लोटन उनका नाम पहले रामलोटन था फिर स्वामी लोटन दास और अब लोटन है। जब से वे "स्वामी लोटन दास" से "लोटन" हुये है अजीबोगरीब ...
लोटन
उनका नाम पहले रामलोटन था फिर स्वामी लोटन दास और अब लोटन है। जब से वे "स्वामी लोटन दास" से "लोटन" हुये है अजीबोगरीब हरकत करते हैं, वे अपने आप में ही खोये रहते हैं। कभी हंसते हैं, कभी रोते हैं कभी गाते हैं, उन्हें जरा भी इल्म नहीं है कि कौन-सा काम कब करने से कोई आदमी की तरह न होने पर भी आदमी जैसा लगता है।
रामलोटन से लोटन दास होने की कहानी को समझने के लिये पांच साल पीछे जाना पड़ेगा। जब वे केवल ड्राइवर रामलोटन मिश्र थे। तहसीलदार साहब की गाड़ी दौड़ाते थे। एक दिन शाम को पत्नी से उनकी गरमा-गरम बहस क्या हुई कि रात में ही घर से गायब हो गये। उन्हें इधर-उधर, जान पहचान में, नात-कुनात में हर जगह बहुत तलाशा गया, पानी वाले और बगैर पानी वाले कूप तलैया, पोखर गड्ढा सब जगह पावर का चश्मा आँख में चढाकर ताका-झाँका गया---लेकिन सब बेकार। वे मिलने के लिये थोड़ी गायब हुये थे। गांव के कुछ पढ़े-लिखे लोगों ने सलाह दी की थाने जाकर रपट लिखा दी जाये। सलाह की कद्र करते हुये थाने में रपट कर दी गई। तहक़ीक़ात में बड़े मुंशी जी एक बूढ़े सिपाही को साथ लेकर रामलोटन के घर आये।
रामलोटन का परिवार "हम दो हमारे दो" के सिद्धांत वाला था। घर में इकलौती पत्नी और एक जोड़ी बच्चों के अलावा एक नग निःसन्तान गाय थी, जो भूसा-चारा के बदले सिर्फ गीला सूखा गोबर प्रदान करती थी।
बड़े मुंशी जी की "फटफटी" ज्योंही उनके द्वार आकर रुकी लोग माजरा समझ गये और पूरा गाँव रामलोटन के घर के बाहर जमा हो गया। बड़े मुंशी जी राम लोटन की पत्नी सियादुलारी का 'नज़री एक्सरे' लेते हुये मेढ़क की तरह टर्रा कर बोले.....
"किस वजह से झगड़ा हुआ था ??"
"झगड़ा नहीँ हुआ था---होने वाला था। सिर्फ बातचीत हुई थी।" रामलोटन की पत्नी ने बताया।
"वई-वई.... बातचीत किस मुद्दे पर?"
"साहब, आप को तो सब पता है, वे सरकारी डाइवर थे। बिना पिये उनकी गाड़ी नहीँ स्टार्ट होती थी। वे रोज ही अद्धा लेकर आते थे, उस दिन भी लेकर आये थे, साहब दो दिनन से गऊ माता को पतले दस्त लग रहे थे, सुबे
हमने दफ्तर जात टेम कहा था कि शाम को लोटते बखत गऊ माता के लिये कुछ दवा दारू लेते आना। शाम टेम जब वो घर आये तो दवा की जगह पूरी एक बोतल देसी ठर्रा ले के आय गये। मैंने जब उनसे दवाई को पूछा तो कुच्छ बोले नहीं और गऊ माता को दारू पिलाने की कोशिश करने लगे। मैंने उन्हें मना किया--- "गऊ माता का धरम नष्ट मत करो। उन्हें दारू मत पिलाओ, पर वे माने नहीं, उलटे हमें गरियाते रहे।"
"हाँ-हाँ, बोलती रहो, क्या-क्या गरियाये थे?"
वे कह रहे थे---"मूर्ख देहाती औरत तू का जाने---ई दवा से बड़े-बड़े शेर-बाघ तक के दस्त रुक जाबे है, ई गइया का चीज आय। मैं दौड़कर उनके हाथ से बोतल छुड़ाने लगी, इसी छीना-झपटी में बोतल नीचे गिर गई और पूरी दारू जमीन में बह गई।"
"फिर ??" बड़े मुंशी जी नीचे झुक आयी मुच्छ को उठाते हुये बोले।
"फिर का साहेब! वे बड़े गुस्से में रहे---खाना नै खाओ। अपुन भी पतनी धरम के मान में कुच्छ नाहीं खाओ।"
"फिर?"
"फिर सोबत परे का पता कहाँ चले गये?"
"कइसे चले गये? तुमने रोका क्यों नहीं?"
