समर भवानी रानी दुर्गावती कहता है आख्यान दुर्ग यह,गढ़ मंडल की रानी का | याद रहेगा युगों-युगों संग्राम समर-भवानी का | जहाँ जिधर से छू कर द...
समर भवानी रानी दुर्गावती
कहता है आख्यान दुर्ग यह,गढ़ मंडल की रानी का |
याद रहेगा युगों-युगों संग्राम समर-भवानी का |
जहाँ जिधर से छू कर देखो,किला-भित्ति-चट्टानों को,
खंड-खंड होते भवनों के चित्रित प्रस्तर- खानों को |
उसी काल से लटक रहीं जो, अक्षय वट की छालों को,
।
जो प्रत्यक्ष गवाही देने, आतुर नदियों-तालों को |
जाग उठेंगीं सुप्त तरंगें, बोल उठेंगी दीवारें,
श्रंगी-नाद यहीं गूँजे थे, यहीं चली थीं तलवारें |
गहरी काली निशा आज की उस दिन बहकी-बहकी थी,
वह समीर जो चली समर की, अंगारों सी दहकी थी |
उफन-उफन जाती थी नदिया,ताप बढ़ा था पानी का |
याद रहेगा युगों-युगों संग्राम समर- भवानी का |
1
कथा समय की ज्योति अभी तक बुझी नहीं उस ज्वाला की,
राजपूत चंदेल-वंश की गरिमा अद्भुत- बाला की |
कीर्तिसिंह राजा की कन्या, दुर्गावती दुलारी थी ,
कालिंजर में पली-बढ़ी वह रणचंडी अवतारी थी |
वीरांगना भेष पिता के,साथ समर में जाती थी,
रूद्र-भैरवी रूप धरे, दुश्मन को मार गिराती थी |
उसकी रग-रग में साहस का,रक्त-
प्रवाह मचलता था,
लक्ष्य प्रहार शत्रु की छाती पर, उत्साह मचलता था |
दसों दिशाओं में कोलाहल, उसकी शौर्य- कहानी का,
याद रहेगा युगों-युगों संग्राम समर-भवानी का |
इस आखेटी रंग-रूप पर, दलपत शाह विमोहित थे |
गढ़ा मंडला के सिंहासन पर आरूढ़ सुशोभित थे |
बँधी प्रीत की दूर-दूर से, ऐसी मधुमय डोरी थी ,
राजकुँवर दलपत की प्रेयसि राज्ञी हृदय चकोरी थी |
जैसे वीणा के मृदु तारों में रागिनी समाई थी,
दुर्गावती गौंडवाना की रानी,बनकर आई थी |
विन्ध्य-क्षेत्र था हरा-भरा, नदियों तालों से भरा हुआ,
पाकर पति का पूर्ण प्रेम, दुर्गा का मन भी हरा हुआ |
सकल दिशाएँ महक उठी थीं, स्वागत था महरानी का |
याद रहेगा युगों-युगों संग्राम समर भवानी का |
किंतु कहाँ स्वीकार नियति ने, किया खेल आघातों का।
पड़ा झेलना रानी को वैधव्य शोक दिन-रातों का।।
पतिगत प्राणा अभी फूटकर , जी भर क्या रो पाई थी,
बाज-बहादुर, ने सीमा पर रण-दुंदुभी बजाई थी |
वीर अंगना, रण-भेरी सुन अश्रु पोंछ रण में उतरी,
क्षण भर में चहुँ ओर मचा दी मार-काट ,अफरातफरी |
दुर्गावती सिंहनी से जब बाजबहादुर हार
गया
देखा नहीं पलटकर, गढ़ को पराभूत लाचार गया।।
उसके सूबे में चर्चित था यह प्रसंग नादानी का |
याद रहेगा युगों-युगों संग्राम समर भवानी का |
चर्चाएँ अब दूर-दूर तक, फैल रही थीं रानी की,
सेनापति आधार संग ही, सरमन-गज तूफ़ानी की |
अक़बर की सत्ता-सीमा में दुर्गावती-शौर्य-विस्तार।
