कहानी - उसके हिस्से का समय प्रताप दीक्षित (जैसी कि परम्परा है, इस कहानी के पात्र, घटनाएं, स्थान, देश, काल सब काल्पनिक है।) अप्रैल के किसी उब...
कहानी -
उसके हिस्से का समय
प्रताप दीक्षित
(जैसी कि परम्परा है, इस कहानी के पात्र, घटनाएं, स्थान, देश, काल सब काल्पनिक है।)
अप्रैल के किसी उबाऊ पतझड़ वाले दिन ढलने के बाद बाद की खुशनुमा रात की शुरुआत थी। डायनिंग टेबिल पर पति, बच्चे सभी उपस्थित थे। उसने अपनी भी थाली लगा ली थी। पहले वह सब को खिला कर, गरम रोटियां सेंकती जाती, तब स्वयं बैठती। लेकिन जब से वह बीमार हुई पति शशांक बच्चों के साथ उसे भी बिठा कर ही खाना प्रारंभ करते। टी0 वी0 पर प्राइम टाइम पर सभी चैनल अपनी टी0 आर0 पी0 बढ़ाने की दृष्टि से लोकप्रिय कार्यक्रम देते। प्लैनेट चैनेल पर उनके निकट भविष्य में आने वाले कार्यक्रम “मीट योरसेल्फ - स्वयं से साक्षात्कार“ में भाग लेने के लिए विज्ञापन दिखाया जा रहा था। प्रतिभागी सफल होने पर एक करोड़ तक जीत सकते थे। उन्हें दिए गए नम्बर पर एस0 एम0 एस0 करना था। बच्चे तो वैसे भी के0बी0सी, इण्डियन आइडल, मास्टर सेफ जैसे कार्यक्रमों में भागीदारी के लिए एस0एम0एस0 करते रहते। उसके भी नाम से मेसेज भेज देते। पति भी प्रोत्साहित करते। गत एक वर्ष, जब से वह गहरे अवसाद से ग्रस्त हुई थी, चिकित्सकों की राय के अनुसार दवाओं के अतिरिक्त, उसके साथ परिवार का सहयोग भी अपेक्षित था, इलाज का ही एक हिस्सा। बच्चे समझदार हो चुके थे। पुत्री दिव्या सत्तरह पूरे कर चुकी थी, पुत्र विभु भी सोलह का होने वाला था। दोनों ही अपनी पढ्राई, कम्प्यूटर, दोस्तों से फुरसत पाते ही उसे घेर कर बैठ जाते, असमाप्त बातें। उसने एस0एम0एस0 कर दिया था। बच्चे एक करोड़ मिलने के बाद की हवाई योजनाएं बनाने मे जुट गए थे। अब वह भी उनकी शेखचिल्लयों वाली बातों में हंस कर शामिल हो जाती।
15 अप्रैल
लगभग दो सप्ताह बाद दिन के ग्यारह के लगभग उसके मोबाइल की घण्टी बजी थी। उसने देखा, कोई नई काल थी। फोन उसके एस0एम0एस0 के उत्तर में था। वह तो हमेशा की तरह भूल भी चुकी थी। वह चौंक गई। कानों में वर्षों पहले भूल चुकी पहचानी सी आवाज लगी थी।
-मैडम, आप ज्योति जी है?
-जी हाँ।
-मैं चेतन, प्लैनेट टी0वी0 के “स्वयं से मिलिए“ कार्यक्रम से बोल रहा हूं। यह कार्यक्रम एक प्रकार से आत्म साक्षात्कार का है। हम पूरे जीवन उस सत्य को नहीं स्वीकार कर पाते जो हमारे अंदर बना रहता है। यह मन की शांति के लिए ही नहीं रिश्तों की मजबूती के लिए भी आवश्यक होता है।
उसने बीच में टोका - आपके कार्यक्रम की टी0 आर0 पी0 के लिए भी?
उत्तर में वह हंसा- जरूर। इस संबंध में आप के जीवन से संबंधित कुछ प्रश्न पूछे जाएंगे। वे निजी भी हो सकते है। आपके उत्तरों का हमारे मनोवैज्ञानिकों व्दारा परीक्षण किया जाएगा, जो यह निर्धारित करेगा कि आप स्वयं को किस सीमा तक जानती है। आप हॉट सीट पर एक करोड़ तक की राशि जीत सकती है। पहले क्रम में आप की उम्र, क्षमा कीजिए महिलाओं से परंपरा के अनुसार पूछनी तो नहीं चाहिए, प्रारंभिक जीवन, शिक्षा, वैवाहिक जीवन, बच्चे, पति उनके व्यवसाय के संबंध में जानकारी दे सकेंगी?
-वह हंसी कोई बात नहीं। मैं इस वर्ष अक्टूबर में 38 की हो जाऊंगी। मेरा विवाह कम उम्र में 20 वर्ष पूरे होते होते, हो गया था। मेरी बड़ी पुत्री 17 की, और पुत्र 16 का है। पढ़ रहे हैं। मेरे पति एक बैंक में अधिकारी है। मैंने मनोविज्ञान में एम0ए0, विवाह के बाद किया है। कुछ वर्षों तक एक स्कूल में पढ़ाया भी है। संगीत और कविता शौक थे। लेकिन वक्त के साथ सब छूट गए।
-जानकारी के लिए धन्यवाद। आवाज से तो आप बच्ची लगती है। दो दिनों बाद मैं आपको फिर फोन करूंगा। प्रश्न व्यक्तिगत हो सकते है। आपके लिए सुविधाजनक होगा, उस समय आप अकेले हों। क्या समय उपयुक्त रहेगा?
उसे आश्चर्य हुआ। उसने घड़ी देखी, 11ः30 हुआ था। बच्चे स्कूल में थे, पति आफिस में- ठीक इसी समय 11 के बाद। एकाएक वह सजग हुई । उसने मोबाइल पर आया नम्बर देखा, एस0टी0डी कोड मुम्बई का था। उसने उसी नम्बर पर रिंग दी। धण्टी बजने पर - नमस्कार, प्लैनेट टीववी0 पर आपका स्वागत है।
-देखिए कुछ देर पहले आपके यहां से मि0 चेतन का फोन आया था।
- होल्ड करे मैडम। कुछ क्षणों बाद चेतन की आवाज थी, हलो- चेतन हियर।
-ओह आप। मैं कन्फर्म करना चाहती थी कि फोन कहां से था?
