शोधकार्य में शोध निर्देशक की भूमिका शोधार्थी - मनीष कुमार कुर्रे हिन्दी विभाग , शास 0 दिग्विजय स्वशासी महा 0 राजनांदगाँव (छत्तीसगढ़) ईमे...
शोधकार्य में शोध निर्देशक की भूमिका
शोधार्थी - मनीष कुमार कुर्रे
हिन्दी विभाग, शास0 दिग्विजय स्वशासी महा0 राजनांदगाँव (छत्तीसगढ़)
ईमेल manishkumarkurreymkk@gmail.com
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विषय प्रवेश : - आज शोध कार्य उच्च स्तर का होते जा रहा है और इसका क्षेत्र भी वृहद है। शोध कार्य को केवल शोधार्थी स्वयं ही पूरा नहीं कर सकता। इसके लिए शोधार्थी को निर्देशन की आवश्यकता होती है इसी कारण वह शोध निर्देशक का चुनाव करता है। शोध निर्देशक शोध कार्य की आधारशिला होती है, बिना शोध निर्देशक के शोधार्थी अपना शोध कार्य पूर्ण नहीं कर सकता है। अपनी भूमिका निर्वहन करते हुए शोध निर्देशक शोधार्थी के शोध कार्य को सही दिशा प्रदान करने में सहायक होता है, विद्यमान त्रुटियों का मार्जन भी करता है किन्तु शोधार्थी में जब तक स्वयं जिज्ञासा और रूचि उत्पन्न नहीं होती तब तक निर्देशक भी अच्छी रूपरेखा निर्धारण करने में असमर्थ हैं।
शोध निर्देशक ही शोधार्थी तथा शोधकार्य की गत्यात्मक शक्ति है पर यह भी सत्य है कि महाविद्यालय-भवन, पाठ्यसामग्री, सहभागी क्रियाएँ, निर्देशन आदि सभी शोध में महत्वपूर्ण स्थान रखती है किन्तु अच्छे शोध निर्देशक द्वारा जीवन शक्ति प्रदान नहीं की जायेंगी तब तक वे निरर्थक रहेंगी। शोध निर्देश वह शक्ति है जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शोधार्थी तथा शोधकार्य में अपना प्रभाव डालती है। निर्देशन के माध्यम से व्यक्ति को अपने आपको समझ पाने, अपनी योग्यता तथा सीमाओं के अन्तनिर्हित सामर्थ्य को समझने एवं स्तर के कार्यों को करने में सक्षम बनाता है।
अब शोध निर्देशन से पूर्व निर्देशन क्या है ? यह समझना आवश्यक है -
निर्देशन का अर्थ : -
जब मानव विकास पथ पर अग्रसर होने के लिए दूसरे के अनुभव, बुद्धि, और विवेक का सहारा लेता है तो दूसरे व्यक्ति के द्वारा इस प्रकार की गई सहायता निर्देशन कहलाती है। निर्देशन प्रक्रिया में किसी व्यक्ति के अन्दर ज्ञान का विकास नहीं अपितु उस व्यक्ति के अन्दर पहले से उपस्थित ज्ञान को एक सही मार्गदर्शन देकर उसे लक्ष्य तक पहुँचाया जाता है।
साधारण शब्दों में निर्देशन वह प्रक्रिया है जिसमें हमें अनुभवी व्यक्ति के द्वारा सही मार्ग प्रशस्त किया जाता है लेकिन इसमें जबरन दिशा प्रदान नहीं की जाती, बल्कि ग्रहणकर्ता के इच्छा कायम रहती है।
दूसरे शब्दों में निर्देशन वह प्रक्रिया है जिसमें अनुभवी व्यक्ति के द्वारा किसी अन्य व्यक्ति को उसकी क्षमता, कुशलता, सम्भावना, अभिरूचि, व्यवहार तथा प्राकृतिक योग्यता को जानने तथा इनसे अधिकतम लाभ उठाकर स्वयं का तथा समाज का विकास करने के लिए दिया जाता है।
