बैगा जनजाति के लोग अपना इलाज स्वतः करते हैं - डॉ.विजय चौरसिया म.प्र. और छत्तीसगढ़ में निवास करने वाले बैगा जनजाति के आदिवासी अपनी भाषा, र...
बैगा जनजाति के लोग अपना इलाज स्वतः करते हैं-
डॉ.विजय चौरसिया
म.प्र. और छत्तीसगढ़ में निवास करने वाले बैगा जनजाति के आदिवासी अपनी भाषा, रीति रिवाज, धार्मिक विश्वास विचार एवं परंपराओं से बंधी है। मनोरंजन के लिये इनके अपने संगीत, लोक नृत्य,लोक नाट्य, लोक गीत प्रहसन पौराणिक एवं दंत कथायें है। अपनी जीवनोपयोगी के लिये ये वनवासी अधिकतर वन्य प्राणी एवं वनस्पति पर निर्भर रहते हैं। चाहे उनका भोजन हो, तन ढ़ंकने के वस्त्र, घर बनाने की सामग्री हो अथवा खेती करने के औजार। यहां तक की रोगों को दूर करने के लिये इनकी अपनी ही चिकित्सा प्रणाली होती है। जिनमें मुख्यतः तंत्र - मंत्र, जड़ी - बूटी से लेकर जांगम द्रव तक का उपयोग करते हैं। जिसके कारण ये लोग असाध्य से असाध्य रोगों का भी उपचार कर लेते हैं। जंगलों से प्राप्त इन जड़ी - बूटियों की इन वनवासियों को अच्छी पहचान रहती है।
पुराने समय में इन जड़ी - बूटियों का प्रचार इन वनवासियों तक ही सीमित था। इसके पश्चात आयुर्वेद ने इसका व्यावसायिक रुप ले लिया। बैगा जनजाति के लोग सदियों से वैघ का कार्य करते आ रहे हैं। ये लोग असाध्य से असाध्य रोगों का उपचार अपने वन परिसर में पायी जाने वाली जड़ी बूटियों से करते आ रहे हैं। इस जनजाति के लोग अपने आप को सुषेन वैघ के कुटुंब का बताते हैं। जब लक्ष्मण जी को शक्ति लगी थी तब सुषेन वैघ ने संजीवनी देकर उनको जीवन दान दिया था।
बैगा जनजाति के लोग अभी भी इन जड़ी बूटियों और तंत्र - मंत्र से अपना उपचार करते हैं। आधुनिक चिकित्सा पद्धति पर उन्हें जरा भी विश्वास नहीं है। वे अपने रोगों के उपचार के लिये आज भी डॉक्टर या किसी बाहरी व्यक्ति की सहायता नहीं लेते। वे स्वयं ही जड़ी बूटियों की सहायता से अपनी शारीरिक बीमारी का इलाज कर लेते हैं। यह कटु सत्य भी है कि आधुनिक चिकित्सा पद्धति ( एलौपैथी ) किसी भी बीमारी को अविलंब ठीक तो कर देती है, परंतु वह बीमारी जड़ से ठीक नहीं होती है। आधुनिक चिकित्सा पद्धति से इलाज करने वाले चिकित्सकों को आज भी अनेकों बीमारियों में आयुर्वेद का सहारा लेना पड़ता है।
यहां के बैगा आदिवासी मुख्यतः निम्न जड़ी - बूटियों का उपयोग करते हैं। जो इनके जंगलों में बहुतायत से प्राप्त हो जाती हैं। जिनमें मुख्यतः हर्रा या हरड़ (Terminalia chebulaa), बहेड़ा (teminalia), आंवला, (Phyilanthus emblica ) वन अदरक, बांस की पिहरी, कियो कंद (Costus speciosus) , तेलिया कंद, वन प्याज, वंश लोचन, सरई की पीहरी,कलिहारी (GLORIOSA SUPERBA) काली हल्दी, ( कुरकूमा सीजिया ) वन सिंघाड़ा, ब्रम्ह रकास, तीखुर, बैचांदी, बिदारी कंद, वन सूरन,कसौंधी (Cassiatora), कुलंजन ( माई बेला की जड़, अंड़ी की जड़, चिटकी की जड़,किमाच (Mucuna pruririta) बेर की जड़, वन अंड़ी, मैनहर, भकरैंड़ा, बच (Acorus calamus), भैंस बच, पारस पीपर, लजनी, छोटी दूधिया, नागरमोथा (saiapras rotandas), जरीया, रुहीना,अकरकरा (Spilanth qcumella) पथरचटा, हड़ जुड़ी, महुआ (Madhuca indica) , काली धान, खांड़ा धार, चिरायता (Andrograp his) ,चिरचिरा (अपामार्ग) (Achyranthes aspera), सफेद मूसली (Cholorophytum arundimaceum), काली मूसली, छोटी करेटी, मुलहटी (Gilisiraeza glebra), मरोड़फलली (Helicteres isora) , लडैया का पत्ता, गुड़मार, चैंच भाजी, चकौंड़ा भाजी, पकरी भाजी, हड़सिंघड़ी, ब्राम्ही (Bacopa monnieri), जोगी लटी, बनछुरिया की बेल, अमर बेल (Cuscuta reflexa) भूतन बेल, बेल (Aegle marmeios), सरई छाल, कूढ़ा छाल, साहू छाल, मैदा छाल (Litsea glutinosa), अर्जुन छाल (Terminalia), विघानाशी, सत्यानाशी, सिरमिली, सर्पगंधा (Rauvolfia serpenfina), सेमल (Bombat ceibं) अकवन (caltropis procera), हत्था जोड़ी, ठल ठली, कुब्बी, हिरन चरी, गंवार पाठा, पाताल कुम्हड़ा, जटा शंकरी, अश्वगंधा (Sommifera Withania), वन तुलसी, भोज राज, तेंदू, धननियां, सनाय (Cassia angustifolia) बड़ी सतावर (Asparagus racemosus), नागदाना, करई, हुलहुलिया, छिंदी, बबूल (Acacia arabica) धनवंतरी, भिलवां (Semicarpus anacardium) ,गूलर (Ficis giomeratं) लक्ष्मण कंद, पोटीया कंद, केसरी कंद,करंज (Pongamia pinnata) हुरुम कंद, भैंसा ताड़, किटी मार कंद, बांदी सांड़, बड़ी ऐंठी, छोटी ऐंठी, गिलोय (Timospora cordifo) बहला ककोरा, आमी हल्दी, जामुन, पुनर्नवा, लाजवंती, गोखरु (Xanthium strumarium) अडूसा (Adhatodं), गुड़मार (Gymmena sylvestre) कुरकुट के पत्ते,सांप लोढ़ा आदि जड़ी - बूटियों का उपयोग जीवन भर चलता रहता है ।
परम्परागत चिकित्सा पद्धति के अन्तर्गत जनजातीय क्षेत्र में बैगा व गुनिया रोगियों का जड़ी बूटियों एवं तंत्र मंत्र से उपचार करता है। प्रायः प्रत्येक बीमारी के लिये अलग - अलग जड़ी होती हैं। बैगा ग्रामों के अधिकांश बैगाओं को इन जड़ी बूटियों का ज्ञान होता है।
इन जड़ी - बूटियों से तैयार की गई औषधियों के सेवन करने से बीमारियों में स्थाई सुधार होता है। ये औषधियां बीमारियों को जड़ से खतम कर देती हैं। इन जड़ी - बूटियों के सेवन से किसी भी प्रकार के दुस्प्रभाव नहीं होता है। ये अपने अनुभवों से अनेकों बीमारियों का इलाज कर लेते हैं। इनको अपनी चिकित्सा पद्धति पर अटूट विश्वास रहता है। असाध्य रोगों की चिकित्सा जड़ी - बूटियों के अलावा गुनियों के द्वारा ही की जाती है। गुनिया अपना पूरा ज्ञान अपने शिष्यों को नहीं देते। जिससे असाध्य बीमारियों की चिकित्सा पद्धति लुप्त होती जा रही है।