आसिफ़ हमला करने आया गढ़ा मंडला दो-दो बार।।
हुआ पराजित अपयश पाया, बदला लेने था तैयार,
तब बोला अक़बर से जाकर सही ना जाती अपनी हार |
रहे हरम में मेरे ही वह, मेरी ही आराधक हो,
सहन न कर पाया अभिमानी ,कैसे स्त्री शासक हो |
देख चुका था रंग-ढंग वह,दुर्गावती दिवानी का |
याद रहेगा युगों-युगों तक भीषण समर भवानी का |
गर्वीली थी बड़ी सजीली, हाँ-हाँ बड़ी गठीली थी,
शत्रु मानते जिसका लोहा, सचमुच बड़ी हठीली थी |
मुगलों की मुट्ठी जा पहुँची,अपनी कटि-तलवारों पर,
मुगले-आज़म की हैरानी वनिता-असि की धारों पर |
था स्वीकार नहीं उनको भी झांझर रण-झंकार बने,
चले बुझाने अग्नि-शिखा को जब तक वह अंगार बने|
जा पहुँचा आसिफ़ सीमा पर,कई सहस सेनानी ले,
मन ही मन जो बुनी राह में,कल्पित विजय कहानी ले|
रात-दिवस बस एक काम था, गढ़-मंडल-निगरानी का |
याद रहेगा युगों- युगों तक भीषण समर भवानी का|
घिरी हुई, दुर्गा शंकाओं में यूँ उलझी उलझन में,
दमकेगी दामिनी भला अब कैसे गहन तिमिर घन में |
पुत्र वीर ने भाँप लिया था बोला ओजस्वी बानी,
कालनिनादी प्रति ध्वनि करने,आतुर हूँ मैं महारानी।
टंकारित हो खड्ग सँभालो, ढाल तुम्हारी मैं हूँ माँ।
शक्ति-रूपिणी, महामयी हुंकार तुम्हारी मैं हूँ माँ।
काँपे भू पद-भार कोप से समरांगण में यूँ लड़ना,
बन काली अरि मान मर्दिनी शत्रु-वक्ष चढ़कर दलना।
कुछ भी हो लेकिन उत्तर देना होगा, मनमानी का|
याद रहेगा युगों-युगों संग्राम। समर भवानी का |
देख पुत्र का साहस,दुर्गावती हुई थी बलिहारी,
थी सोलह वर्षीय,उम्र लेकिन सुत दस-दस पर भारी|
वही खड़ा था बिगुल फूँकने महाकाल बन जाने को,
बन अभिमन्यू शत्रु-व्यूह से टकराने, लड़ जाने को |
कसा शीर्ष जूड़ा रानी ने, फिर सकोप शर-चाप लिया
खनक उठी कटिबंध-म्यान में, भाला कर से नाप लिया।
प्रथम भोर ऊषा लाली-सा, माथे तिलक लगाया जब
काल-ज्वाल-सी दमक उठी थी उसकी क्रोधित काया तब।
दुर्ग द्वार की ओर बढ़ी ले, दल सुभट्ट सैनानी का |
याद रहेगा युगों-युगों संग्राम समर भवानी का |
ठहर गयी सुनकर जयकारा करती वनिता-टोली,
लाज हमारी हाथ तुम्हारे रो-रोकर सब बोलीं।
मचा हृदय कोलाहल भारी, रानी बढ़ती आगे,
पति सँग वचन लिए थे जो-जो, अंतर्मन में जागे|
आसिफ़ खां प्रत्यक्ष खड़ा मुख पर प्रसन्नता गहरी,
वीर भेष में देख राज्ञी दृष्टि दुष्ट की ठहरी |
स्त्री के हाथों में बरछा, तरकश, तीर कटारें,
बोला मुझे देख मुस्का दो बिना युद्ध हम हारें,
सौंप खजाना चलो साथ, पद पाओ पटरानी का |
याद रहेगा युगों-युगों संग्राम समर भवानी का |
असि सम चमका मुख रानी का जिस पल हाँक लगायी,
काँप गया आसिफ़ भीतर तक, जब सिंहनि गुर्रायी |
