[मारवाड़ का हिंदी नाटक] यह चांडाल चौकड़ी, बड़ी अलाम है। लेखक - दिनेश चन्द्र पुरोहित पिछले खंड - खंड 1 | खंड 2 | खंड 3 | खंड 4 | खंड 5 | खं...
[मारवाड़ का हिंदी नाटक]
यह चांडाल चौकड़ी, बड़ी अलाम है।
लेखक - दिनेश चन्द्र पुरोहित
पिछले खंड -
खंड 1 | खंड 2 | खंड 3 | खंड 4 | खंड 5 | खंड 6 |
खंड ७, दिल-ए-ख़्वाहिश लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित
[मंच रौशन होता है, अहमदाबाद-मेहसाना जाने वाली लोकल गाड़ी पटरियों के ऊपर तेज़ी से दौड़ती हुई दिखाई देती है। अब अलामों के चच्चा मोहनजी शैतानी कारनामा दिखाकर, वापस अपने केबीन में आ चुके हैं। अभी भी इनके साथी, गपे हांकते जा रहे हैं। मोहनजी उनके नज़दीक आकर कहते हैं, के..]
मोहनजी - अब मैं कहां बैठूं....जनाब ?
दयाल साहब – तेरे जहां बैठने की ख़्वाहिश हो, वहीँ जाकर बैठ जा...मोहन लाल। अगर तूझे कहीं बैठने की जगह न मिले तो जाकर बैठ जा, पाख़ाना के कंपाउंड पर। वहां बैठा रहेगा तो तूझे न तो कोई उठाएगा, और न करेगा डिस्टर्ब। समझ गया ? अब जा, मेरा सर मत खा।
[सभी जानते हैं कि, मोहनजी की एक ही ख़राब आदत है..मर्जी आये वहां पीक थूक देना। इस कारण मज़ाक के लहजे में दयाल साहब ने कह दिया, उनको “अगर तूझे कहीं बैठने की जगह न मिले तो जाकर बैठ जा, पाख़ाना के कंपाउंड पर।” फिर क्या ? उनके बोले गए कथन पर, सभी ज़ोर से ठहाका लगाकर हंस पड़ते हैं। मगर, मोहनजी पर काहे का असर ? वे तो उनके इस व्यवहार को ‘आया-गया’ समझकर झट जाकर बैठ जाते हैं दयाल साहब के पहलू में। बैठने के बाद, वे दीनजी भा’सा से कहते हैं।]
मोहनजी – मैंने खो दिया, जनाब।
दीनजी – क्या खो दिया, आपका बैग या जर्दे की पुड़िया ?
रतनजी – भा’सा। बैग तो इनके पास रखा है, और जर्दे की पुड़िया रखी है इनके जेब में। अगर इनका दिल खो गया है, तो रामा पीर जाने।
मोहनजी – [मुस्कराते हुए, कहते हैं] – इस दिल को कैसे खो दूं ? इस दिल से जुड़ी मेरी कई ख़्वाहिशें है..हुज़ूर, इसे मैं खो नहीं सकता। बस, मेरी तो एक ही ख़्वाहिश है कि, मैं आपकी स्कूल आकर बच्चों को संबोधित करता हुआ उपभोक्ता सरंक्षण पर एक चकाचक भाषण दूं।
दीनजी – मुझे तो लगता है, ज़रूर आपने निमंत्रण-पत्र खो दिया है...चलिए, निमंत्रण-पत्र खो दिया है तो कुछ नहीं..मगर, आप हमारे आदरणीय मेहमान सलामत तो हैं ? बस, आप हमारी स्कूल में तशरीफ़ रखें, और भाषण देकर अपनी ख़्वाहिश पूरी कीजियेगा।
मोहनजी – भा’सा। यह काम इतना आसान नहीं, इसके लिए एक दिन मुझे पुस्तकालय जाना पड़ेगा। वहां जाकर इस मुद्दे को समझने के लिए, कई पुस्तकें पढ़नी होगी..इसके बाद, मैं भाषण देने की दिल-ए-ख़्वाहिश पूरी कर पाऊंगा।
दीनजी – अरे मोहनजी। इतने पढ़े-लिखे दानिशमंद इंसान होकर आप ऐसी पागलों जैसी बात कर रहे हैं ? आप सीधा जाइएगा, कलेक्टर साहब के दफ़्तर। वहां ऊपर वाली मंजिल पर है, उपभोक्ता सरंक्षण न्यायालय! वहां आपको चक्राकिंत की हुई सामग्री मिल जायेगी, उसे लाकर आप बैठक में पढ़ लेना..इसके सिवाय, आपको करना क्या है ?
के.एल.काकू – भा’सा इतनी इनके अन्दर अक्ल होती तो, शायद ये...--
दयाल साहब – [इनकी बात काटते हुए] - फ्लाइंग में मेरी नहीं, इनकी ड्यूटी लगती...।
मोहनजी - अरे जनाब, मेरी ड्यूटी नहीं लगी..इसमें ऊपर वाले अधिकारियों से, कहीं चूक हो गयी होगी ? अरे जनाब, मैं तो तैयार ही बैठा था। क्या कहूं, आपको ? रोकड़ा पूरे दस रुपये ख़र्च करके फ्लाइंग अफसरों वाली रबड़ मोहर बनवाकर तैयार रखी थी।
रतनजी – अरे साहब, पैसे क्यों ख़र्च किये ? जनाब, यह काम ठहरा ऑफिस का..बस, आप दफ़्तर के एलकारों से हीं, मांग लेते तो कितना अच्छा था।
मोहनजी – अरे कढ़ी खायोड़ा, रतनजी। बात तो ठोकिरा काम की कही है आपने। इस बार तो मैंने मोहर बनवा ली, अगली बार..
रशीद भाई – इस बार क्यों नहीं गए, आप ? क्या आपके अफ़सर आपसे..
मोहनजी – अरे रशीद भाई, कढ़ी खायोड़ा..ऊपर वाले बेचारे अफ़सर भी इंसान हैं..भूल गए होंगे। अब भी क्या बिगड़ा है..? मुझे निरीक्षण बाबत टूर पर जाना है, यह दिल-ए-ख़्वाहिश..अगले साल ज़रूर पूरी कर लूंगा..उस वक़्त याद रखकर, उनसे मांग भी लूंगा मोहर।
दयाल साहब – [लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए ] – अच्छी तरह सोच ले, मोहन लाल। अब तेरा बुलावा, नहीं आयेगा। नहीं होगी पूरी, तेरी दिल-ए-ख़्वाहिश।
मोहनजी - क्यों जनाब, क्या मैं इंसान नहीं हूं? मैं भी एफ़.सी.आई का अधिकारी हूं.. आख़िर।
रतनजी – देखिये जनाब, मैं कहता हूं आप दयाल साहब की बात मान जाइये। इसके पीछे, कोई ठोस वज़ह है! याद कीजिये पिछली बार आपको बुलाया था निरीक्षण बाबत, मगर... ..
मोहनजी - मुझे याद है, रतनजी। आप आगे कहिये, जनाब।
रतनजी – आप काम करना, क्यों चाहेंगे? अरे जनाब, आपको मालुम है के काम करने से घुटने घिस जाते हैं..पसीने का एक-एक कतरा, बदन से बाहर निकलता है। फिर, क्या? आपने लिखकर भेज दिया ‘मुझसे उच्च वरिष्ठ अधिकारी को, आप निरीक्षण का कार्य सौंप दीजिये!
रशीद भाई – फिर, क्या ? आपके ऊपर वाले अधिकारी आपसे ज़्यादा चतुर निकले। आपसे उच्च वरिष्ठ नहीं..तो क्या...? आपके समकक्ष अधिकारी यानी अपने दयाल साहब से यह निरीक्षण कार्य पूरा करवा लिया!
रतनजी – आप रोज़ यही बात कहते हैं, के ‘मैं दयाल साहब से ज़्यादा समझदार हूं।’ अब आप ज़्यादा समझदार होते, तो आपको बुलाते..इनको क्यों बुलाया फिर ?
दयाल साहब – बकवास बंद कर, रतन सिंह। जो हो गया, सो हो गया! मुझे कहीं जाकर अपनी क़ाबिलियत का प्रमाण-पत्र नहीं दिखलाना है? किसके पास पड़ी है अपने काम से फुर्सत ? जो जाकर, दूसरों के काम निपटाये।
रतनजी – जी हां, जनाब आपके पास बहुत काम है! यही कारण है, आप अपना काम छोड़कर टूर पर जाया नहीं करते.!..
दयाल साहब – सच्च कहता है, तू! मैं तो आया टूर, दे दिया करता हूं दूसरों को। मुझे कोई शौक नहीं है, भय्या! वह तो..ख़ुद डी.एम. साहब ने दबाव डाला था। इसलिए, चला गया था टूर पर! नहीं तो जनाब, वहां जाने वाला कौन?
रतनजी – मगर यहां तो मोहनजी ली हुई छुट्टियों को केंसल करवाकर, टूर पर ज़रूर जाते हैं। इस तरह, इनकी टूर पर जाने की दिल-ए-ख़्वाहिश हमेशा बनी रहती है।
दयाल साहब – यह मामला इनका है, रतन सिंह। तूझे याद होगा, गत माह डी.एम..साहब का फ़ोन आया..उन्होंने कहा के ‘खारची डिपो का रेकर्ड जल्द चैक होना चाहिए। खारची जाने की मेरी तो इच्छा नहीं थी, अब मैं क्या करूँ ?
रतनजी – फिर क्या, जनाब आप चले गए टूर पर ?
