कहानी - अब क्षमा याचना नहीं - प्रताप दीक्षित उस शाम पेड़ों की परछाइयाँ फिर लंबी होते-होते अंततः धुंधलके में अपना अस्तित्व खो चुकी थीं. एक वि...
कहानी -
अब क्षमा याचना नहीं -
प्रताप दीक्षित
उस शाम पेड़ों की परछाइयाँ फिर लंबी होते-होते अंततः धुंधलके में अपना अस्तित्व खो चुकी थीं. एक विराम के बाद अगली सुबह की शुरुआत के लिए. अँधेरे में भी झुकी नज़रों से उसने गली में फैले सन्नाटे को छिप कर अपनी ओर ताकते पाया. मालूम नहीं कि सन्नाटा से ही था कि खुसफुसाहट के बाद उगा – कहीं अधिक मुखर. पड़ोस के बंद खिडकी-दरवाजों में अनेक नेत्र उग आए थे. इन अदृश्य आँखों में घृणा और लिजलिजाहट भरी उत्सुकता उसने महसूस कर लिया था.
मिसेज मित्तल तो नि:संकोच, महिला पुलिस-कर्मियों के बीच उसे आता हुआ देख, शायद सब कुछ जानते हुए भी, अनजान बन उसके पास सबकुछ दरयाफ्त करने चली आतीं लेकिन मौके की नजाकत और पुलिस-कर्मियों के चेहरे देख अपना कार्यक्रम स्थगित कर दिया. स्थानीय समाचार पत्रों में यह घटना या दुर्घटना छप ही चुकी थी. जैसा कि होता है, उसने सोचा, लोग इसका विवरण चटखारे लेकर पढ़ रहे होंगे. ‘च’ – ‘च’ करते हुए, मुस्कराहट दबाने की असफल कोशिश के साथ, सहकर्मियों-मित्रों की ओर इंगित करते हुए. अखबारों में नाम न होने पर भी पक्का अनुमान लगाने के दावे के साथ.
यात्रा घर के सामने खत्म हुई थी. साथ की पुलिस-कर्मियों ने उसकी ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देख दरवाजे की घंटी बजाई थी. दरवाजा धीरे-धीरे किसी तिलिस्म की भांति खुला था. थोड़े से खुले किवाड़ के पीछे उसकी सास ने चौकन्ना होकर झाँका. उन्हें देख कर कुछ क्षण ठिठकने के बाद अनिच्छा से एक ओर हट गईं. उसे नियत का जाना-पहचाना नहीं बल्कि एक अनंत अँधेरी सुरंग का द्वार लगा. ड्राइंगरूम में अंदर से पति और ससुर भी आ गए थे. उसने साड़ी का पल्ला सिर पर कुछ आगे खींचने का उपक्रम किया. महिला सिपाहियों ने उसके पति-ससुर से उसकी बरामदगी और यथास्थान सुपुर्दगी के लिए कुछ कागजों पर हस्ताक्षर करवाए. कुछ पल ठिठकी रहीं. उनकी आँखों में कुछ प्रत्याशा फिर असमंजस उभरा, फिर बिना कुछ कहे अप्रत्याशित ढंग चली गईं.
माहौल में एक चुप्पी घुली थी. ठीक श्मशान से लौटने के बाद जैसी. उसका मन व शरीर बुरी तरह थके हुए थे. ध्वस्त कवच कुण्डलों के बाद पराजित योद्धा की भांति. उसकी तात्कालिक आवश्यकता इस समय एक कप गर्म चाय के साथ कुछ खाने की थी. पिछले चौबीस घंटों में, सुबह थाने में, एक कप चाय और दो बिस्किट मात्र लिए थे. उसने कमरे में स्वयं को अकेला पाया. भीड़ में छूट गई एक अकेली असहाय बच्ची की भांति उसने निरीह भाव से चारों ओर देखा. वह जमीन पर भहरा पड़ी. मिनी, उसकी पंद्रह-सोलह वर्षीय ननद उसके लिए चाय और कुछ खाने ले आई थी. उसने कातर दृष्टि से उसकी ओर देखा और रो पड़ी. तभी अंदर से मिनी को बुलाने की आवाज, दबी परंतु तीखे स्वर में आई. मिनी के मन में भाभी के प्रति करुणा उपजी लेकिन फिर कुछ कहे बिना चली गई. थकान के कारण उसकी आँखें बोझिल हो रही थीं. वह देर तक यूं ही पड़ी रही. रात काफी बीत गई थी. उसको आश्रय की तलाश थी. पति के कंधे से लग कर रो लेना चाहती थी. पति का सांत्वना भरा स्पर्श उसका संबल बन सकता था. लेकिन वह जानती थी कि यह उसकी मृगतृष्णा मात्र है. मालूम तो उसे शादी के बाद ही हो गया था.