इन्हीं जड़ी बूटियों के सहारे बैगा युवक - युवती अपने शरीर की सुन्दरता के लिये गुदना गुदवाते है। बैगा युवतियां गुदना गुदवाने के लिये बीजा वृक्ष के रस या रमतिला के काजल में दस बारह सुईयों के समूह को डुबाकर शरीर की चमड़ी में चुभोकर गुदवाती हैं। खून बहने पर रमतिला का तेल लगाते हैं।इनकी ऐसी धारण है कि गुदना गुदवाने से गठिया वात या चर्म रोग नहीं होते।
इसी प्रकार अन्य शारिरिक बीमारियों में जैसे घाव होने पर सागौन या खांड़ा धार के पत्ते या सरई के पेड़ की छाल को पीसकर घाव में लेप करने से घाव ठीक हो जाता है। शरीर में सूजन आने पर बड़ी दूधी, रोहीना की छाल, जंगली सूरन या धतूरा के पत्ता के रस को सूजन वाले स्थान पर लेपन करने से सूजन ठीक हो जाती है। अरण्डी के पत्ता में तेल लगाकर उसे आग में आंच दिखाकर मोच या चोट वाले स्थान पर सेंक किया जाता है। केले के पत्ते को जलाकर नारियल के तेल के साथ मथकर जले या झुलसे अंगों पर लगाने से लाभ होता है। ताजे घाव पर भिलवा के फल को पीसकर गुड़ के साथ मिलाकर बांधने से घाव शीघ्र भर जाता है। खुमही के पेड़ की छाल की भस्म तैयार करके कटे हुये स्थान पर लगाने से घाव शीघ्र भर जाता है।दारु हल्दी का लेप लगाने से भी घाव शीघ्र ठीक हो जाता है।
हड्डी टूटने पर हड़जुड़ी की पत्तियों का पेस्ट बनाकर उस स्थान पर बांधने और खाने से हड्डी कुछ ही दिन में जुड़ जाती है। शरीर में कहीं चोट लगने पर ये लोग तुरंत कुरकुट के पत्तों को पीसकर उसका लेप कर देते हैं। जिससे उस स्थान का घाव भर जाता है और उसमें टांके लगाने की जरुरत भी नहीं पड़ती। हड्डी टूटने पर हरसिंगरी की बेल को पीसकर आठ दिनों तक टूटे स्थान पर लेप कर बांधने से हड्डी जुड़ जाती है। खुमरी के छिलकों को जलाकर उसकी राख का लेप करने तथा उस स्थान पर बांस की खपच्ची बांधने से सात दिनों में हड्डी जुड़ जाती है। नहरुआ या नारु रोग के लिये बबूल की छाल का काढ़ा बनाकर उसे पिलाने से नारु के कीड़े मर जाते हैं।
इसी प्रकार मोच लग जाने पर जटाशंकरी की जड़ को पीसकर मोच वाले स्थान पर लेप करने से मोच का दर्द ठीक हो जाता है। इन लोगों में ऐसी मान्यता है कि जटाशंकरी को मंत्र द्वारा जागृत कर घर में रखने से बुरी आत्मायें घर में प्रवेश नहीं करती। इसे खुजली गठियावात,डायबिटिज, उल्टी - दस्त,शक्ति बढ़ाने ,मासिक धर्म का ठीक से होना,चक्कर आने में भी मात्रानुसार दिया जाता है। जहरवात जिसे यहां के लोग झिंझरी वाऊ कहते हैं । इस बीमारी में किसी स्थान पर घाव हो जाने पर वह घाव अनेकों स्थान पर पक - पक कर मवाद बनाकर फूटता है। इसके उपचार के लिये ये लोग कुरकुट के पत्ते व वन प्याज को पीसकर तीन माह तक उक्त घाव में लगाते हैं। जिससे वह घाव ठीक हो जाता है। कहीं पर अचानक चोट लग जाने पर उस स्थान पर गुड़ाखू लगा देने से घाव में आराम मिलता है।
इसी प्रकार चर्म रोग जैसे दाद,खाज , खुजली जैसे रोगों के लिये कुसुम पेड़ के फल के बीज निकालकर उसका तेल शरीर में मलने से किसी भी प्रकार का चर्म रोग हो वह ठीक हो जाता है। दूधिया के पत्ते को पीसकर गुड़ में मिलाकर उसकी गोली बनाकर दिन में दो बार सेवन करने से खुजली ठीक हो जाती है। करिया बुचई की जड़, जिसे जंगली अरबी भी कहा जाता है तथा रमतिला की जड़ तथा ममीरा की जड़ इन तीनों जड़ों के छोटे - छोटे टुकड़े कर गुड़ के साथ रोगी को 21 दिन तक देने से दाद,खाज,खुजली ठीक हो जाती है। खुजली होने पर पत्ताली (छोटे टमाटर) के पत्तों को पीसकर लगाने तथा पिसे पत्तों को गुड़ के साथ खाने से खुजली ठीक हो जाती है। हुक्का या चोंगी में तम्बाखू को जलाकर उसकी भस्म को सरसों के तेल में मिलाकर दो - तीन बार लगाने से खुजली ठीक हो जाती है। इसी प्रकार विमची को पीसकर चर्म रोग या सफेद दाग पर लगाने से आराम मिलता है।
मलेरिया बुखार में हुलहुलिया, छिंदी की जड़,बड़ी गटारन,गुरबेल और तुलसी का काढ़ा बनाकर पीते हैं या वन तिली के एक चम्मच दाने पानी के साथ एक बार देने से मलेरिया बुखार उतर जाती है। पाड़िन की जड़ को पीसकर दिन में तीन बार देने से मलेरिया बुखार उतर जाती है। इसी प्रकार पीपल की दातून करके उसकी पहली पीक थूंक दें बाकी गुटक लें, तो कैसा भी मलेरिया हो ठीक हो जाता है।लड़ैया के पत्ते को प्रत्येक बुधवार या रविवार को सुंघाने से भी मलेरिया बुखार ठीक हो जाता है।पत्थर धनिया के उपयोग से भी बुखार उतर जाता है। तुलसी के काढ़ा का सेवन करने से सर्दी जुकाम ठीक हो जाता है। छोटे बच्चों को निमोनिया हो जाने पर उसे काली हल्दी को चंदन के समान घिसकर चटाने से निमोनिया ठीक हो जाता है।
दांत दर्द के लिये चितावर की डेढ़ पत्ती को दांत में दबाने से दांतों में लगे कीड़े मर जाते हैं। इसी प्रकार आक या अकवन के दूध की दो - तीन बूंद दांत में लगाने से दांत का दर्द ठीक हो जाता है।। भकरेंड़ा की दातून तीन दिन तक करने से दांत के कीड़े मर जाते हैं और दांत दर्द ठीक हो जाता है। छिवला (पलाश) की जड़ से दातून करने और छाल का मंजन करने से पायरिया मुंह की बदबू ठीक हो जाती है।दांतों के हिलने पर मरीज को बिना बतलाये मुर्गी की ताजी बीट को काड़ी में लगाकर दर्द वाले स्थान पर लगाने से थोड़ी देर में दांत गिर जाते हैं।
इनके पैरों के तलवों में गांठ पड जाती है। क्योंकि आदिवासीयों को जंगलों में चलने से पैरों के तलवों में कई गठानें पड़ जाती है, जो बाद में सख्त होकर दर्द करने लगती है। इन गांठों को निकालने के लिये भिलवां के बीज का तेल उस स्थान पर दो - तीन दिन तक लगाने से कील की गठान ठीक हो जाती है। इसे ये लोग कील मारना कहते हैं।
