श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग सन्तकवि पं. श्रीधर स्वामी महाराज कृत मराठी श्रीराम-विजय रामायण तथा अल्पज्ञात प्रसंग दो. - ब्रह्म राम त...
श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग
सन्तकवि पं. श्रीधर स्वामी महाराज कृत मराठी
श्रीराम-विजय रामायण तथा अल्पज्ञात प्रसंग
दो. - ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि।
रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि।।
श्रीराम. च. मा. बालकाण्ड २५
इस प्रकार नाम निर्गुण और ब्रह्म सगुण राम दोनों से बड़ा है। यह वरदान देने वालों को भी वर देने वाला है। श्री महादेवीजी ने अपने हृदय में यह जानकर-समझकर ही सौ करोड़ श्रीरामचरित्रों में इस 'राम’ नाम को (सार रूप से चयन कर) ग्रहण किया है।
इस ही बात को विशेष रूप से दृष्टिगत रखते हुए मराठी रामायण श्रीराम-विजय की संक्षिप्त जानकारी एवं कथा प्रसंग दिये जा रहे हैं। मराठी भाषा में सन्तकवि पं. श्रीधर स्वामी महाराजकृत रामायण आज भी उतनी ही अधिक लोकप्रिय है जैसी आज भी घर-घर में पारायण की जाने वाली श्रीरामचरितमानस। इसके कथानक पर भावार्थ रामायण की गहरी छाप है। श्रीराम विजय इसके अतिरिक्त श्री वाल्मीकि रामायण एवं हनुमन्नाटक पर भी आधारित है। पं. श्रीधर स्वामी महाराज पर सन्त एकनाथजी कृत मराठी भावार्थ रामायण का प्रभाव देखा जा सकता है। इनकी इस कृति में कठिन शब्दों का बहुत कम प्रयोग किया गया है। इनकी वर्णन शैली पाठकों और श्रोताओं के सामने रामायण की घटनाओं को मूर्त चित्रों में प्रस्तुत करने में समर्थ और सफल रही है। इन्होंने मराठी के प्रसिद्ध छन्द (ओवी) का सफल प्रयोग किया है। ओवी में चार चरण होते हैं, प्रथम तीन ही तुकान्त होते हैं। ओवी के प्रथम तीन चरणों में से प्रत्येक में आठ-आठ और अंतिम में सात अक्षर होते हैं। ओवी छन्द चौपाई से बहुत कुछ मिलता-जुलता होता है। इस रामायण में ४० अध्याय और लगभग ९१०० ओवी छन्द है।
पं. श्रीधर का जन्म बीजापुर क्षेत्र के नाझरे गाँव में सन् १६५८ में हुआ था। श्रीधर के पूर्वज समय-समय पर खड़की, नाझरे, निराड़ी आदि गाँवों में रहते थे। इनके पूर्वजों में से एक श्री राघोपन्त बीजपुर दरबार में अश्वदल के अधिकारी भी रहे। राघोपन्त नाझर तहसील के अधिकारी होकर नाझरे गाँव में आकर बस गए। यही नाझरे गाँव में पं. श्रीधर का जन्म ई. १६५८ में हुआ। श्रीधर के पिता सपरिवार पंढरपुर में १६७८ में आकर रहने लगे। श्रीधर का इस पुण्यक्षेत्र में लगभग १७३० ई. में देहान्त पंढरपुर में हो गया।
पं. श्रीधर के पिता का नाम 'ब्रह्माजी’ था। ब्रह्माजी ने संन्यास दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् ब्रह्मानंद के नाम से प्रसिद्ध हो गए। श्रीधर के गुरु इनके पिता थे। श्रीधरजी पर संस्कृत भाषा तथा मराठी का बहुत अधिक प्रभाव था। पं. श्रीधर को कवित्व शक्ति धरोहर के रूप में इनके वंशजों से प्राप्त थी। श्रीधर के पुत्र दत्तात्रेय भी कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं।
