को लिखूं मानिन्दे गजाल
और हंसने को मैं कलियों का तरन्नुम लिखूं।
हां मगर लफ्ज़ जो कागज पे मैं तहरीर करूं
तो मआनी में वो तासीर कहां मिलती है।
रोज इक ख्वाब जो आंखों में बसा रहता है
ऐसे हर ख्वाब की ताबीर कहां मिलती है।
मुरसलीन साकी
लखीमुपर-खीरी उ0प्र0
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अनु उर्मिल"सर्वदा आशावादी"
#बेवफा_कौन
यूँ ही बदनाम है दुनिया में
बेवफा के नाम से औरत
पर इश्क़ में सबसे ज्यादा
ठगी गई है औरत
वो ख़्वाब दिखाता है
उसकी आँखों को जन्नत के
वादे करता है जीवन भर
साथ निभाने के
यकीं करके उसकी बातों पर
जीने लगती है वो उसकी होकर
"प्यार" लफ्ज़ सुनकर जग को
भूल जाती है उसमें खोकर
आतुर हो जाती है वो
सर्वस्व न्यौछावर करने को
अपने प्रेमी की होकर
अपना अस्तित्व बिसराने को
समझती है अधिकार बस
उसका अपने आप पर
लुटा देती है सबकुछ
सिर्फ़ इश्क़ के नाम पर
परंतु पुरूष के लिए वो
होती है केवल एक देह
और "प्रेम" एक जरिया
उस देह को पाने का
जब कर लेता है वो
हासिल उस देह को
रौंद कर उसके प्रेमल समर्पण को
वो चल पड़ता है नई मंजिल को
अनु उर्मिल"सर्वदा आशावादी"
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अनिल कुमार 'कैंसर',
वरिष्ठ अध्यापक 'हिन्दी'
ग्राम व पोस्ट देई, तहसील नैनवाँ, जिला बून्दी, राजस्थान
'जीत की राह'
हारकर क्यों बैठा है ?
फिर से बाजी लगाकर देख
मिली विफलता तो क्या ?
खुद को आजमाकर देख
ऐसे हार जाने से
कुछ न कर बैठ जाने से
कौन तू जीत पायेगा ?
जो कोशिशें नहीं जीत की
तो सफलता कैसे लायेगा ?
मत भूल कि तू कौन है
जगा तू उसको
जो कहीं तुझमें ही मौन है
हार तो तजुर्बा है तेरा
जीत की राह तक जाने का
तू तो बस जुनून रख
उस जीत को पास लाने का
आज नहीं तो कल होगा
अब तक विफल रहा है जिसमें
कल सफल तू उसमें भी होगा...।
--
'बुराई का अन्तर'
अरे ! जमाना खराब है, जानता हूँ
पर मैं भी तो उस जमाने का
बिगड़ा हुआ हिस्सा हूँ
जितनी कहानियाँ औरों की है
उतने ही किस्से मेरे भी है
बुराइयाँ मेरी भी होती है
और बुराइयाँ मैं भी करता हूँ
यह तो इस दुनिया का हिसाब है
अच्छाइयाँ दिखती नहीं
बुराइयों से सब निहाल है
बुरे है, इसलिए दुनिया का यह हाल है
मैं साफ हूँ पानी की तरह
तू कीचड़ में लिपटा बुराइयों का नाल है
मुझमें कोई कमी नहीं
मैं कहता अपने बारे में
मैं तो सच का दलाल हूँ
मैं लाजवाब हूँ इस दुनिया में
बाकी सबका बुरा हाल है
इसीलिए बुराई से दुनिया मालामाल है
वह देखते मेरे अन्दर है
मैं देखता उनके अन्दर हूँ
मैं कहता, मैं बुरा नहीं
वह कहता, हम भी निर्मल
बुरे दूसरे, बुरा कहाँ हमारा खयाल है
सब अपने-अपने हिस्से में पावन है
यही बुराई का सवाल है
बुरा कौन है ? बुरी किसकी चाल है ?
दूसरों को बुरा बताने के चक्कर में
दुनिया बुराई का बुना हुआ जाल है।
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अविनाश ब्यौहार
//-नवगीत-//
दंगा-फसाद-थाना-कोर्ट
क्या क्या होता है।
इस दुनिया के चलन देख
विदूषक रोता है।।
फूल का नहीं
कब्जा काँटों का है।
मलाल रिश्तों में
लगती गाँठों का है।।
शिलाखंड को जबकि
दुख का मेघ भिगोता है।
अपराधों की लंबी
फेहरिस्त है।
यहाँ जिंदगी मानो
किस्त किस्त है।।
कल्पतरु खेजड़ी यथा
मरुथल में बोता है।
---
हिंदी ग़ज़ल
-मुक्तिका-
आँखों से जाम पिलाते हैं।
ऐसे महफिलें सजाते हैं।।
आज नेह के सौंधे रिश्ते,
लकड़ी सदृश धुंधुआते हैं।
हर तरफ होगा बिखराव,
ये सब उत्पात बताते हैं।
जिनसे सारी उम्मीदें थीं,
अब कहर वही बरपाते हैं।
नदिया से लहरें रूठीं हैं,
क्योंकि सैलाब क्यों आते हैं।
सूरज पूछता धरा से है,
तिमिर खंडहर को भाते हैं।
होते अगर बाग में उल्लू,
ऐसे बाग उजड़ जाते हैं।
--
//नवगीत//
पहरू बसते हैं
देश के
दिल्ली में।
उनका जीवन
आज हुआ
विलासी।
गरीब का
कलेवा-
रोटी बासी।।
कल्पना-मूर्खता
ज्यों-
शेखचिल्ली में।
है क्रिकेट
में तो
इफरात पैसा।
औ निष्कपट
संसार में
अनैसा।।
एक अनोखा
मजा-
डंडा गिल्ली में
---
मुक्तिका
//हिंदी ग़ज़ल//
मैं हँसना मुस्कुराना .चाहता हूँ।
महफिलें हँसी सजाना चाहता हूँ।।
दुखों के काफिले ही न पास फटकें,
आनन्दोत्सव मनाना चाहता हूँ।
वृक्ष की छाया भी महक जाएगी,
सिर पंथी का छुपाना चाहता हूँ।
जहान में हर्ष का वातावरण हो,
क्षण मंगलमय बुलाना चाहता हूँ।
फैलेगी चाँदनी अमावस में भी,
चाँद एक नया लाना चाहता हूँ।
---
**नवगीत**
जाड़ा ऐसा
पड़ा कि
मौसम हुआ बेहाल।
फाहों सी लगती
नरम नरम धूप।
हुआ निस्तेज
सूर्य का दिव्य रूप।।
पाला और
कुहरा ने
जीना किया मुहाल।
अल्लसुबह झरती
जी भरके ओस।
माघ में जेठ का
ठंडा आक्रोश।।
है मस्ती के पल
बाँटने लगा
नया साल।
--
**नवगीत**
अंधियारे ने
पहन लिया
है ताज।
रौशनी है
गमगीन।
यानि कौड़ी
के तीन।।
भर्रायी
तोते की
मधुर आवाज।
धब्बे पड़े
धूप में।
निरंकुशता
भूप में।।
सहसा
पखेरू पर
झपटा है बाज।
---
-नवगीत-
करते हैं फूल
खुश्बुओं-
की बातें।
भँवरा बना
है गवैया।
खुशियाँ ले
रहीं बलैया।।
हिम से
ठंडी हैं
जाड़े की रातें।
रवि मकर राशि
में आए।
दिन ने
तिल लड्डू खाए।।
करता है
कोहरा-
धूप पर घातें।
**नवगीत**
प्यार की
अर्जी सँजोए
डस्टबिन।
रिश्ते जख्मी
होते हैं।
और चुल्लुओं
रोते हैं।।
दूरियाँ बनाते
हैं किथ
और किन।
भावना सूखी
नदी है।
मौज करती
अब बदी है।।
निगल जाती
बच्चों को
है सापिन।
**दोहे**
लोकतंत्र में आजकल, बाबू रहे दहाड़।
बेशकीमती समय को, झौंक रहे हैं भाड़।।
जाड़े में गर्मी पड़े, गर्मी में बरसात।
ऐसे में कैसे करें, सदाचार की बात।।
दुनिया ऐसी हो गई, जो पाए दुत्कार।
मानव है होने लगा, खुशियों का मुख़तार।।
नीति निपुण इस देश में, फैला है अतिचार।
लोग यहाँ करने लगे, हिंसा का व्यवहार।।
साँप नेवला दोस्त हों, उल्टा हुआ विधान।
बोया पेड़ बबूल का, आमों का अरमान।।
**हिंदी ग़ज़ल**
दुख भरी दास्तान होगी।
आह तीर कमान होगी।।
आशनाई का जमाना,
प्रीत हाय जवान होगी।
बेवफाई हो रही है,
वक्त की पहचान होगी।
बुझ गई है ये जवानी,
जिंदगी अनजान होगी।
है कहानी आज अपनी,
धूप जैसी शान होगी।
**मुक्तक**
सिमटा हुआ प्यार तुम्हारी आँखों में।
झलक रहा खुमार तुम्हारी आँखों में।।
हमने जिया साल का हर एक महीना,
जबकि उतरा क्वाँर तुम्हारी आँखों में।
अविनाश ब्यौहार
जबलपुर म.प्र.
