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रचनाकार.ऑर्ग नाटक / एकांकी / रेडियो नाटक लेखन पुरस्कार आयोजन 2020
प्रविष्टि क्र. 3 -
नाटक - डेड बेंत का कलेज़ा।
लेखक - दिनेश चन्द्र पुरोहित
[१]
[मंच रोशन होता है, रेल गाड़ी के शयनान डब्बे का मंज़र सामने आता है। केबीन के अन्दर रशीद भाई, ठोक सिंहजी, सावंतजी और दीनजी भा’सा बेंचों पर बैठे हैं। अभी इन लोगों के बीच, गुफ़्तगू चल रही है।]
रशीद भाई – सावंतजी यार, आप ठहरे ठाकुर साहब। इसलिए आप तो रोज़, दारु-वारु पीते ही होंगे ?
सावंतजी – हां यार, कभी-कभी ग़मगीन बैठे होते हैं, या कभी कोई ख़ुशी की ख़बर मिल जाती है तब दो-चार घूँट दारु के इस हलक में उतार लेता हूं। आदत से मज़बूर हूं, यार। इस महंगाई के ज़माने में यार, परमिट मिल जाता तो सोना में सुहागा।
रशीद भाई – परमिट से ही माल लेना अच्छा है, न तो नक़ली माल हाथ आ जाय तो उस्ताद फोड़े पड़ते हैं। मेरे एक रिश्तेदार है, जिनका नाम है कमल खां। वे कभी पाली नगर परिषद के वार्ड मेंबर रहे हैं। और वे वार्ड मेम्बरी के साथ, अवैध दारु के धंधे में लिप्त थे। कोलोनी में स्थान-स्थान पर, अवैध दारु रखवा दिया करते।
दीनजी – बड़े लोगों से रसूख़ात रखने वालों का कुछ नहीं होता, रशीद भाई।
रशीद भाई - मगर, एक बार सी.आई.डी. वालों की ऐसी रेड पड़ी कि, उनको छठी का दूध याद आ गया। ये आली ज़नाब उसी कोलोनी के वार्ड मेंबर थे, जहां माना रामसा रहते हैं।
ठोक सिंहजी – यार रशीद भाई, ज़रा इस किस्से को विस्तार से कहिये तो मज़ा आ जाय।
रशीद भाई – फिर सुनिए, दोस्तों। और यह बात अपने दिमाग़ में बैठा लीजिये कि, कभी भी अपने पद का घमंड नहीं करना चाहिए। और कभी भी, खोटा काम नहीं करना चाहिए।
सावंतजी – अब आप शिक्षा बाद में देते रहना, पहले किस्सा बयान कर लीजियेगा।
रशीद भाई – सुनिए। एक बार ऐसा हुआ, डिपो के सारे अधिकारी-गण किसी मीटिंग में भाग लेने के लिए हेड ऑफिस चले गए। उनके जाने के बाद, दफ़्तर के टेलीफ़ोन पर माना रामसा का काल आया। हम लोग जैसे ही उस टेलीफ़ोन के पास पहुँचते उसके पहले, वहां बैठा लूण करण झट फ़ोन का चोगा क्रेडिल से उठाकर माना रामसा से समाचार लेने लगा।
सावंतजी – यह खोजबलिया या तो इन अफ़सरों के आस-पास फिरता रहेगा...उनकी मस्कागिरी करता हुआ इधर-उधर घुमता रहेगा, या फिर दफ्तर के फ़ोन के पास बैठ जाएगा। अगर इसको काम का कह दें तो..जानते हो ?
रशीद भाई – नहीं, हमें मालुम नहीं। आप बोल दीजिये, हम सुन लेंगे।
सावंतजी – सुनो, यह गेलसफ़ा क्या कहेगा ? कि, साहब बाहर जाने के पहले मुझसे कहकर गए हैं, ‘ए रे लूण करण तूझे यहीं इसी फ़ोन के पास बैठे रहना है, आये काल को अटेंड करना है।’
रशीद भाई - सावंतजी, मैं इसकी एक-एक रग से वाक़िफ़ हूं। यह गेलसफ़ा काम से बचने के लिए कई तरह के बहाने बनाता है। अब आप आगे का क़िस्सा सुनिए, माना रामसा ने फ़ोन पर कहा कि, ‘आज़ उनकी घर वाली को, पूर्णिमा के व्रत का उजावना करना है। इस उजावने में प्रसादी रखी गयी है, आप सबको प्रसादी अरोगने उनके घर आना है!’
ठोक सिंहजी - रशीद भाई, आपने उड़ती बात पर भरोसा क्यों किया ? आपको चोगा हाथ में लेकर, ख़ुद बात कर लेते मन रामसा से। जानते नहीं, उनके दो मकान हैं। एक है खौड में, और दूसरा है पाली की हाउसिंग बोर्ड कोलोनी में।
रशीद भाई - मैं उनको आगे यह पूछना चाहता था कि, वे प्रसादी कहां रखेंगे ? यहां चोगा हाथ में थामने कौन दे रहा था ? बस इस गेलसफ़े ने, बिना उनसे बात कराये चोगे को क्रेडिल पर रख दिया। और ऊपर से कहने लगा, ‘पूछने की कोई ज़रूरत नहीं, मैं जानता हूं पाली हाउसिंग बोर्ड की कोलोनी में इनका मकान है, वहीं प्रसादी रखी है।
सावंतजी – अब मुझे सारी बात समझ में आ गयी है, उस दिन मैं और ठोक सिंहजी रह गए थे अवकाश पर। तभी इस लूण करण ने बेवकूफ़ी कर डाली, अच्छी तरह से पूछ-ताछ न करने की।
रशीद भाई - वज़ा फ़रमाया, सावंतजी आपने। अब सुनिए आगे की बात, वहां करणी दानजी भी बैठे थे। उन्होंने कह दिया, ‘आप दोनों चले जाओ उनके घर भोजन करने, मैं बैठा हूं दफ़्तर में जवाब देने।’ फिर क्या ? मैंने भी सोच डाला कि ‘इस इस लूण करण के साथ, वहां जाकर दावत अटेंड कर आऊँ।’ फिर क्या ? हम दोनों, वहां से रवाना हुए।
सावंतजी – आगे क्या हुआ, रशीद भाई ?
रशीद भाई - रास्ते में भटवाड़ा के पास पहुंचे ही थे, और यह कमबख़्त लूण करण बोला ‘रशीद भाई, आप आगे जाकर, कोलोनी के बगीचे में बैठिये। तब-तक मैं अपने घर पर इतला देकर, वहां पहुंच रहा हूं।’ मैं बेचारा, करता क्या ? जाकर उस बगीचे में बैठ गया, समय बितता गया और इस कमबख़्त के आने का कोई सवाल ही नहीं। फिर क्या ? वहां बैठे-बैठे, मैंने एक नज़ारा देखा। उस बगीचे में, कमल खांजी तशरीफ़ लाये...
[रशीद भाई इन दोनों को वाकया सुनाते जा रहे हैं, इस वाकये में बीत रही घटनाएं चित्र बनकर फिल्म की तरह इन दोनों की आँखों के आगे छाने लगी। मंच पर, अंधेरा छा जाता है। थोड़ी देर बाद, मंच पुन: रोशन होता है। हाउसिंग बोर्ड कोलोनी के बगीचे का मंज़र, सामने आता है। इस बगीचे की चारदीवारी के चारो तरफ़, अशोक के वृक्ष लगे हैं। बगीचे के एक स्थान पर, पीपल का एक बड़ा वृक्ष लगा है। उसके निकट ही एक पानी का टांका बना है। इस टांके के ऊपर सूखी पत्तियों का ढेर लगा है, इन सूखी पत्तियों से ढके जाने कारण यह टांका बाहर से किसी को दिखाई नहीं दे रहा है। वहां बगीचे में, लगे वृक्षों की सूखी पत्तियों के कई ढेर लगे हैं। इस बगीचे को देखने से यह प्रतीत होता है, इस बगीचे की सफ़ाई हुए कई महीने बीत गए हैं। इस बगीचे के अन्दर, कई स्थानों पर सीमेंट की बेंचें लगी है। टांके के निकट वाली बेंच पर, एक मेहतरानी बैठी नज़र आ रही है। वह सर पर अपने दोनों हाथ रखे, फिक्रमंद दिखाई दे रही है। इस मेहतरानी का नाम है, रंगीली। इसके पांवों के पास ही, झाडू, सुपड़ी और कचरा उठाने की टोकरी रखी है। जिस बेंच पर रंगीली बैठी है, उसके पास ही दूसरी बेंच लगी है..जिस पर, एक आदमी सफ़ेद पतलून और सफ़ेद कमीज़ पहने बैठा है। ऐसा लगता है कि, वह सभ्य और संभ्रात परिवार से ताल्लुकात रखता है। अभी थोड़ी देर पहले, इस बगीचे में चहलक़दमी कर रहा था और साथ में बार-बार इस बगीचे के बाहर झाँक लिया करता और देख लेता कि ‘उसके आदमी बाहर आते-जाते लोगों के ऊपर अपनी निग़ाहें जमाये बैठे हैं, या नहीं ? इधर बेचारे थके हुए रशीद भाई से, बैठा नहीं जाता। इसलिए वे बैग से तौलिया निकालकर, उसे सर के नीचे रखकर वे बगीचे की दूब पर लेट जाते हैं। लेटे हुए रशीद भाई, लूण करणजी का इन्तिज़ार करते नज़र आ रहे हैं। अचानक उनकी नज़र नेता टाइप सफ़ेद चोला-पायजामा पहने एक आदमी पर गिरती है, जो बगीचे की फाटक खोलकर इधर ही आ रहा है जहां यह रंगीली बैठी है। उस आदमी को देखते ही, रशीद भाई उसे पहचान लेते हैं।]
रशीद भाई – [होंठों में ही, कहते हैं] – हाय अल्लाह, यह क्या कर डाला तूने ? क्यों इस रसिक कमल खां के दीदार, मुझे होने दिए ? इस महानुभव के ऐसे शौक के कारण, इसके सभी रिश्तेदार दूर से ही सलाम करते हैं इन्हें। इनके साथ उठने-बैठने से, न्यात के लोग यही समझ लेते हैं कि ‘यह इनका साथ करने वाला भी, इनके जैसा ही बदचलन होगा ?’ अच्छा है, थोड़ा इन मेहंदी की झाड़ियों की तरफ़ खिसक जाऊं। ताकि, मैं इनको नज़र नहीं आ पाऊंगा।
[फिर क्या ? उनकी नज़रों से बचने के लिए, रशीद भाई मेहंदी के हेज़ की तरफ़ खिसककर लेट जाते हैं। फिर उनकी आदतों को याद करते-करते, वे फिर होंठों में ही कहते हैं।]
रशीद भाई – [होंठों में ही, कहते हैं] – इनके कर्मों को देखते शर्म आती है, म्यां। ये आली ज़नाब, अपने स्तर का भी ख्याल नहीं करते ? क्या कहें, इनकी आशिकगिरी को ? किसी भी ख़ूबसूरत औरत पर नज़र गिर जाए, और मियां झट लट्टू हो जाते हैं उस मोहतरमा पर। और, फिर क्या ? करने लगते हैं, आशिकी की बेहया हरक़तें ? इनके लिए, औरत की कोई जात-पांत या समाज में उसका वर्ग..कुछ मायना नहीं रखता। चाहे वह मेहतरानी हो, या जोगन ? कोई सारोकार नहीं, बस मियां को ख़ूबसूरत औरत से मतलब रहता है। अब देखिये, आ रहें है ज़नाब, हाथ में गुलाब का फूल लिए ? देखते हैं, अब इश्क किससे लड़ाया जाएगा ? वहां बैठी, इस रंगीली नाम की मेहतरानी से तो नहीं ?
[कमल खां हाथ में गुलाब का फूल लिए आगे बढ़ रहे हैं, फिर इधर-उधर देखे बिना झट रंगीली के पास आकर उससे कह बैठते हैं।]
कमल खां – [गुलाब का फूल सूंघते हुए, कहते हैं] – अरी ए, रंगीली! क्या कर रही है, बगीचे के अन्दर ? अपनी सुगंध फैला रही है, क्या?
