[मारवाड़ का हिंदी नाटक] यह चांडाल चौकड़ी, बड़ी अलाम है। लेखक - दिनेश चन्द्र पुरोहित पिछले खंड - खंड 1 | खंड 2 | खंड 3 | खंड 4 | खंड 5 | खं...
[मारवाड़ का हिंदी नाटक]
यह चांडाल चौकड़ी, बड़ी अलाम है।
लेखक - दिनेश चन्द्र पुरोहित
पिछले खंड -
खंड 1 | खंड 2 | खंड 3 | खंड 4 | खंड 5 | खंड 6 | खंड 7 |
खंड ८, “दिल-ए-ग़म”
लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित
[मंच पर रौशनी फैलती है, पटरियों पर अहमदाबाद-मेहसाना जाने वाली लोकल गाड़ी सीटी देती हुई तेज़ रफ़्तार से दौड़ती दिखाई देती है। अब स्टेशन पीर दुल्लेशाह हाल्ट, पीछे रह गया है। मोहनजी व रशीद भाई, आमने-सामने वाले युरीनल से अचानक बाहर आते हैं। उतावली में वे एक-दूसरे को देख नहीं पाते, और दोनों के सर आपस से टकरा जाते हैं। टकराने से, उनके दिमाग़ की नसे झन-झना जाती है। दर्द तो हुआ है, मगर मोहनजी इस दर्द की परवाह करने वाले कहां ? वे मुस्कराते हुए, हास्य-विनोद की मीठी चिकोटी काटते हुए रशीद भाई से कह देते हैं..]
मोहनजी – [सर दबाते हुए कहते हैं] – मर्दों से टक्कर खाते हो, यार ? ऐसी टक्कर आप किसी छमक-छल्लो से खाते, तो यार रशीद भाई आपको बहुत मज़ा आता।
रशीद भाई – [दोनों कानों में, अंगुली डालते हुए कहते हैं] – अलाहोल विल कूवत, ऐसी गंदी बातें करने वाले इंसान को दोज़ख नसीब होता है जनाब। अभी जस्ट निकला है, पाक पीर दुल्हे शाह हाल्ट..
मोहनजी – [आर दबाते हुए, कहते हैं] – जस्ट निकला है..तो मैं क्या करूँ कढ़ी खायोड़ा ?
रशीद भाई - आपको लोगों से ख़िदमत करने की बात करनी चाहिए, और सोचिये किस तरह आप लोगों के दिल-ए-ग़म को दूर कर सकते हैं ? समझिये ‘किस तरह ख़िदमत करने से, सवाब मिलता है ?’ मगर छी..छी, आपके ऐसे गंदे ख़याल ? सुनते ही आब-आब हो जाता है, इंसान।
मोहनजी – ख़िदमत की बात ? अरे जनाब, हम लोगों से अपनी ख़िदमत करवाते हैं। हम करते, नहीं। दिल-ए-ग़म को भूल जाते हैं, जर्दा फाककर। फिर क्या ? इधर पीक थूकी, और उधर दूर हुआ ग़म बेचारा। आप ठहरे, हमारे ख़िदमतगार। फिर आप मेरी जगह जाकर, लोगों की ख़िदमत कर लीजियेगा।
रशीद भाई – अरे जनाब, मुझे कहाँ ख़िदमत करने का कह रहे हैं आप ? मैं ठहरा दुबला-पतला आदमी, वह भी अस्थमा का मरीज़। आपके लिए अच्छे ख़िदमतगार गुलाबो और चम्पाकली बन सकते हैं, तुज़ुर्बेदार मालिशकर्ता ठहरे जनाब।
मोहनजी – उनको बुलाना मत, कढ़ी खायोड़ा..!
रशीद भाई – क्यों नहीं, जनाब ? दो मिनट में आपकी मालिश करके, आपकी एक-एक हड्डी चटखा देंगे...फिर जनाब, आपकी ख़िदमत में ऐसे मालिश-कर्ताओं को बुला देना ही अच्छा है।
मोहनजी – [आंखें तरेरकर, कहते हैं] - आटा वादी कर रहा है, तेरा ? मेरा क्या काम, इस हिज़ड़ो की फ़ौज से ? इन लोगों को बार-बार पानी पीलाकर, मुंह लगाया है आपने। आपके कारण ही, ये...
रशीद भाई – मालिश होने दीजिये, फिर एक बार क्या ? बीस बार बुलाओगे, उन्हें। आप कहो तो, आपकी शिफ़ाअत लगवा दूं ? वे मेरा बहुत कहना मानते हैं, जनाब।
मोहनजी - दूर रखो, तुम्हारी शिफ़ाअत। इन हिज़ड़ो से, मेरा क्या काम ? आप इन लोगों के निकट रहते हैं, अब आप बन जाओ इनके जैसे..यानी, [ताली बजाते हैं] छक्के। समझ गए, आप ?
रशीद भाई – [गुस्से में कहते हैं] - अब बेफिजूल की बकवास कीजिये मत, जाकर बैठ जाइये अपनी सीट पर। अगर आपको नहीं बैठना है तो, मैं यह गया अपनी सीट पर बैठने।
[आख़िर कब-तक रशीद भाई बर्दाश्त करते, मोहनजी का फूहड़ व्यवहार ? रशीद भाई चले जाते हैं, और आकर अपनी सीट पर बैठ जाते हैं। डब्बे का दरवाज़ा खुला हुआ है, जहां ताज़ी हवा लेने के लिए चौधरण आकर खड़ी हो गयी है। गाड़ी की रफ़्तार के कारण, दरवाज़े से तेज़ वायु के झोंका आता है..जो चौधरण के ओढ़ने को फर-फर उड़ाता जा रहा है, वह अपने रिदके को संभाल नहीं पा रही है। ठंडी हवा उस चौधरण के ज़ब्हा पर छाये पसीने के एक-एक कतरे को, सूखाती जा रही है। उसके दिल में मची हुई है, उतावली..के, कब पाली स्टेशन आयेगा ? इस उतावले मन को शांत करने के लिए, वह गाड़ी के बाहर गुज़र रहे बस्ती के मंज़र को देखती जा रही है। और प्रतीक्षा कर रही है, के ‘पाली स्टेशन कब आ रहा है ?’ उधर मोहनजी सोच रहे हैं, के ‘अभी तक पाली स्टेशन आया नहीं है, आये तब तक वे अपने हाथ-मुंह धोकर तरो-ताज़ा हो सकते हैं।’ ऐसा सोचकर, वे अपना बैग केबीन से ले आते हैं। ताकि वे अपने धुले हाथ-मुंह, बैग में रखे तौलिये से पौंछ सके। अब गले में बैग लटकाये, वे वाश-बेसिन के पास आते हैं। वे अपने हाथ-मुंह, धो डालते हैं। हाथ-मुंह धोने के बाद, वे बैग से तौलिया निकालने के लिए हाथ बढ़ाते हैं। मगर तौलिया तो उनके हाथ में आता नहीं, मगर उस चौधरण का उड़ता रिदका [ओढ़ने का पल्लू] उनके हाथ लग जाता है। उस रिदके [ओढ़ने के पल्ले को] को हवा उड़ाती हुई, मोहनजी के पास ले आयी है। फिर क्या ? मोहनजी बिना देखे, झट उस रिदके से अपने हाथ-मुंह पौंछ डालते हैं। जब वह रिदका हवा से उड़कर वापस चौधरण के मुंह को ढक देता है। चौधरण अपने मुंह से रिदके [ओढ़ने के पल्लू] को दूर हटाती है, मगर उस गीले रिदके का गीलापन, चौधरण को ठंडक का अहसास दिलाता है। जिसे पाकर, चौधरण भ्रम में पड़ जाती है..के ‘गीगला तो है चौधरीजी के पास, वो यहाँ है नहीं.. फिर इस रिदके पर, मूतने वाला है कौन ? आख़िर, इसे गीला किसने किया ?’ उस बेचारी चौधरण को, हकीक़त का क्या पता ? के, मोहनजी उसके साथ कुबदी कारनामा कर चुके हैं...रिदके से, अपने गीले हाथ-मुंह पौंछकर। अब चौधरण को डब्बे में भूत के होने की बात याद आ जाती है, और चाची हमीदा बी की बात भी याद आ जाती है, जहां मोहनजी मौज़ूद होते हैं वहां भूत-प्रेत [आसेब] की शैतानी हरक़तें शुरू हो जाती है। बस अब जैसे ही वाश-बेसिन के पास खड़े मोहनजी को, वह देखती है...देखते ही, उस चौधरण के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। वह चिल्लाती हुई, अपने केबीन में दाख़िल हो जाती है।
चौधरण – [चिल्लाती हुई, ज़ोर से बोलती है] – ओ गीगले के बापू, भूत आ गया भूत। वह मेरे ओढ़ने पर, मूतकर चला गया।
[बेचारे चौधरीजी समझ नहीं पाते हैं, के “चौधरण दिल-ए-ग़म से परेशान है, या उसे परेशान कर रहा है आसेब का भय ?” बस, वे तो बेचारे चिल्लाकर कह बैठते हैं..]
चौधरीजी – [केबीन में चिल्लाते हुए, ज़ोर से कहते हैं] – चुप-चाप बैठ जा, गीगले की बाई। अभी करता हूँ, रामसा पीर का जाप। तू धीरज रख, घर पहुंचते ही पहला काम करूँगा..खेतलाजी के मंदिर, जाने का। वहां जाकर, सवामणी करूंगा।
[उधर दूसरी तरफ़, उस चौधरण के चले जाने के बाद..मोहनजी हंसते हुए, अपने केबीन में चले आते हैं। वहां अपनी सीट पर आकर, बैठ जाते हैं। फिर मींई-मींई निम्बली की तरह, अपने लबों पर हाथ रखकर हंसते जाते हैं। उनको देखते ही रशीद भाई की छठी इन्द्री चेतन हो जाती है, वे अनुमान लगा लेते हैं साहब कहीं जाकर अपना कुबदी कारनामा दिखलाकर आये हैं। उधर आस करणजी की उन पर निग़ाह गिरते ही, वे उन्हें कहते हैं।]
आस करणजी – [मोहनजी को देखकर, कहते हैं] – मोहनजी, अब आप आराम से लेट जाइये, आप काफ़ी थके हुए हैं।
मोहनजी – [दीनजी भा’सा का बैग लेकर अपने सिरहाने रखकर, लेट जाते हैं] – यह लेट गए मोहनजी, भा’सा और हुक्म दीजिये।
[मोहनजी लेटने के लिए, ऐसे धमककर तख़्त पर..अपने भारी बदन को, डाल देते हैं। उनके लेटते ही तख़्त का पाटिया, हिलता है जोर से। क्योंकि पाटिया के पेच, ढीले कसे हुए हैं। और वो पाटिया पीछे वाले केबीन के तख़्त के पाटिये से जुड़ा हुआ है, इस कारण पाटिया ज़ोर से हिलता है। उस पर बैठे गोपसा और उनके दूसरे साथी, फुदकते हैं। जो इस वक़्त वहां बैठे, ताश के पत्ते खेल रहे हैं। उनको फुदकते देखकर, सामने के तख़्त पर बैठे अनिल बाबू बोल उठते हैं]
अनिल बाबू – [हंसते हुए कहते हैं] – क्यों कूद रहे हो, गोपसा ? क्या एक बार और, फीस आपके हाथ आ गयी क्या ? फीस आने से, आप डर गये क्या ? चलिये जल्दी फीस डालिए, ताश के पत्तों को।
गोपसा – मेरा काम फीस करने का ही है, मैं आपको देता हूँ लेता नहीं हूँ।
[इतना कहकर, गोपसा ज़ोर का ठहाका लगाते हैं। इस ताश खेलने वालों की टीम में जो अनिल बाबू नाम के शख़्स है, उनकी शख्सियत के बारे में जितना कहो उतना ही कम है। जनाब गोर वर्ण के बांके जवान है, मगर इनकी दो आदत लोगों को अच्छी नहीं लगती..एक है, अपने साथियों के पत्तों को बार-बार झांककर देख लेना और दूसरी है छूटे द्वि-अर्थी संवाद बोल देने की। ये जनाब, न्याय महकमें के मुलाज़िम ठहरे। इनके द्वि-अर्थी संवाद सुनकर, कोई सीधा इंसान शर्मसार हो जाता है। मगर इन संवादों का माकूल जवाब देने में, इनकी टीम का हर मेंबर इनसे चार क़दम आगे है। जिनमें गोपसा तो जनाब, ऐसे जवाब देने में विशेषज्ञ माने जाते हैं। इनके आगे, ये अनिल बाबू अक़सर निरुत्तर हो जाया करते हैं। इस वक़्त वे अपनी आदत से बाज़ आते नहीं, और जनाब बोल देते हैं द्वि-अर्थी कथन।
अनिल बाबू – ले लीजिये, जनाब। मैं तो देने के लिए तैयार बैठा हूँ, मेरा तो उठ गया है।
गोपसा – [लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए, कहते हैं] – कितनी बार दे सकते हो, यार ? फिर कमज़ोर पड़ना मत, जनाब।
[ये द्वि-अर्थी संवाद, पीछे लेटे हुए मोहनजी को सुनायी दे जाते है, वे झट उठकर आ जाते हैं गोपसा वाले केबीन में। वहां आकर, वे तख़्त पर बैठते हैं। फिर, जनाबे आली मोहनजी खिड़की से आ रही धूप को इंगित करके कहते हैं]
मोहनजी – [तख़्त पर बैठते हुए कहते हैं] – ठोकिरा, यहाँ तो अच्छी धूप है। [खिड़की से आ रही धूप से उनकी एक आँख स्वत: बंद हो जाती है] ज़्यादा विचार मत कीजिये, देने में मैं भी कम नहीं पड़ता हूं। साहब बहादुरों, तैयार बैठा हूँ मैं देने के लिए। कहिये, किसको लेना है..कितनी बार ले सकते हैं, आप ?
