श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग गुजराती भाषा में गिरधर रामायण तथा अल्पज्ञात प्रसंग जब तक हमारी भारत भूमि में गंगा और कावेरी प्रवाहमान ...
श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग
गुजराती भाषा में गिरधर रामायण तथा अल्पज्ञात प्रसंग
जब तक हमारी भारत भूमि में गंगा और कावेरी प्रवाहमान है, तब तक सीताराम की कथा भी आबाल, स्त्री, पुरुष सबमें प्रचलित रहेगी, माता की तरह हमारी जनता की रक्षा करती रहेगी।
(चक्रवर्ती श्री राजगोपालाचार्य जी)
भारत में अनेक भाषाएँ, बोली और लिखी जाती हैं। इन भाषा और बोलियों में हमारी विभिन्नता न होकर राष्ट्रीय एकता परिलक्षित होती है। हमारी यह भारतीयता का निर्माण मातृभूमि प्रेम, हमारे रीतिरिवाज, हमारी संस्कृति, हमारी कलाओं, हमारे साहित्य आदि से हुआ है। भारतीय भाषाओं में वर्णित श्रीरामकथा में अनेक अनमोल रत्न छुपे पड़े हुए हैं। श्री गिरधरदासजी द्वारा विरचित गुजराती रामायण गुजराती भाषा का सर्वोत्तम श्रीराम कथा काव्य है। गिरधरदासजी का जन्म लाड़ वैश्य परिवार में बड़ौदा (वड़ोदरा) गुजरात के ग्राम मासर में ई. १७८५ में हुआ। गिरधरदासजी के पिता गरबड़दासजी पटवारी थे। गिरधरदासजी ने गोस्वामी पुरुषोत्तमदासजी से वल्लभ सम्प्रदाय के वैष्णव धर्म की दीक्षा ग्रहण की। इनके गुरुकाव्य शास्त्र एवं वेदान्त के मर्मज्ञ थे। श्री गिरधरदासजी विवाहित थे। उनके इकलौते पुत्र की असमय मृत्यु हुई है तथा कुछ ही दिनों के बाद उनकी पत्नी का भी स्वर्गवास हो गया। इन दोनों की मृत्यु हो जाने से उन्हें गार्हस्थ जीवन में कोई रुचि एवं लगाव नहीं रहा।
गिरधरदासजी विरचित रामायण गुजराती का सर्वोत्तम श्रीरामकथा काव्य है। इन्होंने इसकी रचना सं. १८९३ (ई. १८३५) में की। गिरधरदासजी ने वाल्मीकि रामायण को आधार मानकर अपनी रामायण की रचना की। गिरधरदासजी ने इसके अतिरिक्त पद्मपुराण, कूर्मपुराण, अग्रिपुराण, हनुमन्नाटक, अगस्त्य रामायण, अध्यात्म रामायण, भरत रामायण, स्कन्ध रामायण आदि ग्रंथों का गहन अध्ययन कर रचना की है। इस रामायण में कहीं-कहीं श्रीरामचरितमानस के प्रसंगों की झलक भी दिखाई देती है। गिरधर रामायण में २९९ अध्याय और ९५५१ चौपाइयाँ हैं। रामायण में ७ काण्डों के साथ ही साथ एक-एक प्रसंग को लेकर एक-एक अध्याय है। इनकी रामायण गेय, राग-रागिनियों में लिखी गई है। सं. १९०८ में श्रीनाथजी के दर्शन उपरान्त उनका स्वर्गवास हो गया।
हनुमानजी का जन्म एवं ग्यारहवें रुद्र कैसे?