एक साधारण सी लड़की का जो अभीष्ट होता है उससे अधिक उसकी कामना भी कब थी. निम्न-मध्य वर्गीय परिवारों में लड़कियों को अभावों के साथ तारतम्य स्थापित कर लेनी में किसी अतिरिक्त प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं पड़ती. विज्ञान की छात्रा होने पर भी साहित्य और कला के प्रति उसकी रूचि ने उसमें गहरी संवेदनशीलता के साथ ही भावनाओं को नियंत्रित कर परिवेश के साथ सामंजस्य करने की क्षमता उसमें विकसित कर दी थी. वह पिता को उसके विवाह के लिए प्रयासरत-दौड़ते और निराश होते देखती. प्रायः उसकी नुमाइश का आयोजन जोता. वह आकर्षक थी परंतु सांवले रंग और दहेज की मांग के कारण बात निष्कर्ष तक पहुँचने के पहले ही समाप्त हो जाती. विवाह के इंटरव्यू अक्सर पूछे जाने वाले सवाल होते – ‘तुम्हें नृत्य और गाना तो आता ही होगा? कॉलेज के विषय, उनके प्रतिशत, खाना बनाए और सिलाई-बुनाई में तो लड़कियों को पारंगत होना ही चाहिए. आदि, आदि.’ इन विरोधी ‘गुणों’ की संगति ना बैठाना उसके लिए मुश्किल होता. वह अंदर से आहत परंतु ऊपर से सहज बनी रहती. उसमें एक खिलान्दरापन दिखाई देता. उन लोगों के जाने के बाद, शरारतन लड़के वालों की नक़ल उतारती, खिलखिलाती.
नौकरी की उम्र की अंतिम सीमा पर उसका चयन बैंक में पी.ओ. के हो गया था. पिता और परिवार को आश्वस्ति हुई थी. लेकिन उनकी आशा का आहार निर्मूल ही साबित हुआ. विवाह के अर्थशास्त्र में दहेज कि अपेक्षित मांग, उसकी बढ़ती उम्र के अनुपात में, बढ़ गई थी. उसके पिता-परिवार से ज्यादा उसके रिश्तेदारों को उसके विवाह की चिंता थी. उनके सद्प्रयासों से अंततः उसका विवाह, उससे केवल दस वर्ष बड़े चि० कालिका प्रसाद के साथ, तमाम विघ्न-बाधाओं के उपरांत भी, संपन्न हो गया. दहेज की मांग पर ज्यादा जोर नहीं दिया गया. एक तो वर की अधिक उम्र, दूसरे भावी वधू की बैंक की नौकरी. यों तो जीवन का एक आख्यान यहाँ समाप्त हो सकता था. परंतु कहानी में तो ऐसा नहीं होता. जीवन में भी ऊपरी तौर पर तो सब सामान्य प्रतीत होता है परंतु उसमें भी यथार्थः विराम कहाँ आता है.
विवाह पूर्व ससुराल पक्ष द्वारा तमाम आधुनिक और पारंपरिक वस्तुओं की नित्य परिवर्धित लिस्ट तथा रिश्ता कहीं और देख लेनी की बार-बार धमकी नुमा सलाह अनपेक्षित तो नहीं थे. वर के पिता शुक्ल जी जिला न्यायालय के पेशकार के सहायक पद से अवकाश ग्रहण किया था. उन्हें आसामियों से मोल-भाव करने का अनुभव था. साम, दाम, दंड, भेद आदि. वह कटे, ‘भइये, यह लोग तारीख पर जेबें भर कर आते हैं. लेकिन निकालते हैं मुश्किल से बीस रूपए. गिड़गिड़ाएंगे, कसमें खाएंगे. इन्हें जरा सी ढील दी कि गया हाथ से.’
वे हँसते हुए अपने अनुभव सुनाते, ‘अरे चौधरी जरा दूसरी तरफ की जेब देखो. इतने बड़े आदमी की जेब खाली हो ही नहीं सकती.’ वह कहते तो कड़ाई कर सकते थे. लेकिन उनका विश्वास था कि जब आदमी गुड देने से मर सकता है, तो जहर क्यों दिया जाए. कभी-कभी कोई कंगला भिखारी टकरा जाता. उस दिन घर लौटने तक उनका मूड ऑफ रहता.