कंपित रेवा सरि की लहरें, चमकी चपला घन में,
ज्वालामुखी गौंडवानों के लगा धधकने तन में |
रक्त प्रदूषित करने आया,खल तू रेवा जल को,
सड़न शवों की सौंप रहा है, तू कुसुमित भूतल को|
तिल-तिल काट-काट फेंकूँगी,रुंड-मुंड घाटी में,
किन्तु न रखने दूँगी पग मैं इस पावन माटी में |
गरजी रानी आ मैं देखूँ बल प्रमत्त अभिमानी का |
याद रहेगा युगों-युगों संग्राम संग्राम भवानी का |
सिंहनाद-रणभेरी गूँजी, कूदी रानी रण में,
हुआ गौंडवाना दल गोचर मुगलों को कण-कण में|
हमरे जियत हमारी रानी, को बैरी मत छूना,
कह-कह भिड़े भट्ट मुगलों से बल- विक्रम से दूना |
टकराते थे अस्त्र-शस्त्र निर्भीक बदलकर पाली,
अरि-कंठों को लगी काटने, दुर्गावती-भुजाली |
कब कृपाण कब तीर-वीर, वह बरछा भाल चलाती,
प्रगट हुई कब महाकाल सी, कब रज में खो जाती |
समर-भूमि पर लिखती किस्सा,
अरि-दल लहूलुहानी का |
याद रहेगा युगों-युगों संग्राम समर भवानी का |
लाँघ शिलाएँ गिरि-चोटी की, आ जाती मैदानों में,
रक्त उबलता ताप लिए वह, लड़ती थी मर्दानों में |
हिरनी-सी भर रही चौकड़ी, दौड़ाती थी घोड़े को,
वेग काटती आगे बढ़ती, ठुकराती हर रोड़े को |
दुश्मन थे हैरान देखकर उस बल खाती माया को,
रण कौशल में सिद्धहस्त, उस रणचंडी की छाया को |
महाप्रलय की आँधी जैसी लघु सेना अभिमानी को,
मंत्र फूँकता था कानों में, सेनापति उस ज्ञानी को |
आसिफ़ खुद को धिक्-धिक् करता फल पाया नादानी का |
याद रहेगा युगों-युगों संग्राम समर भवानी का |
गिरा अश्व आहत प्रहार से सहसा आहें सुनकर।
आहत पुत्र वीर नारायण, अवनि कराहें सुनकर|
दौड़ी रानी उर-पीड़ा से, लड़ती चालों-भालों से,
घेर उसे लाई महरानी शीघ्र बचाकर ढालों से |
बोली घाव लगे हैं गहरे, लौट सुरक्षित तुम जाओ,
रण से लौटूँ ना लौटूँ मैं, हृदय, कंठ तुम लग जाओ |
भरे नयन से चूमा माथा, घावों को सहलाया,
कर सवार तत्क्षण आधार सँग, उसको भवन पठाया।।
अब अराति देखेगा तांडव मेरी तीर-कमानी का |
याद रहेगा युगों-युगों संग्राम समर भवानी का |
महाघोर रव सिंहनाद से, महामयी गुर्रायी,
ज्यों अरि-दल के रक्त-पान को मुंडमालिनी आयी |
गिरि अरावली लगी गूँजने, ठन-ठन-ठन तलवारों से,
हुई धार रक्तिम रेवा की लाल रक्त बौछारों से |
रवि-किरणों से तनिक न कम थी, दुर्गा-मुख की लाली
काली के भीतर सवार थे, भैरव, काल-कपाली |
बैरी-दल को दलती- छलती, काट-काट शीशों को,
फेंक रही थी वन-वीथी पर, बीसों पच्चीसों को |
आज उतारूँगी बैरी का, चढ़ा नशा सुलतानी का |
याद रहेगा युगों-युगों संग्राम समर भवानी का।
समर-यज्ञ में प्राणाहुति देने आतुर थी हा-हा,
अपनी साँसें डाल रही थी, रानी करती स्वाहा |
