ऊं कहानी - सिस्टम के पुर्जे - · शेर सिंह “ थोड़ा पीछे हो जाओ… कहां घुसे जा रहे हो ?” वह पहले ही सहमा हुआ सा था, और भी घबरा कर अपना हाथ ...
ऊं
कहानी -
सिस्टम के पुर्जे -
· शेर सिंह
“ थोड़ा पीछे हो जाओ… कहां घुसे जा रहे हो ?”
वह पहले ही सहमा हुआ सा था, और भी घबरा कर अपना हाथ पीछे खींच लिया। किन्तु फिर आगे बढ़ा !
“ क्या नाम है ?”
“ राम नगीना… राम नगीना शर्मा… साहब जी …”
“ हां बताओ… क्या बात है ? इतना बावला क्यों हो रहा है ?”
“ साहब जी ! मेरे केस के पेपर हैं…”
“ तो मैं क्या करूं ?” वही रूखा, रौबिला और हिकारत से भरा स्वर।
“ इन में डाक्टर साहब के साइन कराना है जी।” उसने लगभग हकलाते हुए से कहा। ओपीडी वाले मरीजों का रजिस्ट्रेशन काऊंटर पर बैठा व्यक्ति रिसेप्शनिस्ट था या बाबू, उसे ठीक से जानकारी नहीं थी ? मरीज तो वह पहले ही था। लेकिन उसकी डांट पर डांट से वह नर्वस भी हो गया था।
लाइन में लगे लोग आगे बढ़ने के चक्कर में आपस में एक- दूसरे को जैसे धकेलने पर तुले हुए थे। यह सरकारी क्षेत्रीय अस्पताल था। दूर- दूर से मरीज यहां इलाज के लिए आते थे। आज भी लंबी लाइन लगी हुई थी। राम नगीना पिछले दो दिन से अस्पताल का चक्कर लगा रहा था। लेकिन अपनी पर्ची नहीं बना पा रहा था। घर से आज अलसुबह ही चला था, और आकर लाइन में लग गया था। फिर भी उसका लाइन में चौथा -पांचवा नंबर ही लगा था। कुछ मरीज शायद रात में ही लाइन में लग चुके थे। लाइन में कोई कराहता सा लग रहा था, तो कई निस्तेज आंखों से बढ़ती तादाद को देखते हुए मुरझाए, सूखे होंठों से अपनी बारी का इंतजार लिए खड़े थे। मरीजों, बीमारों की इतनी भीड़ ! कुछ के तिमारदार भी उनके साथ थे शायद ? कुछ स्ट्रेचर से हॉल के अंदर आ रहे थे, तो कुछ बाहर को निकल रहे थे। कुछ व्हील चेयर पर, तो कुछ लंगड़ाते, पेट पकड़े ! पूरे माहौल में अजीब सी तीखी महक आ रही थी। थोड़ी दवाओं की, कुछ भीड़ की वजह से ? लेकिन लगता था, सारी दुनिया के लोग ही बीमार हैं और इलाज के लिए इसी अस्पताल में आए हुए हैं। प्राईवेट सिक्यूरिटी गार्ड लोगों को कतार में लगाने के लिए अपना डंडा भी फर्श पर ठकठका रहा था।
अब जाकर राम नगीना का पर्ची बनाने के लिए काऊंटर तक पहुंचने का नंबर आया था। काऊंटर पर बैठा शख्स मोटा सा, चालीस- पैंतालीस के आस -पास का लग रहा था। न जाने क्यों वह चिढ़ा हुआ सा था ? शायद मरीजों के मुरझाए मुख, उनकी कराहें उसे छू नहीं रही थी। उसने राम नगीना के इकहरे पसली, निचुड़े सांवले चेहरे को देखा। दोबारा ऊपर से नीचे तक ऐसे देखा मानो एक्सरे फिल्म को बारीकी से जांच रहा हो ! हालांकि वह साफ धुले हुए शर्ट और पेंट पहने हुए था। किन्तु उसने चिढ़ कर पूछा, “ हां… अब बताओ क्या परेशानी है ?”