[मोहनजी और इन दोनों महानुभवों के द्वि-अर्थी कथन सुनकर, फर्श पर बैठा एक ग्रामीण शर्मसार हो जाता है। इस वक़्त वह अपने सर पर लाल पगड़ी पहने इतरा रहा है, जिसका कारण है उसकी नयी पगड़ी..जिसे उसने कल ही बाज़ार से ख़रीदी थी, मगर यहाँ सभी बैठे यात्री शहरी हैं...इसलिए न तो वे उसकी पगड़ी देख रहे हैं, और न वे उस पर कोई तारीफ़ के दो बोल सुना रहे हैं। ऊपर से ऐसे द्वि-अर्थी संवाद सुनकर, उसे आ जाता है..क्रोध। उसका कारण यह है कि, उसके पास बैठी है, उसको घरवाली। भारतीय सभ्यता है भी ऐसी, जो ऐसे संवाद औरतों के सामने बोलने की इजाज़त नहीं देती। इस कारण, झट वह अपनी घरवाली को, ज़बरदस्ती दूसरे केबीन में भेज देता है। फिर, क्रोधित होकर वह सब को कटु लफ्ज़ सुना बैठता है]
पगड़ी वाला ग्रामीण – [क्रोधित होकर, कटु लफ्ज़ सुनाता है] – आप लोग पढ़े-लिखे दिखाई देते हैं, मगर आप लोगों में बोलने की कोई तमीज़ नहीं। तुम लोगों के बोल सुनकर, डब्बे में बैठी औरतें शर्मसार हो रही है। [मोहनजी को सुनाते हुए] ये भले इंसान, जिनकी उम्र हो गयी है पचपन की। अरे राम राम, औरत को देखकर आँख मारते हैं ?
अनिल बाबू – [पगड़ी वाले का गिरेबान पकड़कर, कहते हैं] – क्या कह रहा है, ठोकिरे ? हम लोगों को बोलने की, कोई तमीज़ नहीं ? अभी उतारता हूं तेरी तमीज़ को। तू क्या समझ रहा है, डोफा ? हम लोग, रुलियार हैं ? सुन, तेरे दिमाग़ में भरा हुआ है, कीचड़। मेरा उठ गया, जनाब। यानी मेरा डी.ए. एरियर का भुगतान उठ गया, समझा कुछ...ओ, माता के दीने ?
[इतना कहकर उसे धक्का देते हुए, उसका गिरेबान छोड़ देते हैं। गिरेबान छूटते ही वह ग्रामीण जाकर गिरता है, गोपसा की गोदी में। उस ग्रामीण को दूर हटाकर गोपसा, उसे ताना देते हुए कहते हैं]
गोपसा – [ग्रामीण को दूर हटाते हुए, कहते हैं] – सुन भाया मेरी बात, मेरे ऊपर चढ़ गये पोइंट फीस कूटते-कूटते। अब सोच, कोई तो मुझे इन चढ़े पॉइंट्स के रुपये उधार देगा ? मैंने कुछ कह दया, तो कौनसा गुनाह कर डाला मैंने ? अब बोल भाया, यह तेरी यह उम्र है मेरी गोदी में बैठनी की ?
[गोपसा का ताना सुनते ही, वो ग्रामीण आब-आब होने लगा। फिर क्या ? झट उठकर, खड़ा हो जाता है। अब गोपसा उस पर खारी नज़र डालते हुए, उससे कहते हैं]
गोपसा – [खारी नज़र डालते हुए, कहते हैं] – ओ पगड़ी वाले भईजी, अब क्यों मुंह झुकाए खड़े हैं ? सुनो, मैंने उनको जवाब देते हुए यह कहा ‘आप कितने रुपये उधार दे सकते हैं ?
अनिल बाबू – कह दीजिये इनको, फिर आपने क्या कहा ?
गोपसा – मैंने यही कहा के, ‘मैं तो, लेने को तैयार बैठा हूं।’ यह बात कही थी, मैंने। बोलो भईजी, मैंने क्या कहा ? पहले अच्छी तरह सुना करो, फिर बोला करें, आप। भईजी हो तो आप, एक सौ आठ नंबर के।
अनिल बाबू – [कटीली मुस्कान लबों पर छोड़ते हुए] – महा...महा...
[इतना बढ़िया प्रवचन सुनकर, अब वह पगड़ी वाला क्या कहता ? अब इस पगड़ी वाले की इज़्ज़त की बखिया उधेड़ते हुए, मोहनजी कहते हैं]
मोहनजी – ठोकिरा कढ़ी खायोड़ा, पागल जैसे बोलता जा रहा है..मेरी आँख बंद हो गयी, इस तेज़ धूप के कारण। अब और आगे सुन, मैंने इन लोगों से कहा के ‘मैं फीस देने के लिए तैयार हूं..कहिये, किसका साथी बनू ? मैं कोई हारने वाला पूत नहीं हूं, ताश के खेल में।’
अनिल बाबू – [आंखें तरेरते हुए, कहते हैं] – अब बोल रे, पगड़ी वाले चौधरी। बता तू, ये मूंछों वाले मोहनजी सज्जन आदमी है या नहीं ? बता तू, कब इन्होंने फाटे-फुवाड़े शब्द बोले ? बोलता है कमबख़्त गतागेले की तरह, ‘ये भले आदमी उम्र हुई पचपन की, और आंखें मारते हैं औरतों को देखकर ?
[इसके आगे उस पगड़ी वाले में, सुनने की ताकत कहाँ रहती है ? वह तो वहां से नौ दो ग्यारह हो जाता है, और दूसरे केबीन में जाकर लम्बी-लम्बी सांसें लेता है। उसके अन्दर भय व्याप्त हो गया है, कहीं ये बदमाश आकर उसकी धोती नहीं खोल दे ? इस ताश खेलने वाली टीम को कहाँ फ़िक्र, उस बेचारे ग्रामीण के दिल-ए-ग़म को जानने की ? उस पगड़ी वाले के चले जाने के बाद, सभी खिल-खिलाकर ज़ोर से हंस पड़ते हैं। अब, मोहनजी कहते हैं]
मोहनजी – धन्य हो, साहबजादों। कैसी भाषा है, आप लोगों की ? आप लोगों को इनाम मिलना चाहिए, होली की ग़ैर में। आप लोगों के आगे तो, होली की ग़ैर में श्लील गीत गाने वाले माई दासजी फीके पड़ जायेंगे। वाह मेरे भाई, आप बोलते हो द्वि-अर्थी-डायलोग और वे गाते हैं द्वि-अर्थी श्लील गीत। बेचारे ऐसे गाते हैं, नाथू रामसा वाली ए...
अनिल बाबू – [लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए, कहते हैं] – पहले सुनो, मोहनजी। हम सब हैं, गोपालिये के दोस्त। इसीलिए लोग, हम लोगों से दूर ही रहते हैं। अब कहिये, आपको हमसे गुरु-मंत्र लेना है ? गोपालिया का भाई बनना है तो, कह दीजिये हमें।
मोहनजी – गोपालिया का भाई ज़रूर बनूंगा जनाब, बात तो तगड़ी है। मगर पहले आप यह बताइये, के ‘आख़िर, यह गोपालिया है कौन ? उस बेचारे की कथा क्या है ?’
गोपसा – देख लीजिये, मोहनजी। सोच समझकर सहमति देना, हम सब तो है ओटाळ। आप हैं, सीधे-सादे आदमी। आप जैसे सीधे आदमी को, हम जैसे ओटाळो से बहुत दूर ही रहना चाहिए।
मोहनजी – ओटाळपने का कोई बिल्ला होता है, क्या ? स्वाभाव से मैं ख़ुद ओटाळ ही हूं, ओटाळ क्या ? मैं तो ठहरा, ओटाळो का सरदार। तब ही लोग हम चारों दोस्तों को कहते हैं “यह चांडाल-चौकड़ी, बड़ी अलाम हैं।” बस, आप तो गोपालिये की कथा सुनाइये।
[गाड़ी का इंजन, सीटी देता है। सीटी सुनते ही अनिल बाबू झट खिड़की से बाहर झांककर, बाहर का नज़ारा लेते हुए गीत गाते हैं।]
अनिल बाबू – [गीत गाते हैं] – इंजन की सीटी में मेरा मन डोले, मेरा तन डोले [मुंह अन्दर लेकर, आगे गाते हैं] चलो चलो रे भाया, होले होऽऽले। सीटी बजे ज़ोर की, और बढ़े दिल की धड़कन। मोहनजी के चक्कर में, छूट न जाए पाली। पाली आयो रे भाया, होले होऽऽले। अब चलो रे भाया, होले होऽऽले।
गोपसा - [अपना बैग संभालते हुए, कहते हैं] - गुमटी दिखने लग गयी है। हम सभी पाली स्टेशन पर उतरकर, अपने-अपने दफ़्तर जा रहे हैं। मोहनजी मालिक। आपके कहे अनुसार, कथा बांचते रहेंगे तो...
अनिल बाबू – [बात पूरी करते हुए, कहते हैं] – आपके साथ हमें भी, खारची चलना पड़ेगा। [ताश की जोड़ी देते हुए कहते हैं] लीजिये मोहनजी, ताश की जोड़ी। आपके सेवाभावी रशीद भाई को, संभला देना। अब हम सब जा रहे हैं, जय श्याम री सा..फिर मिलेंगे।
मोहनजी – अरे मालिक, वह तो फटा-फट उतर जाएगा..
गोपसा – शाम को दे देना जी, गाड़ी में। [फिर, मारवाड़ी में कहते हैं] अैड़ो कांई खाटो-मोळो हुवे, म्हारा बाप ?
अनिल बाबू – मोहनजी, अपना जीव दुखाना मत। शाम को गाड़ी में मिलेंगे, तब गोपालिये की कथा ज़रूर बांच लेंगे। [मारवाड़ी में कहते हैं] मालक, अबै चालां सा। जय बाबा री सा, बाबो भली करे।
मोहनजी – आपकी चाल ही खोटी है, मगर आप हो आदमी लाख रुपये के।
[फिर क्या ? यह ताश खेलने वालों का दल अपने बैग उठाकर, डब्बे के दरवाज़े की तरफ़ क़दम बढ़ा देता हैं। इन लोगों के जाने के बाद, अब बदमाश चम्पाकली केबीन में आता है..और मोहनजी को घूरकर, देखता जाता है। फिर अचानक उनको देखता हुआ, ताली बजाता है। मगर मोहनजी उसको भाव देते नज़र नहीं आते, वे उठकर अपने केबीन में चले जाते हैं। जहां उनके साथी बैठे हैं, केबीन में आकर वे रशीद भाई को ताश की जोड़ी संभाला देते हैं। फिर आकर, आस करणजी के अड़ो-अड़ उनके पास बैठ जाते हैं। आस करणजी अब चालान-डायरी, चंदे की रसीद-बुक, ज़रूरी काग़ज़ात, छेद करने की मशीन, वगैरा संभालकर, अपने बैग में रख चुके हैं। फिर, वे मोहनजी से कहते हैं]
आस करणजी – [मोहनजी से कहते हैं] – मोहनजी, मेरे पास इतने शब्द नहीं है के ‘मैं आपकी तारीफ़ के पुल बाँध सकूं। आप कितना बढ़िया कलेक्शन करके, लाये, इसके लिये मैं आपकी जितनी भी तारीफ़ करूं...वह कम है।’
[खिड़की के पास खड़े चम्पाकली को, आस करणजी के एक-एक शब्द सुनायी देते हैं। सुनकर उसका दिल जलने लगता है, और मोहनजी की असलियत जानकर उसे दुःख होता है, के ‘मोहनजी की यह चांडाल-चौकड़ी बड़ी अलाम है, कमबख़्त फर्ज़ी चैकिंग पार्टी बनकर गुलाबा और उससे लुट ली हफ़्ते-भर की कमाई। वे दोनों बेवकूफ बने हुए, उनकी असलियत नहीं जान सके ? अब वह अपना दिल जलाता हुआ, होंठों में ही कहता है]
चम्पाकली – [होठों में ही, कहता है] – अरे रे रे, तू तो मोहन लाल निकला कमबख़्त। अरे राम राम, तू चैकिंग मजिस्ट्रेट नहीं था ? अच्छा गेलसफ़ा बनाया, मुझे। कुछ नहीं रे, अब मैं मेरी कलाकारी दिखलाती हूं तूझे। अब मैं तेरी ऐसी गत बनाऊंगी, के तू पूरी ज़िंदगी-भर याद रखेगा के ‘कभी कोई चम्पाकली नाम की किन्नर, तूझे मिली थी।’
[चम्पाकली जहां खड़ा है, वहां पास एक खिड़की है। अब मोहनजी पीक थूकने के लिये, उस खिड़की के निकट आकर मुंह बाहर निकालकर पीक थूकते हैं। फिर नाक सिनकते हैं, हाथ पौछ्ने के लिए वे अपनी ज़ेब से रुमाल निकालने के लिए हाथ बढ़ाते हैं। मगर, यह क्या ? ज़ेब के पास तो उनका हाथ गया नहीं, और बीच में फार-फर उड़ता चम्पाकली का ओढ़ना, उनके हाथ में आ जाता है। मोहनजी उसे रुमाल समझकर, अपने हाथ साफ़ कर लेते हैं। हाथ साफ़ करने के बाद ताज़ी हवा खाने के लिए, डब्बे के दरवाज़े के पास आकर खड़े हो जाते हैं। बेचारा चम्पाकली जान न सका, मोहनजी ने क्या कुबद कर डाली ? वह तो खड़ा-खड़ा प्लानिंग बनाने में व्यस्त दिखायी दे रहा है, वह सोच रहा है “मोहनजी से, किस तरह बदला निकाला जाय ? ऐसी तगड़ी प्लानिंग बनानी है, जिससे उनको फंसाया जा सके ?” आख़िर, सोच समझकर वह योजना बना डालता है। फिर क्या ? दरवाज़े के पास अकेले खड़े मोहनजी के पास आता है, और उनके कान में फुसफुसाकर अपनी योजना को अंजाम देने का प्रयास करता है।]
चम्पाकली – [फुसफुसाता हुआ, कहता है] – देखो मोहनजी, नाणा-बेड़ा में गौतम मुनि का मेला चलेगा पूरे पांच दिन। बस आप आज़ ही चले जाओ, मेले में। वहां जाकर, मज़ा लुटना ज़िंदगी के। [मोबाइल नंबर लिखा हुआ काग़ज़ उन्हें थमा देता है]
मोहनजी – [लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए, कहते हैं] – मुझे क्यों थमा रहा है, यह काग़ज़ ?
