12 जनवरी विवेकानंद जयंती..... कहीं खो गया है विवेकानंद के सपनों का भारत * * ************************ युवा बदल सकते हैं तस्वीर....... भा...
12 जनवरी विवेकानंद जयंती.....
कहीं खो गया है विवेकानंद के
सपनों का भारत
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युवा बदल सकते हैं तस्वीर.......
भारतवर्ष को विश्व मानचित्र में एक नहीं अनेक विशेषताओं के लिए स्थान दिलाने वाले स्वामी विवेकानंद जी का भारत लगता है मानचित्र से ही गायब हो गया है ।भारतीय संस्कृति का डंका बजाने वाले युवा सन्यासी के सपनों का भारत आखिर क्यों साकार रूप नहीं ले सका ? क्या यह हमारे चिंतन का विषय नहीं होना चाहिए ? स्वामी जी को युवाओं से बड़ी उम्मीद थी । उन्होंने युवाओं की अहम की भावना को खत्म करने के उद्देश्य से कहा था ---" यदि तुम स्वयम ही नेता के रूप में खड़े हो जाओगे ,तो तुम्हें सहायता देने के लिए कोई भी आगे नहीं आएगा । यदि सफल होना चाहते हो तो पहले "अहम " का नाश कर डालो। उन्होंने युवाओं को धैर्य, व्यवहारों में शुद्धता रखने , आपस में न लड़ने, पक्षपात न करने, और हमेशा संघर्षरत रहने का संदेश दिया। विवेकानंद जी ने कहा था --" भारत की विश्व विजय " को अपना आदर्श वाक्य बनाओ । उठो भारत.... तुम अपनी आध्यात्मिक शक्ति द्वारा विजय प्राप्त करो । इस कार्य को सम्पन्न करने की जवाबदारी स्वामी जी ने युवा वर्ग को सौंपी थी । उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था --"मेरी आशाएं युवा वर्ग पर टिकी हुई हैं ।" उन्होंने युवाओं को ही भारत कह कर संबोधित किया था । आज यह स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है की विवेकानंद जी का भारत ( युवा वर्ग) कहीं गुमनामी के दौर में खो गया है ।
स्वामी विवेकानंद जी को उनके विचारों और आदर्शों के कारण जो वैश्विक सम्मान मिला वही उनकी पहचान बन गया । आज के समय में भी वे युवाओं के प्रेरणाश्रोत तो बने हुए है ,किन्तु उनके आदर्शों पर चलने की कटिबद्धता का कहीं लोप हो गया है। स्वामी विवेकानंद जी ने कठोपनिषद का मंत्र भी युवाओं को जागृत करने के लिए ही दिया था।वे कहते थे --" उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत " अर्थात उठो, जागो और तब तक मत रुको ,जब तक अपने लक्ष्य तक न पहुंच जाओ । स्वामी जी के ऐसे ही प्रेरणास्पद उद्बोधन के वशीभूत महापुरुषों ने उनके प्रति उदगार प्रगट किया है कि जब- जब मानवता ने निराश एवम हताश होगी, तब - तब स्वामी विवेकानंद के उत्साही ,ओजस्वी एवम अनंत ऊर्जा से भरपूर विचार जन- जन को प्रेरणा देते रहेंगे। मुझे लगता गई आज के बदले परिदृश्य ने स्वामी जी के विचारों को युवाओं के मन- मस्तिष्क से कहीं दूर कर दिया है। वर्तमान में हमारा युवा वर्ग भी स्वामी जी को नकार तो नहीं रह है, किन्तु कहीं न कहीं अपनी विकृत सोच के आगे उनके आध्यात्मिक विचारों को आत्मसात नहीं कर पा रहा है ।
