(1)गीत - मेरा दिल आया। आई तू करके सिंगार साल सोलहवां तेरा यार मेरा तुझपे दिल आया। कच्ची कली कचनार सी मचले यौवन प्यार सी मेरा तुझपे दिल...
(1)गीत - मेरा दिल आया।
आई तू करके सिंगार
साल सोलहवां तेरा यार
मेरा तुझपे दिल आया।
कच्ची कली कचनार सी
मचले यौवन प्यार सी
मेरा तुझपे दिल आया।
तूने किया मुझे मदहोश
मैंने चूम लिये तेरे होंठ
मेरा तुझपे दिल आया।
गुलाबी है तेरा बदन
मचल उठा मेरा मन
मेरा तुझपे दिल आया।
सतरंगिया हुआ आँचल
प्यार बरसा बन बादल
मेरा तुझपे दिल आया।
तेरी साँसो में चली पुरवाई
है पीव मदभरी तेरी अंगडाई
मेरा तुझपे दिल आया। ।
(2)गीत-सपना कोई टूट गया
कजराली तेरी आंखें
आँखों में फैला काजल
रातभर तू जागी रही
सपना कोई टूट गया। सपना कोई टूट गया।।
बिखरी तेरी जुल्फें
गीला तेरा आँचल
गालों पे सूखें आँसू
अपना कोई छूट गया। सपना कोई टूट गया।।
दिल जिसपे था कुर्बान
वह रिश्ता हुआ अंजान
प्यार की नहीं पहचान
साथी कोई लूट गया।। सपना कोई टूट गया।।
मिलने की आस है टूटी
दिल की मुस्कान है टूटी
पीव बेदर्दी ने दिल तोड़ा
लुटेरा कोई दिल लूट गया।। सपना कोई टूट गया।
(3)गीत- चाहत
ये कजरारे तेरा नैना
मस्ती भरे तेरे बैना
मन अल्हड है मेरा
तेरी आँखों में समा जाऊ ।
ये नशीली काली रातें
रसभरी तेरी प्यारी बातें
शबनमी तेरी चितवन
मुझे मदहोश किये जाये।
ये नागिन सी जुल्फें
तेरे गालों पे लहराये
दिल मेरा मचले
तेरे आगोश में लिपट जाऊँ ।
ये लहराता तेरा आँचल
बिजलियां गिराता बादल
पीव पागल बना जाये
तू मेरी बाहों में समा जाऊँ ।
(4) सीख देती चीटियाँ
कभी चीटियों को देखो
मुंह मिलाकर प्रेम करती है
अंजान चीटी से पहचानकर
नेह का यह मिलाप
असीम अपनत्व का इजहार है
वे मुंह मिलाकर एक दूसरे को
आभार व्यक्त करने के साथ
नमस्कार करती है।
कभी चीटी जैसे
किसी जीव का
ओढ़ना-बिछाना,
चैका-चूल्हा
थाली बघौनी देखी है
किस रंग के होते है
उनकी आवाज कैसी होती है
भला हाड़-माँस का यह
आदमी क्या समझेगा।
वासना के कीड़े की तरह
रेंगता हुआ
यह प्रेम करता नहीं
प्रदर्शन करता है
आदमी का अभिवादन
दूर से ही
हलो-हाय हो गया है।
कभी गले मिलकर
प्रेमानुभूत से आनन्दित होने वाला
आदमी,
इंसान बनने चला था
पर आपस में हाथ मिलाने का
आविष्कारक यह आदमी
न आदमी रहा न इंसान
उसकी पहचान
अपने ही नहीं गैरों से भी
दूर से हेलो-हाय कर
नमस्कार करने
चरणस्पर्श की जगह
वाय-वाय
करने भर की है
पर चीटियाँ पीव आज भी
नहीं भूली है
मुँह से मुँह मिलाकर
प्रेम करना और
नमस्कार करना।
(5) सोफे का दर्द
मैं अपने सोफे पर बैठा
मोबाईल में डूबा हुआ था
और ढूंढ रहा था
पसंद की रिंगटोन
चिड़ियों की चहकने-फुदकने
कोयल-बुलबुल की बोलियाँ
गिलहरियों सहित अनेक
कर्णप्रिय आवाजें
मुझे जंगल के खग-मृग का
मधुर कलरव सा
आनंद दे रही थी।
अचानक मेरी तंद्रा टूटी
जैसे लगा कि मेरा सोफा
मुझसे कुछ बातें करना चाहता है
अभी हाल ही में तो
सागौन का यह सौफा
मेरे घर आया था।
मैंने मोबाइल की रिंगटोन बंद की
और सोफे की ओर
अपना पूरा ध्यान लगाया
लगा सोफा अपना दर्द
मुझे बाँटना चाहता है।
जो रिंगटोन मोबाईल से सुनी