चम्पाकली – जिस सुन्दरी के मोबाइल नंबर युरीनल की दीवार पर लिखे हुए हैं, वही नंबर इस काग़ज़ में लिख दिए गए हैं। बस अब आप इस सुन्दरी को नाणा-बेडा के मेले में बुला देना, उसके वहां आने पर आप उसे भूतिया नाडी जैसे एकांत-स्थल पर ले जाकर मज़े लुट लेना ज़िंदगी के। माल बहुत ख़ूबसूरत है, मेरे सेठ।
[चम्पाकली की बात सुनकर, मोहनजी उतावले हो जाते हैं..उस ख़ूबसूरत बला से, मुलाक़ात करने। अब वे सोचते जा रहे हैं, के ‘हम भी इस जासूस मेजर बलवंत से, कौन से कम हैं ? हम भी जाकर इस रहस्य से पर्दा उठा सकते हैं, आख़िर हम ठहरे अलाम चांडाल-चौकड़ी के सरदार ?’ फिर, क्या ? झट-पट जा पहुंचते हैं, आस करणजी के पास। और जाकर उनसे कहते हैं..]
मोहनजी – भा’सा आप सभी उतरकर चले जाओ, भाऊ की केन्टीन पर चाय पीने। बस, फिर मैं आ ही रहा हूँ...आपके, पीछे-पीछे।
आस करणजी – पीछे-पीछे, क्यों जनाब ? साथ-साथ ही, चलते हैं। क्यों नखरेबाज बनते जा रहे हैं, आप ? हम कोई ग़ैर नहीं है, जनाब।
मोहनजी – जनाब आप बात को समझा करें, मुझे दफ़्तर का कोई काम याद आ गया। इसीलिए आप अपना मोबाइल देते जाइएगा, मैं फ़ोन पर बात करके शीघ्र ही आपके पास आ रहा हूँ।
आस करणजी – [मोबाइल देते हुए कहते हैं] – झट-पट आ जाना, मोहनजी। ऐसा नहीं, गाड़ी रवाना हो जाय और आप बिना चाय पीये रह जायें ?
[थोड़ी देर में, पाली स्टेशन आ जाता है। आस करणजी के साथ, सभी बैग लिए हुए..नीचे उतर जाते हैं, प्लेटफोर्म पर। अब मोहनजी को छोड़कर सभी, भाऊ की केन्टीन की तरफ़ अपने क़दम बढ़ा देते हैं। उनके जाने के बाद, मोहनजी इधर-उधर देखकर तहकीकात कर लेते हैं ‘कोई आदमी उन्हें फ़ोन करता हुआ, देख न ले ?’ मगर साहब की क़िस्मत ख़राब, दो-चार यात्री आकर बैठ जाते हैं केबीन की ख़ाली सीटों पर। और उसके बाद गुलाबा अलग आ जाता है, बैग हिलाता हुआ।]
मोहनजी – [मन में धमीड़ा लेते हुए, कहते हैं] – बहुत मुश्किल से मौक़ा मिला, कढ़ी खायोड़ा। अब कहाँ से आ गए, ये करमजले ? अब कैसे करूं रे बात, इस मोबाइल से ? कुछ नहीं, युरीनल में जाकर कर लेते हैं बात।
[मोबाइल लेकर मोहनजी जाते हैं, युरीनल में। झट युरीनल में दाख़िल होकर, मोहनजी युरीनल का दरवाज़ा बंद कर लेते हैं। दरवाज़ा बंद करते ही, सामने के युरीनल से चम्पाकली बाहर आता है। और अब वह वाशबेसिन के पास खड़े गुलाबा को, फ़ोन लगाने का इशारा करता है। फिर क्या ? चम्पाकली झट मोहनजी की आवाज़ सुनने के लिए, युरीनल के दरवाज़े पर कान देकर सुनने का प्रयास करता है। जैसे-जैसे मद भरे जुमले, मोहनजी के मुंह से सुनता है..चम्पाकली लुत्फ़ लेता हुआ दिखायी देता है। उधर गुलाबा इशारा पाकर, कई लोगों को फ़ोन करता दिखायी देता है। आख़िर फ़ोन बंद करके, अब वह नतीजे का इंतज़ार करने लगता है। यहाँ तो नतीजा कुछ और ही दिखायी देता है, अचानक मोहनजी दरवाज़ा खोलते है और कान दिया हुआ चम्पाकली संभल नहीं पाता..फिर क्या ? दो पल में ही वह नीचे आकर गिरता है, नीचे आँगन पर बैठी खां साहबणी मंगती के ऊपर। वह मांगती खा रही थी, बाबा पीर दुल्हे शाह का प्रसाद। चम्पाकली क्या गिरा, उस पर ? उस बेचारी का, रोम-रोम कांप जाता है। वह उस मंज़र को देख चुकी थी, जब इसी चम्पाकली नाम के हिज़ड़े में आसेब घुस गया था। और आसेबज़द: चम्पाकली ने चाचा कमालुदीन के छोरे फकीरे को, लात मारकर कैसे उत्पात मचाया था ? इस वाकया को याद करती हुई, उस मंगती के बदन में भय की सिहरन दौड़ने लगती है। तभी उसे यह भी याद आता है, बाबा का प्रसाद दरगाह के बाहर लाया नहीं जाता..और वह उस प्रसाद को, यहाँ लेकर आ गयी। इसीलिए बाबा ने पर्चा दिया है, इस आसेबज़द: हिज़ड़े को इसके बदन के ऊपर गिराकर। अब वह पछता रही है, क्यों पीर बाबा का प्रसाद वह यहाँ लेकर आयी ? प्रसाद बाहर नहीं ले जाने का क़ायदा इसने तोड़कर, बाबा को क्रोधित किया है। अब तो पीर बाबा दुल्हे शाह, ज़रूर उस पर कहर बरफायेंगे। यह विचार दिमाग़ में आते ही, वह घबरा जाती है। और वहां से उठकर, वह तेज़ी से दौड़ती है। मगर रास्ते में खड़े सौभाग मलसा से टक्कर खा बैठती है, और नीचे गिरने से बचने के लिए वह उनके गले का हार बन जाती है। इस तरह सौभाग मलसा की बाहों में पड़ी उस खां साहबणी मंगती को देखकर, मोहनजी ज़ोर का ठहाका लगाकर हंसते हैं। फिर, सौभाग मलसा पर ताना कसते हुए, मोहनजी कहते हैं]
मोहनजी – [हंसते हुए कहते हैं] - साला साहब, क्या अब आपके ऐसे दिन आ गए..जो आपको मार्ग जाती मंगतियों के साथ, मस्ती करनी पड़ती है ?
[इतना कहकर मोहनजी, फटाक से गाड़ी से उतर जाते हैं। और प्लेटफोर्म पर चलते, वे भाऊ की केंटीन की तरफ़ अपने क़दम बढ़ा देते हैं। सौभाग मलसा को बतलाकर जनाब मोहनजी ने ग़लती कर डाली है, उनके बतलाते ही सौभाग मलसा रिड़कते सांड के तरह लपकते हैं, मोहनजी की तरफ़। इस तस्करों के सरदार से डरकर मोहनजी, तेज़ गति से भाऊ की केन्टीन की तरफ़ बढ़ते हैं। सौभाग मलसा रूपी कालंधर नाग को पीछे आते देख, मोहनजी ओलंपिक दौड़ के एथलीट की तरह आगे बढ़ते जा रहे हैं। पीछे-पीछे सौभाग मलसा मोहनजी को आवाज़ देते हुए, उनका पीछा करते जा रहे हैं। तभी सौभाग मलसा को, भाऊ की केन्टीन पर खड़े आस करणजी दिखायी दे जाते हैं, उन्हें देखते ही सौभाग मलसा को सांप सूंघ जाता है। फिर क्या ? वे उलटे पाँव भागते हैं, डब्बे की तरफ़। मोहनजी भाऊ की केन्टीन पर आकर, क्या देखते हैं ? आस करणजी, दयाल साहब, राजू साहब, के.एल.काकू, रतनजी, रशीद भाई, ओमजी, पंकजजी और दीनजी भा’सा खड़े-खड़े चाय पी रहे हैं। अब मोहनजी आते ही, आस करणजी को मोबाइल सौंप देते हैं। उनको देखते ही, आस करणजी भाऊ को आदेश देते हैं, के ‘वह जल्दी मोहनजी को, चाय से भरा प्याला थमा देवें।’ भाऊ चाय का प्याला, मोहनजी को कैसे थमाता ? उसकी केंटीन पर यात्रियों की भीड़ बहुत अधिक बढ़ चुकी है, इसीलिए वह आस करणजी की तरफ़ ध्यान नहीं देता है। आदेश की पालना न होने पर, आस करणजी नाखुश हो जाते हैं। वे चिढ़ते हुए, भाऊ को ज़ोर से कहते हैं]
आस करणजी – [ज़ोर से कहते हैं] – भाऊ रे, अरे ए रे भाऊ। अरे सिन्धी माणू सुनता नहीं है ? मोहनजी को, चाय का प्याला थमाता है या नहीं ?
[अब भाऊ सामने देखता है, आस करणजी किस भले आदमी के लिये चाय मंगवा रहे हैं। जैसे ही उसकी नज़र, मोहनजी पर गिरती है..बस उनको देखते ही, उसे याद आ जाता है के “यह तो वही आदमी है, जो रोज़ चाय तो पी जाता है। और चलती गाड़ी में दरवाज़े के पास खड़ा होकर, मुझे कहता है “चाय के पैसे, कल दूंगा।” अब भाऊ ने पक्का इरादा बना लिया, आज़ तो मैं चाय का बकाया हिसाब पूरा करके ही दम लूँगा।” यह आख़िर तज़वीज़ बनाने के बाद, भाऊ ज़ोर से कहता है]
भाऊ – [ज़ोर से कहता है] – इनको चाय पाऊंगा तो इनके बकाया दस रुपये, आपके खाते में जोड़ दूंगा। मंजूर हो तो कहिये, जनाब।
[अब मोहनजी सोचते जा रहे हैं, ‘यदि इस झकाल में पड़े रहे तो गाड़ी रवाना हो जायेगी, और बापूड़ा मैं तो बिना चाय पीये रह जाऊंगा ?’ बस, फिर क्या ? काउंटर पर रखा चाय से भरा कप, मोहनजी झट उठा लेते हैं। भाऊ ने अभी-अभी चाय से भरा कप, काउंटर पर रखा था। किसी दूसरे यात्री लिए भरा गया चाय का कप, चालाक मोहनजी उठाकर पी जाते हैं। फिर फटाक से ख़ाली कप, उस काउंटर पर रख देते हैं। अब क्या काम बाकी रहा, आस करणजी से ? ‘चाय पी ली और अब काम निपटा, और गुज़री नटी।’ इसी कहावत को चरितार्थ करते हुए, मोहनजी रुख़्सत होते हैं। अपने डब्बे में दाख़िल होने के लिए, वे क़दमों की गति बढ़ाते जा रहे हैं। और पीछे की झकाल, छोड़ देते हैं आस करणजी के ऊपर..अब आस करणजी जाने, या भाऊ जाने अपना बकाया हिसाब ? हम तो चले, अपने गाँव। इधर इनके सारे साथी चाय पीकर वहां से खिसकते जा रहे हैं। इधर इंजन सीटी देता है, गाड़ी चल चुकी है। चलती गाड़ी का हेंडल पकड़कर, वे डब्बे में चढ़ते हैं। इस वक़्त वे यह देखना भी नहीं चाहते हैं, के ‘आस करणजी किस डब्बे में चढ़ रहे हैं ?’ प्लेटफोर्म छोड़ने के बाद, अब गाड़ी की रफ़्तार तेज़ होती जा रही है। इधर रास्ते में खड़े यात्रियों के कारण, रास्ता जाम हो जाता है। अब मोहनजी, आगे कैसे बढ़े ? परेशान होकर, वे ज़ोर-ज़ोर से उन लोगों को कहते जा रहे हैं]
मोहनजी – दूर हटो रे, कढ़ी खायोड़ो। मुझे जाने दो, मेरी सीट के पास।
[अचानक इस भीड़ में कोई जबरा आदमी, मोहनजी की कलाई ज़ोर से पकड़ लेता है। कलाई नहीं छुड़ा पाने पर, वे ज़ोर से चिल्लाते हुए कहते हैं]
मोहनजी – [ज़ोर से चिल्लाते हुए, कहते हैं] – हरामखोर कहीं के, किसने पकड़ी मेरी कलाई ? किसकी मां ने अजमा खाया, जिसने खाया वो आ जा मेरे सामने..! अभी देखता हूं साले कढ़ी खायोड़े, तूझे ऐसा ठोकूंगा के तूझे तेरी नानी याद आ जायेगी।
सौभाग मलसा – [सामने आकर कहते हैं] - मेरी मां ने खाया है, अजमा। पावणा, अब तू तेरी कलाई छुड़ाकर दिखा..देखता हूँ, तूझमें कितनी ताकत है ?
[यह कलाई किसी देसी डॉन ने पकड़ी है, उसे छुड़ाना मोहनजी के हाथ में नहीं। अब सौभागमलस उन्हें खींचकर ले जाते हैं, एक ख़ाली केबीन में। फिर उनको सीट पर बैठाकर, ख़ुद उसके सामने वाली सीट पर बैठ जाते हैं। फिर, वे कहते हैं]
सौभाग मलसा – डर मत पावणा, मैंने अब सोचा है..अब तुझसे राज़ीपा कर लूं, तो अच्छा। मगर तू तो ठहरा, ओटाळ नंबर एक। इसके साथ कमबख़्त तू निकला, बड़ा अलाम।
[सामने बैठा देसी डॉन, जिसके साथ दुश्मनी रखनी ख़ुद की जान ज़ोखिम में डालने के बराबर। बेचारे मोहनजी लाचारगी से, खिड़की के बाहर देखते हैं। बाहर एक बहेलिये को ज़ाल फेंकते हुए देखते हैं, उस ज़ाल में पक्षी फंसते जा रहे हैं। अब उनको पक्षियों और ख़ुद की दशा, एकसी लगती है। बिल्ली के हाथ में यदि कबूतर आ जाता है, तब कबूतर आंखें बंद करके शांत बैठ जाता है। उसी तरह, मोहनजी इस देसी डोन को देखकर चुपचाप शान्ति से बैठ जाते हैं। अब इनका भोला चेहरा देखकर ऐसा लगता है, इनके समान कोई सीधा और भोला आदमी इस ख़िलक़त में नहीं है..?]