0000000000000
दुर्गेश कुमार सजल
कैंसे सहे होंगे
वह पल विछुड़ने वाले|
जब पत्ता,गिरा होगा शाख से
और रौंदा गया होगा,
पदचापों के द्वारा |
एक आह निकली होगी,
पिसते हुए हृदय से |
रो पड़ा होगा पूरा बृक्ष|
अपने तनय के अवसान पर|
दुर्गेश कुमार सजल
पुरैना कलाँ बनखेड़ी होशंगाबद मध्यप्रदेश
00000000000000
- जितेन्द्र देवतवाल ज्वलंत
*हर्षमय हो नववर्ष*
विकास उत्थान का उत्कर्ष हो।
समृद्ध समर्थ नववर्ष हो।।
राष्ट्रीय एकता सबल हो
सारी योजनाएँ सफल हो
सबके हाथों में श्रीफल हो
चहुदिशी हर्ष ही हर्ष हो
समृद्ध समर्थ नववर्ष हो
देश में अत्याचार न हो कही भी
शोषण का बाजार न हो कही भी
नैतिकता का संहार न हो कही भी
सत्य विजय हेतु संघर्ष हो
समृद्ध समर्थ नववर्ष हो
चरैवेति चरैवेति आस्था रहे
हृदय में जरा भी न व्याथा रहे
राष्ट्र के प्रति श्रद्धा रहे
संकल्प धारण सहर्ष हो
समृद्ध समर्थ नववर्ष हो
सबको सुख अनन्त मिले
बारहों मास ही बसंत मिले
जागृति निनाद दिग्दिगंत गूंजे
मातृ भू की अर्चना शीर्ष हो
समृद्ध समर्थ नववर्ष हो
174/2, 'वन्देमातरम्' आदर्श कालोनी हनुमान मंदिर के पास, शाजापुर (म.प्र.) 465001
00000000000000
प्रिया देवांगन प्रियू
बसेरा
देखो माँ मैने आज अपना बसेरा बनाया ।
तिनका तिनका जोड़ जोड़ अपना घर बनाया।।
कभी भुख न रहने देती,खाना रोज लाती थी।
तुम नही खाती थी माँ , हमे रोज खिलाती थी।।
ठंडी गर्मी बरसात , इन सबसे बचाती थी।
कितनी मेहनत करती थी माँ ,अब समझ मे आया।
देखो माँ मैने आज अपना बसेरा बनाया।।
बरसातों में पेड़ो पर ,छाया तुम लाती थी।
जाड़े के दिनों में हमे , ठंड लगने से बचाती थी।।
छोटे छोटे बच्चे थे माँ , उड़ना हमे सिखाती थी।
कैसे जीना हमें चाहिए, राह नया दिखाती थी।।
देखो माँ मैने आज अपना बसेरा बनाया।
कितनी मेहनत करती थी माँ ,अब समझ मे आया।।
प्रिया देवांगन प्रियू
पंडरिया (कबीरधाम)
छत्तीसगढ़
priyadewangan1997@gmail.com
000000000000000
धीरज शाहू , ' मानसी '
कौन अच्छा कौन बुरा, रहने दो अभी,
अब ये शिकवा गिला, रहने दो अभी.
मुसीबत ना बने ज्यादा होशियारी,
अब ये उम्र, ये तजुर्बा, रहने दो अभी.
बेवजह होगा मेरे नाम का चर्चा,
कुछ बातों पे पर्दा, रहने दो अभी.
तन्हाई से करनी है कुछ गुफ्तगू,
तन्हाई के साथ तन्हा, रहने दो अभी.
हवा लगे तो सांस मिले, मानसी,
जख्मों को यू ही खुला, रहने दो अभी.
धीरज शाहू , ' मानसी '
कलमना, नागपुर - 440024 ( महाराष्ट्र )
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सत्यम तिवारी
मुझे कभी यह कश्मीर अपना
जन्नत सा लगा नहीं,
तू ही बता किसकी खता है
वादी ए मन्नत सा लगा नहीं,
जानता हूं लोग कहेंगे
यह भी क्या मुमकिन है,
सुनेंगे मेरी बात जब
मुझे भी तुझ सा ही कहेंगे
लेकिन मैं चाहता हूं
चाहे तो निहार घाटी को
पर कोई कली ना तोड़
चाहना बुरा नहीं है
पर कोई बारूद ना छोड़
देख मैं कहता था ना
बात बहुत लंबी है
किसी गोली से
सिर्फ बोली से
नहीं कही जा सकती
सात समंदर की स्याही से
लालघाटी की गवाही से
नहीं लिखी जा सकती
कैसे भूल सकता है तू
यह तेरा घर भी था
और हम कैसे भूल जाए
वहां कभी अपना शहर भी था
इसलिए कहता हूं
कुछ तू छोड़ दे, कुछ हम जोड़ दें
इस नफरत की सरहद को
हमेशा हमेशा के लिए तोड़ दें
हमारे मिलने की तारीख
वैसे तो किसी साल में नहीं है
बस एक बात और कहनी थी
मुल्क अब इस हाल में नहीं है।
सत्यम तिवारी(वाराणसी)।
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स्मृति झा
(( सेल्फी))
सेल्फी ले लो रंग रंग की सेल्फी ले लो
चाहे ऐसे चाहे वैसे हर ढंग की सेल्फी ले लो।
नये दौर का फैशन है आजमाना ही पड़ेगा
न चाहते हुए भी सेल्फी खींचवाना ही पड़ेगा।
बिन सेल्फी के अधूरे हैं घर का पार्टी फंक्शन
हर तरह इसके है जलवे एयरपोर्ट हो या रेलवे जंक्शन।
हर प्राणी का आत्मविश्वास बढ़ाती है सेल्फी
ब्यूटी प्लस से सबको खूबसूरत बनाती है सेल्फी।
चलो इसी बहाने सब मुस्कुराते तो हैं
खुद से अपना परिचय करवाते तो हैं।
लोग पहाड़ों पर चढ़ते हैं पानी में कूदते हैं
अच्छे लोकेशन के लिए कोई मौका नहीं चूकते हैं
यू कहे तो सेल्फी का सनक सवार हो गया है
अच्छा खासा आदमी भी बीमार हो गया है।
भले ही जिंदगी के लिए मजबूरी बन गया है
सेल्फी जीने के लिए जरूरी बन गया है ।
स्मृति झा
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कृष्ण कुमार
हाल नहीं कुछ ठीक है वन का,
सब जीव रहे कर अपने मन का ।
घृणा सर्प अवलंब ले चढ़ा प्राणी मन की तीव्र जलन का,
विश्वास प्रेम पंछी बन भागे जहरीला रुख देख पवन का,
हाल नही कुछ ठीक है वन का ।
भांति भांति के जीव बसे इस सुंदर वन के भीतर ,
मोर-पपीहा तोता-मैना कौवा - कोयल – तीतर,
पंछी रंग-बिरंगे हैं लेकिन सदियों का वास है इनका,
पर,कुछ दुर्बुद्धि विषय बनाते, भोजन भाषा रूप वर्ण का,
हाल नहीं कुछ ठीक है वन का ।
कुछ जंगलों में बदला मौसम, बदली चाल हवा पानी की,
जिनको रास नहीं आई वो, उड़ आये बनकर प्रवासी
घृणा घुली थी आब हवा में, लालच ने भड़काया था,
इस विषधर से ही जान बचाने, झुंड यहाँ पर आया था,
नफरत लालच के घोड़े पर करती सदा सवारी है,
जो करके नष्ट कई वन को, इस वन में आन पधारी है,
दुष्ट गुणों के सम्मुख सारी सद्गुणता बेचारी है,
घृणा सर्प ने जकड़े कौवें, नफरत बनी शिकारी है,
अब कौवें काँ काँ शोर मचाते ,भय दिखला अधिकार हनन का,
राग विलाप अलाप नया, है सार खो रहे अपनेपन का,
हाल नहीं कुछ ठीक है वन का ।
मूक देखतें मोर पपीहा इन कौवों पर रोक नहीं क्या ?