श्रीहनुमानजी के जन्म के कथा प्रसंग को इस रामायण में श्रीरामजी के जन्म हेतु पुत्रेष्ठियज्ञ से जोड़कर बताया है। राजा दशरथजी ने गुरु वशिष्ठजी से पूछकर पुत्रेष्ठि-यज्ञ का अनुष्ठान किया और शुभ मुहूर्त पर विधिपूर्वक यज्ञ को आरंभ किया। इस अवसर पर बड़े-बड़े मुनि इकट्ठे हो गए। इन ऋषि मुनियों में मुख्य शृंगी ऋषि थे। जब यज्ञ की पूर्णाहुति सम्पन्न हो गई तब—
पूर्णाहुति थई यज्ञनी, त्यारे प्रगट अग्नि नरखिया,
यज्ञनारायण रुप जोईने, मुनि सखे हरखिया।
चत्वारी शृंग ने सप्त पाणि चरण त्रय द्वय शीश,
एम ज्वाला मांही प्रगट मूर्ति, जोई हरख्या अवधीश।
पयसान्ननुं पात्र करमां, आप्युं शृंगी हाथ,
त्रिपिडं करी भक्षण कराओ, त्रिराणी ने साथ।
गुजराती गिरधर रामायण बालकाण्ड अध्याय १२-७ से ९
यज्ञ में से अग्रिदेव प्रकट हो गए। यज्ञनारायण का रूप देखकर सब मुनि हर्षित हो गए। चार सींग, सात हाथ, तीन चरण और दो मस्तक इनसे युक्त यज्ञनारायण की मूर्ति, यज्ञ की ज्वाला में प्रकट हो गई। यह देखकर दशरथजी प्रसन्न हो गए। उनके हाथ में जो पायस प्रसाद के अन्न का पात्र था, उन्होंने वह शृंगी ऋषि के हाथ में दे दिया और कहा— इसके तीन पिण्ड (भाग) बनाकर तीनों रानियों को साथ में खाने को दो। इतना कहकर अग्रिदेव ने शृंगी ऋषि को प्रसाद देकर अन्तर्धान हो गए। शृंगी ऋषि ने यह पायस सम्मानपूर्वक वसिष्ठजी को दिया। वसिष्ठजी ने उसका विभाजन करके तीन पिण्ड बनाए। गुणवती कौशल्या को उन्होंने सबसे बड़ा भाग दिया। इसके पश्चात् मध्यम आकार वाले पिण्ड को दो भाग में विभाजित किया तथा कैकेयी और सुमित्रा के हाथों में उस समय चरु हविष्यान्न दे दिया। उस समय कैकेयी रूठ गई। वह क्रोध में आकर बोली मुझसे क्या अधिक जानकर प्रसाद का बड़ा भाग कौशल्या को दे दिया। मैं राजाजी की बहुत प्यारी रानी हूँ। मैंने तो राजा पर उपकार भी किया है। मैंने उन्हें युद्ध में विजयी बनाया।
यह सब सुनकर वसिष्ठजी ने कहा— रानी यह चरुप्राशन (भक्षण) करो। यदि अधिक समय लगाओगी तो कुछ विघ्न उठ खड़ा होगा। वसिष्ठजी ऐसा कह ही रहे थे कि अचानक एक चील वहाँ आ गई और लपककर पिण्ड को छिनकर आकाश में उड़ गई। यह देखकर कैकेयी विलाप करने लगी। उसकी आँखों से अश्रुओं की धारा बह निकली। तब राजा दशरथ ने कौसल्या को आँखों से इशारा किया। उन्होंने सुमित्रा के सामने भी देखा तो वह मतलब समझ गई। कौसल्या ने अपने चरु का चौथा भाग कैकेयी को दे दिया। इसके अतिरिक्त सुमित्रा ने भी अपने चरु में से चौथा भाग कैकेयी को दे दिया। कौसल्या और सुमित्रा के चरु के दो भाग कैकेयी ने खा लिए। चरु भक्षण कर कैकेयी संतुष्ट हो गई। तीनों रानियाँ गर्भवती हो गई तब राजा भाव विभोर हो गए।
चील कैकेयी के हाथों में से चरु पिण्ड ले गई। यहीं से श्रीहनुमान्जी के जन्म का कथा प्रसंग प्रारंभ होता है। वह चील कौन थी? उस चरु पिण्ड का क्या हुआ? आदि रहस्य इस कथा में है।