सौभाग मलसा – मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता, तू नीला बैग लाता है या नहीं ? नहीं लाएगा, तो मुझे थोड़ा-बहुत नुक्सान हो जायेगा..जिसे मैं बर्दाश्त कर लूंगा। मगर जुलिट के साथ बातें करती हुई डी.वी.डी. ज़रूर बहन के पास भेज दूंगा, फिर देखना बहन ऐसे धोयेगी तूझे जैसे धोबी कपड़े को धो डालता है। फिर देखना..
मोहनजी – और क्या देखूं, जनाब ?
सौभाग मलसा – फिर देखना, एक डी.वी.डी. की कोपी भेजूंगा तेरे दफ़्तर। और दूसरी कोपी भेजूंगा, तेरे डी.एम. के पास। समझ गया, करम फूटोड़ा ?
मोहनजी – [भोला मुंह बनाकर, कहते हैं] – साला साहब, कौनसी डी.वी.डी. ? कैसी बात कर रहे हैं, आप ? मुझे आपकी बात, बिल्कुल समझ में नहीं आ रही है। कहीं आप भंग पीकर तो नहीं आ गए, जनाब ? भंगेरी की तरह, करड़े-करड़े बोलते जा रहे हैं, आप ?
सौभाग मलसा – भंग मैंने नहीं, तूने पी होगी ? [मोबाइल चालू करके, एम.एम.एस. दिखाते हैं] देख इधर, कैसे तू बैठा-बैठा जुलिट से मालिश करवा रहा है अपने घुटने की ? और साथ-साथ तू किस तरह, प्रेम की बातें उससे करता जा रहा है ? कुछ सुनने में आयी, मेरी बात ? अब बोल, इसे देखकर तेरी भंग उतरी या नहीं ?
[पूरा एम.एम.एस. देखकर, मोहनजी को अपने हाथ के तोते उड़ते दिखायी देने लगे। अपनी रुळीयार [चवन्नी-क्लास] आदतों के कारण, आज़ उन्हें यह दिन देखना पड़ा है। खिड़की से बाहर उन्हें खेत जोत रहे किसान की दुर्दशा का, भान होता है। बरसात का पानी खेत में भर चुका है, अब वह खेत छोटे पोखर के समान दिखायी दे रहा है..उसमें किसान की भैंस पानी में तैरती जा रही है, और वह दूध निकालने नहीं दे रही है। लाचार होकर किसान दूध निकालने का काम छोड़ देता है, और बैलों को लेकर चला जाता है। इस मंज़र को देख रहे मोहनजी, हताश होकर बड़बड़ाते जा रहे हैं]
मोहनजी – [दुखी होकर, बड़बड़ाते हैं] – साले साहब, अब मेरी भैंस पानी में बैठ गयी है। अब आपको ही, रास्ता दिखलाना होगा। मेरे दिल-ए-ग़म को दूर अब आप ही करेंगे, साले साहब।
सौभाग मलसा – [खुश होकर कहते हैं] – अब भी लाकर दे दे, मेरा नीला बैग। नहीं लाया तो पावणा, तेरी ऐसी की तैशी कर दूंगा। कमबख़्त तू ज़िंदा में ज़िंदा नहीं, और मरे हुए में मरा हुआ नहीं..ऐसी हालत कर दूंगा। तेरे खोपड़े पर इतने खालड़े मारूंगा, के तेरी आने वाली सात पुश्ते मोडी पैदा होगी। समझ गया, पावणा ?
मोहनजी – [रोनी सूरत बनाकर, कहते है] – देखिये सौभाग मलसा, बैग तो है नहीं अभी मेरे पास। जानता हूँ, आपका बैग जुलिट के बैग से बदला गया। इसमें, मेरा क्या कसूर ? अब आप कहते हैं, तो पहले आप उसका असली बैग लाकर दे दो मुझे..तब मैं आपका नीला बैग, लाने की कोशिश करूँगा।
सौभाग मलसा – [सुर बदलकर, कहते हैं] – क्या कहा, पावणा ? तू कोशिश करेगा ?
मोहनजी – [भोलेपन से कहते हैं] – जुलिट के पास आपका बैग होगा तो उससे मांगकर ला दूंगा, अगर उसने किसी और को दे दिया होगा तो उससे मांगकर ला दूंगा। लाने में कौनसे पैसे लगते हैं, मेरे ? मगर भले आदमी, इस जुलिट को उसका असली बैग तो सौंपना होगा...या नहीं ?
सौभाग मलसा – [होंठों में ही] – पावणा जो बात कह रहा है, वह है तो सत्य। और है भी, क़ायदे की बात। जब मैं इसको जुलिट का बैग लाकर दूंगा, तब यह भला आदमी उससे बैग लेकर आयेगा। न तो वह पागल है, हाथ आया हुआ बैग मुफ़्त में दे देगी ? [प्रगट में] ठीक है, पावणा। कल मैं जुलिट का बैग लेकर आ जाऊंगा, या फिर तुम्हारे घर ज़रूर पहुंचा दूंगा।
मोहनजी – अब, मैं जाऊं ?
सौभाग मलसा – [मुस्कराकर, कहते हैं] – यहाँ बैठने पर, क्या तूझे चुनिया काटते है ?
मोहनजी – राज़ीपे की सारी बात हो गयी, अब सौभाग मलसा मुझे क्यों रोक रहे हैं आप ? आपके चक्कर में बैठा रहा तो, मेरे जन्नती स्वप्न टूट जायेंगे।
सौभाग मलसा – [होठों पर मुस्कान बिखेरते हुए कहते हैं] – देख पावणा। मैं तो हूँ रसिक..लफंगा नंबर एक, मगर मैं जानता हूँ तू कौनसा दूध से धुला हुआ है ? तू मुझसे चार गुना ज़्यादा है, रसिक। अब देख, ख़िलक़त की यह रीत है के ‘रसिक लोग अपनी रोमांस की बातें एक दूसरे से शेयर करते हैं, छिपाया नहीं करते।’
[वैसे भी मोहनजी अपने दिल में रोमांस की बातें छिपाया नहीं करते, बिना कहे उनका खाना पचता नहीं। अब शेयर करने की बात आने पर, वे बहुत खुश होते हैं। फिर, क्या ? मुस्कराते हुए, अब वे सारी बातें कहनी शुरू करते हैं।]
मोहनजी – [मुस्कराते हुए कहते हैं, और साथ में मुंह से थूक और ज़र्दा भी उछालते रहते हैं] – यह जग की रीत है, जनाब। गर्भवती का पेट दायन से छुपा नहीं रहता है, अब सुनो मेरी बात। आधा घंटे के पहले, मेरे पास एक ख़ूबसूरत लड़की का फ़ोन आया था। वह अपना नाम बता रही थी..शायद कोई, कमलकी विमलकी होगा ?
[कमलकी का नाम सुनते ही सौभाग मलसा के चेहरे पर मुस्कान छा जाती है, अब वे दिल में यही सोचते जा रहे हैं]
सौभाग मलसा – [सोचते हुए] – रामसा पीर तेरी कृपा बनी रहे, आज़ तो गाड़ी बराबर लाइन पर चल रही है। जैसे फ़क़ीर बाबा ने कहा था, वैसे ही गाड़ी चल रही है। अब तो जैसे बाबा ने कहा, उसी प्लान के मुताबिक़ मुझे काम करना है।
[बड़े प्रेम से सौभाग मलसा, मोहनजी को उनकी बांह थामकर उठाते हैं। और ख़ुशी से, उनको गले लगाते हैं। फिर, मुस्कराकर उन्हें कहते हैं]
सौभाग मलसा – [मुस्कराते हुए, कहते हैं] – पावणा, क्या कहूं आपको ? आप तो शत प्रतिशत भाग्यशाली रहे। यह कमलकी बहुत ख़ूबसूरत है, और यह छमकछल्लो अपने बदन पर किसी को हाथ रखने देती नहीं।
मोहनजी – वाह सालाजी, वाह। क्या ख़बर दी है, आपने।
सौभाग मलसा – बस अब तो आप पावणा कमर कस ही लो, उस छोरी को रिंझाने के लिए। भले आगे से आप मेरा भी [लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए कहते हैं] ध्यान रखना, जब आपका काम पट जाए तब ..
मोहनजी – [बात काटते हुए कहते हैं] – यार सौभाग मलसा, आपका काम तो निकालना ही होगा, अब आप पराये आदमी तो रहे नहीं। इसीलिए अब मैं आपको अपना आदमी समझकर, अपनी समस्या आपको बता रहा हूँ। सुनिए, मेरी दोनों जेबें बिल्कुल ख़ाली है। आप तो जानते ही हैं, ऐसे कामों में जेबें भरी हुई होनी चाहिए। मगर..
सौभाग मलसा – [बात काटते हुए, कहते हैं] – क्यों फ़िक्र करते हो, पावणा ? सौभामलसा होते जहां, वहां पैसों की क्या कमी ? ये रुपये-पैसे तो हाथ का मैल है, ये पैसे तो आते रहते हैं और जाते रहते हैं। मगर मौज-मस्ती के दिन, वापस आने वाले नहीं।
मोहनजी – जी हाँ, ये बीते हुए रोमांस के लम्हे वापस आने वाले नहीं। बस, हाथ आया मौक़ा कभी चूकना नहीं चाहिए।
सौभाग मलसा – [ज़ेब में हाथ डालकर, पांच हज़ार रुपये बाहर निकालते हैं] – ये लो पांच हज़ार रुपये। और चाहिए, तो आप शर्म मत कीजिएगा। मांग लेना, पावणा। आप तो जानते ही हैं, जहां सौभाग मलसा हो वहां बहती है पैसो की नदी। कमाना और उड़ाना, यही मेरी ज़िंदगी है।
[इतना कहकर, वे पांच हज़ार रुपये मोहनजी को दे देते हैं। फिर वे, दूसरी ज़ेब में हाथ डालते हैं। उस ज़ेब से तीन हज़ार रुपये, और गुलाब के इत्र की शीशी बाहर निकालकर मोहनजी को देते हैं। यह इत्र किसी ज़माने में, बेगम नूरजहाँ वापरती थी। रुपये और इत्र मोहनजी को देकर, सौभाग मलसा कहते हैं]
सौभाग मलसा – [इत्र और तीन हज़ार रुपये देकर, वे कहते हैं] – ये लीजिये पावणा, पहले पानी में गुलाब जल डालकर स्नान करना..फिर अपने कपड़ो पर यह इरानी गुलाब का इत्र छिड़कना। फिर देखना, कमलकी क्या ? हूर की परियां आपके पीछे पड़ जायेगी, जैसे टी.वी. में एक्स स्प्रे के एड में दिखाया जाता है।
[मोहनजी इत्र को सूंघते हैं, फिर रुपये और इत्र को अपनी ज़ेब में रख देते हैं।]
सौभाग मलसा – इत्मीनान से आपको समझा दिया है, भूल-चूक करना मत। ऐसे मौक़े बार-बार मिलते नहीं। अब आप देखो, खारची से नाणा-बेड़ा जाने का वक़्त लगता है..बराबर दो घंटे।
मोहनजी – मुझे मालुम है, जनाब।
सौभाग मलसा – अब भूल जाओ अपने दिल-ए-ग़म को। अब ऐसा कीजिएगा, आप दफ़्तर जाकर वक़्त ख़राब न करें, सीधे रवाना हो जाना। मेरी चिंता मत करना, मैं आपको मेले में ढूँढ़ लूंगा।
मोहनजी – देखो साला साहब, मैं नन्हा बच्चा नहीं हूं। सब जानता हूँ, इस मेले में जाने के लिए स्पेशल बसे लगी हुई है। मैं शाम को बराबर सही वक़्त पर, मेले में पहुँच जाऊँगा। मैं पहले जाऊंगा भूतिया नाडी, वहां काम पट जाने के बाद मेले में अपने-आप आ जाऊंगा। अब आप कहिये, आप मेले में कहाँ मिलेंगे ?