दयाल साहब – पहले सुन, तभी मुझे याद आया के ‘मोना राम छुट्टी लेकर खारची गया है।’ बस, फिर क्या? मैंने झट उसको फ़ोन किया और कह दिया “भय्या, अब छुट्टी मत ले! बस समझ ले, तेरी छुट्टी केंसल! और अब तू जा खारची डिपो में, जाकर रेकर्ड चैक करके अपना टूर बना लेना।”
[अब आस करणजी तशरीफ़ लाते हैं, केबीन में! अब इनके कपड़े पूरे सूख चुके हैं, अब वे आकर दयाल साहब के सामने वाली सीट पर बैठ जाते हैं। इस वक़्त मोहनजी, दयाल साहब से कह रहे हैं]
मोहनजी – जब आपके पास इतने ज़्यादा टूर आते हैं, तब ये टूर मुझे भी दे दिया करें...मुझे लोगों का काम करना अच्छा लगता है। बस, मेरी दिल-ए-ख़्वाहिश यही रहती है कि, मैं लोगों के काम आता रहूँ और [धीरे-धीरे बोलते हैं] टीए.डीए. का फ़ायदा भी लेता रहूँ।
आस करणजी – [सीट पर लेटते हुए, कहते हैं] – भाई मोहनजी, मैं अभी बहुत थक गया हूँ। आज़ तो जनाब, कमर की बज गयी बारह।
रतनजी – आस करणजी भा’सा, थोडा आराम कर लीजियेगा, अभी चंगे हो जायेंगे आप।
आस करणजी – आराम तो करना ही है, रतनजी। बात यह है, अभी मैंने इन कानों से सुना है कि, मोहनजी को दूसरों का काम करना अच्छा लगता है, उनकी दिल-ए-ख़्वाहिश यही बनी रहती है के वे लोगों का काम करके उनकी भलाई करते रहें। वास्तव में इनकी दिल-ए-ख़्वाहिश तारीफ़े-क़ाबिल है।
रशीद भाई – सच्च कहते हैं, जनाब। मोहनजी बड़े परोपकारी सेवाभावी इंसान हैं। इनकी और क्या तारीफ़ करूँ, जनाब..? एक बार इन्होने प्यास से व्याकुल फौज़ियों को, पानी लाकर पिलाया।
[अब ऐसी बातें, मोहनजी को कैसे अच्छी लगती ? उनके दिल में तो भय समाया था कि, कहीं रशीद भाई उनकी पोल खोलते हुए यह न कह दे के इन्होने फौज़ियों को गरम और खारा पानी लाकर पिला दिया। इस तरह तो लोगों के सामने मोहनजी की जो अच्छी छवि बन रही है, वह धूमिल हो जायेगी। फिर क्या ? झट मोहनजी ने किया खंखारा, ताकि उनका ध्यान भंग हो जाय और इस मुद्दे से दूर हटकर वे किसी अन्य मुद्दे पर वार्ता शुरू कर दे। उधर आस करणजी भी इस मुद्दे से दूर रहना चाहते थे, उन्हें भय था कहीं इनकी पतलून गीली क्यों हुई..इसका रशीद भाई रहस्योदघाटन न कर दे। बस, फिर क्या ? वे भी मुद्दा बदलने का मानस बना डालते हैं। बात बदलने के लक्ष्य से, आस करणजी बोल उठते हैं।]
आस करणजी – [मोहनजी की पहनी हुई काली सफारी की तरफ़ उंगली से इशारा करते हुए, कहते हैं] – वाह, मोहनजी वाह। आज़ तो मालिक ने, शानदार काली सफारी सूट पहना है। ऐसे लगते हैं, के मानो ये होलीवुड फिल्मों में रेलवे के....
मोहनजी - [चमककर कहते हैं] – क्यों याद दिला रहे हो, जनाब ? यह सफारी-सूट तो मनहूस है, इसको पहनने के बाद मैंने तक़लीफ़ें ही झेली है। अब, आपसे क्या कहूं ? अभी यह मेरा हितेषी रशीद यह बोलेगा, के...
रशीद भाई – क्यों बदनाम करते हैं, जनाब ? मैं बेचारा, क्या कहूंगा..? मैं ठहरा भोला जीव, बैठा हूँ चुपचाप...
मोहनजी – [तल्ख़ आवाज़ में] – मगर मुझे मालूम है, आप ज़रुर कहोगे के ‘यह सफारी-सूट मनहूस है, इसको पहनने के कारण इन्होने पानी बाई नाम की बुढ़िया के हाथ फोड़ी खाई..अरे भा’सा, एक बात कह दूं, आपको के इस मनहूस सफारी-सूट की तारीफ़ करके आप मुझे बीती घटानाएं याद न दिलाएं..तो अच्छा।
रतनजी – साहब, फिर आप इस सफारी-सूट का करेंगे क्या ?
मोहनजी – वक़्त मिला तो, मैं इसे किसी फ़क़ीर को दान में दे दूंगा।
आस करणजी – क्यों पागलों जैसी बातें करते हैं, आप ? जानते नहीं, इस पर आपने पैसे ख़र्च किये हैं..यह मुफ़्त का माल नहीं है..जो किसी फ़क़ीर को दान में दे दिया जाय ? अरे यार, मोहनजी। आप तो इस सफारी-सूट में जचते हैं यार, अगर मैं आपको हाथ में मेरा बैग दे दूं तो आप....
मोहनजी – [खुश होकर, कहते हैं] – क्या मैं, टी.टी. बाबू की तरह लगूंगा..? क्या, आप सच्च कह रहे हैं ?
आस करणजी – [चहकते हुए] – जी हाँ, आप टी.टी.ई. क्या..सचमुच आप तो चेकिंग पार्टी के मजिस्ट्रेट की तरह नज़र आयेंगे। अब आप ऐसा कीजिएगा, मोहनजी...के, अभी आप अपने साथियों को साथ ले जाकर मेरा काम निपटा दीजिएगा। क्या करूं, जनाब ? घुटनों में बहुत दर्द है, ऐसा लगता है...शायद यह चिकुनगुनिया का बुख़ार वापस आ गया है ? बस, आप इस डब्बे के अगले सारे डब्बे....
मोहनजी – [चहकते हुए] – अगले सभी डब्बों में जाकर, करें क्या ? भांगड़ा डांस करें या घूमर ?
आस करणजी – डांस करने की इतनी उतावली है, आपमें ? धैर्य रखिये, जनाब। चलिए बाद में कर लेना, जब गुलाबो आकर आपको ये डांस भी करवा देगा। अब आप मेरी बात सुनिए, इसे मज़ाक में टालना मत। क्या करना है, शान्ति से सुन लीजियेगा।
मोहनजी – कहिये, हुज़ूर। आपका हुक्म हमारे सर पर।
आस करणजी – अगले सभी डब्बों में बैठे यात्रियों के टिकट, आपको चेक करने है। और साथ में यात्रियों से निवेदन करके, उनसे उत्तरी रेलवे की टी.टी.ई. यूनियन के वार्षिक जलसे के आयोजन का भी चन्दा इकठ्ठा करके लाना है। बस मोहनजी, चंदा तगड़ा आ जाय तो मज़ा आ जाए।
दयाल साहब – [मोहनजी का ज़ोश बढ़ाते हुए] – मोहन लाल यार, तू तो बड़ा रुस्तम निकला। बस, तू तो प्यारे मोहन लाल ले ले आस करणजी का बैग..जचेगा यार, कोई डोफा भी होगा तो तूझे चेकिंग पार्टी का मजिस्ट्रेट समझ लेगा। फिर क्या ? तेरी दिल-ए-ख़्वाहिश दो मिनट में पूरी हो जाएगी।
[अब आस करणजी झट दींनजी भा’सा का बैग मांग लेते हैं।]
आस करणजी – [दीनजी भा’सा से कहते हैं] – दीनजी, आपका बैग बिल्कुल मेरे बैग जैसा ही है, इसे ख़ाली करके आप इसे मुझे दीजिये। मैं इसमें टिकट चेक करने बाबत छेद करने की मशीन और इसके साथ चंदे की रसीद-बुक, चालान-बुक और जलसे में बुलाने के निमंत्रण पत्रों का बण्डल डाल देता हूँ। फिर यह बैग, इन्हें थमा देता हूँ...ताकि, मोहनजी मेरा काम निपटाकर वापस आ जाय।
दीनजी – [बैग ख़ाली करते हुए, कहते हैं] – क्यों नहीं, क्यों नहीं भा’सा। इसमें है कितना सामन ? केवल नेपकिन और पढ़ने की नोवल..इन चीजों को कहीं भी रख दूंगा। ख़ाली बैग देते हुए] लीजिये, आस करणजी। अब आप जाने, और आपका काम।
[बैग लेकर आस करणजी उसमें उसमें सभी आवश्यक सामान डाल देते हैं। फिर, बैग थमा देते हैं मोहनजी को और उनसे कहते हैं]
आस करणजी – [बैग थमाते हुए, कहते हैं] – जनाब, अच्छी तरह से संभाल लेना बैग को। क्या करूँ, मोहनजी ? मेरे बैग में आवश्यक काग़ज़ात रखे हैं, न तो मैं यही बैग आपको थमा देता। आप बुरा न मानना।
[ओमजी की एक ख़ासियत, उनको पुलिस की वर्दी बहुत पसंद। फिर क्या ? जनाबे आली रोज़ ख़ाकी वर्दी पहनकर आ जाया करते हैं..गाड़ी में बैठने के लिए। मगर, आज़ तो इनकी यह वर्दी बड़ी काम आयी...इस तरह इस ड्रेस को पहने जनाब बन गए, रेलवे पुलिस के जवान। मगर फिर कमी रह गयी डंडे की, जो उन्होंने राह में बैठे एक बुढे ग्रामीण की लाठी छीनकर इस कमी को पूरी कर डाली। अब रहे, रतनजी। उन्होंने झट अपने कमीज़ को खसोलकर पतलून में डाल दिया, फिर दीनजी भा’सा से मांग लिया चौड़ा बेल्ट। फिर क्या ? पतलून की कमर पर बेल्ट लगाकर रतनजी बन गए अड़ीजंट एलकार। बेल्ट रतनजी को देने के बाद जनाब दीनजी भा’सा की हालत कैसी खस्ता हो जाती है, वह भगवान ही जाने ? बेचारे भा’सा की ढीली पतलून बार-बार नीचे गिरती जा रही है, इधर जब दीनजी भा’सा को युरीनल जाने के लिए उठना पडेगा तब बेचारे कैसे चल पायेंगे ? बेल्ट के अभाव में, वे अपनी पतलून को बार-बार नीचे गिरने से कैसे संभाल पायेंगे ? दोनों हाथों से पतलून संभाले, हाथी जैसी मतवाली चलते हुए वे जैसे ही वे यात्रियों के पास से गुज़रेंगे..तब इनकी चाल को देखने वाले यात्री-गण हंसते हुए कैसे-कैसे कॉमेंट्स कसेंगे ? इससे, रतनजी को क्या मतलब ? उनको तो बेल्ट मिल गया, काम बन गया फिर क्या ? “काम बना, और गुज़री नटी” इस मुहावरे को चरितार्थ करते आली जनाब रतनजी तो पार्टी के साथ चलने के लिए तैयार हो गए। आख़िर, इनको धुन लग गयी के ‘किसी तरह यात्रियों के टिकट चैक करके आस करणजी का काम निपटाना है।’ इस तरह मोहनजी की दिल-ए-ख़्वाहिश पूरी करने के लिए, यह चेकिंग पार्टी की टीम अब यात्रियों के टिकट चेक करने के लिए निकल पड़ी है। इन लोगों के जाने के बाद, दयाल साहब आराम की सांस लेते हैं। फिर, वे राजू साहब से कहते हैं...!
