साहित्य की यात्रा पर चलें हमारे हिन्दी साहित्य में तीन काल हैं। वे काल आदिकाल, मध्यकाल और आधनिक काल है। इसमें मध्यकाल व आधुनिक काल बडे प्रचल...
साहित्य की यात्रा पर चलें
हमारे हिन्दी साहित्य में तीन काल हैं। वे काल आदिकाल, मध्यकाल और आधनिक काल है। इसमें मध्यकाल व आधुनिक काल बडे प्रचलित हैं। मध्यकाल के भी दो भाग है भक्तिकाल व रीतिकाल। भक्तिकाल में निर्गुण काव्यधारा व सगुण काव्यधारा का जिक्र है। निर्गुण काव्यधारा लिखने वाले संत काव्य धारा के कवि कबीरदास व सूफी काव्यधारा के कवि जायसी है। सगुण काव्य धारा के कवियों का मैं जिक्र करता हूं। इसमें रामकाव्यधारा के तुलसीदास व कृष्ण काव्यधारा के सूरदास है वहीं रीति काल में हम तीन भागों को पढते आये हैं। रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध व रीतिमुक्त है। इन तीनों अवस्थाओं का कवि बिहारी रहा है। अब मैं आधुनिक काल का जिक्र करता हूं इसमे छः भाग है। जो इस प्रकार हैं।
1. भारतेन्दु 1857-1900
2. द्विवेदी 1900-1920
3. छायावादी 1920-1935
4. प्रगतिवादी 1935-1943
5. प्रयोगवादी 1943-1960
6. समकालीन/ साढोतरी/ नई कविता 1960-अब तक
आगे चलकर में इनका अलग-2 युग का अलग-2 जिक्र करूंगा
भारतेन्दु युग 1857 से लेकर 1900 तक है इसमें मुख्य भारतेन्दु हरिशचन्द्र, श्रीधरपाठक, बद्रीनाथ चौधरी, ठाकुर जगमोहन सिंह व प्रताप नारायण मिश्र आदि कवि है। इस युग की मुख्य विशेशताएं देशभक्ति की भावना, प्रकृति चित्रण, समाज सुधार व प्रेम निरूपण है। इसमें बज्र भाषा, अलंकार, खडी बोली आदि का प्रयोग किया है। इसका प्रभाव ब्रहम समाज (राजाराम मोहन राय), आर्य समाज(स्वामी दयानंद), रामकिशन ( रामकृश्ण परमहंस ) व इस युग में कांग्रेस की स्थापना 1885 में हुई।इस युग के मख्य भाव रहे।
द्विवेदी युग सन 1900 से लेकर 1920 तक ही चला इस युग में मुख्य कवि महाबीर प्रसाद द्विवेदी, हजारी प्रसाद द्विवेदी, मैथिलीशरण गुप्त , अयोध्या सिंह उपाध्याय आदि रहे हैं। इस युग में 1900 में एक सरस्वती नामक अखबार का सम्पादन हुआ है। इस युग में मुख्य विशेषता या प्रवृतियां यह रही है कि इनमें देशभक्ति की भावना रही, नारी महिमा(एक नहीं दो-दो माताएं, नर से बढकर नारी) यह लेख बहुत प्रचलित हुआ व सामाजिक चेतना का प्रभाव रहा है। इसमें खडी बोली व छंदो की विविधता का वर्णन देखने को मिलता है।
छायावादी युग सन 1920 से लेकर 1935 तक चला इस युग में मुख्य कवि सुमित्रा नंदनपंत, महादेवी वर्मा, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, डा रामकुमार वर्मा, जयशंकर प्रसाद आदि रहे हैं। इस युग की मुख्य विशेषता यह थी कि प्रेम व सौन्दर्य का वर्णन, स्वतन्त्रता की लालसा, विद्रोह का स्वर, प्रकृति का वर्णन, नारी का चित्रण मुख्य रही है। इसमें खडी बोली मानवीकरण अलंकार का प्रयोग तत्सम प्रधान व संस्कृत निष्ठ, छंद मुक्त काव्य, इसमें मुख्य रही है। छायावादी का अर्थ कुछ लेखकों ने इस प्रकार बताया है आचार्य नगेन्द्र के अनुसार ‘ स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह ही छायावाद है। ‘ आचार्य देवराज कहता है कि छायावाद गीतिकाव्य है प्रकृति काव्य है, प्रेम काव्य है। दूसरी ओर डा रामकुमार वर्मा ने कहा कि ‘ आत्मा की छाया परमात्मा पर पडने लगती है ओैर परमात्मा की छाया आत्मा पर पडने लगती है। तो वह छायावाद है।