“ जी जनाब… यह मेरे कागजात हैं। डाक्टर साहब से साइन कराना है।”
“ कागजात …कैसे कागजात ? ”
“ जी… एक्सीडेंट वाले हैं। रोडवेज की बस ने टक्कर मार कर मुझे मेरे मोटर साईकिल समेत गिरा दिया था। साहब जी ! मैं बच तो गया… मगर मरा जैसा हूं। रीढ़ की हड्डी टूट गई थी। टांग कई टुकड़ों में फ्रेक्चर हो गई थी। डाक्टर साहब ने इलाज किया था। उनके रिफ्रेंस से पहले शिमला फिर चण्डीगढ़ पीजीआई में इलाज हुआ था। बहुत खर्चा हुआ है साहब।” वह रूआंसा होकर पहले ही कई बार दोहरा चुके बात और घटना को फिर से दोहरा रहा था।
“ कब हुआ था एक्सीडेंट ?”
“साहब जी… एक साल पहले ! अब दूसरा साल हो रहा है … रोडवेज की बस थी ... इलाज पर हुए खर्चे का सरकार से क्लेम करना है। इसलिए डाक्टर साहब से इन कागजों पर दस्तखत लेना है। साहब जी… तभी दावा कर सकूंगा।” वह जितना अपने को विनम्र, विनीत बना सकता था, उतनी विनम्रता और दीनता से अपनी बात बता रहा था। उसकी आवाज़ भी बीच- बीच में टूट रही थी। लगता था, अब रो देगा, तब रो देगा।
मगर काऊंटर पर बैठे उस कठोर व्यक्ति के हाव- भाव से लगता था कि उस पर कोई असर ही ना हुआ हो ? शायद उसके लिए इस प्रकार के प्रकरण और ऐेसे अवसर रोज ही आते हों ? यह भी हो सकता है कि कुछ लोग गलत दावे करते हों ? झूठ- मूठ बोलते, बताते हों ?
“ कहां के हो ?” जैसे विष बुझा तीर छूटा हो ! कुछ इस लहजे में उसने उसकी रोनी आवाज़ को अनसुना करते हुए पूछा।
“ जी… यू पी से हैं …”
“ अबे… यू पी में कौन सी जगह के ?” वह अबे, तबे पर उतर आया था।
“ साहब ! देवरिया जिल्ला से… बढ़ई हैं साहब जी। यहां कुल्लू में मिस्त्री का काम करते हैं।”
“ अरे भाई ! यू पी के हो… देवरिया जैसी दूर जगह के ! तो यहां क्यों क्लेम करना चाहते हो ! वहीं करो न… हमारी सरकार को क्यों चूना लगा रहे हो।” लगता ही नहीं था कि वह मजाक कर रहा है या
गम्भीरता से कह रहा है। राम नगीना के पीछे खड़ा मरीज जो अब तक धीरे- धीरे कराह रहा था, उस
रिसेप्शनिस्ट की बातें सुनकर उसके होंठों पर मुस्कान फैल गई थी। यह समझना मुश्किल था कि वह उसकी अहमकों, मूर्खों जैसी बातों से मुस्कराया था अथवा व्यंग्य से ?
“साहब जी… एक्सीडेंट तो यहां हुआ था न… यहां की रोडवेज की बस ने एक्सीडेंट किया था। वहां कैसे दावा कर सकता हूं ?”