दयाल साहब – अब राजू साहब, इस तरह मोहन लाल की दिल-ए-ख़्वाहिश पूरी हो जायेगी।
राजू साहब – अरे यार, दयाल साहब...! ज़रा उन्हें काम करके आने दीजिये, गगवान जाने बटेर मार लाये..या फिर, आस करणजी के लिए कोई सरकारी तोहफ़ा।
के.एल.काकू – आस करणजी भा’सा, फ़िक्र न करना। आप तो जानते ही हैं, एम.एस.टी. वाले सेवाभावी होते हैं।
आस करणजी – यह तो मेरा दिल जनता है, काकू। कई तो होते हैं सेवाभावी, मगर कई उल्लू के पट्ठे ऐसे होते हैं..खडूसिये और खोड़ीले-खाम्पे, जो मेरे कंधे पर बैठकर सवारी करने वाले होते हैं। क्या कहूं, काकू ? इस दुनिया में, तरह-तरह के लोग भरे हैं।
के.एल.काकू – यह आपका दिल कह रहा है, कहीं आपको ऐसा खडूसिया आदमी मिल गया होगा इस गाड़ी में....?
आस करणजी – क्या करें, काकू ? यह पूरी ज़िन्दगी बीत गयी है, इन शयनान डब्बों में घुमते हुए। इन डब्बों में ही ऐसे एम.एस.टी. वालों से मुलाक़ात हो जाया करती है, कई तो ऐसे भले हैं..जो इतने मिलनसार होते हैं, जिन्हें मैं हमेशा याद रखता हूँ। मगर, कई ऐसे ऐसे होते हैं..जो रेलवे के सारे नियमों को ताक में रखकर इस गाड़ी के मुसाफ़िरों को तक़लीफ़ देते आयें हैं।
के.एल.काकू – आगे कहिये, जनाब...फिर क्या हुआ ?
आस करणजी – हम टी.टी. लोग भी कहाँ है, दूध से धुले हुए? एक या दो आदमी हम में भी ऐसे भाई मिल जायेंगे, जो डब्बे में ऐसा आंतक फैलाते है..जिसके आगे..
के.एल.काकू – [बात पूरी करते हुए] - जिनके आगे मलखान सिंह जैसे डाकू भी, पानी भरते हैं। आबू-रोड से आने वाले ऐसे ही टी.टी. होते हैं, उनको हम सब जानते हैं। बस, ऐसे टी.टी.यों के डब्बों के नज़दीक हम लोग फटका नहीं करते।
राजू साहब – ऐसे टी.टी. बैठते हैं, चेन्नई से आने वाली गाड़ी में। तब तो बस..क्या कहूं, आपको ? यदा-कदा ये टी.टी.ई. आबू-रोड के निकलते ही, चले जाते हैं वातानुकूलित कोच में..तब हम-लोगों को मिलाता है चैन। क्योंकि, फिर वे बाहर आने का नाम ही नहीं लेते हैं...जनाब। जब तक, जोधपुर स्टेशन आ नहीं जाता।
दयाल साहब – [थोड़ा विश्राम लेने के बाद, कहते हैं] - मैं यों कह रहा था, इनके वातुनाकूलित में जाने के बाद, न जाने कहाँ से इन शयनान डब्बों में मंगते-फ़क़ीर चले आते हैं..
राजू साहब – अरे जनाब, इन्हें छोड़िये, आप। ये सपेरे और मदारी भी चले आते हैं, अपने सांपों औए बंदरो को लेकर। फिर आकर, इन डब्बों की गद्देदार सीटों पर आराम से बैठ जाते हैं। मैं पूछता हूँ, इनको कोई कहने वाला नहीं।
आस करणजी – जनाब, और कुछ कहना है आपको ?
दयाल साहब – हुज़ूर, हम तो रोज़ के ग्राहक ठहरे इस रेलवे के। फिर, यह पक्षपात हमारे साथ ही क्यों?
आस करणजी – क्या करें, जनाब? यह जनता है, जनाब! इनके लिए अपने रेलवे मिनिस्टर लालू भाई का दिल दरियाव है! अरे जनाब, आप जानते नहीं, यह इनका वोट-बैंक है। एक मुश्त वोट मिलते हैं, इनके! एक बात कह दूं आपको, सभी एम.एस.टी. वाले.....
दयाल साहब – [बीच में बोलकर, बात काटते हैं] - क्या कहना चाहते हैं, हुज़ूर ?
के.एल.काकू – जनाब, पहले मुझे बोलने दीजिये। मेरी बात कहने से रह गयी, के ‘जगह-जगह पाख़ाने के आस-पास गू-मूत करके, ये मंगते-फ़कीर गन्दगी फैला देते हैं! इसी तरह आप इन एम.एस.टी..वालों और इन मंगते-फकीरों को एक मानकर, सभी को एक ही डंडे से हांकते हैं..वह अच्छा नहीं है, जनाब।
राजू साहब – [नाराज़गी से, कहते हैं] - अजीब आदमी हैं,,आप ? यार काकू, हमें क्या आपने जानवर समझ रखा है? कैसे बात कह दी, आपने ? एक ही डंडे से, हांकने की बात ?
के.एल.काकू – अरे जनाब, अभी आप बीच में बोलकर बात का मुद्दा बदलने की कोशिश न करें। जानवर होने की बात को लेकर, आप बाद में झौड़ करते रहना! खूब बोलना, बाद में। अभी बात उन बेटिकट इन मंगते-फकीरों की चल रही है, जिन्होंने डब्बे में भारी अव्यवस्था फैला रखी है।
राजू साहब – अब हम कैसे बोल सकते हैं, काकू ? आपने, हमको बोलने लायक नहीं छोड़ा ? बना दिया है, हमें जानवर! अब जानवर बेचारे, क्या बोल सकते हैं ?
के.एल.काकू – जनाब मैं जानता हू, आप ज़रुर अपने सींगों से वार करते रहेंगे।..मगर, अभी सींग इस्तेमाल करना मत, इस नेक काम के लिए आपको बाद में मौक़ा मिल जाएगा।
[आस करणजी की तरफ़ देखते हुए, कहते हैं]
के.एल.काकू - इन मंगते-फकीरों को कहाँ है बैठने की तहज़ीब? अंट-शंट खाकर, पूरे डब्बे में बदबू फैला देते हैं। ]
आस करणजी – आगे कहिये, काकू।
के.एल.काकू – [आस करणजी की तरफ़ देखते हुए] – फिर, आप कहेंगे, “भय्या इनको हम रोक नहीं सकते। तब हम लोग, एक ही बात कहेंगे के ‘इनको रोक नहीं सकते आप, तब एम.एस.टी वालों को शयनान डब्बे में बैठने से क्यों रोकते हैं? ये मंगते-फ़क़ीर ठहरे, एक नंबर के फोकटिये,! मगर हम लोग, महीने भर के टिकट के पैसे जमा करके यात्रा करते हैं!
राजू साहब – [आस करणजी की तरफ़ देखते हुए, कहते हैं] - जनाब छोड़िये, इस बात को। अभी आप यह बतायें, के यह खडूसिया कौन है, आपकी नज़रों में ? कारण यह है कि, हम के.एल.काकू की तरह मारवाड़ी जानते नहीं। बाकी बातों से, हमें क्या लेना-देना ?
दयाल साहब - मुझे भी कुछ समझ में नहीं आया, आप किस आदमी को खडूसिया कहते जा रहे हैं ?
आस करणजी – राजू साहब, हमारी मारवाड़ी भाषा में उस आदमी को खडूसिया कहते हैं...जिसके होता है तीतर का बाल, यानी वह चुप-चाप बैठ नहीं सकता। लीजिए, आप लोगों को पूरी बात ही बता देता हूं। सुनिए, एक बार मैंने क्या देखा.? के..
के.एल.काकू – क्या देखा, जनाब ?
आस करणजी – यह देखा, जनाब! शयनान डब्बे के अन्दर, एक यात्री खड़ा था..और पांच-छ: एम.एस.टी..वाले बेंचों पर बैठकर आराम से ताश खेल रहे थे। तभी मैं लोकल डब्बे से निकलकर, इस शयनान डब्बे में चला आया। उस आदमी से, मैंने पूछा ‘टिकट ’? उस भले आदमी ने दिखाया टिकट, रिजर्वेशन का।
के.एल.काकू – फिर, आपने कुछ कहा होगा उसे ?
आस करणजी – तब मैंने उससे कहा ‘भाई तू खड़ा रहकर, इन खिलाड़ियों का ‘ताश का खेल’ क्यों देख रहा है..? भाई, आराम से बैठ जा! ‘ तब, वह बोला ‘मैं ताश का खेल नहीं देख रहा हूं..इन लोगों ने मुझे मेरी सीट से उठाकर, अब ख़ुद बैठ गए ताश खेलने। अब आप ही कहिये, मैं कहाँ बैठूं ?’ फिर क्या ? मुझे इन साहब बहादुरों को, समझाना पड़ा....
राजू साहब – क्या समझाया, जनाब ?
आस करणजी – मैंने कहा ‘ओ एम.एस.टी. वालों, आपको बैठने की सीट मिल गयी..फिर ताश खेलने के लिए और जगह रोककर, आप लोगों के ऊपर क्यों चढ़ते जा रहे हैं ?’
दयाल साहब – फिर, क्या हुआ ? आगे कहिये, जनाब।
आस करणजी – तब उनमें से एक आदमी जो खडूसिया था, वह बोल उठा “फिर, हम कहाँ बैठकर खेलें ताश ?” तब उसकी बात सुनकर, मुझे गुस्सा आ गया। मैं बोल उठा “बैठो, मेरे कंधे पर। अभी तुम्हें ससुराल ले जाकर वहां बैठाकर आता हूँ। वहां आराम से बैठकर, खेलते रहना ताश के पत्ते।”
दयाल साहब – आगे क्या हुआ, जनाब? शायद कहीं आप उस खडूसिये को हवालात में बैठाकर, आ गए होंगे.?
आस करणजी – ऐसा नहीं हुआ, दयाल साहब! मुझे उस पर दया आ गयी, मगर आपसे क्या कहूं दयाल साहब ? वह खडूसिया बड़ा शैतान निकला! मेरी मज़ाक उड़ाता हुआ, वह कहने लगा..
के.एल.काकू – आपकी मज़ाक...? इतने सीधे, सुशील व ज्ञानवान टी.टी. बाबूजी के साथ मज़ाक...?
आस करणजी – आज़कल कहाँ रही मर्यादा, अब कहाँ रहे छोटे-बड़े के मान-सम्मान के क़ायदे ? देश आज़ाद क्या हो गया, लोग आज़ाद हो गए समाज के बंधनों से। भूल गए, संस्कार। क्या कहूं ? वह नालायक यों बोला, के ‘जब पाहुना जाता है, तब उसके साथ उसका साथी भी साथ चलता है! आपसे अच्छा दूसरा साथी, मुझे मिलेगा कहाँ ? इसलिए जनाब, आपको साथ चलना होगा। आप मेरे साथ ससुराल चलने के लिए तैयार हैं तो, मैं आराम से चलूँगा, जनाब।
दीनजी – बाद में क्या हुआ, जनाब ? शायद केबीन में बैठे सारे यात्रियों ने उस खडूसिये की बात सुनकर, हंसी के ठहाके लगायें होंगे ? जनाब, अब आप बताइये, के ‘मैंने सही कहा, या ग़लत ?’