-हल्की सी हंसी, गुड, आपको कॉसस होना ही चाहिए।
पूरे दिन उसके मन में असमंजस, उहापोह, उत्सुकता बनी रही। क्या प्रश्न होंगे? शाम को बच्चों, पति को उसने टी0वी0 चैनल से आए फोन के विषय में बताया था। “हुर्रे“ दिव्या और विभु एक साथ चिल्लाए थे। “माँम टी0वी0 शो में आएंगी।“ पति ने भी प्रसन्नता जाहिर की। फिर सभी पूरा विवरण पूछते रहे। उसने सब कुछ बता दिया।
“माँम, अब तो आपको अपने ब्वॉय फ्रेण्ड के बारे में बताना ही पडे़गा। इतनी सुन्दर आप हैं। कोई तो जरूर रहा होगा?“ दिव्या चहकी थी। उसने उसे घूरा ।
18 अप्रैल
वह कल से ही प्रतीक्षा में थी। कहीं तो कोई है जो श्रीमती शशांक का नाम, उसका अतीत, निजता बांटना चाहता है। ठीक 11 बजे मोबाइल की घण्टी बजी - गुड माँर्निग मैडम, मैं चेतन।
-वेरी गुड माँर्निंग, कैसे है। आप?
-बहुत अच्छा, आज आप खुश लग रही है। आज हम देर तक बात करेंगे। हमारा पहला प्रश्न, क्या आपने विवाह के पूर्व किसी प्रेम किया है? और किस सीमा तक?
एक निश्वास के बाद इधर से देर तक चुप्पी रही।
-मैडम जीवन के किसी मोड़ पर हमें अपने अंदर के सच को स्वीकार करना ही होता है। मन की शांति और दर्द से निस्तार के एहसास के लिए यह अनिवार्य हो जाता है। जितनी देर होती जाती है हम उस मुक्ति से दूर होते जाते है। आप इस पर सोचने के लिए समय ले लें। मैं कल इसी समय फोन करूंगा। वह अगले दो दिनों तक विचारों में डूबी रही। अविराम मंथन। अतीत के बंद पृष्ठ बार-बार पलटती। मुक्ति की तलाश में मन बार-बार उच्छृंखल हो वर्जनाओं के बाड़े तोड़ना चाहता। इस बार उसने घर में किसी को कुछ नहीं बताया था।
20 अप्रैल
वह अस्थिर थी। तभी चेतन का फोन आया, “हाय“, चिर परिचित आवाज थी।
फ्लैशबैक/ अतीत अवलोकन
पिता, जब वह छोटी थी तभी गुजर चुके थे। वह युवावस्था में, माँ बताती, मुश्किल से 35 के रहे होंगे। उसे उनकी धुंधली सी याद थी। किसी रोमन देवता के सौन्दर्य के प्रतीक। माँ उनकी दूसरी पत्नी थीं। उनसे काफी छोटी रही होंगी। पुराने रिश्तेदार बताते हैं यदि उन्हें अपने समय की सौन्दर्य साम्राज्ञी कहा जाता तो अनुचित नहीं होगा। पिता सामंतीय व्यवस्था के ढहते हुए अंतिम स्तम्भ के समान। पिता की कई उप पत्नियां थी। अक्सर कोई न कोई हवेली जैसे मकान के ऊपरी हिस्से में कई कई दिनों तक बनी रहती । गनीमत थी कि घर में साजिन्दों के साथ महफिल न सजती। माँ क्या किसी की भी, न तो उनके विरोध की क्षमता थी, न शक्ति। लोग उनसे उनके व्यक्तित्व, राजनीतिक, सामाजिक प्रभाव के कारण, एक प्रकार से आतंकित से रहते। लेकिन उसके हिस्से में उनका पूरा प्यार आया था। वह उनके चौड़े सीने पर खेलती खेलती सो जाती। पिता के बाद बची खुची संपत्ति पट्टीदारों ने हड़प ली थी। रोज के खर्चे चलना मुश्किल हो गया था। 24-25 की माँ अकेले क्या करती। रिश्ते के एक चाचा मदद के लिए आ गए थे। संपत्ति के मुकदमे, बटाईदारों से अनाज आदि घर लाना, किराया वसूलना आदि। चाचा उसे, उससे दो साल छोटी बहन और नन्हे से भाई को खूब प्यार करते। उससे तो विशेष। उसे अक्सर बुखार आ जाता। वह रात भर जाग कर माथे पर गीली पट्टियां बदलते रहते, सिर मे दर्द होने पर देर तक दबाते रहते। माँ ने बताया था, वह पिता के सामने भी आते थे। पिता को कहीं बाहर जाना होता तो उनका बैग, बिस्तरबंद आदि उठाते। अदालत या वकील के यहां जाने पर मिसिलो, फाइलों का बस्ता लिए साथ साथ रहते। माँ ने हाई स्कूल की परीक्षा प्राईवेट तौर से पास कर ली थी। पिता के बचे खुचे प्रभाव से उन्हें एक प्राथमिक विद्यालय में सहायक अध्यापिका की नौकरी मिल गई थी। गृहस्थी की गाड़ी किसी तरह चलने लगी थी। चाचा, जब कब, रुक जाते। बड़े कमरे के बाहर बरामदे में उनका बिस्तर लगता। वह रात में पानी पीने के लिए उठती। चाचा का बिस्तर खाली रहता। माँ के कमरे के दरवाजे गर्मी की रातों में भी उस दिन बंद रहते। वह छोटी बहन और भाई के साथ नींद न आने पर देर तक जागती रहती। एक रात वह पानी पीने उठी थी। आंगन में रसोई के आगे घड़ौंची पर पानी का घड़ा रहता। पानी पीकर वह लौट रही थी। उस दिन भी चाचा अपने बिस्तर पर नहीं थे। उसके कदम माँ के कमरे की ओर उठ गए। बाहर पहले वह रुकी रही फिर उसने कमरे के दरवाजे को धीरे से छुआ था । दरवाजे भिड़े थे, बंद नहीं, खुल गए। हल्के अंधेरे में निर्वस्त्र माँ पर दूसरी आकृति झुकी हुई थी। वह तुरन्त मुड़ कर वापस चल दी थी। उस रात वह अचानक सयानी हो चुकी थी। चाचा सुबह जल्दी चले गए थे। फिर कई दिनों तक नहीं आए, आने पर भी वह रुकते नहीं। माँ ने उससे या उसने मां से न कुछ कहा था, न पूछा। वह जरूर कई दिनों तक उनके सामने पड़ने, आंखें मिलाने से बचती रही थी। उसे लगता वह कुछ कहना चाहती हैं लेकिन कहने के पहले ही उनके शब्द जैसे चुक जाते। माँ उसे अपने से बहुत छोटी लगतीं। छोटी बहन से भी छोटी। वह माँ को ढाढ़स देना चाहती । बहुत बाद में तो उसे महसूस हुआ था उन के लिए वह सब कुछ केवल परिस्थितजन्य सहज सच नहीं बल्कि अपरिहार्य जरूरत थी। इतनी कम उम्र में कैसे काटतीं तन और मन का गहन एकांत? बाद में तो चाचा का आना भी धीरे धीरे बहुत कम हो गया था।