सौभाग मलसा – मैंने पहले भी आपको कह दिया था, के ‘मैं आपको ख़ुद ढूढ़ लूँगा, मेले के अन्दर।’ बस आप किसी तरह, पहुँच जाना मेले में।
मोहनजी - बस आप फ़िक्र करना मत, मैं सब समझ गया जनाब। सौभाग मलसा, अब आप मुझे रुख़्सत होने की इज़ाज़त दीजिये। मैं ज़रूर आपसे, मेले में मिल लूंगा।
[मोहनजी बार-बार ज़ेब में हाथ डालकर नोटों की गरमी लेते जा रहे हैं, और मुस्कराते हुए देखते हैं...बदन पर, वही पहना हुआ काला सफारी-सूट। जिसे वे पहले कभी बदशिगुनी समझकर, आस करणजी से कह दिया था के ‘इस सफारी सूट को, किसी फ़क़ीर को देकर सवाब ले लूंगा।’ आज़ उसी सूट को, अब वे लकी नंबर एक मान रहे हैं। अब वे बेसुरी आवाज़ में, फ़िल्मी गीत की तर्ज़ पर गीत गाते हुए वहां से रुख़्सत होते हैं।]
मोहनजी – [गीत गाते हुए] – साला मैं तो साहब बन गया, साहब बन कर कैसे तन गया। सूट मेरा देखो, बूट मेरा देखो..मैं हूँ रुळीयार, एक नंबर का। देखो मैंने पटाया, कैसे पटाया ? देखो मेरी, अक्कल को। साला मैं तो साहब बन गया।
[गाते-गाते मोहनजी वहां से रुख़्सत होकर, अपने केबीन की तरफ़ क़दम बढ़ाते हैं। मंच पर, अंधेरा छा जाता है। थोड़ी देर बाद मंच रौशन होता है। पाली रेलवे स्टेशन का मंज़र सामने आता है, वहां प्लेटफोर्म पर लगी घड़ी शाम के पांच बजे का वक़्त बता रही है। अब प्लेटफोर्म नंबर एक से दो पर जाने का, उतरीय पुल दिखायी देता है। इसकी सीढ़ियों पर कई एम.एस.टी. होल्डर्स, और कई यात्री बैठे दिखायी देते हैं। इन एम.एस.टी.होल्डर्स में रशीद भाई, रतनजी, दीनजी भा’सा, ओमजी, गोपसा व चंदूसा बैठे गपें ठोक रहे हैं। पुलिए की रेलिंग पकड़े वल्लभजी भा’सा, खड़े-खड़े गुटका अरोग रहे हैं। ये वल्लभजी भा’सा ठहरे, मुलाज़िम बिक्री कर महकमें के। अचानक चंदूसा की निग़ाह सरकारी डेयरी के लेखाकार जोशीजी पर गिरती है, जो स्टेशन मास्टर साहब के दफ़्तर से बाहर आ रहे हैं हैं। यह दफ़्तर, इस पुलिए से कुछ क़दम ही दूर है। फिर भी स्टेशन मास्टर साहब के दफ़्तर के बाहर खड़े जोशीजी, चंदूसा के मोबाइल पर एस.एम.एस. भेजकर गाड़ी के आगमन की सूचना देते हैं। एस.एम.एस. भेजे जाने से, चंदूसा के मोबाइल पर घंटी आती है। चंदूसा मोबाइल ओन करके, मेसेज पढ़ते हैं। वे मेसेज पढ़कर, पास बैठे रतनजी से कहते हैं]
चंदूसा – [रतनजी से कहते हैं] – देखिये, रतनजी। कैसे-कैसे लोग, इस ख़िलक़त में भरे पड़े हैं। है भगवान, इनको क्या मुफ़्त की स्कीम हाथ में आ गयी..? भईजी राम पूरे दिन मचकाते रहते हैं, मोबाइल। इधर देखिये, रतनजी। कितना नज़दीक है, यह स्टेशन मास्टर साहब का दफ़्तर। फिर भी, जनाब भेजते हैं एस.एम.एस.। क्या उनके पाँव, टूटे हुए हैं ?
रतनजी – आपको क्या करना है, चंदूसा ? आपको तो, अपने काम से मतलब रखना चाहिए।
चंदूसा – मेरी बात समझा करो, रतनजी। भईजी रामजी मचका रहे हैं मोबाइल, क्या उनके पाँव काम नहीं करते ? दस क़दम चलकर, यहाँ आकर भी वे गाड़ी के आगमन की सूचना दे सकते हैं ना ?
रतनजी – इसमें, बड़ी बात क्या है ? मोबाइल उनका है, वे मर्ज़ी आये जैसा उसे उपयोग में लाये। चाहे तो फोटो खींचे, या मचकाए एस.एम.एस. भेजने के लिए। अपने बाप का क्या गया, जनाब ?
चंदूसा – [खीजे हुए, गुस्से में कहते हैं] – यार रतनजी धान की बोरियों के आस-पास रहते हुए आप, दूसरे आदमियों का ख़्याल करना भी भूल गए क्या ? आप तो ‘धूल उड़ाओ’ पोस्ट पर ही ठीक थे, पीकर बनकर क्या किया आपने ?
रतनजी – [ज़ब्हा पर छाये पसीने के एक-एक कतरे को रुमाल से साफ़ करके, कहते हैं] – चंदूसा, यहाँ हम-लोग ज़िंदगी और मौत के बीच लड़ रहे हैं जंग। इधर आपको, हम पर परिहास करना अच्छा लगता है ? जानिए हमारे दर्द को..समझना होगा आपको...क्या है, हमारा दिल-ए-ग़म ? ये मीडिया वाले तो आपके बाप हैं, थोड़ा सा अनाज क्या ख़राब हो जाता है..? झट ये कमबख़्त, नमक-मिर्च लगाकर, ख़बर छाप देते हैं अखबारों में।
रशीद भाई – अख़बारों में छापते है, के ‘एक तरफ़ ये ग़रीब लोग अनाज नहीं मिलने से, भूखे मर रहे हैं..और दूसरी तरफ़ ये माता के दीने, ढेर सारा अनाज बरबाद करते जा रहे हैं। अब मैं आपको, क्या कहूं ? इन लोगों ने कब देखी हमारी स्थिति, हम कैसे जी रहे हैं ? इनको ख़ाली चाहिए, सनसनी-खेज़ ख़बर।’
चंदूसा – [उछलते हुए, कहते हैं] – क्या ग़लत छापा, इन्होंने ? पढ़िए, आज़ का अख़बार, क्या कह रही है यह डी.बी. स्टार की टीम..जो एफ़.सी.आई. की साइड पर गयी थी ? वहां जाकर क्या देखा, उन्होंने ? अब कहिये, कैसे चुप हो गए जनाब ?
वल्लभजी – क्या बोलेंगे, भा’सा ? पच्चास-पच्चास किलोग्राम के बावन हज़ार तीन सौ चालीस कट्टों में, ज़्यादातर ख़राब सड़ा हुआ गेहूं और कीड़ा लगा हुआ..? और क्या बताऊँ, आपको ? बोरियों के बारदान दिखने में, काले-कीट दिखायी देते थे। यही गेहूं, पूरे जिले की रासन की दुकानों पर सप्लाई होने वाला था।
चंदूसा – अब और क्या बताये, इनको ? सभी रासन की दुकान वाले वहां इकट्ठे हो गए, ये सत्यनारायणजी, रमजान अलीजी, और करतो बा..और किन-किन का नाम गिनाऊं आपको ? ये सभी मौज़िज़ आदमी वहां इकट्ठे हो गए, और जांच करवाने का निवेदन करते रहे।
रतनजी – क्या बक रहे हो, चंदूसा ?
चंदूसा – कौन बकता है ? गेलसफे नहीं हैं हम, सबूत के साथ कह रहे हैं। मगर, आपके अफ़सरों को कोई फर्क नहीं पड़ता। वे तो इस कान से सुनते हैं, और दूसरे कान से बात बाहर निकाल देते हैं। और ऊपर से आपके अफ़सर यह भी कहते जा रहे हैं, के ‘गुणवत्ता ज़्यादा ख़राब नहीं है।’
रतनजी – अरे चंदूसा, इसकी तो जांच विचाराधीन है। आप, फ़िक्र क्यों करते हैं ? जांच पूरी हो जाने के बाद दूध का दूध और पानी का पानी, अपने-आप सामने आ जाएगा। मगर, एक बार मेरी बात सुन लीजिये जनाब।
चंदूसा – और क्या कहना, बाकी रह गया आपको ?
रतनजी – मैं यह कहना चाहता हूँ, चंदूसा। के, ‘लोगों को, दूर के ढोल सुहाने लगते हैं। जो आदमी भुगतता है, वह ही जानता है..कैसे जीना है ? देखो चंदूसा, एफ़.सी.आई. के पास पिछले माह में अनाज क़रीब था एक लाख अठाईस हज़ार चार सौ तिहोत्तर मैट्रिक टन।
रशीद भाई – चंदूसा, जिले में कुल १४ डिपो है। मेरे डिपो में पांच हज़ार आठ सौ इठयासी मैट्रिक टन अनाज आया। अब आप ही सोचिये, पिछले कई सालों से अनाज का उठाव कम होता जा रहा है। इससे..
चंदूसा – कहीं आपने अनाज बांटना, कम कर दिया होगा ?
रतनजी – समझा करो, यार। अनाज खूब आता जा रहा है, मगर यहाँ तो पिछला अनाज भी खूब पड़ा है। ऊपर से, और आ जाता है..तब उसे, हिफाज़त से रखने की समस्या बढ़ जाती है। गोदाम सारे भर चुके हैं, इसीलिए खुले में तिरपाल ढककर अनाज को रखना पड़ता है। इधर आ जाती है, बरसात। बस, बन जाता है बरबादी का जोग।
रशीद भाई – क्या कहें, आपको ? फिर यह मीडिया, पूरा दोष विभाग के ऊपर डाल देता है। क्या कभी इस मीडिया ने, मालुम करने की कोशिश की, के ‘अनाज रखने के कितने गोदाम है, दवाइयां छिड़काव करने के क्या-क्या साधन है ? इन दवाइयों की, क्या दशा है ? न ये लोग जानना चाहते हैं, क्या है हमारा दिल-ए-ग़म ?’
चंदूसा – तो फिर ?
रतनजी – पुराने ढर्रे से चलते आ रहे हैं, बस। विदेशों में नवीनतम साधन और दवाइयां, अपना ली गयी है। मगर हमारे यहाँ पुराने तौर-तरीके ही, अभी-तक चल रहे हैं।
रशीद भाई – इधर इस सरकार ने, नये कर्मचारियों की भर्ती बंद कर रखी है। अगले कर्मचारी या तो मर जाए या सेवानिवृत हो जाए, मगर उनके स्थान पर नये कर्मचारी लगेंगे नहीं..और इन रिक्त पदों को, सरकार द्वारा समाप्त कर दिए जाते हैं। इस तरह, नया कर्मचारी लगने का कोई सवाल नहीं।
ओमजी – अरे जनाब, आपको क्या बताऊँ ? यह अनाज ढकने का तिरपाल इतना बड़ा होता है, हम दो आदमी इसे ऊँचाकर अनाज के ऊपर ढक नहीं सकते। क्या कहूं, आपको ? दस आदमी जितनी अकूती ताकत चाहिए, इस काम को अंजाम देने के लिये।
रतनजी – मगर इतने आदमी हमारे पास है, कहाँ ? नये आदमियों की भर्ती, सरकार करती नहीं। हम लोग रसायन का छिड़काव करते है, तब हमारे पास कहाँ है नयी तकनीक की मास्क और ऐसे ज़हरीले रसायनों से बचने के साधन ? हम लोग कैसे बचें, चंदूसा..इन ज़हरीले रसायनों से ? कहिये, जनाब।
रशीद भाई – बस भाई, चंदूसा। हमारी ज़िंदगी तो इस अनाज के कीड़े के माफ़िक बन चुकी है, कितने ही रसायन डाल दो..मगर, ये कीड़े जल्दी मरते नहीं। और हम इन रसायनों से जूंझते हुए अस्थमा, ह्रदय-रोग, केंसर वगैरा जैसी कई जानलेवा बीमारियाँ पाल चुके हैं। ये रसायन स्लो-पोइजन की तरह, बदन पर असर करते जा रहे हैं।
रतनजी – क्या करें, चंदूसा ? छिड़काव में काम आने वाला पाउडर इतना ज़हरीला है, इसे सूंघकर इंसान हमेशा के लिए मीठी नींद में सो जाता है।
ओमजी – लोगों को पराये थाल में, घी ज़्यादा पड़ा हुआ दिखायी देता है। और ये लोग, दूसरे लोगों को कहते हैं, ‘हम सभी, कितने आराम से बैठे हैं।’ मगर हम ही जानते हैं, पैंतीस सालों से हम कीड़े मारते-मारते ख़ुद तेल में तले जा रहे बड़े की तरह तले जा रहे हैं। किसको गर्ज़, हमारे दिल-ए-ग़म को जानने की ?
रतनजी - यह तेज़ गरमी और यह लू, अनाज में कीड़ो की आबादी को बढ़ा देती है। ये कीड़े, जल्दी मरते नहीं। और ऊपर से लेकर नीचे तक, हमारा पसीना बाहर निकाल देते हैं।
रशीद भाई – अरे जनाब, इन कीड़ो में तो हो गया है म्युटेशन। ऐसी नयी नस्ल बना दी है इन्होंने, के ‘इन पर, किसी दवाई का असर नहीं होता।’ देख लीजिये, जनाब। हमारे वक़्त के आधे से ज़्यादा आदमी मर गए हैं, यह काम करते-करते। मगर, करें क्या ? अभी-तक इन कीड़ो की नस्लें, ख़त्म होने का नाम नहीं लेती ?
रतनजी – ये कीड़े है भी बहुत ख़तरनाक, अनाज को तो बरबाद करते ही हैं..मगर, हम जैसे इंसानों को भी नहीं छोड़ते। इनके कारण हमें अस्थमा, ह्रदय-रोग आदि बीमारियां लग चुकी है, और धीरे-धीरे हम लोग मौत के दरवाज़े की तरफ़ क़दम बढ़ाते जा रहे हैं। थोडा महसूस करो, चंदूसा..क्या है, हमारा दिल-ए-ग़म।
चंदूसा – मगर आप लोग यह तो सोचिये, के ‘सरकारी अनाज की मांग दिनों-दिन कम क्यों होती जा रही है ?’ इस बिंदु पर विचार कीजिये, और बताइये मैंने क्या ग़लत कहा आप लोगों को ?
रतनजी – इस बात को सोचने के पहले आप, किसानों की दशा के बारे में ज़रा ध्यान दीजिये। यह सरकार, किसानों को फायदा नहीं पहुंचा रही है। क्या कहें, आपको ? सरकारी नीतियां ग़लत तरीके से लागू हुई है, जिससे अब औसत किसान के पास एक हेक्टर से ज़्यादा ज़मीन नहीं है। यह सरकार जानना भी नहीं चाहती, किसानों के दिल-ए-ग़म को।
ओमजी – अरे भाई, चंदूसा। पैंतालीस साल बीत गए हैं, हरित क्रान्ति को। मगर आज़ भी किसान कर्जे में दबा है, कई स्थानों पर कर्जे में दबा किसान ख़ुदकुशी करता जा रहा है। मगर फिर भी इस सरकार की आंखें, नहीं खुल रही है। किसे ज़रूरत, इन किसानों के दिल-ए-ग़म जानने की ?