हे वनराज तुम्हीं कुछ बोलो वन को इस पर शोक नहीं क्या ?
आज ये कौवें, कल बगुलें सब, ऐसे रुख अपनाएंगे ,
शांतिवन के निर्माता फिर, कैसे विपदा हल पायेंगे,
कर खोज, नाश करना होगा अब, विषधर के ही उद्गम का,
ये सर्प दर्प का रूप धारकर, नाश कर रहा है वन का।
हाल नहीं कुछ ठीक है वन का ।
-- कृष्ण कुमार
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निज़ाम-फतेहपुरी
ग़ज़ल- 212 212 212 212
फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
ज़ुल्म कितना वो ज़ालिम करेगा यहाँ।
तख़्त से वो भी इक दिन हटेगा यहाँ।।
जितने आए थे पहले चले सब गए।
जो भी पैदा हुआ वो मिटेगा यहाँ।।
ताज तेरा रहा है न मेरा रहा।
वक्त के साथ हर दम फिरेगा यहाँ।।
आग नफ़रत की मिलके बुझायेंगे हम।
भाई भाई गले फिर मिलेगा यहाँ।।
बाद पतझड़ के आती बहारें सदा।
फिर से गुलशन हमारा खिलेगा यहाँ।।
काम ऐसा करो की ख़ुदा ख़ुश रहे।
लेके जाएगा क्या जब मरेगा यहाँ।।
संविधान आज है तो निज़ाम आज है।
देश सबका है सबका रहेगा यहाँ।।
--
ग़ज़ल- 221 221 22 1222
अरकान- मफ़ऊल मफ़ऊल फ़ैलुन मुफ़ाईलुन
हम तो समझते थे हम एक उल्लू हैं।
जब रात घूमे दिखे अनेक उल्लू हैं।।
इन उल्लुओं में भी इक सेक उल्लू हैं।
कुछ तो यहाँ बाई मिसटेक उल्लू हैं।।
महफ़िल में उल्लू कि हर एक उल्लू हैं।
फर्जी है डिग्री जो बी टेक उल्लू हैं।।
इस दौरे उल्लू में उल्लू ही उल्लू हैं।
तुम ही नहीं भक्तों इक सेक उल्लू हैं।
जब रहनुमा अपना उल्लू ही चुनना है।
फिर क्यों नहीं चुनते जो नेक उल्लू हैं।।
निज़ाम-फतेहपुरी
ग्राम व पोस्ट मदोकीपुर
ज़िला-फतेहपुर (उत्तर प्रदेश)
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- नाथ गोरखपुरी
01-
जी भर के रोने को, जी चाहता है
उम्र भर सोने को , जी चाहता है
अंधेरे के पनाहगाह में, ठहरा रहा
अब सुबह होने को, जी चाहता है
उम्र भर समेटा है जो कुछ भी मैंने
झटके से खोने को , जी चाहता है
हो कोई बारिश , की तन ना भीगे
मन को भिगोने को , जी चाहता है
इक नाम तेरा ,जब है जग में सच्चा
तो क्यों चांदी सोने को,जी चाहता है?
कर पद के पांचों को, योगी बनाके
ना जग में बोने को , जी चाहता है
मन का हिमालय , जो है मेरे अंदर
कोई शिव संजोने, को जी चाहता है
कोई राम तो, मेरे तट पर भी आए
'नाथ' चरण धोने को, जी चाहता है
02-
कभी कागज कलम से भी कमाल कीजिए
झूठ तिलमिला जाए , जरा सवाल कीजिए
आप देख रहे हैं , गुनाह फैलते हुए
कभी अपनी ख़ामोशी पे भी मलाल कीजिए
सच अगर कहने को , हिम्मत नहीं जनाब
तो झूठ की भी दोगुनी , ना चाल कीजिए
क्यों मारे गए मासूम , कुर्सी के ख्वाब पे
सियासत सियासतदां का, बुरा हाल कीजिए
03-
सबकी अपनी इक है दुनिया
सबका अपना इक है कोना
सब ही नजर उतारेंगें तो
कौन करेगा जादू-टोना
माना तू है घणी सुंदरी ,
जुल्फ घनेरे बादल है
पूरनमासी चेहरा तेरा ,
रात अमावस काजल है
पर कौन उठाएं नखरे तेरे ,
कौन करेगा चोना मोना
सब ही नजर उतारेंगें तो
कौन करेगा जादू-टोना
हिरनी जैसी तूँ बलखाती ,
सागर सी लहराती है
भौंरो जैसा मैं आऊँ तो,
फूलों सा इठलाती है
ना रे बाबा अब ना होगा ,
तेरे पीछे रोना धोना
सब ही नजर उतारेंगें तो
कौन करेगा जादू-टोना
देख के सूरत प्यारी तेरी ,
लाखो सूली चढ़ जाते
सब कुछ अपना खो देते,
जब तेरे पीछे पड़ जाते
खाना पीना भूल चुके हैं ,
भूल गए हैं जगना सोना
सब ही नजर उतारेंगें तो
कौन करेगा जादू-टोना
तुझको चाहिए चांद औ तारे,
मैं मिट्टी बोने वाला
तू सपनों की राजकुमारी ,
मैं मिट्टी सोने वाला
मैं मिट्टी का घणा पुजारी,
कैसे कहूंगा बाबूसोना
सब ही नजर उतारेंगें तो
कौन करेगा जादू-टोना
तेरे ख़्वाब हैं महलों वाले,
मैं आदी हूँ गरीबी का
तू दूर दिखावा करने वाली,
मैं आशिक हूँ करीबी का
पास नहीं है कभी तू आती,
खाली कहती मेले छोना
सब ही नजर उतारेंगें तो
कौन करेगा जादू-टोना
---
01-
कौन है वो जो धरा पर ,
प्रलय और उत्पात बोता।
कौन है वो ब्रह्म वंशज,
जो धरा पर ,ज़ात बोता।
देव बन के जो सभी को
असुर वाणी बोलता है
हाथ में अमृत लिए पर
गर्व गरल घोलता है
सृष्टि के सृजन नियम को
तोड़ देता कौन है वो
कौन है वो जो जनों में
स्वार्थ और है घात बोता
गर्भ से है जो जना पर
गर्भ को धिक्कारता है
अपनी युक्ति को लगा
उस गर्भ को ही मारता है
मनुज की गरिमा गिराता
जन लजाता कौन है वो
कौन है वो नित्य नितनित
अहं और अभिमान बोता
दृष्टि दे नभ में निरेखो
अगणित हैं चाँद तारे
क्या कभी रोते दिखे वो
या लजाते जाति मारे
सृष्टि बंधन खोलके फिर
कौन है भ्रम में डुबोता
कौन है वो जो धरा पर ,
प्रलय और उत्पात बोता।
इंसान की औलाद हो तो
इंसा जैसा गुण दिखाओ
श्रेष्ठ ग़र बनते हो जो तुम
कुछ श्रेष्ठ कर्म कर जाओ
स्वार्थ के वशीभूत होकर
करुण क्रंदन छोड़ दो तुम
है सदी इक्कीसवीं अब
जाति बंधन तोड़ दो तुम
02-
उड़ी उमंग पतंग है , चली गगन की ओर।
ना तो इसका ओर है, ना है कोई छोर।।
ना है कोई छोर , बस उड़ती ही जाए।
चाहे अंबर को छूना, पर अंबर कब पाए।।
पल में परदेशी बनती,पल में घर को मुड़ी।
मानव मन के भांति ही,ये पतंग भी उड़ी।।
मन बहुरंग पतंग है , स्थिर ना है होत।
मानस मन अनंत है, ना है इसका पोत।।
ना है इसका पोत , करे कहाँ विश्राम।
कबो कहे कि राम को, कहे कबहु हे राम।।
चाहे कबो कि दुर करे, माया तृस्ना धन।
पर स्थिर ना होत है , मानव का ये मन ।।
03-
गरज़ ये नही कि तुम मेरा सज़दा करो साहिब।
हम सज्दे की ख्वाइश ,नस्ल देखकर ही करते हैं ।1।
तेरा धर्म तेरा कर्म , तेरी वाणी पे निर्भर है।
तू किसकी पैदाइश है ,लफ्ज़ ये बोल देते हैं।2।
संस्कारों की ताबीज ही , व्यवहार गढ़ती है।
रूआबों से शख्सियत का, अंदाजा हो ही जाता है।3।
04-
डर लगता है
वही मंसूबा। है , वही इरादा है
इसलिए फिर तेरा, एक और वादा है
सियासी पैंतरों से ,छलते रहे हो तुम
गिरफ्त में तेरे , हर एक प्यादा है
स्याह रंगों से रंग चुका है, दामन तेरा
बद्दजुबानी है तेरी , लिबास सादा है
है सियासी हलचल , फितरत में तेरी
पर आवाम समझती है, नेक इरादा है
- नाथ गोरखपुरी
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जीवन दान चारण 'अबोध'
शीर्षक- हिन्द का गणतंत्रीय उपहार
विधा- पद्य :- तुकांत मुक्तक
विषय- *गणतंत्र दिवस* (२६जनवरी)
रचनाशिल्पी नाम-जीवन दान चारण 'अबोध'
डाक पता - सूरजपोल करनी मंदिर पोकरण
समृद्ध भारत महान है!
