नारी हूँ मैं ! (काव्य संग्रह) डॉ उपासना पाण्डेय दो शब्द प्रस्तुत संग्रह 'नारी हूँ मैं ' डॉ उपासना पाण्डेय द्वारा रचित समकाल...
नारी हूँ मैं !
(काव्य संग्रह)
डॉ उपासना पाण्डेय
दो शब्द
प्रस्तुत संग्रह 'नारी हूँ मैं ' डॉ उपासना पाण्डेय द्वारा रचित समकालील सृजन की सदुपयोगी कविताएं पढ़ते हुये ह्रदयंगम करती रचनाएं ईशावास्योपनिषद का याद कराने लगती हैं जिसमे 'लोक में कर्म करते हुए ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करें और मिथ्यापदार्थ विषयक आकांक्षा नहीं करें। रचनाकार ने नारी की ताकत को दर्शाते हुए राष्ट्र निर्माण ,संस्कार आदि अनेक माध्यम से उज्वल प्रकाश की तरफ लोगों का ध्यान आकृष्ट किया है यथा -
सुसंस्कार के उज्जवल प्रकाश से ,
राष्ट्र - निर्माण करती हूँ !
मैं सम्पूर्ण नारी हूँ
नारी की ताकत रखती हूँ।
इस रचना को पढ़कर किसी भी मन में नारी के प्रति रचना का प्रस्फुटन होना स्वाभाविक हो जाता है देखें एक रचना -
नारी हूं नारी की भलाई की कहती हूं
बहनों को अच्छे सन्देश देती रहती हूं
मौसम की भांति बदलती बहनें जो रहती
पैनी नजरें उन पर मैं भी रखती रहती हूँ
उन्हें उठाना भूल - भरा मैं भी कहती हूँ
मैं नारी हूँ नारी का दुःख सहती हूँ।
सत्य पर जो टिकती नहीं धोखा खुद को देती है
नहीं मानती मैं उसको हूँ नहीं दिखाती दुनिया को
भरा जीवन संघर्षों का है शौर्य दिखती रहती हूँ
नारी हूँ नारी की भलाई की कहती हूँ।
भाई-बहन और साथी को मैं भी सहती हूँ
सनहारशों मे सौहर संग वाम भाग-रहती हूँ
सास-ससुर को सदा मात-पिता ही कहती हूँ
नारी हूँ नारी की भलाई की कहती हूँ।
जीवन के कोलाहल में मैं धीर-वीर रहती हूँ
बच्चे, छाती चिपकाए मार मौसम की सहती हूँ
मैं एक नारी हूँ नारी की व्यथा कथा कहती हूँ
मैं एक नारी हूँ नारी की भलाई की कहती हूँ।
जो समाज में ढलती नहीं नजरों में गिर जाती
उन्हें उठाना भूल भरा यह मैं भी कहती हूँ
मैं एक नारी हूँ नारी की भलाई की कहती हूँ
मैं एक नारी हूँ दु:ख :नारी की कहती हूँ।
किसी भी रचना का प्रस्फुटन आत्मा से होता है ,जो कोई आत्मा घात ( नाश ) करता है वे आत्म घाती कहलाता है। अतएव अज्ञान से ऊपर उठकर रचनाकार ने ज्ञान का प्रकाश अपनी रचना के माध्यं से समाज को देने का प्रयास किया है। श्वेताश्वर्तरोपनिषद में वर्णन है कि ज्ञानी प्रारब्ध वश अपने को प्राप्त हुए शब्दादि विषय रूप जल से लिप्त नहीं होते इससे प्रेरित रचनाकार की रचना -
शिव की शक्ति
उसकी ही भक्ति
प्रकृति की प्रारूप हूँ मैं
नारी हूँ मैं !
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सभ्यता व् संस्कृति को
सहेजती हूँ मैं
नारी हूँ मैं !
होती बेटी एक, मगर दो घर का भार सम्हालती है एक रहा मायका मान ,दूजा ससुराल निखारती है। बेटी को दुसरे घर जाने पर भी माँ को उसका वात्सल्य स्मृति में सदा सर्वदा बनी रहती है। वह कहती है-
जब नन्हें -नन्हें पांवों से
रुनझुन पायल तू छनकाये
मेरे घर का सूना आँगन
चहल - पहल से भर जाए।
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तेरी प्यारी - सी अठखेली में
जीवन की बहार मैं देखूं
कालखण्ड के बदलाव में भी जब बेटियां प्रत्येक कठिन से कठिन कार्य में भागीदार बनकर हमारे पुरातन संस्कार को उज्जवल पथ प्रदत्त करने में सहायक बनकर कार्य रूप प्रदान कर रही हों ऐसे में रचनाकार उपासना जी की कलम से -
देश को विकास मिले ,
नारी को शिक्षा मिलने दो
--------
देश को कर्णधार मिले
ममता की चांदनी बिखरने दो !