स्वामी विवेकानंद जी ने जिस भारतवर्ष की तस्वीर को अपने हृदय में संजोया था ,उस तस्वीर का धुंधलका भी शायद हम नहीं देख पा रहे हैं ।स्वामी जी ने भारतवर्ष तथा भारतत्व को किन अंशों में आत्मसात किया था यह कविवर रबिन्द्रनाथ टैगोर के कहे गए इस कथन से समझा जा सकता है । उन्होंने कहा था--" यदि कोई भारतवर्ष को समझना चाहता है तो वह कुछ और सर्वे या अध्ययन का मार्ग छोड़कर केवल विवेकानंद को पूर्णतः पढ़ ले "। केवल भारतवर्ष ही नहीं सम्पूर्ण विश्व को युवा सन्यासी ने महज 39 वर्ष की उम्र में अपना दीवाना बना लिया था ।विवेकानन्द जी के विषय में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित फ्रांसीसी लेखक रोमां रोला ने कहा था --"उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असम्भव की श्रेणी में ही रखा जा सकता है । वे जहाँ भी गए प्रथम ही रहे ।" दुनिया का प्रत्येक व्यक्ति उनमें अपना मार्गदर्शक व आदर्श का अनुभव किये बिना नहीं रह सकता था । वे ईश्वर के साक्षात प्रतिबिम्ब से कम नहीं थे । राष्ट्र और राष्ट्रवाद से सराबोर चिंतन का केंद्र बिंदु स्वामी जी के चेहरे पर स्पष्ट दिखाई पड़ता था । उनका रोम-रोम राष्ट्रभक्ति और भारतीयता से सराबोर था । राजनीति से दूर उन्होंने कर्म और चिंतन की प्रेरणा से हजारों- लाखों कार्यकर्ता तैयार करते हुए राष्ट्र रथ को हांकने में अपना जीवन समर्पित कर दिया । आज के राजनेताओं ने ठीक उनके विपरीत राजनीति की बैसाखी के सहारे राष्ट्र को दूसरे पायदान पर रखते हुए खुद के विकास को ही लक्ष्य बना रखा है ।
हमारे देश के युवा यदि स्वामीजी के विचारों को पढ़ें और समझें तो इस बात से इनकार नहीं कर सकते हैं कि उस सन्यासी ने निजी मुक्ति को जीवन का लक्ष्य नहीं बनाया था, बल्कि करोड़ों देश वासियों के विकास एवम उत्थान को को ही अपना जीवन लक्ष्य बना लिया था ।सेवा की भावना को उन्होंने प्रबल शब्दों में व्यक्त करते हुए कहा था --" भले ही मुझे बार-बार जन्म लेना पड़े और जन्म - मरण की अनेक यातनाओं से गुजरना पड़े लेकिन मैं चाहूंगा कि मैं उसे एक मात्र ईश्वर की सेवा ही मान सकूँ । " शायद स्वामी विवेकानंद जी ही एक ऐसे संत थे जिन्होंने अपने गुरु को जीत लिया था। उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस ही अपने शिष्य पर इतने अभिभूत हो गए थे कि मृत्यु शैय्या पर अंतिम क्षणों में यह कहने में कोई संकोच नहीं किया कि ---" मैं ऐसे एक व्यक्ति की सहायता के लिए बीस हजार बार जन्म लेकर अपने प्राण न्योछावर करना पसंद करूँगा। " आज भारतवर्ष में ऐसा कोई राष्ट्रभक्त और राजनेता नहीं जिसके लिए उसके अनुयायी इस प्रकार के शब्द कह सकें । स्वामी जी हमेशा सुखी और समृद्ध भारत के लिए चिंतित रहा करते थे। वे हमेशा समाज में समता के पक्षधर थे और इसके लिए जिम्मेदार लोगों के प्रति उनके मन में गहरा रोष था । उन्होंने बड़ी ही बेरुखी से कहा था----"जब तक करोड़ों लोग गरीबी, भुखमरी, और अज्ञान जा शिकार होते रहेंगे , मैं हर उस व्यक्ति को शोषक मानता रहूंगा जो उनकी ओर जरा भी ध्यान नहीं दे रहे हैं । " क्या स्वामी जी का यह कथन आज प्रासंगिक नहीं हो चला है ?
नैतिक प्रकृति पर भी स्वामी जी ने काफी कुछ कहा है । वे कहते थे हमारी नैतिक प्रकृति जितनी उन्नत होगी ,उतना ही उच्च हमारा प्रत्यक्ष अनुभव भी होगा ,और उतनी ही हमारी इच्छा शक्ति अधिक बलवती होगी। स्वामी जी ने युवाओं का आव्हान करते हुए कहा था --"उठो मेरे शेरों , इस भ्रम को मिटा दो कि तुम निर्बल हो । ब्रम्हांड की सभी शक्तियां पहले से ही तुम्हारी हैं । यह तुम्हारी नासमझी है जो अपनी आंखों पर हाथ रख लेते हो और फिर रोते हो कि कितना अंधेरा है ।
डॉ. सूर्यकांत मिश्रा
न्यू खंडेलवाल कॉलोनी, ममता नगर
प्रिंसेस प्लैटिनम, हाउस नंबर 05
राजनांदगाँव (छ. ग. )
सुंदर और प्रेरणादायक आलेख |
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