यदि इन बातों को ऐसे अवसरों की सामान्य प्रक्रिया मान भी लिया जाए तो भी बाद में ‘सब कुछ ठीक हो जाने जैसा’ भी तो कुछ नहीं हुआ था. ससुर-गृह में स्त्रियों के प्रति किसी औपचारिक या अनौपचारिक सहृदयता की परम्परा तो थी नहीं. शुक्ल जी को पछतावा ऊपर से था – भट्ठे वाले अवस्थी जी मुंहमांगी रकम दे रहे थे. इंजीनियर बेटे और पी.डब्ल्यू.डी. की कमाई नौकरी- कोई रिश्तों की कमी थी. किस्मत फूटी थी कि जो कंगलों के यहाँ फंस गए. ऊपर से बहू का रोज मुंह उघाड़े निर्लज्जों की तरह नौकरी पर जाना? उसकी नौकरी ने उन्हें धर्म-संकट में डाल दिया था. उनकी मान्यताओं के अनुसार ‘खाना, पाखाना और जनाना’ घर के एकांत में होने चाहिए. परंतु उसका वेतन! वे उसांस भर कर रह जाते. शास्त्रों में इसका समाधान खोजने का प्रयास करते और अंत में ‘आपत्ति काले मर्यादा नास्ति’ सोच अपने को तसल्ली दे लेते.
सुधा को परिवार से इस सबकी अपेक्षा भी नहीं थी. उनकी उदारता इतनी क्या कम थी कि उसकी नौकरी नहीं छुड़वा दी गई. परंतु पति से उसे जिस सहज अंतरंगता, सुरक्षा और विश्वास की उम्मीद थी उससे जल्दी ही मोहभंग हो गया था. पति के मन में कॉम्प्लेक्स था. ऊपरी आमदनी ज्यादा होने पर भी वेतन पत्नी से कम था. शिक्षा हाई स्कूल के बाद पोलिटेक्निक का डिप्लोमा मात्र. जब कि सुधा प्रथम श्रेणी में एम.एससी. थी. परंतु सुधीर के लिए पुरुष होना मात्र ही महत्वूर्ण था. वह अक्सर मुंह में पान या गुटखा चुभलाते हुए कहता – औरत आखिर औरत होती है. रहना तो उसे मर्द की टांगों तले ही है. वह ठहाका लगता.
शुरुआत पहली रात ही हो गई थी. सुधा को पढ़ी-सुनि कल्पनाएँ और इस रात के लिए संजोए गए सपने झूठे लगे थे. पति ड्रिंक करके आया था. अब होली-दिवाली या शादी-ब्याह जैसे मौकों पर पीना क्या पीना कहा जाएगा. न मात्र वस्त्र बल्कि लाज, श्रम, संकोच के आवरण भी तार-तार हुए थे. उसकी निरावृत्त देह को झिंझोड़ते हुए उसने प्रश्न किया था – यह कैसे मान लूं कि इतनी उम्र तक यह अनछुआ रहा होता, तुम कुँवारी हो!’
वह अक्सर इस तरह की बातें करता. उत्तर की उसे जरूरत भी नहीं थी. गोपनीय क्षणों में अंतरंगता के वक़्त या बाते उसके मित्रों से संस्कारों में मिली थीं. परिवार के सुशील, आज्ञाकारी, दूसरों के लिए आदर्श पुत्र था. ऊपरी आमदनी, ठेकेदारों की संगति के बाद भी नियमित रूप से पूजा-पाठ करता. ऐसे माता-पिता के भक्त मिलते कहाँ हैं! उसकी दृष्टि में पुरुष और स्त्री के क्षेत्र अलग-अलग थे. उसको समय से भोजन और रात में पत्नी की जरूरत होती.