“ दावा तो तुमको वहीं करना पड़ेगा। आप यहां के थोड़े ही हो !” वह मूर्खों की तरह बेतुका तथा कुतर्क कर रहा था।
“ साहब ! मैं तो बीस वरसों से यहां हूं। मेरा आधार कार्ड यहां का बना है। मेरा वोटर आईडी भी यहां का है। साहब जी ! मैंने तो कई दफा यहां वोट भी दिया है।” उसका चेहरा तमतमा आया था। उसके तमतमाए और लाल हुए चेहरे को देखकर उस शख्स ने और भी कड़े तथा रूखे स्वर में कहा, “ आप डॉक्टर से पूछ कर आओ। पर्ची तभी बनेगी… हटो यहां से ! मुझे काम करने दो।” उसकी उपेक्षा और वक्रोक्ति ने उसे अंदर तक छील दिए थे।
वह अपनी जगह से नहीं हिला तो काऊंटर पर बैठे उस व्यक्ति ने सिक्यूरिटी गार्ड को आवाज़ लगाई, “ भाईया ! इसे यहां से हटाओ…” इससे पहले कि गार्ड उसे हाथ लगाता, वह कतार से निकल आया। अपमान और क्रोध से उसका चेहरा बदल गया था। उसे लगा कि वह उस व्यक्ति का गिरेवान पकड़ कर दो तमाचे जड़ दे। लेकिन जब गुस्सा शांत हुआ, तो उसे रोना आ गया। उसे ऐसा लगा जैसे वह बहुत ही निरीह प्राणी हो ? बेवकूफ जैसे उस बाबू के कुतर्क और बेरूखी ने उसे रूला दिया था। आंसू उसके बेशक नहीं दिखे थे। एक साल तक बेड़ पर पड़े रहने के बाद अब अस्पताल और डॉक्टर उसे र्स्टीफिकेट देने और बिल के कागजों पर हस्ताक्षर करने में आना -कानी कर रहे थे। आना –कानी, टाल- मटोल क्या … सीधे- सीधे टरका रहे थे। सरकार की अंटी से पैसे निकालना इतना आसान थोड़े ही था ? उसके पास धैर्य के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था।
इसे क्या कहें ! भाग्य, बदकिस्मती अथवा लापरवाही ? बाईक की बीमा अवधि केवल सत्रह दिन पहले समाप्त हो गई थी। आज करेंगे, कल करेंगे के चक्कर में बीमा पॉलिसी का नवीकरण नहीं हो सका था। और यह एक्सीडेंट हो गया। बाईक का अगला हिस्सा पिचक कर टीन की तरह सपाट हो गया था। बीमा अवधि खत्म हो चुकने के कारण बीमा कंपनी से उसे कुछ नहीं मिला था। एक नामी प्राईवेट कंपनी से अपना स्वयं का बीमा किया होने के बावजूद उनकी कठोर शर्तों और औपचारिकताओं की लंबी सूची की कसौटी पर खरा नहीं उतरने के कारण वहां से भी कुछ नहीं मिला था। बीमा पॉलिसी लेते समय उसने नियम, शर्तों की बारीकियों पर ध्यान ही नहीं दिया था।
राम नगीना अस्पताल के मैनगेट के पास आकर खड़ा हुआ और सोचने लगा। उसे लग रहा था, मानो सारे लोग उसे ही देख रहे हैं। रोजगार के लिए वह यहां आया था। काम भी खूब मिला। काम का नाम भी हुआ ! पैसे भी ठीक- ठाक जोड़े थे। बेटा तो यही पैदा हुआ है। दो- तीन साल में एक बार घर को जाना हो पाता है। देवरिया अब दूर लगने लगा है। लखनऊ में आलमबाग के एक वीरान, उजाड़ जैसी जगह के एक किनारे घर के लिए प्लाट खरीद लिया है। घर भी बना लेता ! लेकिन एक्सीडेंट ने सब कुछ जैसे उलट -पलट करके रख दिया है। एक साल तक तो काम पर नहीं जा सका था। ऑपरेशन करना पड़ा। रीढ़ की हड्डी में प्लेटें डली हैं। जमा- पूंजी सारी खत्म हो गई थी। उधारी भी करनी पड़ी। वो तो उसका भाग्य कहें या कर्म ? अच्छा था ! उसके मकान मालिक ने आर्थिक तौर पर उसकी मदद की थी। अस्पतालों में, डॉक्टरों से मिलने में उसके साथ बना रहा था। इससे उसका आत्मबल, साहस और उसका नैतिक बल बना रहा। बेशक बाद में उसने थोड़ा -थोड़ा करके मकान मालिक का कर्जा चुका दिया था। लेकिन मुसीबत के समय उसकी मानवीय संवेदना तथा सहायता को वह भूला नहीं था। उसका बहुत एहसानमंद था वह।