परिभाषा : -
(1) जोनज के अनुसार : - '' निर्देशन व्यक्ति की वृद्धि की स्वदिशा में उन्नति है।''
(2) डेविड वी0 टिडमैन : - '' निर्देशन का लक्ष्य लोगों को उद्देश्यपूर्ण बनाने में है न कि केवल उद्देश्यपूर्ण क्रिया में सहायता देना है।''
(3) गुड के अनुसार : - '' निर्देशन व्यक्ति के दृष्टिकोणों एवं उसके बाद के व्यवहार को प्रभावित करने के उद्देश्य से स्थापित गतिशील आपसी संबंधों का एक प्रक्रम है।''
शोध निर्देशक का चुनाव : - शोध निर्देशक का चुनाव शोध प्रक्रिया में प्रथम सोपान है। निर्देशक का चुनाव योग्यता व अनुभव के आधार पर किया जाता है। विश्वविद्यालय एवं शोध संस्थानों में निर्देशक चुनाव कुछ औपचारिक योग्यताओं के आधार पर निश्चित होते हैं। निर्देशक शोधार्थी को गंतव्य तक पहुँचाता है वह उसके प्रत्येक पग पर दृष्टि ही नहीं रखता वरन उसे डगमगाने से भी बचाता है। इस तरह कबीर के शब्दों में निर्देशक वह गुरू है जो शोधरूपी गोन्विद से साक्षात्कार कराने की साधना सिखाता है। शोध निर्देशक अनुभवी होता है जो संबंधित विषय में कम से कम पी-एच0डी0 तो होता ही है। प्रायः प्रत्येक विषयों में अनुभवी शोध निर्देशकों को ही मान्यता दी जाती है जो शोध में सतत् संलग्न रहते हैं अर्थात उनके राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय स्तर की शोध-संगोष्ठियों में भागीदारी, शोध आलेखों का प्रकाशन, शोध कृतियों का लेखन अब शोध निर्देशकों की कसौटी बन गई है।
शोध निर्देशक के चुनाव में मुख्यतः दो स्थिति हो सकती है -
(अ) विषय के अनुसार निर्देशक का चुनाव।
(ब) निर्देशक के अनुसार विषय चुनाव।
शोध निर्देशक को निर्देशन हेतु निम्न सिद्धांतों एवं सीमाओं को अपनाना चाहिए : -
शोधार्थी के लिए शोधकार्य करने हेतु निर्देशक का बंधन भी होता है। निर्देशक का कार्य औपचारिक दृष्टि से केवल निर्देशन करना होता है किन्तु आजकल स्तर की गिरावट के कारण निर्देशक से अनावश्यक अपेक्षाएँ की जाने लगी है और उनका लाभ उठाकर कुछ निर्देशक व्यावसायिक ढ़ंग से शोधार्थी को शोध कार्य कराते हैं। निर्देशक के लिए अनेक विश्वविद्यालय में विशेष सुविधाएँ नहीं दी जाती है, उन्हें अलग से इसके लिए कोई वित्तीय साधन भी उपलब्ध नहीं कराये जाते और निर्देशक को केवल यही उपलब्धि होती है कि उसने कितने छात्रों को पी-एच0डी0 कराया है। इस कारण वह इसे अधिक सतर्कता से नहीं लेते और समय भी नहीं देते हैं।
निर्देशन के जो सिद्धांत हैं उनके अनुसार निर्देशक को व्यवसायिक दृष्टि से शोधार्थी को शोध कार्य स्वयं लिखवाने के बजाय उन मापदंडों का पालन करना चाहिए जिससे की शोधछात्र उपना शोध प्रंबध स्वयं लिखें और वे ही शोध करें जिनमें इसकी क्षमता है। अतः निर्देशन की निम्न सिद्धांत एवं सीमाएँ इस प्रकार हो सकती है -