रंगीली – [आंखें मटकाती हुई, कहती है] – क्या सुगंध फैलाए, साहब ? [अपनी दोनों हथेलियाँ सामने लाती हुई, कहती है] इस कूड़े-करकट के बीच बैठी, बदबू का मज़ा ले रही हूं ज़नाब। अब आप भी आ गए, अच्छा हुआ। अब आप भी तशरीफ़ रखें यहां, और इस बदबू का लुत्फ़ उठाइएगा। [मुस्कराती है]
[ऐसे रसूख़दार आदमी को पास पाकर, झट उसे याद आ जाती है उसकी खोटी आदत...दारु सेवन करने की। झट उठकर, कचरे से खाली दारू की बोतलें निकालकर दिखलाती हुई, कहती है।]
रंगीली – बाबा रामसा पीर की जय हो, साहब यहां राज आपका है हुज़ूर। और देखिये स्थान-स्थान पर खाली दारू के बोतलें बिखरी पड़ी है। वाह। क्या खुशबू है, दारु की ? कमबख़्त दारू ख़त्म हो गयी, मगर इसकी ख़ुशबू अभी इन बोतलों से गयी नहीं।
[कचरे के ढेर से एक खाली बोतल उठाकर, गाती है!]
रंगीली – [बोतल को निहारती हुई, गाती है] – आके मैख़ाने में जीने का सहारा कर ले
आँख मिलते ही जवानी का मज़ा आयेगा
तुझको अँगूर के पानी का मज़ा आयेगा
हर नज़र अपनी बसद शौक़ गुलाबी कर दे
इतनी पी ले के ज़माने को शराबी कर दे
जाम जब सामने आये तो मुकरना कैसा
बात जब पीने की आ जाये तो डरना कैसा
धूम मची है, आआ…, मैख़ाने में, आआ…
धूम मची है मैख़ाने में, तू भी मचा ले धूम धूम धूम
झूम बराबर…
[गाते-गाते उसके सर पर रखा पल्लू नीचे खिसक जाता है, और इधर कब्ज़े से मांसाल उरोज बाहर दिखाई देते हैं। इन मांसाल उरोजों का दीदार, कमल खां के लिए एक शराब की बोतल से क्या कम ? उन उरोजों को देख वे ऐसे मुग्ध हो जाते हैं, बस वे एक टक से उन उरोजों को देखते जा रहे हैं। और बात को आगे बढाने के क्रम में, वे उससे कहते हैं]
कमल खां – [रंगीली के मद भरे उरोज़ों का, दीदार करते हुए कहते हैं] - क्या हुआ, रंगीली ? खैरियत है ?
रंगीली – [पल्लू से सर ढकती हुई, कहती है] - हुज़ूर, इस ज़ख़्मी औरत के हाल क्या पूछना ? आपको, क्या पता ? हम जैसे ग़रीबों की क़िस्मत में, दारु की पूरी बोतल कहाँ है...हुज़ूर ? हाय राम, हथकडी दारू की थैली भी नसीब नहीं।
कमल खां – [मुस्कराते हुए, कहते हैं] – तेरी जैसे सुन्दर नारी को, कैसे नसीब नहीं ? तू जिधर गुज़र जाए, वहां दारु की महक फ़ैल जाती है!
रंगीली – हुज़ूर, ज़रा सुनिए तो सही। बस आप जैसे रईस लोगों की फेंकी गयी इन बोतलों को देखती हूँ, और इनमें बची जूठी दारु से हम काम चला लेते हैं। मगर, अब ज़माना ख़राब आ गया। अब आप जैसे रईसों की आदत बदल गयी है।
कमल खां – बता, कौनसी आदत बदल गयी हमारी ?
रंगीली - इन बोतलों में भरी पूरी दारु आप लोग हलक में उतार लेते हैं, उसके बाद बचती भी कहाँ है दारु ? जब भी आप लोग इन्हें फेंकते हैं यहाँ..ज़नाब, अब यह जूठी दारू भी नहीं मिलती इस हलक में उतारने के लिए...!
[बहक जाती है, कचरे के ढेर में उस बोतल को फेंकते हुई कहती है ]
रंगीली – आ जाओ मेरे हमदर्द, तलब बढ़ चुकी है अब ले चलो मुझे मैखाने में...‘कुछ भी ना बचा कहने को हर बात हो गयी; आओ चलो शराब पियें रात हो गयी।’
कमल खां – क्या हो गया, रंगीली...आज तूझे ? रात भी नहीं हुई, और तूझे यह दिन रात नज़र आ रहा है ? मैं कहता हूँ, ‘तूझे कहाँ दारु पीने की ज़रूरत ? तू ख़ुद, एक दारु भरा जाम है।’
[रंगीली आराम से बेंच पर बैठ जाती है, और कब्ज़े में हाथ डालकर बीड़ी का बण्डल और माचिस बाहर निकालती है। फिर एक बीड़ी को सिलगाकर, वापस बण्डल को कब्ज़े के अन्दर रख देती है। फिर, एक लंबा कश खींचकर कहती है।]
रंगीली – [धुंए का गुबार छोड़ती हुई, कहती है] – साहब, आप क्या जानते हैं...इस ग़रीब इंसान की ज़िंदगी को ? हम गरीबों के पास अब है, क्या ? खाली दुःख, और क्या ? इन दुखों से कैसे लड़ा जाय, हुज़ूर ? अपने ग़म मिटाने के लिए, मुझे मज़बूरन यह यह कमबख़्त हथकडी दारु पीनी पड़ती थी।
कमल खां – अच्छी किस्म की दारु पी लिया कर। आख़िर, तूझे मना किया किसने ? मैंने कोलोनी के स्थान-स्थान पर दारु रखवाई है, पीने के वास्ते। तू भी, पीया कर।
रंगीली – हुज़ूर हमारे पास कहाँ है, इतने रुपये ? बस सस्ती वाली दारु..वह भी, हथकडी। उससे काम चला लिया करते। इस तरह रोज़ पीने की आदत बन गयी, अब न पीयें तो बदन की एक-एक हड्डी से नाक़ाबिले बर्दाश्त दर्द उठता है। रुपये-पैसे इस पल्लू में नहीं, अब तो हुज़ूर..दारु पीने का यह सपना, धुंए का गुबार बनकर उड़ गया है..हुज़ूर। [मुंह से धुंए के गुबार छोड़ती हुई, कहती है] आपकी मेहरबानी से दारु मिल जाती, तो इस बदन में कुछ ताकत आ जाती हुज़ूर।
कमल खां – [हाथ से चिंता न करने का इशारा करते हुए, कहते हैं] – फ़िक्र छोड़, रंगीली। तू तो इस बगीचे में बैठकर, आराम कर। और इस बीड़ी से गुबार निकालती हुई, अपने ग़मों को भूल जा। तूझे कहाँ काम करना है, जो चिंता करती जा रही है ?
रंगीली – फ़िक्र क्यों नहीं करूं, साहब ? आप जैसे साहब लोग हुक्म देने के लिए हो जाते हैं तैयार कि, दो घंटें में इस बगीचे की सफ़ाई हो जानी चाहिए। [खांसती हुई, कहती है] खों..खों खों .. यहां रात पार्टी की मीटिंग होगी, और..[खांसती है, खांसी के मारे उससे बोला नहीं जाता]
कमल खां – [ज़बान पर शहद घोलते हुए, जैसे कहते हैं] – अरी, रंगीली। तू तो है, गुलाब के फूल की पंखुड़ी। तूझे किसने कहा है, काम करने को ? मैंने केवल इस जमादार से यही कहा कि, ‘रात को यहां पार्टी की मीटिंग आयोजित है, और..’
रंगीली – और..और क्या कहते जा रहे हैं, साहब ? इस करमज़ले जमादार ने हुक्म दे डाला मुझे, मैं भी सफ़ाई करूं दूसरे सफ़ाई कर्मियों के साथ ? अब क्या करूं, साहब ? रात को मेरा मर्द सस्ती दारु पीकर आ गया, तब से वह पड़ा है खटिया पर। बार-बार उल्टियां करता जा रहा है, अरे रामसा पीर अब मैं क्या करूं ? उसकी चाकरी करूं, या...
कमल खां – इसमें, तूझे क्या तक़लीफ़ ?
रंगीली – [तल्ख़ आवाज़ में] – अरे ज़नाब, एक उल्टी होने के बाद, फिर दूसरी उल्टी..और, ऊपर से आप क्या कह रहे हैं ‘क्या तकलीफ़ है ?’ जानते नहीं, ज़नाब? ज़्यादा उल्टियां होने से पानी की कमी आ जाती है, बदन में। पानी की कमी हो जाने से, मरीज़ की मौत भी हो सकती है।
[कमल खां एक बार और गुलाब के फूल को सूंघते हैं, फिर उसकी एक-एक पंखुड़ी को तोड़कर रंगीली पर बरसाते हैं। बाद में बचे हुए डंठल को, नीचे ज़मीन पर फेंक देते हैं।]
कमल खां – क्यों फ़िक्र कर रही है, रंगीली ? तेरी पूरी समस्या, यों चुटकियों में मिटा दूंगा। और तू कहे तो, अभी मिटा देता हूं तेरी समस्या। [जेब से मोबाइल निकालकर, नंबर मिलाते हैं..फिर फ़ोन उठने पर, वे कहते हैं] हेल्लो, कौन ? [आवाज़ सुनायी देने पर] अच्छा, वनदा राम ? अरे भाई, तेरे जमादारजी से कहना कि, ‘इस रंगीली से कोई काम न लें। बगीचे की सफ़ाई के लिए, इस दाऊड़े और बाँकिया को लगा दे। और सुन, शाम-तक बगीचा साफ़ हो जाना चाहिए।’
रंगीली – अरे हुज़ूर, कचरा कहाँ डाला जाय ? यह बात भी, आप इसे समझा दीजिएगा।
कमल खां – [मोबाइल पर, कहते हैं] - एक बार और तुझको याद दिला देता हूं कि, ‘बगीचे की सफ़ाई होने के बाद, सारा कचरा पीपल के नज़दीक बने टांके के ऊपर डाल दे।’ और सुन अभी जाकर उस ठेकेदार तलवार को कह देना कि, ‘मैंने उसे याद किया है। जल्द आ जाय, मेरे पास।’
रंगीली – [ख़ुश होकर, कहती है] – जुग-जुग जीयो, सरकार। हज़ारी उम्र हो, आपकी। अब, भगवान आपका भला करे। आपकी मेहरबानी से, दारु से भरी बोतल पीने के लिए मिल जाती तो...!
[जेब के अन्दर मोबाइल रखकर, कमल खां उस बेंच की तरफ़ बढ़ते हैं जहां सफ़ेद कपड़े पहने वह आदमी बैठा है। उस आदमी को कुछ आगे खिसका कर ख़ुद बैठ जाते हैं, कमल खां। फिर वे उस आदमी को खारी नज़रों से देखते हुए, उससे पूछ बैठते हैं।]
कमल खां – तू कौन है रे, मर्दूद ? यहां क्यों आया है ? क्या नाम है, तेरा ? नैन मटका करने के लिए, क्या तूझे यही स्थान मिला है ? जानता नहीं, यह शरीफ़ों की बस्ती है।
[लबों पर मुस्कान बिखेरता हुआ, वह आदमी कहता है।]
वह आदमी – [मुस्कराता हुआ, कहता है] – सरकार, मैं आपका ताबेदार बेजान दारु वाला हूं।
कमल खां – हूंಽಽ।
रंगीली – [बीच में बोलती हुई, कमल खां से कहती है] – साहब हम खुशअख्तर ठहरे, तभी आली ज़नाब दारु वाला यहां तशरीफ़ लाये हैं। अब आप इनसे दारू मंगवाने की बात कीजिएगा, तो मज़ा आ जाएगा ज़नाब।
[कमालखां रंगीली की तरफ़ ध्यान न देकर, अपनी जेब से ‘रसिक लाल’ पान गुटके की पुड़िया बाहर निकालते हैं। फिर उसे खोलकर, सारा सुगन्धित गुटका मुंह में ठूंस लेते हैं। और उस खाली पुड़िया को, बिना-देखे ज़मीन पर फेंक देते हैं। फिर, वे गुटका चबाते दिखाई देते हैं। वह फेंकी गयी खाली पुड़िया जाकर वहीँ गिरती है, जहां नगर परिषद् का चेतावनी का बोर्ड लगा है...जिस पर, सुन्दर हर्फ़ से लिखा गया है कि, ‘पोलीथीन या किसी तरह का कचरा बगीचे में फेंकना कानूनी जुर्म है, पकड़े जाने पर आपके ऊपर २५० रुपयों का दंड आरोपित किया जा सकता है।’ अब यह आदमी कभी फेंकी गयी खाली पुड़िया को देखता है, तो कभी देखता है चेतावनी बोर्ड। उसकी यह गतिविधि, कमल खां को कैसे पसंद आती ? वे झट उस पर नाराज़गी व्यक्त करते हुए, कहते हैं।]
कमल खां – [नाराज़गी व्यक्त करते हुए, कहते हैं] – अरे, ए क़ब्रिस्तान के उखड़े मुर्दे। तू यहां कहाँ से टपक पड़ा, बेजान कहीं का ? कभी इधर देखता है, तो कभी उधर देखता है ?