मातृत्व की महिमा का असली अनुभव, माँ ही अच्छी तरह से अनुभव कर सकती है -
विश्वास दिलाती हूँ तुमको माँ !
पिता का मान बनूंगी
देश करेगा मुझपर गर्व ,
देश का स्वाभिमान बनूंगी।
समाज में व्याप्त बिद्रुपताओं से व्यग्र डॉ उपासना ने कहा है -
मातृत्व से चाहिए अपना अंश ,
नहीं चाहिए,गर्भपात का दंश।
नारियों पर हो रहे अत्याचार, दुराचार ,अनाचार ,छेड़खानी आदि से व्यग्र दिल दिमाग से इन्होंने 'सहमी निगाहें ,बहन जैसी रचनाओं को माध्यं में रख कर अपनी बात को चातुर्यता के साथ व्यक्त किया है वहीं आपने श्रृंगार को करने का प्रयोजन का विस्तृत वर्णन अउ स्त्री -शक्ति में आक्रोश का पुट परिलक्षित होता है आने वाली पीढ़ी को संस्कृति का ज्ञान कराने के साथ बुराई को दूर करने के उपाय को रेखांकित किया -
जिन औलादों पर कर रहा गौर
उन्हें ही बनाएगी
अपना सिरमौर
उनमें डालेगी जादा सब्र
जो खोदेंगे तेरी कब्र !
माध्यम 'बिदाई' से उपासना जी ने पराये घर जा रही बेटी को संस्कारित कर विदाई देते हुए -
दुनिया की रीति रास न आई /
आज बेटी हुई है पराई।
आशीर्वाद यही कि जिस घर जाए /
सद्गुण से ह्रदय में स्थान बनाए।
संस्कारों की है पूंजी थमाई /
आज बेटी हुई है पराई।
अन्य रचनाओं में - दहलीज ,विडम्बना ,माँ, ममता , संघर्षरत नारी और नारी स्मिता ! नारी स्मिता जिसे स्पेनी स्टाइल में कहा गया, इस रचना के सम्बन्ध में हमने जब उपासना जी से जानकारी का प्रयास किया तो चर्चा के दौरान उन्होंने इसे पहली रचना बताया। ऱचनाकार ने अपनी एक रचना में पुरुष ही नहीं नारी को भी समाज में नारियों के साथ भेद भाव का जिक्र करने का तथ्यात्मक प्रयोग किया है -
हे नारी, जागो !
अस्मिता निज की पहचानो।
कब तक यूँ ही भला, कष्टों को ढोती रहोगी ?
प्यार और एहसान के मीठे ज़हर,पीते रहोगी।
ममता में ममता को दर्शाते हुए रचनाकार की रचना -
अँचरा फैलाए रही,
ममता लुटाय रही,
लाल!लाल! रट रही,
'माँ' को न सताइए !
संघर्षरत नारी में कहती हैं -
गीता के कर्मपथ पर चलकर,
अवरोधों को दूर हटाती नारी।
मानव के विद्रूप स्वरूप से,
युगों-युगों से छली यह जाती।
शान्ति ऐस्वर्य और सद्बुद्धि लेकर घर लौटा हूँ
(ऊर्ज बिभ्रद पसुवनि: सुमेधाः )अथर्व ० सु ० ७-६०-१ और
हम अपने घर में गुणों से सुगन्धित होकर रहें
(अध स्याम सुरभो ग्रहेण) अथर्व ० सु ० १८-३-१७
रचनाकार में भी अपनी मनसा ऐसी ही होगी ऐसा मेरा मानना है।
इस संग्रह की रचनाएँ संख्या में बहुत अधिक नहीं होते हुए भी उनका 'कैनवस ' बहुत बड़ा है। शिल्प कथ्य का भी घ्यान रखने का प्रयास किया गया है। उपलब्ध रचनाओं के माध्यम से साहित्य जगत को लाभ होगा।
डॉ उपासना जी ने भारतीय संस्कृति -सभ्यता -संस्कार को अपनी रचना में कलम बढ़ किया है।
अतः'नारी हूँ मैं ' की रचनाकार की रचनाएँ सुधी पाठकों के बीच पढ़ी जाएगी और स्नेह सम्मान प्राप्त करेगी।
सद्भावना सहित
दिनांक २० जनवरी,२०२०
माघ कृष्ण ११,संवत २०७६ (वि ० )
सुखमंगल सिंह
नारी हूँ मैं !
