1....हैं तैयार हम उदघोष होगा खतरे का जब भी रणभूमि के लिए हैं तैयार हम हैं तैयार हम घर घर से निकल कर सरहद के हैं पहरेदार हम पहरेदार हम ...
1....हैं तैयार हम
उदघोष होगा खतरे का जब भी रणभूमि के लिए हैं तैयार हम
हैं तैयार हम
घर घर से निकल कर सरहद के
हैं पहरेदार हम
पहरेदार हम
फौलादी हैं सीने अपने
चलेंगे अंगारों पर
लिये भुजाओं में हथियार बम
हैं तैयार हम
है दिलों में कुछ
करने का अरमान बड़ा
चीर के देखो सीने अपने
हर सीने में इक हिंदुस्तान खड़ा
मस्ती में झूमेंगे
मस्ती में खेलेंगे
वतन के वास्ते हर कष्ट झेलेंगे
रंग बसन्ती का भी
घुला है हर बात पर
बांध कर देशहित में कफन
हैं तैयार हम
एक हाथ बंदूक और
दूजे में लेकर तिरंगा
हैं तैयार हम
हर सीने में लेकर हिंदुस्तान
हैं तैयार हम
उठा लिये जो शस्त्र हमने
परवाह नहीं फिर जान की
लिये हथेली पर मौत चलेंगे
उफ़ तक ना होगी जुबान की
झुकने ना देंगे सर
ना लुटने देंगे
आबरू हिंदुस्तान की
हो देश की खातिर फांसी तो
हैं तैयार हम
हैं तैयार हम
राजेश गोसाईं
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2.......आवारा चमन
दीवाना हुआ दिल
मिल के तुमसे हरदम
खो गया उस जहान में
जहां प्यार का है संगम
बेचैन हैं बहारें
चैन नहीं हमदम
हूं पागल मैं भी
और आवारा हुआ चमन
बादल कोई आया
भीगा ये तन मन
दीवाना हुआ मैं भी
दीवाना हुआ सावन
ये जुल्फों की घटायें
ये चन्दन सा बदन
इस प्यार की अंगड़ाई में
पागल हुआ मौसम
राजेश गोसाईं
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3......टूटा हुआ फूल
इन्हें मालूम ही नहीं था
मैं टूटा हुआ हूं
इक मासूम सा फूल ही था
जो डाली से टूटा हुआ हूं
जब देखा था इन्होंने
रंग और नूर से भरा हुआ था
चारों तरफ तितलियों
और भंवरों से घिरा हुआ था
दुर्लभ जमीं और चट्टानों पर भी
चेहरा खिला हुआ था
हवाओं के झोंकों का
मुझ पर पहरा हुआ था
आज वक़्त की आंधियों में गिरा हुआ हूं
दर्द की नगरी से निकल कर
कहीं सुख की बस्ती में चला हूं
मौजों की मस्ती से बिखर कर
अर्थी पे चला हूं
किसी बाला के बालों में सजा हुआ हूं
चमन का टूटा हुआ फूल
शहीदों के मधुबन में लगा हुआ हूं
राजेश गोसाईं
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4...=ऐ मेरी प्यारी बीवी
ऐ मेरी प्यारी बीवी
तू मान ले यही
तू अभी नहीं बुड्ढी...और मैं बुड्ढा
अब तो मान जा .मान..जा....
.मेरी जां....
ये झुर्रियां.... गुलाबी गालों की
ये सफेदी....बालों की..
लहरें हैं ...ये ...तेरे प्यार की....
है तेरी ..आंखों में ...नशीलापन
तू रानी....बहार की
बज रही है ....बज रही ...
है दांतों की डुगडुगी.....
फिर भी नहीं तू बुड्ढी ....और मैं बुड्ढा
अब तो मान जा ....मान जा....
मेरी जां....
ढलती उम्र में भी .....तू हसीं
तेरे जैसी सुंदर ....और नहीं ...
कहीं नहीं.....
है मेरी .. है मेरी ...जिन्दगी का सहारा ...तू साथी..
बन के ...दादा दादी खिलायेंगे... गुड्डा और गुड्डी
फिर भी नहीं तू बुड्ढी ....और मैं बुड्ढा
अब तो मान जा ....मान जा..