लेकिन ऐसा भी नहीं कि इसके लिए वह पालतू बन जाएगा. वह अक्सर देर से घर आता. सुधा के कुछ कहने पर उसका जवाब रहता – मर्द का शाम से ही घर में घुस जाने का मतलब क्या है? सुधा की किसी जरूरत या समस्या पर वह माँ से कहने को कहता. उनके विरुद्ध तो कुछ सुनना भी उसे अपराध लगता. यह सिलसिला चलता रहा. सुधीर न उसका मनन देखता न भावनाएं. वह अपने को न्यायोचित सिद्ध करता – औरत अनपढ़, गंवार हो या पढ़ी-लिखी अफसर चाहती यही सब है. फूहड़ कहावतों-चुटकलों का उसके पास खजाना था – ‘औरत को चाहिए न ताजो-तख़्त . . .’ उसे समर्पण का श्रेय भी न मिल पाता. सुधीर अपना प्राप्य वसूल कर खर्राटे लेने लगता. दैहिक आवेग में उसकी शिराएं तन जातीं, उसका तन, मन और आत्मा अतृप्ति के रेगिस्तानों में भटकने को विवश हो जाते. ऑफिस जाने के पहले और बाद घर के कामों का दायित्व तो उस पर था ही. कभी उठने में देर होने पर सास, ‘घोर कलयुग आ गया है. ऐसी भी क्या जवानी . . .’ वे उसकी जवानी को अलापतीं. प्रतिमाह उसका वेतन सहेज, गिनकर शुक्ला जी को दे देतीं. वे सदा की भांति इस अवसर पर दोहराना न भूलते, ‘इससे कहो घर-परिवार में रमें. हमारे खानदान में औरतें घर से पैर नहीं निकालती. लेकिन अब जमाना ही बदल गया है. इतने मर्दों के होते हुए एक औरत देश की गद्दी पर बैठी है.’ शुक्ल जी इन्दिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से और कुंठित हो गए थे.
वे रूपए एक बार फिर गिनते. जनेऊ में बंधी चाभी से अलमारी खोल रूपए रख देते. अक्सर उसकी साड़ी, लिपस्टिक और फैशन पर टिप्पणी करते, ‘हरि ओम्, हरि ओम्! एक दिन जरूर नाक कटेगी. बहु स्वतंत्र होइ बिगरहि नारी.’
एक बार वेतन मिलने पर उसने छोटे भाई को उसके जन्मदिन पर घड़ी खरीद कर दे दी. वेतन के रूपए कम देख कर घर में कहर आ गया था. सास अशिक्षित होने पर भी रूपए गिनना, हिसाब-किताब तो जानती ही थीं. उन्होंने एक बार फिर से गिना. ससुर जी अलमारी खोल चुके थे. वे अवाक रह गए. इस अवसर पर दोहराया जाने वाला संवाद दोहराना भी भूल गए.
‘इस बार तनख्वाह कम? अच्छा, डी०ए० कम हो गया होगा! मंहगाई जो कम हो गई है!’ उन्होंने कटाक्ष किया.
‘जी नहीं.’
‘फिर?’
‘डब्बू का जन्मदिन था न!’
‘डब्बू ? तो?’ स्वर में स्वर में तेजी के साथ अनभिज्ञता का भाव था. जानते हुए भी अनजान बने. वे प्रतिपक्षी को हतप्रभ करने की कला में पारंगत थे.
‘जी छोटा भाई. उसके जन्मदिन पर घड़ी खरीदी थी.’ उसने साहस जुटा कर स्पष्टीकरण दिया.
फिर तो कंगालों का वरद्गान. निठल्ले भाई और माँ-बाप का बेटी की कमाई खाकर नर्क में भी ठौर न मिलने की निश्चितता का वर्णन कई दिनों तक होता रहा.
शुक्ला जी कई माध्यमों से उसे मिलने वाले वेतन, डी०ए० के स्लैब्स एवं अन्य लाभों के संबंध में पूरी जानकारी रखते. लगभग सभी प्रकार के ऋण उससे लिवाए जा चुके थे. उसे निजी आवश्यकताओं के लिए उन पर निर्भर रहना पड़ता. बाकायदा सवाल जवाब होते.
‘अभी पिछले सप्ताह ही तो पूरे सौ रूपए लिए थे?’
‘जी आने-जाने में रिक्शे और ऑफिस में एक स्टाफ की फेयरवेल पार्टी थी.’
‘और बाकी? फिर फेयर-वेयरवेल में तुम्हारी क्या जरूरत? कहा नहीं – हम तो लेडिस हैं.’
वह टूटती गई. घर, नौकरी, पति, परिवार! वह चुक गई थी. ससुर की टिप्पणियों पर व्यथित हो उसने नौकरी छोड़ देने का निश्चय कर लिया था. पूरे सप्ताह बैंक नहीं गई. सभी हतप्रभ रह गए थे. शुक्ला जी बड़ाबड़ाए – मुझे मत दोष देना. मैं तो झेल रहा हूँ. कंगले बाप ने तो धोती खोल दी थी. इंजिनियर बेटे, ऊपर से कमाऊ नौकरी. लाखों मिल रहे थे.