(काव्य संग्रह)
डॉ उपासना पाण्डेय
pandeyupasana009@gmail.com
जन्मस्थान प्रयाग (14-10-1980)
पिता स्व० हरिनारायण पाण्डेय
माता श्रीमती सावित्री पाण्डेय
पति श्री मृत्युंजय पाण्डेय
शिक्षा
परास्नातक (संस्कृत) - लब्ध स्वर्णपदक, डी फिल, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
भाषा ज्ञान हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी व उर्दू
मानद उपाधि
1. साहित्य श्री (2008)
अखिल भारतीय हिन्दी संस्थान, इलाहाबाद
2. राष्ट्रभाषा गौरव (2009)
अखिल भारतीय हिन्दी संस्थान, इलाहाबाद
3.
वाग्विदेश्वरी (2009)
हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग
विषय सूची
मेरी लेखनी से कुछ शब्द
नारी
नारी हूँ मैं !
कन्याधन
मातृ-निवेदन
मेरी बिटिया रानी
बिटिया को अवसर दो
सहमी निगाहें
बहना
शृंगार
काग़ज की कश्ती (जवानी)
स्त्री-शक्ति
विदाई
नारी-मन
सुनहरा संसार
अर्धांगिनी
करवाचौथ
दहलीज़
विडम्बना
माँ
ममता
संघर्षरत नारी
नारी पीड़ा
नारी अस्मिता
नारी-स्वतंत्रता
थोड़ा सा आसमान
श्रेष्ठ रचना
शक्तिस्वरूपा नारी
मेरी लेखनी से कुछ शब्द
“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः” अर्थात् जहाँ नारियों की पूजा की जाती है, वहाँ स्वयं देवता रमण करते हैं। पाश्चात्य संस्कृति में भी 'लेडीज़ फर्स्ट' का मन्तव्य है। सम्भवतः इसका कारण है कि नारी प्रभु की श्रेष्ठ कृति है।नारी संसार में नवसृजन का आधार है। अनेक गुणों का आगार है। वह माँ, बहन, भाभी,चाची, बेटी आदि बनकर सामाजिक सम्बन्धों को निभाती और एकसूत्र में पिरोती है।
मैंने नारी के विविध स्वरूप व मनोभावों को ही कुछ कविताओं के माध्यम से आप सबके समक्ष रखने का प्रयास किया है। सम्प्रति काल में उस पर हो रहे अत्याचारों पर भी प्रकाश डाला है।
मेरे विचार से जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपना सशक्त प्रभाव छोड़ने वाली 'नारी' को शब्दों की सीमा में बाँधना अत्यंत कठिन कार्य है।
प्रस्तुत काव्य संग्रह "नारी हूँ मैं !" अपनी माँ (श्रीमती सावित्री पाण्डेय) के चरणों में समर्पित करती हूँ। नारी का सर्वोत्तम स्वरूप 'माँ' ही है, अतएव हम धरती के ईश्वरीय रूप 'माँ' को ही अपना आदर्श मानते हैं।
मेरे मनोभावों व कविताओं पर उनके द्वारा प्रदत्त संस्कारों का प्रभाव परिलक्षित होता है।
“माँ” को कोटि-कोटि नमन!
साथ ही समस्त परिवार व सखी डॉ. ऋचा त्रिपाठी को भी भूरिशः धन्यवाद देती हूँ, जिनके स्नेह और सहयोग से यह कार्य पूर्ण हो सका। श्री ललित मिश्र जी और वर्जिन साहित्यपीठ को भी हार्दिक आभार; आपके सहयोग के बिना मेरी कविताओं को मूर्तरूप देना सम्भव नहीं था।
आशा है कि आप सभी के अन्तर्मन को मेरी कविताएँ स्पर्श कर सकेंगी।
धन्यवाद
डॉ उपासना पाण्डेय
उत्पन्ना एकादशी
12/03/2018
नारी
ज़िन्दगी के हर रूप को
देखने की चाहत रखती हूँ !
ज़िन्दगी के रुख़ को
बदलने की ताक़त रखती हूँ !
मेरी सेवा को, मेरी
कमज़ोरी न समझ तू !
आँधियों में ख़ुद को
खड़े रखने की हिम्मत रखती हूँ !
अस्तित्व पर प्रहार करने वालों से
मैं लड़ने वाली भी हूँ !