दशरथजी की चिन्ता, स्वप्न, श्रवण
का वध और शाप या वरदान प्रसंग
जिस प्रकार जलहीन कुओं और राजा के अभाव में नगर व्यर्थ होता है वैसे ही पुत्र के अभाव में घर व्यर्थ होता है। सन्तान नहीं होने से राजा दशरथ रात-दिन चिन्ता करते थे तथा शिकार के बहाने हमेशा सुनसान गहन वन में चले जाते थे। उनकी छत्र-सिंहासन, कला-कौशल एवं संगीत-गायन आदि में कोई रुचि नहीं रही। एक बार दशरथजी ने एक स्वप्न देखा-
तो दशरथे स्वप्न देखिले। दोघे पुरुष आपण वधिले।
अणि एके स्त्रियेसी मारिले। अपराधेविण तत्वता।।
गजबजोनि उठिला त्वरित। कौणा सी न बोले मूकवत।
वसिष्ठ गृहास जाऊन त्वरित। नमोनि स्वप्न सांगतसो।।
मराठी श्रीराम-विजय रामायण अध्याय ३-२४-२५
दशरथ ने एक स्वप्न देखा, जिसमें उन्होंने यह देखा कि स्वयं ने दो पुरुषों का वध किया और एक स्त्री को भी मार डाला वह भी वस्तुत: बिना उनके द्वारा किए गए अपराध के कारण। राजा तुरन्त उठ खड़ा हुआ और गुरु वसिष्ठ के घर जाकर उनको नमन कर अपना पूरा स्वप्न बता दिया। गुरु वसिष्ठ ने राजा से कहा कि यह स्वप्न अशुभ है। अत: तुम तीन हिंसक पशुओं का वध करो ताकि इस स्वप्न का दोष निवारण हो सके। गुरु की आझा शिरोधार्य कर राजा उस दिन तुरन्त शिकार के लिए चल पड़े। सूर्यास्त हो गया किन्तु कोई हिंसक पशु दिखाई नहीं दिया। अंत में रात्रि के समय राजा एक सरोवर के किनारे वृक्ष पर चढ़ कर बैठ गए। उस समय उनको कुछ आहट सुनाई पड़ी।
श्रवण अपने दोनों बूढ़े माता-पिता को कंधे पर काँवर में बैठाकर उस सरोवर के तट पर पहुँचा। उन बूढ़ों ने श्रवण से कहा- हमें पानी पिलाओ। इतना सुनकर श्रवण ने काँवर को धरती पर रखा और हाथ में कमण्डल लिये पानी में घुस गया। दशरथजी ने आहट सुनकर तीक्ष्ण बाण चलाया। बाण श्रवण के हृदय में घुस गया तथा कमण्डल उसके हाथों से नीचे गिर पड़ा। उसने देह को जमीन पर गिरा दिया। श्रवण के प्राण निकलना ही चाहते थे कि वह बोला, 'यह किस भगवान् का बाण है जो मेरे राम नाम का स्मरण करता आया है।’ मनुष्य के वचन सुनकर राजा दशरथ दौड़कर उसके पास पहुँच गए। राजा ने कहा- यह पापकारी कर्म है मुझे मनुष्य हत्या का दोष लग गया। यह सुनकर श्रवण ने कहा- राजन् इसका जरा भी खेद न करो। मेरे माता-पिता वृद्ध और असहाय हैं, उन्हें तुम पानी पिलाओ तो मैं सुखपूर्वक प्राणों का त्याग करूँगा। उनकी सेवा के लिए अब कोई नहीं है। श्रवण ने कहा- दशरथ महाराज उन दोनों को जल्दी ही पानी पिलाकर बाद में मेरा यह दु:खद समाचार कहना, नहीं तो वे तुरन्त प्राणों को त्याग देंगे।
दशरथजी उन दोनों वृद्धों के पास जल लेकर पहुँचे। वृद्धों ने कहा- बेटा श्रवण! यह सुनकर राजा चुपचाप रहा। वे फिर बोले- श्रवण बेटा, तू क्यों नहीं बोल रहा है? इतनी रात गए पानी माँगा, इसलिए लगता है कि तू क्रुद्ध हैं, वत्स, तू बहुत थक गया। सूर्यास्त हो गया है। बच्चा तू क्यों नहीं बोलता। दशरथ ने उनसे कहा कि- मैंने अचानक अनजाने में श्रवण का वध कर दिया है। यह सुनते दोनों वृद्धों ने देह भूमि पर गिरा दी। श्रवण के गुणों का स्मरण कर वे दोनों मलिन मुख से क्रंदन करने लग गए। हाय बेटा श्रवण! तीनों भुवनों में खोजने पर भी ऐसा पुत्र नहीं मिलेगा। अपने ऐसे गुणवान इकलौते पुत्र के गुणों का स्मरण करते हुए वे दोनों अचेत हो गए। तदनन्तर प्राणों को निकलते-निकलते उन्होंने दशरथ को शाप देते हुए कहा-