आस करणजी – जी हां, आख़िर यही हुआ! यात्रियों की हंसी सुनकर, प्लेटफोर्म पर उतरे उसके साथी गर्म-गर्म मिर्ची बड़े लिए डब्बे के अन्दर दाख़िल हुए! अन्दर आकर, उससे कहने लगे ‘भाई तू अकेला कहाँ जा रहा है, हम सब तेरे साथ चलेंगे।’
दयाल साहब – फिर क्या बोला, खडूसिया ?
आस करणजी – यह खडूसिया भले क्या कहता ? मगर, मैं बीच में बोला ‘इस भाई को ससुराल ले जा रहा हूं, क्या आप लोगों को चलना है ? कहिये, आपको साथ ले चलूँ ?’ तब सभी हंसने लगे, और कहने लगे ‘भा’सा आपके हुक्म की तामिल ज़रूर होगी, मगर पहले...
राजू साहब – मगर, मगर..यह क्या ? जनाब, आप बातों की गाड़ी को रोकिये मत।
आस करणजी – उन्होंने कहा ‘ऐसे ख़ाली पेट कैसे चला भा’सा ? कुछ पेट में डालकर चलते हैं, हुज़ूर। चलिए, आप अपना हाथ आगे बढ़ाइए..और अरोगिये ये गरमा-गरम मिर्ची बड़े।’
आस करणजी – उन्होंने कहा ‘ये खाने-पीने के काम साथ में चलते रहेंगे, हुज़ूर। पहले आप बैठिएगा, हमारे पहलू में। फिर पत्ते उठाकर कीजिये फीस, वैसे भी एक खिलाडी कम पड़ता है हमारी टीम में।’
[अब आस करणजी अंगड़ाई लेकर, आगे कहते हैं]
आस करणजी – फिर उन्होंने पास खड़े उस यात्री को लौटा थमाकर, कह डाला ‘अरे चौधरीजी, खड़े-खड़े उबासी कहे ले रहे हैं ? लीजिये यह लोटा, और नीचे प्लेटफार्म पर उतरकर साहब के लिए शीतल जल भरकर झट ले आइये।’
के.एल.काकू – मुझे तो ये चतुर खिलाडी लगते हैं, मेरा शत-प्रतिशत अनुमान है यह ज़रूर गोपसा की टीम ही हो सकती है। अब आगे कहिये, भा’सा। बताइये, आगे क्या हुआ ?
आस करणजी – ऐसे कई इंसानों से रोज़ मुलाक़ात हो जाती है, काकू। तब, क्या कहें इनको ? फिर क्या ? मैंने आव न देखा ताव..बस, फटाक से उठाया एक मिर्ची बड़ा। और, कहा उनसे ‘आप लोग आराम से पत्ते खेलिए, वैसे मैं यहाँ रुक जाता, क्योंकि अभी मुझे बहुत काम करना है। अगर आपको कोई बे-टिकट यात्री कहीं दिखाई दे जाय तो आप मुझे बुला लेना...
राजू साहब – खैर, भा’सा। आपने छोड़ दिया, ऐसे लोगों को..?
आस करणजी – पहले मेरी बात तो सुनिए, राजू साहब। मैं उनसे बोला ‘फिर क्या ? मैं उस बे-टिकट यात्री को आपकी एवज में ससुराल ले जा दूंगा। अब आप बेफ़िक्र होकर खेलें। फिर ‘जय श्याम री सा’ उनसे कहकर, मैं वहां से चला गया।
[लम्बी सांस लेकर, आस करणजी अब आगे कहते हैं]
आस करणजी – [लम्बी सांस लेकर, आगे कहते हैं] - समझ गए, राजू साहब ? इतनी बकवास करनी पड़ती है, फिर रात को भागवान के सामने क्या बोलूँ ? बोलने की सारी ताकत, ऐसे लोगों से बकवास करते-करते ख़त्म हो जाती है।
दीनजी – जी हाँ, सारी खायी हुई बिदामें एक ही झटके से निकल जाती है। फिर बदन में जनाब, रहती कहाँ है ताकत ?
[इंजन सीटी देता है, गाड़ी की रफ़्तार कम हो जाती है। फिर रोहट स्टेशन पर आकर, गाड़ी रुक जाती है। मंच के ऊपर, अँधेरा छा जाता है। थोड़ी देर बाद, मंच पर वापस रौशनी फ़ैल जाती है। अब गुलाबो अपनी हिज़ड़ो की टीम के साथ, डब्बे में दाख़िल होता है। कई केबिनों में घुमते-घुमते आख़िर, गुलाबो और चम्पाकली को चार-पांच केबीन लगातार ख़ाली दिखायी देते हैं। फिर दोनों हिज़ड़े, एक केबीन में जाकर बैठ जाते हैं। वहां बेंच पर बैठकर अपनी थकावट दूर करते हैं, थकावट दूर होने के बाद वे दोनों अपने-अपने बैग खोलते हैं। बैग से ५-५, १०-१०, ५०-५० और १००-१०० रुपयों की थाप्पियाँ लगाकर, नोट गिनने का काम शुरू करते हैं। गिनते वक़्त उन्हें कहीं ५०० या १००० के नोट दिख जायें, तो वे उन्हें उंगलियों में पहनी किसी भी रिंग के नीचे दबाकर रख देते हैं। अब इन ख़ाली केबिनों में, मोहनजी की चैकिंग पार्टी दाख़िल होती दिखायी देती है। चैकिंग पार्टी के सभी सदस्य अपनी पोजीशन लेते हैं, फिर रतनजी दो क़दम आगे बढ़ाकर रौबीली कड़कदार आवाज़ में ज़ोर की गरज़ना करते हैं..”टिकट” और दूसरी तरफ़ ओमजी, डंडे को ज़मीन पर बजाते जाते हैं। और साथ-साथ में, वे कड़कदार आवाज़ में बोलते जाते हैं “टिकट।”]
रतनजी – [ज़ोर से कहते हैं] – “टिकट।”
ओमजी – [डंडा ज़मीन पर बजाते हुए] - टिकट। कोई बेटिकट यात्री, भागने की कोशिश नहीं करेगा। बिना टिकट, रेलगाड़ी में यात्रा करना अपराध है। बेटिकट यात्रियों के पकड़े जाने पर, उन्हें छ: महिने सश्रम कैद की सज़ा हो सकती है।
[अब रतनजी के नथुनों में टेलकम पाउडर और खुशबूदार क्रीम की गंध आती है, उनको भ्रम हो जाता है, के ‘केबीन में औरतें बैठी होगी ?’ अब वे पछताते हैं, उन्होंने क्यों औरतों के सामने रौब मारा ? अब वे आगे बढ़कर, मोहनजी से शिफ़ाअत [सिफ़ारिश] लगा बैठते हैं..]
रतनजी – साहब, आगे मत जाइये। औरतें बैठी है, इनको क्या चैक करना ?
मोहनजी – [लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए] – अरे रतनजी, कढ़ी खायोड़ा। औरतें लक्ष्मी का रूप होती है, अब आप यह सोचिये ‘किस्मत के पट खुल गए हैं।’ इसलिए, अब आगे के सारे केबीन देखने ज़रूरी हो गये हैं। [इधर-उधर निगाहें फेंकते हुए कहते हैं] अरे भाई रतनजी, यह रशीद भाई कहाँ चला गया है कढ़ी खायोड़ा ?
[अब मोहनजी को, रशीद भाई कैसे नज़र आते ? जनाबेआली रशीद भाई ठहरे, सेवाभावी। रास्ते में उनको दिखाई दे गयी, ख़ाली विसलरी बोतलें। बस उन्होंने उन बोतलों को, इकट्ठी करनी चालू कर दी है। और जनाब भूल गये हैं, इस वक़्त वे चैकिंग पार्टी के सदस्य का रोल अदा कर रहे हैं। जैसे ही मोहनजी की खोज़ी निगाहें रशीद भाई पर गिरती है, वे कड़कती आवाज़ में उनसे कहते हैं..]
मोहनजी – [कड़कती आवाज़ में, ज़ोर से कहते हैं] – मिस्टर रशीद, यह क्या ? इस वक़्त तुम चैकिंग पार्टी के मेंबर हो। भूल जाइये, दूसरे काम।
[मोहनजी की यह कड़कती आवाज़, जैसे ही रशीद भाई के कानों में पहुँचती है..और वे संभल जाते हैं, झट बोतलें फेंक देते हैं। फिर टोपी सीधी करके दो मिनट में बन जाते हैं, वापस जवान। और जाकर झट खड़े हो जाते है, गुलाबा के करीब। फिर उन दोनों किन्नरों को फटकार पिलाते हुए, कहते हैं ज़ोर से..]
रशीद भाई – [फटकारते हुए, कहते हैं] – ये क्या..? ओबास। गाड़ी में जुआं..? वो भी, औरतें होकर ?
[गुलाबा बैग में रुपये डालने का प्रयत्न करता है, मगर समीप खड़े रशीद भाई उसको ऐसा करने से रोकते हैं। झट उसका हाथ पकड़कर, वे मोहनजी को ज़ोर से आवाज़ देते हैं।]
रशीद भाई – [गुलाबा का हाथ पकड़कर, कहते हैं] – इन पैसों के, हाथ नहीं लगाना। [मोहनजी को, आवाज़ देते हैं] अरे हुज़ूर, देखिये। गाड़ी में एक और जुर्म, जुंआ जुआं खेलने का हो रहा है।
[गुलाबे को देखते ही मोहनजी उसे पहचान जाते हैं, मगर बेचारा गुलाबा उन्हें काली सफ़ारी सूट में पाकर उन्हें पहचान नहीं पाता..वह तो उन्हें चैकिंग पार्टी का मजिस्ट्रेट समझ लेता है। मगर मोहनजी जान जाते हैं, के यह व्यक्ति-विशेष वही है जिसने आस करणजी के सामने उनकी बखिया उधेड़ डाली थी। अब उनको बीती हुई पूरी घटना का एक-एक पल याद आ जाता है, किस तरह उसने आस करणजी और सवाई सिंहजी के सामने उनको किस तरह बेइज्ज़त किया था ? अब उन्होंने सोच लिया, के ‘समझदार व्यक्ति वह होता है, जो मौक़े का फ़ायदा उठाता है।’ फिर, क्या ? जनाबे आली मोहनजी झट तैयार हो जाते हैं, गुलाबा से बदला लेने के लिए।]
मोहनजी - [रौबदार आवाज़ में, कहते हैं] – टिकट..?