(1) ज्ञान का सिद्धांत (2) सार्वभौमिकता का सिद्धांत (3) निरन्तरता का सिद्धांत (4) सामाजिकता का सिद्धांत (5) नैतिकता का सिद्धांत (6) विश्लेषण का सिद्धांत (7) वैज्ञानिकता का सिद्धांत (8) सकारात्मकता का सिद्धांत (9) आत्मनिर्भरता का सिद्धांत (10) स्वतंत्रता का सिद्धांत (11) लचीलेपन का सिद्धांत (12) व्यक्तिगत महत्व एवं समानता का सिद्धांत (13) व्यक्तिगत भिन्नता का सिद्धांत (14) निरपेक्षता का सिद्धांत (15) गोपनीयता का सिद्धांत।
उपर्युक्त सिद्धांत एवं सीमाओं को ध्यान में रखकर शोध निर्देशक एक सही शोघ सम्पन्न करा सकता है। इसके बिना किसी भी शोधार्थी का शोध कर पाना कठिन हो जाता है।
शोध कार्य में निर्देशन की समस्याएँ : -
1. जागरूकता की कमी :- जागरूकता का अभाव समाज व देश को पिछे की ओर ले जाती है। जिसे सही निर्देशन के द्वारा समस्या को दूर किया जा सकता है।
2. उपयुक्त प्रशिक्षण का अभाव :- निर्देशकों को उपयुक्त प्रशिक्षण न मिलना भी निर्देशक की उदासीनता का प्रमुख कारण है। आज जितने संख्या में शिक्षक प्रशिक्षित होते हैं यदि उसका 10 प्रतिशत भी निर्देशकों का प्रशिक्षण दिया गया होता तो निर्देशकों की कमी का सामना नहीं करना पड़ता।
3. कुशल निर्देशकों का अभाव :- आज महाविद्यालय में या तो निर्देशकों की नियुक्ति ही नहीं की गई और नियुक्ति की भी गई है तो बहुत कम निर्देशक ऐसे हैं जो अपने कार्य को दक्षता पूर्वक सम्पन्न कर पाते हैं। इसका प्रमुख कारण प्रशिक्षण का न होना, रूचि का न होना, कार्यभार की अधिकता आदि है।
4. तीव्रता से बदलती सामाजिक परिस्थितियाँः- जब एक प्रकार की परिस्थिति में निर्र्र्र्देशन प्राप्त करके व्यक्ति जब बदली हुई परिस्थितियों में प्रयोग करता है तो सफलता की संभावनाएँ कम हो जाती है और इसका दोष निर्देशक पर मढ़ दिया जाता है।
5. व्यक्तिगत सापेक्षता :- मानव की स्वभावगत विशेषता के कारण निर्देशक में भी व्यक्ति सापेक्षता आ जाती है जो शोधकार्य में नकारात्मक प्रभाव डालती है। दूसरे शब्दों में व्यक्ति के स्वभाव, प्रतिक्रिया आदि के प्रभाव में आकर निर्देशक दो अलग-अलग प्रकार से निर्देशन देने लगता है जो निर्देशन सिद्धांतों के विरूद्ध है।
6. व्यक्तिगत विचारधारा :- जब कभी निर्देशक और शोधार्थी विपरीत जीवन दर्शन को मानने वाले होते हैं तब निर्देशन की प्रक्रिया बहुत कठिनाई से हो पाती है। इस प्रकार निर्देशक के व्यक्तिगत जीवन दर्शन का प्रभाव शोध कार्य पर भी पड़ता है जो सदैव शोधार्थी के लिए उपयोगी हो जरूरी नहीं है।
7. प्रोत्साहन का अभाव :- निर्देशकों का अत्यधिक अभाव होने के बाद भी निर्देशन कार्य के लिए किसी प्रकार का प्रोत्साहन नहीं दिया जाता और न तो निर्देशक के पास उनके शोधार्थी की सफलता का श्रेय होता है और न ही कोई अन्य लाभ।