रंगीली – [उतावलेपन से, कहती है] – साहब! इनसे तल्ख़ आवाज़ में बात मत कीजिएगा, ये आली ज़नाब क़ब्रिस्तान के उखड़े मुर्दे नहीं हैं..ज़नाब तो भले मानुष दारु वाला है। इनसे आप दारु मंगवाने की बात कीजिएगा, तो कुछ दारू इस सूखे हलक में उतरेगी और इस हलक को तर कर देगी। तर होते ही, इस बदन में ताकत आ जायेगी। ज़रा..[उल्टे अंगुठे को अपने लबों तक ले जाकर, आगे कहती है] आने दीजिये ना, यह दारु ...!
कमल खां – भय्या कुछ जानते हैं आप, मेरे बारे में ? [खंखारते हैं]
बेजान दारु वाला – [मुस्कराता हुआ, कहता है] – हुज़ूर, आपको कौन नहीं जानता ? सरकार, आप नुमायंदे हैं इस कोलोनी के। इस कोलोनी के लोगों की खूब ख़िदमत किया करते हैं, आप। ज़नाब, मैं ख़ुशअख्तर हूं, आज़ ज़नाब के दीदार हो गए।
कमल खां – [ख़ुश होकर, कहते हैं] – ठीक है, ठीक है। इस कोलोनी के लोगों के लिए मेरा जीवन समर्पित है। जानते हो, मैंने कई काम किये हैं इस कोलोनी के निवासियों के लिए ?
बेजान दारु वाला – क्या कहूं, ज़नाब ? मेरे पास इतने शब्द नहीं है, जो मैं आपकी शान में तारीफ़ के कशीदे निकाल सकूं ? हुज़ूर, आप महान हैं। आपकी तारीफ करते-करते मेरी ज़बान थक जाती है, मगर आपके किये कामों की तारीफ़ पूरी नहीं होती।
कमल खां – [गुटका चबाते हुए, कहते हैं] – भय्या कुछ तो कहिये, मेरे किये गए कौन-कौन से काम तुम्हें याद है..ज़रा, मैं भी सुनू। कुछ तो कह यार, तेरे मुंह में घी-शक्कर।
बेजान दारु वाला – हुज़ूर की तारीफ़ में, क्या-क्या बखान करूं ? आपने स्कूल के बाहर बच्चों की सुविधा के लिए गुटके की दुकान खुलवा डाली, ताकि बेचारे मासूम बच्चों को, अधिक दूर जाना न पड़े। अब इसी दुकान से, स्कूल के अध्यापकों और बच्चों को हर किस्म का गुटका उपलब्ध हो गया है।
कमल खां – और, आगे कह प्यारे प्यारे लाल।
बेजान दारू वाला – हुज़ूर, मुझे लोग प्यारे लाल नहीं..बेजान दारू वाला कहते हैं। लीजिये सुनिए, और साथ में तुलसी, बाबा, चेतना, देशी जाफ़रानी पत्ती के हर तरह के पैकेट उपलब्ध हो गए हैं, ज़नाब। और क्या कहूं, ज़नाब ? पिछली खिड़की से सोमरस प्रेमियों को, हर किस्म का सोमरस मिलने लगा है।
कमल खां – अरे यार, केवल सोमरस ही नहीं, उनको दुकान के पिछवाड़े में बैठकर सोमरस पीने की भी सुविधा मिल गयी है...और इसी दुकान से सोमरस के साथ चखने के लिए काजू और नमकीन भी मिल जाते हैं। इसी को मैख़ाना कहते हैं, ले सुन “ना हरम में, ना सुकूँ मिलता है ना बुतखाने में, चैन मिलता है तो साक़ी तेरे मैखाने में।’
बेजान दारुवाला – वाह, उस्ताद वाह। क्या कलाम है, आपका ? पास के बगीचे से आ रही ठंडी-ठंडी हवा की लहरों का आनंद लेते हुए, ये सुरापान के मुरीद काजू-नमकीन चखते हुए सुरापान करते हैं। ऐसा लगता है, वे इस ज़मीन पर नहीं, बल्कि स्वर्ग में बैठें हैं। पीते-पीते वे आपको दुआ देते जाते हैं, ज़नाब।
कमल खां – [ख़ुश होकर, कहते हैं] – एक बार और कह यार, तू जानता नहीं ? ये कोलोनी के लोग मुझे अपने जीव की जड़ी का सम्मान देते आये हैं।
बेजान दारु वाला – आप नहीं जानते ? इस गुटके की दुकान के काफ़ी नज़दीक है, एक शिव मंदिर। अब तो ज़नाब...
कमल खां – बातों की गाड़ी को रोका मत कर, तू आगे बोल लोगों की क्या राय है मेरे बारे में ?
बेजान दारु वाला – आस-पास की सभी दुकान वाले आपसे ख़ुश हैं, क्योंकि उनकी ग्राहकी जो बढ़ गयी है। अब तो ये लोग आपको खुले दिल से दुआ देते हैं। इन दुकानों के पिछवाड़े में बैठकर कई जवान छोरे चरस, गांजा वगैरा को भोले बाबा की प्रसादी समझकर, हुक्का सेवन भी करते हैं।
कमल खां – और, आगे बोल।
बेजान दारु वाला - मंदिर में बैठने वाले बाबाओं को भी ज़्यादा दूर जाने की कोई ज़रूरत नहीं रही, इन पास वाली दुकानों से इन बाबाओं को गांजा, चरस वगैरा चिलम की सामग्री उपलब्ध हो जाती है। और ये लोग मंदिर में आये इन भक्तों को, भोले बाबा की प्रसादी की तरह इस चिलम का सेवन करवाकर अपना फ़र्ज़ निभाते हैं। बस ज़नाब, दुआओं की झड़ी लग गयी है..
रंगीली – क्यों नहीं लगेगी, दुआओं की झड़ी ? अब तो पिछली खिड़की से सस्ती दारु मिलने लगी है, ग़रीबों को। फिर ग्राहकी तो बढ़नी ही है, हुज़ूर।
कमल खां – [ख़ुश होकर, कहते हैं] – बस, बस। अब मक्खनबाज़ी कीजिये बंद, बहुत हो गयी है तारीफ़ें। ख़ुदा के मेहर से, सब अपनी-अपनी क़िस्मत की खाते हैं।
[मोबाइल पर घंटी आती है, कमल खां जेब से मोबाइल बाहर निकालकर उसे ओन करते हैं। फिर उसे कान के पास ले जाकर, कहते हैं।]
कमल खां – [मोबाइलमें, कहते हैं] – हेलो कौन ? [मोबाइल से आवाज़ सुनकर, कहते हैं] अरे चच्चा आप बोल रहे हैं ? सुनिए, पान की दुकान वालों की नयी बात अभी रहने दीजिये। बाद में करेंगे, इसका जिक्र। अभी तो आप उनसे यह कहो कि, “संध्या तक मिठाई का पैकेट मेरे दीवानखाने भेज देना।”
[कमल खां मोबाइल को वापस जेब में रख लेते हैं, फिर दारुवाला को देखते हुए उससे कहते हैं]
कमल खां - अरे भाई, दारु वाला। अब बोल यार, तू बार-बार उस ज़मीन पर पड़ी उस खाली पड़ी गुटके की पुड़िया को को काहे निहार रहा है ? तूझे गुटका चबाना है, तो मुझसे मांग ले। मांगने में, शर्म कैसी ?
बेजान दारु वाला – हुजूर। मैं यह सोच रहा हूं, आप इस बगीचे में स्थान-स्थान पर कचरादान रखवा देते तो कितना अच्छा होता।
कमल खां – देख भाई, लोगों की आदतों को तू जानता नहीं। ये कोलोनी के लोग इस बगीचे को अपना नहीं समझते, इसे सार्वजनिक यानी सरकारी करार कर इसे पराया समझते हैं और वे इसमें कचरा डालते आये हैं। बाहर का कचरा और इस बगीचे के पेड़ों की पत्तियों का कचरा इकठ्ठा हो जाता है, और यहां कचरे के ढेर लग जाते हैं।
बेजान दारु वाला – हुज़ूर, क्या आपने बगीचे के बाहर ठौड़-ठौड़ कचरा-दान न रखवाए,,,क्या ?
कमल खां – अरे तू चुप रह यार, पहले मुझे बोलने तो दे। जानता है तू, कचरा उठाने वाले दो हाथ और कचरा फेंकने वाले सौ हाथ। मगर जब इन लोगों को राजनीति का भूत सवार होता है, तब उतर आते हैं आन्दोलन करने।
दारु वाला – फिर ?
कमल खां - तब-तक ये लोग शांत नहीं होते, जब-तक ये लोग पार्षद से अपने निजी काम पूरे न करवा लेते। किसी को लाइसेंस चाहिये, तो किसी को मकान बनाने की इजाज़त चाहिए...
रंगीली – हुज़ूर, आपने सही कहा। जिस स्थान पर कचरा नहीं डालना चाहिए उसी स्थान पर ये कोलोनी के लोग कचरा डालते हैं। इन पर जुर्माना करने पर, झट ये आपकी चोखट पर आकर गुहार लगाते हैं। सुबह नौ बजे कचरा इकठ्ठा करने की गाड़ी आती है, तब कोई बाहर आकर उस गाड़ी में कचरा नहीं डालता।
कमल खां – आगे बोल, रंगीली।
रंगीली – मैं आपको साफ़-साफ़ कह देती हूँ, हुज़ूर। उसके जाने के बाद, ये लोग मनचाहे स्थान पर कचरा डाल आते हैं। सफ़ाई करके मैं रवाना नहीं होती, तब तक ये हरामज़ादे साफ़-सुथरे स्थान पर कचरा डाल देते है, हुज़ूर। आख़िर कब-तक, मैं यहां सफ़ाई करती रहूँ ?
बेजान दारु वाला – हुज़ूर आपका कहना सत्य है, इन मेहतरों की दुर्दशा कोई नहीं देखता। अब तो मालिक ही...
कमल खां – मुझे तेरे विचारों से ऐसा लगता है कि, तू भी मेरी तरह सेवाभावी इंसान है। [आसमान की तरफ देखते हुए, कहते हैं] देख भाई, वह ऊपर वाला है ना..
रंगीली – [बात काटती हुई, कहती है] – ऊपर वाले तो आप हैं, हुज़ूर। [सामने की बिल्डिंग की तरफ़ उंगली करती हुई, कहती है] यह सामने की बिल्डिंग आपकी है हुज़ूर। इसके ऊपर वाले माले की बालकोनी में आप खड़े होकर, इस रास्ते से गुज़रने वाली हम जैसी सुन्दर बालाओं को रहम खाकर निहारा करते हैं। आज़ के ज़माने में, कौन हमारी जैसी बालाओं पर कृपा दृष्टि रखता है ?
कमल खां – [हंसते हुए, कहते हैं] – भोली रह गयी, रंगीली। ऊपर वाले माले में खड़ा-खड़ा लोगों पर अपनी कृपा दृष्टि रखता हूं, क्योकि यहां के लोग मेरे मतदाता हैं। सबको एक नज़र से देखना मेरा कर्तव्य है, इस तरह मैं ख़ुदा नहीं बन सकता।
रंगीली – फिर, ऊपर वाले से आपका क्या मतलब ?
कमल खां - ऊपर वाले से मेरा मतलब है, ईश्वर...जिसे हम ख़ुदा या गॉड भी कहते हैं। उसकी बात कह रहा था, रंगीली। क्या अब तेरे भेजे में यह बात चढ़ी है, या नहीं ?
रंगीली – [मुंह बनाकर, कहती है] – आपकी इन ज्ञान भरी बातों से, मुझे कोई मतलब नहीं। साहब, आप दारू वाला से बात कीजिये ना दारु लाने के लिए। वह बात आप करते नहीं, और बेफ़िज़ूल की बकवादी बातें करते हैं आप ? ज़नाब आप ऐसी कोई बात कीजिये इनसे, जिससे मेरा काम बन जाय।
कमल खां – ठण्ड रख, रंगीली। [दारू वाला की तरफ़ देखते हुए, उससे कहते हैं] देख दारू वाला, जब कचरा इकठ्ठा होगा तब यह अवाम आवाज़ उठायेगी कि,‘कामगारों को लगाकर कचरा उठाया जाय।’ तब हम टेंडर निकालकर, इन ठेकेदारों को काम देंगे। तब यह ठेकेदार अनुबंध के आधार पर, इन सफ़ाई कामगारों को रोज़गार देगा!
रंगीली – आपको, क्या फ़ायदा ?