सास ने उसे टस से मस न होते देखा तो आशंकित हो सिर पीटने लगी, ‘यह तिरिया चरित दिखाया जा रहा है!’ सुधीर पहली बार कुछ सहज हुआ था, ‘यह क्या? बड़ों की बात पर इस तरह जिद करते हैं? तुम्हारे पिता के सामान हैं. कुछ कह दिया तो क्या हुआ.’ साथ ही धमकी भी, ‘नौकरी छोड़नी है तो ठीक है अपने पिता के घर जाकर जो मन में आए करो.’ वह समझ गई करना इन सबके मन की होगी. वह जाने कब चली गई होगी लेकिन परम्पराओं को मानने वाले पिता इसे कैसे सहन कर पाएंगे.
विवाह के सात वर्षों बाद तक माँ न बन सकने के कारण सास ताने देती. झाड़-फूंक कराती. चिकित्सकीय जांच में वह सामान्य थी. सुधीर को जांच की आवश्यकता ही क्या थी. वह तो अपनी मर्दानगी का सुबूत देने के लिए तत्काल तत्पर रहता. जीवन के प्रति उसकी ललक खत्म हो चुकी थी. बैंक जाने का एक कारण रह गया था कि वह काम के उन घंटों मे सब कुछ भूल जाती. कर्तव्य-निष्ठा उसमें सदा से थी. जहां अन्य सहकर्मी देर से आते, जल्दी चले जाते. वह दोपहर तक ग्राहकों के कार्य निपटाती. कार्य उसकी सीट का होता या किसी अनुपस्थित सहकर्मी का, उसे अंतर न पड़ता. बैंक आने वाले ग्राहक उससे प्रसन्न रहते. लंच के बाद बैंक के आतंरिक कार्य, खातों का संतुलन, कैशबुक, पत्राचार आदि. पिछले दिनों एक छोटे से प्रमोशन के बाद उसका स्थानान्तरण शहर की इस आखिरी कोने वाली शाखा में हो गया था. स्त्री होने के नाते अन्यथा बाहर जाना निश्चित था. कभी सुधीर छोड़ देता. अधिकांशतः वह बस, रिक्शे या टेम्पो से आती-जाती. उन दिनों इंस्पेक्शन – ऑडिट टीम चल रहा था. बहुधा बैंक से चलते देर हो जाती. उस दिन ऑडिट हेतु जरूरी रिटर्न्स, प्रपत्र तैयार किए थे. बाहर निकालते समय वर्मा था. स्कूटर निकालते हुए उसने संकोच के साथ उससे साथ चलने के लिए पूछा था. उसने विनम्रता से माना कर दिया था. किसी पर-पुरुष के साथ उसके स्कूटर में? वह तो सोच भी नहीं सकती थी. पति पहले से ही संदेश करता था. उसकी दृष्टि में नौकरी पेशा स्त्रियों का चरित्र विश्वसनीय नहीं होता. उन दिनों नौकरी करती ही कितनी औरतें थीं? कुछ ज्यादा से ज्यादा स्कूल में पढ़ाने का. ससुर जी शास्त्रों के श्लोकों से प्रमाणित करते जिसके अनुसार स्त्री और पुरुष आग और फूस की भांति हैं. जितना संभव हो एक-दूसरे से दूर रहें.
निकालते-निकालते कुछ अँधेरा घिर आया था. तेज हवाएं और आसमान से बूंदा बंदी भी शुरू हो गई थी. वह जल्दी जल्दी चलते हुए पास के टेम्पो स्टैंड तक गई. वहां एक भी टेम्पो नहीं था. उसे पता चला दोपहर के बाद टेम्पो-चालकों की हड़ताल हो गई थी. शहर से दूर होने के कारण वहां से रिक्शे भी यदा-कदा ही मिलते. अब आखिरी बस का थी ठिकाना था. वह असमंजस में थी. पास में कहीं से घर के पड़ोस में फोन हो सकता. इसके लिए ब्रांच वापस जाना होता. तभी एक रिक्शा आता दिखा. वह जल्दी से उसे रोक बैठ गई. अब तक वह काफी भीग गई थी. कैंट तक आने के पहले, रास्ते का कुछ हिस्सा ऐसा था जहां सन्नाटा अधिक रहता. सड़क के दोनों ओर दूर-दूर तक जंगलनुमा खाली मैदान, पेड़ और झुरमुट. रोज बस में सवारियों के बीच इतना सन्नाटा महसूस न होता. उसे लगा रास्ता आज अधिक लंबा हो गया है. तभी रिक्शा लड़खड़ाया और रुक गया. रिक्शे वाले ने उतर कर जांच की. रिक्शे का एक्सेल सड़क के खांचे में पड़ कर टूट गया था. पहले वह बैठी रही. जब निश्चित हो गया कि रिक्शे का चलना संभव नहीं वह विवश हो उतर गई. रिक्शेवाला पैदल रिक्शा खींचते हुए चला गया था. पानी तेज हो गया था. दूसरे रिक्शे, टेम्पो या बस के इन्तजार के अन्य विकल्प भी क्या था! उसने इधर-उधर देखा. आश्रय के लिए सड़क के किनारे एक गुमटीनुमा दुकान के शेड के नीचे दौड़ती पहुंची थी. कपड़े भीग कर शरीर से चिपक से गए थे. दुकान में चार-पांच किशोर मौजूद थे. तभी बिजली चमकी थी. उसने देखा उनकी उम्र सोलह – सत्तरह के करीब रही होगी. उसके उम्र के लिहाज से निरे बच्चे. फिर भी उसे संकोच हुआ. उसने भीगी हुई साड़ी में ही अपने को चारों ओर से समटने की कोशिश की.