मग ती शाप देती प्राण जाता। म्हणती तुझाही पुत्र पुत्र करिता।
प्राण जाईल रे दशरथा। आम्हां ऐसा चि तात्काल।
मराठी श्रीराम-विजय रामायण बालकाण्ड अध्याय-३-५४
हे दशरथ हमारी भाँति 'पुत्र-पुत्र’ कहते-कहते ही तुम्हारे प्राण तत्काल निकल जाएँगे। इतना कहकर उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए। राजा दशरथ ने तीनों का दाह संस्कार किया और उत्तरक्रिया पूर्ण कर अयोध्या लौट आए।
राजा दशरथ मन ही मन हर्ष करते हुए अनुभव कर रहे थे कि यह शाप तो मेरे लिए एक वरदान बन गया क्योंकि इनके शाप से ही क्यों न हो शीघ्र ही मेरे पुत्र उत्पन्न हो जाएं। दशरथजी ने अयोध्या आकर वसिष्ठजी को पूरा समाचार सुनाया। कुछ समय बाद ही अयोध्या में 12 वर्ष का अकाल पड़ गया।
अहल्या की कथा, अहल्या उद्धार तथा गौतम द्वारा इन्द्र को शाप
वाल्मीकि रामायण में अहल्या उद्धार प्रसंग
श्रीराम-लक्ष्मण सहित विश्वामित्र ने मिथिला के उपवन में पुराने सुनसान आश्रम को देखा। उसे देखकर श्रीराम ने मुनिवर विश्वामित्र से पूछा- भगवन् यह दिखने में आश्रम जैसा है, किन्तु यह सुनसान आश्रम आखिर है किसका? यह सुनकर महर्षि विश्वामित्र ने बताया कि यह गौतम ऋषि का आश्रम है, यहाँ वे कभी अपनी पत्नी अहल्या के साथ निवास करते थे। एक दिन जब महर्षि गौतम आश्रम में नहीं थे, उपयुक्त अवसर देखकर इन्द्र गौतम ऋषि के वेष को धारण कर छल कपट से अहल्या के साथ दुराचार कर गया।
श्रीराम! इस प्रकार छलकपट के द्वारा अहल्या से समागम करके इन्द्र जब कुटी से बाहर निकले तब उन पर गौतम की दृष्टि पड़ी। इन्द्र भय से थर्रा उठे। दुराचारी इन्द्र को मुनि गौतम का वेष धारण किए देख गौतम ऋषि ने क्रोध में उसे यह शाप दिया-
मम रूपं समा स्थाय कृतवानसि दुर्मते।
अकर्तव्यमिदं यस्माद् विफल स्त्वं भविष्यसि।।
वा.रा. बालकाण्ड सर्ग ४८-२७
दुर्मते! तूने मेरा रूप धारण करके यह न कहने योग्य पाप कर्म किया है। इसलिए तू विफल (अण्डकोषों से रहित) हो जाएगा।
तत्पश्चात् गौतम ऋषि ने अहल्या को शाप इस प्रकार दिया-
वातभक्षा निराहारा तप्यन्ती भस्मशायिनी।
अदृश्या सर्वभूतानामाश्रमेऽस्मिन् वसिष्यसि।।
यदा त्वेतद् वनं घोर रामो दशरथात्मज:।
आगमिष्यति दुर्घर्षस्तदा पूता भविष्यसि।।
वा.रा. बालकाण्ड सर्ग ४८-३०-३१
दुराचारिणी! तू भी यहाँ कई हजार वर्षों तक केवल वायु (हवा) पीकर या उपवास करके कष्ट उठाती हुई राख में पड़ी रहेगी। समस्त प्राणियों से अदृश्य रहकर इस आश्रम में निवास करेगी। जब दुर्घर्ष दशरथकुमार राम इस घोर वन में पदार्पण करेंगे, उस समय तू पवित्र होगी। उनका आतिथ्य-सत्कार करने से लोभ-मोह आदि दोष दूर हो जाएंगे और तू प्रसन्नतापूर्वक मेरे पास पहुँच कर अपना पूर्व शरीर धारण कर लेगी।