[गुलाबा और चम्पाकली ने, कब गाड़ी में सफ़र करते वक़्त टिकट लिया ? ये यात्रियों से पैसे माँगने का काम करने वाले दोनों हिज़ड़े, तो बेटिकट यात्री निकले। ये दोनों जानते थे ‘किस टी.टी.ई. की अम्मा ने अजमा खाया है, जो इनसे टिकट मांगने की हिम्मत करें ?’ मगर ये जनाबे आली मोहनजी इस वक़्त, रोळ अदा कर रहें हैं..टी.टी. यों के बाप का, यानी चैकिंग मजिस्ट्रेट का। ये दोनों हिज़ड़े आँखें फाड़े देख चुके थे, के ‘अभी इनके पहनी हुई है, काली सफारी और हाथ में इनके काला बैग। और इधर रतनजी के हाथ में है, उत्तर रेलवे की चालान बुक।’ फिर, क्या ? अब तो चैकिंग-पार्टी होने में, शक करने की कोई गुंजाइश भी नहीं रही है। यहाँ तो वास्तव में मोहनजी को इस काली सफारी में देखकर, कोई अनजान व्यक्ति भी यही कहेगा.. ‘जनाबे आली, चैकिंग मजिस्ट्रेट हैं।’ अब यही असर, गुलाबो और चम्पाकली पर हो जाता है। इन्होने जब से रतनजी के हाथ में उत्तर रेलवे की चालान बुकें देख ली, तब से इन दोनों के होश उड़ गए हैं। अब इन लोगों के लिए, केवल एक ही चारा रहता है..वह है, भाई-वीरा कहकर इनके चंगुल से बाहर निकलने का...और, अपना काम निकालना।]
गुलाबो – [हाथ जोड़कर, कहता है] – आज़ माफ़ कर दीजिये, हमें। आगे से हम, टिकट लेकर ही गाड़ी में बैठेंगी। [मोहनजी के पांवों को छूता हुआ कहता है] कभी ऐसी ग़लती नहीं होगी, साहब।
मोहनजी – [गुलाबा को दूर हटाते हुए, कहते हैं] – टिकट नहीं है, तो भर लीजिये जुर्माना। जुर्माना नहीं दोगी तो, चलना होगा हवालात में की हवा खाने। [रतनजी से कहते हुए] इन दोनों के ऊपर चार्ज लगाना बाबू साहब, एक तो बेटिकट रेलगाड़ी में यात्रा करने का, और दूसरा सार्वजिक स्थान पर बैठकर जुंआ जुआं खेलने का।
[गुलाबा सहम जाता है, झट मोहनजी के पांव पकड़ लेता है। इधर चम्पाकली ठहरा नया हिज़ड़ा, जो अभी हाल में ही इस हिज़ड़ो की टीम में सम्मिलित हुआ है। अभी कुछ दिन पहले ही, उसकी ट्रेनिंग ख़त्म हुई है। वह सोचता है, यदि उसने सिखायी गयी हिज़ड़ो की अदा दिखलानी शुरू की तो..इस रौबदार अफ़सर के छक्के छूट सकते हैं। फिर क्या..? चम्पाकली उठकर आता है, ओमजी के निकट। फिर, उनके रुखसारों को सहलाता हुआ कहने लगा..]
चम्पाकली – [ओमजी के गालों को सहलाता हुआ कहता है] – साहब को समझा रे, छेला। हम से पैसे लेकर, क्या करेगा..? हम तो वो हैं, यानी [ताली बजाता है] छक्के। समझ गया, रे ? आ जा..[अपना घाघरा ऊपर लेता हुआ कहता है] आ जा, आ जा, तूझे घाघरे के नीचे बैठा दूं ? तूझे दो मिनट में गर्म कर दूंगी रे, हाय...हायऽऽ..आ जा, आ जा रे छेला..
[चम्पाकली हिज़ड़ा, आगे क्या बोल पाता..? धब्बीड़ करता ओमजी का एक झन्नाटेदार थप्पड़, चम्पाकली के रुखसारों पर लगता है। इस दिन में उसे दिखने लग जाते हैं, आसमान के तारे। चम्पाकली थप्पड़ खाकर, धड़ाम से आकर नीचे गिरता है। ओमजी का जैसा नाम है, वैसे ही उनमें ठोकने के गुण भरे पड़े हैं। इस कारण ख़ुदा के फ़ज़लो करम से, वे अगले की ऐसी पिटाई करते है कि उसे ऐसा लगता है अब वह राम, राम सत्य यानी ॐ शरणम् होने वाला है। इनके इसी गुण के कारण, लोग-बाग़ इनसे चार क़दम दूर ही रहते हैं। थप्पड़ लगाने के बाद, उन्होंने फर्श पर बजा डाला अपना गंगाराम। फिर डाकू सरदार मलखान सिंग की तरह, गरज़कर कहने लगे..]
ओमजी – अब और खायेगा, मार ? पीटूंगा, साले को। समझ क्या रखा है, चवन्नी क्लास ? साला आया, वर्दी पर हाथ लगाने वाला ? फटाक से जुर्माना दे दो, हिज़ड़ो। नहीं तो तुम-दोनों को बैठाकर आता हूं, जेल में।
[चम्पाकली का इस तरह रुखसारों पर हाथ लगाना, अब ओमजी के लिए फ़िक्र करने का कारण बन गया है। अब उनको चिंता सताती जा रही है, “इस हिज़ड़े में कहाँ से इतनी हिम्मत आ गयी..जो उनके गालों पर हाथ लगा गया..? कहीं उनके व्यक्तित्व में, कोई कमी तो नहीं आ गयी ? जहां इनकी ख़ुद की घर वाली उनका मूड देखकर इनके पास आती है, और इनके बच्चे सर झुकाए उनके सामने खड़े रहते हैं..बस, मात्र इनकी आंख के इशारे से ही समझ जाते हैं के “उनके अब्बाजान, उनसे क्या चाहते हैं ?” इनके इशारे को समझकर, बिना बोले ही उस काम को अंजाम तक पहुंचा देते हैं। वहां आज़ यह हिज़ड़ा, कैसे इनके रुखसारों को कैसे छू गया ?” उधर गुलाबा ओमजी का यह रूप देखकर, सहम गया। अब वह भयग्रस्त होकर, माफ़ी मांगता हुआ ओमजी से कहता है।]
गुलाबो – [हाथ जोड़कर, कहता है] – छोटे साहब, माफ़ कीजिये। अभी हाल में ही, यह चम्पाकली हिज़डा बना है। अभी-तक, यह साहब लोगों के पल्ले पड़ा नहीं। और यह नहीं जानता, सरकारी क़ायदे। [दोनों हाथों की अंगुठियों में दबाये नोटों को, इन्हें देने के लिए निकालता है] लीजिये जनाब, आपका टेक्स।
[पांच सौ व हज़ार के कई नोटों को देखकर, रशीद भाई हो गए खुश। और सोचने लगे “चलो अच्छा हुआ, चंदे का टारगेट जल्द पूरा होने जा रहा है।” फिर क्या ? झट आगे बढ़कर, गुलाबा से सारे नोट ले लेते हैं। इसके बाद, लम्बी-लम्बी सांसे लेते हैं। सामान्य होने के बाद, वे चम्पाकली से कहते हैं..]
रशीद भाई – तू कहाँ जा रही है, चम्पाकली ? तूझे भी भरने है, टेक्स के पैसे।
[चम्पाकली डरता हुआ, झट गिने जा रहे सारे रुपये उठाकर रशीद भाई को थमा देता है। फिर क्या ? गुलाबा और चम्पाकली से लिए गए सारे रुपये, रतनजी को थमा देते हैं। तभी उन्हें, चम्पाकली की अंगुठियों के नीचे दबे हुए नोट दिखायी दे जाते हैं। बस, फिर क्या ? झट इन नोटों को झाम्पने के उद्देश्य से, उसे कह देते हैं]
रशीद भाई – अरी चम्पाकली, इन नोटों का क्या तू अचार डालेगी क्या ? अंगुठियों से, निकाल इन बड़े नोटों को।
[बेचारा भयग्रस्त चम्पाकली झट अंगुठियों के नीचे दबे नोटों को निकालकर, रशीद भाई को थमा देता है। अब रशीद भाई, झट उन सारे रुपयों को रतनजी को थमा देते हैं। फिर वे, आराम की सांस लेते हैं। रुपये गिनने के बाद, रतनजी उन रुपयों को रोकड़ वाले बैग में डाल देते हैं। सांसे सामान्य होने के बाद, रशीद भाई उन दोनों हिज़ड़ो को देते हैं धन्यवाद।]
रशीद भाई – किन्नर भाईयों, दुखी न होना। रोज़ आप लोग करते है, यात्रियों से कलेक्शन। और आज़ हमने कर लिया, आपसे कलेक्शन। आप लोग रोज़ कमाते हो भाई, अब आप ऐसा सोच लीजिये एक दिन आपने नहीं कमाया हमने कमा लिया। ठीक है, किन्नर भाईयों ? शुक्रिया।
मोहनजी – [किन्नरों से कहते हैं] – किन्नर भाईयों, हम ठहरे ईमानदार। दिल दुखाना मत, यह समझ लेना..के, आपने किसी चेरिटी में दान दिया है। [रशीद भाई से कहते हैं] रशीद भाईजान ज़रा सुनना, बाबू साहब से कटी रशीदें और कूं-कूं पत्री लेकर, इन दोनों किन्नर भाईयों को दे दीजिये।
[मोहनजी अब खुश हैं, आज़ उन्होंने इस गुलाबे से आख़िर बदला ले ही लिया। अब वे होठों में मुस्कराते हुए, उन दोनों किन्नरों को हाथ जोड़कर कहते हैं..]
मोहनजी - [हाथ जोड़कर, कहते हैं] – किन्नर भाई, आपका बहुत सहयोग मिला। आपका दिया गया चन्दा, टी.टी.ई. युनियन वालों के सम्मलेन में ख़र्च होगा। अब आप इस सम्मलेन में भाग लेकर, इस सम्मलेन को सफल बनाये।
रतनजी - कहीं हमसे कोई भूल-चूक हो गयी हो तो, आप हमें माफ़ कीजियेगा। अच्छा, अब आप हमें अब रुख़्सत दीजिएगा।
[रतनजी कूं-कूं पत्री के साथ बची हुई रेज़गी और चंदे की रसीद, गुलाबा को थमा देते हैं। फिर, उन लोगों से कहते हैं..]
रतनजी – [कूं-कूं पत्री, चंदे की रसीद और बची हुई रेज़गी देते हुए] – लीजिये किन्नर भाइयों, कूं-कूं पत्री, चंदे की रसीद और बची हुई रेज़गी। यह खुले पैसे, आपके काम आयेंगे। सम्मलेन में आप, ज़रूर पधारना। जय बाबा की।
[कई हफ़्तों की कमाई लूट ली गयी, इन किन्नरों की आँखों से आंसू गिरते जा रहे हैं..उन नम आँखों से वे, मोहनजी की चैकिंग पार्टी को जाते हुए देखते रहे। फिर वे एक-दूसरे को, दिलासा देते हुए कहने लगे..]