बचपन की विदाई के साथ ज्योति का अकेलापन बढ़ता जा रहा था। माँ की अपनी व्यस्तताएं- नौकरी, घर के काम और जमीन जायदाद के मामले जिन्हें अब अधिकतर उन्हें ही देखना होता। छोटी अपनी पढ़ाई, खेल, सहेलियों में रमी रहती। केवल दो वर्षों के अंतर से ही वह उसे अपने से बहुत छोटा समझती, जिसके साथ एकांत नहीं बांटा जा सकता था। छोटा भाई अभी बहुत छोटा था। वह स्कूल से आकर घर के कामों में माँ की मदद करना चाहती पर वह उसे पढ़ने या खेलने भेज देती। धीरे-धीरे उसका अकेलापन उसके अस्तित्व का एक अविभाज्य अंग बनता गया था। उसकी निजता का अंतरंग साथी। उम्र का मोड़ था या काफी पहले देखे अन्तरंग दृष्यों की बंद आंखों के सामने आवृत्तियां, सोते समय उसकी कल्पनाए निर्द्वंद्व हो उठती। वह बहन से लिपट कर सोने की कोशिश करती। बहन कहती - दीदी हटो, मुझे गर्मी लग रही है। वह खिलखिलाती , उसे और जकड़ लेती।
बीच-बीच में दूर पास के रिश्तेदारों का आना होता। उसके पिता की रिश्ते की दो बहने एक ही परिवार में दो सगे भाइयों को ब्याही थीं। लेकिन दोनों में बहुत अंतर था। बड़े फूफा ठेकेदारी करते। सामाजिक और आर्थिक रुतबे में अपने छोटे भाई, जो एक मामूली सी परचून की दुकान चलाते, कहीं बहुत उंचाई पर स्थित थे। उनका पुत्र देवेन स्कूल में किसी तरह घिसट रहा था, लेकिन पिता के कार्यों में हाथ बटाता। रुतबे में कहीं उनसे आगे निकलने को बेताब। छोटी बुआ का पुत्र नरेन ज्योति का हमउम्र था। शर्मीला, अन्तर्मुखी लेकिन पढ़ाई में अपनी कक्षा ही नहीं स्कूल में अव्वल रहता। नरेन छुट्टियों में आ जाता। वह पढ़ने में कमजोर थी। ट्यूशन, कोचिंग न उन दिनों चलन में थे ना ही उनकी सामर्थ्य में। नरेन जब आता, पढ़ाई में उसकी मदद करता। समय अपनी अविराम गति से भाग रहा था। उनकी निकटता कब किन्ही अनाम संबंधों में बदल गई पता ही नहीं चला। जब वह अंग्रेजी ग्रामर, पाठ्य पुस्तक की कविता का अर्थ तन्मय होकर समझा रहा होता उसे लगता वह किसी अनजानी भाषा में बोल रहा है। एक शब्द भी समझ में न आता। वह बिना पलक झपके उसके चेहरे की ओर देखती रहती। अक्सर यह भी होता जब वह पुस्तक पर झुकी होती, अचानक नज़रें उठाती तो देखती कि नरेन उसके चेहरे की ओर निर्निमेष देख रहा है। उसकी आंखों में कोई अव्यक्त संदेश होता। वह उसे अपनी ओर देखते पकड़ मुस्करा देती और वह घबराहट में अपनी नज़रें झुका लेता। दोनों को ही महसूस होता, एक दूसरे से कुछ कहते कहते अचानक चुप हो गए है। शब्द कहीं गुम हो गए हैं।
नरेन के हाथ में हमेशा कोई पुस्तक रहती। कोर्स के अलावा। उपन्यास,कहानी या कविता संग्रह। ज्योति की पढ़ने की आदत उसी से पड़ी थी। उसने कहा था, शेखर एक जीवनी, आंसू ज्योति ने उन्हीं दिनों पढ़़ी थीं। उन्हें गहराई से समझने की उम्र के पहले। वह कॉलेज की लायब्रेरी से पुस्तकें इश्यू करा लाता। उस बार वह कनुप्रिया लाया था। वह कई रातों तक जाग जाग कर जाने कितनी बार इसे दोहराया था। प्रत्येक पृष्ठ उसके, आंसुओें, छाती से लगा कर भींचे जाने से भर गया था। एक अनलिखी व्याख्या। उसने पंक्ति “तुम मेरे हो कौन कनु“ को पेंसिल, नीले, लाल पेन से इतनी बार रेखांकित किया था कि पृष्ठ का वह हिस्सा फट कर अलग प्रायः हो गया था। जाने कितने अनलिखे संदेश उसमें दर्ज हो गए थे। उसने पुस्तक जब उसे वापस की थी, उसके हाथ कांप रहे थे।
इसके बाद दो माह तक नरेन नहीं आया था। परीक्षाओं की व्यस्तता रही। उसकी फर्स्ट इयर की गृह परीक्षाएं थीं। विशेष चिन्ता नहीं थी। वह प्रमोट हो गई थी। उन दिनों 14 मई को सभी गृह परीक्षाओं के परिणाम घोषित हो जाते। उसने उस दिन और अगले कई दिनो तक उसकी प्रतीक्षा की थी। नरेन का उस साल इण्टर फायनल था। उसकी परीक्षाएं तो पिछले माह ही समाप्त हो गईं थीं। वह झुंझला उठी -ना आए, मेरा उससे क्या संबंध? लेकिन कुछ देर बाद उसकी आकुलता बढ़ जाती। गर्मी की छुट्टिया शुरू हो चुकी थीं। नरेन आया था। बुआ, फूफा भी आते लेकिन दो चार दिन के लिए ही। उनकी दुकान देखने वाला कोई ओर नहीं था। सदा का गंभीर, अन्तर्मुखी नरेन इस बार ज्यादा ही चुप था। साथ लाई किताबों में डूबा रहता। वह उसे छेड़ती, चिढ़ाती। उसकी चाय में चीनी न डालती। वह बिना कुछ कहे चुपचाप पी लेता। एक दिन उसने जानबूझ कर उसकी चाय में नमक डाल दिया था। उसके सामने बैठी रही। नरेन चाय पीता रहा। पहले घूंट के बाद उसके चेहरे पर आए परिवर्तन उसने लक्ष्य किया। लेकिन उसने बिना कुछ कहे अगला घूंट पिया था। वह झपट पड़ी। उसके हाथ से प्याला छीनते हुए रो पड़ी - आखिर क्या चाहते हो तुम? क्यों जला रहे हो मुझे? यह मौनी बाबा बनना था तो क्यों - - -? आंसुओं से उसकी आवाज रुंध गई थी।
नरेन ने उठ कर उसके आंसू पोंछे थे- पूरी पागल हो तुम। मेरी तो सदा की आदत जानती हो। अच्छा आज से यह किताबें बंद। बहुत सारी बातें करेंगे हम। सारी रात जाग कर। तुम्हारी पढ़ाई, सहेलियों और फिल्मों की। उसकी आंखें बंद थीं। सिर नरेन के कंधे से लगा। उसे लगा नरेन ने बहुत हौले से उसकी बंद भीगी पलकें अपने होंठो से छुई थीं।