सिर या दाढ़ी के बाल अचानक झड़ने पर शराब बनाने वाले मटके की कालिख को एकत्र कर उस स्थान पर लगाने से दूसरे ही दिन बाल आने लगते है।
पाइल्स या बवासीर हो जाने पर उसके इलाज के लिये इनके पास अनेकों शर्तियां जड़ी - बूटियां है जैसे - हुरुम कंद, तिली, वन तुलसी, हुरहुर, पीपर, विलाई कंद, जयमंगल, सूरन कंद, करईया का पौधा आदि। बिलाई कंद को पानी में उबालकर उसके पानी को दिन में दो बार तीन दिन तक पिलाने से बावासीर ठीक हो जाती है। इसी प्रकार सूरन कंद को उबालकर उसका छिलका हटाकर उसकी सब्जी खाने से भी बवासीर ठीक हो जाती है। करईया के पौधे की छाल को पीसकर गुड़ के साथ मिलाकर दिन में दो बार इक्कीस दिन तक देने से बवासीर जड़ से ठीक हो जाती है। कठमहला की जड़ का काढ़ा बनाकर पीने से तीन दिनों में बावासीर ठीक हो जाती है।
मिर्गी या चक्कर आने पर ये लोग साल वृक्ष की गोंद से होम - धूप देते हैं और बूढ़ा देव का नाम लेकर मंत्र पढ़कर दिन में तीन बार झाड़ने से मिर्गी रोग ठीक हो जाता है। चक्कर आने पर लड़ैया का पत्ता सुंघाने से रोगी ठीक हो जाता है। मिर्गी के रोगी को करौंदा की दो पत्ती - बेर की आधी पत्ती चक्कर आने पर काली मिर्च के साथ तीन दिन तक देने से रोगी को लाभ मिलता है। दूधिया की बेल और किवांच की जड़ को पीसकर रोगी को सुबह शाम सात दिनों तक देने से चक्कर आना बंद हो जाता है।बड़ के वृक्ष की जड़ का अर्क सेवन करने से मिर्गी के रोगी को आराम मिलता है। गोरखमुंड़़ी के सेवन से भी मिर्गी के रोगी को आराम मिलता है।
मूत्र विकार में जरीया पौधे की ढ़ाई पत्ती को चबाकर उसके रस को निगलने से तथा उसकी पत्तीयों को चबाकर उसे गुदी में लगाने से पेशाब की जलन ठीक हो जाती है।जोगी लटी, लक्ष्मण कंद, दूधिया की जड़, काली मूसली, सफेद मूसली आदि का उपयोग शक्ति वर्धक के लिये करते हैं।
उदर रोगों में पथरचटा के फूल को शहद के साथ चटाते हैं। इसी प्रकार उदर रोगों में हर्रा, बहेरा, आंवला, हिंगुआ फल और बड़ी गटारन को पाउड़र बनाकर दिया जाता है, पेट फूलने पर या पेट में गैस भर जाने पर चिटकी की जड़ और पत्ते पीसकर उसे महुआ के पत्ते में रखकर पेट में बांधने से पेट फूलना बंद हो जाता है। भसम पत्ती को पीसकर उसके रस को दिन में तीन बार देने से पेट फूलना बंद हो जाता है या राई के तेल को हथेली पर रखकर कंड़े की आग में हाथ सेंककर पेट में मालिश करने से पेट फूलना बंद हो जाता है। सतावर के सेवन करने से उदर शूल ठीक हो जाता है। पेट दर्द में बड़े दूधिया के पेड़ की छाल निकालने पर उससे जो दूध निकलता है। उसे दिन में तीन बार देने से पेट का दर्द ठीक हो जाता है। पाड़िन की जड़ या बंजारी की जड़ को पीसकर खिलाने से भी पेट दर्द ठीक हो जाता है
जुलाब लाने के लिये वन अंड़ी की जड़ को अंगुली से नापकर अधिकतम दो या तीन अंगुल चूसने से दो या चार जुलाब हो जाते हैं। मोरपंखी (यह एक छोटा फर्न है जो पथरीले क्षेत्र में पैदा होता है) के रस को पिलाने से पेट के कीड़े (पटार) मर जाते हैं और रोगी को आराम मिल जाता है।
गले में दर्द होने पर शहद का सेवन करने और गले में शहद लागाने से गले का दर्द ठीक हो जाता है।कान में दर्द होने पर बंगाली तम्बाखू (एक प्रकार की तम्बाखू जिसके पत्ते छोटे - छोटे होते हैं ) की पत्तियों को कुचलकर उसके रस को छानकर दो - दो बूंद रस दिन में दो बार, दो - तीन दिन तक ड़ालने से कान का पकना और दर्द करना ठीक हो जाता है।
आधाशीशी या अधकपारी के दर्द में मुंड़ी झाड़ व चिरायता के पत्तों को पीसकर इसके रस से सिर की मालिश करने से सिर का दर्द ठीक हो जाता है।
आंखों का आ जाना या आंखों में लालिमा बने रहने पर नमक की ड़ली को आंख पर लगाकर मंत्र पढ़कर उस नमक की ड़ली को पानी के मटके के नीचे रख देते है जैसे ही नमक घुलना शुरु हो जाता है।आंखों की लालिमा और दर्द में राहत मिलने लगता है। गुलबकावली के अर्क को आंखों में ड़ालने से आंखों के समस्त रोग ठीक हो जाते हैं। यह ज्योतिवर्धक एवं मोतिया बिन्द नाशक भी है। आंख आने पर जरीया की पत्ती को चबाकर आंख में फूंकने से आंख का दर्द ठीक हो जाता है।
बच्चों को सूखा रोग होने पर असाड़िया सांप के रीढ़ की हड्डी को गले में बांधने से सूखा रोग ठीक हो जाता है। इसी प्रकार सूखा रोग में जिसे यहां के लोग बराती बीमारी कहते हैं। उसका उपचार ये लोग एक टोटका द्वारा भी करते हैं,इसमें सर्प की कैंचुली की माला बनाकर बच्चे के गले में पहना देते हैं तथा सुअर को खाना देने की जगह के कीचड़ में बच्चे को नहलाने से उक्त बच्चे उस बीमारी से मुक्त हो जाते हैं। इस प्रकार उस बच्चे को तीन दिनों तक वहां पर नहलाते हैं।
बच्चों को पोलियो हो जाने पर बड़ी ओखद की जड़ और राई की जड़ दोनों को कूटकर पानी में उबाल लेते हैं। इसी गर्म पानी से एक सप्ताह तक पोलियो वाले अंग पर सिकाई करने से रोगी को राहत मिलती है।
उल्टी - दस्त या हैजा होने पर जामुन की छाल को कूटकर उसके रस को निकाल कर पिलाने से उल्टी - दस्त ठीक हो जाता है।साल वृक्ष की छाल या दूधिया के छिलकेां का रस पिलाने से दस्त बंद हो जाते हैं। जासौन के फूल को दिन में तीन बार खिलाने से खूनी पेचिश में आराम मिलता है। कटीली के ड़ंठल की सब्जी बनाकर खिलाने से आंव - दस्त ठीक हो जाते हैं। छोटे बच्चों को दस्त लगने पर मुर्गी के अंड़े को फोड़कर उसे जमीन में एक पत्ते में रखकर उसके ऊपर बच्चे को बैठाल देते हैं। जिससे बच्चे की गुदा में संकुचन होता है और उस अंड़े का द्रव गुदा द्वार से उस बच्चे के पेट में पहुंच जाता है। जिससे उस बच्चे के दस्त बंद हो जाते हैं।