गुलाबो – शेर को सवा-शेर, आख़िर मिल ही गया। अरे ए चम्पाकली इन माता के दीनों ने, अपनी कई हफ़्तों की कमाई लूट डाली। [गीत गाता है] हमें तो लूट लिया, इस काले-काले टी.टी. ने...
चम्पाकली – [रोता हुआ गाता है] – गोरे-गोरे गालों ने...
गुलाबा – बाबू की बातों ने...
[दुःख से व्यथित दोनों हिज़ड़े अपना माइंड डाइवर्ट करने के लिए, वे दोनों दूसरा गीत गाते हुए नाचने लगे..]
गुलाबो – [गीत गाता हुआ, नाचता जाता है] – अलका-मलका छोड़ कीड़ी तू नाचे क्यों नहीं ए, कीड़ी तू नाचे क्यों नहीं ए, तू नाचे क्यों नहीं ए..
चम्पाकली – [नाचता-नाचता, गाता जा रहा है] – तीतर चुग जाय तेरे धान को, तू क्या करेगी ए, तू क्या करेगी ए...
गुलाबो – [गाता हुआ, नाचता जाता है] – एकठ करता टूटी कमर, पण खायो एक नहीं दाणों। अब तू नाचे क्यों नहीं ए, तू नाचे क्यों नहीं ए..
चम्पाकली – [घूमर लेकर, गाते हुए] – आया तीतर ले गया, बचा एक नहीं दाणा, तू नाचे क्यों नहीं ए, तू नाचे क्यों नहीं ए..
गुलाबो – [चम्पाकली का हाथ पकड़ता है, फिर दोनों नाचते हैं] – अलका-मलका छोड़ कीड़ी तू नाचे क्यों नहीं ए, तू नाचे क्यों नहीं ए, तू नाचे क्यों नहीं ए..
[पटरियों के ऊपर दौड़ रही गाड़ी का इंजन अब ज़ोर से सीटी देता जा रहा है, उसकी आवाज़ के आगे अब यह गीत सुनाई नहीं दे रहा है। मंच के ऊपर अन्धकार छा जाता है, थोड़ी देर बाद मंच के ऊपर रौशनी फैलती है। अब केबीन के अन्दर बैठे दयाल साहब, राजू साहब और के.एल.काकू तो गपें हांकते जा रहे हैं। मगर दीनजी भा’सा, चुप-चाप बैठे उपन्यास पढ़ रहे हैं। मगर, आस करणजी सीट पर आराम से लेटे हुए हैं।]
दयाल साहब – राजू साहब, आप बहुत भोले हैं। न जाने आप, किन लोगों की कही बात पर भरोसा कर लेते हैं ? जनाब, यह अच्छा नहीं है।
राजू साहब – दयाल साहब यह मान लेते हैं, आप मेरी जगह पर होते तो आप क्या करते ? जनाब आपको भी करना पड़ता, उन पर भरोसा। वैसे मैंने, ऐसा किया भी क्या..? मोना राम के पास आया सन्देश, के ‘अजमेर से डी.एम. साहब आ रहे हैं पाली।’ बस, मैंने आपको यह इतला दे दी। और किया क्या, मैंने ?
दयाल साहब – मगर आये तो नहीं, आपके कारण मुझे सुबह चार बजे उठना पड़ा। अरे राजू साहब, आप क्या जानते हो ? तड़के उठने में, कितनी तक़लीफ़ होती है ? फिर..
राजू साहब – फिर, क्या ? ओम प्रकाश, रतन सिंह और रशीद इन तीनों को इतला करनी, भूल गए क्या ?
दयाल साहब – इतला की, कैसे नहीं ? सबको फ़ोन किया, मगर मेरे अलावा आया कौन ? आपको देखना यही होगा, यह रतन सिंह तो चला गया छुट्टी पर..और यह रशीद और ओम प्रकाश, हमेशा की तरह आये लेट। अब बोलिये, आप क्या कहेंगे ?
आस करणजी – [लेटे हुए कहते हैं] – दयाल साहब, छोडो यार। ये विश्वास और अविश्वास की बातें। लोगों के अन्दर उनकी ख़ुद की सोच होनी चाहिए, ना तो इस मास्टर मधुसूदन की तरह खाओगे धोखा। यह डेड होशियार, बहुत होशियारी दिखाता था। गाड़ी में बैठने के पहले, दस बार लोगों से पूछकर कर लेता था..तसल्ली।
राजू साहब – किस बात की तसल्ली, जनाब ?
आस करणजी – इस बात की तसल्ली करता था, जनाब..के, गाड़ी कहाँ जा रही है ? उदघोषक के दस बार उदघोषणा करने के बाद, जनाबे आली बैठा करते थे गाड़ी में। फिर भी पूरा भरोसा उनको होता नहीं, दरवाज़े के पास हेंडल पकड़कर खड़े रहते जनाब। यह सोचकर, अगर गाड़ी नहीं चली तो वे झट उतर जायेंगे।
दीनजी – [किताब को रखते हुए, कहते हैं] – ऐसे मत कहिये, जनाब। मास्टर साहब बहुत होशियार है, मुझे नहीं लगता उन्होंने कभी धोखा खाया हो ? ऐसी कोई बात हुई होती, तो मुझे अवश्य मालुम रहती। मास्टर साहब की एक-एक समझदारी की बात, मिसाल के तौर पर पाली उपखंड के अध्यापक दिया करते हैं।
आस करणजी – लीजिये, पूरा किस्सा विस्तार से सुना देता हूं आपको। सुनने के बाद, आप ख़ुद निर्णय ले लेना के मास्टर साहब कितने होशियार हैं, और कितने समझदार ? बात उन दिनों की है, जब काज़री में काम करने वाला मुरली धर इनके साथ गाड़ी में रोज़ का आना-जाना करता था।
दीनजी – [हूंकारा भरते हुए] – जी हुज़ूर, आगे क्या हुआ जनाब ?
आस करणजी – यह आदमी अपने पास रखता था, एक चांदी की डिबिया। उसमें होती थी, मीठे पान की मसाले वाली गिलोरियां, जिस पर लगा होता चांदी का बर्क।
दयाल साहब – वाह जनाब, मजा आ गया मास्टर साहब को। उनको ज़रूर मिली होगी, पान की गिलोरी।
आस करणजी – आप सुनिए, जनाब। एक पान की गिलोरी वह ख़ुद खाता, और दूसरी गिलोरी देता मास्टर साहब को। इस तरह मास्टर साहब, रोज़ मुफ़्त का पान खाकर खुश..! अरे भाई, कौन छोड़ता है मुफ़्त के पान ? फिर वह कहता..
राजू साहब – मुफ़्त के पान मिलते हैं जहां, वहां बैठकर मास्टर साहब को बकवास सुननी पड़ती होगी। आख़िर, यह मुरली धर उनको पान जो खिला रहा है ?
आस करणजी – जनाब, सही कहा आपने। अब सुनिए, उस दौरान मुरली धर इनसे कहता था “ग़लत आदत हो गयी है, पान खाने की। यह अच्छा हुआ, के ‘घंटा-घर के पास, मेरे मामाजी की पान की दुकान है।’
दीनजी – अरे भा’सा, इस मुरली धर ने सही कहा है जनाब। इसके मामा की दुकान, घंटा-घर बाज़ार में ही है। मैं भी देख चुका हूं, इस दुकान को। अब आगे कहिये, जनाब।
[अब आस करणजी किस्सा बखान करने के मूड में आ जाते हैं। उठकर, अब वे आराम से बैठ जाते हैं। फिर आगे का किस्सा, बयान करते हैं।]
आस करणजी – [बैठते हुए, कहते हैं] – जहां मामाजी खिला रहे हो, मुफ़्त का पान। फिर भाणजा, खाने में पीछे क्यों रहे ? बस, मामाजी भेज देते हैं पान की गिलोरियां चांदी की डिबिया भरकर। और लगता नहीं, एक पैसा। इस तरह रोज़ मुफ़्त के पान खाकर मास्टर साहब को लग गया, ग़लत नशा रोज़ पान खाने का।
दयाल साहब – अरे भा’सा, ऐसा भी होता होगा..कभी मुरली धर नहीं आया हो..? फिर..--
आस करणजी – जब कभी यह मुरली धर नहीं आता तब उस दिन पाली स्टेशन के बाहर पनवाड़ी की दुकान पर, मास्टर साहब को मज़बूरन जाना पड़ता..पान खाने के लिये। अगर मास्टर साहब पान नहीं खाये, तब यह जीभ उनके काबू में रहती नहीं। और, मचाने लगती...आंतक। के, ला पान..ला, पान।
दीनजी – सच्च कहा, आपने। कई दिनों तक नशेड़ी, लोगों को मुफ़्त में नशा करवाता है। बाद में उन लोगों को नशा करने की आदत बन जाया करती है, तब वह नशेड़ी उनका दामन छोड़ देता है। फिर इन लोगों को जेब से पैसे ख़र्च करके ही, नशा करना होता है।
दयाल साहब – [लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए] – आस करणजी, कहीं आप खाकर तो नहीं आ गए मुफ़्त के पान ?
आस करणजी – [झेंप मिटाते हुए, कहते हैं] – यह मुरली धर, मुझे क्या पान खिलायेगा ? मैं खाता हूं, मीठा पत्ता चेतना तम्बाकू लगा हुआ। इतना महंगा पान खिलाने की, उसमें कहाँ हिम्मत ? अरे दयाल साहब, क्या यार बीच में बोलकर लय तोड़ देते हो ?
राजू साहब – अब भी क्या बिगड़ा है, भा’सा ? हो जाइये, वापस चालू। वापस बना लो लय, और क्या ?
आस करणजी - अब आगे क्या होता है, जनाब ? इस तरह मुरली धर रोज़ पाली सर्राफा बाज़ार से कई मिठाइयों से भरे डब्बे लाया करता, और मिठाई का एक-एक टुकड़ा मास्टर साहब को ज़रूर चखाया करता। मास्टर साहब ठहरे, चांदपोल के पंडितजी महाराज।
दीनजी – क्या कहें, भा’सा आपको। चांदपोल और ब्रहमपुरी भरी पडी है, इन श्रीमाली जाति के पंडितों से। फिर मास्टर साहब की दिल-ए-ख़्वाहिश बनी रहती है, उनका मुंह मीठा होता रहे मुफ़्त की मिठाइयों से। अब आगे कहिये, भा’सा।
आस करणजी – एक दिन, मास्टर साहब मुरली धर से कहने लगे ‘यों कैसे रोज़, मिठाइयों के ऊपर पैसे ख़र्च करते जा रहे हैं ?’ सुनकर, मुरली धर ज़ोर से हंसने लगा। फिर हंसी थमने पर, वह कहने लगा ‘मास्टर साहब मैं इस तरह रोज़ मिठाइयों के ऊपर पैसे ख़र्च करूँगा, तब अपने बाल-बच्चे कैसे पालूंगा ?’