मुझे निरीह न समझो लोगों,
मैं भी अड़ने वाली हूँ !
मैं नश्वर देह के रक़्त में,
नवसृजन की क्षमता रखती हूँ !
प्रेम, ममता, स्नेह व करुणा,
की जीवन्त प्रतिमा मैं हूँ !
सुसंस्कार के उज्ज्वल प्रकाश से
राष्ट्र- निर्माण करती हूँ !
मैं सम्पूर्ण नारी हूँ !
नारी की ताक़त रखती हूँ !!!
नारी हूँ मैं !
शिव की शक्ति
उनकी ही भक्ति
प्रकृति का प्रारूप हूँ मैं,
नारी हूँ मैं !
अन्तस् में समेटे हुए
भावनाओं का अथाह समुद्र
स्व-सम्बन्धों को
प्रेम-निर्झरिणी से स्निग्ध
करती हूँ मैं,
नारी हूँ मैं !
व्रतोत्सव और समारोहों का
प्राण हूँ मैं,
नारी हूँ मैं !
प्रत्येक सामाजिक सम्बन्धों का
आधार हूँ मैं,
नारी हूँ मैं !
आधुनिकता की ओर बढ़ती
साथ ही अपनी
सभ्यता व संस्कृति को
सहेजती हूँ मैं,
नारी हूँ मैं !
वासना के हृदयाघात से
टूटकर बिखरती परन्तु
वात्सल्य भाव से स्वयं को
दृढ़ता से खड़ी
करती हूँ मैं,
नारी हूँ मैं !
स्वरक़्त से सृजित
राष्ट्र के कर्णधारों में
संस्कार का आरोपण कर
सँवारती हूँ मैं,
नारी हूँ मैं !!!
कन्याधन
कन्याधन जिसने पाया है,
उसकी क़ीमत को पहचाना है।
जिसकी मधुर मुस्कान ने
आँगन में फूल खिलाया है।
जिसकी पायल की रुनझुन ने
घर को स्वर्ग बनाया है।
जिसने रक्षा के धागे से
सम्बन्धों को दृढ़ बनाया है।
जिसने पिता के मान को
अपनी पहचान बनाया है।
जिसने माँ के संस्कार को
फूलों सा महकाया है।
जिसने देश के मान को
निज स्वाभिमान बनाया है।
ऐसा अमूल्य धन पाया जिसने
धरती पर स्वर्ग बनाया है।
मातृ-निवेदन
विश्वास दिलाती हूँ तुझको माँ !
मैं तेरी पहचान बनूँगी।
पिताजी का मान बनूँगी।
देश करेगा मुझपर गर्व,
देश का स्वाभिमान बनूँगी।
मुझे तुम जीवनदान तो दो !
सुरक्षा का विश्वास तो दो !
मेरे हिस्से की साँस तो दो।
सुनहरे संसार की राह तो दो।
माँ !तुम्हारे जीवन का अंश हूँ।
नवरूप हूँ तेरे बचपन का,
तुम्हारा कोमल एहसास हूँ मैं,
सच हूँ !मीठे सामाजिक बंधन का।
मातृत्व से चाहिए अपना अंश,
नहीं चाहिए, गर्भपात का दंश।
मुझे तो मात्र तेरा प्यार चाहिए,
जीवन का आधार चाहिए।
मेरी बिटिया रानी
तेरी प्यारी-प्यारी बातें,
मेरे हृदय को छू जाती।
मेरी एकाकीपन की वह
तो साथी बन जाती।
जब से तू मेरे इस
तन्हा जीवन में आई।
छोटे-से घर में ही
मेरी सारी खुशियाँ समाई।
जब नन्हें-नन्हें पावों से
रुनझुन पायल तू छनकाएँ।
मेरे घर का सूना आँगन
चहल- पहल से भर जाए।
तेरी चमकीली आँखों में
सपनों का संसार मैं देखूँ।
तेरी प्यारी-सी अठखेलियों में
जीवन की बहार मैं देखूँ।
सोचती हूँ, अपनी परी को
किस विधि मैं दुलराऊँ !
कैसे जतन करूँ कि उसके
सारे स्वप्न साकार कर पाऊँ?
जब नन्हें-नन्हें हाथों से
मेरे बालों को सहलाएँ।
दर्द- भरे तन-मन में,
असीम शान्ति-सी भर जाए।
जब भी अकेले मैं मुस्काऊँ
लोग समझे हैं मुझे दीवानी।
अब मैं उन्हें कैसे समझाऊँ
राधिका बन आई बिटिया रानी।
तेरी प्यारी - प्यारी बातें,
मेरे हृदय को छू जाती।
मेरे एकाकीपन की वह
तो साथी बन जाती।
बिटिया को अवसर दो
मानवता के गुलशन में,
बचपन की कलियाँ खिलने दो !