"मै सोयी थी।"
"और कोई इधर-उधर की दोस्ती यारी का लफड़ा तो नहीं।"
"नहीं पता साब।"
"देखो बाई, पुलिस उन्हें ढूंढ़ने की पूरी कोशिश करेगी। जैसा भी पता चलेगा तुम्हें खबर की जायेगी।"
एक दिन नदी में उतराई नग्न लाश को खिंचवाकर दरोगा जी थाने में उठवा लाये और रामलोटन के परिवार को शिनाख्त के लिए बुलवाये। सियादुलारी पड़ोस में रहने वाले और दूर के रिश्ते में चाचा श्वसुर लगने वाले पंडित जानकी प्रसाद को लेकर थाने गई। लाश कई दिनों की हो गई थी..पहचान करना कठिन था। लेकिन जानकी प्रसाद ने नाक के निशान के आधार पर सिद्वय कर दिया कि ये लाश रामलोटन की है। पुलिस ने भी तत्काल पंचनामा कराया और लाश सुपुर्द कर दी गई। रामलोटन की अंत्येष्टि विधि विधान से की गई। उनकी अंतिम यात्रा में नात-रिस्तेदार, गांव-पड़ोस के सभी लोग पहुँचे थे। तहसीलदार साहब भी सरकारी इमदाद के पच्चीस हज़ार नकद लेकर आये थे। वे बहुत दुखी लग रहे थे। वे लोगों से बता रहे थे कि ऐसा ड्राइवर मिलना मुश्किल है। रामलोटन कित्ता भी पी ले बहकता नहीं था। जबरदस्त गाड़ी खैंचता था। बिना रामलोटन के अब तहसील की गाड़ी कैसे चलेगी।
समय ने दायीं करवट ली, साहब लोगों की मेहरवानी से सरकार के नियम कानून मुताबिक रामलोटन के लड़के को कुत्ता नहलाने और बाजार से साग भाजी लाने की नौकरी में रख लिया गया।
दारू की गंध सूंघते-सूंघते असमय बुढ़ापे की तरफ कदम बढ़ाती हुयी रामलोटन की मेहरारू सियादुलारी दोबारा जवानी की दिशा में लौट आयी थी। रिस्ते में देवर के साथ उसका नाम जुड़ने लगा था। आधार कार्ड और वोटर आई-डी में नाम जुड़ने की तैयारी चल ही रही थी कि एक रात अचानक रामलोटन का भूत लँगोटी कसकर वापस आ गया और सब करे धरे पर पानी फेर दिया।
दरअसल रामलोटन मरे नहीँ थे। पूरा दारू जमीन में बह जाने की वजह से उनका दिमाक गोल-गोल घूम गया था। ये उनकी पुरानी बीमारी थी। बहुत इलाज कराया था। बड़े-बड़े डॉक्टरों की मोटी फ़ीस भरी थी लेकिन उन्हें रत्ती भर फायदा नहीं हुआ। भगवान भला करे उस अफीमची का जिसने रामलोटन को दारू पिलाकर कुछ ही दिनों में दिमाग का गोल-गोल घूमना बन्द कर दिया था। आज पूरी दारू जमीन में बह गई थी। दवा की डोज न मिलने के कारण दिमाग घूम गया था। उसके प्रभाव से वे भी घूमते-घूमते न मालूम कब चित्रकूट-कर्बी होते हुए प्रयागराज पहुँच गये।
प्रयागराज में साधुओं से उनकी दोस्ती हो गई। साधुओं ने उनका पैंट-शर्ट उतरवा कर लँगोटी पहना दी। ओढ़ने को तीन मीटर पीला कपड़ा थमा दिया। सर और दाढ़ी के बाल बिना किसी प्रयास के बढ़ गये थे। हाथ में चिमटा और कमंडल पकड़ा दिया गया था। एक दिन चिलम की खींचतान के बीच बड़े साधु बाबा द्वारा उसका नाम रामलोटन मिश्र से बदलकर 'स्वामी लोटन दास' कर दिया गया। वे बेचारे स्वामी लोटनदास महाराज के नाम से ठीक से प्रसिद्ध भी नहीं हो पाये थे, कि गम्भीर हादसा हो गया।
प्रयागराज में माघ मेला अपने पूरे रंग-ओ-सबाब में था। हज़ारों साधु-असाधु रोज आते और गंगा मैया में डुबकी मार कर मन का पाप धो के चले जाते थे। उनके ठहरने के पंडाल भी शासन ने लगवा रखे थे।बड़ा जोरदार इंतज़ाम था। रहने और खाने-पीने की किसी तरफ कोई कमी नहीं। जहाँ भी मन पड़े घूमो---भूख लगने पर पेट भर खाओ। नींद आने पर कहीं भी सो जाओ।