कमल खां – [बेजान दारू वाला से, कहते हैं] - और इस तरह भय्या, दो पैसे मेहनताने के [अपनी जेब की तरफ़, उंगली करके] हमारी जेब में आयेंगे। [रंगीली की तरफ़ देखते हुए, उससे सहमति लेते हैं] बोल रंगीली, यह बात ठीक है ना ? ये दो पैसे चुनाव में काम में आयेंगे, और रंगीली तुम्हारे लोग दारु पीकर हमको वोट देंगे।
[रंगीली को अभी-तक दारु के दीदार न हुए, इसलिए वह बार-बार अपना उल्टा अंगूठा लबों तक ले जाकर दारु मंगवाने की अरदास करती है, कमलखां से। मगर, कमल खां उसकी तरफ़ कोई ध्यान नहीं नहीं देते। सुनकर भी, अनसुनी कर देते हैं।]
बेजान दारु वाला – हुज़ूर, आपने सौ फीसदी सही बात कही है। ऐसा लगता है, आप ज़रूर राजा हरीश चन्द्र के अवतार हैं। आप सत्य ही कहते हैं, सत्य के अलावा कुछ नहीं कहते। सत्य है, आज़कल सरकार बेरोज़गारों को नौकरी देने के लिए अध्यादेश निकालती नहीं। जब भी कामगारों की ज़रूरत होती है, तब ठेके दे देती हैं इन ठेकेदारों को। फिर, बाद में तो...
कमलखां – फिर क्या ? बोल भाई, तू आख़िर कहना क्या चाहता है ?
बेजान दारु वाला – सरकार कहती हैं, इन ठेकेदारों से। कि, इन कामगारों के लिए ई.एस.आई. कार्ड बनवाओ मुफ़्त इलाज़ करवाने के लिए। प्रोविडेंट फण्ड का खाता खुलवाइये, हर माह कामगार और नियोजक से राशि लेकर इनके खाते में जमा की जाय। इन लोगों के लिए आधार कार्ड, भामाशाहकार्ड बनवाइए और इनके बैंक में खाते खुलवाये जाय। मगर..
रंगीली – [बात पूरी करती हुई, कहती है] – मैं कहती हूं, ज़नाब। ये कमबख़्त ठेकेदार हम ग़रीब कामगारों की पगार से पैसे काटने में रहते हैं बहुत होशियार, मगर ई.एस.आई. कार्ड बनवाने में इनको आती है मौत। ये कमबख़्त इन स्कीमों के नाम पगार से पैसे हर माह काट लेते हैं, मगर सरकारी योजनाओं से मिलने वाले फ़ायदे से हमें वंचित रखते हैं। हमारी जमा की जा रही सारी राशि भी, ठोक जाते हैं, मर्दूद।
कमल खां – साफ़-साफ़ कह, रंगीली।
रंगीली – [हाथ की तीन उंगलियां दिखलाती हुई, कहती है] – हुज़ूर, तीन साल हो गए हैं। मगर अभी-तक ई.एस.आई. कार्ड, प्रोविडेंट फण्ड खाता संख्या वगैरा कुछ भी आवंटित नहीं हुए। मगर यह ठेकेदार इन स्कीमों का नाम लेकर हमसे हर माह हमारी पगार से रुपये ज़रूर काट लेता है, और सरकार के पास कुछ जमा नहीं करवाता।
कमल खां – आगे कह, रंगीली। आज़ तेरे एक-एक लफ्ज़ से, दिल-ए-दर्द झलक रहा है।
रंगीली - मगर सरकार से ठेके के रुपये उठाने के लिए बना रहता है, बड़ा होशियार। हुज़ूर, तब हमें इन योजनाओं का फ़ायदा कैसे मिलेगा ? इस सरकार ने हमारे रोज़गार के बीच एक-एक खून चूसने वाले गीद लाकर बैठा रखे हैं। सरकार को हमें कुछ देना है, तो हमें नौकरी ही क्यों नहीं देती, बीच में इस ठेकेदार रूपी गीद को लाकर क्यों बैठाया है ?
बेजानदारु वाला – हुज़ूर। नियोजन कार्य में जब-तक यह ठेका पद्दति ख़त्म नहीं होती, तब-तक सरकारी कामों में यह अव्यवस्था चलती रहेगी। बगीचे को तो मारिये गोली, यहाँ तो शहर की हर गली में कचरे के ढेर बढ़ते जा रहे हैं। इस ठेका पद्दति से नियोजन करने की प्रथा पूंजीपति देशों में है, भारत जैसे ग़रीब देशों में यह पद्दति हानिकारक है। आप जानते हैं, पक्की नौकरी से कामगारों में जिम्मेवारी की भावना पैदा होती है, जो ठेका पद्दति के कामगारों में नहीं रहती।
रंगीली – अरे हुज़ूर। जिम्मेवारी की भावना तो कामगारों में ऐसी पनपती है, हुज़ूर.. कि, वे इस दिए गए काम को अपना घर का काम समझकर उसे पूरा करने के लिए वे जी-ज़ान से जुट जाते हैं। मगर यह बात, यह सरकार समझती नहीं...बस, यह तो अमेरिका जैसे पूंजीवादी राष्ट्रों की पिछलग्गू बन गयी है। जिसके कारण, दिनों-दिन बेरोज़गारी बढ़ती...
कमल खां – [बात काटकर, हंसते हुए दारुवाले से कहते हैं] – भाई, तू बार-बार कचरे को कूड़ा-करकट बोलकर उसका अपमान क्यों कर रहा है ? जानता नहीं, यह कचरा देश की अमूल्य निधि है। इस कचरे के रहने से, रंगीली जैसे कई सफ़ाई कामगारों को रोज़गार मिलता है।
बेजान दारु वाला – [मुस्कराकर, कहता है] – वज़ा फरमाया, हुज़ूर। यह सत्य है, यह कचरा इस देश की अमूल्य सम्पदा है। इससे देश की सरकार चलती है। इस कचरे के कई रूप हैं, हुज़ूर। कोई इसे आंतक वाद कहता है, तो कोई इसे साम्प्रदायिकता कहते हैं।
कमल खां – आगे कह, भाई।
बेजान दारु वाला - कई प्रबुद्ध नेता इसे भ्रष्टाचार के रूप में अपनाते आ रहे हैं। हजूर, यह आप जैसे नेताओं का अचूक अस्त्र है। इसे दिव्य अस्त्र कहा जा सकता है, इसमें नेताओं के प्राण बसते हैं। यह कचरा इस देश में रहेगा, तो नेता जीवित रहेंगे। अगर नेता रहेंगे तो यह देश रहेगा और यह लोकतंत्र ज़िंदा रहेगा।
कमल खां – [ख़ुश होकर, कहते हैं] – मा बदोलत ख़ुश हुए, बोलो तुम क्या चाहते हो ? हमारे हुक्म से तेरी हर ख़्वाहिश पूरी होगी। बोल, क्या चाहता है ?
बेजान दारु वाला – सरकार। आपका हुक्म है तो यह इकठ्ठा कचरा, जिसे आप जैसे महापुरुष अमूल्य निधि कहते हैं। उस अमूल्य-निधि को मैं अपने आदमियों से उठवाकर, ले जाना चाहता हूं। आली ज़नाब, अब आप इस अमूल्य निधि को उठाकर ले जाने का हुक्म दीजिएगा।
कमल खां – [ख़ुश होकर, कहते हैं] – ज़रूर, ज़रूर। क्यों नहीं...ले जाओ कचरा..अरे, सोरी सोरी। यह कचरा नहीं है, यह देश की अमूल्य निधि है। इसे लेजा दे, मेरे भाई। [रंगेली से, कहते हैं] रंगीली तू तो चट-पट इनको थमा दे तेरा झाडू, टोकरी और सूपड़ी। अब तेरी यह तेरी समस्या चुटकियों में हल हो गयी, अब तू उठ जा यहां से। मुंह चढ़ाकर, बैठने से काम चलेगा नहीं।
[मुंह बनाकर रंगीली उठती है, फिर बेजान दारु वाला को झाडू, सूपड़ी और कचरा उठाने की टोकरी थमा देती है। फिर वापस आकर, बेंच पर बैठ जाती है। अब बेजान दारू वाला बगीचे के बाहर खड़े अपने आदमियों को आवाज़ देकर बगीचे में बुलाता है। ....
बेजान दारु वाला – अरे, ओ कुरड़ा राम। अरे ओ, फूसा राम। जल्दी आ जाओ, बगीचे में। कूड़ा तैयार है, प्यारों।
[बेजान दारू वाला के आदमी बगीचे के अन्दर आकर, कचरा बीनने लगते हैं। थोड़ी देर बाद, वे कचरा बीनते हुए पहुंच जाते है उसी जगह जहां टांका बना है। उनके वहां पहुंचते ही, कमल खां उनको रोकते हुए कहते हैं।]
कमल खां – रहने दीजिये, अब। बहुत कचरा उठा लिया, आप लोगों ने। कुछ कचरा, तो दूसरे आदमियों के लिए रहने दीजिएगा। अब आप यह बीना हुआ कचरा ले जाकर लोगों को समझाना कि, ‘यह कचरा बहुत काम का है।’ मगर यार दारू वाला यह तो बताता जा, कि ‘यह कचरा तेरे क्या काम आयेगा ?’
बेजान दारुवाला – हुज़ूर, हम तो ठहरे दारु वाले। दारु वाला का का काम होता है, दारू बनाना। अरे सरकार, हम तो इस कचरे को पूरा काम में लेकर इसकी दारु बनायेंगे। पेड़-पौधों की पत्तियों से दारु बनाने की कला, केवल हमारा परिवार ही जानता है। इन घास-फूस और पत्तियों से आला किस्म की दारू बनती है, जिसकी लागत मूल्य बहुत कम है और बिक्री ज्यादा होने से फ़ायदा बहुत है। इसलिए हुज़ूर, आपका कथन सत्य है, कि ‘यह कचरा नहीं है, यह अमूल्य निधि है।’
रंगीली – [बीच में बोलकर, कहती है] – साहब, दारु वाला सच्च कह रहे हैं। घास-पत्तियों का कचरा तो, बहुत काम का है ज़नाब। कई किसान इससे जैविक खाद बना डालते हैं, कई समझदार इस कचरे से ईधन गैस-प्लांट बना डालते हैं। जैसे पानी को अलग-अलग बर्तनों में रखा जाता है, वह पानी उस बरतन का रूप धारण कर लेता है। उसी तरह अलग-अलग प्रकृति के लोग, इसे नाना प्रकार से इसे काम में लेते हैं। बस, इस कचरे को काम में लेना लोगों की नीयत पर पर निर्भर है। वे चाहे तो दारु बना दे, चाहे तो खाद बना डाले।
[बेजान दारु वाला आकर, वापस बेंच पर बैठ जाता है। कुरड़ा राम और फूसा राम कचरा बीनकर, बगीचे से बाहर जाते नज़र आते हैं। बगीचे की फ़ाटक खोलकर, थानेदार मोटू राम, हेड कांस्टेबल तोंदू राम, कांस्टेबल पापड़ा राम और महिला कांस्टेबल पम्मी बाई बगीचे के अन्दर दाख़िल होते नजर आते हैं। इन लोगों के पीछे-पीछे, पार्टी के कार्यकर्ता वनदा राम और शमसुद्दीन भी साथ आ रहे हैं। ये सभी आपस में वार्तालाप करते, अन्दर आ रहे हैं।]
शमसुद्दीन – [मोटा राम से, कहता है] – आली ज़नाब, फ़ज्र की नमाज़ के बाद एक सियासती मीटिंग कमल खांजी इसी बगीचे में लेंगे।
मोटा राम – [बेपरवाही से, जवाब देते हैं] – हम का करें ? हमारे पास कौनसा सिपाईयों का ज़खीरा है, जो यहाँ तैनात करें ?
वनदा राम – साहब। चच्चा सच्च कह रहे हैं कि, आप...
मोटा राम – [हाथ नचाकर, कहते हैं] – तेरा चच्चा कहेगा...जैसे हम नाच लें, क्या ?
[सभी वहीं रुककर, वार्तालाप ज़ारी रखते हैं।]
पापड़ा राम – जैसी हुज़ूर की मर्ज़ी। अगर ऐसा विचार हुज़ूर का हो तो, संगत के लिए तबला और पेटी ला दी जाय ?
मोटाराम – [क्रोधित होकर, कहता है] – ए कच्चे पापड़। अभी लात मारकर तेरे टुकड़े कर डालूँगा, कुल मिलाकर बीस। समझता क्या है रे, मुझे ?
तोंदू राम – मालिक। आप ऐसा करना मत, आप गज़ब ढाह देंगे।
मोटू राम – क्या बोला रे, माता के दीने ? तेरी अक्ल ठिकाने है, या नहीं ?