8. शिक्षा का गिरता स्तर :- आज शोध कार्य के गिरते स्तर का प्रमुख कारण शिक्षा के गिरते स्तर को भी माना जा सकता है। शोध छात्र अनुपयुक्त रास्तों को अपनाकर श्रेष्ठ परिणाम प्राप्त करने का सफल प्रयास करता है जिसकी गारेन्टी कुशल निर्देशक भी नहीं ले सकता।
शोधकार्य की समस्या का समाधान (उपाय)
समस्या समाधान का सबसे पहला उपाय है उचित निरीक्षण की व्यवस्था। वर्तमान में शोधार्थियों की संख्या के अनुपात में निरीक्षकों (निर्देशकों) की संख्या वास्तव में बहुत कम है। परिणाम स्वरूप यह होता है कि एक-एक निरीक्षक के अधीन अनेक प्रकार का शोध कार्य हो रहा है। कहीं निरीक्षक और शोधार्थी में कम से कम दो तीन बार ही मुलाकात हो पाती है। कहीं निरीक्षक को शोधप्रबंध पढ़ने का ही अवकाश नहीं और कहीं शोधार्थी अनुभव करता है कि निरीक्षक महोदय से तो मैं ही अधिक जानता हूँ ! ये परिस्थितियाँ वास्तव में विचारणीय है किन्तु इसके लिए शोध निर्देशक या निरीक्षक को दोष देना सर्वथा अनुचित होगा। निरीक्षक की अपनी सीमाएँ होती है - बौद्धिक भी और शारीरिक भी। शारीरिक का अर्थ है वह शोध कार्य को दैनिक या नैतिक कार्य के साथ तीन-चार से अधिक बार निरीक्षण नहीं कर सकता और बौद्धिक का आश्य है कि निरीक्षक विशेषज्ञ हो सकता है सर्वज्ञ नहीं। एक ही निरीक्षक या निर्देशक को आल्हखण्ड़, कामायनी, की भाषा , छायावाद, रीतिकाल और कहानी की शिल्पविधि जैसे सर्वथा असंबद्ध विषयों का निर्देशन करना पड़ता है।
इसके अतिरिक्त एक ठोस उपाय है शोधपूर्व शिक्षण-क्रम की व्यवस्था। शोधार्थी को उसकी रूचि के अनुकूल विषय देकर निर्देशन की व्यवस्था कर देनी चाहिए कि सामग्री का संकलन और कम से कम भूमिका भाग लिख लेने के बाद ही उसका नियमित प्रवेश हो सकेगा। इसके दो लाभ होते हैं एक तो उन शोध छात्रों की झूठी भूख मर जाती है जो किसी और कार्य के अभाव में इच्छा- अनिच्छापूर्वक शोध कार्य के लिए टूट पड़ते हैं और दूसरा सच्चे शोधक को अपनी सीमा और शक्ति समझने, शोध का पूर्वाभास करने और विधि का उचित ज्ञान प्राप्त करने का अवसर प्राप्त हो जाता है।
शोध निर्देशक की अर्हताएँ :-
उत्तम शोध में निर्देशक का स्थान बहुत ऊँचा और महत्वपूर्ण होता है। बलिहारी गुरू आपनै जिन गोविन्द दियो बताय कबीर का यह कथन शोध क्षेत्र पर भी पूर्णतः चरितार्थ होता है। शोध के प्रत्येक स्तर और स्थल पर निर्देशक ही विषय प्रसारण, तथ्यों की न्यायसंगता, उनके विश्लेषण और निष्कर्षों के खरेपन की जाँच-पड़ताल में प्रेरणा और दिशा प्रदान कर सकता है। निर्देशक शोधार्थी के मानसिक दुर्बलताओं और धैर्यहीनता पर विजय पाने के लिए प्रोत्साहित करता है। निर्देशक की इन अर्हताओं को हम इस प्रकार देख सकते हैं -