स्वामी लोटनदास महराज भी सांध्य समय चिमटा कमंडल उठाये मेला भ्रमण को निकले हुये थे। जगह-जगह पंडालों में कुछ न कुछ चल रहा था। कहीं रामायण की कथा चल रही थी, कहीं महाभारत के युद्ध का वर्णन हो रहा था, तो कहीँ गीता का ज्ञान परोसा जा रहा है। एक जगह पर दो चार साधु बैठे हुए चिलम पी रहे थे। लोटन दास को निहारते पाकर उन्हें भी बैठा लिया। दो-चार लंबा दम मारने के बाद उनकी तबीयत नाचने लगी। वे वहाँ से आगे बढ़ गये। एक बड़े पंडाल में कुछ नया प्रयोग हो रहा था। बाहर एक बड़ा सा बोर्ड लगाया गया था, जिसमें बड़े अक्षरों में लिखा था----'संत सुधार केंद्र'।
लोटन दास ने ज्योंही बोर्ड पर लिखी इबारत पढ़ी, उनका दिमाग एक बार फिर से गोल-गोल घूम गया। वे वगैर आगा-पीछा सोचे दड़दड़ाते हुये
प्रवचन करते हुये महंत जी के पास पहुँच गये और उनकी दाढ़ी खींचकर जोर से बोले---
"धूर्त ढोंगी! संत को सुधारने की बात करता है? वह तो वैसे ही सुधरा सुधराया है। अरे! सुधारना चाहता है तो मुल्क के भ्रष्ट नेता, अफसरों को सुधार, निर्दोष लोगों को मारने वाले आतंकियों को सुधार, देश की परंपरा और संस्कृत को नष्ट करने वाले नग्न, सरे राह नाचने वाले फ़िल्म वालों को सुधार, सरकारी महकमे के घूंस खोर, कामचोर नौकरशाहों को सुधार।"
बड़े महंत जी तख्त से मुँह के बल नीचे गिर पड़े। सर फट गया , खून बहने लगा। फिर क्या था? सभी असाधु मिलकर स्वामी लोटनदास की चिमटे से मरम्मत कर दिये। वे बेचारे गेरुआ वस्त्र और कमंडल चिमटा वहीं छोड़कर केवट लँगोटी पहने जान बचाकर भाग निकले। दो तीन दिनों में भूखे-प्यासे वे किसी कदर घर पहुँचे, गाँव के कुत्तों ने उनका स्वागत राग 'स्वान कल्याण' गाकर किया। कुछ पुराने कुत्ते जो अपने गाँव के पुराने ड्राइवर को पहचान लिए थे, वे पूँछ हिलाकर उनका स्वागत किये। रात में वे अपने घर भी गये थे, लेकिन घर का बन्द द्वार उनके वास्ते नहीं खुला। वे रात भर एक पेड़ के नीचे पड़े कराहते रहे। कम्बख्त साधुओं ने उन्हें बहुत मारा था।
भोर होने पर वे पूरा दम बटोर कर अपने घर पहुँचे। बाहर ही उनकी पत्नी मिल गई। वह उन्हें पहचान गई और भूत-भूत चिल्लाती हुई घर के भीतर घुस गई। पल भर में रामलोटन के भूत की गांव वापसी की खबर गांव वालों को लग गई। दिन होने के कारण भूत देखने को पूरा गांव उमड़ पड़ा। रामलोटन ने रो-रोकर आप-बीती लोगों को सुनाई। कुछ को कुछ यकीन हुआ, कुछ को बिलकुल नहीं हुआ। दबी जुबान से कुछ लोगों ने यहाँ तक कह दिया कि ये सब रामलोटन की प्रॉपर्टी हड़पने वाला कोई चालबाज है। अब वे बेचारे सबको कैसे यकीन दिलायें कि---"मैं ही तहसीलदार साहब का ड्राइवर, गाय को दारू पिलाने वाला सियादुलारी का पति राम लोटन मिश्र हूँ।"
मेरी समझ में अब वे, न तो रामलोटन हैं, न स्वामी लोटनदास हैं। वे सिर्फ और सिर्फ 'लोटन' हैं। अब मुश्किल ही नहीं नामुमकिन लगता है कि वे दोबारा से रामलोटन हो पायेंगे। अब उनके पास लँगोटी के सिवा कुछ नहीं बचा है। और लँगोटी के बूते इजलास में कैसे साबित कर पाएंगे कि मैं जिन्दा हूँ। मैं सियादुलारी का पति रामलोटन मिश्र हूँ। मेरी राय है कि अब वे जिंदगी की शेष यात्रा जमीन में लोट-लोट कर पूरा करें। भगवान उनकी रक्षा करे।
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रामानुज अनुज
रीवा मध्यप्रदेश
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