रात को आंगन में पानी छिड़क चारपाइयों पर बिस्तर लगा दिए जाते। देर रात तक वे ठण्डे हो जाते। मां सदा घर की सुरक्षा की दृष्टि से एक सिरे पर भंडार वाले कमरे के बाहर सोतीं। मां के बगल में छोटी बहन और भाई। फिर मेहमानों का, आजकल नरेन का वहां पलंग था। पलंग के बगल में एक टेबिल फैन लगा दिया जाता। वह अपना बिस्तर कुंए की दूसरी ओर आंगन के दूसरे कोने में लगाती। वहां लगे धीमे बल्ब मे देर रात तक पढ़ती रहती। एक रात अचानक उसकी नींद खुली थी। उसने देखा नरेन, एक परछाईं सा खड़ा, उसकी ओर देख रहा था। फिर वह धीरे-धीरे वापस लौट गया था। अक्सर ऐसा होता। देर रात जागते हुए, सोने का बहाना किए, उसे अपने नजदीक महसूस करती। बंद आंखों से किसी अज्ञात प्रतीक्षा में रत। कुछ देर बाद वह लौट जाता। सुबह नरेन की आंखों में रात जागने की खुमारी और अव्यक्त आकुलता रहती। उस रात भी वह किसी सपने से अचानक जगी थी। रात आधी से ज्यादा बीत चुकी होगी। चारों ओर सन्नाटे की गूंज थी। अंधेरी रात में तारे भी मध्यम पड़ चुके थे। नरेन शायद देर से उसके बिस्तर के पास खडा़ रहा था। एक लंबी यात्रा से थका, वापस जाने के लिए मुड़ा तभी ज्योति ने उसका हाथ पकड़ खींच लिया था। वह बिस्तर पर ढह सा गया था। वे देर तक एक दूसरे की घड़कनों को महसूस करते निस्पंद लेटे रहे थे। धीरे-धीरे उनकी सांसों की बंसी की लय सप्तक के कोमल, मन्द से तीव्र आरोह के स्वरों में बहने लगी थी। नरेन के होंठों ने उसकी देह पर किस नई लिपि में कौन सा संदेश अंकित कर दिया था। रात के तीसरे पहर वातावरण के निविड़ एकांत में मालकौश के स्वर गूंज उठे थे, जिन्हें अन्तर्मन के गहरे तलों में, केवल वही सुन पा रहे थे। वह फिर सपनों में लौट गई थी। उसे विस्मृत हो गया कि वह सपने में सच था या सच में सपना। कस्बे से बहने वाली नदी, जिसमें हर साल बरसात में बाढ़ आती, उफन रही थी। तटबंध टूट चुके थे। लहरों का सम्मोहन उन्हें आमंत्रित कर रहा था। वे मोहाविष्ट से उसमें एक साथ उतरे थे। उनके वस्त्र नदी की तेज धार में कब बह गए, पता भी नहीं चला। वे नदी के बीच डूब रहे थे। दोनों ही तैरना नहीं जानते। एक दूसरे को बचाते अन्ततः भंवर में डूब गए थे। एक विश्रांति। डूब कर मरने के बाद शायद उसका पुनर्जन्म हुआ था। लेकिन नरेन कहां है? मालकौश के स्वर आरोह से अवरोह की ओर उतर चले थें।
अगली सुबह उसके मन में नितांत नए अनुभव का उल्लास, नशा, आंखों में शायद जीत की शरारती चमक भी थी। नरेन आंखें चुरा रहा था। मधुरात्रि की अगली सुबह किसी नववधू के चेहरे पर छिपे उल्लास के साथ लाज भरे चेहरे की तरह शर्माता। उसी शाम वह लौट गया था। छुट्टियों के लंबे दिन काटना उसके लिए मुश्किल हो गया था। नरेन की लाई किताबें, पत्रिकाएं वह कई कई बार पढ़ चुकी थी। वह मां को कुछ करने न देती। अपने को व्यस्त रखने के लिए प्रयासरत। रात में देर तक नींद न आती।
यह किन बंद झरोंखों को खोल दिया था तुमने नरेन। जिनसे आती पुरवाई के झोंकों ने मुझे बेसुध कर दिया, मैं आज तक नहीं जान सकी।
अच्छा चेतन, आज बस।
22 अप्रैल
वह जून की छब्बीसवीं तारीख मैं अंतिम सांसों तक नहीं भूल सकूंगी।
नरेन का परीक्षा परिणाम घोषित हुआ था। वह प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ था। वह मिठाई लेकर आया था, उसकी पसंद के संदेश। साथ में देवेन भी था। वह इस बार भी नहीं पास हुआ था। लेकिन बेपरवाह। उसे कौन कहीं नौकरी करनी है? पहले वह मान से भरी रही। इतने दिन बाद आए हैं जनाब। फर्स्ट आने का गुरूर है। लेकिन वह मान ज्यादा देर नहीं चल सका वह अपना उल्लास रोक नहीं सकी थी। उसने अपने हाथों से नरेन की पसंद के तमाम व्यंजन बनाए थे। मां रसोई में थी। उसने थालियां कमरे में लगा दीं। देवेन ने हंस कर कटाक्ष किया था-यह दावत नरेन के पास हो जाने की खुशी में है या मेरे दुबारा फेल होने की? इसके पहले भी वह एक बार कटु टिप्पणी कर चुका था। एक दिन उसने कहा था- नरेन में ऐसा क्या है? जो मुझमें नहीं? मेरे कांटे तो नहीं लगे है। उस दिन वह बिना कोई जवाब दिए वहां से हट गई थी।
किसी ने कुछ नहीं कहा था। देवेन को इसकी अपेक्षा भी नहीं थी। नरेन हाथ धोने आंगन तक गया था। साथ में वह भी पानी का जग लिए हुए। शायद नरेन के साथ कुछ पल एकांत चाहती थी। दोनों ने खाने की प्रशंसा करते हुए खाया। नरेन ने कुछ ज्यादा ही। खुले आंगन में छिटकी चांदनी में देर तक वे बाते करते रहे थे। हमेशा कम बोलने वाला नरेन आज खूब बोल रहा था, मजाक भी। अचानक नरेन के पेट में तेज दर्द के साथ उलटियां शुरू हो गईं। सब घबरा उठे। माँ ने जो घरेलू उपचार कर सकती थी किए। लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। उस दिन शाम से ही बादल घिर आए थे। इस समय तेज बारिश होने लगी थी। उस कस्बे में इतनी रात किसी डाक्टर का मिलना कठिन था। माँ और देवेन पड़ोस से एक हाम्योपैथी के चिकित्सक को बुला लाए थे। उन्होंने एक्यूट कॉलरा होने की आशंका बताई, दवा दी। उन्होंने शहर के सरकारी अस्पताल ले जाने की सलाह दी। नरेन की हालत बिगड़ती गई। जब तक शहर ले जाने के लिए की व्यवस्था हो पाती, उसकी सांसें उलटी चलने लगी थी। चेहरा बदरंग हो गया था। बदन कांपने के साथ ही नीला पड़ गया था। कमरे में माँ, बहन, भाई, देवेन सभी थे। नरेन की आंखों ने सिर घुमा कर उसकी तलाश की थी। उनमें जीने की अटूट इच्छा, याचना, अनकहे शब्दों की व्यथा ज्योति ने महसूस की थी। अब उसे अपने को रोकना असंभव हो गया था। उसे किसी तरह की लाज, संकोच की याद भी नहीं आई। उसने नरेन का सिर अपनी गोद में रख लिया। घर के बाहर मरीज को शहर के अस्पताल ले जाने के लिए गाड़ी आ गई थी। नरेन ने अस्फुट स्वर में पानी मांगा था। उसकी आंखों में बेबसी थी। उसने अपनी बांह से सहारा देकर उसका सिर थोड़ा उठा कर चम्मच से उसे पानी पिलाने की कोशिश की। लेकिन पानी पीने के पहले ही एक हिचकी के साथ उसका सिर उसकी गोद में एक ओर ढुलक गया था। वह चीत्कार कर उठी। डाक्टर बनर्जी अभी थे। उन्होंने उसकी नाड़ी, आंखें, स्टेथेस्कोप से हृदय की धड़कनों का परीक्षण किया था। उन्होंने सिर हिलाया, “ही इज़ नो मोर।“