रशीद भाई – अरे जनाब, क्या कहें ? यह तो सोची-समझी हुई अंतर्राष्ट्रीय योजना के तहत, किसानों की हालत को और कमज़ोर किया जा रहा है। एफ़.सी.आई. की पुनर्सरचना गठित शांता कुमार कमेटी के विचार के अनुसार “किसानों को ख़ाली ०८ फीसदी न्यूनतम समर्थन मूल्य [एम.एस.पी.] मिल रहा है। इस तरह ९२ प्रतिशत किसान, तो इससे बाहर ही है।
रतनजी – क्या कहें, आपको ? ये ९२ प्रतिशत किसान, तो इस बारे में कुछ नहीं जानते। अब तो ये लोग न्यूनतम समर्थन मूल्य [एम.एस.पी.] को हटाने की, वकालत करने लग गए हैं। तीन सालों से यह सरकार ख़ाली “एम.एस.पी. प्रति क्विंटल पच्चास रुपया” ही बढ़ाए हैं, यह बात केवल कुछ किसानों को ही मालुम है।
रशीद भाई – मगर, ख़रीदना किसने बंद किया है ? राजनीति स्थान-स्थान पर, फ़ैली हुई है। इधर अनाज ख़रीदकर, किसानों को खुश कर देती है। और उधर हम लोगों को, यह सरकार नयी तकनीक के साधन जुटाकर नहीं देती। अब क्या करें, चंदूसा ? समझे आप, हमारा दिल-ए-ग़म।
रतनजी – किसानों को, कहाँ खुश किया जाता है ? अरे जनाब, जाकर देखिये इन व्यापारियों को। जो कहीं से या किसी तरह सस्ती दर से अनाज ख़रीदकर कर, कई गुना उसका मूल्य बढ़ाकर बाज़ार में बेच देते हैं। अब आप बताइये, ‘जहां किसान को उपलब्ध कराये गए न्यूनतम समर्थित मूल्य से, कई गुना अधिक दर से..
रशीद भाई – [रतनजी का कथन पूरा करते हुए कहते हैं] - ये व्यापारी सस्ती दर में ख़रीदा गया अनाज, बाज़ार में बेच देते हैं। अरे जनाब, क्या कहूं आपको ? व्यापारियों द्वारा बेचे गए अनाज का विक्रय मूल्य, और किसानों को मिले न्यूनतम समर्थित मूल्य के मध्य ज़मीन आसमान का फर्क है। किसको पड़ी है, जो अहसास करे इन किसानों का दिल-ए-ग़म।
चंदूसा – ओमजी, अब आप अपनी बात रखिये।
ओमजी – अब आप, मेरी बात सुनिए। और ऊपर से यह सरकार, लगा नहीं रही है नये कर्मचारी। इस तरह यह सरकार, अनाज को बरबाद करने में तुली हुई है। क्या कहूं, चंदूसा ? यहाँ तो दस आदमियों का काम, दो आदमी करते हैं। फिर बताइये आप, यह देश किधर जा रहा है ?
रतनजी – [खिसककर, चंदूसा के घुटने से घुटना मिलाकर बैठते हुए कहते हैं] – अब कहिये चंदूसा, आपको कुछ आया समझ में..हमारा दिल-ए-ग़म ? कितने सारे खतरों में काम करते, हम जी रहे हैं ? अब आप यह बताइये, आप अपने चिकित्सा-विभाग में क्या कर रहें हैं ? बोलिये जनाब, आपका क्या जवाब है ?
[अब वल्लभजी भा’सा के दिल में, चंदूसा से मज़ाक करने का कीड़ा कुलबुलाता है। फिर क्या ? रेलिंग को थाम कर, सीढ़ियां चढ़ते हुए कहते जाते हैं]
वल्लभजी भा’सा – इनको, करना क्या ? या तो बांटनी माला डी की गोलियां, या फिर बांटने निरोध के पैकेट। अरे जनाब, किसी को नहीं चाहिए..तो ये महाशय, चुचाप उनकी ज़ेब में निरोध के पैकेट डाल दिया करते हैं।
रतनजी – फिर, आगे क्या होता है, भा’सा ?
वल्लभजी भा’सा - आगे उस बेचारे की शामत आ जाती है, जब उसकी धर्म-पत्नी उसकी जेबें टटोलती है। अरे जनाब..वह बेचारा किसी के सामने अपने दिल-ए-ग़म को ज़ाहिर न कर पाता कि उसके साथ किसने और क्यों यह हरक़त की है।
रतनजी – आगे कहिये, भा’सा। बातों की गाड़ी को, रोका न करें।
वल्लभजी – [हंसते हुए, आगे कहते हैं] – क्या कहूं, जनाब ? इन महाशय को केवल, सरकारी कोटा किसी तरह पूरा करना है। अगले आदमी पर, क्या बीते ? उस होने वाली घटना से, इनको कोई लेना-देना नहीं..बस, इनका तो एक ही मक़सद है..किसी तरह, सरकारी कोटा पूरा करना ज़रूरी है।
ओमजी – चंदूसा अकेले नहीं है, जनाब। इनके विभाग के लोगों का तो, कोई जवाब ही नहीं। क्या कहें, जनाब ? इस तरह कोटे पूरे करते वक़्त, कई कर्मचारी ८० साल के वृद्धों की नसबंदी ओपरेशन करवा देते हैं।
[इनकी बात सुनकर, उस्ताद सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते कहते जा रहे हैं]
उस्ताद – चंदूसा का, क्या गया ? जो भुगतेगा, वह जाने। चाहे वह गाड़ी में बैठकर, ताश खेलने वाला हो..और उसकी ज़ेब में, पहुँच जाते हैं निरोध के पैकेट। घर जाने के बाद, क्या होता है..? उससे, इनको कोई मतलब नहीं। वह बेचारा मासूम आदमी, इनको बददुआ देता यही कहेगा “क्यों डाले रे, पैकेट..निरोध के।”
[यह बात सुनते ही, चंदूसा अपनी हंसी दबा नहीं पाते हैं। वे मुंह पर हाथ रखकर, ख़िल-ख़िलाकर ऐसे हंसते हैं..जिनकी हंसी, बेचारे गोपसा के ह्रदय में शूल की तरह चुभती जा रही है। जो बेचारे इतनी देर तक, चुपचाप शालीनता से इनकी बातें सुनते आ रहे हैं। उस्ताद की बात सुनते ही, उनके दिल का दर्द बाहर आ जाता है। और इधर चंदूसा को इस तरह ख़िल-ख़िल हंसते देख, उनका कलेज़ा जलता जा रहा है। अब गोपसा बिना बोले, रह नहीं पाते। यह घटना किसी और के साथ नहीं घटी, बल्कि गोपसा के साथ ही घटी है। इसीलिए अब वे आब-आब होते हुए, कहते हैं..]
गोपसा – [आब-आब होते हुए, रतनजी से कहते हैं] – रतनजी, कान की खिड़कियां खोलकर सुनिये ‘ये चंदूसा, कैसे इंसान हैं ? इनकी उम्र है, मेरे छोरे के बराबर। मगर क्या कहूं, आपको ? इन्होंने तो मज़ाक में मेरी ज़ेब में डाल दिये निरोध के पैकेट, फिर मेरी परेशानी घटने के बजाय बढ़ गयी। आगे, क्या..’
[इतना कहकर, गोपसा ग़मगीन हो जाते हैं। कौन उनके दिल-ए-ग़म को, समझ पाता ? उनको इस तरह ग़मगीन पाकर, रतनजी उन्हें दिलासा देते हुए कहते हैं]
रतनजी – कह दीजिये, दिल-ए-ग़म को बाहर निकालना ही अच्छा है। कह दीजिये, जनाब।
गोपसा – क्या कहूं, रतनजी। कपड़े धोते वक़्त, भागवान ने मेरी पेंट की जेबें संभाली। जैसे ही ये निरोध बाहर आये, और भागवान का माथा फिर गया ? वह गुस्से में कहने लगी के.....
[इतनी क्या बात सुनी, सभी ने ? रतनजी अपनी हंसी दबा नहीं सके, वे ख़िल खिलाकर हंसने लगे। उधर वल्लभजी भा’सा भूल गए ‘एक दांत के अलावा उनके सारे दांत टूट गए हैं, इसीलिए उन्होंने अपने मुंह में नक़ली बत्तीसी जड़वा दी है।’ अब जैसे ही वे हंसते हुए रतनजी का पोपला मुंह देखते हैं, और उनके मुंह से हंसी के फव्वारें छूटते हैं। फिर क्या ? जैसे ही वे हंसते हैं, और उनके मुंह में रखी नक़ली बत्तीसी बाहर निकलकर चंदूसा के सर पर चांदमारी कर बैठती है। चंदूसा दर्द के मारे, क्या चिल्लाते ? उसके पहले गोपसा अपना श्रीमुख खोलकर, वल्लभजी को उलाहना दे बैठते हैं]
गोपसा – [लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए, कहते हैं] – अरे तू जड़ा दे, नये दांत। हंसता जा रहा है, गुलाबा की तरह ? यहाँ तो मेरी बढ़ गयी परेशानी, मैं जला जा रहा हूँ इस दिल-ए-ग़म से...और तू गेलसफ़ा, हंसता जा रहा है ? अब सुन, गेलसफ़ा। जैसे ही भागवान ने देखे निरोध के पैकेट, और उन्होंने मचाया कूकारोल।
रशीद भाई – घरवाली का कूकारोल मचाना वाज़िब है, बुढ़ापे में बिगड़ रहे पति की ग़लत आदतें बेचारी कैसे सहन करती ?
गोपसा – लीजिये सुनिये, आगे। बाद में भागवान कटु-शब्द सुनाने लगी [औरत की आवाज़ में कहते हैं] आपकी उम्र हो गयी है, बेटे-बेटी की शादी कराने की। मगर आपने अभी-तक, रुलियार-पना छोड़ा नहीं। अब मुझे मालुम पडा, आप पैंतीस साल से जोधपुर-पाली के बीच क्यों रोज़ का आना-जाना करते आ रहे हैं ?
रतनजी – कुछ और भी कहा होगा, भाभीसा ने ?
गोपसा – उन्होंने आगे कहा, ‘मुझे तो ऐसा लगता है, आपके पाँव बाहर पड़ गए हैं..तभी आप कई बार, पाली रुक जाया करते हैं। अब मेरे समझ में यह भी आ गया, आख़िर आपने पाली में कमरा क्यों ले रखा है ? [लम्बी सांस लेकर, बाद में कहते हैं] कहीं आपका किसी औरत के साथ, अनुचित सम्बन्ध तो नहीं है ? अब यह राज, राज नहीं रहा है।’
वल्लभजी – [बत्तीसी वापस मुंह में डालकर, फिर कहते हैं] – आपकी रामायण छोड़िये, गोपसा। आपने क्यों कहा मुझे, दांतों के बारे में ? मगर मैं आपको एक बात ज़रूर कहूंगा, के ‘मेरा एक दांत असली है..वही अच्छा है।’
रतनजी – [हंसते-हंसते कहते हैं] – अरे वल्लभजी भा’सा आप तो हो, भाग्यशाली। आप तो गजाननजी महराज की तरह ठहरे, एकदंता। मत बढ़ाओ, अपने इस दिल-ए-ग़म को।
वल्लभजी – [खुश होकर कहते हैं] – इसीलिए कहता हूँ, लोग मुझे कहते है एकदंता [गोपसा की तरफ़ देखते हुए, कहते हैं] मगर गोपसा, मैं आपको गर्व से कहता हूँ, ‘मैं एकदंता ज़रूर हूँ, मगर आपकी तरह गोली लेकर काम नहीं चलाता। शान से करता हूँ..काम। अभी-तक, मेरे घुटने सलामत है।’
रशीद भाई – [मुस्कान लबों पर बिखेरते हुए, कहते हैं] – एक बात कहता हूँ, गोपसा। नाराज़ मत होना, मालिक। आदमी बुढा हो जाता है, तो क्या फर्क पड़ता है ? उसकी इच्छाएं बुढ़ी नहीं होती..वे जवान ही रहती है। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, त्यों त्यों ये इच्छाएँ ज़्यादा बढ़ती जाती है।
रतनजी – [हंसी का ठहाका लगाते हुए, कहते हैं] – सत्य वचन, रशीद भाई। तभी काकी ने सही आरोप लगाया है, आपके ऊपर। उन्होंने कोई ग़लती नहीं की, यह कहकर के “बन्दर बुढ़ा हो गया है, मगर अभी-तक छलांग लगाना नहीं भूला।”
गोपसा – रशीद भाई, क्या कहूं आपसे ? आपकी जैसी तकदीर नहीं है, मेरी। यहाँ तो मेरी खातूने खान, मेरे नज़दीक ही नहीं आती..और ऊपर से कटु वचन अलग से सुना देती है, के ‘ऐसी बातें करते, आपको शर्म नहीं आती ?’
रतनजी – जनाब। इतना ही नहीं, उन्होंने और भी कुछ कहा होगा। कह दीजिये गोपसा, ना बताया तो आपका पेट कुल-बुल करता रहेगा। और आप, पाख़ाना बार-बार जाते रहेंगे।
गोपसा – उन्होंने कहा ‘आपको पता नहीं, बच्चे बड़े हो गए हैं। अब आप बच्चों की शादी की बात कीजिये, अब हम दोनों बुढ़े हो गए हैं..सर पर आये सफ़ेद बालों की, शर्म करो।’
रतनजी – चल रहा है, वैसे ही चलने दीजिये गोपसा। ज़्यादा देण की तो, मंशा राम की तरह तक़लीफ़ पाओगे।
गोपसा – [आश्चर्य करते हुए, कहते हैं] – यह मंशा राम है कौन, कुतिया का ताऊ ? मुझे तो इस नाम का कोई एम.एस.टी.वाला, इस गाड़ी में दिखायी दिया नहीं।
रशीद भाई – काणे को सभी काणे ही दिखायी देते हैं, कुछ और सोचो गोपसा। इस नाम का, और दूसरा आदमी भी हो सकता है।
रतनजी – क्यों तंग करते हो, गोपसा को ? जो बात आप कहना चाहते हैं, उसे विस्तार से कह दीजियेगा।
रशीद भाई – अब आप सुनिये, गोपसा। हमारे दफ़्तर में एक ठेकेदार रोज़ आता है माल उठाने। उसका नाम है, मंशा राम। उसका चेहरा कुम्हलाया हुआ, ऐसा लगता है..मानो किसी ने इसके चेहरे का, सारा तेज़ छीन लिया हो ?