तोंदू राम – अरे हुज़ूर। फिर आपको लोग कहेंगे, तीसमारखां!
मोटू राम – [ख़ुश होकर, कहते हैं] – ठीक है रे, तोंदू। कहने दे, लोगों को। एक तो पहले से कहते थे लोग मुझे, “दबंग”। वाह, अब कहेंगे मुझे तीसमारखां।
तोंदू राम – तब इस ख़ुशी में आप, मुझे एक कलाम पेश करने की इजाज़त दीजिये।
मोटू राम – [ख़ुशी से, कहते हैं] – पेश कर यार, तूझे किसने मना किया ?
तोंदू राम – सुनिए, अर्ज़ किया है...
मोटू राम – [तल्ख़ आवाज़ में] – अर्ज़ किसने किया है, नामाकूल? अर्ज़ी लगाने के भी, पैसे लगते हैं। हमारे थाने में मुफ़्त में काम नहीं होता है, भाई। खोजबलिये, तूझे पता तो है ? या तू भूल गया, कमबख़्त ?
तोंदू राम – अरे हुज़ूर, यह क्या कह डाला आपने ? आली ज़नाब, यह अपना दफ़्तर नहीं है यह बगीचा है।
मोटू राम – [रोब से, कहते हैं] – अरे मूर्ख जानता नहीं, जहां थानेदार मोटू राम खड़े हो जाते हैं, वहां उनका दफ़्तर अपने-आप लग जाता है नामाकूल। फिल्म शहंशाह देखी, तूने ? फिल्म में, अमिताभ बच्चन ने क्या कहा ?
पम्मी बाई – शहंशाह जहां खड़े हो जाते हैं, वहीं उनका दरबार लग जाता है। हमारे थानेदार साहब, अमिताभ बच्चन से कम नहीं है...क्या, यह बात तू जानता नहीं ?
तोंदू राम – अरे, हुज़ूर! पहले मेरी बात सुनिए। इस कोलोनी के लोग, इस नाचीज़ को इस कोलोनी का नामी शाइर कहते हैं। आप तो ज़नाब, हमारे लिए बादशाह ज़लालुद्दीन अकबर से क्या कम है ? उनके दरबार में अनेकों शाइर, उनके दरबार की शोभा बढ़ाते थे।
मोटू राम – सही कहा तूने, हम भी इस कोलोनी के शहंशाह जलालुद्दीन अकबर हैं। चल, अब तू भी क्या याद रखेगा ? हमारे दरबार में एक शाइर की ज़रूरत है, आज़ से तूझे हमारे दरबार का शाइर नियुक्त किया जाता है। अब पेश कर, तेरा कलाम।
तोंदू राम – अर्ज़ किया है..
पापड़ा राम – इरशाद है, इरशाद है।
तोंदू राम – अर्ज़ किया है, अर्ज़ किया है..’मक्खी मारूं, पंख उखेड़ू, तोडूं कच्चा सूत। लात मारकर पापड़ तोडूं, मैं शेर का पूत।
[पापड़ा राम झट डरता हुआ छुप जाता है, वनदा राम के पीछे। उसको इस तरह डरता देखकर वनदा राम, शमसुद्दीन और पम्मी बाई तालियां पीटते हुए ठहाके लगाकर ज़ोर से हंस पड़ते हैं।]
पम्मी बाई – [ठहाके लगाकर, कहती है] – वाहಽಽ, वाह हमारे काग़ज़ी शेर। क्या कहना है, हमारे साहब का ? बड़े बहादुर ठहरे, तोड़ देते हैं पापड़ को केवल एक ही लात से ? वास्तव में हमारे साहब बड़े बहादुर जंगजू शेर के पूत हैं, अब तो मुझे बादशाह अकबर का दरबारी नीमतस्लीम बजाना होगा। [कोर्निश करती है] हुज़ूर, अब दे दीजिएगा इजाज़त हमारे पार्षद साहब को, इस बगीचे में मीटिंग रखने की। जहाँपनाह, इस कोलोनी में आपका शासन खूब तरक्की करे।
मोटू राम – [ख़ुश होकर, कहता है] – क्यों नहीं, क्यों नहीं। जब अनारकली पम्मी इजाज़त मांगती है, और इस कोलोनी के शहंशाह मोटू राम उसकी तमन्ना पूरी न करे...ऐसा हो नहीं सकता। यह शहंशाह, उसके लिए आसमान से तारे तोड़कर ला सकता है।
वनदा राम – [ख़ुश होकर, कहता है] – तब हुज़ूर, रख लें मीटिंग, इस बगीचे के अन्दर ?
मोटू राम – [ख़ुश होकर, चहकता हुआ कहता है] – अरे यार, अब मीटिंग क्या ? अब तो वहां जम जायेगी महफ़िल। महफ़िल, दारु दाखों की।
वनदा राम – [लबों तक उल्टे अंगूठे को ले जाते हुए, दारु पीने का संकेत करता है] – हुज़ूर की ख़िदमत में, मीटिंग समाप्ति के जस्ट बाद में..सब हाज़िर है।
मोटू राम – [बनावटी गुस्सा ज़ाहिर करता हुआ, कहता है] – बन्दर..नालायक। एक सरकारी अफ़सर के सामने तू ऐसी बातें करता है ?
वनदा राम – यों तो हुज़ूर इस बन्दे का नाम वनदा राम है, मगर आज़ सरकार ने इस ख़िदमतगार को नया ‘बन्दर’ नाम का ख़िताब नवाज़ा है...शुक्रिया, शुक्रिया।
तोंदू राम – [धीरे से, कहता है] – जब तू ठहरा बन्दर, तब हमारे साहब क्या होंगे ? बड़ा बन्दर यानी चिम्पाजी...? बिना पूंछ का बन्दर।
मोटू राम – क्या बक रहा है, कमबख़्त ?
तोंदू राम – हुज़ूर आपकी शान में कशीदा निकाल रहा था, मेरा यही कहना है कि ‘साहब की पहुंच बहुत ऊंची है। इस कारण ही आप इस व्यापारिक शहर पाली में, आप कई सालों से जमे हैं। नहीं तो आज़कल के नेता, बिना बात हर किसी का तबादला अन्यंत्र करवा देते हैं। और पाली जिले के डार्क जोन नाणा-बेड़ा दिखला देते हैं, इन बेचारे कर्मचारियों को।’
मोटू राम – तेरी चोंच को बंद रख, तोंदू। यहां हम रखते हैं अपने हाथ में, लक्ष्मी। जब वे कहते हैं, तब उनके आगे डाल देते हैं टुकड़ा..नोटों के बण्डल का। अब तू बेकार की बकवास करना बंद कर, और जाकर बुलाकर ला उस लक्ष्मी पुत्र तलवार को। नहीं तो यह कमबख़्त , काम निकलने के बाद भूल जाएगा हमें। जल्दी कर, कमज़ात को मिठाई का पैकेट भेजने की बात याद दिलानी है..! [अपनी बढ़ी तोंद को, हाथ से सहलाता है।]
तोंदू राम – जो हुक्म, मेरे आका। अभी बुलाकर लाता हूं, उस लक्ष्मी पुत्र तलवार को।
[तोंदू राम चला जाता है। मोटू राम दो क़दम आगे बढ़ता है, उसे रोकती हुई पम्मी कहती है।]
पम्मी बाई – साहब, थोडा रुकिए ज़नाब।
मोटू राम – [रुकता है, फिर डंडे को हाथ से सहलाता हुआ कहता है] – क्यों री कहीं पटाका छूट गया, या कहीं पटका मारने चलना है ?
पम्मी बाई – हुज़ूर, पटाका नहीं, खटका है।
[चारदीवारी के बाहर उससे सटे हुए चबूतरे की तरफ़, उंगली का इशारा करती हुई पम्मी कहती है।]
पम्मी बाई – [उंगली से चबूतरे की तरफ़ इशारा करती हुई, कहती है] – वह...वह, चबूतरा है ना..? वहां...
मोटू राम – [दोनों हाथ की हथेलियों को, केमेरे की शक्ल देकर अपनी आँखों के निकट ले जाकर, उधर देखने का स्वांग करता है] – उस चबूतरे के ऊपर एक खूसट बुढ़िया बैठी है, उसे क्या देखूं मेरी अनारकली ? जहां यहां एक अनार की कली सुगंध फैला रही है, फिर उस बबूल के झाड़ को क्या देखना ? [अपना एक हाथ, पम्मी के कंधे पर रखता है]
पम्मी बाई – [कंधे पर रखे हाथ को हटाकर, कहती है] – ओह, माय गोड। आपकी निग़ाह को, क्या हो गया ? चारदीवारी के पास हुए अतिक्रमण पर, आपकी नज़र टिक नहीं रही है ? उसकी जगह दिखाई दे रही है, आपको यह बुढ़िया-खुसूट ? हुज़ूर आप जानते नहीं, यह अतिक्रमण आपके कमल खांजी ने किया है।
पापड़ा राम – यह तो पम्मी बाई, कमल खांजी की मेहरबानी है। इन्होंने कुत्ता बाबा की मज़ार बनायी है, और अब वे इस पर छतरीनुमा गुम्बद खड़ा करेंगे। [मोटू राम से कहता है] हुज़ूर, ये कुत्ते बाबा बड़े चमत्कारी हैं। इनकी मज़ार पर कोई मन्नत बोल देता है, वह झट कबूल हो जाती है। हुज़ूर, आप भी इस मज़ार पर मत्था टिकाकर मन्नत मांग लें।
पम्मी बाई – [मुंह बनाकर, कहती है] – हां, हां। क्यों नहीं, ज़नाब को अपना सर झुकाना चाहिए कुत्ता बाबा के दरबार में। ये कुत्ते बाबा इस गली के वही काबरिये कुत्ते थे, जिनकी लोथ १५ दिन से सड़ रही थी..गली के नुक्कड़ पर। कमल खांजी ठहरे दयालु, उन्होंने लोथ उठवाकर वहां ले आये।
पापड़ा राम - और चारदीवारी के पास गड्डा खोदकर, उस लोथ को वहां दफ़न कर दी। फिर, उस पर एक चबूतरा बनवा डाला। इस चबूतरे को उन्होंने ‘कुत्ता बाबा की मज़ार’ घोषित कर डाला। अब तो हुज़ूर, कई जायरीन यहां मन्नत माँगने आते हैं!
पापड़ा राम – कमल खांजी की क़िस्मत चमक उठी, अब तो खूब चढ़ावा आ रहा है..हमारे कमल खांजी के पास।
पम्मी बाई – मज़ार बन गयी, अब यहां जायरीनों के लिए बनेगी प्याऊ। फिर इस पूरी ज़मीन को कब्ज़े में लेकर कमल खांजी इस पर दुकानें बनवा देंगे। फिर क्या ? वही पान की दुकानें खुलेगी, और उनके पिछवाड़े से दारु सप्लाई होगी...और फिर इस बगीचे में, दारु की महफिलें आबाद होती रहेगी। [बुरा मुंह बनाती हुई, कहती है] क्या करें, हुज़ूर ?
पापड़ा राम – करना क्या ? इस अवाम में, जागरूकता आने वाली नहीं। बस हुज़ूर, ‘रांडे रोती रहेगी और पाहुने जीमते रहेंगे।’ ’कोई सुधार होने वाला नहीं। जब कभी इस चबूतरे की शिकायत आएगी, बस हमें इस कान से सुनना है और दूसरे कान से बाहर निकालना है।
मोटू राम – अरे छोड़िये, इस मेटर को। चबूतरा क्या, इस पर वे आलिशान बिल्डिंग खड़ी कर दें..अपना क्या गया, बाप का ? ऐसी किस भले आदमी में इतनी हिम्मत होगी, जो कमल खांजी के ख़िलाफ़ उनकी शिकायत दर्ज कराने की जुर्रत करेगा ?
पापड़ा राम – कोई एफ़.आई.आर. लिखाना चाहेगा, तो क्या हम लिख देंगे ? एफ.आई.आर. लिखने का अर्थ है, अपना सर ओखली में डालना।
मोटूराम – अब तुम सभी भूल जाओ, इस मेटर को। इस वक़्त हमारे बहुत अच्छे रसूख़ात हैं, कमल खांजी के साथ। अब चलिए, इस बगीचे में कमल खांजी हम सबकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे ?