फोन पर ज्योति की आवाज सिसकियों से भर्रा गई थी।
चेतन- मैडम आयम् सॉरी। बी नॉरमल। जो हुआ, अब बीता हुआ कल है। अब बस करें। मैं फिर फोन करूंगा। अगेन आयम् सॉरी टु रिकाल योर सैड पास्ट।
25 अप्रैल
ठीक 11 बजे - चिरपरिचित स्वर- मैडम मैं चेतन, उम्मीद है अब आप स्वस्थ होंगी।
ज्योति- जी हाँ, धन्यवाद। उस दिन के लिए क्षमा चाहती हूं। मैं भावनाओं में बह गई थी। लेकिन मेरी कहानी अभी खत्म नहीं हुई। उसका दूसरा अध्याय मेरे लिए ज्यादा दुखद है। नरेन की मृत्यु के बाद समय तो बीत ही रहा था। मैं सारी अनुभूतियों से निस्प्रह हो गई थी। बीते हुए को भुलाने के लिए प्रयासरत। बड़ी होती बहन, माँ सब कुछ समझ चुके थे। मेरा व्यक्तित्वं दो हिस्सों में विभाजित हो गया था। पास्कल के गोलों की तरह विपरीत ध्रुवों की ओर खींचता। एक ओर नरेन की स्मृतियां दूसरी ओर एक ताप, जो तमाम बंदिशों को तोड़ते, देह की सीमाओं से बाहर आने को बेताब।
मैं झुलस रही थी। बिस्तर पर जाते ही मेरी यादों के पटल पर कितने चित्र आते जाते मुझे दंशित कर देते। कभी विवस्त्र माँ पर झुके चाचा कभी, नरेन की अस्तित्व हीन बना अजाने लोकों की यात्रा पर ले जाती अनुभव हीन अनियंत्रित सांसों के स्पर्श की स्मृतियां। इस देह की वीणा के तारों में संगीत की झंकार कब से छिपी थी जिसे तुमने जगा दिया था नरेन।
देवेन बीच-बीच में आता। एक दिन उसने अपने पूर्व कथन के लिए माफी मांगी थी, - नरेन के मरने का मुझे भी बहुत दुख है। मैं तुम्हारे मन की हालत समझ सकता हूं। मुझे उसकी विनम्रता पर आश्चर्य हुआ था। उस दिन वह रुका था। जब देर तक नींद नहीं आई तो मैं बाहर आंगन में आकर तख्त पर लेट गई। उजाले पक्ष की चांदनी बंद आंखों में भी चुभ रही थी। मैंने बांह उलट कर आंखों पर रख ली थी। तभी मेरे हाथ पर किसी ने पर हाथ रखा था। मैंने हाथ हटा कर देखा देवेन था। देवेन ने मुझे उठाया। मैं उसका हाथ झटकना चाहती थी। परन्तु गहरे तल मे दबी कौन सी प्यास थी कि शरीर ने मन का साथ नहीं दिया। एक सम्मोहन में कदम उसके पीछे चलते चलते गए थे। कमरे में देवेन ने धीरे से लिटा बिया था। मैं जैसे शरीर से परे स्वयं को देख रही थी। एक दूसरी ज्योति, बिस्तर पर लेटी, मेरी प्रतिरूप।
उसकी आत्मा, मन, सोचने समझने की क्षमता सब देह में तब्दील हो गए थे। परन्तु वह देह से परे थी। वह जितनी निस्पन्द थी, देवेन्द्र की विनम्रता, कोमलता उतनी ही आक्रामक हो गई थी। समय के साथ, कम से कम, ऊपरी तौर पर नरेन की यादें रीत रहीं थीं। हर बार देवेन के आने पर संबंधों की पुनरावृत्ति होती। एक रात जब देवेन उसके कमरे से लौट रहा था, उसने उसे जकड़ कर कहा था- देवेन मत जाओ। मैं नितांत अकेली हूं , बहुत अकेली। मैं सारी वह रात तुम्हारे सीने से सिर लगा कर सोना चाहती हूं। देवेन ने निस्संग स्वर में कहा था- ज्योति, मैं नरेन नहीं हूं , चाह कर भी नहीं हो सकता। और ना ही होना चाहता हूं। यह प्रेम, भावना, भावुकता ऐसी फालतू चीजों के लिए मेरे पास वक्त नहीं है। मुझे पिता के व्यवसाय को आगे बढ़ाना है, बहुत बड़ा आदमी बनना है। राजनीति में भी। मुझे राजधानी जाना है। वहां के एक विधायक ने मुझे बुलाया है। उनकी एकलौती पुत्री से मेरा विवाह लगभग तय है। शरीर की अपनी जरूरतें है। मेरी, और तुम्हारी भी। राजधानी में मेरा अलग फ्लैट होगा। तुम जब चाहे आ सकती हो। हमारे रिश्तों के कारण किसी को संदेह भी नहीं होगा।
वह विस्फारित दृष्टि से उसे देखते स्तब्ध रह गई थी। उसे पहली बार अपने शरीर से घृणा हुई थी। यही तो इस सब की वजह है। उसने दीवाल पर सिर पटक दिया था। रात भर फूट-फूट कर रोती रही थी। नरेन क्यों छोड़ गए मुझे अकेला? किन बंद झरोखों को खोल दिया था तुमने जिनसे आती पुरवाई के झोंकों ने मुझे बेसुध कर दिया था। यह बदन के कौन से गोपन रहस्य थे जिन्हें आज तक समझ नहीं पाई।
शरीर की वीणा के जिन तारों को तुमने बहुत धीरे से झंकृत किया था, बसंत की रातों के वे स्वर जेठ की तपती दोपहर के ताप में कैसे बदल गए? वह एक प्राणहीन रोबोट की तरह घर के कामों में अपने को व्यस्त रखने की कोशिश करती। उसके चेतन, अवचेतन की सभी इच्छाएं कहीं विलुप्त हो गई थीं। छोटी बहन, जो अब समझदार हो रही थी, माँ सब कुछ समझ गई थीं। वह उसे ढाढ़स देने क प्रयास करतीं।
उसका एक महीना चढ़ गया था। पहले तो उसने सामान्य ढंग से लिया लेकिन और लक्षण प्रकट होने पर स्पष्ट हो गया। माँ के समय कई बार आई, दाई आई लेकिन कुछ परिणाम न निकला। चिकित्सकीय जांच की न उतनी सुविधा थी, फिर बदनामी का डर भी। एक दूर के रिश्तेदार के माध्यम से उसकी आनन फानन में शादी तय की गई। वह अपनी पसंद नापसंद के प्रति उदासीन हो चुकी थी। शशांक औपचारिक रूप से उसे देखने आए थे। माँ, बहन आदि ने उन्हें कमरे में अकेला छोड़ दिया था। शशांक की नौकरी अच्छी और संपन्न परिवार के अकेले पुत्र थे। लेकिन वाह्य व्यक्तित्व में उसकी तुलना में हीनतम। उन्होंने गंभीर स्वर में कहा था- ज्योति जी मैं आपको देखने नहीं, कुछ बताने आया हूं। शर्ट के बटन खोल अपने सीने पर सफेद दाग उन्होंने दिखाए थे। यद्यपि विवाह के कुछ वर्षों बाद वह दाग उनके पूरे शरीर में फैल गए थे। उसके पास भी कहने को बहुत कुछ था लेकिन उसकी जुबान जैसे सिल गई थी।