गोपसा – आगे कहिये, जनाब। आप उसको लेकर गए होंगे, भाना रामसा के पास...ऐसा मैंने भी, किसी एफ.सी.आई. के कर्मचारी से सुना है।
रशीद भाई – अरे हुज़ूर ले जाना पड़ा, उनको भाना रामसा के पास। आख़िर मुझे लोग क्यों कहते हैं, सेवाभावी ? हुज़ूर सुनिये, मैंने जाकर उनसे कहा ‘यहाँ इस तिरकाल धूप में क्यों बैठे है, जनाब ? चलिए छप्परे के नीचे, वहां हमारे बड़े वैद्य भाना रामसा आपका इंतज़ार कर रहे हैं। वहां चलकर चाय-वाय पीयेंगे, जनाब।’
गोपसा – फिर, क्या हुआ ?
रशीद भाई – फिर क्या ? आख़िर मंशा रामसा को लेकर आया, छप्परे के नीचे। वहां उनको बहुत मनुआर के साथ, भाना रामसा के पहलू में बैठाया। अब भाना रामसा ने अपनी ज़ेब से, अफ़ीम की कोथली बाहर निकाली। और मैंने मंगवायी, कड़का-कड़क चाय।
रतनजी – चाय पीने के बाद, मनारामसा ने अफ़ीम की तगड़ी मनुआर की। और हम लोगों को भी ज़बरदस्ती खिला दी, अफ़ीम की किरचियां।
गोपसा – फिर क्या हुआ, जनाब ?
रतनजी – अफ़ीम की किरचियां मुंह में जाते ही, मंशा रामसा की कली-कली ख़िल गयी। उनके मुखारविंद से फूल खिरन्ने लगे, और मंशा रामसा अपने लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए कहने लगे “वाह, भाना रामसा। क्या चीज़ दी आपने, मेरे रोम-रोम में ज़ोश भर गया जनाब।
रशीद भाई – तब भाना रामसा मुस्कराते हुए, कहने लगे “ठेकेदार साहब जो गोली अब मैं आपको दूंगा, उसके मुक़ाबले में यह चीज़ कुछ भी नहीं है।” इतना कहकर भाना रामसा ने ज़ेब से एक गोली बाहर निकालकर उनको दी, और बाद में..
गोपसा – फिर, क्या हुआ ?
रशीद भाई – उन्होंने कहा “यह गोली आप, सोते वक़्त दूध के साथ ले लेना। बाद में आप देखना चमत्कार, गोली लेने के बाद आप काठियावाड़ी घोड़े की तरह कूदोगे।”
[इतना कहकर, रशीद भाई तो हो गए चुप। और खाने लगे, लम्बी-लम्बी साँसें। अब गोपसा के दिल में मची हुई है उतावली, परिणाम जानने के लिए। अब वे, चुपचाप कैसे बैठ सकते हैं ? फटाक से, वे कहते हैं..]
गोपसा – [उतावली करते हुए, कहते हैं] – चुप क्यों हो गए, जनाब ? कहिये ना, आगे क्या हुआ ? यह तो ग़लत आदत है, आपकी। किस्से को बीच में ही, छोड़ देते हो..?
रशीद भाई – ऐसी काहे की उतावली, आपको ? क्या आपको गोली लेनी है ? कहो तो, भाना रामसा से लेता आऊँ..?
[यह बात सुनते ही, गोपसा शर्म के मारे अपना सर झुकाकर चुपचाप बैठ जाते हैं। और होंठों में ही, कहते हैं “क्यों देता है, गोली ? अरे कमबख़्त इस तरह की गोलियों के कारण ही मुझे दिल-ए-ग़म का शिकार होना पड़ा।” इनके नहीं बोलने पर, रशीद भाई बैग खोलकर, पानी की बोतल निकालते हैं। फिर, ढक्कन खोलकर पानी पीते हैं। फिर आगे का किस्सा, बयान करते हैं।]
रशीद भाई – दूसरे दिन, मंशा रामसा दिखायी दिये..हम लोगों ने देखा, उनके मुंह का नक्शा बिगड़ चुका था, ठौड़-ठौड़ रुख़सारों पर काटने के निशान..जिनसे रक्त का स्त्राव हो रहा था। वे हमारे पास आकर, पूछने लगे “भाना रामसा कहाँ है ?
रतनजी – तब मैं बोला “बबूल के झाड़ के नीचे, लेटे हैं।” वे बेचारे, पहले क्या बोलते ? उससे पहले, बबूल के नीचे लेटे भाना रामसा उनकी स्थिति देखकर ख़िल-खिलाकर हंसते हुए बोल उठे “क्या है रे, ठेकेदार..किसी कुत्तड़ी ने, तेरे गालों को काट खाया...क्या, यह सच्च है ?” मंशा रामसा भन्नाकर बोले “यह ऐसी गोली क्यों दी, जनाब। मेरी तो...
[अस्थमा के रोगी रशीद भाई, अब लम्बी-लम्बी साँसें लेते हैं। फिर, सामान्य होने के बाद, वे आगे कहते हैं...]
रतनजी – [बात पूरी करते हुए, आगे कहते हैं] – मंशा रानासा आगे बोले कि, “यह दशा बना डाली, भागवान ने। रात को उन्होंने उस गोली को, ब्लडप्रेशर की गोली समझकर ले ली।”
गोपसा – आगे कहिये, जनाब।
रशीद भाई - इतना कहकर, मंशा रामसा अपना मुंह रुमाल से छिपाने लगे। तब भाना रामसा ज़ोर से कहने लगे “अब ग़लती करना मत, अब आप दोनों को अलग-अलग गोली दूंगा..”
रशीद भाई – मगर, यह क्या ? सुनते ही मंशा रामसा सर पर पाँव रखकर ऐसे दौड़े, मानो किसी कुत्ते के पिछवाड़े में ग्रीस चढ़ा दिया हो..और उस बेचारे का कूकना हो जाता है, बंद। बस, फिर क्या ? वह, सरपट दौड़ता ही जाता है। पीछे मुड़कर भी नहीं देखता, बेचारा। सुना गोपसा ? ऐसी ही हालत हो गयी थी बेचारे ठेकेदार साहब की।
गोपसा – फिर क्या ?
रशीद भाई – फिर फिर, है क्या ? एक बार और कह देता हूँ, क्या आपको गोली चाहिये ? चाहिए तो, भाना रामसा के पास से लेकर आ जाऊं ? हमारे भाना रामसा, ऐसी दवाइयों की जानकारी रखते हैं। जनाब ने, मोटी डिग्री ले रखी है। लेकर आ जाऊं, फिर कहना मत “क्यों देता है, गोली ? अब मत बढ़ा, मेरा दिल-ए-ग़म।”
[ऊपर की सीढ़ियों पर बैठे दीनजी को, क्या मालुम ? के नीचे किस सन्दर्भ में गुफ़्तगू चल रही है ? वे बेचारे, नोवल पढ़ने में मग्न हैं। मगर उनके मित्र रतनजी ठहरे, निक्कमे नंबर एक। ऐसे निक्कमों को अक़सर कुबद सूझा करती है, बस अब उनका कुबदी दिमाग़ झट योजना बना डालता है। वे झट, दीनजी को आवाज़ देकर कहते हैं]
रतनजी – भा’सा, क्या नोवल पढ़ने में मस्त हो गए जनाब ? ज़रा, नीचे आइये।
[दीनजी तीन-चार स्टेप उतरकर, नीचे आते हैं, फिर वे रतनजी के नज़दीक बैठ जाते हैं। बाद में, वे कहते हैं]
दीनजी – [बैठते हुए, कहते हैं] – फ़रमाइये, जनाब।
रतनजी – [पर्ची थमाकर, गंभीरता से कहते हैं] – देखो दीनजी भा’सा आपको दवाई की पर्ची दे रहा हूँ। कल आओ तब, भंडारी ब्रदर्स से ये गोलियां ज़रूर लेते आना। हमारे स्टाफ वालों ने मंगवायी है, क्या करूं ? मेरा शहर की तरफ़ आना नहीं होता, इसीलिए आपके साथ ये गोलियां मंगवा रहा हूं।
[गोपसा ठहरे, ठौड़-ठौड़ का पानी पीने वाले। उन्होंने झट उस पर्ची में लिखी दवाई का नाम पढ़ डाला, पढ़ते ही वे अपने लबों पर मुस्कान बिखेर देते हैं। फिर होंठों में कहते हैं के “अच्छा फंसा, यह भोला पंछी। अब जाना दवाई की दुकान पर, अगर आस-पास खड़े लोगों ने इस पर्ची को पढ़ लिया..तो फिर रामा पीर जाने, तेरे बारे में लोग क्या-क्या सोचेंगे ? ख़ुदा न ख्वास्ता अगर इसे रतनजी की शरारत मालुम हो गयी, तो यह बेचारा दिल-ए-ग़म का शिकार बन जाएगा।” उनके मुंह खोलने के पहले ही, जोशीजी वहां आ जाते हैं। रतनजी से पर्ची और पैसे लेकर, दीनजी उस पर्ची और पैसों को अपनी ज़ेब में रखते हैं। फिर, वापस नोवल पढ़ने में दतचित हो जाते हैं। मगर पर्ची ज़ेब में रखने के पहले, रशीद भाई उस पर्ची में लिखी दवाई का नाम पढ़ लेते हैं। पढ़ने के बाद, वे मन ही मन हंसते जाते हैं। तभी जोशीजी रेलिंग को पकड़े हुए, चंदूसा से कहते हैं]
जोशीजी – [रेलिंग को पकड़े हुए, चंदूसा से कहते हैं] – चंदूसा। मेरा भेजा हुआ एस.एम.एस. आपको मिल गया क्या ? अब आप तैयार हो जाओ, शीघ्र ही गाड़ी आ रही है।
चंदूसा – [नाराज़गी से, उछलते हुए कहते हैं] – यार जोशीजी दस क़दम दूर खड़े
रहकर, काहे एस.एम.एस. देते हो ?
[जोशीजी, क्यों जवाब देंगे ? वे मुस्कराते हुए पुलिए के समीप गुज़र रही नीली साड़ी पहने रेलवे की चपरासन को देखते जा रहे हैं, जो हाथ में डायरी लेकर सर्वोदय नगर वाली रेलवे फाटक के ‘गेट मेन’ के पास जा रही है। अब वे सीढ़ियां उतरकर, उसके पीछे चले जाते हैं। उनका रुख़ देखकर, चंदूसा रतनजी से कहते हैं]
चंदूसा – [रतनजी से कहते हैं] – रतनजी उधर देखिये, उस महिला चपरासी को। वह डायरी लिए जा रही है, उस गेट-में के पास। इसका मतलब है, के ‘गाड़ी आने वाली है, यह जोशीजी की भेजी हुई ख़बर शत प्रतिशत सही है।’
रतनजी – [सिंगनल की तरफ़ देखते हुए, कहते हैं] – सत्य वचन, चंदूसा। सिंगनल डाउन हो गया है। वह बाई जा रही है फाटक वाले के पास। और शायद, फाटक भी बंद हो गयी होगी ? उठिए, अब तो यहाँ से चलना ही होगा।
[गाड़ी के आने की घोषणा होती है]
उदघोषक – [घोषणा करता हुआ कहता है] – जोधपुर से होते हुए बीकानेर जाने वाली कर्नाटक एक्सप्रेस, प्लेटफोर्म नंबर एक पर आ रही है। यात्री गण, प्लेटफोर्म नंबर एक पर प्रतीक्षा करें। सभी यात्रियों को हिदायत दी जाती है, वे किसी अपरिचित व्यक्ति से कोई खाने-पीने की कोई चीज़ नहीं लें। हो सकता है, उसमें ज़हर मिला हुआ हो।
[एक मंगता हाथ में धूपदान लिए, सीढ़ियों के पास आता है। यहां आकर, धूपदान रतनजी के नज़दीक लाने की कोशिश करता है..और साथ में, बोलता जा रहा है]
मंगता – [धूपदान का धुंआ निकट लाता हुआ, कहता है] – दे दे बाबा के नाम से, एक-एक, दो-दो रुपये।
[इस मंगते की अरदास, अब सुने कौन ? यहाँ तो रतनजी को असर कर गयी, उदाघोषक की घोषणा। वे तो उस बेचारे मंगते को, धुतकारते हुए भगा देते हैं।]
रतनजी – [धुतकारते हुए कहते हैं] – धुर..धुर..! भाग, यहाँ से। [रशीद भाई से कहते हैं] ऐसे कमबख़्त आ जाते हैं, जनता को लुटने। नामाकूल ज़हरीला धुंआ करके लोगों को बेहोश करते है, फिर लोगों को लुट लेते हैं। जो आदमी ऐसे लोगों को खैरात देता है, वह आदमी ख़ुद अपना नुक्सान करवा लेता हैं।
[उस मंगते के जाने के बाद, एक दारुड़ा मंगता आता है रतनजी के पास। उसके गले में, सोने की कंठी पहनी हुई है। वह नज़दीक आकर, हाथ आगे करके भीख मांगता है। रतनजी झट दयाद्र होकर, उसकी हथेली पर दो रुपये का सिक्का रख देते हैं। वह सिक्का लेकर, चला जाता है। रतनजी का दोनों भिखारियों के साथ किया गया अलग-अलग व्यवहार, दीनजी भा’सा को आश्चर्य चकित कर देता है। वे रतनजी के दोहरे व्यवहार को, समझ नहीं पा रहे हैं ? वे आश्चर्य चकित होकर, उनसे सवाल कर बैठते हैं]
दीनजी – [आश्चर्य चकित होकर, सवाल करते हैं] – रतनजी, यह आपका कैसा दोहरा व्यवहार इन दोनों भिखारियों के साथ...? एक को भगा देते हो, और दूसरे को पास बुलाकर देते हो दो रुपये का सिक्का ?
