श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग नेपाली संतकवि श्री भानुभक्त रामायण और उसके अल्पज्ञात प्रसंग गिरिजा सुनहु बिसद यह कथा। मैं सब कही मोरि ...
श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग
नेपाली संतकवि श्री भानुभक्त रामायण और उसके अल्पज्ञात प्रसंग
गिरिजा सुनहु बिसद यह कथा। मैं सब कही मोरि मति जथा।।
राम चरित सत कोटि अपारा। श्रुति सारदा न बरनै पारा।।
श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड ५२ (क)
शिवजी पार्वती से कहते हैं- हे गिरिजे! सुनो मैंने यह उज्ज्वल कथा जैसी मेरी बुद्धि थी, वैसी पूरी कह सुनाई। श्रीरामजी के चरित्र सौ करोड़ अथवा अपार-अनगिनत हैं। श्रुति और शारदा भी उनका वर्णन नहीं कर सकते।
ऐसी ही इस श्रीरामकथा का भारतीय साहित्य में व्यापकता की अपेक्षा विदेशों में भी उसकी ख्याति और लोकप्रियता होना कोई कम आश्चर्य नहीं है। विश्व में जनसाधारण में यह श्रद्धा-विश्वास भावना है कि नेपाल में एक मात्र शिव भक्ति की उपासना ही प्रधान है। श्रीराम की चर्चा है करें तो भी नगण्य किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। नेपाल में भगवान् शिव के अतिरिक्त श्रीराम की विशद चर्चा और भक्ति भी है। नेपाल भारत की भाँति हिन्दू धर्मावलंबी प्रमुख देश है। अत: स्वाभाविक है कि वहाँ श्रीराम के अनन्य उपासकों और श्रीरामकथा भक्तों-प्रेमियों-पाठकों का बाहुल्य है। नेपाल में श्रीरामकथा पर हिन्दी में अनेक ग्रंथ लिखे गए किन्तु नेपाली भाषा का प्रसिद्ध-लोकप्रिय ग्रंथ है तो वह एकमात्र ग्रंथ है- नेपाली भानुभक्त रामायण। इस रामायण का सम्पूर्ण नेपाल में गरीब-अमीर सब ही नित्य पारायण करते हैं।
नेपाल देश में छोटे से पर्वतीय प्रदेश के पश्चिमी भाग के ऐसे ही भूभाग, रम्धा नामक ग्राम में विक्रम संवत् १८७१ आषाढ़ २९ गते (सन् १८१४ ई.) के पवित्र दिन संत भानुभक्त का जन्म हुआ। इनका जन्म वहाँ के ख्यातिप्राप्त परिवार विद्वान ब्राह्मण कुल के आचार्य श्रीकृष्ण के छ: पुत्रों में ज्येष्ठ धनञ्जय के एक मात्र पुत्र भानुभक्त के रूप में हुआ। श्री भानुभक्तजी के जीवन का अधिकांश समय पितामह के सानिध्य में व्यतीत हुआ। अत: उनके पितामह के संस्कृत भाषा का ज्ञान का लाभ इन्हें प्राप्त हुआ।
संत-कवि-भानुभक्त के बारे में नेपाल में एक किंवदन्ती बहुत प्रसिद्ध है। किंवदन्ती है कि 22 वर्ष की आयु में एक दिन एक वृक्ष की छाया में भानुभक्त की एक घसियारे से भेंट हुई। घसियारा अपनी दीन-हीन अवस्था होने पर भी अपने ग्राम में सार्वजनिक उपयोग के लिए कुआँ बनवाने हेतु गाढ़ी कमाई में से धन जमा कर रहा था। उसके इस कार्य से संत भानुभक्त के हृदय में भी सार्वजनिक कल्याण एवं सेवा की भावना का संचार हुआ। भानुभक्तजी के समय वाल्मीकि रामायण एवं अध्यात्म रामायण सर्वत्र प्रचार-प्रसार प्रभाव एवं सम्मान था। क्षेत्रीय भाषाओं का धार्मिक साहित्य में प्रयोग लगभग नहीं के बराबर था क्योंकि ऐसी भाषा का प्रयोग पवित्र नहीं माना जाता था। इतना सब होने के उपरान्त भी भानुभक्त जी ने जनभाषा में रामायण की रचना का व्रत लेकर उस घसियारे से प्राप्त सार्वजनिक कल्याण के सपने को साकार रूप ही दिया।