सम्बन्धों को आधार मिले,
संसार में नेत्र तो खुलने दो !
आँगन को झंकार मिले,
बिटिया को पग तो धरने दो !
समाज को परिष्कार मिले,
उसको संस्कार तो मिलने दो !
देश को विकास मिले,
नारी को शिक्षा मिलने दो !
देश को कर्णधार मिले,
ममता की चाँदनी बिखरने दो !
सहमी निगाहें
सहमी निगाहें कुछ कहती हैं !
सम्बन्धों की दरारें,
टूटता विश्वास,
रिश्तों में बढ़ती खटास,
सामाजिक सौहार्द को
हर क्षण तोड़ती है।
सहम निगाहें कुछ कहती हैं !
बढ़ता वैमनस्य,
ईर्ष्या, द्वेष और कलह,
आतंक का दर्द
मानवता सहती है।
सहमी निगाहें कुछ कहती हैं !
स्वजनों के बीच
छिपी वासना को
धिक्कारती कलियाँ,
मातृत्व की छाँव में
आसरा ढूँढ़ती हैं !
सहमी निगाहें कुछ कहती हैं !
मित्रता की चाह,
अपनों पर विश्वास,
नेत्रों में सात्विक प्रेम व
उत्कृष्ट व्यक्तित्व का
आदर्श चाहती हैं !
सहमी निगाहें कुछ कहती हैं !!
बहना
बहना ओ बहना...!
तू तो मेरे दिल का गहना।
साँसों में बसती है तू..
बन कर मेरी धड़कन।
मन में रमती है तू..
बन कर मीठी सरगम।
बहना ओ बहना....!
तू तो मेरे दिल का गहना।
सब से छुपाऊँ तुझको,
जग से बच कर रहना।
प्राण है घरौंदे की तू...
किसी से न यह कहना।
बहना ओ बहना....!
तू तो मेरे दिल का गहना।
प्रेम का सागर तुझसे,
हर रिश्ते की गरिमा।
रक्षा के धागे में तू....
सुख का कोई नग़मा।
बहना ओ बहना...!
तू तो मेरे दिल का गहना।
श्रृंगार
नारी का सौंदर्य
बढ़ाता है श्रृंगार,
हृदय को आनन्दित
करता है श्रृंगार ।
पुरुष-हृदय को स्पंदित
करता है श्रृंगार,
लोभी में विकार उत्पन्न
करता है श्रृंगार।
जीवन में रोमांच
लाता है श्रृंगार,
पर-स्त्री में ईर्ष्या-भाव
जगाता है श्रृंगार।
अहम् को संतुष्टि,
प्रदान करता है श्रृंगार।
प्रत्येक संस्कृति में अस्तित्व
अक्षुण्ण रखता है श्रृंगार,
कला को प्रश्रय
देता है श्रृंगार ।
अतएव प्रत्येक काल में
नारी-हृदय में पर वर्चस्व
बनाए रखता है श्रृंगार।
कागज की कश्ती
कागज़ की कश्ती
पर होकर सवार
मैं निकली थी
बनके सुगन्धित बयार
तभी ,
एक गिद्ध की नज़र
मस्तिष्क में लव जेहाद का ज़हर
दिखाता बेइन्तहा प्यार।
मैंने कहा,
अरे ना समझ !
मुझे भी है समझ
तुम्हे नहीं मालूम
माता - पिता ने बाँधी है,
प्रेम की ऐसी डोर
संस्कार से जुड़ती
है जिसकी छोर।
अस्मिता को तू!
छू भी न पाएगा
यहाँ खड़ा ही खड़ा
देखता रह जाएगा।
स्त्री-शक्ति
अरे लव जेहादी!
हिन्दू स्त्री-शक्ति
तूने न पहचानी।
सच्चे प्रेम की आस में
जो फँसी,
तेरे फाँस में
उसे जब समझ आएगा धोखा
तब सोच,
तेरा क्या होगा?