राजू साहब – मुझे तो भा’सा, दाल में कुछ काला लगता है। बात कुछ और होनी चाहिए, जनाब।
आस करणजी – बीच में मत बोलिए, राजू साहब। अब सुनो, आगे। उसने कहा ‘पाली के सर्राफा बाज़ार में प्याऊ से सटी हुई, मेरे ससुरजी की मिठाई की दुकान है। मैं जब भी उनसे मिलने, उनकी दुकान पर जाता हूं..
राजू साहब – खूब सारी मिठाई ठोककर, आ जाते होंगे ?
आस करणजी – नहीं, जनाब। उन्होंने यही कहा के ‘तब वे कई मिठाइयों के डब्बे मुझे थमा देते हैं, और अगर मैं उनकी दुकान पर नहीं जा पाता...तब वे स्टेशन पर मिठाइयों के डब्बे मेरे पास पहुंचा देते हैं।’ फिर, उसने आगे कहा...
[इतना कहकर, आस करणजी अंगड़ाई लेकर थोडा विश्राम करने लगे। मगर किस्से को बीच में छोड़ देना, दयाल साहब को अच्छा नहीं लगा..क्योंकि, उनके दिल में मची हुई है उतावली। फिर, क्या ? जनाब कहते हैं..]
दयाल साहब – क्या हुआ, भा’सा ? गाड़ी कैसे रोक दी, जनाब ?
आस करणजी – मेरा काम नहीं है, चलती गाड़ी रोकने का। यह काम है, अपने गार्ड साहब गोपाल दासजी सा का। मैं तो ख़ाली एक ही गाड़ी रोक सकता हूं, वह है बातों की गाड़ी..ख़ाली उसे ही रोक सकता हूं, केवल आप जैसे सज्जनों की मेहरबानी से। अब आगे सुनिए, जनाब। मास्टर साहब का भोलापन देखकर, वह बोला...
राजू साहब – क्या बोला, जनाब ?
आस करणजी – वह बोला ‘आपको जब-कभी मिठाइयां ख़रीदनी हो, बस आप उस दुकान पर चले जाना और मेरे ससुरजी से कहना..के, आप मेरे मित्र हैं।
दीनजी – छूट पर किलो कितनी, जनाब ? ज़रा, छूट के बारे में बताइये।
आस करणजी – उसने कहा ‘मेरे ससुरजी, पर किलो १०-१५ रुपये कम लगा देंगे।’ इस तरह मास्टर साहब रोज़ मुफ़्त के पान और मिठाइयां खाते-खाते बन गए “खावण-खंडे।” लोग कहते हैं, ‘जोधपुर के खंडे प्रसिद्ध है, या फिर प्रसिद्ध है खावण-खंडे।’ फिर एक दिन ऐसा आया, के...
राजू साहब – आगे क्या हुआ, कहीं उसकी दी हुई मिठाई आपने ठोक ली क्या ? क्या आप भी बन गये, खावण-खंडे।
आस करणजी – [हाथ से अपनी तोंद सहलाते हुए कहते हैं] – वाह, राजू साहब। आप भी अच्छे भोले रहे, इस बावन इंच के घेरे में एक-दो मिठाई के टुकड़े कहाँ टिकेंगे जनाब ? इस तोंद को भरने की, इस मुरली धर की कहाँ है औकात ? आप क्या जानते हैं, हम ब्राहमणों के रीति-रिवाज़ ?
दयाल साहब – हुज़ूर, बोल दीजिये आपके रीति-रिवाज़। आख़िर है, क्या ?
आस करणजी – यहाँ तो भागवान एक दिन छोड़ हर दूसरे दिन बनाती है, देशी घी में तैयार की गयी मिठाइयां। क्या कहना है, उनका ? कभी बनाती है काजू की कतालियाँ, तो कभी बना देती है दाल का हलुआ..अरे जनाब, तरह-तरह की मिठाइयां, छप्पन-भोग तैयार करके गोपाल की सेवा में चढ़ाती रहती है।
दीनजी – सच्च कहा है, भा’सा ने। इतने भोग चढ़ाने के बाद, होते हैं राज-भोग के दर्शन।
राजू साहब – हमें राज-भोग के दर्शन कहाँ करने है, जनाब। हमारा नाम राजू ज़रूर है, मगर आप उसे काजू मत बना देना। बस आप इतनी मेहरबानी रखावें..
आस करणजी – [हंसते हुए कहते हैं] – वाह राजू साहब, आप मज़ाक खूब कर लेते हैं। जनाब इस बार बीच में बोलकर, आपने फिर तोड़ डाली मेरी लय ? मैं क्या कह रहा था, राजू साहब ?
राजू साहब – हुज़ूर आप कह रहे थे, के मुरली धर का आगे क्या हुआ ? बस, आप वापस चालू हो जाइये। इस बार माफ़ कीजिये, हुज़ूर, अब आगे से मैं चुप ही रहूँगा।
आस करणजी – अब मुरली धर की बदली हो जाती है, जोधपुर। उसके जाने के बाद, मास्टर साहब हो गए परेशान। अब न तो है मिठाई, और ना है पान ? अब क्या करते, बेचारे ? इधर लग गया, श्राद्ध-पक्ष। मास्टर साहब को इस श्राद्ध-पक्ष में दिवंगत दादाजी का पहला श्राद्ध का तर्पण करना है, और एक ब्राह्मण को खाना भी खिलाना है...!
दीनजी – अब अपने दिल में, सोचने लगे होंगे..? शायद कुछ तो सोचा होगा, जनाब ?
आस करणजी – उन्होंने सोचा, इस मुरली धर के ससुरजी पैसे कम लगा देंगे। बस उनकी दुकान से ले आते हैं, पंच-मेवा की मिठाई। ब्राहमण को भी खाना खिला देंगे, और अपुन भी मिठाई खाकर अपनी इच्छा पूरी कर लेंगे। फिर, क्या ? वे झट जा पहुंचे, वहां। और जाकर तुलवा दी, पांच किलो पंच-मेवा की मिठाई।
दयाल साहब – रुपये कम करने का सवाल ही नहीं होता, आख़िर दुकानदार रुपये कमाने बैठा है..गमाने के लिये नहीं।
आस करणजी – जी हां, सही कहा आपने। अब मिठाई तुलवाने के बाद, मास्टर साहब बोले ‘खम्मा घणी, सेठ साहब। मैं आपके जमाता का मित्र हूं, समधीसा। उन्होंने मुझे कहा, आप १०-१५ रुपये पर किलो पर छूट दे देंगे।’ मास्टर साहब की बत सुनकर, सेठ साहब हंसने लगे।
दीनजी – आगे कहिये, भा’सा।
आस करणजी – फिर, सेठजी ऊंची आवाज़ में बोले ‘मास्टर साहब, कहीं आप भंग पीकर आ गये क्या ?’ फिर उन्होंने अपने पहलू में बैठी दो साल की लड़की के सर पर, हाथ रखकर कहा..
राजू साहब – आगे क्या कहा, जनाब ?
आस करणजी - ‘यह दो साल की लड़की मेरी इकलौती छोरी है, इसका विवाह तब होगा जब यह बीस साल की होगी। अब समझ गए, मास्टर साहब ? अब अगर मिठाई लेनी है तो, निकालिए जेब से पूरे एक हज़ार रुपये। नहीं तो, यह पड़ा रास्ता..’
दीनजी – फिर, क्या हुआ जनाब ? अगर उनके जेब में, एक हज़ार रुपये न हुए तो...?
आस करणजी – मास्टर साहब ऐसे फंस गये जनाब, बस ऐसा लगा उनकी छाती के ऊपर आसमान आकर गिर गया हो ? यह तो जनाब, उनकी किस्मत ठीक थी। उनकी जेब में बच्चों की परीक्षा शुल्क राशि रखी थी, कुल रोकड़ा एक हज़ार रुपये।
दीनजी – मिठाई के रुपये चुकाकर, मास्टर साहब ने इस मुसीबत से छुटकारा पाया होगा ? बस फिर उस दिन से उन्होंने कसम ले ली होगी, भविष्य में मिठाई नहीं खाने की। उस दिन से बेचारे मास्टर साहब, मिठाई के नाम से डरने लगे होंगे ? यहाँ तक कि, उन्होंने विवाह-शादी में जाकर लज़ीज़ भोजन करना भी छोड़ दिया होगा ?
आस करणजी – जी हां, बिल्कुल सही फ़रमाया आपने। वे लोगों से प्राय: कहने लगे, ‘मुझे है, मधुमेह रोग..अब मैं, मिठाई कैसे खा सकता हूं ? जनाब मैं तो केवल इन मिठाइयों को देखकर ही, अपने दिल की प्यास बुझा लेता हूं।’
दीनजी – भा’सा, मैं आपसे केवल यही कहूँगा। जनाब, आप लोगों को मिठाइयां खिलाते रहो। इन मिठाइयों को देख-देखकर ही, आप ऊब जायेंगे..खाने की इच्छा स्वत: ख़त्म हो जायेगी।
[मंच पर अन्धेरा छा जाता है, थोड़ी देर बाद मंच पर रौशनी फ़ैल जाती है। अब लूणी स्टेशन का मंज़र सामने आता है, लूणी प्लेटफोर्म पर सौभाग मलसा पुलिस वालों से मार खाने के बाद, ज़मीन पर गिरते हैं। यही सही वक़्त होता है, जब इन देशी डोनों की अक्ल काम करने लगती है। इन देशी डोनों के पास इस तरह विपत्ति पड़ने पर, पुलिस से बचने के कई अजमाए तरीके उनके जेब में रहते हैं। बस, फिर क्या ? सौभाग मलसा झट जेब में हाथ डालकर निकालते हैं, पिसी हुई लाल मिर्ची पाउडर का पैकेट। उस पैकेट खोलकर, पाउडर को फेंकते हैं उन पुलिस वालों की आँखों में। बेचारे पुलिस वाले अपनी आँखें मसलने लगते हैं, तब-तक सौभाग मलसा उनके चंगुल से निकलकर भाग खड़े होते हैं। फिर, क्या ? धर-कूंचो धर-मचलो, भागते हुए रेलवे क्रोसिंग फाटक तक पहुँच जाते हैं। माल गाड़ी आने वाली है, इस करण फाटक बंद है। फाटक बंद होने से, सड़क पर कई गाड़ियां खड़ी है। तभी दूर से, माल गाड़ी आती दिखायी देती है। इस माल गाड़ी को आते देखकर, ट्रक ड्राइवर सरदार निहाल सिंह गीत “उड़ी उड़ी रे पतंग मेरी उड़ी रे..” गाते हुए झट ट्रक का फाटक खोलते हैं। फिर झट पायदान पर पांव जमाकर वे, ट्रक पर चढ़ जाते हैं, मगर जैसे ही वे अपने ड्राइविंग सीट पर बैठते हैं..तभी उनकी कमर पर दबाव महशूस होता है, फिर सौभाग मलसा की कड़कदार आवाज़ सुनायी देती है।]
सौभाग मलसा – तेरी पतंग बाद में उड़ेगी, पहले चलेगी तेरी ट्रक। अभी जो सवारी गाड़ी निकली है, उसका पीछा कर। और फटा-फट, उस गाड़ी को पकड़ा दे मुझे। न तो फिर मेरे इस तमंचे से, तेरे प्राण यह गये..वह गये। समझ गया, या नहीं ?