एक केसरी नामक वानर था। उसकी स्त्री का नाम अंजना था। वे दोनों वन में आश्रम बनाकर रहते थे। उन्हें कोई संतान नहीं थी। अत: अंजनी ऋष्यमुक पर्वत पर तपस्या करने चली गई। अंजना ने सात हजार वर्ष तक शिवजी की कठोर आराधना की। अंजना की तपस्या से शिवजी प्रसन्न होकर उसे वरदान माँगने को कहा। अंजनी ने वरदान में तेजस्वी एवं बलवान पुत्र माँगा। शिवजी ने अंजनी को कहा—
शंकर कहे- धन्य अंजनी, तुज पुत्र थाशे नेट,
रुद्र जे अगियारमा, ते प्रगटशे तुज पेट।
आ मंत्र जप वायु तणो, बे कर पसारी एह,
प्रसाद आपे पवन तुजने, भक्ष करजे तेह।
गुजराती गिरधर रामायण बालकाण्ड अध्याय १२-२७-२४
तुम्हें अवश्य ऐसा ही पुत्र उत्पन्न होगा जो ग्यारहवाँ रुद्र है, वह तुम्हारे गर्भ (पेट) से अवश्य प्रकट होगा। तुम दोनों हाथों को फैलाकर वायु देव के मंत्र का जप करना। पवन देव तुम्हें प्रसाद देंगे और तुम उसे खा लेना। मंत्र देकर शिवजी वहाँ से अन्तर्धान हो गए।
उसी समय वही चील (कैकेयी के हाथ में से प्रसाद का पिण्ड लिये) हुए आकाश में थी। एकाएक पवन अतिशय जोर से बहने लगा तथा शिवजी का वरदान अटल था। चील तेज वायु से व्याकुल हो गई तथा तत्क्षण उसकी चोच में से वह चरु (प्रसाद पिण्ड) वायुदेव ने अंजनी के हाथों में गिरा दिया। अंजनी ने हाथ में प्रसाद देखकर प्रसन्नतापूर्वक शिवजी के दिए मंत्र को पढ़कर खा लिया।
चील पूर्व जन्म में एक अप्सरा थी, जो कि ब्रह्मलोक में निवास करती थी। उसका नाम सुवर्चसा था। एक समय की बात है कि वह अप्सरा ब्रह्माजी की राजसभा में नृत्य कर रही थी कि सबके सामने काम विकार के कारण वह चंचलता से देखी गई। स्वर-मात्रा में उससे त्रुटि हो गई। ऐसा देखकर विधाता ने उसे शाप दिया। 'चंचल नज़र से देखने के कारण तुम स्वयं चील हो जाओगी।’ तत्पश्चात् अप्सरा ने ब्रह्माजी से क्षमायाचना की तब ब्रह्माजी ने कहा— 'थोड़े दिन बात दशरथ यज्ञ करेंगे। उस समय स्वयं अग्निदेव रानियों को प्रसाद देंगे। तुम कैकेयी के हाथ में से चरु अवश्य उठा लाना किन्तु तुम उस पिण्ड को खाना मत। उस चील की चोंच से अंजनी के हाथों में प्रसाद पिण्ड गिरा, वह अपने पूर्व रूप अप्सरा बनकर ब्रह्मलोक पहुँच गई।
अंजनी ने चरु को भक्षण किया। कुछ समय बाद वह गर्भवती हो गई। अंजनी को पूरे महीने होने पर उसके प्रसूति का समय आ गया। कुछ समय बाद पुत्र का जन्म हुआ, उसका वेश वानर का था। उसके कानों में कुण्डल बिजली की भाँति चमकते थे तथा मस्तक पर रत्नजड़ित टोपी थी। कछोटा, वज्र का और सोने की लंगोटी थी। कमर में घास की डोरी शोभायमान है तथा सुन्दर यज्ञोपवीत से हनुमानजी सुशोभित थे।
राजा सत्यवान और दानों में सर्वश्रेष्ठ अन्नदान कथा प्रसंग
श्रीराम के राज्याभिषेक हो जाने के पश्चात् कुछ वर्षों के बाद वे अगस्त्य ऋषि के आश्रम में गए। श्रीराम ने मुनि को दण्डवत नमस्कार किया तथा ऐसा देखते ही दौड़कर मुनि ने श्रीराम को अपनी बाहों में भरकर स्वागत किया। कुम्भज अर्थात् अगस्त्य मुनि ने श्रीराम से प्रसन्न होकर कहा कि— हे रामजी! आपने मुझे पावन और धन्य कर दिया। अगस्त्य ऋषि ने श्रीराम का सत्कार पके हुए मीठे फल एवं मीठे फलों से बने भोजन से कराया। श्रीराम के विनयपूर्वक आदर-सत्कार करने के बाद ऋषि ने हीरे तथा रत्न जड़े हुए सोने के कंकणों की जोड़ी श्रीराम के हाथों में तुरंत पहना दी।