जिन औलादों पर कर रहा गौर,
उन्हें ही बनाएगी
अपना सिरमौर
उनमें डालेगी ज़्यादा सब्र
जो खोदेंगे तेरी ही कब्र।
उनमें संजोएगी
ऐसे सुसंस्कार,
जो तेरे इरादों को
करेंगे तार-तार।
विदाई
नम आँखों से पिता ने दी विदाई,
मन की व्यथा उभर आई।
दुनिया की रीति रास न आई,
आज बेटी हुई है पराई।।
घर के आँगन में खिलखिलाई,
घर के हर कोने में वह समाई।
रोकूँ उसे कि दूँ मैं बधाई,
आज बेटी हुई है पराई।।
आशीर्वाद यही कि जिस घर जाए,
सद्गुणों से हृदय में स्थान बनाए।
संस्कारों की है पूँजी थमाई
आज बेटी हुई है पराई।।
बिटिया गयी तो मिला है जमाई,
जीवन की बड़ी सौगात पाई।
सुख-दु:ख का मिश्रण विदाई,
आज बेटी हुई है पराई।।
नारी-मन
स्वछंद व निराकार नीर को
घट की परिधि में देखकर,
निःस्तब्ध नारी-मन मानो
चिन्तन करने लगा डूबकर।
ओह ! कितना है सादृश्य..
हमारे अतीत व भविष्य..
निस्सीम से ससीम बनने में।
जैसे सीमाबद्ध घट-जल
निराकार से साकार हो गया।
विवाहित नारी का सकल
जीवन मर्यादित हो गया।
व्यष्टि से समष्टि की ओर
परम्पराओं व सम्बन्धों में बँधता ;
उसकी स्वतंत्रता का छोर
अस्तित्व को ढूँढ़ता फिरता।
स्वतंत्रता का मार्ग न देख
मर्यादा में ही आनन्द का अन्वेषण
करने और जीने को विवश
पर-पिपासा शान्त करने को प्रस्तुत
सुनहरा संसार
उस सुनहरे संसार में,
तुमको ऐसे जाना है।
जैसे रुपहली चाँदनी का,
धरती पर बिछ जाना है।।
वो जो कोमल हास है,
अपना ही अहसास है।
आगे चलकर तुमको तो,
उनका ही बन जाना है।।
याद है माँ की नसीहत !
हो खुशामद या फजीहत।
आचरण से उनके दिल में,
तुमको तो बस जाना है।।
कितनी हो कठिनाइयाँ,
पर न हो रुसवाइयाँ।
आई है डोली यहीं पर,
यहीं से अर्थी पर जाना है।।
अर्धांगिनी
अर्धांगिनी !
होती है पुरुष की वामांगी
वामांग में होता है हृदय
जिसमें होता प्रेम का उदय।
नारी बनती जब जीवनसंगिनी
आगमन से रचती सृष्टि
व्यष्टि से बनाती समष्टि।
उसके रूप में मिलता,
पुरुष को ऐसा प्रारूप।
जिसमें दिखता उसको
नारी का विविध रूप।
पति के अनुकूल लगने वाली
बनती वह क्षमाधात्री
सर्वस्व समर्पित कर
स्वामी का जीवन करती पूर्ण,
उसकी बनती सृष्टि सम्पूर्ण।
सरगम से बनती रागिनी,
ऐसी ही होती है अर्धांगिनी।।
करवाचौथ
करवा चौथ का त्योहार
प्रियतम करके निराहार,
सोमदेव से माँगू वरदान
सातों जन्म हमारा साथ।
करती हूँ मैं पूरा शृंगार
पैरों में पायल की झंकार,
सोमदेव से माँगू वरदान
सातों जन्म हमारा साथ।
हाथों में मेंहदी रचाकर
पावों में महावर लगाकर,
सोमदेव से माँगू वरदान,
सातों जन्म हमारा साथ।
आँगन में रंगोली बनाकर,
चौथ की अल्पना सजाकर।
सोमदेव से माँगू वरदान,
सातों जन्म हमारा साथ।
दहलीज़
घर की दहलीज़
मात्र ईँट पत्थर की
नहीं है चीज।
वह तो होती है,
मर्यादा का द्योतक
सुरक्षा का प्रतीक।
जिसमें पनपता है जीवन
खिलती हैं कलियाँ
मिलती है शान्ति
पाती हूँ भरा पूरा
खुशहाल परिवार
वह तो है,
घर व समाज की कड़ी
सुख दुःख के क्षणों की साक्षी।
विडम्बना
देश की सड़कों पर
मानवता हो रही तार-तार।
आख़िर कहाँ चले गए,
हमारे जीवन के सुसंस्कार ?
उसका नारी होना ही
बन गया उसके लिए अभिशाप !
मानव का ऐसा विकृत स्वरूप
सोचकर ही रूह जाती काँप ..।
यदि सावधान नहीं हुआ,
अब भी इन घटनाओं से समाज।
तो कितना भयावह होगा !