गणतंत्र भारत महान है!!
सर्व धर्म समभाव सदा से
भारत की पहचान!
हिमगिरि से सागर तक गूंजे
भारत का जय-गान!!
हम भारत के वीर सिपाही
आगे बढ़ते जायेंगे!
अपने साहस, शौर्य से
भारत का मान बढ़ाएंगे!!
आतंकवादी अवसरवादी,
आने से टकराते हैं!
आ गए मेरी भूमि में,
तहस-नहस हो जाते हैं!!
क्या करना है क्या नहीं,
ये संविधान हमें बतलाता है!
भारत में रहने वालों का,
सभी से गहरा नाता है!!
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई,
सब हैं यहाँ भाई-भाई!
सबसे पहले संविधान ने,
बात हमें यह सिखलाई!!
इसके बाद बतायी बातें,
जन-जन के हित वाली है!
पढ़ने में ये सब बातें,
लगती बड़ी निराली है!!
लेकर शिक्षा कहीं, कभी भी,
ऊँचे पद पा सकते हैं!
और बढ़ा व्यापार नियम से,
दुनिया में छा सकते हैं!!
देश उलझ रहा है मित्रों,
राजनीति के वादों में..
आओ हम मिलजुल कर,
ये उलझन सुलझाते हैं...।
लेकर सत्ता संविधान से,
शक्तिमान हो सकते हैं!
और देश की इस धरती पर,
जो चाहे कर सकते!!
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आलोक कौशिक
*सरस्वती वंदना*
हम मानुष जड़मति
तू मां हमारी भारती
आशीष से अपने
प्रज्ञा संतति का संवारती
तिमिर अज्ञान का दूर
करो मां वागीश्वरी
आत्मा संगीत की
निहित तुझमें रागेश्वरी
वाणी तू ही तू ही चक्षु
मां वीणा-पुस्तक-धारिणी
तू ही चित्त बुद्धि तू ही
कृपा करो जगतारिणी
विराजो जिह्वा पे धात्री
हे देवी श्वेतपद्मासना
क्षमा करो अपराधों को
स्वीकार करो उपासना
:- आलोक कौशिक
संक्षिप्त परिचय:-
नाम- आलोक कौशिक
शिक्षा- स्नातकोत्तर (अंग्रेजी साहित्य)
पेशा- पत्रकारिता एवं स्वतंत्र लेखन
साहित्यिक कृतियां- प्रमुख राष्ट्रीय समाचारपत्रों एवं साहित्यिक पत्रिकाओं में दर्जनों रचनाएं प्रकाशित
पता:- मनीषा मैन्शन, जिला- बेगूसराय, राज्य- बिहार, 851101,
अणुडाक- devraajkaushik1989@gmail.com
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महेन्द्र देवांगन "माटी"
सेल्फी
*************
जिधर देखो उधर, सेल्फी ले रहे हैं ।
ओरिजनल का जमाना गया,
बनावटी मुस्कान दे रहे हैं ।
भीड़ में भी आदमी आज अकेला है
तभी तो बनावटी मुस्कान देता है ।
और जहाँ भीड़ दिखे वहाँ
खुद मुस्करा कर सेल्फी लेता है ।
भीड़ में दिख गया कोई अच्छी सी लड़की
तो आदमी पास चला जाता है ।
चुपके से सेल्फी लेकर
अपने दोस्तों को दिखाता है ।
दिख गया कहीं जुलूस तो
लोग आगे आ जाते हैं ।
और एक सेल्फी लेकर
पता नही कहां गायब हो जाते हैं ।
खाते पीते उठते बैठते
लोग सेल्फी ले रहे हैं ।
मैं समाज के अंदर हूँ
ये बतलाने फेसबुक और
वाटसप पर भेज रहे हैं ।
सच तो ये है
आदमी कितना अकेला हो गया है ।
एक फोटो खींचने वाला भी
नहीं मिल रहा
इसीलिए तो सेल्फी ले रहा है ।
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जीवन इसका नाम
( सरसी छंद)
जीवन को तुम जीना सीखो , किस्मत को मत कोस ।
खुद बढकर तुम आगे आओ , और दिलाओ जोश ।।
सुख दुख दोनों रहते जीवन , हिम्मत कभी न हार ।
आगे आओ अपने दम पर , होगी जय जयकार ।।
सिक्के के दो पहलू होते , सुख दुख दोनों साथ ।
कभी गमों के आँसू बहते , कभी खुशी हैं हाथ ।।
राह कठिन पर आगे बढ़ जा , मंजिल मिले जरूर ।
वापस कभी न होना साथी , होकर के मजबूर ।।
अर्जुन जैसे लक्ष्य साध लो , बन जायेगा काम ।
हार न मानो कभी राह में , जीवन इसका नाम ।।
जीवन एक गणित है प्यारे , आड़े तिरछे खेल ।
गुणा भाग से काम निकलता , होता है तब मेल ।।
हँसकर के अब जीना सीखो , छोड़ो रहना मौन ।
माटी का जीवन है प्यारे , यहाँ रहेगा कौन ?
---
बिन मौसम बरसात
बिन मौसम अब बरसा होवय, गिरय झमाझम पानी ।
धान पान हा कइसे बाँचय , होय करेजा चानी ।।
खेत खार मा करपा माढय , होवत हे नुकसानी ।
कइसे लानय अब किसान हा, बुड़गे सब्बो पानी ।।
माथा धरके बइठे हावय, रोवय सबो परानी ।
धान पान हा कइसे बाँचय, होय करेजा चानी ।।
करजा बोड़ी अब्बड़ हावय , छूट कहाँ अब पाबो।
धान पान हा होवय नइहे, काला अब हम खाबो ।।
खरचा चलही कइसे संगी , कइसे के जिनगानी ।
धान पान हा कइसे बाँचय , होय करेजा चानी ।।
बिन मौसम अब बरसा होवय, गिरय झमाझम पानी ।
धान पान हा कइसे बाँचय , होय करेजा चानी ।।
महेन्द्र देवांगन "माटी"
गोपीबंद पारा पंडरिया
जिला - कबीरधाम
छत्तीसगढ़
mahendradewanganmati@gmail.com
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डॉ0 चिरोंजीलाल यादव
साहसी बनकर करो हर काम कर सकते हो तुम।
उदधि मथकर भी अमिय का पान कर सकते हो तुम।
कौन सा वह काम जिसको तुम नहीं कर पाओगे।
भानु को लाकर धरा की गोद धर सकते हो तुम।
डॉ0 चिरोंजीलाल यादव (प्रधानाचार्य)
मैनपुरी।
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डॉ कौशल किशोर श्रीवास्तव
तन का व्यापार
हम अपने तन को बेच रहे इस पेट की आग बुझाने को
वह आते निकट हमारे हैं तन मन की आग मिटाने को
वे हमें नोचते हैं उसमें क्या सरकारी आपत्ति है
पैसों की खातिर और लोग बिकते हैं चार कमाने को
उनका तो टैक्स माफ होता हमसे तो टैक्स लिया जाता
और चाहे जब कुछ इंस्पेक्टर आ जाते हैं धमकाने को
कुछ पैसों के कारण ही हम उनके बच्चों को पाल रहे
ना जाने किन के बच्चे हैं , है हम असमर्थ बताने को
या तो हमको बाजार अलग सरकार मुहैया करवाए
या हमको जिंदा रहने दे या फिर छोड़े मर जाने को
अरे कौन हमारी बीमारी या तिल तिल कर मर जाने पर
बैठा है सिरहाने आकर कुछ सिर पर हाथ चलाने को
जैसे हो सड़े अंग तनके हमको तुम अलग बसाते हो
हमको भी तुमही बनाते हो फिर लगते हमें गिराने को
बचपन में ही क्रय करते हो या हमें चुराते हो घर से
करते हो रोज दलाली फिर हमरे तन को बिकवाने को
हम भूले बापू का साया मां की ममता क्या थी भूले
होती है भूले गुड़िया क्या लग जाते बदन जलाने को
हम तो यज्ञों की वेदी हैं क्यों हमसे नफरत करते हो
हम तो जलते रहते निशदिन रोको जलते परवाने को
डॉ कौशल किशोर श्रीवास्तव
171 विशु नगर , परासिया मार्ग
छिंदवाड़ा , मध्यप्रदेश 480001
000000000000000
प्रभुदयाल मोठसरा(शि.)