यथा प्रसन्न कंकण जोइने, पूछ्युं मुनि ने राम,
कृतविधि वस्तु स्वर्गनी, क्यांथी तमारे धाम।
त्यारे घटोद्भव कहे सुणो प्रभू, ए कंकणी बहु वात,
ए मनुष्यलोके नव मले, दुर्लभ सदा साक्षात्।
गुजराती गिरधर रामायण उत्तरकाण्ड अध्याय २१-५ से ६
श्रीराम कंकणों को देखकर प्रसन्न हो गए फिर उन्होंने अगस्त्य ऋषि से पूछा— विधाता (ब्रह्माजी) द्वारा बनाई हुई यह स्वर्ग की वस्तु आपके पास कहाँ से और किस प्रकार आ गई? यह सुनकर अगस्त्यजी ने कहा— हे प्रभु सुनिए, मैं इन कंकणों के बारे में बताता हूँ। ये मनुष्यलोक में नहीं मिलते हैं ये अत्यंत दुर्लभ हैं। अगस्त्यजी ने कहा कि विदर्भ देश में सत्यवान नाम का एक राजा था। वह महान तपस्वी और पुण्यात्मा था। उसने जीवनभर रत्न, सोने के आभूषण, घोड़े, हाथी और रथ अनगिनत रूप से दान में दिए थे। उसने निश्चय ही एक अन्नदान के अतिरिक्त सब कुछ वस्तुएँ दान में दी थी।
एक समय की बात है कि राजा मृगया (आखेट) के लिए अकेला वन में निकल गया। उसकी आयु के दिन पूरे हो चुके थे तथा उसकी वहाँ मृत्यु हो गई। पुण्य के प्रताप से राजा दिव्य शरीर धारण कर विमान में बैठकर स्वर्ग में चला गया। स्वर्ग में जाकर राजा ने अनेक प्रकार के भोगों का उपभोग किया, किन्तु उसने जीवन पर्यन्त (भर) कभी भी अन्नदान नहीं किया। इसलिए उसके शरीर को भूख की पीड़ा पहुँचाने लगी। राजा ने ब्रह्माजी से कहा— मुझे भूख सता रही है, मुझे भोजन चाहिए। मैं अब और भूखा नहीं रह सकता हूँ। मुझे स्वर्ग का सुख अच्छा नहीं लग रहा है।
एवां वचन सुणी ते रायनां, बोल्या प्रजापति भगवान,
हुं खावा शुं आपुं तने? नथी कर्युं ते अन्नदान।
गुजराती गिरधर रामायण उत्तरकाण्ड अध्याय २१-१३
ब्रह्माजी ने राजा से कहा— तुमने (राजा) अपने जीवनकाल में कभी भी अन्नदान नहीं किया, अब मैं तुझे यहाँ क्या खाने को दूँ। ब्रह्माजी ने इसके अतिरिक्त राजा को और भी बहुत सी बातें कहकर उसे समझाने का प्रयत्न किया, किन्तु राजा हठ कर बैठा। यह देखकर विधाता क्रोधित हो उठे। ब्रह्माजी ने क्रोधित होकर उससे कहा— तुम प्रेत बनकर अपने ही शरीर का माँस भक्षण करते रहो। तुम्हारा यह शरीर कभी समाप्त नहीं होगा। अगस्त्यजी बोले— हे राम! विधाता की बात के अनुसार वह राजा भूत (प्रेत) बन गया और अपनी ही देह को खाने के लिए इस वन में नित्य आ जाता था। विधाता के शाप के कारण उसका शरीर कभी भी समाप्त नहीं हो रहा था। इस तरह कई दिन बीत गए तो राजा व्याकुल हो उठा। वह राजा प्रेतात्मा का रूप धारण करके नित्य देह का माँस भक्षण करके पुन: देव होकर स्वर्ग में लौट आता था।
सुणो रघुपति अन्न दान मोटुं, सरवथी निरवाण,
अन्न विना अन्य उपायथी, नव रहे कोना प्राण।