भविष्य, जिसका ऐसा आग़ाज़।
नारी नहीं उपभोग की वस्तु,
वह है संवेदनशील इन्सान।
अमानवीय कुत्सित वर्ग को
इसका कराना होगा संज्ञान।
ऐसे मानसिक रोगियों का
करना होगा समूल नाश !
बचपन से आरोपित करना होगा,
चरित्र में सद्गुणों का पाश।
माँ
माँ ! प्रभु की ऐसी होती सौगात,
जिसमें होती कुछ अनोखी बात।
माँ का स्पर्श तत्काल पहुँचाता आराम,
कठिनाइयों को बनाता आसान।
माँ की बातें हृदय में जगाती आत्मविश्वास,
जगत में हमेंं बनाती ख़ास।
हमें सुलाने को वह रात भर जागती,
पालने को महत्त्वाक्षांओं से किनारा करती।
कठिन जीवन-धूप में बनती छाया,
हमारे लिए ही वह गलाती काया।
माँ की बस इतनी पहचान,
वह तो है गुणों की खान।
सन्तान के दुःख-सुख का चिन्तन,
यही उसके जीवन का आधार।
बचपन से वृद्ध होने तक,
माँ का प्रेम एकसार।
निःस्पृह, निर्लोभी व निर्विकार हो,
सन्तान के स्वप्न को करती साकार।
माँ का हम कभी भी हम
चुका न पाएँगे आभार।
वक़्त आने पर बच्चों के लिए
माँ तो बनती सिंहनी।
परन्तु उनकी एक उपेक्षा उसकी
नर्क कर देती ज़िन्दगी।
ममता
अँचरा फैलाए रही,
ममता लुटाय रही,
लाल!लाल! रट रही,
'माँ' को न सताइए !
'माँ' लोरी सुनाय रही,
निदियाँ बुलाय रही,
बालमन भाय रही,
लाल सो जाइए !
लाल बस खुश रहे,
चाहे कहीं भी वो रहे,
मनौती माँगती रहे,
स्नेह बरसाइए !
ममता लुटाय रही,
मान बस चाह रही,
कुछ नहीं माँग रही,
विमुख न होइए !
काम पर जाय रही,
लाल रोए नहीं कहीं,
नज़र बचाय रही,
पीड़ा तो समझिए!
प्रथम शिक्षा दे रही,
सुसंस्कार डाल रही,
प्रेम बीज बोय रही,
बात मत टालिए !
प्रेम पाग पिला रही,
लाल दुलराय रही,
नज़र बचाय रही,
बात मान जाइए !
सर्वस्व लुटाय रही,
ममता स्नेह दे रही,
कछु न बचाय रही,
मन न दुःखाइए !
संघर्षरत नारी
अन्तस में अथाह ममता समेटे हुए,
महत्त्वाकांक्षा व आत्मविश्वास है भारी।
पुरातन रुढ़िवादी बेड़ियों को तोड़ते हुए,
आधुनिकता की ओर कदम बढ़ाती नारी।
जीवन के प्रत्येक पड़ाव पर,
बाधाएँ तो हैं बहुत सारी।
गीता के कर्मपथ पर चलकर,
अवरोधों को दूर हटाती नारी।
मानव के विद्रूप स्वरूप से,
युगों-युगों से छली यह जाती।
स्वर्णिम भविष्य हेतु, सद्गुण वपन से,
संघर्षरत अदम्य साहस का परिचय कराती।
स्वर्णिम भविष्य का स्वप्न कब तक,
मृगमरीचिका बन नेत्रों में देता रहेगा पानी ?
धैर्य व क्षमाशीलता की कब तक,
आख़िर,परीक्षा देती रहेगी यह नारी !!
नारी पीड़ा
नारी पीड़ा को जानने, समझने
की बात करते हैं सब
परन्तु उस पीड़ा का अनुभव
करते, कितने और कब !
माँ, बहन, बेटी व पत्नी के
सम्बन्धों को प्रेम और सहजता से
निभाते हुए, स्व -अस्तित्व व महत्त्वाक्षांओं
को मिटाती जाती।
परसेवा में निरत
आयु सीमा बढ़ती जाती।
परार्थ में भविष्य के विषय में
तनिक भी न सोचती।
अपनों को प्रति पूर्ण समर्पित,
आयु के अन्तिम पड़ाव पर
फिर क्यों रहती 'नितांत एकाकी'
अथक परिश्रम के पश्चात
पराश्रित हो, आवश्यकता हेतु
अपनों के समक्ष हाथ फैलाए
खाली हाथ रहती ...
अबला व निरीह बन जाती !