भानुभक्तजी की भाषा नेपाली है किन्तु छन्द रचना में संस्कृत छन्दों का अनुकरण देखने को मिलता है। इनकी रामायण का कथावस्तु अध्यात्म रामायण से है। इनकी रामायण में नेपाल की सामाजिक रीतियों, वेशभूषा एवं भौगोलिक विशेषताओं आदि को स्थान दिया है। इनकी रामायण नेपाली भाषा की प्रथम रामायण मानी गई।
भानुभक्तजी का स्वर्गवास वि.स. १९२५ (१८६८ ई. सन्) आश्विन शुक्ल पंचमी के दिन ५४ वर्ष की अवस्था में हो गया। नेपाल में प्रतिवर्ष उनकी स्मृति में १३ जुलाई को उनकी जयन्ती बड़े धूमधाम से मनाई जाती है। नेपाली भाषा की इस रामायण के कुछ अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग इस प्रकार है-
बालि वध उपरान्त तारा को श्रीराम द्वारा दिया गया तत्वज्ञान
बालि के वध होने की खबर सुनकर तारा रोती हुई अत्यंत विह्वल हो विलाप करती है- हे नाथ! आज आप कहाँ चले गए? मैं अब पुत्रादि-धनादि लेकर क्या करूँगी? यह कहती हुई तारा उसी स्थान पर गई, जहाँ बालि का देहावसान हुआ था। बालि के दोनों चरणों को पकड़ कर रोती हुई और हृदय विदारक विलाप करती हुई तारा कहती है- 'हे रघुनाथ मुझे भी बाण-प्रहार कर मार डालो। मैं भी अपने पति के साथ जाऊँगी। मेरे पति मुझे स्वर्ग में ढूंढेंगे, अत: मैं अब यहाँ कैसे जीवित रह सकती हूँ। पत्नी वियोग में कितनी पीड़ा होती है? यह सब आपको ज्ञात है। अत: इस विषय में और मैं आपको क्या कुछ कहूँ-
पत्नीदान् गरि पुण्य हुन्छ जति सो, मिल्न्याछ पुण्यै पनि।
तस्मात् आज अवश्य हान शरले, जावस पतीथ्यै भनी।।
येती बात् अधि रामसीत गरि फेर, सुग्रीव जिलाई पनि।
भन्छिन् लौ गर राज्य आज खुशिले, मितले दियाको भनी।।
ताराका इ वचन् सुनीकन बहुत्, आयो प्रभुमा दया।
तारालाइ बुझा उनाकन तहाँ, एक तत्व भन्दा भया।।
नेपाली सन्त भानुभक्त रामायण किष्किन्धाकाण्ड ६०-६१
पत्नीदान करने पर जो कुछ पुण्य प्राप्त होता है वही सब पुण्य आपको प्राप्त होगा। इसलिए अब आप अवश्य ही बाण का प्रहार करें। जिससे मैं पति के पास शीघ्र पहुँच जाऊँ। श्रीराम से इतनी बात कहने के बाद तारा पुन: सुग्रीव से बोली- 'आज प्रसन्न होकर अपने मित्र के दिए हुए राज्य का भोग कर लो।' तारा के इन वचनों को सुनकर श्रीराम को अत्यन्त दया आई अत: तारा को समझाने के लिए एक तत्व कह सुनाया।
तारा! तुम बिना सोच विचारकर एक ही शोक कर रही हो। इसे अपना पति कहकर व्यर्थ ही अपने शरीर को कष्ट देती हो। यदि आत्मा को पति कहती हो तो आत्मा कभी नहीं मरती और यदि शरीर को ही पति कहती हो तो व्यर्थ शोक क्यों करती हो, वह तो यहीं पड़ा है। श्रीराम के इन वचनों को सुनकर तारा चुप हो गई। जिस बात का संदेह हुआ केवल वही बात पूछो- हे नाथ! आपने सब कुछ सुनाया फिर भी मन-मस्तिष्क नहीं मानता है। यदि मेरे मन में संदेह बना रहा हो तो यह भोग कौन करेगा? यदि मैं यह कहूँ कि शरीर ही भोग करता है तो शरीर जड़ (निश्चल) है। मैं यह भी नहीं कह सकती कि जो आत्मा है वही भोग करता है। मैं अत्यधिक मोह में डूबी हूँ। अब आप कृपा करके अपने वचनों द्वारा मुझे समझाकर मेरी इस अज्ञानता का हरण या दूर करने का कष्ट करें। तारा के इन वचनों को सुनकर राम के मन में करुणा भर आई और उन्होंने सारा तत्व-ज्ञान विस्तारपूर्वक बताने की कृपा की। उन्होंने तारा को संबोधित कर कहा कि- तारा! अपने मन से इस संसार को असत्य (झूठा) समझो और विलाप मत करो। किस प्रकार यह संसार झूठा है, वह मैं तुम्हें विस्तारपूर्वक बताता हूँ।