लड़के अपनी बातों में मशगूल थे. जैसा इस उम्र में अमूमन करते हैं. कॉलेज, अध्यापक, बेकारी, घर वालों की नजर में उनका निकम्मापन, फिल्मों, लड़कियों की. बातों से उनकी आँखों में तैरते सपने, भविष्य की आशंकाएं और हताशा स्पष्ट थीं. उस लगा इस प्रकार कह-सुन कर इन्हें अपनी कुंठाओं से कुछ देर के ही लिए निजात मिल जाती होगी. उसे अपने भाई की याद आ गई. भाई उससे काफी छोटा था. नौकरी की तलाश में बुझा-बुझा रहने लगा था. माँ के न रहने के बाद इधर-उधर घूमता रहता, गायब रहता. वह अभी भी उसे बच्चा लगता, नितांत भोला, दुनियादारी से दूर. उस दिन वह पिता के यहाँ आयी थी. भाई के कमरे में कुछ ढूढ़ते हुए उसकी अलमारी में किताबों के बीच दो-चार ऐसी किताबे, चित्र हाथ लगे. स्त्री-पुरुष के संबंधों वाली सस्ती. वह चौंक गई. उसका मन हुआ कि उसके आने पर उसे खूब फटकार लगाए. लेकिन उसने उन्हें यथास्थान रख दिया. भाई के आने पर संकोच और उसके चेहरे की मासूमियत देख कुछ ना कह सकी. उम्र का तकाजा मान चुप रही. उसे पढ़ने में मन लगाने की हिदायत दी. वह हमेशा उसका साहस बंधाती, सांत्वना देती. जो हो सकता उसकी मदद कर देती. मजबूरियों की तहत ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकती थी.
पानी तेज हो गया था. वह विचारों में डूबी रही. बिजली के चमकने की रोशनी में कब लड़कों का ध्यान उसकी, भीगे कपड़ों से झलकते उसके बदन की ओर गया और कब वह उनकी चर्चा का केंद्र बन गई, उसे जब तक पता चलता और वह सावधान होती, यदि संभव होता, तब तक देर हो गई थी. छेड़-छाड़, स्पर्श आदि से शुरू क्रियाओं का अंत उनके हाथों की जकड़न में हुआ था. उसके मुंह से चीख निकल नहीं सकी थी या सन्नाटे और बरसात के कारण किसी ने सुना नहीं. प्रतिरोध स्वाभाविक था लेकिन वह पस्त हो गई. उसका मुंह दबा कर मैदान में पेड़ों के पीछे ले जाया जा रहा था. चेतना लुप्त होने के पहले तक वह, अपने शरीर के क्षत-विक्षत होते जाने की सामूहिक प्रक्रिया की, गवाह रही.
आधी रात बीतने के लगभग बाद उसकी अचेतन अस्त-व्यस्त काया गश्ती पुलिस को सड़क के किनारे पड़ी मिली थी. अगले पूरे दिन रिपोर्ट, मेडिकल परीक्षण, बयान आदि चलते रहे. उसे प्रतीत हुआ कि ‘कल’ फिर से दोहराया जा रहा था. उसके घर खबर भेज दी गई थी. थाने में सुबह-सुबह पति, देवर और ससुर आए थे. उन्हें देख उसकी टूटती हिम्मत बंधी थी. परन्तु वे कुछ देर बाद चले गए.