बच्चों तथा बड़ों को पीलिया रोग हो जाने पर बैगा जनजाति के लोग निम्न प्रकार से उपचार करते हैं। यहां के जंगलों में पाताल कुम्हड़ा पाया जाता है। जिसकी बेल तथा बड़े - बड़े पत्ते होते हैं। पुरानी बेल में बड़े - बड़े कंद पाये जाते हैं। इसके कंद के छोटे - छोटे टुकड़े करके उसका रस निकाल लेते हैं। इसके रस को एक कप मात्रा में तीन दिनों तक सुबह - दोपहर - शाम देते हैं। इसी प्रकार यहां के बंदी छोर के जंगलों में पीली जड़ी मिलती है जो की ठंड़े स्थानों में पाई जाती है। यह जड़ी सितंबर - अक्टूबर के माह में मिलती है,इसकी जड़ को कुचलकर इसके रस को निकालकर तीन दिनों तक सुबह - दोपहर - शाम को देते हैं। जिससे मरीज ठीक हो जाता है। इसी प्रकार जोगी लटी जिसे पीलिया कंद या पीली जड़ी भी कहते है। यह एक कांटेदार झाड़ होता है। इसे बैगा लोग हरियाली अमावश्या के दिन घर में लगाते हैं। इसकी जड़ को पीसकर खिलाने या इसके रस को दिन में दो तीन बार तीन दिनों तक देने से पीलिया रोग ठीक हो जाता है। इसी प्रकार पीलिया के रोगी को ममीरा की जड़ एवं चिरमिर बेल की जड़ जो की लाल रंग की होती है। इन दोनों जड़ों को पीसकर उसका घोल बनाकर सात दिन तक सुबह - शाम देने से पेशाब और पाखाना के रास्ते से पीलिया का असर समाप्त हो जाता है। बहेड़ा और जामुन की छाल को कुचलकर पानी में ड़ालकर रखते हैं। फिर पीलिया के रोगी के हाथ ,पैर तथा सिर को धोते है तथा इसी घोल को पिला भी देते है। जिससे पीलिया ठीक हो जाता है। इसी प्रकार आम और जामुन की छाल को कुचलकर इसके रस को दिन में दो - तीन बार तक पिलाते हैं तथा हाथ पैर तथा चेहरे में चूना लगाकर इस घोल से धोते हैं। जिससे पीलिया शरीर से उतर जाता है। शरीर को धोने से उस पानी का पीला थक्का जम जाता है। कभी - कभी इस घोल से रोगी को नहला भी देते हैं। वनछुरिया की बेल की जड़ को पीसकर सुबह - शाम पिलाने से पीलिया रोग ठीक हो जाता है। कुटकी के सेवन से भी पीलिया रोग ठीक हो जाता है। इसी प्रकार कहीरा के फल से बीज निकालकर उसे घी में तलकर देने से भी पीलिया ठीक हो जाता है।
खांसी आने पर लहसुन की दो - तीन कली को लाल मिर्च के साथ पीसकर उसकी गोली बनाकर कपड़े की ताबीज में रखकर बच्चों के गले में पहनाने से खांसी ठीक हो जाती है। गाय के दूध में नमक मिर्च छोंककर उस दूध को बच्चे को पिलाने से भी खांसी में राहत मिलती है बच की जड़ के छोटे - छोटे टुकड़े करके उसे धागे में बांधकर गला या हाथ में पहनने से भी खांसी ठीक हो जाती है।कुछ बैगा खांसी आने पर हल्दी को शुद्व घी के साथ तवा में गरम करके शहद के साथ खाने से खांसी ठीक हो जाती है। इसी प्रकार भिलवां के बीज को जलाकर उसकी राख को गुड़ के साथ गोली बनाकर दिन में तीन चार बार देने से खांसी ठीक हो जाती है। खांसी आने पर हल्दी,गुड़ , सौंठ को बराबर मात्रा में देने से भी खांसी में राहत मिलती है। नागरमोथा और कियोकंद खांसी रोग में लाभकारी होता है।
गठियावात या जोड़ों के दर्द में बजुर गांठ के कंद को पीसकर पानी के घोल में दिन में तीन - चार बार पांच दिनों तक पिलाने से राहत मिलती है। इसके कंद को उबालकर उससे सिंकाई करने से भी गठिया वात में राहत मिलती है। आलूकस कांदा के रस को लगाने तथा सिकाई करने से जोड़ों के दर्द में राहत मिलती है। वायविड़िग की जड़ को खौलते पानी में उबाल कर इसके गरम पानी को कपड़े द्वारा जोड़ों पर सेंकने से जोड़ों का दर्द समाप्त हो जाता है।कुम्भी के पौधे की पत्तीयों के रस को दिन में तीन बार ,तीन दिनों तक पिलाने से जोड़ों का दर्द समाप्त हो जाता है। कियो कंद के कांदा के सेवन से भी गठिया एवं वात रोग समाप्त हो जाता है। पेट या गाल ब्लैड़र में पथरी बन जाने या पेशाब में जलन होने पर सहजन पेड़ की जड़ को पीसकर उसके अर्क का सुबह शाम तीन दिनों तक सेवन करने से पथरी घुलकर निकल जाती है।
एलर्जिक अस्थमा एवं दमा, श्वांस रोगों में पारस पीपर के बीजों को एक बीज प्रतिदिन सुबह शाम पान के साथ एक माह तक खाने से श्वांस रोग ठीक हो जाता है। हर्रा के पत्ते में जो फल लगता है उसे पनहर्रा कहतें हैं। इसका पाउड़र बनाकर हर्रा, बहेड़ा, आंवला एवं अकवन के फूल में इस पाउड़र को सेंधा नमक के साथ सुबह - शाम तीस दिनों तक देने से श्वांस रोगों में स्थाई राहत मिलती है। चकौड़ा के बीजों का काढ़ा बनाकर सुबह उठते ही पीने से श्वांस रोग में राहत मिलती है। इसी प्रकार हथ्थाजोड़ी, इंद्रायण की जड़,आंवला,काली हल्दी एवं सत्यानाशी की जड़ इनमें से किसी एक के सेवन करने से भी श्वांस रोग हमेशा के लिये ठीक हो जाता है।
बैगा जनजाति के वैद्य विज्ञान को भी चुनौती देते हैं। मैंने देखा कि इस जनजाति के लोग शरीर की हड्डी टूटने ,बावासीर तथा दमा श्वांस, एलर्जिक अस्थमा का इलाज गारंटी से स्थाई तौर पर कर लेते हैं। दमा श्वांस एर्लजिक अस्थमा के लिये ये लोग सफेद अकवन की जड़, काली हल्दी,तुलसी के पत्ते और अजवाइन को अभिमंत्रित करके कूटकर उसका पाउड़र बनाकर गुड़ के साथ खाने को देते हैं, जिससे पुराने से पुराना दमा, श्वांस के रोगी को मात्र पंद्रह दिनों की खुराक में जीवन भर के लिये स्थाई आराम मिल जाता है। मैंने स्वतः हजारों दमा के रोगियों को इनसे दवा बनवाकर भेजी। जिससे मात्र बीस दिनों में उनकी बीमारी हमेशा के लिये ठीक हो गई है।
जड़ी बूटियों से प्रसव एवं परिवार नियोजन.......