मैंने पहली ही रात और बाद में शशांक से जितनी बार सब कुछ बताना चाहा, उनका एक ही उत्तर था-मेरा तुम्हारे अतीत से कोई संबंध नहीं। प्रत्येक व्यक्ति का एक अतीत होता है, उसका नितांत अंतरंग। यदि वह वर्तमान को नहीं प्रभावित करता तो वो बीत गया कल मात्र है। वह अति उदार, आधुनिक और स्त्रियों की स्वतंत्रता के पक्षधर है। पेण्टिग एक मात्र उनका शौक। कभी मुझे लगता है कि मेरी भी उन्हें कोई जरूरत नहीं। यदि खाने में नमक नहीं भी होता तो वह बिना कुछ कहे खा लेते है। उन्हें प्रकटतः मुझसे कोई शिकायत नहीं रही। मैंने विवाह के आठवें माह एक पुत्री को जन्म दिया था। बच्ची कमजोर थी। सभी ने उसे प्रिमेच्योर डिलेवरी समझा था। कभी-कभी मुझे भी लगता है कि मेरी पूर्व आशंका संदेह मात्र थी।
चेतन- धन्यवाद मैडम, मैंने आपकी स्टोरी रिकॉर्ड कर ली है। मेरे सीनियर प्रोड्यूसर को भी लगता है कि यह हमारे कार्यक्रम के लिए रुचिकर होगी। एक दो दिन बाद अंतिम दौर के कुछ प्रश्न और आपसे पूछने होंगे।
28 अप्रैल
वह प्रतीक्षा रत थी। आखिर उसने स्वयं फोन किया। चेतन ने कहा - सॉरी मैडम, मैं दो दिन कुछ बीमार हो गया था। मैंने आज ही आफिस ज्वायन किया है। आपको फोन करने जा रहा था। आप फोन रखें। मैं मिला रहा हूं।
चेतन-आज के प्रश्न बेहद निजी हो सकते है। लेकिन इसके पूर्व क्या आपको कुछ कहना है?
ज्योति- जी हाँ, उस दिन मेरी जीवन यात्रा का अंतिम परिच्छेद अधूरा रह गया था। जीवन की गति बिना किसी विशेष घटनाक्रम के बीत रही थी। एक पुत्र का जन्म और हो चुका था। अब तो दोनों ही बहुत समझदार हो चुके हैं। मेरे पति की नौकरी स्थानान्तरण वाली है। उन दिनों हम चेन्नई में थे। देवेन की मृत्यु का समाचार मिला था। यह तो बहुत पहले मालूम हो चुका था कि उसकी कोई महत्वाकांक्षा पूरी नहीं हुई। पिता के बाद, व्यवसाय में प्रतिस्पर्धा के कारण पिछड़ता गया और अन्ततः बंद करना पड़ा। विधायक की बेटी से भी उसका विवाह नहीं हो सका था। राजनीति में आने के स्वप्न भी टूट गए थे। निरन्तर असफलताओं से पराजित हो वह नशे की दुनिया में डूब गया था। शराब तो पहले से ही पीता था। अब चरस, गांजा, स्मैक कुछ नहीं बचा था, जो वह न लेता हो। पैतृक संपत्ति बिक कर समाप्त हो चुकी थी। पत्नी चार बच्चों के साथ किसी तरह गृहस्थी चला रही थी। पति को उस समय अवकाश नहीं मिल सका था। बच्चों के भी स्कूल थे। वे लगभग छह माह बाद देवेन के घर आ सके थे। घर मे अभावों की छाया स्पष्ट थी। पुरानी संपन्नता का अवशेष भी नहीं बचा था। देवेन की पत्नी गीता ने किसी तरह सम्हाला हुआ था। वह पारम्परिक तरीके से गले लग कर चीख कर रोई नहीं थी। बच्चों की पढ़ाई, अपने सिलाई स्कूल, देवेन की बीमारी और उसके अंतिम दिनों की बातें बताती रही थी- अंतिम दिनों में वह बिल्कुल बदल गए थे। उन्होंने मुझे सबकुछ बता दिया था। वह अपराध बोध से ग्रस्त थे। वह तुमसे माफी मांगना चाहते थे, लेकिन हिम्मत नहीं जुटा सके थे। देवेन ने अपनी मृत्यु के ठीक पहले मुझसे तुम्हें सबकुछ बता देने का वायदा लिया था। उस दिन तुम्हारे यहां जब नरेन की मृत्यु हुई थी वह स्वाभाविक नहीं थी। जब तुम लोग कमरे से बाहर गए थे तब उसने नरेन के खाने, सब्जी में जहर मिला दिया था। पूरी तैयारी से गया था। जहर उसने कॉलेज की लैब से चुराया था। वह तुम्हारी और नरेन की निकटता से ईर्ष्या में बुरी तरह दग्ध हो गया था। गीता ने कनुप्रिया की वह पुरानी प्रति भी वापस दी थी। देवेन के पास नरेन के न रहने पर रखी होगी। उसने पुस्तक खोली थी। उसके रखे सूख्रे हुए फूल अभी भी वैसे ही रखे थे। मैं फफक कर रो उठी थी।
फिर उस रात क्या अगली कई रातों तक मैं सो नहीं सकी थी। अंदर ही अंदर गहरे अपराध बोध से ग्रस्त। मैं नरेन के असमय अवसान का जाने अनजाने कारण बन गई थी। बाद में देवेन के साथ अपने संबंधों ने मुझे अपनी ही नज़रों में घृणित बना दिया था। उसके प्रति मेरे मन में कोई सहानुभूति नहीं थी, लेकिन मुझे लगता, उसके उकसावे लिए, जिम्मेदार मैं ही थी, नेपथ्य में मेरी ही भूमिका थी। मैं गहरे अवसाद में डूब गई थी। कभी लोगों को पहचानती, कभी अपने बच्चे, पति ही मुझे अपरिचित लगते। जागती आंखों में ही पुराने संवाद, घटनाएं, चित्र दृष्यमान हो उठते। वर्तमान से कटी हुई अतीत में जीने को विवश हो गई थी। छह माह तक सघन चिकित्सा के बाद कुछ सामान्य हो सकी थी। इलाज अभी भी जारी है। एक वक्त भी दवा न लेने पर घबराहट और दिल की धड़कनों की गति बढ़ जाती है। बिना नींद की दवा लिए सो नहीं सकती। लगता है बचूंगी नहीं, काश ऐसा हो सकता।
चेतन ने सुना ज्योति की आवाज सिसकियों से भर गई थी। उसने कहा - मैडम मैं डॉक्टर नहीं हूं , लेकिन इतना कह सकता हूं आप ठीक हो जाएंगी। आप किसी तरह उत्तरदायी नहीं है। नियति को जो मंजूर होता है वह होता है। हम सब विवश है। आज अब मेरे आगे के प्रश्न पूछना उचित नहीं होगा। यदि आप चाहें तो कल इसी समय ठीक रहेगा।
29 अप्रैल
- ज्योति जी आप कैसी है?