[अब ये सभी चलते-चलते बगीचे के उस हिस्से में पहुंच जाते हैं जहां रंगीली बेंच पर बैठी बीड़ी पीती जा रही है, और पास की बेंच पर बैठे बेजान दारू वाला और कमल खां के बीच में गुफ़्तगू चल रही है। अब यह पुलिस टीम कुछ दूर चुपचाप खड़ी रहकर, इन दोनों की गुफ़्तगू सुनने लगी। कमल खां बेजान दारु वाला से, कह रहे हैं।]
कमल खां – यार मैं सोचता हूं, तू आख़िर है तो तलवार की बिरादरी का। तुम दोनों का धंधा एक ही है, वह है दारू बेचने का। तलवार करता है यह धंधा, सबके सामने लाइसेंस लेकर। और तू करता है यह धंधा, छाने-छुपके।
बेजान दारु वाला - हुजूर, आप सब कुछ जान गए हैं। सत्य बात कह दी, आपने। हम दोनों का एक ही धंधा है, दारु बेचने का।
कमल खां – [गुस्सा ज़ाहिर करते हुए, कहते है] – अच्छा, अब मुझे पूरी बात समझ में आ गयी है। हमारी कोलोनी में हमारी बिना इज़ाज़त बेक एंट्री मारने वाला तू ही है। अरे ए गधे, धंधा करता है हमारी कोलोनी में और मिठाई का पैकेट थमा देता है किसी दूसरे को।
बेजान दारु वाला – [डरता हुआ, कहता है] – अरे हुज़ूर, मुझमें कहाँ है इतनी हिम्मत ? जो मैं किसी दूसरे को मिठाई का पैकेट थमा दूं ? बात यह है ज़नाब, तलवार साहब ने हिदायत दे रखी है मुझे कि..
कमल खां – कौनसी हिदायत दे रखी है, तूझे ? बता झट, खोजबलिये!
बेजान दारु वाला – उन्होंने धमकी दी है कि, अगर कभी ग़लती से भी आपको मिठाई का पैकेट दे दिया तो वे सीधे जाकर थानेदार साहब के पास मेरी शिकायत करेंगे! [रोने का अभिनय करते हुए, कहते है] अरे रामसा पीर, मेरी तो अब लुटिया डूब जाएगी।
रंगीली – साहब, आपकी लुटिया कैसे डूब जायेगी ? ज़नाब, बस आप एक बोतल साहब को नज़र कर दें...
बेजान दारुवाला – [रोनी आवाज़ में, कमल खां से कहता है] - मैं बेचारा चुपके-चुपके कर रहा था दारु का धंधा। अब तो हुज़ूर, आपको भी मालुम पड़ गया। मेरा धंधा चौपट कर डालेंगे, आप। अब तो मैं बेमौत मारा गया, आप दोनों के बीच। इधर आप हो गए हैं, नाराज़ और उधर अब नाराज़ हो जायेंगे तलवार साहब। उनके सहारे मेरा धंधा चल रहा था, अब मैं ग़रीब क्या करूंगा ? मेरे बाल-बच्चे भूखे मर जायेंगे।
कमल खां – [गुस्से से उफ़नते हुए, कहते हैं] – आने दे, उस कमबख़्त को। मेरी बिल्ली, मुझसे म्याऊं ? मेरे घर आ रही मिठाई के बीच आकर खड़ा हो गया खडूसिया, दाल-भात में मूसल चंद बनकर ?
[अब मोटू राम अपने पुलिस वालों के साथ वहां पहुंच जाते हैं, जहां कमल खां और बेजान दारुवाला बात कर रहे हैं। उनके पीछे-पीछे पार्टी के कार्यकर्ता भी वहां आ जाते हैं।]
मोटू राम – [नज़दीक आकर, कहता है] – अब समझ में आ गया, सारा राज़। यह कैसे हो रहा है यहां, चूहे-बिल्ली का खेल ? [डंडे पर, हाथ फेरता है]
[अब सामने से दारू का ठेकेदार तलवार आता दिखाई देता है। आ रहे तलवार को थानेदार मोटू राम की कही बात सुनायी दे जाती है। अब सभी आकर, खाली बेंचों पर बैठ जाते हैं!
तलवार – [डरता हुआ, कहता है] – ‘बिल्ली और चूहे के खेल’ का क्या मतलब, हुज़ूर ? इन जानवरों को कौन पालता है, हुज़ूर ? मैं बेचारा ग़रीब, केवल कछुआ पालने का शौक रखता हूं।
पापड़ा राम – [हंसता हुआ, कहता है] – अरे, वाह! ज़नाब पालते हैं कछुआ, और इन कछुओं के नाम रखते है अलग-अलग। क्या कहें, ज़नाब ? किसी का नाम है रम तो किसी का नाम है व्हिस्की, और किसी का नाम रख इया है वोदका। क्या कहें, आपका ? ये नाम कछुए के होते हैं, या शराब के ?
मोटू राम – [डंडे को हाथ से सहलाता हुआ, कहता है] – बस..बस, अब नाम गिनाने की क्या आवश्यकता ? बंद कर, नाम गिनना। सारी अन्दर की बात, समझ गया मैं। जब कभी ये कस्टम वाले आते हैं, तब यह माता का दीना नुकुर जाता है...
पापड़ा राम – [छोड़ी हुई बात को पूरी करता हुआ, कहता है] - और, कमबख़्त.कहता है ‘अरे हुज़ूर। मैं कहाँ शराब का नाम ले रहा था ? मैं बेचारा गरीब अपने कछुओं को बुला रहा था, उनका नाम लेकर।’ और ग्राहक के आते ही यह कमबख़्त झट विदेशी दारु निकालकर पकड़ा देता हैं, अपने ग्राहक को। अब, इससे पूछिए...
पम्मी बाई – क्या पूछें, हुज़ूर ?
मोटू राम – पूछना यह है कि, ‘गधे तूझे लाइसेंस मिला है, देशी दारू रखने का। और तू, कैसे बेच रहा है विदेशी दारू ?’
पम्मी बाई – अजी हुज़ूर आपको क्या बताऊँ ? तलवार साहब बावलों की तरह, अपने पाले हुए जानवरों से प्रेम करते हैं। क्या बताऊँ, ज़नाब ? आमवस्या की रात को अपने सभी कछुओं को पूरी आज़ादी दे रखी है, घूमने की।
वनदा राम – अरे हुज़ूर, इन कछुओं को ऐसी कहाँ आज़ादी मिली है ज़नाब ? ये आली ज़नाब इन कछुओं की पीठ पर जलती मोमबत्ती रख देते हैं, फिर गहन अन्धकार में ये चलती हुई मोमबत्तियां प्रेत-लीला के माफ़िक नज़र आती है।
मोटू राम – आगे बोल, प्यारे।
वनदा राम - एक बार ऐसा हुआ, यह पापड़ा राम रात को गश्त में था। वह श्मसान के नज़दीक स्थित, तलवार साहब के मकान के पास से गुज़र रहा था..तभी उस बेचारे ने उन चलती मोमबत्तियों को उस गहन अन्धकार में भूतों की तरह चलते देखा।
पम्मी बाई – [दुःख से] – अरे राम। मारा गया, बेचारा ग़रीब पापड़ा राम।
वनदा राम – आगे सुनो, पम्मी बाई। [मोटू राम को देखता हुआ, कहता है] - उसी वक़्त, डर के मारे बेचारे की धोती..अरे नहीं ज़नाब पेंट गीली हो गयी। आप जानते हैं, हुज़ूर ? रामा पीर जाने, इन्होने काहे अपना मकान इस शमसान के पास बनवाया...इन भूत-प्रेतों के, अड्डों के पास ?
पापड़ा राम – [ज़ोर से कहता है, तल्ख़ आवाज़ में] - चुप...चुप, वनदा राम। कहीं तेरा आटा, वादी तो नहीं कर रहा है ? [डंडा फटकारता हुआ, कहता है] यह बात तूझे किसने बतायी रे, मर्दूद ? ऐसा लगता है, तेरे बदन पर चर्बी बहुत चढ़ गयी है..अब मुझे उतारनी होगी, इसे डंडे से पीट-पीटकर।
मोटू राम – पापड़। ज़्यादा जोर से कूक मत, टूट जाएगा कमबख़्त ।
शमसुद्दीन – [लबों पर मुस्कान बिखेरता हुआ, मोटू राम से कहता है] – हुज़ूर, आप हैं साहब बहादुर। जो एक लात मारकर पापड़ को तोड़ डालते हैं। आली ज़नाब, क्या कहना है आपका ?
पम्मी बाई – [मुस्कराती हुई, कहती है] – तब ही हुज़ूर को ख़िताब मिला है, तीसमार खां का।
[पम्मी की बात सुनकर, मोटू राम अपनी मूंछों पर ताव देता हैं। और, खारी-खारी नज़रों से कमल खां को देखता हैं।]
कमलखां – छोड़िये अब फ़िज़ूल की बातें, और कीजिये काम की बात। [तलवार से कहते हैं] तलवार। तेरी म्यान ओछी हो गयी है, क्या ? इस कारण आज़कल, तू म्यान से बाहर निकलने लगा है ?
तलवार – [डरता हुआ, कहता है] – अरे साहब, क्या ग़लती हो गयी है मुझसे ?
[मोटू राम डंडे को ज़मीन पर तीन-चार दफ़े बजाकर, आवाज़ पैदा करता है...जिससे तलवार मार के डर से कांप जाए। फिर उसे धमकाता हुआ, उससे कहता है।]
मोटू राम - ग़लती के बच्चे, तू कौन होता है, दारु वाले को हिदायत देने वाला ? धमकी देने के पॉवर, तूझे किसने दे डाले ?
कमल खां – क्या बोला रे, तलवार तू इस दारु वाले को ? कमबख़्त हिदायत देकर इसे कहता है कि ‘अगर इसने मिठाई का पैकेट किसी दूसरे को थमा दिया, तो तू जाकर शिकायत कर आयेगा थानेदार साहब के पास ?’ क्यों रे, तेरे अकेले की जागीर बन गयी है मिठाई का डब्बा लेने की ?
मोटूराम – ए दारू वाला। अब तू पिछली बातों को रहने दे, अब तू यों कर कि ‘मिठाई लाकर हम दोनों के बीच में बाँट दे।’ [तलवार से, कहता है] अब तू कान खोलकर, सुन ले तलवार। इस कोलोनी के अन्दर धंधा अकेला नहीं किया जाता, दूसरे लोगों के नसीब पर ताला जड़ना व्यापार का क़ायदा नहीं होता।
कमलखां – देख रे, तलवार। ग्राहक तो ख़ुदा का रूप है, उस ग्राहक रुपी ख़ुदा के दीदार सबको होने चाहिए। मंडी में कई सब्जी बेचने वाली मालनियां बैठती है, मगर सब्जी सबकी बिकती है।
तलवार – [डर जाता है, फिर हाथ जोड़कर कहता है] – हुज़ूर। इस दारु वाला को मैं जानता ही नहीं, ये ज़नाब आख़िर है कौन ?
मोटू राम – [डंडे पर, हाथ फेरता हुआ कहता है] – साला, तू इस गंगा राम को जानता है ? या फिर, इसको भूल गया है तू ? जानता है, यह तेरी एक-एक हड्डी को गिन लेगा। यह चल गया मर्दूद, तो तूझे अपने-आप इसका परिचय मालुम हो जाएगा। अब बोल, नामाकूल। इस गंगा राम को हुक्म दे डालूँ, या फिर तू पोपट की तरह बोलना चालू करता है ?
[बेजान दारु वाला झट उठकर, मोटू राम के कंधे दबाता है। कंधे दबाता हुआ, वह कहता है।]
बेजान दारुवाला – [मोटू राम के कंधे दबाता हुआ, कहता है] – साहब, इस बेचारे नादान को छोड़ दीजिए। इसने अभी-तक आपके गंगा राम का असली रूप, देखा कहाँ है ? मालिक, आप बस हुक्म कीजिये। आप दोनों के घर, मिठाई के कितने पैकेट भेजने हैं ?
मोटू राम – [मुस्कराता हुआ, कहता है] – वाह, यार दारु वाला। दारु बेचने के सारे क़ायदे, समझ गया ? ऐसे तो भाई हम तुझसे लेना नहीं चाहते, मगर करें क्या ?
तोंदू राम – मगर करें, क्या ? [बात को पूरी करता हुआ, कहता है] घोड़ा और घास की यारी होती नहीं, घोड़ा घास नहीं खायेगा तो वह भूखा मर जाएगा।
शमसुद्दीन – [बनावटी गुस्सा जतलाता हुआ, तोंदू राम से कहता है] – काफ़िर का बच्चा। तू तीसमारखां साहब को घोड़ा कहने की जुर्रत कर रहा है ? यह इनका अपमान मैं बर्दाश्त नहीं करूंगा..समझ गया, बेअक्ल के लौंडे ?