शीघ्र प्रसव के लिये अंड़ी की जड़ की अंगूठी बनाकर अंगुली में पहनाते हैं। जिससे प्रसव शीघ्र हो जाता है।प्रसव के बाद प्रसूता को माई बेला की जड़ चबाने को देते हैं तथा उसे स्नान करने के लिये रुहीना पेड़ की छाल को पानी में उबालकर उससे स्नान कराते हैं। जोगी लटी की जड़ (शतावर) को गुड़ के साथ पीसकर खाने से प्रसूती की खून की कमी दूर होती है और दूध उतरने लगता है। दूधिया को खिलाने से दूध उतरने लगता है।
गर्भ धारण कराने के लिये पंचगुंदिया के पांच बीज पांच खुराक या पारस पीपर के ढ़ाई बीज या शिव लिंगी के पांच बीज तथा गांजा के पांच बीज दोनों को मिलाकर कुल दस बीजों को महिला को तीस दिन तक लगातार खिलाया जाता है, इन तीस दिनों के बीच प्रति सोमवार उपवास भी रखना होता है। ऐसी मान्यता है कि ऐसा करने से उस महिला के बच्चे पैदा होने लगते हैं। दस बीज की दवा लेने के साथ - साथ उसे अपने पति के साथ संसर्ग बनाये रखने की सलाह दी जाती है। इन बीजों को माहवारी होने के बाद शक्कर तथा दूध के साथ मिलाकर देने से गर्भ ठहर जाता है। गर्भवती महिला को काली मूसली को सुखाकर खिलाने के लिये देते हैं।
परिवार नियोजन के लिये बहला ककोरा के कांदा को गुड़ या शराब के साथ खिलाने से संतान की उत्त्पत्ति बंद हो जाती है, या निरवाज या निरवंशी ( यह एक छोटा सा झाड़ होता है ) की जड़ एवं पत्तियों को कूट छानकर पाउड़र बना लिया जाता है, जिसे गुड़ के साथ गोली बनाकर स्त्री - पुरुष दोनों को सात दिनों तक लगातार खिलाते हैं। जिससे बच्चे होना बंद हो जाता है। यह दवा पुरुष के बीज को मारती है। इस दवा से सेक्स जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
गर्भपात कराने के लिये महुआ की प्रथम आसवित शराब जिसे फूल कहते हैं। उसे एक गिलास पिलाने से गर्भपात हो जाता है।
मासिक धर्म नियमित न होने पर लाल अंड़ी के झाड़ की जड़ को खाली पेट सुबह - शाम तीन दिन तक लगातार खिलाने से मासिक धर्म नियमित आने लगता है। माई बेला की छाल को पीसकर पानी के साथ सेवन करने से मासिक धर्म नियमित रुप से हो जाता है। श्वेत प्रदर,ल्यूकोरिया जिसे सफेद पानी या धात जाना कहते हैं। उसके लिये कछुए के सिर को आग में सेंक कर चने के दाने बराबर थोड़ा सा गुड़ के साथ मिलाकर सुबह - शाम एक सप्ताह तक खिलाने से सफेद पानी जाना ठीक हो जाता है। बिदारी कंद की छाल को काटकर उसे सुखाकर उसके पाउड़र को एक चम्मच प्रतिदिन एक सप्ताह तक खिलाने से ल्यूकोरिया ठीक हो जाता है। काली मूसली की जड़ के सेवन करने से भी सफेद पानी जाना ठीक हो जाता है। अंड़ी की जड़ को पीसकर दिन में तीन बार देने से ल्यूकोरिया रोग ठीक हो जाता है
नपुंसकता आने पर सफेद मूसली को सुखाकर उसे कूट छानकर उसके पाउड़र को दिन में दो बार पंद्रह दिनों तक देने से नपुंसकता दूर होती है। नपुंसकता के उपचार के लिये ये लोग काली मूसली,सफेद मूसली, सतावर, तेजराज, भोगराज तथा बाल सेमर की जड़ को पीसकर गुड़ के साथ सेवन करने से नपुंसकता हमेशा के लिये ठीक हो जाती है। भिलवां के बीज को पीसकर शुद्व घी में पकाकर उसका सेवन करने से नपुंसकता दूर हो जाती है। केले के तने का रस सौ ग्राम देने से आदमी नपुंसक हो जाता है।
इसी प्रकार कुत्ता काटने पर राहर दाल के पौधे में पाये जाने वाला एक प्रकार का कीड़ा, मक्के का पुष्पांग तथा इंद्रावन की जड़ को पीसकर गुड़ या महुआ की शराब के साथ पिलाते है। जिसके कारण पेशाब से खून के कतरे गिरते है जिसे ये लोग पिल्ला गिरना कहते है।
सर्प दंश का उपचार भी जड़ी बूटियों से -
सर्प काटने पर इंद्रावन की जड़ को खिलाते है तथा करौंदा की जड़ को पानी में उबालकर पिलाने से या राहर की जड़ों को चबाने से सर्प का जहर उतर जाता है। इसी प्रकार भंवर माल .कजरा. छीरकना जड़ी. बोथिर. दूधनाग. इन सभी जड़़ियों को मिलाकर पानी के साथ देने से भी सर्प का जहर उतर जाता है। जिस स्थान पर सर्प ने काटा होता है। उस स्थान पर ब्लेड से खुरच कर उसके उसके ऊपर रस्सी से बांध देते हैं। जिस स्थान पर सर्प ने काटा है। उस स्थान पर मुरगी के चूजे की गुदा लगाते हैं। जिससे चूजा मर जाता है।यह क्रिया तब तक की जाति है। जब तक की जहर नहीं उतर जाता। सांप के जहर उतरते ही चूजों का मरना बंद हो जाता है। ये लोग सर्प के विष को उतारने के लिये जगार का आयोजन भी करके मंत्रों से सर्प का विष उतार लेते हैं।
संगीत और मंत्रों से सर्प विष चिकित्सा -
चिकित्सा विज्ञान के इतना प्रगति कर लेने और सर्र्प दंश के इलाज के लिये एंटी वेनम ड्रग्स र्ईजाद हो जाने के बावजूद डिंडौरी जिले के बैगा आदिवासी सांप के काट लेने पर संगीत एवं मंत्रौ के माध्यम से सर्पदंश का जहर उतारते हैं। यहां के बैगाओं का विश्वास है कि संगीत और मंत्रौं के जरिये सर्र्प दंश का जहर उतर जाता है। सर्प दंश के जहर उतारने की यह परंपरा पुरातन काल से प्रचलित है और पीढी दर पीढी यह विधा हस्तांतरित होती रहती है . प्रत्येक बैगा बाहुल्य ग्राम में इस विधा के सिद्ध पुरुष होते हैं। जिन्हें गुरु या गुनिया कहा जाता है। इसे सिद्व करने या सिखाने के लिये कोई नियमित या विशेष आयोजन नहीं होते बल्कि अपने दैनिक कार्यों के दौरान ही गुरुओं द्वारा आकांक्षी को यह विधा सिखा दी जाती है।