दुआएं
कितना आसान है लेना
दुआएं
बस मैं को छोड़ना पड़ता
बनना पड़ता है हम
हाथ पड़ता बढ़ाना
छोड़ कर निज हित
और तब खिल जाते
मन के पुलकित छोर
और निकल पड़ती है
दुआएं...
एक दुःखी हृदय की
ख़ुशकामना
ज्यादा मुश्किल नही पर
खुद को हम होना
आसान भी नही..
फिर भी एक कोशिश करना
किसी की
खुशी का संबल बन
कितना आसान है लेना
दुआएं !
-प्रभुदयाल मोठसरा(शि.)
सरदारपूरा खालसा(हनुमानगढ़)
000000000000
- मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
हम बच्चे मिलकर
----------------------
कूड़ा करकट यहाँ-वहाँ मत फैलाओ
कूड़ेदान में ही कूड़ा डाल के आओ
आओ-आओ प्यारे-प्यारे बच्चों आओ
एकसाथ मिलकर भारत स्वच्छ बनाओ
स्कूल हो या घर, सड़क हो या मैदान
सर्वत्र चलायें स्वच्छता अभियान
स्वच्छ रहे परिवेश हमारा करलो ये प्रण
निश्चय ही बलवान बने अपना तन-मन
बापू ने स्वच्छता की अलख जगाई थी
मोदीजी ने पुन: हम सबको याद दिलाई थी
कभी खुले में शौच नहीं करेंगे भाई
शौच के बाद साबुन से करेंगें हाथ धुलाई
गली-मुहल्लों में कीचड़ न बनने देंगे
मच्छर-मक्खी,कीट पतंगे न पलने देंगे
हम बच्चे मिलकर नया भारत बनायेंगे
स्वच्छता अभियान को सफल बनायेंगे
- मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
ग्राम रिहावली, डाक तारौली,
फतेहाबाद, आगरा, 283111
000000000000000
भाऊराव महंत
01
खुद को मैली देखकर, गंगा हुई उदास।
निर्मल जलधारा नहीं, पहले जैसी पास।।
02
गंगा तुम भोली बड़ी, करती सबसे प्यार।
सज्जन हो या दुष्ट हो, करती हो उद्धार।।
03
फैली कैसी गंदगी , गंगा जी के तीर।
रहा न पीने योग्य भी,निर्मल-शीतल नीर।।
04
धवल-दुग्ध से नीर को, बना दिया विष आज।
गंगा को गंदा करे, उद्योगों का राज।।
05
गंगा को माँ कह रहे, माँ - सा करें न प्यार।
लाभ हेतु निज मातु की, मोड़ रहे जलधार।।
06
गंगा जल धारा बहे, कल-कल करे निनाद।
भारत माँ की वंदना, करती भर उन्माद।।
07
पिता हिमालय-सा बड़ा, खेले गंगा गोद।
इठलाती या कूदती, करती रहे विनोद।।
08
निर्धन अरु धनवान की, जीवन का आधार।
करती है गंगा नदी, माता जैसे प्यार।।
09
मोक्षदायिनी माँ वही, करती पर उपकार।
छाया तीनों लोक में, गंगा का विस्तार।।
10
करें विसर्जन अस्थियाँ, गंगा में सब लोग।
कैसा है विश्वास यह, कैसा है यह रोग।।
भाऊराव महंत
बालाघाट मध्यप्रदेश
00000000000000
स्नेहलता त्रिपाठी बिष्ट
हर पुरुष बलात्कारी नहीं होता......
असल में तुम ज़िंदा जिस्म में मुर्दा हो
मत इतराओ कि
तुमने नारी का ही बलात्कार किया है।
तुम बलात्कार करते हो हर रोज़
अपनी आत्मा का..अपनी रूह का
अपनी परवरिश का,अपने पुरुषत्व का।
पुरुष के नाम पर तो तुम कलंक हो
क्योंकि तुम ज़िंदा जिस्म में मुर्दा हो।।।।
तुमने तोड़ा है विश्वास नारी का
ओ बलात्कारी पुरुष।
तेरे इस कृत्य से ,
हज़ारों पुरुषों की नज़र शर्म से झुक गयी हैं।
वो विश्वाश खो रहे हैं ..
अपने निश्वार्थ प्रेम का,नारी की नज़रों का
उनके मदद से बढ़ाये हाथों पर भी,
तूने प्रश्नवाचक चिन्ह लगा दिया है।
तेरे इस कृत्य ने ,
उनकी निश्वार्थ भावनाओं का भी
बलात्कार कर दिया है...बलात्कार कर दिया है।।।।
स्नेहलता त्रिपाठी बिष्ट
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
0000000000000
-मिन्नी शर्मा
समीक्षा
मन में उछली है इक इच्छा
बताऊं तुम्हें कथा करोगे समीक्षा ?
मैं कुछ पाना चाहती हूं तुरंत ही
होती नहीं मुझसे प्रतीक्षा ।
पाना चाहूं जिसे वो पास नहीं
दूर-दूर तक उसके मिलने की कोई आस नहीं
फिर भी ढूंढ लाऊं उसे
कहां पाऊं ऐसी दीक्षा ।
मन में उछली है एक इच्छा
बताऊं तुम्हें कथा करोगे समीक्षा ?
मैं जानना चाहती हूं तुरंत ही
क्या होगी इस क्रिया की प्रतिक्रिया ।
लाना चाहूं जो काफी खास है
पर अभी भी तो पास त्रास है
फिर भी जूझ रहूं उसके लिए
क्या है मेरी ऐसी शिक्षा ।
मन में उछली है एक इच्छा
बताऊं तुम्हें कथा करोगे समीक्षा ?
तो कथानक तो तुम जानते हो
पर क्या इसकी गति जान सकते हो
और क्या मेरी एक बात मान सकते हो
पात्रों के चरित्र पर थोड़ा प्रकाश डाल सकते
हमारी बातचीत का कोई आशय निकाल सकते हो
क्या वो ‘प्रेम’ है ;
या तुम्हें लगे शीर्षक अन्य कोई अच्छा ।
तुम्हारे तेजमयी ललाट के आकार के जितनी है ये
तुम सुना सको तो बस बात इतनी है ये ‘प्रेमकथा’ ।
जाना चाहूं जहां वो बहुत दूर है
और मुझे बुलाया भी नहीं गया
फिर भी पूरी कर लूं उससे बिना पूछे
क्या इतनी सही है मेरी समीक्षा ?