मैं तो वर्तमान हूँ। यदि किसी के शरीर में प्रवेश करता हूँ तो शरीर मृत होने पर मैं भी मरा सा लगता हूँ और जब तक 'मैं शरीर नहीं आत्मा हूँ' मन में ऐसा अनुभव नहीं होता तब तक इस संसार में कष्ट विद्यमान रहता है। यह समझ लेना कि जीव स्फटिक के समान है और शरीर लाख के समान है। स्फटिक को लाख के संग रखकर दृष्टांत दिया जाता है। जिस प्रकार लाख के संग स्फटिक अपने को लाल होने का दावा करता है, उसी भाँति शरीर के मरने पर जीव भी मृत कहा जाता है। स्फटिक के कहने से ही वह लाल नहीं होता, और न जीव ही इस शरीर के साथ मरता है। न तो जीव शरीर के संग मरता है और न ही स्फटिक लाल होता है। यह सब मन का ही भ्रम है।
इस मन के खेल के कारण ही जीव शरीर परस्पर कहते हैं हम एक ही हैं। जब तक ज्ञान नहीं होता, कष्ट मिलेगा ही। जिसने इसे मन का खेल समझ लिया यह संसार से तर गया और अज्ञानता के वशीभूत सभी जीव माया के झूठे फंदे में पड़े हुए हैं। जब यह भावना उत्पन्न हो जाती है कि मैं ही शरीर हूँ, यह धन तथा जन सब मेरा है तो समझ लो कि कष्ट ही प्राप्त होगा। सज्जनों की संगति और गुरुकृपा से जब तक मन के खेल को न जीत ले, तब तक इन संकटों को निश्चय ही समूल नष्ट नहीं किया जा सकता।
जो जन यह जानते हैं कि मैं नित्य आत्मा हूँ और शरीर केवल चार घड़ी का है उनके ध्यान में कोई विषय टिकता नहीं है और वे इस संसार को स्वप्न के समान समझते हैं। इसे दृढ़तापूर्वक भक्ति से सुनो, इसे विस्मृत मत करना। प्रीतिवश मैंने तुमसे यह सब कहा है। इस जन्म में तुमने अगाध भक्ति की थी, इसलिए मैंने आज तुम्हें दर्शन दिया नहीं तो अकस्मात कहाँ मिलता हूँ। मेरे स्वरूप तथा मेरे वचनों को समझो तो जो कष्ट तुम्हें अब हुआ है, वह सब नष्ट हो जाएगा। प्रारब्ध के कर्मों की रेखा भी कदाचित अब मिट जाए और कर्मादि भी नहीं किया जाएगा। सहज ही भवसागर तरने का मार्ग ही कहाँ है? मेरे स्वरूप तथा वचनों को जितना ही समझ लोगी उतने ही सहज भाव से कर्मपाश कट जाएगा। श्रीराम के ऐसे वचनों को सुनकर तारा ने प्रसन्न मन से जो अभिमान था, सब ही त्याग दिया। यह सब सुनकर सुग्रीव का भी अभिमान समाप्त हो गया।
''हनुमान जी का लंका प्रवेश और भयभीत रावण का स्वप्न''
हनुमान जी ने अशोक वाटिका में प्रवेश करने पर एक सुन्दर शिंशपा (अशोक वृक्ष) देखा और प्रसन्न हो गए। वहाँ अत्यंत घना छायादार वन था, वहाँ सूर्य की गर्मी भी प्रवेश नहीं कर सकती, वहाँ अत्यंत उत्तम पौधे, पीले रंग के पक्षी कलरव करते थे तथा वहाँ रहते थे। एक वृक्ष के नीचे राक्षसियों से घिरी हुई सीताजी दिखाई दी, भूखी, प्यासी, हताश, अस्त-व्यस्त केश राशि खुली हुई लटें बिखराये सीताजी भूमि पर बैठी रोती और केवल राम-राम ही रट लगा रही हैं। हनुमान जी ने अपने सूक्ष्म रूप में ही उस पेड़ पर चढ़कर पत्तों में छिपे हुए ही सब कुछ हाल देखा। हनुमान जी ने मन ही मन में कहा कि- अब आज सीताजी के पावन दर्शन कर कृतार्थ हुआ। आज मैं प्रसन्नतापूर्वक यहीं माता सीताजी के निकट रहूँगा। अब आज ऐसा लगा कि श्रीराम का कार्य पूरा हुआ। ऐसा सोच रहे थे कि वहाँ कुछ खलबली सी मच गई और बड़ा ही शोर सुनाई दिया।