नारी अस्मिता
हे नारी, जागो !
अस्मिता निज की पहचानो।
कब तक यूँ ही भला, कष्टों को ढोती रहोगी ?
प्यार और एहसान के मीठे ज़हर,पीते रहोगी।
पहचान खुद की, ऐसे
ऐसे ही खोती रहोगी।
एहसान फ़रामोश ज़माने से लड़ना सीखो।
समाज के हैवानों से प्रतिकार करना सीखो।
अनगिनत सवालों के जवाब तुमने दे दिए।
त्रासदी भरे इतिहास से सवाल करना सीखो!
भूलो मत ! स्व-अभिमान को,
वेदों और उपनिषदों में, दिए गए सम्मान को।
अतीत से विस्मृत हुई, गौरव भरी पहचान को।
पलकों में भरे हुए जीने के अरमान को।
ये जान लो कि तुम, घर का चिराग़ हो।
माता- पिता की कल्पना का अंशुमान हो।
तुम ही तो पति के हृदय का प्राण हो।
इनसे बढ़कर नव-जीवन का आधार हो।
नारी-स्वतंत्रता
स्वतंत्रता की
किसको नहीं चाह,
आसान नहीं
इस चाह की राह।
स्वछंदता से
इसके मध्य पतली रेखा,
संस्कार से ही
बँधती सीमा रेखा।
नारी-स्वतंत्रता
नहीं मात्र पुरुष विरोध !
नारी अशिक्षा
इसका सबसे बड़ा अवरोध।
नारी उत्पीड़न, कारण
मात्र नहीं पुरुष वर्ग !
प्रभुत्व आकांक्षिणी
संलग्न अहंकारी स्त्री वर्ग।
रुढ़िवादी परम्परा का
आवश्यक है सशक्त विरोध !
आत्म स्वावलंबन
के प्रति सम्यक बोध।
नारी स्वतंत्रता
हेतु हमारा प्रथम चरण,
मौलिक शिक्षा ही
एकमात्र विवेकपूर्ण वरण।
थोड़ा सा आसमान
माता-पिता की बेटी
भाई की बहना
पति की धर्मपत्नी
ससुराल का गहना
सन्तान की माँ बनकर
सारे सम्बन्धों को निभाती,
इनमें ही मैं बँधती जाती।
सम्बन्धों में ढ़ूँढ़ती अस्तित्व,
चाहती हूँ अपना व्यक्तित्व।
अपने हुनर को दिलाकर पहचान,
समाज में बनाना चाहती हूँ स्थान।
नहीं बनना मात्र, नींव का पत्थर
बन पताका, ऊपर उठकर
जीवन में भरने को ऊँची उड़ान,
चाहिए मुझे थोड़ा सा आसमान।
चाहिए मुझे थोड़ा सा आसमान....
श्रेष्ठ रचना
जानत हैं !
यह सब संसारी,
प्रभु की
श्रेष्ठ रचना सन्नारी।
दया, क्षमा, प्रेमादि
गुण भारी,
अतः शक्तिस्वरूपा कहलाती।
फिर क्यों !
शोषित- पीड़ित हो,
अबला बन
सह रही अत्याचार।
'उपासना' कहे !
यह सोच-विचार,
सभी हैं इसके मति पर बलिहारी।
शक्तिस्वरूपा नारी
पुरुषों से समानता की चाह में,
नारी महानता क्यों भूल रही ?
आधुनिकता की होड़ में,
अपनी मर्यादाएँ क्यों तोड़ रही ?
प्रभु ने जन्मजात पृथक् गुण दिए,
फिर कैसे मानूँ कि भेद नहीं !
गुणों में अग्रणी है सन्नारी,
वेदों में भी मतभेद नहीं !
नारी तो स्वयं शक्तिस्वरूपा,
किसी दृष्टि से अबला नहीं !
सुसंस्कारों को विस्मृत करने में,
किसी दृष्टि से उसका भला नहीं !
समानता की मृगमरीचिका में,
शक्ति का वह ह्रास कर रही।
प्रेम के प्रति पूर्ण समर्पण में,
दासता का वह आभास कर रही।
न्याय-अन्याय के धरातल पर,
लिंग का कोई भेद नहीं।
नारी पर हुए अत्याचार में,
नारी भी सम्मिलित मात्र पुरुष नहीं।
अन्याय के पूर्ण विरोध में,
आत्मशक्ति संग्रह आवश्यक, पौरुष नहीं !
कोमल देहयष्टि सहयक सृष्टि में,
संप्रभुता हेतु आवश्यक मति, देह नहीं !
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