मन में उछली है इक इच्छा ।
-मिन्नी शर्मा
000000000000000
सलिल सरोज
क़त्ल हुआ और यह शहर सोता रहा
अपनी बेबसी पर दिन-रात रोता रहा ।।1।।
भाईचारे की मिठास इसे रास नहीं आई
गलियों और मोहल्लों में दुश्मनी बोता रहा ।।2।।
बेटियों की आबरू बाज़ार के हिस्से आ गई
शहर अपना चेहरा खून से धोता रहा ।।3।।
दूसरों की चाह में अपनों को भुला दिया
इसी इज्तिराब में अपना वजूद खोता रहा ।।4।।
जवानी हर कदम बेरोज़गारी पे बिलखती रही
सदनों में कभी हंगामा, कभी जलसा होता रहा ।।5।।
बारिश भी अपनी बूँदों को तरस गई यहाँ
और किसान पथरीली ज़मीन को जोता रहा ।।6।।
महल बने तो सब गरीबों के घर ढह गए
और गरीब उन्हीं महलों के ईंट ढोता रहा ।।7।।
---
दवा करो तो फिर दुआ भी करो
मन की आँखों से छुआ भी करो
आग लगाने का जूनून है तो फिर
अपने जाहिलपन को धुआँ भी करो
कलेजे पे चढ़के बैठे हो इस ज़मीं के
मोहब्बत में ये जिस्म रूआँ* भी करो
अदबो-ओ-रिवाज़ का पुतला बना रखा है
बच्चों के साथ बच्चे कभी हुआ भी करो
कहते हैं कि बड़े-बड़े शहर बसाए हैं तुमने
अपने गाँव में एकाध ही सही कुआँ भी करो
बहुत सारी द्रौपदियों को हार चुके हो तुम
हिम्मत लगा कर खुद पर जुआ भी करो
*रूआँ-घास
--
अभी आँखें बंद रहे तो ही सही है
ख़्वाब नज़रबंद रहें तो ही सही है
मसअला है तेरे और मेरे बीच का
सलीका हुनरमंद रहे तो ही सही है
जो भी लहजा है तेरे इख़्तियार में
मुझे भी पसंद रहे तो ही सही है
मैं दरिया हूँ तो अपनाना था मुझे
तू कोई समंदर रहे तो ही सही है
कब तक हिफाज़त कर पाऊँगा
तू मेरे अन्दर रहे तो ही सही है
मैं बसा लूँ तुझे मूरत की तरह
तू भी मंदिर रहे तो ही सही है
सलिल सरोज
नई दिल्ली
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अशोक बाबू माहौर
मैं यहाँ नहीं रहूँगा
मैं अब
यहाँ नहीं रहूँगा?
चला जाऊँगा
दूर कहीं,
जहाँ छाया
किसी अन्यायी की न हो
दबंग की तबाही भी न हो
बस शांत माहौल
भाईचारा गूढ़ हो।
पर कहाँ?
ठगा सा खड़ा
मैं सोचता हूँ
कहाँ जाऊँ?
कहीं नहीं?
घुट घुट जीता हूँ
गम पीता हूँ
फिर यहीं ठहर जाता हूँ
ढ़ह जाता हूँ
नाजुक सा।
परिचय
अशोक बाबू माहौर
साहित्य लेखन :हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं में संलग्न।
प्रकाशित साहित्य :हिंदी साहित्य की विभिन्न पत्र पत्रिकाएं जैसे स्वर्गविभा, अनहदक्रति, साहित्यकुंज, हिंदीकुुुंज, साहित्यशिल्पी, पुरवाई, रचनाकार, पूर्वाभास, वेबदुनिया, अद्भुत इंडिया, वर्तमान अंकुर, जखीरा, काव्य रंगोली, साहित्य सुधा, करंट क्राइम, साहित्य धर्म, रवि पथ, पूर्वांचल प्रहरी, हरियाणा प्रदीप जय विजय, युवा प्रवर्तक, ट्रू मीडिया, अमर उजाला, सेतु हिंदी, कलम लाइव, जयदीप पत्रिका, सौराष्ट्र भारत आदि में रचनाऐं प्रकाशित।
सम्मान :
इ- पत्रिका अनहदक्रति की ओर से विशेष मान्यता सम्मान 2014-15
नवांकुर साहित्य सम्मान
काव्य रंगोली साहित्य भूषण सम्मान
मातृत्व ममता सम्मान
साहित्य विचार प्रतियोगिता आदि
प्रकाशित पुस्तक :साझा पुस्तक
(1)नये पल्लव 3
(2)काव्यांकुर 6
(3)अनकहे एहसास
(4)नये पल्लव 6
(5)काव्य संगम
(6)तिरंगा
अभिरुचि :साहित्य लेखन।
संपर्क :ग्राम कदमन का पुरा, तहसील अम्बाह, जिला मुरैना (मप्र) 476111
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डॉ कन्हैया लाल गुप्त 'शिक्षक'
सलाह
सलाह श्रीकृष्ण ने भी दुर्योधन को हस्तिनापुर की राजसभा में दिया था।
परन्तु दुष्ट दुर्योधन ने वह नेक सलाह कहाँ थी।
महाभारत जैसी विभीषिका का परदायी कौन बना?
अबला द्रौपदी की श्राप किन पीढ़ियों को भोगनी पड़ी।
शत बंधुओं को भी इस अभिशाप से क्यों न बचा पाया दुर्योधन।
दानी कर्ण को भी निहत्था अपने प्राण गवाने पड़े।
कर्ण भी अभिमान वश मित्र दुर्योधन को कहाँ परामर्श दिया।
जिससे मानवता का यह संत्रास मिटाया जा सके।
सलाह न मानने का यह दुष्परिणाम मानवता को भुगतना ही पड़ता है।
वरना मानवता नि:संदेह वरदान प्राप्त कर सकती है।
सलाह में संरक्षण छिपा रहता है। जो अनिष्ट होने से भुवन बचाती है।
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23. माँ शारदे की भक्ति
माँ शारदे की भक्ति से बन जाते सारे काम।
माँ शारदे के भक्तों को कन्हैया का प्रणाम।
विद्या, व्यवहार सीख दे हमको बनाया तुने।
दे भक्ति, श्रद्धा,ज्ञान से हमको सजाया तुने।
तेरा ही गुणगान कर माँ हम बने महान।
तेरी दरश की कृपा से है बनते सारे काम।
माँ ज्ञान दे माँ भक्ति दे कर जाये हम कुछ काम।
माँ भारती की सेवा कर देश को बढ़ाने का काम।
हो जहाँ पर पाप अधम उसको मिटाये हम।
ले तेरा आशीष हम खुद को सजाये हम।
बस यूँ ही होता रहे सबका उत्तम काम धाम।
निज देश में बढ़ता रहे उत्तम सबका सम्मान।
माँ शारदे की भक्ति से बन जाते सारे काम। म
माँ शारदे के भक्तों को कन्हैया का प्रणाम।
डॉ कन्हैया लाल गुप्त 'शिक्षक'
उत्क्रमित उच्च विद्यालय ताली, सिवान, बिहार 841239
पता- आर्य चौक- बाजा़र भाटपाररानी, देवरिया उत्तर प्रदेश 274702
ईमेल guptasar.gupta79@gmail.com
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डॉ0 मृदुला शुक्ला "मृदु"
नवल वर्ष में नवल गीत हो,
नवल प्रीति और,नवल रीति हो।
मृदु मैत्री नित आह्लादक हो,
गंगाजल-सी धवल नीति हो।।
सतत प्रवाहित हो यह जीवन,
निर्मल,शान्त, विमल हो यह मन।
उर मिल कर अन्तस हो मुखरित,
तन पुलकित,हर्षित मृदु मन हो।।
छाए चहुँ दिशि शान्ति, एकता,
पग-पग पर हर आस प्रखर हो।
फैले पर उपकार – भावना,
सत्यं, शिवं, सुन्दरं जग हो ।।
द्विजजन हों नित धर्म परायण,
विद्वद्जन कर्तव्यलीन हों ।
राष्ट्र-ऐक्य हो धर्म सर्वोपरि,
धर्मनिरपेक्ष ये जन-गण-मन हो।।
कवयित्री
डॉ0 मृदुला शुक्ला "मृदु"
लखीमपुर-खीरी (उ0प्र0)
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नरेंद्र भाकुनी
अपने आदर्श
चाहे बंधन कैसे हो
अपने दिलों से जोड़ेंगे।
पृथ्वीराज के प्रेमी है
तीर तो निशाने पर ही छोड़ेंगे।
अपने दिलों की आग है
कैसे भी सुलझाएंगे।
कब तक ये दुश्मन हमें उलझाएंगे।
महा राणा प्रताप के प्रशंसक हैं हम_
“जहां तक भी भागेंगे भाला वहीं तक फेकेंगे”
मारो_ मारो, काटो_काटो
कुछ भी मिलें पर वहीं पर बांटो।
फैली हुई थी आग की लपटें