मेरी जां....
राजेश गोसाईं
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5....कब आयेगी
ना जाने मुझको
ये मौत कब आयेगी
पता जिंदगी का
मैंने दे दिया था
लापरवाही और
गलती का मकान
दुर्घटना स्थल का निशान
उसे दे दिया था
सुख दुःख की नगरी में
होती है दर्द की बारिश
रिश्तों ने रिश्तों का
कत्ल जो किया था
घायल हुई सांसों में
अपनों ने अपनों से
मुंह भी पलट लिया था
सांप्रदायिक हिंसा का
पहला पता जब दिया था
गोलियों के भंवर में
मैं फंसा रह गया था
नाम लिया उस प्रभु का
तो मौत ने भी अपना
रास्ता बदल लिया था
लड़खड़ा रहा था
जब पहाड़ पे चढ़ा था
गिर कर के देखा तो
सामने बहता दरिया था
शिव की कृपा से
फिर मौत ने अपना
रास्ता बदल लिया था
जूझता ही रहा मैं
गंभीर रोगों से ता-उम्र
गैरौं से मिल कर अपनों ने
तब साथ बहुत दिया था
कुछ उनके प्यार से ही
मौत ने अपना
रास्ता बदल लिया था
इक पशु ने आ कर
तारे दिन में दिखलाये
तोड़ कर बदन के सितारे
बिस्तर पे बिखराये
किसी शुभ कर्म से फिर
मौत ने रास्ता बदल लिया था
कहीं ऊंच नीच चलन में
पांव फिसल गया था
सांसों की घुटन में
टूटन हड्डी का हुआ था
किसी बुरी घड़ी में
शुभ घड़ी की वजह से
आज फिर मौत ने
रास्ता बदल लिया था
आनी तो है ही इक दिन
ये मौत सबको
याद रखना भी जरूरी है
जिंदगी में सबको
यत्र-तत्र-सर्वत्र
कहीं सड़क पर
ना जाने आज
ना जाने कब
ना जाने किसकी
ये मौत रास्ता बदल जायेगी
राजेश गोसाईं
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6......कहीं दूर...
कहीं दूर ...जो फूल खिला था
देख कर उसको... मन में ...हुई इक आशा
खिला रहे ये.... अपनी उम्र तक
खुशबू ....सारे जहान में लुटाता
कभी कोई ....तोड़ ना दे इसको
जिस डाली पे..... है ये मुस्काता
तपती धूप में ...रूप इसका
बिगड़ ना जाये .....जो खिला था
राजा है..... बगिया का चाहे
मगर तितलियों से घिरा हुआ
लालच में ...मकरन्द के आये
भंवरों का ...इसपे पहरा हुआ
आये ना झोंका ...हवा का कोई
दिखाये ना कुदरत ....अपना तमाशा
राजेश गोसाईं
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7......आप बीती
ना जमीं दिख रही है ना आसमां
पड़ा हुआ हूं बिस्तर पे मैं परेशान
हुये दिन बहुत कोई स्नान नहीं किया
दैनिक कर्म करना बिलकुल है मना
दर्द की नगरी में हूं अभी तड़प रहा
सांसें तो चल रही हैं पर हवा है कहां
अभी तो कुछ भी पता नहीं है मुझे
उठ कर चलूंगा मैं कब यहां वहां
कैसा ये खेल कुदरत ने है रचा
परेशान मैं और परेशान हैं जहां
राजेश गोसाईं
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8....