लगा उससे मधुर ध्वनि
सोफे में सुनाई दी।
मेरा सोफा भी
कभी जंगल में
एक छायादार
सागौन का पेड़ रहा है
जिस पर सारे-खगवृन्द
विश्राम करते,
उसकी टहनियों पर चोंच मारते
फुदक-फुदक का संगीत सुनाते
हुक हुक,टें टें कर फुर्र से
उड़ जाते-फिर आ जाते
कभी गिलहरियाँ आँख-मिचौली करती
कभी चिड़ियायें
तिनके तिनके जोड़ घर बनाती
सभी का लाड़ला था
वह सागौन का पेड़
जिसमें पक्षियों का कलरव
हिंसक जानवरों का उपद्रव
सभी ऋतुओं का शांत व रौद्र रूप
झेलकर बढ़ना सीखा था।
वह सागोन का पेड़ अंजान था
जंगल के इस विशालकाय पेड़
जिसने पक्षियों के संगीत को
अपनी आत्मा का
ताज बना रखा था को
पता ही नहीं था कि
वह एक दिन
धराशाही हो जायेगा
उसके टुकड़े टुकड़े कर
पीव जंगल से बेघर हो
शहर में आ जायेगा और
सोफा बन अपना दर्द सुनायेगा।
(6)बुढ़ापे पर सवार अजगर
बड़ी मासूमियत से
बुजुर्ग पिता ने कहा-
बेटा]
बुढ़ापा अजगर सा आकर
मेरे बुढ़ापे पर सवार हो गया है
जिसने जकड़ रखे है मेरे हाथ पैर
न चलने देता है
न उठने-बैठने देता है।
बेटा,
मेरे बाद
तेरी माँ को
अपने ही पास रखना।
पिता के चेहरे पर
पसरी हुई थी उदासी ओर भविष्य की चिंता
सारा दर्द छिपाकर वे
मुस्कुराने का अभिनय कर रहे थे।
उनकी बेबसी पर
मैं अबाक था!
पिता के गालों पर
अनगिनत झुर्रियां
रोज-रोज बढ़ती जाती है
और उनके पैरों पर सूजन है।
मेरी पूरी कोशिश
मेरा पूरा उपक्रम
पिता को निरोगी रखने में लगा है
और वे स्वस्थ्य रहने का
हर विधान का पालन भी करते है।
मेरा पूरा विश्वास
पिता के मन में
अंतिम साँसों तक
जीवन से कभी हार न मानने
मौत से अपराजेय रहने की
असीम ताकत जुटाने में लगा है।
वे टूट जाते है
जब उन्हें अपनी ही औलाद
खून के आँसू रूलाती है
बिना बातचीत किये
बेशर्मी से उनके पास से गुजर जाती है।
वे खुद पर झल्लाते है
अपने बुढ़ापे से विद्रोह कर
बुढ़ापे को अजगर बताते है, ताकि
मजबूर और लाचार करने
सपनों को मुर्दा करने वाली संतान, उन्हें न भूले।
पीव उन औलादों को
वे आज भी सीने से लगाने को
तरस रहे है
और अपने बुढ़ापे की मजबूरी में
उनका मन भर आने के बाद भी
औलाद को माफ करके
उनके लौट आने के
विश्वास में सारा दर्द पीकर
खुद अकेले कमरे में
बुढ़ापा को गले लगाकर जी रहे है।
(7)खानाबदोश झुग्गियां
भारत के हर शहर में
होती है अछूत झुग्गियां
बसाहट से दूर
किसी भी सड़क के किनारे
खास मौके पर
चार खूटियों और तिरपाल से
तन जाती है दर्जनों झुग्गियां।
ये वे अछूत झुग्गियां है
जिनमें रहने वाले गरीब
दो वक्त की रोटी कमाने
हर शहर की गली-कूंचे में
घरों-महलों की सजावट का
सामान बेचते है
और अपने परिवार के
पेट भरने के लिये लाते है
दो वक्त का आटा
कुछ भाजी-तरकारी ।
उन्हें पता होता है कि
किस शहर में
कब लगता है मेला
बस वे मेले-ठेले में
कमाकर मनाते है दीवाली।
वे अछूत झुग्गीवाले हैं
जिन्हें कभी किसी सरकार ने
झुग्गियॉ के लिये पटटा नहीं दिया
उनकी पीड़ा को सुनने वाला
कोई नेता नहीं होता
कोई सरकार नहीं होती
वे रोये तो किसके सामने रोये
इसलिये उन्होंने रोना-धोना छोड़
मस्ती में जीना सीखा है।
महीना-दो महीना बाद