मध्य प्रदेश का डिंडौरी जिला मध्यप्रदेश का एक मात्र ऐसा जिला है। जहां सबसे ज्यादा सर्प पाये जाते हैं और सबसे ज्यादा सर्प दंश से मत्यू होती है।
किसी व्यक्ति को सांप के काटने का समाचार सुनते ही गुरु अपने शिष्यों के साथ सारे काम छोडकर घटना स्थल की ओर चल देता है। कई गुरु या गुनिया सर्प दंश का समाचार बताने वाले के गाल में सर्पदंश की खबर सुनते ही उसे एक चांटा मार देता है। इधर वह खबरची को चांटा मारता है। वहां सर्प दंश के मरीज को आराम मिलना चालू हो जाता है। चाहे मरीज सौ किलो मीटर दूर क्यों ना हो, अधिकतर मामलों में जिस घर या स्थान पर सांप काटता है। उसी जगह पर परम्परानुसार पटा बैठाला जाता है।पटा लगाने के बाद गुरु या गुनिया अपने देवी - देवताओं की आराधना करते हैं। फिर वे सबसे पहले काड़ी देखते हैं।वे लकड़ी की दो काड़ी लेते हैं और उसे अंगुल से नापते हैं। अंततः एक काड़ी बडी व एक काड़ी छोटी हो जाती है। यदि काड़ी बड़ी हो जाती है। तो शरीर में तेजी से जहर फैल रहा है। तब गुनिया रोगी को जड़ी पानी में धेालकर पिलाता है। जिससे सर्प विष का असर कम होने लगता है। वह भंवर माल .कजरा.छीरकना जड़ी. बोथिर. दूधनाग. इन सभी जड़़ियों को मिलाकर पानी के साथ दे देते है।इसके बाद गुनिया विष की हांकनी करता है।वह अपने देवी देवताओं का सुमरन करता है।हांकनी के बाद गुनिया बांधनी मंत्र पढ़ते हैं. मंत्र के द्वारा उस क्षेत्र को बांधते हैं।उसके बाद गुनिया सूपा को गोद में रखता है।उसमें कोदों के दाने डालकर उस पर हाथ फेरते हैं। जिससे स्वर लहरियां निकलती हैं। गुनिया का साथी लौकी के तूमे को हिलाता है। उससे भी संगीत निकलता है। कभी - कभी गुनिया नदी के मुहाने पर बैठता है। तो तूमा वाला गुनिया नदी के दूसरे पार बैठकर तूमा बजाता है।सूपा से तूमा को एक धागे से बांध देते हैं। जिससे दोंनों में संपर्क हो जाता है। फिर मंत्रौं का उच्चारण करते हुये सूपा पर धीरे - धीरे हाथ फेरते हैं। तो दूसरी पार बैठा गुनिया तूमा हिलाता है. सूपा अैर तूमा से जो स्वर निकलता है उन्हीं स्वर लहरिओं के बीच मंत्रौं का उच्चारण किया जाता है.जिसे जागर बैठाना कहते है।इन मंत्रौं और स्वर लहरिओं के जरिये एक अन्य व्यक्ति पर भावात्मक छाया के आरोहण के लिये सांपों की विभिन्न प्रजातियों का नाम लेकर उनका आवहान किया जाता है। जिस व्यक्ति को भाव आता है उसे बरुआ कहते है। इस दौरान पीड़ित व्यक्ति को एक दो व्यक्ति संभाले रखते है और इस बात का पूरा ध्यान रख जाता है। कि पीडित व्यक्ति सोने न पाये इस हेतू जोर जोर से ढ़ोल,नगाडे,मादर,टिमकी, गुदुम, आदी वाध बजाते हैं। इस प्रक्रिया के दौरान बरुआ पर जिस सर्प का भाव आता है। उससे उनके इष्ट देव का नाम पूछा जाता है। गुनिया इष्ट देव से मरीज की गलती या अपराध पूंछता है। इनमें ऐसी मान्यता है कि कोई गलती या अपराध होने पर ही सांप काटता है।गलती या अपराध जान लेने के बाद मंत्रौं के माध्यम से सिर से लेकर पांव तक विष चढ़ जाता है। बरुआ को विष चढ़ जाने के बाद ग्राम देवता का आवहान किया जाता है। जिससे बरुआ के माध्यम से जो बात नाग देवता से हो उसके ग्राम देवता साक्षी रहें।
नाग देवता का रुप धारण किये बरुआ का व्यवहार बिलकुल सांप जैसे ही हो जाता है। वह सर्प जैसे ही जमीन पर सरकने लगता है।कभी - कभी छप्पर आदी पर चढ़ जाता है। साध पूरी होने पर वह पटा के निकट आ जाता है। जब जहर बरुआ के सिर तक पहुंचता है। तो वह अचेत हो जाता है। उसकी बेहोशी दूर करने के लिये मंत्रौं का उच्चारण करते हैं। इसके बाद संगीत के साथ गीत गाये जाते हैं। गीत में प्रत्येक सर्प का नाम लिया जाता है।संबंधित सर्प का नाम आते ही बरुआ कुछ ऐसी हरकतें करता है.जिस से पता चल जाता है कि अमुक सर्प ने पीडीत व्यक्ति को डसा है। फिर कुल देवता और नाग देवता से मिन्नतें की जाती हैं। गलती और अपराध की क्षमा मांगी जाति है। इसके बाद बरुआ पीडित व्यक्ति के सर्प दंश वाले स्थान को मुंह या लकडी की पोली नली के जरिये विष चूस लेता है।
कई बैगा गुनिया मंत्र को पीडित व्यक्ति के कान में सुनाते हैं। इस मंत्र को तीन बार पढ़ना पडता है। मंत्र पढ़ते ही मरीज होश में आ जाता है। यदि तीन बार मंत्र पढ़ने पर होश नहीं आता तो मरीज के कान के पास मुंह ले जाकर मरीज को मंत्र सुनाना पडता है।मंत्र पढ़ने के बाद पुन; चुल्लू में पानी लेकर मरीज की आंख में मारते हैं।
मरीज का विष उतर जाने के बाद आमंत्रित किये गये देवी - देवताओं को बकायदा गीत गाकर बिदा कर दिया जाता है।उसके बाद बरुआ का विष भी गीत - संगीत के माध्यम से उतार दिया जाता है।सारे कार्यक्रम पूरे होने के बाद पीडित व्यक्ति वहां उपस्थित बुजुर्गो के चरण स्पर्श करता है।आयोजन समाप्त हो जाने के बाद नाग देवता के निर्धारित स्थान पर सभी लोग दूध चढाते हैं और नारीयल फोडते हैं।गुरु या गुनिया कभी भी इस कार्य का पैसा नहीं लेते हैं।
जानवरों का शिकार भी जड़ी - बूटियों से -