ऊपर के कमरे में परिवार के लोगों की आपात्कालीन मीटिंग आयोजित हुई थी. मिनी को छोड़ सास, ससुर, पति, देवर सभी के सामने अभियुक्त के रूप में उसकी पेशी हुई थी. अभियोग तो स्वतः प्रमाणित था. अब घर में उसके फिलहाल बने रहने या स्थायी निष्कासन के संबंध में निर्णय एक-मत नहीं था. कारण कई थे – उसके चरित्र की काली छाया मिनी पर न पड़ने देने का प्रयास तो दूसरी ओर उसके वेतन, फंड के अग्रिम से उसके विवाह में योगदान की चिंता. बेरोजगार देवर की अपनी चिंताएं थीं. भाभी से अक्सर मदद लेना तो उसका अधिकार था. अखबार में नाम न होने पर भी अन्य विवरणों से मोहल्ले-रिश्तेदारों में शक तो उस पर था ही. वैसे भी उसको लेकर सरगोशियाँ, कानाफूसी चलती रहती. लगभग, दफ्तर जाने और लौटने का समय भी जरूर नोट होता होगा. मिसेज शर्मा तो कल से दो बार आकर लौट भी चुकी थीं. हर बार किसी न किसी बहाने बहू के बारे में पूछा भी था.
‘अब इसे अचानक भेज देने पर सबके संदेश की पुष्टि हो जाएगी’, पति ने कहा. देवर ने राय दी थी, ‘इस केस की इंक्वायरी चलेगी. पुलिस, अदालत में बयान होंगे. भेज देने पर उनकी नाराजगी मोल लेनी होगी.’ तभी सास को याद आया था वह इलाका तो मुसल्लों का है. जरूर वही रहे होंगे, ‘हाय – हाय, इज्जत के साथ धरम भी गया!’ वह डकराईं.
‘चुप साली . . .’ शुक्ला जी चिंघाड़े, ‘अब ढिंढोरा पीट रही है.’ कुछ फैसला न हो सका, सिवाए इसके कि दोष उसी का है. औरत जब तक न चाहे कोई कुछ नहीं कर सकता. सभी उठ गए थे. कमरे में वह अकेले रह गई थी. जाने कितनी देर हो गई. समय के उन असंख्य पलों में उसने पूरा जीवन, समस्त यातनाओं, विद्रूपताओं और खालीपन के साथ, एक बार फिर से जी लिया था. कमरे में निपट, निष्पंद एकांत था. उसने महसूस किया कि समय की धारा में पृथ्वी की भांति पर वह घूम रही है, सबसे असंप्रक्त.
पति, परिवार, शहर, पूरा परिवेश – सबकुछ कहीं दूर छूट गया है. अपनी जगह पर स्थिर रहते हुए भी उसने कितनी यात्रा कर ली है. अतल अंधकार में सबसे कट कर वह स्वयं में स्थित थी. उसे भास हुआ वह ही तो महत्वपूर्ण है. उसकी अस्मिता, अस्तित्व, स्वप्न, निजी दुःख-दर्द, उसका अपना जीवन. उस एक क्षण में, पूरे विराट्य के बीच, संभावनाओं के अनंत द्वार उसके चारों ओर खुल गए थे. अपने इस रूप के इस पस्ख से वह अब तक नितांत अपरिचित ही थी. जाना भी तो किन परिस्थितियों में. उसने अपने मन, शरीर और आत्मा के साथ एकात्म का अनुभव किया. साथ ही अपार शांति का.
अन्तःयात्रा के बाद वह कमरे में लौटी तो पाया कि घर कि सभी बत्तियाँ बंद हो चुकी थीं. गहरा अँधेरा. गली की ओर खुलने वाली खिड़की से कुछ प्रकाश छन रहा था. पहले तो उसे यह रोशनी गली के सरकारी लैम्पपोस्ट के बल्ब की लगी परंतु जब यह प्रकाश लगातार खिलता गया और कमरे में सुनाहलापन भरने लगा तो उसे विश्वास हो गया कि यह तो आने वाले दिन की आहट थी. उसकी इच्छा हुई वह छत पर जाकर उगते सूरज को देखे.
सभी उठ गए थे. एक-दूसरे से नजरें चुराते. वह तैयार हुई. रविवार होने के कारण अवकाश था. मिनी चाय-नास्ता ले आई. उसने पेट भर खाया. चाय तो एक कप और मांग के पी. सबने उसकी ओर आश्चर्य से देखा. तभी सुधीर उसके पास आया. उसका पुरुष अपने अहम की तुष्टि चाहता था. उसने कहा, ‘संभव है उन लोगों का उद्देश्य केवल लूटपाट रहा हो. कुछ और न हुआ हो. तुम्हारा पर्स, चेन भी तो गायब है.’ वह सुधा से आश्वस्त होना चाहता था. सुधा का तनिक सा झूठ उसके अहं को टूटने से बचा सकता था. संदेह का लाभ तो मिलना निश्चित था ही.