यह कैसी हलचल और खलबली मच गई हनुमान जी मन ही मन यह कहते हुए वृक्ष के पत्तों के बीच छुप गए। वहाँ रावण शीघ्र ही तमाम स्त्रियों को लेकर आ गया। निकट आकर रावण बोला- सीता हरण करने पर भी रघुनाथ अभी तक सीता की सुध लेने नहीं आए। आखिर कब तक मैं राम के हाथों मारा जाऊँगा। रावण यह भी कहने लगा कि एक स्वप्न भी देखा है-
रामको दूत् अति वीर वानर अशोक वन्-भित्र आई पसी।
सीताजी कन देखिन्या गरि तहाँ वन्-मित्र लूकी बसी।।
हेर्दो सुर् सब कामको खुशि भई स्वप्ना मिलेथ्यो जसै।
साँच्चे हो कि भनेर दौड़िकन झट् आयो नजीक्मा तसै।।
नेपाली संत भानुभक्त रामायण सुन्दरकाण्ड ३४
स्वप्न में देखा कि राम के दूत अत्यंत बली वानर अशोक वन में प्रवेश कर छिपकर निडरतापूर्वक देख देख प्रसन्न हो रहा है। ऐसा स्वप्न देखकर सोचा कि कदाचित् यह सब सच ही तो नहीं है। यह जानने के लिए तुरंत दौड़कर अशोक वाटिका में आया। यदि यह सत्य है तो अति उत्तम है। मैं सीता को दुर्वाक्य कहूँगा जिसे सुनते ही वह क्रोधित होकर लंका से लौट जाएगा और सब सच-सच वृत्तान्त कह डालेगा। ऐसा सोचकर रावण सीताजी के निकट गया और उनको दुर्वचन कहे। अंत में हनुमान जी ने भी यह देखकर श्रीराम को रावण के व्यवहार के बारे में बताया।
श्रीराम के राज्याभिषेक उपरान्त हनुमान जी को विदाई में दिया गया वरदान
श्रीराम के राज्याभिषेक के पश्चात् उन्होंने अपने समस्त सहयोगियों को विदा करना आरम्भ किया। श्रीराम ने ब्राह्मणों को प्रसन्न कर अनेक वस्तुएँ दान की। सुग्रीव की ओर ध्यान आने पर उन्हें सूर्य के समान माल्यार्पण किया। अंगद का क्रम आने पर उन्हें एक दिव्य बाजूबन्द दिया। तद्पश्चात् महारानी सीताजी का स्मरण होने पर उन्होंने उन्हें एक अमूल्य दिव्य हार प्रदान किया। उसी समय सीताजी ने मन ही मन विचारकर वह हार हनुमान जी को देने का निश्चय किया किन्तु-
सीताले हनुमानलाइ दिन सूर् बाँघेर हात्मा लिइन।
कस्तो हुन्छ हुकूम् भनीकन नजर् ख्वामित् तरफ्खु प्दिइन्।।
जस्लाई दिन मन् छ देउ भनियो हुकूम् भएथ्यो जसै।
प्यारा श्रीहनुमान् थिया तहिं दिइन् त्योहार सिताले तसै।।
नेपाली कवि संत भानुभक्त रामायण लंकाकाण्ड, ३६६
श्रीराम की प्रतीक्षा में उन्होंने उनकी तरफ देखा। श्रीराम ने उन्हें स्वतंत्रता प्रदान की और कहा आप जिसे हार देना चाहो उसे दे दो। स्वामी का आदेश पाते ही सीताजी ने प्रिय हनुमान को वहीं पर उपस्थित देखकर तथा बुलाकर वह हार उनके हाथों में दे दिया। इसके पश्चात् श्रीराम ने हनुमान जी को वरदान मांगने की आज्ञा दी। श्रीराम ने कहा कि मैं वरदान देता हूँ तुम जो माँगोगे वही तुम्हें मिलेगा। प्रभु श्रीराम की इस आज्ञा को पाकर हनुमान जी प्रसन्न होकर अग्रसर हुए और कुछ माँगने की इच्छा से हाथ जोड़कर श्रीराम के समक्ष खड़े हो गए तथा उन्होंने क्या कहा?