गौतम ऋषि के शापवश श्रीरामचन्द्रजी का दर्शन मात्र होने से जबकि तीनों लोकों में किसी भी प्राणी के लिए उनके दर्शन होना अत्यंत कठिन है। अहल्या को गौतम ऋषि द्वारा दिया गया, शाप का अंत हो गया। उन सबको अहल्या दिखाई देने लग गई तब उस समय-
राघवौ तु तदा तस्या: पादौ जगृहतुर्मदा।
स्मरन्ती गौतमवच: प्रति जग्राह सा हि तो।।
वा.रा. बालकाण्ड सर्ग ४९-१७
श्रीराम और लक्ष्मण ने बड़ी प्रसन्नता के साथ अहल्या के दोनों चरणों का स्पर्श किया। अहल्या ने भी महर्षि गौतम के वचनानुसार दोनों को अतिथि के रूप में आतिथ्य सत्कार किया।
श्रीरामचरित मानस में अहल्या प्रसंग
इस ग्रन्थ में यह प्रसंग अत्यन्त ही संक्षिप्त में विश्वामित्र ने श्रीराम को बताया। श्रीराम सुबाहु का वध करके तथा धनुषयज्ञ की बात सुनकर वन में चले जा रहे थे तब उन्हें मार्ग में एक आश्रम दिखाई पड़ा। वहाँ पशु-पक्षी कोई जीव जन्तु नहीं था। पत्थर की शिला देखकर श्रीराम ने महर्षि विश्वामित्र से पूछा तब मुनि ने विस्तारपूर्वक सब कथा उन्हें सुनाई। यथा-
दो. गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।
चरनकमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड दो. २१
गौतम ऋषि की स्त्री अहल्या शापवश पत्थर की देह धारण किए बड़े धीरज से आपके चरण कमलों की धूलि चाहती हैं। हे रघुवीर! इस पर कृपा कीजिए। यहाँ यह प्रसंग अत्यंत ही संक्षिप्त में संकेत मात्र में वर्णित है।
मराठी श्रीराम-विजय रामायण में अहल्या प्रसंग
श्रीराम-लक्ष्मण सहित विश्वामित्र मुनि राक्षसों के वध उपरान्त सिद्धाश्रम से मिथिला की ओर चल पड़े। उस समय आगे वन में जाकर श्रीराम की दृष्टि एक प्रचण्ड दूर्घर शिला पर पड़ी। तब उस समय श्रीराम के चरणों के रजकण (धूलि के कण) वायु के साथ उड़कर उस शिला पर गिरे तो एक अद्भुत चमत्कार घटित हुआ। यहाँ पर कथा प्रसंग वाल्मीकीय रामायण और श्रीरामचरितमानस के ही समान है किन्तु कई कथा प्रवचनों एवं बोलचाल में कहा जाता है कि श्रीराम ने अहल्या को पाँव स्पर्श (लगाया) तो वह उठ खड़ी होकर जीवित हो गई तथा उसका शाप समाप्त हो गया। पहले तो अहल्या ब्राह्मण नारी फिर दूसरी तरफ महर्षि गौतम की धर्मपत्नी थी, ब्राह्मण महासती थी, और श्रीराम उसे अपने पाँव से स्पर्श करे, यह परिकल्पना कथा, प्रसंग हमारी संस्कृति तथा परम्परा में नहीं है अत: ऐसी कथा-परिचर्चा निंदनीय है। मराठी श्रीराम-विजय रामायण में इस प्रसंग का सविस्तार वर्णन इस प्रकार दिया जा रहा है।
श्रीराम के रजकण के शिला पर लगते ही वह शिला प्रचण्ड रूप से काँपने लगी। यह देखकर श्रीराम ने विश्वामित्र ऋषि से इस आश्चर्य का कारण पूछा तब ऋषि ने भी कहा- यह तो आश्चर्य हो रहा है किन्तु जिस प्रकार आहिस्ता-आहिस्ता चन्द्र उदित होता है वैसे ही उस चट्टान के स्थान पर एक स्त्री का दिव्य रूप दिखाई दिया। श्रीराम ने उसका परिचय विश्वामित्र ऋषि से पूछा। तदनन्तर विश्वामित्र ने कहा- हे कमलनयन श्रीराम! यह ब्रह्मा की परम पवित्र कन्या है। गौतम ऋषि (इसके पति) द्वारा अभिशप्त होने पर यह शिला रूप हो गई है। यह सुनकर श्रीराम ने कहा— हे महर्षि! कृपा करके मुझे यह वृत्तान्त कहो कि अहल्या किस प्रकार शिला बन गई थी।