उनकी अछूत झुग्गी को
पंख लग जाते है
और वे फिर चल पड़ते है
दूसरों शहर की ओर।
वे किसी शहर के वासी नहीं
उनके पास वोटर आईडी कार्ड नहीं
वे सड़क के किनारे
परदेनुमा छत के नीचे
शीलनदार जमीन में पैदा हुये है।
माता-पिता से उन्हें
बस इतना ही पता होता है
किस शहर में वह जन्मा है
गरीबी का अभिशाप
उन्हें पढ़नेसे दूर रखे है
वे अपनी अछूत झुग्गी के बाहर
आग से तप रही धोंकनी में
कोयला डालना सीखने
हथोड़ा-घन चलाकर
घरों के हँसिये-कुदाली को
ढ़ालने में लगे होते है
पीव ठुठुराती ठण्ड में भी
लोगों के हाड़मांस कँपाने से
बचने का साधन होता है
ये अर्धनग्न लोग
फटेहाल कपड़ों के बिना
ठण्ड से पंगा लेकर जीते हैं।
(8)यह खूनी सड़क
मेरे शहर की यह शांतचित्त सड़क
कभी बहुत खिलखिलाया करती थी
बचपन में इसके तन पर
हम खेला करते थे गिल्लीडंडा
तब कभी कभार दिन में दो-चार
बसें और इक्का-दुक्का वाहन
भोंपू बजाकर सड़क से गुजर जाते थे।
पूरे शहर के हर मोहल्ले के बच्चे
इस सड़क पर इकटठा होते और
कोई गिल्लीडंडा खेलता तो
कोई दो चके वाली गाड़ी में
बच्चें कें बैठा खींचकर ले जाता
तब इस सड़क की पूरी चेतना
चिंतन और विचार तथा हृदय
मनुष्यों की तरह होता और
भूल या गल्ती से गिरने वाले को
यह सड़क अपनी बाँहों में संभाल लेती।
इस सड़क पर गिरकर
कभी कोई पंगु या लाचार नहीं हुआ
ज्यादा हुआ तो किसी के चोट में
घुटने-पैर में छीलन या मोच आती
और घर जाकर हल्दीवाला दूध पीते ही
वह फिर लौटकर इस सड़क पर
धमाचैकड़ी करता जी भर खेलता
और सड़क का स्पर्श उसे
माँ की गोद का स्मरण कराता ।
बच्चों को मातृत्व सुख देने वाली
इस सड़क को बरसों बाद
खूनी सड़क के नाम से पुकारे जाने पर
हमें गहरा दुख और आश्चर्य हुआ।
आखिर यह आदर्श सड़क
खूनी क्यों हुई इस पर चिंतन हुआ।
पता चला
कुछ सांमतवादी पूंजीपतियों ने
इसे अन्य सड़कों से ज्यादा उपयोगी
महत्वपूर्ण मानकर] अपने लालच से
कुटिलता की सुदृढ़ता प्रदान करने
इसके मूल स्वरूप पर
बेईमानी की कई परतें चढ़ाई गयी
और कई टन-लोहा सीमेंट कंकरीट से
आहत कर इसका मुस्कुराना छीना।
नर्मदा-तवा के हृदय में छेद कर
बेशुमार रेत का अवैध भण्डारन करने
इसी सड़क की छाती पर अंधाधुंध
दौड़ने लगे हजारों वाहन
जो नर्मदा तवा का अस्तित्व समाप्त करने
चैबीसों घन्टे इस सड़क पर
तीव्रगति वाहनों के भार से प्रहार।
जब भी कभी इस सड़क से जुड़ा
कोई अपनापन लिये व्यक्ति
अपने घर,मंजिल की ओर कदम बढ़ाता
तब ये तीव्रगति वाहन
निर्दयी बने उसे रोंदकर मार डालते
तोड़ देते उसके अस्थिपंजर
और जिंदगी भर के लिये अपंग बना देते
तब यह सड़क खुद को चोटिल समझ
चीत्कार उठती थी,उस मनुष्य के लिये।
परन्तु दुनियावाले भारी वाहनों के चालकों पर
इल्जाम लगाने की बजाय इस सड़क को
खूनी सड़क कहने लगे
और यह निर्दोष सड़क
दुनियावालों की नजर में बदनाम
एक खूनी सड़क हो गयी, जो वह नहीं है।
आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रकार
काली मंदिर के पीछे, पत्रकार आत्माराम यादव गली
वार्ड नंबर 31 ,ग्वालटोली होशंगाबाद मध्यप्रदेश
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