- चेतन बहुत अच्छी हूं। कल मैं नींद की गोली खाना भूल गई थी। फिर भी खूब गहरी नींद आई देर तक सोती रही। शायद सब कुछ कह कर मैं मुक्त हो गई थी। अगर पहले कोई सुनने वाला मिल जाता।
धन्यवाद ज्योति जी, इस कार्यक्रम का पहला उद्देश्य ही आत्मसाक्षात्कार के व्दारा स्वयं को जानना है। इसी से किसी को दुखद स्मृतियों से मुक्ति और मन की असीम शांति प्राप्त हो सकती है। यह मुक्ति कहीं बाहर से नहीं मिलती। इसकी तलाश हमें स्वयं अपने अन्दर करनी होती है। अब कुछ निजी प्रश्न होंगे। इनके उत्तर, जहां तक संभव हो, केवल हाँ या नहीं में होने चाहिए।
- जी पूछिए।
- क्या आपको अभी तक के जीवन, घटनाएं, उनमें आपकी संलिप्तता, अपने अतीत पर किसी प्रकार का पछतावा है?
- जी नहीं, उत्तर अविलंब मिला।
- क्या आप अपने परिवार और वर्तमान से संतुष्ट हैं?
- जी हाँ।
- क्या आपके पति आप से प्रेम करते हैं? और क्या आप को लगता है कि वे आपका अतीत जान कर भी आप से इतना ही प्रेम करते रहते?
- जी अवश्य।
- क्या आप अपने पति को उतनी ही संपूर्णता से प्रेम करती हैं, जितना वह?
- कुछ पल रुक कर, नहीं।
- क्या आपके मन में उनके प्रति किसी कोने में घृणा है?
- देर तक चुप्पी, जी नहीं।
- क्या देवेन के प्रति आप के मन में अभी भी घृणा है?
- अब नहीं।
- क्या आपके मन में पति के अतिरिक्त किसी इतर पुरुष के प्रति आकर्षण और संबंध बनाने की चाहत उत्पन्न हुई है?
कुछ देर के बाद एक झिझक फिर -- जी हाँ।
- क्या कभी ऐसे संबंध बने हैं?
- कुछ रुक कर गहरी सांस, जी।
- एक अंतिम प्रश्न। क्या आप अपने पति से भावनात्मक और दैहिक तौर पर संतुष्ट हैं?
- देर तक चुप्पी के बाद, नहीं।
चेतन - धन्यवाद मैडम, यदि आप विश्वास करें मैंने इस कार्यक्रम के लिए अनेक साक्षात्कार लिए है। उनके दर्द, संवेदनाओं को गहराई से अनुभव किया है। लेकिन आपने जिस साहस के साथ जीवन के सत्य को स्वीकार किया है। मैं अभिभूत हूं। पिछली रात आप की कहानी पर काम करते मैं देर तक विचारों में खोया रहा और सारी जागते बीती। मैं आपकी स्टोरी जल्दी ही पूरी कर मुख्यालय भेज रहा हूं। दूसरे दौर के इण्टरव्यू , जो विजुअल होगा और मनोवैज्ञानिक परीक्षण के लिए आपको आमंत्रित किया जाएगा। मेरी ओर से शुभकामनाएं और विदा, आगे आपको नए प्रोड्यूसर मिलेंगे।
ज्योति - चेतन, अब मैं एक प्रश्न पूछना चाहती हूं? जब पहली बार तुम्हारा फोन आया था, मैं चौंक गई थी। तुम्हारी आवाज हूबहू नरेन की तरह लगी थी। तुम्हारी कम्पनी में बहुत लोग होंगे इन साक्षात्कारों के लिए। यह कौन सा संयोग हैं कि तुमने ही मुझे फोन किया। मुझे लगता है तुम मुझसे बहुत छोटे होंगे। जितना नरेन बीस वर्षों पहले रहा होगा। उसकी उम्र, उसकी शक्ल, उसकी अंतिम दृष्टि मेरे अंदर हमेशा शायद 20-30 वर्षों बाद भी उसी रूप में बसी रहेगी. जब उसने मेरी गोद में अंतिम सांसें ली थीं। उसके हिस्से का समय मेरे लिए रुक गया है, कहीं गहरी तलों के नीचे। जीवन के कितने वर्ष मन किस मृगतृष्णा में अनजानी घाटियों में भटकता रहा। काश, तुम पहले मिले होते। अर्न्तमन के किन झरोखों के खोल दिया है तुमने। तुमसे मेरा कोई संबंध नहीं, कभी देखा नहीं। शायद भविष्य में हम कभी मिलेंगे भी नहीं। तुमने नरेन को मेरे लिए पुनर्सृजित किया है। अब मेरा प्रश्न सुनो। मन हो तो उत्तर देना- क्या तुमने किसी से प्रेम किया है?