भरोसा
आदमी का आदमी से
यही दोस्ताना है
यारों का यार है और
दुश्मन जमाना है
कत्ल तो बहुत देखें हैं
रिश्तों के हमने
अपनों ने अपनों को
कहां पहचाना है
कोई साथ देता नहीं
उम्र भर किसी का
गैरों संग अपनों ने
शमशान पहुचाना है
भरोसा जिंदगी का
नहीं है कोई
सांसों ने सांसों को
पार लगाना है
राजेश गोसाईं
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9.....परिवर्तन
रोज सुबह देखता हूँ
रौशनी के अंकुर
सांय , मुरझाये हुये
फूल से चेहरे
रौशनी की झुर्रियां
अर्ध चन्द्रमा की
धुंधली चाँन्दनी में
खिली कलियाँ
यही जिन्दगी का अंश
कभी अतीत कभी वर्तमान
और कभी भविष्य
परिवर्तित कर देता है
इंसान का धर्म - फर्ज
और बदल जाती है
इंसानियत -
हैवानियत में ह.हा.हा
समझने लगता है मनुष्य
भाग्य का खेल इसे
परन्तु अंजान है स्वंय वही
निर्माता है अपनी तकदीर का
जिन्दगी की तस्वीर का
रंग भरता है जिसमें स्वयं वही
भाग्य तो सिर्फ खेलता है
इंसान के कर्मों से और
और बदल जाता है खुद ही
हार या जीत में
यह परिवर्तन ही स्वयं
परिवर्तित हो जाता है तब
मनुष्य के अहं में
राजेश गोसाईं
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10....उदासियाँ
क्यूं उग आयें पेड़ उदासियों के
फल जख्मों के अभी भी हरे हैं
दर्द की बारिश में भीगा ये मन है
परिन्दे यादों के अभी तो उड़े हैं
यादों के सागर में दर्द उफान पर है
हवाओं से कह दो जरा थम जायें
कश्ती भरी है जख्मों से दिल की
आहों से कह दो जरा रुक के आयें
दास्तां दर्द की बेजुबां ही बोलती है
जुबां खुले तो सिर्फ आह ही होती है
आंसू पढ़ लो किताब आँख भी होती है
उदास पेड़ों की छांव हर शाख होती है
राजेश गोसाईं
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11....उस पेड़ की तरह
वृक्षों की सांय-सांय
मानो सांसों के स्वर में
लड़खड़ाहट सी हो रही है
सिन्दूरी सांझ का एकाकीपन
तिमिर के अंकुरों का स्फुटन
नवीन प्रभात की पत्तियों में
पीलापन व मुरझाई लकीरें
कोई माली नहीं जो सेवा करे
सींचे उन झुलसाये तरूवरों को
भीषण गर्मी में खड़े जो
अपने जीवन के हरे दिनों से
धूप में शाखायें सूख रही जिनकी
नीलाम्बर चादर तान कर वो
वृक्ष सांय सांय कर हिलते
ना जाने कब टूट कर बिखर जायें
मेरी कल्पनाओं में बसता कोई
शहर कब उजड़ जाये
जिसमें कोई बूढ़ा अपने
स्वरों को सम्भालता हुआ
चलता है.......मगर यह तस्वीर
बेरंग और अधूरी ही है जो
टूट कर बिखर जायेगी
गिर जायेगी धरा पे तो पूरी होगी
फिर किसी वृक्ष की सांय-सांय
सुनता हूँ खिड़की के बाहर सायं ( शाम )
और अंदर से उसको खड़ा देख
मैं सोचने लगता हूँ कि
जीवन की सांझ ढलने लगी है
मैं भी शायद बूढ़ा हो गया हूँ
उस पेड़ की तरह
राजेश गोसाईं
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12.....जाल
दूर-सुदूर मनभावन रूपों में
फैले हुये बोगनवलिया के फूल
हरे भरे पत्तों की छाँव....
कितना आनन्द , कितना सुकून
मगर आज........
दूर सुदूर फैला हुआ शर शिरा जाल
उसमें से रिसती हुई धूप-- आह !
एकाएक किसी पुष्प पुंज की
हंसी सुन हैरान होता मैं
खोजने लगता हूँ कोई
छिपा हुआ पुष्प
उस कंटक सूत्र में
एक नन्हा सा फूल एक तरफ देख
मैं सोचने लगा .......
कांटे ही कांटे , बिखरे हुये फूल धरा पे
उधर अकेला ही पुष्प पुंज लड़ रहा
कभी धूप से कभी समीर से
नन्हा सा फूल अभी भी
ठीक ऐसे ही मेरा देश है शायद
रिक्त हुये शिरा जाल सा
परन्तु पुष्प की अभिलाषा में
मैं कांटे खोजता हुआ देखने लगा
दूर तक फैला हुआ
बोगनवलिया का जाल
समाज का जाल
घर व रिश्तों का जाल
दूर तक अलग अलग रूपों में
राजेश गोसाईं
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