रशीद भाई – अरे रतनजी, मैं आपको कैसे समझाऊं ? यह दरुखोरा कहाँ है, ज़रूरतमंद ? यह लेबर कोलोनी का निवासी है, जो दस मकानों का मालिक है। तीन शादियाँ कर चुका है, यह कमबख़्त ? इसकी तीसरी औरत सर से पाँव तक, सोने के जेवर से लदी हुई..पूरी कोलोनी में घुमती है।
दीनजी – मगर, यह भिखारी आदत से लाचार है। जो इतना धनी होते हुए भी, बिना भीख मांगे रहता नहीं। क्योंकि, बिना भीख मांगे इसके पेट का खाना नहीं पचता।
ओमजी – यह ऐसा बेवकूफ नहीं, जो घर के पैसे ख़र्च करके दारु पीयेगा ? यह है इतना होशियार, केवल भीख से आये पैसों से ही दारु सेवन करता है।
दीनजी – रतनजी, फिर आप ऐसे आदमियों को क्यों रुपये देते हैं ? आदमी को अकर्मण्य तो बनाते ही है, साथ में आप नशे को बढ़ावा भी देते हैं।
रतनजी – [शांत सुर में कहते हैं] – भा’सा, क्या आपने कभी दारु पी ? नहीं पी है तो भा’सा आप कुछ नहीं समझ सकते, के “कभी किसी पियक्कड़ को दारु न मिले, तो उसकी क्या गत बनती है ?” यह बात, आपके कुछ भी पल्ले पड़ने वाली नहीं।
रशीद भाई - वाह सा, वाह रतनजी। क्या महान विचार है, आपके ? धन्य हो, रतनजी। आपके जैसा दानवीर इस ख़िलक़त में नहीं है। ऐसा लगता है, आपको देखकर ही अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म ‘शराबी’ बनी है। फिल्म में अमिताभ दारुखोरों को मुफ़्त में दारु पिलाता है, और आप..
दीनजी – पियक्कड़ो को दारु के पैसे देकर, सवाब ले रहे हैं। वाह सा, वाह। रतनजी, तारीफ़े क़ाबिल है आपका नज़रिया।
[रतनजी का नज़रिया का दर्शन स्पष्ट होने पर, सभी उनका चेहरा देखते रह जाते हैं। सबके दिमाग़ में एक ही बात घर कर गयी है, “वाह भाई, वाह। कैसा है, यह दानवीर ? जो पियक्कड़ो को दारु के पैसे देकर, सवाब ले रहा है ?” तभी इंजन की सीटी सुनायी देती है, धड़-धड़ की आवाज़ करती हुई रेल गाड़ी आकर प्लेटफोर्म नंबर एक पर रुक जाती है। सभी शयनान डब्बे में घुस जाते हैं, बड़े आश्चर्य की बात है..आज़ इनको कहीं भी, मोहनजी नज़र नहीं आते हैं। थोड़ी देर में ही इंजन सीटी देता है, और गाड़ी प्लेटफोर्म छोड़कर रवाना होती है। मोहनजी के बिना, रतनजी का दिल लगता नहीं। इस कारण वे शयनान के सभी डब्बे संभालकर, वापस आ जाते हैं। अब रशीद भाई को मज़ाक करने की, कुबद पैदा होती है। वे मज़ाक उड़ाते हुए, रतनजी से कहते हैं]
रशीद भाई – अरे रतनसा , गाड़ी का एक-एक शयनान डब्बा देखकर अब आये हैं आप ? क्या कहूं जनाब, आपको ? यह घुमने का काम, मंगते-फकीरों का होता है। अब आपको घुमने का इतना ही शौक हो गया है, तो आप..
रतनजी – तब क्या करूं, जनाब ?
रशीद भाई – आप घुमते-घुमते, यह डायलोग बोलते जाओ [हथेली आगे करते हुए, कहते हैं] “दे दे अल्लाह के नाम पर, इंटरनेशनल फ़क़ीर आया है।”
[रशीद भाई की आगे फैलाई हुई हथेली पर, रतनजी एक रुपये का सिक्का रख देते है..फिर, वे रशीद भाई से कहते हैं]
रतनजी – [हथेली पर, एक रुपया रखते हुए कहते हैं] – ले भाई, ले ले खैरात। अब आगे जा..कहीं और जाकर, भीख मांग। फकिरिये, मुझको तेरे जैसे फकीरों का बहुत ध्यान रखना पड़ता है।
[इतना कहकर, वे ठहाका लगाकर ज़ोर से हंस पड़ते हैं। फिर, वे कहते हैं]
रतनजी – बहुत अच्छे लगते हो, फ़क़ीर की वेशभूषा में। यही डायलोग बोलते रहना, आपको कोई पहचान नहीं पायेगा। [अपने होंठों के ऊपर हाथ रखकर, हंसी को दबाते है] बात असल यह है, मैं तो गया था मोहनजी को ढूँढ़ने।
रशीद भाई – याद आ रही है, उनकी ?
ओमजी – याद तो आयेगी, उनके बिना इनका दिल लगता नहीं।
रतनजी – [गुस्से में कहते हैं] – चुप हो जाओ, एक बार कह दिया आपको के..
ओमजी – चुप क्यों रहे, रतनजी ? बेचारे मोहनजी यदि आपके पास आकर बैठ जाए, तो आप अपना मुंह बिगाड़ते हैं। और आज़ उनके नहीं आने पर, आप शयनान का एक-एक डब्बा संभालकर आ गए ? मगर आपको मालुम नहीं, मोहनजी आख़िर हैं कैसे इंसान ?
रशीद भाई – मोहनजी सूंघ-सूंघकर पहुँच जाते हैं, अपने पास। उनको ढूँढ़ने की कहाँ ज़रूरत ? आज़ कहीं होते, तो अपने-आप यहाँ आ जाते।
[थोड़ी देर शान्ति छायी रहती है, फिर ओमजी कहते हैं]
ओमजी – मेरा नाम है, ओम प्रकाश। मुझे जो भी बात कहनी है, वो ॐ, ॐ कहता हुआ बात ठोककर करता हूँ। और कहता हूँ, सत्य बात। अब आप कल की न्यूज़ पर दीजिये, ज़ोर। इस वक़्त, हमारे डी.एम. साहब हेड क्वाटर पर नहीं है।
रशीद भाई – मुझे लगता है, वे शत प्रतिशत दौरे पर होंगे। तब ही मैं कहता हूँ, वे ज़रूर गए होंगे खारची।
रतनजी – और मोहनजी की ज़रूर, देण हो गयी होगी ? देण होगी भी क्यों नहीं ? मोहनजी पहुंचते हैं दफ़्तर, तब घड़ी में दोपहर के बजते हैं..करीब डेड या पोने दो। फिर श्रीमानजी एक सौ चार, शाम को तीन या चार बजे वापस पकड़ते हैं जोधपुर जाने वाली गाड़ी।
ओमजी - यार रतनजी, क्या कहूं आपको ? मैंने इन कानों से सुना है, जब भी डी.एम.साहब इनके दफ़्तर फ़ोन करते हैं, तब ये श्रीमानजी वहां कभी नहीं मिलते। कोई दूसरा कार्मिक ही, फ़ोन उठाता है।
[वक़्त बीतता जा रहा है, इनकी परायी पंचायती ख़त्म होने का नाम नहीं..ख़त्म हो तब मोहनजी को छोड़कर, किसी दूसरे आदमी की चर्चा शुरू हो। इस तरह गपों के पिटारे पर जाम लगता दिखायी देता नहीं। अब धूप चली गयी है, इंजन सीटी बजाता हुआ पटरियों पर तेज़ी से दौड़ रहा है। बिश्नोइयों के गाँव, आकर चले गए। क्योंकि खिड़की के बाहर अब ना तो एक भी मयूर दिखायी दे रहा है, और ना कहीं हिरण। इतने में एक चाय वाला, स्टील की टंकी ऊंचाये केबीन में आता है। और चाय से भरी स्टील की टंकी को, तख़्त पर रखता है। फिर वह, ज़ोर से आवाज़ लगाता है]
चाय वाला – [चाय की टंकी रखता हुआ, आवाज़ लगाता है] – चायेsss चाये sss मसाले वाली चाय। पी लीजिये, साहेबान।
रशीद भाई – यार, आज मोहनजी तो है नहीं, जो बोलते ‘पिला दो, एम.एस.टी. कट चाय..लूणी स्टेशन की।’
रतनजी – रहने दीजिये, रशीद भाई। ऐसे आदमी को क्या याद करना ? चाय मंगवाकर, वे तो अकेले पी जाते हैं। राम राम ऐसे कंजूस आदमी, पहलू में बैठे आदमी को चाय के लिए पूछते नहीं। अगर पूछेंगे तो इस तरह पूछेंगे “भाया तुम चाय पियोगे, या नहीं ?” तब बेचारा कोई इज़्ज़तदार आदमी होगा, वह शर्म से यही कहेगा “नहीं जनाब, आप ही पी लीजिये चाय।”
ओमजी – मगर मेरे जैसा कोई निशर्मा होगा, वह यही कहेगा “लाइए हुज़ूर, अभी पीते हैं चाय।” तभी ये कंजूस आदमी घबराये हुए कह देंगे “मेरी ज़ेब एलाऊ नहीं करती, आप तो मुझे मोडा करने में ही तुले हुए हो।
[चाय वाला इन लोगों की लम्बी-लम्बी बातें सुनता हुआ, परेशान हो जाता है। वह सोचता जा रहा है, कैसे महानुभाव मिले ‘जो चाय का आदेश, तो देते नहीं..ऊपर से मुझे यहाँ खड़ा करके, मेरा धंधा ख़राब करते जा रहे हैं ?’ आख़िर उससे रहा नहीं जाता, वह फटे बांस की तरह बोल पड़ता है]
चाय वाला – ओ जोधपुर के महापुरुषों। आप लोगों को, चाय पीनी है या नहीं ? मुझे यहाँ खड़ा करके, क्यों मेरा धंधा ख़राब कर रहे हो ?
रशीद भाई – तू क्यों खोटी हो रहा है, हम लोगों को चाय पीनी होगी तो हम लूणी स्टेशन पर चाय पी लेंगे।
चाय वाला – [हंसता हुआ, कहता है] – अब लूणी स्टेशन, कहाँ आने वाला ? अब तो भगत की कोठी का स्टेशन भी चला गया है। अब आपको लूणी जाकर चाय पीनी है तो वापस जाकर बैठ जाओ, बीकानेर-बांद्रा टर्मिनल में। अभी-तक प्लेटफोर्म पर खड़ी है, जाइए बैठ जाइए।
[कहता-कहता चाय वाला खिड़की से बाहर झाँक लेता है, बाहर उसे जोधपुर स्टेशन आता दिखायी देता है। देखते ही, वह चिल्लाकर कहता है]
चाय वाला – [खिड़की से बाहर झांकता हुआ, कहता है] – लीजिये, जोधपुर स्टेशन आ गया। [मुंह अन्दर लेता है] ठोकिरा, आप लोगों ने मुझे यों ही यहाँ रोककर, मेरा धंधा ख़राब किया।
[फिर क्या ? बेचारा चाय वाला झट चाय की टंकी कंधे पर उठाकर, आवाज़ लगाता हुआ आगे बढ़ जाता है।]
चाय वाला – चायेSSS चायेSSS गरम गरम चाय, मसालेदार चाय।
[चाय वाला चला जाता है, अब इंजन सीटी देता है। गाड़ी की रफ़्तार कम हो जाती है, थोड़ी देर में वह प्लेटफोर्म नंबर एक पर आकर वह गाड़ी रुक जाती है। सभी प्लेटफोर्म पर उतरते हैं, फिर गेट की तरफ़ अपने क़दम बढ़ाते हैं। गेट के बाहर दरवाज़े के पास ही एक झोला टाइप नीम हकीम ज़मीन पर चादर बिछाकर बैठा है। चादर पर, उसने कई तरह की जड़ी-बूंटिया जमाकर रखी है। जड़ी-बुटियों से तैयार की गयी गोलियां, कई छोटी-बड़ी बोतलों में रखी गयी है। इस वक़्त वह हकीम, गेट से बाहर आ रहे हैं, लोगों को आवाज़ देकर अपने पास बुलाता है। फिर, उन्हें जड़ी-बुटी से तैयार की गयी दवाई की गोलियाँ बेचता है। गोपसा के बाहर आते ही, उन पर हकीम की नज़र गिरती है। बस, फिर क्या ? उनको देखते ही वह नीम हकीम, उनको ज़ोर से आवाज़ देता है]
नीम हकीम – [गोपसा को देखते ही, उन्हें ज़ोर से आवाज़ देता है] – ओ बाबू साहब, सफ़ेद पतलून वाले। इधर आना जी, ले लो बाबूजी गोली मरदाना SSS। गोली लेकर दौडोगे सरपट, अरबी घोड़े की तरह। भूल जाओगे दिल-ए-ग़म।
[गोपसा एक नज़र डालते हैं, उस नीम हकीम पर। मगर ज्यों ही उसके मुख से वे ‘गोली मर्दाना’ का नाम सुनते हैं, उसी वक़्त सभी साथियों का साथ छोड़कर तेज़ रफ़्तार से आगे बढ़ते हैं..और, पीछे मुड़कर भी नहीं देखते। बस वे तो बतूलिये की तरह आगे बढ़ते ही जा रहे हैं, रामा पीर जाने..उनके दिल से, यह एक ही आवाज़ क्यों निकलती जा रही है “क्यों देता है, गोली ? तू तो फिर बढ़ा देगा, दिल-ए-ग़म” वे तो बिना गोली लिए, रेसकोर्स के घोड़े की तरह तेज़ी से आगे बढ़ते ही जा रहे हैं। उनको आगे तेज़ी से चलते देखकर, चंदूसा आवाज़ लगा बैठते हैं।]
चंदूसा – चलने की रफ़्तार मत बढ़ाइए, गोपसा। इस हकीम के पास ‘गोली मर्दाना’ नहीं है, नक़ली गोलियां बेचता है। आपका दिल-ए-ग़म बढ़ेगा नहीं, आप फ़िक्र न करें।
[मगर गोपसा अपने दिल-ए-ग़म को भूलने तेज़ी से आगे बढ़ते ही जा रहे हैं, वे पीछे मुड़कर भी नहीं देख रहे हैं। थोड़ी देर बाद, मंच पर अँधेरा छा जाता है।]
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