जब वह स्वयं कुछ चलने- फिरने लायक हुआ, तो उसकी पत्नी ने खाट पकड़ ली थी। पत्नी की गठिया की बीमारी ने उसे और भी लाचार बना कर रख दिया था। उसकी बीवी ठीक से उठ- बैठ नहीं पाती थी। उसको बाथरूम, टायलेट में उसे ही बिठाना, उठाना पड़ता है। खाना भी खुद ही बनाना पड़ता है। शाम को बेटा कॉलेज से आ जाता था। शाम का समय फिर वही संभालता है। खाना इत्यादि भी वही बनाकर रखता है। इसलिए शाम की उसे अधिक चिंता नहीं होती है।
रोज सुबह चार बजे उठ जाता है। पहले खुद निपटता है। मैले कपड़ों को धोता है। खाना बनाता है। और, फिर बीवी की सेवा -टहल में लग जाता है। उसे हर प्रकार से तैयार करता है। दुर्घटना के बाद अब उसके शरीर में पहले जैसी चुस्ती, फुर्ती रही नहीं। किस्मत का धनी था, अपंग होते- होते बचा है। लेकिन शरीर के साथ- साथ याददाशत भी कमजोर हो गई है। भूलने भी लगा है। काम में भी गलती होने लगी है। कुछ का कुछ जोड़ देता है। मालिक जो पहले उससे ऊंची आवाज़ में बात भी नहीं करते थे, अब उसके उल्टे - सीधे कामों की वजह से डांटते रहते हैं। उसके शार्गिद भी उसे
छोड़ गए हैं। उन्होंने अपनी स्वयं की ठेकेदारी शुरू कर दी है। अब जो नए लड़के रखे हैं, वे उतने कुशल नहीं हैं। नौसीखिए हैं। लेकिन मालिकों से डांट उसे ही खानी पड़ती है। परन्तु उसके हाथ में हुनर है। टूटे लोग फिर से जुड़ने लगे हैं।
यह तो अच्छा है कि बेटा बड़ा है। यहीं कॉलेज में पढ़ता है। कॉमर्स ले रखा है। राम नगीना को विश्वास है, बेटे को बैंक में बाबूगिरी की नौकरी तो मिल ही जाएगी ? वह स्वयं अधिक पढ़- लिख नहीं पाया है। लेकिन बेटे को पढ़ा रहा है ताकि उसे उसकी तरह मजदूरी नहीं करनी पड़े। मगर बेटा थोड़ा खुद्दार है ! बाप की तरह हर समय गिड़गिड़ाता नहीं रहता है।
अप्रैल महीने का मौसम था। धूप तेज हो रही थी। उसे पेड़ की छाया में थोड़ी ठंडक महसूस हुई। अपने आपको मानसिक तौर पर मजबूत किया। उसने अब घर को जाना ही बेहतर समझा। आज की दिहाड़ी भी गई थी और काम भी नहीं हुआ था। किन्तु उसने ठान लिया था। वह अपने दावे को यूंही नहीं छोड़ देगा। बस वाले ने पीछे से टक्कर मार कर उसे लगभग मार ही दिया था। लेकिन उसे अभी जिंदा रहना था। परिवार को पालना था। बीवी को स्वस्थ करना था। बेटे की पढ़ाई पूरी करवा कर नौकरी पर लगा देखना है !
बाहरी चोट से वह धीरे -धीरे उबर चुका था, लेकिन भीतरी और मानसिक चोट से टूटने लगा था। फिर भी वह अपनी हिम्मत नहीं हारना चाहता था। अपना दावा, अपना हक पाकर ही दम लेगा। यही सोच उसकी मानसिक शक्ति बनी हुई थी। दो- तीन दिन बाद वह फिर अस्पताल पहुंच गया। इस बार बेटा भी साथ है। बेटा जवान है। गर्म खून है। कहीं गुस्से में बनता काम भी न बिगाड़ दे ? वह कतार में लगा है। उसका नंबर आया तो उसके दोनों हाथ स्वत: ही जुड़ गए। चेहरे पर वही दीनता, और वैसी ही बेबसी फैल गई है। काऊंटर पर वही बेवकूफ जैसा मगर अक्खड़ रिसेप्शनिस्ट बैठा हुआ था। उसके वही तर्क थे, वैसे ही गले से न उतरने वाली गलत और हास्यास्पद दलीलें थीं ! रोने -रोने जैसा होकर और गिड़गिड़ाने पर भी वह बंदा नहीं पसीजा। लेकिन आज पहले की तुलना में थोड़ा कम ही अक्खड़पन दिखा रहा था। किन्तु बेटे का पारा तो सातवें आसमान पर है। आज भी पर्ची नहीं बनी है। बिना पर्ची के डॉक्टर से मिलना असंभव है !