(1) शोधार्थी की योगयता की पहचान :- निर्देशक को शोधार्थी की योग्यता की पर्याप्त निरख-परख के पश्चात् ही अपने निर्देशन में उसके पंजीकरण की सिफारिश करनी चाहिए क्योंकि सही शोधार्थी के चयन द्वारा ही श्रेष्ठ शोध हो सकता है।
(2) अपनी क्षमता का परिचय :- शोध निर्देशक को अपनी क्षमता का पूरा परिचय देना चाहिए। उसमें लालच नहीं होनी चाहिए कि अधिक संख्या में पी-एच0डी0 कराने से उसके मान में चार चाँद लग जायेंगे। कोई भी व्यक्ति साहित्य के सभी पक्षों का ज्ञाता नहीं हो सकता और न ही सभी विषयों का शोध निर्देशक ही। यदि निर्देशक इन तथ्यों को भुलाकर धड़ाधड़ किसी भी विषय पर निर्देशन देने को तैयार हो जाता है तो भले ही उसके शोधार्थी पी-एच0डी0 उपाधि प्राप्त कर ले, लेकिन उसके निर्देशन में हुआ कार्य उच्च स्तरीय नहीं हो सकता है। निर्देशन क्षमता का संबंध उपाधि से न होकर विषय से होता है और विषय का सतही ज्ञान विषय का सही ज्ञान नहीं माना जा सकता। आजकल विश्वविद्यालय पद पर बैठे प्राध्यापकों को निर्देशन का काम दे दिया जाता है किन्तु विश्वविद्यालय के बाहर भी स्वतंत्र रूप से श्रेष्ठ साहित्य सेवी भी मिलते हैं जिनसे निर्देशक के निर्देशन नहीं मिलने पर साहित्य सेवी से निर्देशन प्राप्त किया जा सकता है।
(3) निर्देशन अवकाश :- निर्देशक के पास निर्देशन के लिए पर्याप्त अवकाश होना चाहिए। बहुत से निर्देशक समयाभाव की शिकायत करते हैं जबकि उनके निर्देशन में एक ही समय पर पाँच से लेकर दस तक शोधार्थी शोधरत रहते हैं। शोधार्थी उनके नाम की मुहर का ठप्पा लगवाने के लिए व एक बार उनके निर्देशन में पंजीकृत होना अपना सौभाग्य समझते हैं। ऐसे शोधार्थी को निर्देशक घिसटते हैं और बाद में या तो स्वयं या निर्देशक के निवेदन पर किसी अन्य विद्वान की शरण में चले जाते हैं या फिर शोधार्थी कुंठित होकर बीच में ही शोधकार्य छोड़ देते हैं। विश्वविद्यालय की ओर से समयसारणी में कम से कम एक घंटे का शोध निर्देशन हेतु विधान होना चाहिए ताकि अलग-अलग दिनों पर अलग-अलग शोधार्थी अपनी समस्याओं का समाधान प्राप्त कर सकें।
(4) कर्मठता, धैर्य एवं सहिष्णुता :- शोध निर्देशक को कर्मठ, धैर्यवान एवं सहिष्णु होना आवश्यक है। शोध में उत्पन्न समस्याओं का निर्देशक को सामना कर समस्या दूर करना चाहिए, उसे टालना नहीं चाहिए। यदि निर्देशक ऐसा नहीं करता तो शोधार्थी गुमराह हो सकता है। कई बार निर्देशक अपने पूर्वाग्रहों के अधीन किसी समस्या पर पुनर्विचार जरूरी नहीं समझता और शोधार्थी का अभिमत बदलवाकर गलत कर देता है।
(5) ज्ञान सीमा :- निर्देशक को अपनी ज्ञान सीमा के संबंध में भी स्पष्ट बता देना चाहिए। समस्या विशेष अथवा क्षेत्र विशेष में यदि निर्देशक अनभिज्ञ है तो उसे शोधार्थी को अपनी अनभिज्ञता प्रकट कर देनी चाहिए और स्वयं उस दिशा में सही ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। यदि शोधार्थी अपनी समस्या लेकर अन्य विद्वान से सहायता लेता है तो निर्देशक को बुरा नहीं मानना चाहिए। इस प्रकार की स्पष्टवादिता अंततः निर्देशक और शोधार्थी दोनों के हित में रहती है।