इनका तीर जहर से बुझा हुआ रहता है। जिसे बिसार कहते हैं।इनके तीर के खरोंच मात्र से बड़ा से बड़ा जनवर मर जाता है। जिस स्थान पर तीर लगता है। उस स्थान का मांस एक गोल घेरे में काला पड़ जाता है। जिसे ये लोग काटकर निकाल देते हैं।इसके बाद उस जानवर के मांस के टुकड़े करके दहमन वृक्ष के पत्तों का दौना बनाकर उसमें मांस के टुकड़ों को रखकर पेड़ में टांग देते हैं।जिससे उस विषैले मांस का पूरा जहर बूंद - बूंद करके नीचे गिर जाता है।उसके बाद उस मांस को भूनकर या उबालकर खाने के काम में लाते है।
इसी प्रकार पक्षीयों को मारने के तरीके आश्चर्यजनक हैं। पक्षी मारने के लिये ये लोग चौप का उपयोग करते हैं। इसे बनाने के लिये थुआ का दूध,बड़ का दूध, ऊमर का दूध आदि को रमतिला के तेल में मिलाकर खूब कूटते हैं। जिससे वह लसदार पेस्ट बन जाता है। उसे चार पांच फीट लंबे बांस से वाई के आकार का यंत्र बनाते हैंऔर उसकी फुनगी में वह पेस्ट लगा देते हैं।उस बांस को किसी ऊंचे पेड़ में बांध देते हैं। वह पेस्ट धूप में चमकता हैं जिससे पक्षी उसकी ओर आकर्षित होकर उसमें बैठते हैं और बैठते ही उसमें चिपक जाते हैं। जितना वह फड़फड़ाता है उतना ही चिपकते जाता है।फिर उस पक्षी को निकालकर आग में भूंजकर नमक मिर्च मिलाकर बड़े मजे से खाते हैं।
वन तथा वनौषधियों का संरक्षण जरुरी -
ड़िंड़ौरी जिला के विकासखंड़ समनापुर से 6 कि. मी. 8 + 4 = 32 वर्ग मील का विस्तृत घना वन। राजवा और चांदवा दो प्रतापी राजाओं ने बाहर से आयुर्वेदिक औषधियों को मंगवाकर उनका उपवन लगवाया था। इतने वषरें बाद भी अनेकों प्रकार की वनौषधियों का भंड़ार है।इस क्षेत्र में एक नाला बहता है। जिसका जल फीके लाल रंग का है।जल स्वस्थयप्रद है। यह उपवन आयुर्वेदिक वनस्पति विज्ञान के अध्यन के लिये अनुपम स्थान है। इस उपवन में जड़ी - बूटियों पर अनुसंधान करने वाले वैज्ञानिक अधिकांश आते रहते हैं। यहां पर आज भी विभिन्न प्रकार की जड़ी बूटियां प्रचुर मात्रा में पाई जाती हैं। इस क्षेत्र में र्निगुंड़ी,आमा हल्दी, काली हल्दी, श्यामा हल्दी,सतावर, काली मूसली,आंवला,हर्रा,बहेड़ा,बच,जंगली प्याज, कहवा, पुर्नरवा, नागदमन, विष्णूकांता, शंखपुष्पी, लटजीरा, वन तुलसी, कंबुक कंद, अग्नि शिखा, ब्राम्ही आदि महत्वपूर्ण जड़ी - बूटियां पाई जाती है। बैगा चक के लोग इस उपवन में भी जाकर वहां से जड़ी - बूटियां लाते हैं।
इन बैगा आदिवसियों का जीवन अभी भी इन्हीं वन औषधियों पर आश्रित है, जिसके कारण ये हष्ट - पुष्ट तथा लम्बी उमर तक जीवित रहते हैं। अंधाधुंध वनों की कटाई होने के कारण इन वनौषधियों की मुख्य प्रजातियां लुप्त होती जा रही हैं। वनौषधियां अधिकतर शाल वृक्ष के जंगलों में ही पाई जाती हैं। शाल वृक्ष के जंगलों के कटने से वहां की भूमि वनौषधियों के लायक नहीं रह जाती , इसलिये जहां - जहां के शाल वन कटे हैं । वहां की भूमि वनौषधि विहीन हो गयी है। शासन को वनों की अंधाधुंध कटाई पर रोक लगानी चाहिये। वनौषधियों के संरक्षण के लिये योजनायें बनानी चाहिये। जिसमें उस क्षेत्र के वनवासी ही भाग लें। इन वनौषधियों के संरक्षण, परिचय तथा उपयोगिताओं को बताने के लिये पूरे देश में वन मेलों का आयोजन किया जाना चाहिये। तभी इनका संरक्षण संभव हो सकता है
बैगाओं के चमत्कारी नुस्खे
जनजातिय चिकित्सा पद्वतियों को अविश्वास अथवा संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। परन्तु यह सच है कि आदिवासियों का वनौपधिय ज्ञान अनेक बार चमत्कृत करता है।
हड्डी टूटने पर हड़जुड़ी की पत्तियों का पेस्ट बनाकर उस स्थान पर बांधने और खाने से हड्डी कुछ ही दिन में जुड़ जाती है। शरीर में कहीं चोट लगने पर ये लोग तुरंत कुरकुट के पत्तों को पीसकर उसका लेप कर देते हैं। जिससे उस स्थान का घाव भर जाता है और उसमें टांके लगाने की जरुरत भी नहीं पड़ती।
मलेरिया बुखर आने पर पीपल की दातून करें। उसकी पहली पीक थूंक दें बाकी गुटक लें, तो कैसा भी मलेरिया बुखार हो ठीक हो जाता है।लड़ैया के पत्ते को प्रत्येक बुधवार या रविवार को सुंघाने से भी मलेरिया बुखार ठीक हो जाता है
दांत दर्द के लिये चितावर की डेढ़ पत्ती को दांत में दबाने से दांतों में लगे कीड़े मर जाते हैं। इसी प्रकार आक या अकवन के दूध की दो - तीन बूंद दांत में लगाने से दांत का दर्द ठीक हो जाता है। भकरेंड़ा की दातून तीन दिन तक करने से दांत के कीड़े मर जाते हैं और दांत दर्द ठीक हो जाता है। छिवला (पलाश) की जड़ से दातून करने और छाल का मंजन करने से पायरिया मुंह की बदबू ठीक हो जाती है।दांतों के हिलने पर मरीज को बिना बतलाये मुर्गी की ताजी बीट को काड़ी में लगाकर दर्द वाले स्थान पर लगाने से थोड़ी देर में दांत गिर जाते हैं।
सिर या दाढ़ी के बाल अचानक झड़ने पर शराब बनाने वाले मटके की कालिख को एकत्र कर उस स्थान पर लगाने से दूसरे ही दिन बाल आने लगते है।
मूत्र विकार में जरीया पौधे की ढ़ाई पत्ती को चबाकर उसके रस को निगलने से तथा उसकी पत्तीयों को चबाकर उसे गुदी में लगाने से पेशाब की जलन ठीक हो जाती है।
जुलाब लाने के लिये वन अंड़ी की जड़ को अंगुली से नापकर अधिकतम दो या तीन अंगुल चूसने से दो या चार जुलाब हो जाते हैं।