प्रगतिवादी युग सन 1935 से लेकर 1943 तक चला। इसमें मुख्य कवि सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला,रामधारी सिंह दिनकर, नागार्जुन,नगेन्द्र शर्मा, बाल कृष्ण भट्ठ, शर्मा नवीन आदि रहे है। इसमें शोषक वर्ग के प्रति घृणा, शोषितों के प्रति दया, क्रांति भावना, सामाजिक जीवन का चित्रण इसमें मुख्य विशेषता रही है। इसमें आम भाषा या व्यवहारिक भाषा, लाक्षणिक भाषा, व्यंग्यपूर्ण विलाश्ठ, प्रतीकात्मक इत्यादि भाषा विशेष पर जोर रहा है।
प्रयोगवादी युग प्रगतिवाद युग का एक अंग है। यह युग 1943 से लेकर 1960 तक रहा। इसमें मुख्य भारत भूषण अग्रवाल, नेमिचन्द्र जैन, गिरिजा कुमार माथुर, प्रभाकर, मुक्तिबोध है क्षणवाद, निराशावाद, यथार्थ चित्रण,बौद्धिकता,व्यक्तिता,नास्तिकता का नग्न चित्रण है। नये प्रतिबिम्ब, प्रतिमान, अपमान, छंद योजना, विभिन्न भाषा शब्दों का प्रयोग बडे जोर शोर से किया है। इस युग में ‘तार सप्तक‘ नामक पत्रिका आरम्भ हुई। और 1946 में ‘प्रतीक‘ नामक,व 1951 में दूसरा ‘तार सप्तक‘ का अंक निकालना शुरू हुआ इस युग में पत्रिका मुख्य आकर्शण है।
नयी कविता का युग 1943 से 1960 तक है इसमें मुख्य कवि हीरानंद सचिदानंद वात्सयान अज्ञेय, भारत भूषण, लक्ष्मीकांत, शर्वेश्वर दयाल सक्सेना, धर्मबीर भारती है। इस युग में मानव मूल्यों का विघटन, नूतन मानव की कल्पना, आशा व निराशा का चित्रण दिया गया है। प्रयोगवादी की भाषा का प्रयोग, आंचलिक एक स्थान के शब्दों का प्रयोग, असंख्य प्रतीक इसमें विशेष विशेषता रही है। प्रारम्भ 1954 में डा जगदीश चन्द्र, रामस्वरूप चतुर्वेदी ने नई कविता नाम से अद्धवार्शिक काव्य संग्रह प्रकाशित किया यहीं से नई कविता की शुरूआत हुई।
समकालिन व साढोतरी युग सन 1960 से लेकर आज तक है। इसमें मुख्य कवि लीलाधर जगूडी, मुक्तीबोध, कुमारेन्द्र, केदारनाथ अग्रवाल, वेणुगोपाल कुमार विकल, विश्णुखरे, दूधनाथ सिंह है। समकालिन जीवन का वर्णन, विद्रोही स्वर, पीडा बोध व जनक्रांति , राजनेताओं के प्रति क्रोध आदि इसमें मुख्य रहा है। इसमे असभ्य भाषा, छंदप्रतीक,अपमानों से रहित है। अकविता, अतिकविता,अस्वीकृत कविता,सनातन कविता, अपरम्परावादी कविता, नाटकीय कविता आदि नाम अनेक आलोचकों ने रखा है। उपरोक्त विषय पद्य के साहित्य का वर्णन किया गया है। इसमें 1857 से लेकर आज तक का साहित्य का वर्णन किया गया है। अनेक कवि बताए गए है प्रत्येक युग के साथ बताई गई इसमें प्रत्येक युग की विशेषताएं, भाषा आदि का वर्णन बडा यथार्थ ढंग से पेश करने की कोशिश की है। आज इसको पढें और साहित्य में रूचि रखें। साहित्य ही समाज को बदल सकता है। एक नई दिशा दे सकता है। भटके हुए को रास्ता दिखा सकता है। उसी का नाम साहित्य है। आज साहित्य समाज का दर्पण ही नहीं बल्कि एम आर आई मशीन की तरह काम करता है मैं चाहता हूं कि साहित्य में पैनापन लाकर साहित्य की रचना करें।