मोटू राम – रहने दीजिये, चच्चा। घास का एक तिनका इसको भी खिला देंगे, फिर यह गधा अपने-आप चुप बैठा रहेगा। [दारु वाला से, कहते हुए] अब भाई तू यों कर, पच्चास हज़ार अपने कमल खां साहब के घर और..
कमल खां – [मुस्कराते हुए, कहते हैं] – और पच्चास हज़ार, थानेदार साहब के दीवान खाने....
तोंदू राम – [मुस्कराता हुआ, कहता है] - पहुंचा देना।
शमसुद्दीन – बाद में मियाँ, तू पूरा आज़ाद। फिर तू कहीं से दारु लाकर यहाँ बेच, हमें कोई मतलब नहीं। चाहे तो तू हरियाणा से लाकर बेच या फिर तू लेकर आ जा गुजरात से, हमें कोई मतलब नहीं। भले तू विदेशी लाकर बेच या हथकढ़ी, मगर मिठाई के पैकेट इन दोनों साहब के ग़रीब खाने पर बराबर पहुंचाते रहना। इसमें कोताही नहीं होनी चाहिए, समझ गया भाई ?
पम्मी बाई – हथकढ़ी दारू बहुत सस्ती पड़ती है, मगर हाथ में आनी चाहिए लक्ष्मी। आपकी इच्छा हो तो तो स्प्रिट मिलाकर बेचो, इससे साहब लोगों को कोई लेना-देना नहीं। बस, तुम तो उनके घर, मिठाई के पैकेट ज़रूर वक़्त पर पहुंचाते रहना। वह भी भैया, रोकड़ा। [नक़द रुपये गिनने का, इशारा करती है]
रंगीली – [अपना सर थामकर, कहती है] – भले चाहे इस नक़ली दारू को पीकर न मालुम कितने ही ग़रीब इंसान मरते जाय, मगर साहब लोगों के घर मिठाई के पैकेट रोकड़ा बराबर पहुंच जाने चाहिए। श्मसान में लाशें जलती रहे इन ग़रीब इंसानों की, मगर कोई फ़र्क नहीं पड़ता। यहाँ तो भाई, पाहुने जीमते रहेंगे और बेवा औरतें रोती रहेगी।
[इतना कहकर, रंगीली फूट-फूटकर ज़ोर से रो पड़ती है। फिर, रोनी आवाज़ में, कहती है]
रंगीली – [रोनी आवाज़ में कहती है] - अरे रामसा पीर। नक़ली दारु पीकर मेरा मर्द रात से उल्टी करता जा रहा है, अब तो वह ज़रूर मर जाएगा। [ज़ोर-ज़ोर से दहाड़ मारकर, रोती है] मर जाएगा रे∙∙∙मेरा मर्द मर जाएगा रे।
[बेजान दारु वाला रंगीली की ओर दयनीय दृष्टि से देखता है, उसे समझाते हुए कमल खां कहते हैं!]
कमल खां – भाई दारु वाला, तू फ़िक्र काहे करता है ? यह रंगीली ठहरी, पागल। आज़ इसने दारु अपने हलक में दारू उतारा नहीं है, इसलिए...
[बेजान दारु वाला मुस्कराता है, फिर ज़ोर से सीटी बजाता है। सीटी सुनकर, बगीचे के बाहर खड़े उसके सफ़ेदपोश आदमी तपाक से वहां आ जाते हैं। फिर क्या ? चारों तरफ़ से घेरा डालकर सभी बैठे महानुभवों पर पिस्तौल ताने खड़े हो जाते हैं। अब दारु वाला को छोड़कर, सभी इन आदमियों को अचरच से देखते रह जाते हैं। मौत को सामने पाकर इन बेचारों में ऐसे कई आदमी ऐसे कमज़ोर दिल के भी हैं, जो पिस्तोलें देखते ही डरकर कांपने लगते हैं। डर के मारे उन बेचारों को, पाख़ाना जाने की शिकायत अलग से हो जाती है।]
बेजान दारु वाला – [जेब से पिस्तौल निकालकर, कहता है] - जानते हो, हम सभी सी.आई.डी. महकमें के हैं ? मैं हूं, ए.सी.पी. प्रद्युम्न सिंह। आप लोगों की की कई शिकायतें सरकार के पास आ चुकी है, आप लोग तो इतना सियासती रसूख़ात रखते हैं...जिसके कारण आपके खिलाफ़, कोई आवाज़ उठा नहीं पाता। कारण यह है कि, आपके खिलाफ़ बोलने वाले के पास डेड बेंत का कलेज़ा होगा वही आपके खिलाफ़ बोल सकता है। इसलिए रंगे हाथ सबूतों के साथ आपको लोगों को पकड़ने के लिए, हमारी स्पेशल टीम बनी है।
कमल खां – मगर, आपके पास हमारे खिलाफ़ कोई सबूत नहीं है। कारण यह है, आपके सामने किसी प्रकार का रुपयों का लेन-देन नहीं हुआ। फिर बताइये कि, जुर्म कैसे हो गया ? [ठहाके लगाकर, हंसते हैं]
प्रद्युम्न सिंह – [मुस्कराकर, कहते हैं] – इस बगीचे में, स्थान-स्थान पर पर गुप्त केमरे लगे हैं। आप लोगों का पूरा वार्तालाप, इन केमेरों में कैद हो गया है। उस वार्तालाप में, आपके द्वारा रिश्वत के रूप में रुपये माँगने पूरे सबूत मौज़ूद है।
[फिर क्या ? कमल खां वहां से बचकर भागने की कोशिश करते हैं, मगर उनकी कलाई और गरदन प्रद्युम्न सिंह की मज़बूत पकड़ में आ जाती है। कमल खां की गरदन उनके हाथ में आते ही, उन्हें पकड़कर वापस बेंच पर बैठा देते हैं। अब बेचारे कमल खां लाचारी से मोटू राम और तलवार की तरफ़ देखते हैं...शायद ये दोनों उनको बचाने की कोई कोशिश कर दे तो..गंगा मथुरा नहाए। मगर वे दोनों उनको बचाने की कोई कोशिश नहीं करते हैं, इसके विपरीत तलवार अपनी सफ़ाई देता हुआ, प्रद्युम्न सिंह से कहता है।]
तलवार – [हाथ जोड़कर, कहता है]– हुज़ूर, मेरे पास दारू बेचने का लाइसेंस है।
प्रद्युम्न सिंह – ए रे, हरामी। मंदिर और स्कूल के बाहर, तूझे दारू बेचने का लाइसेंस मिल गया..क्या ?
[इतना कहते ही, तलवार के ज़ब्हा से पसीने की बूंदे छलकने लगी है, और अब उसके पाँव थर-थर कांपते जा रहे हैं। तभी, प्रद्युम्न सिंह कह देते हैं।]
प्रद्युम्न सिंह – हरियाणा और गुजरात से दारू लाकर, बेचने का लाइसेंस तुझको किसने दिया रे ? हथकढ़ी दारू और यह नक़ली स्प्रीट मिली दारु किस लाइसेंस के तौर पर बेच रहा है, कमबख़्त ? न जाने कितने लाचार ग़रीबों तू इस दारु से मार चुका है, और अभी भी मारता जा रहा है ? बेरहम, तूझे इतनी भी दया नहीं आयी...?
रंगीली – करम फूट गए साहब, मेरे तो। मेरा मर्द कल रात को इनकी बनायी नक़ली दारु पीकर आ गया घर, तब से वह पड़ा है खाट में। अरे राम। इन कसाइयों ने मार डाला रे, मेरे मर्द को।
प्रद्युम्न सिंह – [रंगीली से, कहते हैं] – तू ठण्ड रख, रंगीली। तेरे मर्द को पहुंचाकर आ गए, मेरे आदमी..
रंगीली – अरे हुज़ूर। कहाँ पहुंचाकर आ गए, आपके आदमी ? कहीं उसे श्मसान पहुंचाकर आ गए, क्या ?
प्रद्युम्न सिंह – [हंसते हुए, कहते हैं] – अरे ए गेलसफ़ी...फूटी झालर। श्मसान में नहीं, उसे अस्पताल में भर्ती करवा दिया, अब उसका इलाज़ चल रहा है। सही वक़्त पर उसको अस्पताल ले गए, इसलिए वह बच गया। अब तू फ़िक्र मत कर, रंगीली। [अपने आदमियों से, कहते हैं] अब पहना दो इन तीनों के हाथों में, सरकारी गहने।
[अब तीनों अपराधियों के हाथ में हथकड़ी पहना दी जाती है। रंगीली इन अपराधियों के हाथ में हथकड़ी देखकर, खुश होती है। वह जी भर कर, प्रद्युम्न सिंह को दुआ देती है।]
रंगीली – [दुआ देती हुई, कहती है] – युग-युग जीयो, सरकार। ये ज़नाब कमल खांजी जो पार्षद है, वह...
प्रद्युम्न सिंह – तू ठण्ड रख, रंगीली। [अब प्रद्युम्न सिंह तलवार को देखते हुए, उससे कहते हैं।] क्यों बे ठेकेदार, क्या नाम है तेरा ? तलवार...? और तू पर्यावरण के ऊपर चला रहा है, तलवार ? कमबख़्त, जैसा तेरा नाम है, वैसे ही तूझमें दुर्गुण भरे पड़े हैं।
तलवार – [रोनी आवाज़ में] – साहब, माफ़..माफ़ कीजिये...
प्रद्युम्न सिंह – चुप साले। बेचारे कछुए जैसे निरीह-प्राणियों को उनके प्राकृतिक आवास से दूर करके, उन्हें तू अपने घर में रखता है ? तूने तो वन्य जीव-जंतुओं के क़ानून की धज्जियां उड़ा दी रे, माता के दीने।
तलवार – [रोता हुआ, गुहार लगाता है] – अरे हुज़ूर, मेरे मां-बाप। रहम कीजिएगा मेरे ऊपर..कृपा करके ऐसा मत कहिये। मैं इन निरीह प्राणियों पर रहम खाकर इनको अपने घर रखकर आसरा दिया है, इन्हें पालता हुआ इनकी खुराक का पूरा बंदोबस्त करता हूँ। ये तो मेरे बच्चों के समान है, हुज़ूर। इनको मैं अपने बच्चों की तरह पालता हूँ, हुज़ूर।
पम्मी बाई – कहाँ पालता है, बच्चों की तरह ? [प्रद्युम्न सिंह से कहती है] हुज़ूर, यह तलवार रहता है, श्मसान के पास। हर अमावस की गहन रात को अपने सारे कछुओं की पीठ पर जलती हुई मोमबत्ती रखकर उन्हें खुली सड़क पर छोड़ देता है। एक रात मेरे भाई ने यह मंज़र देख लिया, हुज़ूर। उसने समझा, यह कोई प्रेत-लीला है। बेचारा इतना डरा...इतना डरा कि सात दिन बुखार में पड़ा रहा हुज़ूर।
प्रद्युम्न सिंह – [तलवार से तल्ख़ आवाज़ में, कहते हैं] – क्यों झूठ बोल रहा है, कमबख़्त ? लोगों का ध्यान तेरी तस्करी के ज़रिये मंगवाए जा रहे माल की तरफ़ न जाए, इसलिए तू इन बेचारे निरीह प्राणियों की पीठ पर जलती मोम–बत्ती रखकर उन्हें तू खुली सड़क पर छोड़ देता है।
पम्मी बाई – आगे कहिये, हुज़ूर।
प्रद्युम्न सिंह - बेचारे नासमझ लोग इसे प्रेत-लीला मानकर उधर फटकते नहीं, ताकि तू उस वक़्त झट नक़ली दारु की डिलेवरी ले सके ? इस तरह लोगों को मालुम ही नहीं पड़ता, कि तू नक़ली दारू का धंधा करता है। बहुत अच्छा प्लान बनाया रे, तूने। साला मां का ...[भद्दी गली की पर्ची निकालते हैं]
पापड़ा राम – हुज़ूर, आपने सौ फीसदी सच्च कहा है। सुनिए, एक बार मैं अमावस की रात गश्त लगा रहा था। वहां मैंने इन जलती मोमबत्तियों को चलते देख, मैं इन्हें भूत समझ बैठा। [डंडे को ज़मीन पटकता है, फिर तलवार को धमकाता हुआ कहता है] क्यों रे, खेजड़ी के कांटे। नक़ली दारू का धंधा खुले आम करता जा रहा है, और लोगों को मौत का पैगाम देता है...कमबख़्त ।
[उन तीनों को, खारी-खारी नज़रों से देखता हुआ आगे कहता है]
पापड़ा राम - कमबख्तों, तुम तीनों ही एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हो।
मोटू राम – [गुस्से से उबलता हुआ, कहता है] – ज़बान पर लगाम दे, पापड़। मुझे कैसे इनके साथ शामिल कर रहा है, बेवकूफ़ ? अब तूझे अपने दांत तुड़ाने है, क्या ?