ऋषि ने श्रीराम ने कहा- ब्रह्मा ने ब्रह्माण्ड का विस्तार किया तदनन्तर उन्होंने अहल्या को विशेष रूप से अत्यन्त ही रूपवती बनाया। उस परम सुन्दरी नारी को देखकर उसे पत्नी रूप से माँगने के लिए अनेक वर उस कन्या के लिए आने लगे। यह देखकर ब्रह्माजी को चिन्ता हुई। उन्होंने उस कन्या के लिए विराट स्वयंवर का आयोजन किया। ब्रह्माजी ने अपने मन का प्रण स्वयंवर में बताया कि जो दो प्रहरों में पृथ्वी की परिक्रमा पूर्ण करके उनके सामने आएगा। उसे मैं अहल्या वधू के रूप में प्रदान करूँगा। उनके प्रण को सुनकर देव, ऋषि, यक्ष, गन्धर्व तपस्वी आदि दौड़ने लगे और पृथ्वी की परिक्रमा के लिए चल पड़े। उनमें इन्द्र भी ऐरावत पर आरुढ़ होकर तेज गति से पृथ्वी की परिक्रमा के लिए दौड़ पड़े। लोकपाल भी अपने-अपने वाहनों पर दौड़ पड़े। कोई उर्ध्व मार्ग से वेगपूर्वक जाते तो कोई वायु-गति से दौड़ने लगे। कुछ तो मार्ग में ही अटक कर गिर पड़े तथा गिरकर फिर दौड़ने लगे।
इसी समय गंगा-जल में स्नान करके बाहर आते-आते गौतम ऋषि ने द्विमुखी कपिला (वत्स को जन्म देते समय जिसकी योनि से वत्स का मुख दिखाई दे रहा है, ऐसी सफेद रंग की) गाय को देखा। गौतम ऋषि ने गायत्री मंत्र का जाप कर उस गाय की यथाविधि तीन परिक्रमा की। तदनन्तर गौतम सत्यलोक लौट आए। ब्रह्माजी ने अन्तर्ज्ञान (चक्षुओं) से देखा और जान लिया कि गौतम ऋषि पृथ्वी का तीन प्रदक्षिणाएँ कर आ गए हैं। ब्रह्माजी ने कहा- धन्य है। अहल्या को भाग्यफल प्राप्त हो गया। ब्रह्माजी ने तत्काल अहल्या का विवाह गौतम ऋषि से कर दिया। विवाह विधि सम्पन्न होने के बाद ही सर्वप्रथम इन्द्र तेज गति से दौड़कर वहाँ आ गए। दोनों वर-वधू को देखकर क्रोधित हो गए तथा ब्रह्माजी (विधाता) से कहा कि तुमने वृद्ध को कन्या दी। अत: तुम जो पूर्वत: असत्य नाथ हो यह हमें अब यहाँ आकर ज्ञात हो गया है।
ब्रह्माजी ने इन्द्र से कहा कि गौतम ऋषि ने पृथ्वी की तीन परिक्रमाएँ पूर्ण कर ली अस्तु मैंने इनसे अहल्या का विवाह सम्पन्न कर दिया। यह सुनकर मन में इन्द्र ने द्वेष रखकर कहा-
असो इंद्रे द्वेष धरोनि मानसी।
म्हणे एक वेले भोगीन अहल्येसी।
परतोन गेला स्वस्था नासी।
खेद अत्यन्त पावोनिया।
मराठी राम-विजय रामायण बालकाण्ड अध्याय ७-४३
एक बार मैं अहल्या का उपभोग करूँगा। फिर अत्यन्त दु:खी होकर, वह अपने स्थान लौट गया। अहल्या को लेकर गौतम अपने आश्रम आ गए। एक समय की बात है कि सूर्यग्रहण का दिन था। गौतम ऋषि और अहल्या ने स्नान किया तथा ऋषि गौतम ध्यान में लीन होकर बैठे रहे और अहल्या अकेली आश्रम लौट आई। इधर अहल्या को आश्रम में अकेली जानकर इन्द्र गौतम ऋषि का वेश धारण कर सती अहल्या को भोग करने हेतु दौड़ पड़ा। किवाड़ बन्द करके अहल्या आश्रम में बैठी थी कि