कुछ देर लगी। शायद वह किसी विचार में डूबा रहा, फिर हंसी का स्वर सुनाई दिया - मैडम, इण्टरव्यू आपका हो रहा है, मेरा नहीं। अच्छा बाय।
उसने आज इस सत्य को जाना था। हमने संसार को युगों से दो विपरीत आयामों में विभाजित कर रखा है एक ओर यह संसार, अपनी समस्त सुन्दरता, विरूपता, अच्छाइयों और बुराइयों के साथ अदम्य आकर्षण से भरा, दूसरी ओर मोक्ष की काल्पनिक अवधारणा जिसके संबंध में हम कुछ नहीं जानते, केवल युगों के संचित अनुभवों के आधार पर रचित ग्रंथों से ही अनुमान लगाते है। परंतु क्या हम अपने अन्तर्मन के सत्य को स्वीकार कर इस जीवन में ही उस मुक्ति को नहीं पा सकते?
उस दिन वह इस एहसास से लबरेज थी। दिन भर कुछ गुनगुनाती रही। शाम को बच्चे और पति आश्चर्य चकित थे। घर की साज सज्जा में परिवर्तन और शाम के नाश्ते और रात के खाने में इतनी तरह की डिशें थीं कि पति और बच्चों ने पूछ ही लिया- जहां तक याद आता है कि आज किसी का जन्मदिन तो है नहीं फिर यह तैयारी?
-अरे तुम लोग नहीं जानते? मदर्स डे, फादर्स डे, फ्रेण्ड्स डे, वेलेण्टाइन डे की तरह आज मुक्ति पर्व है। वह खिलखिलाई। रात में पति विस्मित थे। दाम्पत्य संबधों को, ज्योति की बीमारी के बाद, अरसा हो गया था। यदा कदा हुए भी तो एक तरफा। आज पहल ज्योति की तरफ से थी। उसकी ऊष्मा, आवेग का ज्वार चरम पर था। नववधू के श्रृंगार में उसकी आकांक्षाएं, उत्कंठाएं आयामहीन बन खुले गगन में निर्द्वंद पक्षी की सीमाहीन उड़ान की भांति समा नहीं रहीं थीं। वह अतीत और भविष्य से परे वर्तमान में जीवन पुष्प का संपूर्ण रस एक तितली की तरह सोख लेना चाहती थी। उसने महसूस किया वह युगों से बहती एक नदी है जिसमें सब अवांछनीय बह चुका है। दोनों ही मधुयामिनी की स्मृतियों में डूब गए थे। उसने सुख से शशांक को ही नहीं भर दिया, स्वयं स्त्रीत्व की गहन अनुभूतियों की संपूर्णता से भर गई थी।
अब चेतन का फोन तो आना भी नहीं था परंतु वह स्फूर्ति के निर्मल एहसास से परिपूर्ण किसी अज्ञात प्रतीक्षा में थी। वह कई बार उसके व्यक्तिगत मोबाइल पर काल करती लेकिन कनेक्ट होने के पहले ही काट देती।
15 मई
उस दिन उसके विवाह की वर्षगांठ थी। पति, बच्चों ने कांग्रुचुलेट किया था। शाम का कार्यक्रम बना जल्दी आने को कह कर चले गए थे। उसने ठीक 11 बजे चेतन को उसके मोबाइल पर फोन किया था। घंटी बजती रही। फोन किसी ने नहीं उठाया। कुछ देर बाद उसने फिर कोशिश की लेकिन इस बाद भी फोन नहीं उठा। कई बार ट्राई करने के बाद आखिर उसने प्लैनैट चैनल का नम्बर मिलाया था। ऑपरेटर की औपचारिक बात सुने बिना उसने कहा था- मि0 चेतन से बात कराएं।
आपरेटर- सॉरी मैडम, चेतन जी ने रिजाइन कर दिया है। अब वे हमारे यहां नहीं है। मैं आपकी बात उनके स्थान पर आए नए प्रोड्यूसर से करा रही हूं।
कुछ पलों बाद- हलो प्लैनेट टी0वी0।
- मैं ज्योति बोल रही हूं। कुछ दिन पहले मि0 चेतन ने “मीट योरसेल्फ कार्यक्रम“ के लिए मेरा इण्टरव्यू लिया था। मुझे उनसे बात करनी है।
-मैडम मि0 चेतन ने नौकरी छोड़ दी है। उनका मोबाइल भी नहीं मिल पा रहा। संभवतः उन्होंने उसे स्थाई रूप से बंद कर दिया है। वह पिछले कुछ दिनों से गहरे डिप्रेशन में थे। शायद इसी स्थिति में उन्होंने लिए गए सभी साक्षात्कार कम्प्यूटर सिस्टम से डिलीट कर दिए है। शायद वह अपने धर, कोलकता में कहीं, लौट गए है। यदि आप इस कार्यक्रम के लिए रजिस्ट्रेशन कराना चाहें तो दिए गए नम्बर पर एस0एम0एस0 कर दें।
उसने मोबाइल काट दिया। मुस्कराई, जैसे स्वयं से कहा था- नरेन तुम शायद युगों से जन्म जन्मान्तर से मेरी आत्मा, अन्तर्मन के किसी कोने में छिपे थे, लेकिन सामने आते ही हर मोड़ पर कहां गुम हो जाते हो, हमेशा के लिए?
प्रताप दीक्षित
एम0डी0एच0 2/33, सेक्टर एच,
जानकीपुरम, लखनऊ 226 021
Email dixitpratapnarain@gmail.com
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परिचय
नामः प्रताप दीक्षित
जन्मः 30 सितंबर 1952
शिक्षाः एम0ए0 (हिंदी)
रचनाएं: हंस, वागर्थ, नया ज्ञानोदय, वर्तमान साहित्य, कथाक्रम, कथादेश, वर्तमान साहित्य, पाखी, संचेतना, लमही, उत्तर प्रदेश, जनसत्ता, दैनिक जागरण, अमारउजाला, अक्षरा, शुक्रवार, जनसत्ता, हिन्दुस्तान, नवभारत, पंजाबकेसरी जनसंदेश टाइम्स आदि में 150 से अधिक कहानियां, समीक्षाएँ, लघुकथाएं, आलेख, व्यंग्य प्रकाशित।
दो कहानी संग्रह (‘विवस्त्र एवं अन्य कहानियां‘ तथा ‘‘पिछली सदी की अंतिम प्रेमकथा’) प्रकाशित।
उत्तर प्रदेश हिन्दी प्रचारिणी सभा द्वारा आयोजित कविता प्रतियोगिता में तत्कालीन राज्यपाल उत्तर प्रदेश (श्री अकबर अली खान द्वारा पुरस्कृत 1973
प्रताप दीक्षित के रचनाओं पर रूहेलखंड विश्वविद्यालय में एक छात्रा द्वारा पी.एचडी हेतु शोध.
संप्रतिः भारतीय स्टेट बैंक में प्रबंधक पद से सेवानिवृत्ति के बाद स्वतंत्र लेखन.
जानकीपुरम, लखनऊ 226 021
संपर्कः Email dixitpratapnarain@gmail.cpm
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