कवि भी समाज का अभिन्न अंग होता है। वह जिस समाज में रहता है। उसके प्रति उसका विशेष दायित्व भी बनता है कि कवि अपनी रचना के माध्यम से अपने विचारों की अभिव्यक्ति प्रदान करता है वह असंतोष के कारण को भी स्पष्ट करता है। यहाँ आकर उसका स्वरूप बहुत उंचा हो जाता है।
दशोत्थान के प्रयास चल रहे हैं इसमें कवि की भूमिका है कि वह इसमें अलग रह ही नहीं सकता। यदि वह ऐसा सोचता है या प्रयास करता है कि मेरा इसमें कोई लेना देना नहीं है, तो वह गलत है। देशोत्थान सभी नागरिकों का मिला-जुला प्रयास है। कवि की भी देशोत्थान में अपनी विशेष भूमिका का निर्वाह करना है।
कवि अपनी कविताओं के माध्यम से लोगों में उत्साह का संचार करता है। वह उनमें छिपे देवत्व को जगाता है। आगे बढने की प्ररेणा देता है। कविता में बहुत बडी शक्ति होती है।कवि की कविता में अदम्य शक्ति होती है। कवि मनचाहे ढंग से समाज को परिवर्तन कर सकता है। कवि कल्पनाजीवी नहीं होता , अपितु उसमें देश के नव-निर्माण की अदभुत शक्ति एंव क्षमता होती है। कवि स्वप्न में ही खोया नहीं रहता है कवि की भूमिका बडी क्रांतिकारी होती है। समाज पर इस युगधाराओं का प्रभाव पडता है साहित्य में उसका लेखा जोखा रहता है। किन्तु साहित्य नई प्रेरणा देकर समाज का निर्माण करता है। समाज में परिवर्तन लाने की जो शक्ति साहित्य में छिपी होती है वह तोप, तलवार तथा बम के गोलों से भी नहीं है। साहित्य समाज का पथ-प्रदर्शक होता है। उसका पूरा व्यक्तित्व तब निखरता है जब वह समग्र रूप से परिवर्तन चाहने वाली जनता के आगे पुरोहित की तरह आगे बढता है। इसी रूप में वह हिन्दी साहित्य को उन्नत एवं समृ़द्ध बनाता है।
मेरा यह मानना है कि साहित्यकार को स्वांत सुखाय की रचना करते समय भी सामाजिक दायित्व की अनदेखी नहीं करनी चाहिए व बुद्धिजीवी वर्ग से सम्बन्धित है उसका दायित्व है कि समाज के सुख की बात भी सोचे। जब वह समाज से बहुत कुछ पाता है तो उसका दायित्व बन जाता है कि समाज को कुछ प्रदान भी करें। प्रत्येक व्यक्ति को समाज के निर्णय में अपना योगदान देना चाहिए अगर समाज के उत्थान के लिय कोई कार्य हो तो। साहित्यकार भी इससे पृथक नहीं है। उसका भी दायित्व समाज के अन्य लोगों से बढ़कर है। उसे सम्पूर्ण रूप से अपनी भूमिका निर्वाह करनी चाहिए तभी कहीं जाकर एक आदर्श समाज का निर्माण होगा। कवि, कवयित्री, कहानीकार, आलोचक, रंगकर्मी, उपन्यासकार आदि सभी की भूमिका बहुत अहम है। ये सभी मिलकर पूरे समाज, देश, दुनिया की तस्वीर को बदल सकते है। हम सबने जितने भी कलम के सिपाही है उन सब से मेरी अपील है कि वह अपनी रचनाओं में गरीबी, मजदूर, किसान, छात्र, महिला के दुर्दशा का वर्णन करें और एक उज्ज्वल समाज की स्थापना करें।
मनजीत सिंह पुत्र श्री भूप सिंह
गांव भावड तह गोहाना जिला सोनीपत
छात्र :- एम. ए उर्दू पंजाबी विश्वविद्यालय पटियाल
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