दावे के लिए बिल और एक्सीडेंट से संबंधित सारे दस्तावेजों को हर प्रकार से पूरा करके कोर्ट में जमा करना था। लेकिन अस्पताल सहयोग नहीं कर रहा था। इसे विड़ंबना ही कहेंगे ! अंदर से उसका दिल रोता था। बाहर से सामान्य दिखने का प्रयास करता ! लेकिन अपने प्रयास में सफल होता नहीं
दिख रहा था। जिससे भी अपने दुर्भाग्य के बारे बताता, तो आंखें छलछला पड़तीं।
परदेश में एक प्रवासी मजदूर या मिस्त्री की कितनी पहुंच हो सकती है ? पहुंच के मामले में वो लाचार था ! अपनी लाचारी और बेबसी को समझता था। लेकिन कुछ जुगाड़़ तो करना था ! बेशक इसके लिए उसे अपनी अंतरात्मा को मारना पड़े ! और फिर राम नगीना ने अपनी आत्मा को मार दिया था। अपनी अंतरात्मा को मारने के बाद उस डॉक्टर को अपना दुखड़ा सुनाया जिसके यहां उसने कुछ वर्ष पहले काम किया था। जब मनुष्य मानसिक रूप से कमजोर पड़ने लगता है, तो टूटन शुरू हो जाती है। अपने दुखों और दूसरों के सताने पर ही असहाय होकर झुकने और फिर टूटने लगता है ! राम नगीना भी कोई अपवाद नहीं था ? वह उसका पुराना ग्राहक था और रिटायर्ड डॉक्टर था। वह उसी अस्पताल से सेवानिवृत्त हुआ था। उस डॉक्टर ने उसी समय अस्पताल के आर्थोपेडिक के डॉक्टर को फोन किया। उसने र्स्टीफिकेट देने का आश्वासन दिया था। दूसरे दिन वह बेटे सहित फिर अस्पताल पहुंच गया। फोन का शायद असर हुआ था। आज उस बाबू का रवैया कुछ बदला -बदला सा था ! लेकिन उसने पर्ची फिर भी नहीं बनाई। “ जिस डॉक्टर से मिलना चाह रहे हो … वह आज नहीं हैं।” आज फिर से उसे गच्चा दिया गया था। लेकिन प्यार से ! ऑर्थोपेडिक वाला डॉक्टर शायद अस्पताल में ही था, क्योंकि ड्यूटी र्बोड़ पर उसका नाम मार्कर से लिखा दिख रहा था।
सरकारी सिस्टम और उसके तंत्र से वह हताश, निराश हो रहा था। परन्तु उसे सब्र और धैर्य से काम लेना है। सिस्टम के साथ लड़ने के लिए उस में ताकत नहीं है ? साहस भी नहीं है ? वे यदि कुछ भी नहीं देना चाहे, तो उनके पास अनेकों उपाय और साधन है। उसके पास क्या है ? सहनशीलता और विनम्रता ही उसकी पूंजी, उसका साधन है ! बाप- बेटे एक बार फिर मायूस होकर बस पकड़ने के लिए स्टेंड की ओर बोझिल कदम उठाते हुए बढ़े। राम नगीना आज बाहर से शांत लग रहा है। लेकिन उसके मन में बवंडर मचा हुआ है। बेटे का गुस्सा थम नहीं रहा है। सिस्टम के प्रति उसके मन में उठी चिंगारी शोला बनती जा रही है।
“बापू ! आप बहुत सीधे हो… आपके व्यवहार से कोई आपको भाव नहीं देगा !” बेटे को अभी दुनियादारी और जीने की कला सीखना बाकी था। वह जल्दी ही अपना आपा खोने लगता था।
“ कोई नहीं बेटा ! तीन- चार दिन बाद फिर आएंगे…अपना काम तो निकालना ही पड़ेगा न …”
“ ठीक है… अगली बार मैंने सोच लिया है… काम तो होना ही चाहिए ! नहीं तो… रेल में या जेल में…” बेटे का चेहरा लाल हो गया था। उसने किसी फिल्म का डायलॉग दुहरा दिया था। राम नगीना ने चौंककर उसके चेहरे को देखा। वह उसका आशय समझने की कोशिश करने लगा था।
शेर सिंह
नाग मंदिर कालोनी, शमशी, कुल्लू, हिमाचल प्रदेश – 175126
19/4/18
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