गुजराती गिरधर रामायण उत्तरकाण्ड अध्याय २१-१९
हे रघुपति सुनिए अन्नदान सब दानों में सबसे बड़ा होता है। बिना अन्न के किसी उपाय से किसी के भी प्राण नहीं रह सकते। जिस प्रकार शान्ति के समान कोई दूसरा सुख नहीं होता है। गुरु के समान कोई सेव्य अर्थात् सेवा करने योग्य नहीं होता है, उदार के समान कोई सच्चा धनवान नहीं होता है। शिवजी के समान कोई देवता नहीं है। जिस प्रकार द्वादशी की तिथि महिमा सब तिथियों में सबसे बड़ी मानी जाती है। समस्त तीर्थों स्थलों में प्रयागराज को श्रेष्ठ माना जाता है, हरि के नाम मंत्र के समान कोई और मन्त्र नहीं है, ब्रह्म यज्ञ के समान कोई और यज्ञ नहीं है, उसी प्रकार समस्त दानों में अन्नदान सर्वोपरि है और दूसरा कोई भी दान इसके तुल्य या समान नहीं है। अन्नदान से लोग तृप्त हो जाते हैं इसलिए यह अनमोल दानों की श्रेणी में है। अन्नदान करने की कोई अलग से विशेष विधि नहीं है। इस दान के लिए कोई देश और समय (काल) निर्धारित नहीं है। भूखे को अन्नदान देते समय उसमें पात्र-अपात्र का कोई भेद नहीं है। इसलिए हे सीतापति अन्नदान की विशेष महिमा है।
वह राजा नित्य माँस भक्षण कर विमान में बैठकर जाता था। एक समय उस राजा ने विधाता से प्रार्थना की हे महाराज! मेरा यह कर्म किस प्रकार छुड़ाया जाएगा। यह सुनकर प्रजापति को उस राजा पर दया आ गई तो वह प्रेमपूर्वक बोले— हे राजा! अगस्त्य ऋषि के दर्शन करने पर तुम्हें तृप्ति हो जाएगी। विधाता के वचन सुनते ही, हे राम! वह मेरे पास आ गया। उसने अपना दु:ख बताया और मेरे चरण-स्पर्श किए। मैंने भी उसके सिर पर हाथ रखा और कहा— श्री भगवान् सुनिए आपकी भक्ति के प्रताप से मैंने उसे अभय का वरदान दे दिया।
परिणाम स्वरूप उस राजा की क्षुधा निवृत्ति हो गई। उसकी भूख सदा के लिए मिट गई और वह तृप्त हो गया। उसका प्रेतात्मा स्वरूप समाप्त हो गया और अन्त में सुखी हो गया। उस राजा के पास ये कंकण थे जो ब्रह्माजी द्वारा निर्मित थे। हे राम! सुनिए वह राजा मुझे कंकण भेंटकर स्वर्गलोक चला गया। हे रघुपति आज मैंने वे कंकण आपको समर्पित कर दिए हैं। उस राजा ने स्वर्ग में जाकर अमृत पान कर लिया।
भारतीय संस्कृति में भोजन की थाली में भोजन करने के पूर्व उसको (अन्न) को प्रणाम किया जाता है। भोजन समाप्त हो जाने के बाद भी थाली को प्रणाम कर उठते हैं। गुजराती गिरधर रामायण में अगस्त्यजी के माध्यम से अन्नदान को सब दानों में सर्वश्रेष्ठ-सर्वोपरि माना गया है। अत: हमें इस भौतिकवादी युग में इस कथा-प्रसंग से प्रेरणा प्राप्त कर कम से कम एक भूखे व्यक्ति को अन्नदान करना चाहिए। हम भी तो आज कृषक को अन्नदाता कहते हैं यही हमारी विरासत है।
---
डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
'मानसश्री’, मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर
सीनि. एमआईजी-१०३, व्यास नगर,
ऋषिनगर विस्तार, उज्जैन (म.प्र.)
Email : drnarendrakmehta@gmail.com
पिनकोड- ४५६ ०१०
COMMENTS