प्रद्युम्न सिंह – [मुस्कराते हुए, कहते हैं] – तोड़ तोड़, बड़ा आया तीसमारखां..? [कमल खां, मोटू राम और तलवार की तरफ़ देखते हुए, कहते हैं] भृष्टाचार के अवतार। राम ने कैसी बनायी है, तुम तीनों की युगल जोड़ी ? वाह, भाई वाह। आखिर, आ ही गया वह दिन, जब तुम तीनों के पाप के घड़े पूरे भर गए। [अपने आदमियों से, कहते हैं] अब ले चलो, इनको।
पम्मी बाई – [उतावली से, कहती है] – अरे साहब, वह अतिक्रमण वाला चबूतरा...
प्रद्युम्न सिंह – [हंसते हुए, कहते हैं] – अरे ए, साज़-श्रृंगार की दुकान। तूझे करना क्या है, इस चबूतरे का ? कहीं तूझे इस चबूतरे पर,ब्यूटी पार्लर की दुकान खोलनी है ? ले सुन, इस पार्षद कमल खां के खिलाफ़ अदालत में अतिक्रमण करने का मामला लगा दिया गया है।
पम्मी बाई – फिर..?
प्रद्युम्न सिंह - इसके अलावा यह भी प्रकरण दर्ज हो गया है कि, इस युगल जोड़ी ने इस बगीचे में कचरा फैला रखा है, वह भी इसलिए कि ये लोग अवैध दारु यहाँ के टाँके में रख सके। ये लोग आये दिन, यहाँ दारु की महफिलें आयोजित करते रहें।
रंगीली – अरे हुज़ूर, अब मेरे हाथ दारु कैसे आएगी..? अरे राम, इन महफिलों की बची जूठी दारु से...
प्रद्युम्न सिंह – [बात काटते हुए, कहते हैं] – अब छोड़ दे इस दारु को, जिसने तेरे पूरे परिवार को बरबाद कर डाला। अब सुन, जब तेरा मर्द अस्पताल से आ जाएगा बाहर। तब गाँव माणकलाव से सेवा दल आयेगा यहाँ, और तुम जैसों पियक्कड़ो को अपने साथ ले जाएगा माणकलाव। वहां इलाज़ के ज़रिये, तुम सबकी दारु छुड़वाई जायेगी।
रंगीली – आपका भला हो, साहब। अब मैं हाथ-पानी लेती हूँ ‘अब कभी दारु नहीं पिऊँगी।’
प्रद्युम्न सिंह – [कुरड़ा राम से, कहते हैं] – भाई कुरड़ा राम। फ़टाफ़ट तू पम्मी को लेकर आ जा।
पम्मी बाई – [बीच में, बोलती है] – हुज़ूर, मैं पहले से आपकी ख़िदमत में यहीं बैठी हूँ। हुक्म कीजिये, हुज़ूर।
प्रद्युम्न सिंह – [हंसते हुए, कहते हैं] – अरे बावली। तूझे लाने का नहीं कहा है, मैंने। हमारी जासूसी कुत्ती है, जिसका नाम है पम्मी। उसे यहाँ लाने का कहा है, वह जब यहाँ आयेगी तब वह सूंघ-सूंघकर बतायेगी कि इस तीनों की युगल जोड़ी ने शराब की बोतलें कहाँ-कहाँ छुपाकर रखी है ?
[थोड़ी देर बाद, कुरड़ा राम जासूसी कुत्ती को लेकर आ जाता है। जो कई स्थान पर सूंघती हुई पीपल के पेड़ के नज़दीक लगे कचरे के ढेर के पास पहुंच जाती है, वहां पहुंचते ही वह भौंकने लगती है। फिर जंजीर छुड़ाकर वहां चली जाती है, जहां टांका बना है। वहां पड़े कचरे के ढेर को, अपने पाँव के पंजों से हटाने लगती है। तब कुरड़ा राम झट फावड़ा लाकर, उससे कचरा हटाता है। कचरे के हटते ही, टाँके के दीदार होते हैं। इस टाँके का ढक्कन लोहे का बना है। अब इस ढक्कन को दूर लेते ही, दारु की बोतलों का ज़खीरा दिखाई देता है।]
कुरड़ा राम – [टांके के अन्दर झांकता हुआ, कहता है] – साहब, यह पानी का टांका है, या दारु का गोदाम ? हुज़ूर, यहाँ सार्वजनिक सम्पति का दुरूपयोग हो रहा है।
[अचानक, कमल खां की बेगम फातमा वहां आती है। सूर्पणका राक्षसनी की तरह, उसके बाल बिखरे हैं। वह चिल्लाती हुई, कुरड़ा राम के नज़दीक आती है। फिर उससे वाक्-युद्ध करने की स्टाइल में आकर, तल्ख़ आवाज़ में कहती है।]
फातमा – [तल्ख़ आवाज़ में, कहती है] – गधे, सूअर की औलाद। मेरे आँगन में मोहल्ले का कचरा डालकर चला गया कमबख़्त ? मेरे आँगन को तूने, नाथी का बाड़ा समझ रखा है ? आया, और डालकर चला गया ? आ इधर, अबमैं तेरी ऐसी की तैशी कर देती हूँ।
प्रद्युम्न सिंह – [हँसते हुए, कहते हैं] – भाभीजी। इस कचरे को इकट्ठा करके लोकर में रख लीजिएगा, यह कचरा नहीं है, अमूल्य निधि है। [कमल खां की तरफ़ देखते हुए, कहते हैं] क्यों पार्षद साहब ? सच्च कह रहा हूँ ना ? यह आपकी कही हुई बात है, इसलिए मैंने ऐसे बेशकीमती कचरे को आपके घर रखवा दिया। कहिये, ठीक किया या नहीं ? आख़िर, यह है देश की अमूल्य निधि।
[सबके लबों पर, मुस्कान फ़ैल जाती है। अब प्रद्युम्न सिंह के आदमी यानी सी.आई.डी. वाले, हथकड़ी पहने इन तीनों अपराधियों को ले जाते हुए दिखाई दे रहे हैं। अब प्रद्युम्न सिंह वहां उपस्थित पुलिस कांस्टेबल, पार्टी के कार्यकर्ताओं और रंगीली को संबोधित करते हुए कहते हैं।]
प्रद्युम्न सिंह – [ज़ोर से बोलते हुए, कहते हैं] – क्यों भाइयों। यह कचरा तो केवल इन पेड़ों की पत्तियों का है। मगर आपके ये नेता गण जिन्हें आप चुनते हैं, वे अपने सियासती स्वार्थ के लिए आप लोगों के दिमाग़ में पाल रहे हैं कचरा, अंधविश्वास, साम्प्रदायिकता, जातिवाद, वर्ग-भेद, लिंग-भेद आदि का। अब आप, इस कचरे को अपने दिमाग़ से बाहर निकालिए। यह दिमाग़ का कचरा तब ही निकलेगा, जब आप सभी शिक्षा की अलख गाँव-गाँव और शहर-शहर में फैलाते जायेंगे। शिक्षा के ज्ञान की रोशनी पहुंचते ही, यह सारा कचरा स्वत: बाहर निकल आएगा, आपके दिमाग़ से। अब आप सभी ज़ोर से बोलिए, “दारु पीना।”
सभी – [एक स्वर में, ज़ोर से बोलते हैं]– “हराम है।”
प्रद्युम्न सिंह – [ज़ोर से, बोलते हैं] – “जंगली जानवरों की आज़ादी।”
सभी – [एक स्वर में, ज़ोर से बोलते हैं] – “बनी रहे। बनी रहे।”
प्रद्युम्न सिंह – [ज़ोर से, बोलते हैं] – “अतिक्रमण।”
सभी – [एक स्वर में, ज़ोर से बोलते हैं] – “नहीं करेंगे, नहीं करेंगे।”
प्रद्युम्न सिंह – [ज़ोर से, बोलते हैं] – “कचरे को दूर हटाकर।”
सभी – [एक स्वर में, ज़ोर से बोलते हैं] – “तंदरुस्ती को पास बुलाएं।”
प्रद्युम्न सिंह – [हाथ हिलाते हुए, गाने की स्टाइल में कहते हैं]– अच्छा, तो हम चलते हैं।
सभी – [गीत गाने की स्टाइल में, कहते हैं] - फिर कब मिलोगे ?
[प्रद्युम्न सिंह जाते हुए नज़र आते हैं, अब दूर से उनकी आवाज़ आती है।]
प्रद्युम्न सिंह – [दूर से, आवाज़ आती है] – जब तुम कहोगे...
[सभी के जाने की पदचाप सुनायी देती है। थोड़ी देर बाद, मंच पर अँधेरा छा जाता है। थोड़ी देर बाद, मंच पर रोशनी फ़ैल जाती है। अब रेल गाड़ी का मंज़र, सामने आता है। रशीद भाई अपने साथियों को, किस्सा सुनाते दिखाई दे रहे हैं। इंजन की सीटी सुनायी देती है, अब इनके साथियों की आँखों के आगे आ रहे वाकये के चित्र आने बंद हो जाते हैं। अब, रशीद भाई कह रहे हैं।]
रशीद भाई – मेरे साथ बहुत बुरा हुआ, जो कुछ हुआ इस इस लूण करण के कारण हुआ। मैं तो कमल खांजी की नज़रों से बचने के लिए दुशाला ओढ़कर, लेटा था। इन लोगों के जाने के थोड़ी देर बाद, लूण करण आया और मेरा दुशाला हटाकर कहने लगा कि..
सावंतजी – क्या कहा ?
रशीद भाई – क्या कहता, कमबख़्त ? झट आते ही मेरा दुशाला हटाकर, बोल उठा “यहाँ क्यों मुर्दे की तरह पड़े हो ? अब दावत तो गयी तेल लेने, फिर भी आपको दावत में शरीक होना है तो आप जाइए माना रामसा के गाँव खौड...उन्होंने, वहां दावत रखी है। यह ख़बर मुझे, अभी मोबाइल पर करणी दानजी ने दी है।’
ठोक सिंहजी – फिर क्या ? लौटकर बुद्धू घर को आये। यही बीता, आख़िर आपके साथ ?
सावंतजी – अरे यार। यह इतना आसान नहीं है, इस अफ़ीमची की दावत खाना। वही आदमी इसकी दावत में शरीक हो सकता है, जिसके पास हो डेड बेंत का कलेज़ा! रशीद भाई, ऐसे कलेज़े वाले आप हैं तो पिला दीजियेगा, हम दोनों को एम.एस.टी. कट चाय। [केबीन में आ रहे चाय वाले को देखकर, आगे कहते हैं] लीजिएगा, सयोंग से चाय वाला भी यहाँ आ गया है।
[चाय वाले की आवाज़ सुनने में आती है। मगर उसके नज़दीक आने के पहले ही, गाड़ी का इन्जन सीटी देने लगता है। और, जोधपुर स्टेशन आ जाता है। अब ये तीनों साथी अपने-अपने बैग लिए, नीचे प्लेटफार्म पर उतरते हैं। प्लेटफार्म पर उतरते ही ठोक सिंहजी से, बिना ताने दिए रहा नहीं जाता। वे झट, बोल उठते हैं।]
ठोक सिंहजी – [तंज कसते हुए, ज़ोर से कहते हैं] – अब हम यहीं कहेंगे कि,“यह रशीद भाई भी उस अफ़ीमची का साथ करके, उसके जैसे बन गए हैं। साथ किया जो अलग, ज़नाब ने उनकी जैसी क़िस्मत भी हासिल कर ली है। अब इनकी चाय पीने वालों के पास होना चाहिए, डेड बेंत का कलेज़ा। जिसके पास डेड बेंत का कलेज़ा होगा, वही आदमी इनसे चाय मंगवाकर पी सकता है।
[सभी ठोक सिंहजी की कही बात सुनकर, ज़ोर से हंस पड़ते हैं। अब वे तीनों ही में गेट की तरफ़ अपने क़दम बढ़ाते हैं। मंच पर, अँधेरा छा जाता है।]
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लेखक की बात – पाठकों। यह नाटक, अब आपने पढ़ लिया होगा ? मुझे आशा है, यह नाटक आपको बहुत पसंद आया होगा। आप मेरे ई मेल dineshchandrapurohit2@gmail.com में अपनी राय ज़रूर प्रस्तुत करें कि, आपको यह नाटक कैसा लगा ?
जय श्याम री सा।
आपका हितेषी
दिनेश चन्द्र पुरोहित
[लेखक एवं अनुवादक]
१४९ अँधेरी-गली, आसोप की पोल के सामने, जोधपुर।
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