ख्वामित्! नाम हजूरको जब तलक् लीनन् जगत्मा बड़ा।
ताहींसम्म शरीर् रहोस् हुजुरको नाम् सुन्नलाई खड़ा।।
ख्वामित! नाम हजूरको स्मरणमा आनन्द जो पाउँछु।
त्यो आनंद कतै मिलेन महाराज् तेही न छूटोस् कछु।।
नेपाली संत कवि भानुभक्त रामायण युद्धकाण्ड ३६८
हनुमान जी ने श्रीराम से जो कुछ कहा ऐसा शायद ही इस संसार में किसी ने कहा हो अथवा वर माँगा हो। हनुमान जी ने कहा- हे स्वामी! जब तक इस संसार में आपके नाम का जाप होता रहे तब तक श्रीमान का नाम सुनने हेतु यह शरीर रहे। आपके नाम लेने मात्र से, स्मरण से ही जो आनंद प्राप्त होगा वह और कहीं भी नहीं। अत: यही आनंद सुनने से न छूटने पाएं। हनुमान जी की भक्तिपूर्ण विनती सुनकर श्रीराम ने तथास्तु कहकर पुन: आज्ञा करने की कृपा की, यह शरीर समाप्त होने के पश्चात् तुम मुक्ति को प्राप्त हो जाआगे। श्रीराम की ऐसी आज्ञा सुनकर जानकीजी ने भी हनुमान जी को यह वरदान दिया कि समस्त सुख भोग तुम्हारे वशीभूत होकर रहेंगे अर्थात् सांसारिक सुख की इच्छा अपने वश में करके उन्हें श्रीराम की भक्ति के मार्ग से हटा नहीं सकती। सीता माता से ऐसा आशीर्वाद पाकर हनुमान जी हर्ष से गद्गद् हो गए। श्रीराम एवं सीताजी के ऐसे आशीर्वाद एवं वरदान से भरे हुए हनुमान जी वहाँ से विदा हुए। आनंद के अश्रुपात करते हुए हनुमान जी तपस्या करने के लिए हिमालय पर्वत की ओर चले गए।
श्रीराम के राज्याभिषेक पश्चात् प्रिय मित्र गुह को विदाई के समय उपदेश
फेर् ठाकुर गुहका अगािड गइयो हूकूम् कृपाले गन्या।
जाऊ लौ घरमैं बसीरहु फकत् मन् मात्र मैमा धन्या।
यो प्रारब्ध ठुलो छ भोग नगरी टर्दैन कस्तै गरी।
हून्यैछौ तिति मुक्त देह पछि ता संसार् सहज्मा तरी।।
हूकम् यो गरि मुख्य भक्त गुहका सामने अगाड़ी सरी।
आलिंगन् गरि भूषणादि दिनुभो राज्यै समेत् थप् गरी।।
नेपाली संत कवि भानुभक्त रामायण लंकाकाण्ड ३७०-३७१
हनुमान जी को विदा करने के बाद प्रभु श्रीराम ने पुन: गुह के सम्मुख जाकर उन्हें यह आज्ञा दी कि घर में बैठकर केवल मन से ही मेरा स्मरण ध्यान करते रहो, वही प्रेम सच्चा होता है। ये प्रारब्ध महान है। जितना कुछ भोगना भाग्य में आ चुका है उसे शान्तिपूर्वक भोगना ही उचित है, वह कदापि टल नहीं सकता है। हृदय से मेरा ध्यान स्मरण करने मात्र से ही इस संसार से मुक्ति प्राप्त करने के पश्चात् तुम संसार सागर से पार हो जाओगे। ऐसी आज्ञा देने के बाद अनन्य भक्त गुह के सम्मुख जाकर आगे बढ़े और उन्हें अपनी बाहों में भरकर आभूषणों का दान दिया। उसी समय श्रीराम ने उन्हें तत्वज्ञान से भी परिचित कराया। अत: सम्पूर्ण आनंद में डूबकर गुह उनके चरणों में मन को अर्पण कर अपने नगर को चले गए।
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प्रेषक
डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
'मानसश्री', मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर
सीनि. एमआईजी-१०३, व्यास नगर,
ऋषिनगर विस्तार, उज्जैन (म.प्र.)
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