वह सजग हो गई. उसके अंदर की हिंसक बिल्ली प्रतिशोध में पंजे मारने को उद्धत हो थी, ‘नहीं, मैं बर्बाद हो गई.’ उसने घुटने में मुंह छिपा लिया.
सुधीर का चेहरा दयनीय हो आया. उसने फिर प्रयास किया, ‘तुम तो शायद बेहोश हो गई थीं. वे लूटपाट कर चले गए भी हो सकते हैं. तुम्हें ठीक से याद तो है?’
‘मेरी चेतना उस समय तक बाकी थी.’ उसने ठन्डे स्वर में जवाब दिया.
‘जा मर.’ वह उठ कर चला गया.
वह उठी सास के पास जाकर रोने को हो आई, ‘बाबू जी ठीक ही कहते थे. उनकी भविष्यवाणी कितनी सच निकली. जैसे सबकुछ पहले से जानते रहे हों.’ सास ने उसकी ओर अवश झुंझलाहट भरी दृष्टि से देखा, ‘तो?’
उसकी खिलखिलाने की इच्छा हुई. उसे खेल लग रहा था. निरंतर चलने वाला घिनौना खेल. पति, सास, ससुर, मोहल्ले के लोग, वे लड़के सभी के चेहरे एक दूसरे के धडों पर बदलते जा रहे थे. कंप्यूटर ग्राफिक्स की भांति अथवा किसी एकल-पात्र वाले नाटक में एक ही पात्र सभी चरित्र निभा रहा था. पति और विवाह स्त्री की संपूर्ण परिधि को नियंत्रिक करने की प्रवृत्ति का ही नाम है क्या? यह वह संबंध क्यों नहीं जो पूर्णता दे सके. इससे ज्यादा झिझक और हया उन लड़कों में थी. अनाड़ीपन के कारण ही क्यों न रही हो. वह नीली शर्ट वाला सीधा-साधा सा लड़का कपड़े उतारते वक़्त कैसे शर्माए जा रहा था.
अगले दिन, सबकी आशा के विपरीत, वह बैंक के लिए तैयार हुई थी. शोख लिपस्टिक और कपड़े, मेकअप रोज की तरह हल्का नहीं. उसने निश्चय कर लिया था कि अधूरे सच वाली जिंदगी वह अब नहीं जिएगी. उसका जीवन अपना है. क्या इसका एक अंश भी उसके अपने लिए नहीं? न किए गए अपराधों के लिए वह कब तक क्षमा मांगती रहेगी? वह न तो अग्निपरीक्षा देगी, न पृथ्वी में समाएगी.
एक नए संकल्प के साथ उसने अंतर्मन की आशंकाओं को झटक कर निकलने की कोशिश की. ड्रेसिंग टेबिल के सामने वह मुस्कराई. दर्पण में उसकी आँखों में आत्मविश्वास की चमक थी.
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प्रताप दीक्षित
एम0डी0एच0 2/33, सेक्टर एच,
जानकीपुरम, लखनऊ 226 021
Email dixitpratapnarain@gmail.com
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परिचय
नामः प्रताप दीक्षित
जन्मः 30 सितंबर 1952
शिक्षाः एम0ए0 (हिंदी)
रचनाएं: हंस, वागर्थ, नया ज्ञानोदय, वर्तमान साहित्य, कथाक्रम, कथादेश, वर्तमान साहित्य, पाखी, संचेतना, लमही, उत्तर प्रदेश, जनसत्ता, दैनिक जागरण, अमारउजाला, अक्षरा, शुक्रवार, जनसत्ता, हिन्दुस्तान, नवभारत, पंजाबकेसरी जनसंदेश टाइम्स आदि में 150 से अधिक कहानियां, समीक्षाएँ, लघुकथाएं, आलेख, व्यंग्य प्रकाशित।
दो कहानी संग्रह (‘विवस्त्र एवं अन्य कहानियां‘ तथा ‘‘पिछली सदी की अंतिम प्रेमकथा’) प्रकाशित।
उत्तर प्रदेश हिन्दी प्रचारिणी सभा द्वारा आयोजित कविता प्रतियोगिता में तत्कालीन राज्यपाल उत्तर प्रदेश (श्री अकबर अली खान द्वारा पुरस्कृत 1973
प्रताप दीक्षित के रचनाओं पर रूहेलखंड विश्वविद्यालय में एक छात्रा द्वारा पी.एचडी हेतु शोध.
संप्रतिः भारतीय स्टेट बैंक में प्रबंधक पद से सेवानिवृत्ति के बाद स्वतंत्र लेखन.
जानकीपुरम, लखनऊ 226 021
संपर्कः Email dixitpratapnarain@gmail.cpm
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