मार दो दुश्मन अपने हाथों।
यहीं क्रांति की चिंगारी से आग लगाने आया हूं।
सोए हुए इतिहास के पन्ने
फिर से पलटने आया हूं।
जन_धारा है जनमानस
मैं नाम नरेंद्र लेता हूं,
युवा_रूप जो आदर्श हमारे
मैं विवेकानन्द को कहता हूं।
---
अनमोल बचपन
इसी काव्य की धारा लेकर
कैसी है जो संरचना।
इन बच्चों की अखिल कांति की
लिखी है मैंने रचना।
अखिल लोक का सूरज बनकर
पत्तों में भी जान।
लहराती है , बलखाती है
फूलों में मुस्कान।
कई जवानी बीत गई हैं
हो गए जब पछपन की।
कभी अकेले बैठकर देखो
याद आयेगी बचपन की।
इस बचपन में खो जाते हैं
गाओ गीत मनोहर।
हम भी गाते, तुम भी गाते
कितने स्वच्छ_सरोवर।
मेरे कलम के सुंदर पन्ने
अद्भुत साझा करती हैं।
कहीं तो इसकी अनुपम छाया
यादें ताजा करती है।
--
सच्चे युवक की अभिलाषा
काश कहीं पर हम भी होते
तीर_तीर बरसाते।
युद्ध_भूमि महाराणा बनकर
चेतक में उड़ जाते।
मानों कहीं पर बैरी सारे
मेरे सन्मुख आते।
दो धारी तलवार देखकर
पल भर में कट जाते।
मानों कहीं पर सिंहभूमि में
वीरगति को पाता।
अपनी भूमि का लाज बचाकर
वीरपुत्र कहलाता।
हल्दीघाटी मरी नहीं है
मरा नहीं परिंदा है।
युवा सोच की ज्वाला में
प्रताप दिलों में जिंदा है।
--
युवा हमारे साथ हैं
नफरत की दीवार भुलाकर
ये बतलाने आया हूं।
युवा हमारे साथ हैं
मैं तख्त पलटने आया हूं।
मैं सुंदर अल्फाज से कहता
झर _झर झरने झरते हैं।
सब व्यास दिलों की बुझती है
जो सबको मोहित करते हैं।
मैं नवागत का स्वागत करने
पुष्प बिछाने आया हूं।
युवा हमारे साथ है
मैं तख्त पलटने आया हूं।
मैं सारे विश्व से कहता हूं
कहती अपनी कहानी।
ऐसे नहीं जो हमने पिया है
घाट _घाट का पानी।
ये नदी रूप जो दुनिया है
मैं सागर बनने आया हूं।
युवा हमारे साथ हैं
मैं तख्त पलटने आया हूं।
ये बैर_भाव को छोड़ दो सब
अजातशत्रु के सहारे।
हर प्रेम की गंगा आज बहा दो
कहलाओ मित्र हमारे।
नमन करूं मैं शीश झुका कर
ये संदेशा लाया हूं।
युवा हमारे साथ हैं
मैं तख्त पलटने आया हूं।
_"नरेंद्र भाकुनी
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अशोक कुमार
दिल से !
आओ इस वर्ष कसम खाए
राष्ट्रहित में मन लगाए
एकता , अखंडता के गीत गाए
माँ भारती समक्ष
दिल से नतमस्तक हो जाए
क्षमा ,त्याग अहिंसा
उच्चतम आदर्श अपनाए
नव वर्ष सौहार्द की अलख जगाए
देश तुम्हारा ,प्रदेश तुम्हारा
इस पर बलि -बलि जाए
सच से बेखबर जो उसे जगाए
दृढ़संकल्प राष्ट्रहित
एक सुर मे वन्देमातरम गाए
भले आहत हो देह
मन मन्दिर करुणा सुरभि फैलाए
झूमते चले जब धरा से
मिट्टी भी तन की अशोक राष्ट्रहित में काम आए
कुछ इस तरह नव वर्ष मनाए
भारत
जनवरी 1,2020
©®
अशोक कुमार
(प्रधानाचार्य )
,6/344,
नई बस्ती
बडौत बागपत
उत्तर प्रदेश
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खान मनजीत भावड़िया मजीद
लड़कियां कहां हैं सुरक्षित
यहां पर
सब भेड़िए है
वहशी हैं
थोड़ी सी लाज नहीं
किसी के पास
सब भेड़िए है
वहशी हैं
मां बाप को प्यार नहीं
पत्नी को सब कुछ
ना बहन की राखी
ना उससे प्यार
सब भेड़िए है
वहशी हैं
विद्यालय हो
घर हो
दुकान हो
बस स्टैंड हो
कालेज हो
सब जगह
सब भेड़िए है
वहशी हैं
गली में
मोहल्ले में
बस में
रेल में
दोस्तों में
सब भेड़िए है
वहशी हैं
बाज़ार में
चौराहे में
तारों में
आसमान में
बन में
जगंल में
सब जगह भेड़िए है
वहशी हैं
कहीं भी लड़की
सुरक्षित नहीं
क्यों..…......।
खान मनजीत भावड़िया मजीद
गांव भावड तहसील गोहाना जिला सोनीपत
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आत्माराम यादव पीव
माता-पिता की दुआओं का उपहार लो
बड़ा ही मलंग है भई मेरा बिरादर
बुद्धि और बल में है, होशियार सबसे हाजिर।
चले गये तत्वदर्शी हो या दिगदिगन्त विजेता
अहं बिरादर को है, दुनिया का खुद है विधाता।
शहनशाहों की शहनशाही, कब तलक तक टिकी
नेक नीयतवालों ने हरदम, गुजारी अपनी नेकी।।
किसे मिलता है दोस्त, दोस्ती को तरसे जमाना
मतलब के सब रिश्ते है, तू क्यों हुआ दीवाना ।।
कैसी किससे यारी, बुना सभी ने झूठ का तानाबाना
माता पिता को छोड़ा जिसने, कहे खुदको परवाना।।
पीव इंसान पैदा हुआ था, शैतान का ओढ़ा लबादा
जमाना खराब बताकर, बिरादर निभ रहा सीधा-सादा।।
ताकत हाथी की लेकर, बिरादर डोले यहाँ-वहाँ
जमाना कब करवट बदले, पराजय की सोचे कहाँ।।
बेअकल करता है नकल, क्या अकलबान बन जायेगा
बचपन की अकल के भरोसे, क्या राजपाट पा जायेगा।।
बूढ़े माता-पिता का दरद, पीव जो अनदेखा कर जाता है
ऊंगली पकड़ बाँहों में झूला, वह नाता तोड़ जाता है।।
माता पिता को छोड़े, उसका संगी साथी न हो कोई भी
तेरा बुढ़ापा आयेगा, रोयेगा अकेला न होगा कोई भी।
कुछ न बिगड़ा अब तो संभलजा,गल्तियाँ अपनी सुधार लो
माता पिता है करूणासिंधु, माफी दुआओं का उपहार लो।।
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स्वर्गलोक-भूलोक हो एकीभूत
जो गिरा हुआ है, उसे गिरने का क्या डर होगा
जो नतमस्तक है, उसे घमण्ड ने क्या छुआ होगा।
खुद मालिक उसे राह दिखाये,जो नम्र हुआ होगा।
जिसने जीत लिया मन को,वह संतोषी रहा होगा।
जो शरण प्रभु की पा जाये,समर्पित वह रहा होगा।।
जो दिल का बोझ उठाये, वासनाओं में घिरा होगा।।
जो सत्य का साथ निभाये, वह इंसान खरा होगा।।
पीव मुश्किल हुआ जीना,पर सबको ही जीना होगा।।
स्वर्गलोक-भूलोक होवे एकीभूत,तैयारी ऐसी करना होगा।
समस्तजनों का सर्वस्व मिले,तब यह संकल्प करना होगा।।
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प्रभु तूने तो नहीं सौंपी है
किसी के भी हाथ में
अपने मरने और जीने की डोर।
प्रभु तुझे प्यार करना
या नफरत करना
खुदगर्जो का काम है।
प्रभु तेरा ही चाकर रहूं
तेरी करूणा बनी रहे
यह,अधिकार तो देना होगा।
प्रभु अगर मेरे जीवन का
कालचक्र दीर्घ है
और मुझे लम्बी आयु तक जीना है
तो बस अपने चरणों से
विलग न करना,
यही चाकरी मुझे प्राप्त हो।
दीर्घकाल के जीवन में
कुछ दिन होंगे उदासी भरे
कुछ दिन होंगे दुखभरे
कुछ दिन होंगे सुखभरे
तेरी करूणा होगी तो प्रभु
सहज ही ये दिन
राम के वनवास की तरह
एक अवसर बन जायेंगे।
प्रभु अगर मेरे जीवन का
कालचक्र लघु है
और मेरी आयु कम है
तो अनंतकाल तक
जीने की इच्छा क्यों रखूं ?