कपट वेशधारी इन्द्र द्वार पर आकर खड़ा हो गया। उसने कहा अहल्या! झट से दौड़ों-दौड़ों इतना कहकर धरती पर लौट गया और उसने उसे हृदय से लगा लिया। अहल्या कपट नहीं जानती थी तथा वह गंगा-सी निर्मल-पवित्र थी। अहल्या दु:खी होकर आँसू बहाती हुई उसे उठाकर मंचक पर लेटा दिया। तब उस कपटधारी वेश में उसने (इन्द्र) ने कहा हे प्रिये! प्राण निकल रहे हैं शीघ्र अंग-संग दो। अहल्या ने उनसे कहा- हे स्वामी आज ग्रहण है। सूर्य मध्याह्न को प्राप्त है। महाराज! तुम शास्त्र के पूर्ण ज्ञाता हो विचार करके देखो। इन्द्र ने कहा- तुम्हें शास्त्रों से क्या मतलब। मेरा वचन ही तुम्हारे लिये प्रमाण है। अहल्या ने कहा- अवश्य तत्पश्चात् अहल्या और कपटधारी वेश में इन्द्र ने एक आसन पर शयन किया। तब नित्यव्रत-कर्म पूर्ण करके गौतम ऋषि आश्रम वापस पहुँचे तथा वे बोले- हे अहल्या दरवाजा खोलो। अहल्या भयभीत हो गई तथा अपने वस्त्र को सम्हालकर कहा- हे दुराचारी! तू कौन है? इस पर उसने कहा- मुझे तुम इन्द्र समझो। अहल्या ने कहा हे अपवित्र पुरुष तूने यह क्या किया? रतिक्रिया पूर्ण हुई अब तू यहाँ से वेगपूर्वक चला जा। फिर दौड़कर उसने किवाड़ खोल दिये त्यों ही इन्द्र ने गौतम ऋषि को देख लिया। तब इन्द्र के भागते समय गौतम ऋषि ने यह अभिशाप दिया, 'तेरे शरीर में सहस्त्र भग उत्पन्न हो जाएंगे। हे परदारागमन करने वाले पतित तू नपुंसक होकर रहेगा।
तदनन्तर मुनि ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर अहल्या को शाप दिया-
हो तुझे शरीर शिलावत।
जड़ होऊन पड़ो अरण्यात्।
साठी सहस्त्रवर्षेपर्यंत।
राहे मूर्च्छित होऊ निया।
मराठी श्रीराम-विजय रामायण बालकाण्ड अध्याय ७-६३
तेरा शरीर चट्टान सा हो जाए और जड़ होकर अरण्य में पड़ा रह जाए। तू मूर्च्छित हो वहाँ साठ सहस्त्र वर्ष तक पड़ी रहे। तत्पश्चात् अहल्या ने गौतम ऋषि से कहा कि यह अनजाने में मुझसे पाप हो गया। मुझे इसका बहुत दु:ख और पछतावा है।
आप मुझे पूर्णत: शाप से मुक्ति का उपाय बता दीजिए। अहल्या के आँखों से अश्रुजल बह रहा था, यह देखकर गौतम का मन पसीज गया फिर उन्होंने कहा-
म्हणे रविकुली अवतरेल नारायण।
कौसल्यात्मज रघुनंदन।
त्याच्या पदरजप्रतापेकरून।
उद्धरोन मज पावशी।
मराठी श्रीराम-विजय रामायण बालकाण्ड अध्याय ७-१७०
'सूर्यकुल में कौसल्या के पुत्र रघुनंदन श्रीराम के रूप में भगवान् नारायण अवतरित हो जाएँगे उनके पद-रजों के प्रताप से उद्धार होकर तू मुझे प्राप्त करेगी।
इस तरह श्रीराम के पद रज-कणों से देवी अहल्या का उद्धार हुआ तथा श्रीराम के चरणों के प्रभाव से अहल्या पुन: अपने पति गौतम ऋषि के पास पहुँच गई तथा शाप से मुक्त हो गई।
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डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
'मानसश्री’, मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर
सीनि. एमआईजी-१०३, व्यास नगर,
ऋषिनगर विस्तार, उज्जैन (म.प्र.)
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