(6) तटस्थता :- निर्देशक को उद्धरणों के दृष्टि से तटस्थता का परिचय देना चाहिए। बहुधा निर्देशक शोधार्थी को अपने मित्रों, विभागाध्यक्ष और संभावित परीक्षकों के ग्रंथों से उद्धरण लेने के लिए कभी दबी जुबान से तो कभी प्रकट रूप में कहता है, भले ही विषय से संबंध ही न हो। शोधार्थी भी दूषित राजनीति के वातावरण को देखते हुए ऐसा करना हितकारी समझता है जो शोध दर्शन के सर्वथा प्रतिकूल है।
निर्देशक के गुणों में हम उसकी विचारशीलता, कलाभिरूचि, स्पष्टता इत्यादि कई गुणों का समावेश कर सकते हैं। निर्देशक इन बातों को ध्यान रखकर एक श्रेष्ठ शोध निर्देशक बन सकता है।
निष्कर्ष :-
अंततः निर्देशक के संबंध में मैं कहना चाहुँगा कि उनको यह नहीं भूलना चाहिए कि उनका प्रमुख कार्य केवल निर्देश देना नहीं वरन् शोधार्थी को ज्ञान का परिचय कराना और केवल ज्ञान नहीं कराना है वरन् उसमें चरित्र एवं जीवन निर्माण की आधारशिला भी रखनी है। निर्देशक को सदैव सकारात्मक निर्देश देना चाहिए तथा आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास करना चाहिए। शोधार्थी को निर्देशन को मानने व न मानने में स्वतंत्रता देनी चाहिए तथा निर्देशन प्रक्रिया लचीली होनी चाहिए। शोधार्थी पग-पग में शोध निर्देशेक से निदेश लेना उचित समझता है। शोधार्थी और शोध निर्देशक दोनों गुरू-शिष्य परम्परा को जीवित रखे हुए हैं। जब शोधार्थी ''गाइड'' को ''गॉड'' मानता और निर्देशक को सद्गुरू समझता है तभी साधना सफल एवं सार्थक होती है।
संदर्भ :-
(1) निर्देशन एवं परामर्श, उत्तराखण्ड़ मुक्त विश्वविद्यालय, MAED201 पाठ्यक्रम, पृष्ठ - 2 से 9 ।
(2) शैक्षिक निर्देशन एवं परामर्श, केवीदेवलाइब्रेरी, केन्द्रीय विद्यालय देवाली नाशिक, पृष्ठ -1 ।
(3) अनुसंधान प्रविधि और प्रक्रिया, डॉ0 विनय कुमार पाठक, डॉ0 (श्रीमती) जयश्री शुक्ल, भावना प्रकाशन दिल्ली 2010, पृष्ठ - 63 से 65।
(4) अनुसंधान की प्रविधि और प्रक्रिया, डॉ0 राजेन्द्र मिश्र, तक्षशिला प्रकाशन दरियागंज नई दिल्ली 2002, पृष्ठ - 30/31 ।
(5) प्रभावशाली शिक्षण में शिक्षक की भूमिका, कालिका प्रसाद सेमवाल, प्रवाह पत्रिका मई-सितम्बर 2015, पृष्ठ - 17/18 ।
(6) अनुसंधान प्रविधि और क्रिया, डॉ0 एस0 एन0 गणेशन, प्रो0 मद्रास विश्वविद्यालय मद्रास, लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद 2009, पृष्ठ - 35।
(7) अनुसंधान स्वरूप एवं आयाम, डॉ0 उमाकान्त एवं डॉ0 बृजरतन जोशी, वाणी प्रकाशन दरियागंज नई दिल्ली 2016, पृष्ठ - 71 से 73 ।
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