अंधेरों से राम भी गुजरे हैं
अंधेरों से कृष्ण भी गुजरे हैं
अंधेरों से मसीह भी गुजरे हैं
अंधेरों से बुद्ध भी गुजरे हैं
उनके जैसा अंधेरा
क्या मेरी इस अल्पायु में है।
प्रभु संसार के सभी प्राणियों का
जीवन एक अंधकार ही है
अंधकार के द्वार पर
दस्तक देकर ही सबको गुजरना है
लौकिक-अलौकिक कर्मों की देशना
तुम्हारी करूणा से मिलती है
तब तुम्हारे दर्शन की पात्रता होती है
तुम दिव्य-दैदीप्यमान हो
जिसपर करूणा करते हो
उसकी श्रद्धा की परीक्षा लेकर
दुर्बल चर्मचक्षु के लौकिक जगत को
अपनी दिव्यता का दर्शन कराने
पीव अलौकिक दिव्य चक्षु प्रदान कर
बना लेते हो अपना,
थाम लेते हो
उसकी अंगुली
दिखाते हो अपना विराट रूप
जिसमें सर्वज्ञ समाया है।
---
अपना आपा खो दूं
अपने घर -परिवार के लिये,
अपने सगे संबंधियों के लिये
अपने समाज व देश के लिये
मैं जीना चाहता हूं सभी के लिये
इस हद तक,
कि अपना आपा खो दूं।
मैं अपने सारे स्वार्थों के बिना
मैं अपने सारे हितों के बिना
दूसरों के लिये
अपना सारा जीवन जीना चाहता हूं
इस हद तक,
कि अपना आपा खो दूँ।
अपने जीवन के दुखों में
मैं अकेला ही गाता रहा हूं
हर अधंरेी रातों -जज्बातों को
मैं अकेले ही सहलाता रहा हूं
मेरे अहम के चक्रव्यूह में फंसा
अब तक खुद एक अहंकारी रहा हूं
अहम को जीत लू
इस हद तक
कि अपना आपा खो दूँ।
मेरे एक- एक विचार स्वार्थभरे हैं
मेरे विचारों में शब्दों के किलेगढ़े हैं
खुदका दुनिया से बेहतर दिखाने में लगा हूं
दुनियावाले करे मेरी प्रशंसा यह जताने लगा हूं
अपने अहम की घृणा को छोड़़ दूं
पीव इस हद तक
कि अपना आपा खो दूँ।
--
बुर्जग पिता का दर्द
बड़ी मासूमियत से
बुजुर्ग पिता ने कहा-
बेटा ,
बुढ़ापा अजगर सा आकर
मेरे बुढ़ापे पर सवार हो गया है
जिसने जकड़ रखे है मेरे पैर
न चलने देता है
न उठने-बैठने देता है।
बेटा,
मेरे बाद
तेरी माँ को
अपने ही पास रखना।
पिता के चेहरे पर
पंसरी हुई थी उदासी
सारा दर्द छिपाकर वे
मुस्कुराने का अभिनय कर रहे थे।
उनकी बेबसी पर
मैं अवाक था!
पिता के गालों पर
अनगिनत झुर्रियां
रोज-रोज बढ़ती जाती है
और उनके पैरों पर सूजन है।
मेरी पूरी कोशिश
मेरा पूरा उपक्रम
पिता को निरोगी रखने में लगा है
और वे स्वस्थ रहने का
हर विधान का पालन भी करते हैं।
मेरा पूरा विश्वास
पिता के मन में
अंतिम साँसों तक
जीवन से कभी हार न मानने
मौत से अपराजेय रहने की
असीम ताकत जुटाने में लगा है।
वे टूट जाते हैं
जब उन्हें अपनी ही औलाद
खून के ऑसू रूलाती है
बिना बातचीत किये
बेशर्मी से उनके पास से गुजर जाती है।
वे खुद पर झल्लाते हैं
अपने बुढ़ापे से विद्रोह कर
बुढ़ापे को अजगर बताते हैं, ताकि
मजबूर और लाचार करने
सपनों को मुर्दा करने वाली संतान,उन्हें न भूले।
पीव उन औलादों को
वे आज भी सीने से लगाने को
तरस रहे है
और अपने बुढ़ापे की मजबूरी में
उनका मन भर आने के बाद भी
औलाद को माफ करके उनके लौट आने के
विश्वास में सारा दर्द पीकर
खुद अकेले कमरे में
बुढ़ापा को गले लगाकर जी रहे हैं।
--
जीवन का अधूरापन
मुझे याद है प्रिय
शादी के बाद तुम
दूर-बहुत दूर थी
मैं तुम्हारे वियोग में
दो साल तक
अकेला रहा हूं।
बड़ी शिद्दत के
बाद तुम आयी थी
तुम्हारे साथ रहते
तब दिशायें मुझे
काटती थी और
तुम अपनी धुन में
मुझसे विलग थी।
तुम्हारा पास होना
अक्सर मुझे बताता
जैसे जमीन-आसमान
गले मिलने को है।
मैंने महसूस किया
दिशायें दूर बहुत दूर
असीम तक पहुंच गयी है।
तुम मेरे साथ थी
पर दूर इतनी थी
जैसे चान्द आसमान में।
मेरी दुनिया सिमट कर
तुम्हारे इर्द गिर्द थी
तुम रास्ते को दूर
बहुत दूर बनाती रही
मैं हर राह को
तुम्हारे लिये छोटी करता रहा।
मैं हर दिशा को
तुम्हारे आसपास
तुम्हारे कदमों में लाया
मैं तुम्हारी-मेरी दुनिया को
एक सुन्दर ऑगन बनाता रहा।
तुम्हारी बातों का
तुम्हारे जज्बातों का
तुम ही मतलब समझती थी
मेरी बातें और जज्बात
तुम्हारे लिये बेमतलब थे।
मेरे मन की व्यथा
मेरे दिल की प्यास
तुम अपने कदमों में
रोंधती रही मैं सहता गया।
तुम्हारा मस्तिष्क
अवरोधित रहा है बातों से
तुम अज्ञेय रही हो जज्बातों से
मैं प्रेम की पराकाष्ठा को
जीना चाहता था
तुमसे प्रेम करता था
पीव न प्रेम कर सका
न ही जी सका
बाधा हमेशा से
तुम रही हो, तुम्हारा
अवसादित मन रहा है
तुम अब भी अवसाद से
मुक्ति पाने के परामर्श
परामर्शदाता के बतायें
उपायों को अपनाकर
सालों से अवसाद में हो।
सिरफिरेपन में प्रेम नहीं
वासना की लपटों में
सुलग रहे हम दोनों के बीच
एक अधूरापन आज भी जिंदा है।
--
प्रथम प्रेमानूभूति
जब नवयौवना
बंध जाती है
पति के बन्धन में
तब पति के पास
निर्लज्ज/अश्लील होते ही
उसकी काया को
पति अर्पित करता है
अपने अंग।
दोनों भीतर ही भीतर
अपनी भावनाओं के
सागर में गोता लगाते हैं
अच्छे-बुरे विचारों का बवंडर
उड़ा ले जाता है उन्हें
और वे एक दूसरे के चरित्र को
मापते हुये अंत में करते हैं मंथन।
जब वे विचारों के सागर में
तैरते-उतराते करते हैं
देह का समर्पण तब उनमें
कुछ विचार टूटते हैं
कुछ भावनायें बिखरती है
और वे सुखद पीड़ा के साथ
एक दूसरे की काया को
उन्मुक्तता से रौंदते हैं ।
तब देह के भीतर से
सैकड़ों बिजलियाँ कड़कडाकर
दूसरी देह में गिरती अनुभव करते हैं
मानों घनघोर मेघ
बरस चुके है और
अलौकिक आनंद के साथ ही
पीव नवपरिणिता पति-पत्नी
निस्तेज हो जाते हैं।
आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रकार
काली मंदिर के पीछे,पत्रकार आत्माराम यादव गली,
वार्ड नं. 31होशंगाबाद मध्यप्रदेश
पिन-461001
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