धेनु-धूलि बेला घिर आई, सैन्य- सुभट थक हारे,
तब आसिफ़ ने रण में अपने सैनिक नये उतारे |
था अषाढ़ का माह गगन से, होती वृष्टि निरंतर,
नर्रइ-नाले में थी रानी, दृष्टि शत्रु की उस पर।
विधि-विधान लिखने बैठा था अपना लेखा-जोखा,
तीर एक आ लगा कंठ में, दुर्गा खायी धोखा |
रक्त देह में उबल रहा था, उसकी भरी जवानी का |
याद रहेगा युगों-युगों संग्राम समर भवानी का |
लगा दूसरा तीर नेत्र में, तब रानी ललकारी
दो हाथों से दस-दस सीने, में तलवार उतारी |
टूट पड़ो सब वीर-बहादुर निर्भय मत घबराना,
शपथ तुम्हें है आज समर में महारुद्र बन जाना
रानी की हुंकार सुनी, सेना ने जोश बढ़ाया
अरि-दल की छाती पे चढ़कर, तांडव रूप दिखाया।
पीड़ा और रक्त से लथपथ, लाल हुआ था चेहरा,
लेकर आड़ सुरक्षित निकली मगर घाव था गहरा |
समझ युद्ध-परिणाम सुनिश्चित,समय हुआ दीवानी का
याद रहेगा युगों-युगों संग्राम समर भवानी का |
सहसा गिरी निढाल शक्ति,भू पर, बोली सेनानी |
मार कृपाण वक्ष पर मेरे , करना अंत कहानी |
हा-हा क्या कहती हो देवी, सैनिक सब घबराए |
गौंड राज्य की शक्ति-ज्योति यह कभी न बुझने पाए |
दिया दिखाई आसिफ़ आता दुर्गा सहसा चौंकी,
कटि से खींच कृपाण स्वयं ही वक्षस्थल में भौंकी |
बात आन पे बन आयी तो, उर विदीर्ण कर डाला,
देह न छू पाये वह बैरी , भेद न पाये भाला |
हृदय विदारक क्षण था वह साँसों की खींचा-तानी का |
याद रहेगा युगों-युगों,संग्राम समर भवानी का |
किया सृष्टि को नमन दृष्टि ने गढ़ का शिखर निहारा,
माटी चूमी बुझने वाला था प्राणों का तारा |
मूर्तिवंत-सी गिरी अवनि पर मिली देह माटी में,
रही ताकती मूक सृष्टि,था महाशोक घाटी में |
वहीं पास अरि-शोणित प्यासी, विकल कटार पड़ी थी,
कहती थी फिर मुझे उठा लो, जो तलवार लड़ी थी |
हुई जहाँ घनघोर वृष्टि, फिर रात बिकल बीती थी,
उधर शत्रु की विजय,हार थी, इधर हार,जीती थी |
सुबह सूर्य लाया संतापी, संदेशा कुर्बानी का
याद रहेगा युगों-युगों संग्राम समर भवानी का |
दुर्गावती तुम्हारी गौरव गाथा, अमर रहेगी,
पावन बलिदानी स्मृतियाँ दिव्य समाधि कहेगी |
पूज्यनीय है यह बलिवेदी यहाँ सोयी चिंगारी है,
सूरज ने आरती उतारी,रेवा चरण पखारी है।
ग्राम-ग्राम,घर, नगर-डगर , भू-अम्बर में ख्याति है।
दुर्गा के बलिदान त्याग पर, गर्वित नारी जाति है।
इसी भूमि का कण-कण गाता, वह अतीत की गाथा है,
जिसको सुनकर गर्वित सीना, गर्वित जग का माथा है |
गूँज रहा ब्रह्मांड-विश्व में स्वर ओजस्वी बानी का | |
याद रहेगा युगों-युगों, संग्राम समर भवानी का |
प्रतिमा अखिलेश श्रीवास्तव
दादू मोहल्ला संजय वार्ड
सिवनी 480661 म प्र
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