आंखों का आ जाना या आंखों में लालिमा बने रहने पर नमक की ड़ली को आंख पर लगाकर मंत्र पढ़कर उस नमक की ड़ली को पानी के मटके के नीचे रख देते है जैसे ही नमक घुलना शुरु हो जाता है।आंखों की लालिमा और दर्द में राहत मिलने लगता है। गुलबकावली के अर्क को आंखों में ड़ालने से आंखों के समस्त रोग ठीक हो जाते हैं। यह ज्योतिवर्धक एवं मोतिया बिन्द नाशक भी है। आंख आने पर जरीया की पत्ती को चबाकर आंख में फूंकने से आंख का दर्द ठीक हो जाता है।
बच्चों को सूखा रोग होने पर असाड़िया सांप के रीढ़ की हड्डी को गले में बांधने से सूखा रोग ठीक हो जाता है।इसी प्रकार सूखा रोग में जिसे यहां के लोग बराती बीमारी कहते हैं। उसका उपचार ये लोग एक टोटका द्वारा भी करते हैं। इसमें सर्प की कैंचुली की माला बनाकर बच्चे के गले में पहना देते है,तथा सुअर को खाना देने की जगह के कीचड़ में बच्चे को नहलाने से उक्त बच्चे उस बीमारी से मुक्त हो जाते हैं। इस प्रकार उस बच्चे को तीन दिनों तक वहां पर नहलाते हैं।
छोटे बच्चों को दस्त लगने पर मुर्गी के अंड़े को फोड़कर उसे जमीन में एक पत्ते में रखकर उसके ऊपर बच्चे को बैठाल देते हैं। जिससे बच्चे की गुदा में संकुचन होता है और उस अंड़े का द्रव गुदा द्वार से उस बच्चे के पेट में पहुंच जाता है।जिससे उस बच्चे के दस्त बंद हो जाते हैं।
सर्प काटने पर इंद्रावन की जड़ को खिलाते है तथा करौंदा की जड़ को पानी में उबालकर पिलाने से या राहर की जड़ों को चबाने से सर्प का जहर उतर जाता है। जिस स्थान पर सर्प ने काटा होता है। उस स्थान पर ब्लेड से खुरच कर उसके उसके ऊपर रस्सी से बांध देते है जिस स्थान पर सर्प ने काटा है उस स्थान पर मुरगी के चूजे की गुदा लगाते हैं। जिससे चूजा मर जाता है।य ह क्रिया तब तक की जाती है। जब तक की जहर नहीं उतर जाता। सांप के जहर उतरते ही चूजों का मरना बंद हो जाता है।
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बायोडाटा डॉ.विजय चौरसिया
सम्प्रति -ª चिकित्सा कार्य, पत्रकारिता, लोक संस्कृति पर लेखन, प्रदेश के लोक नृत्यों एवं लोक संस्कृति के संरक्षण हेतु प्रयासरत। म.प्र.तथा देश की विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं जैसे कादंबनी, धर्मयुग,हिन्दुस्तान टाइम्स, दिनमान,इंड़िया टूडे, दैनिक भास्कर, नवभारत,नई दुनिया में एक हजार से अधिक लेखों का प्रकाशन। ª मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में करीब 30 लोक नाट्य एवं लोक नर्तक दलों का नेतृत्व एवं देश - विदेशों तथा फिल्मों में लोक नृत्यों का प्रदर्शन। चीन,मलेशिया,इंडोनेशिया,सिंगापुर,मारिशस, म्यानमार, दक्षिण अफ्रिका हरारे एवं बंगला देशों की यात्रा।
उप्लब्धियां-ª म.प्र. की प्रसिद्ध समाजसेवी संस्था सावरकर शिक्षा परिषद में अध्यक्ष। सावरकर लोक कला परिषद में निर्देशक। दैनिक भास्कर पत्र समूह के क्षेत्रीय संवाददाता। इंटरनेशनल रोटरी क्लब डिंड़ौरी में सदस्य।राजीव गांधी शिक्षा मिशन ड़िड़ौरी में जिला इकाई के सदस्य। पंचायत समाज सेवा संचालनालय म.प्र. द्वारा डिंड़ौरी जिले के वरिष्ट नागरिक समूह के सदस्य। प्रदेश प्रतिनिधि रेड़ क्रास सोसायटी, म.प्र.,राष्ट्रीय भारत कृषक समाज के आजीवन सदस्य।.,दक्षिण मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र नागपुर भारत सरकार द्वारा लोक नृत्यों के लिये 2012.13 के लिये गुरु नियुक्त। चेयरमेन जूनियर रेड़ क्रास सोसायटी म.प्र.।
शोध पत्र -ª स्वराज संस्थान संचालनालय संस्कृति विभाग भोपाल द्वारा स्वाधीनता फैलोशिप 2006.07, प्प्रचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग म.प्र., उच्च शिक्षा विभाग म.प्र. भाासन, मेरठ बाटनी कालेज मेरठ,रानी दुर्गावती विश्वविघालय जबलपुर,जवाहर लाल नेहरु कृषि विश्वविघालय जबलपुर, स्वराज भवन भोपाल एवं गौंड़ी पब्लिक ट्रस्ट मंड़ला, भाासकीय चंद्र विजय महाविघालय डिंड़ौरी,रानी दुर्गावती महाविघालय मंड़ला,भारतीय संस्कृति निधि दिल्ली,,गुरु घासीराम विश्वविद्यालय रायपुर,इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविघालय अमरकंटक में आयोजित राष्ट्रीय सेमीनार 28 फरवरी 2012 को शोध पत्र का वाचन।
प्रकाशित कृतियां -ª एशिया महाद्वीप की सबसे पुरानी जनजाति बैगा के जनजीवन पर आधारित भारत वर्ष की प्रथम हिन्दी पुस्तक 'प्रकृति पुत्र बैगा' का म.प्र. हिन्दी ग्रंथ अकादमी भोपाल द्वारा प्रकाशन। म.प्र. की प्रसिद्ध जनजाति गौंड़ में प्रचलित बाना गीत पर आधारित 'आख्यान' (गोंड राजाओं की गाथा) पुस्तक का म.प्र. आदिवासी लोक कला अकादमी द्वारा प्रकाशन। म.प्र. की प्रसिद्ध जनजाति परधान द्वारा गायी जाने वाली गाथा रामायनी, पंडुवानी एवं गोंड़वाना की लोक कथाओं का वन्या प्रकाशन भोपाल द्वारा राजकमल प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित। जनजातीय लोक गीतों में राजनैतिक एवं सामाजिक चेतना शोध पत्र का प्रकाशन स्वराज भवन संस्कृति संचालनालय भोपाल द्वारा.।
अप्रकाशित कृतियां -ª बैगा जनजाति में प्रचलित चिकित्सा पद्धति,सर्प विष तंत्र - मंत्र चिकित्सा,म.प्र. के आदिवासी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी आदि।
संर्पक-डॉ.विजय चौरसिया
चौरसिया सदन गाड़ासरई जिला ड़िड़़ौरी म.प्र.
इतना लंबा और स्पष्ट उपयोगी लेख लिखने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद
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