[सौभाग मलसा के तमंचे की नाल का दबाव, सरदारजी की कमर पर बढ़ने लगा। निहाल सिंह डरते हुए, ट्रक को चालू करते है। फिर गेयर बदलकर उसकी रफ़्तार बढ़ा देते है, अब वह ट्रक हवा से बातें करने लगती है। थोड़ी देर में ही रोहट रेलवे स्टेशन आ जाता है, स्टेशन के बाहर ट्रक को रोककर सरदारजी कहते हैं..]
निहाल सिंह – [गाड़ी को रोककर, कहते हैं] – सत श्री अकाल, सेठ आ गया तेरा रोहट रेलवे स्टेशन। [फाटक खोलकर, कहते हैं] फटा-फट, पकड़ ले तेरी गाड़ी। अब जाकर देख ले प्लेटफोर्म पर, तेरी गाड़ी आ रही होगी। वाहे गुरु, फ़तेह।
सौभाग मलसा - [सरदारजी की कमर से, तमंचे की नाल हटाते हुए] – युग-युग जीयो, सरदारजी। तूने मेरा काम निकाला है, तुम पर जब भी विपत्ति पड़े तब मुझे याद करना। [जेब से देसी दारू की बोतल और अपना विजिटिंग कार्ड, निकालकर उसे थमाते हैं] अब यह सम्भाल मेरा विजिटिंग कार्ड, और यह ले दारु की बोतल..पीकर मस्त हो जाना। अब मैं चलता हूं, जय बाबा की।
[अब सौभाग मलसा ट्रक से उतरकर, प्लेटफोर्म की तरफ़ जाने के लिए अपने क़दम बढ़ाते हैं। इधर दारु की बोतल देखकर, सरदार निहाल सिंह ख़ुशी से झूम उठते हैं। कारण यह रहा, रास्ते में हर आने वाली चौकी पर पुलिस वालों को पैसे खिलाते-खिलाते उनकी जेब ख़ाली हो गयी थी। फिर बिना पैसे, वे कहां से दारु की बोतल ख़रीदकर लाते ? और कैसे, अपना नशा पूरा करते ? मगर अब सरदारजी का भाग्य बदला, और दारु की बोतल के दीदार हो गए हैं सरदारजी को। बस, फिर क्या ? वे ख़ुशी से, झूम उठते हैं। अब बोतल थामे, करते हैं भांगड़ा डांस। उधर दूसरी तरफ़ चलते-चलते सौभाग मलसा सोचते जा रहे हैं, के ‘पहला काम उस मोहन लाल को पकड़कर इतना पीटूंगा, के उसको उसकी नानी याद आ जाय। इसके बाद, उसको दिखाऊंगा मोबाइल पर तैयार की गयी विडियो फिल्म। जिसमें वह जुलिट से, अपने पांवों पर मूव ट्यूब मसलाता जा रहा है। और साथ में उससे, प्रीत-भरी बातें भी करता जा रहा है। फिर उसे धमकी देता हुआ यह कहूँगा, के ‘देख नालायक, तू इस विडियो फिल्म में कैसे परायी नारी के साथ इश्क लड़ाता जा रहा है ? अब मैं इस विडिओ फिल्म की कई कोपियां तैयार करूंगा, एक कोपी भेजूंगा तेरी बेर लाडी बाई के पास, दूसरी कोपी भेजूंगा तेरे हेड ऑफ़िस। फिर लाडी बाई और तेरे बड़े अफ़सर, क्या गत बनाएंगे तेरी इस फिल्म को देखकर ? अब या तो तू मेरा नीला बैग लाकर दे दे, नहीं तो ये तेरी सारी रोमांस भरी बातें सबके सामने चौड़ी कर दूंगा..तब कहीं जाकर, मेरी दिल-ए-ख़्वाहिश पूरी होगी।’ इस तरह बड़बड़ाते हुए चितबंगे की तरह चलते जा रहे हैं, और भूल जाते है वे किससे टकरा रहे हैं या वे किसको कुचल रहे हैं ? तभी उन्हें कुत्ते के किलियाने की आवाज़ उनके कानों को सुनायी देती है, और विचारों की कड़ी टूट जाती हैं। वे देखते हैं, उनके पांव के नीचे एक काबरिया कुत्ता आ चुका है। वह किलियाता हुआ उनकी पिंडली पकड़ लेता है, और ज़ोर से काट जाता है। फिर क्या ? वो तो झट काटकर सीधा बन्नाट करता हुआ भागता है, और आगे चल रहे कुली नंबर एक की दोनों टांगों के बीच से निकल जाता है। अचानक इस तरह इस कुत्ते की हरक़त से वह कुली नंबर एक घबरा जाता है, और वह अपना संतुलन खो देता है। सर पर रखा बोक्स गिर पड़ता है, जो सीधा आकर गिरता है पीछे से आ रहे सौभाग मलसा के ऊपर। सर पर इतना भारी बोझा पड़ते ही बेचारे सौभाग मलसा गिरते हैं, भौम पर। दर्द के मारे, चिल्लाते हुए कहते हैं...]
सौभाग मलसा – [ज़ोर से कराहते हुए, कहते हैं] – मार दिया रे, मेरे बाप। अरे मेरी कमर टूट गयी रे, मुझे कोई उठावो रे...!
कुली नंबर एक – [पीछे मुड़कर, गोविंदा स्टाइल से कहता है] – अरे ओय मानव, तू तो धरती का बोझ है रे। हम जैसे कुली तुम जैसों का बोझ लादे चलते हैं। बोल, उठा दूं तूझे इस ख़िलक़त से ? धरती का बोझ, हल्का हो जायेगा।
[इसका व्यंग-भरा कथन सुनते ही, उसके पहलू में चल रहा यात्री हंसता हुआ कह देता है..]
यात्री – [हंसते हुए कहता है] - उठा दे यार, उठा दे इस धरती के बोझ को। इस ख़िलक़त से ही उठा दे, इसे। इसके साथ तू भी चला जा, ऊपर वाले भगवान के पास। वहां जाकर, तू अपनी मज़दूरी ले लेना।
[उसका कथन सुनकर, आस-पास खड़े यात्री ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगे। उनकी हंसी सुनकर, कुली नंबर एक आब-आब होकर, सौभाग मलसा को उठाता है। सौभाग मलसा उठकर, चल देते हैं प्लेटफोर्म की ओर। जहां उनकी दिल-ए-ख़्वाहिश, पूरी होने वाली है। ना तो वे उस कुली नंबर एक को धन्यवाद कहते हैं, और ना उन हंसने वाले यात्रियों पर वे गुस्सा करते हैं। उधर वह कुली नंबर एक, नीचे पड़े बोक्स को उठाता है..फिर बोक्स उठाये चल देता है, प्लेटफोर्म की तरफ़। मंच पर अँधेरा छा जाता है, थोड़ी देर बाद मंच पर वापस रौशनी फ़ैल जाती है। अब, गाड़ी का मंज़र दिखायी देता है। काम पूरा होने के बाद, अब मोहनजी की गैंग वापस अपने केबीन की तरफ़ लौटती दिखायी देती है। उन्हें आते देखकर, आस करणजी अच्छी तरह से बैठ जाते हैं। उनके आते ही, उन्हें ख़ाली सीटों पर बैठाते हैं। मोहनजी की गैंग बैठ जाती है, ख़ाली सीटों पर। अब रतनजी, रोकड़ का बैग आस करणजी ओ सम्भला देते हैं। फिर समझा देते हैं, उन्हें पूरा हिसाब।
मोहनजी – [हाथ ऊंचा करके, आलस मरोड़कर कहते हैं] – आस करणजीसा, अब आप आराम कर चुके हैं ना ? इन टी.टी.यों के जलसे का चन्दा इकठ्ठा करता-करता मेरे बाबा रामा पीर, मेरे दोनों पांव अकड़ चुके हैं। असहनीय दर्द, हो रहा है। लीजिये आप दूर हटिये, अब मैं आराम से लेट जाता हूं।
[आस करणजी कलेक्शन से प्राप्त रुपये और दूसरे सामान संभालकर, रख देते हैं अपने बैग में। अब उस ख़ाली बैग को वे दीनजी को थमा देते हैं। फिर अपनी सीट से उठ जाते हैं, उनके उठते ही मोहनजी झट लेट जाते हैं वहां। अब आस करणजी ख़ाली सीट पर बैठते हुए, कहते हैं..]
आस करणजी – [सीट पर बैठते हुए कहते हैं] – जीते रहो, मोहनजी। युग-युग जीयो, मोहनजी आप और आपकी गैंग। कितना अच्छा कलेक्शन लाये हो, यार..दिल खुश कर दिया आपने।
राजू साहब – अब जनाब, आपका काम बन गया ना..आसकरण जी ?
आस करणजी – जी हाँ। [मोहनजी की तरफ़ देखते हुए, कहते हैं] जलसे का ख़ास काम आपने पूरा करके, बहुत सहयोग दिया है आपने। अब मैं आपकी क्या ख़िदमत करूँ, जनाब ? मिठाई-विठाई मंगवाकर आप लोगों को खिला दूं, तो मेरी दिल-ए-ख़्वाहिश पूरी हो जायेगी।
मोहनजी – क्यों मंगवाते हो, यार ? अभी हमारे साथियों में से कोई कहेगा के..[दीनजी की तरफ़ देखते हैं] मुझे है, मधुमेह की बीमारी..कैसे खाऊं ? [रतनजी की तरफ़ देखते हैं] फिर कोई बोलेगा, मेरे मुंह में दांत ही नहीं..कैसे खाऊं ? [रशीद भाई को देखते हुए] फिर हमारे सेवाभावी बोलेंगे, बाबा का हुक्म हो गया..मैं जा रहा हूं, पाख़ाने...
रतनजी – फिर मंगवा दीजिये, मोहनजी की मनपसंद “एम.एस.टी. कट चाय।
दयाल साहब – वो भी पियेंगे, जनाब। पाली स्टेशन पर, भाऊ की दुकान पर।
रशीद भाई – चाय पाइए बासी या ठंडी, पहले इनसे पूछ लेना [मोहनजी की तरफ़ देखते हुए, कहते हैं] के, पीने के बाद जनाब क्या कहेंगे ? पहले आपको कह दूं, आपको अपनी दिल-ए-ख़्वाहिश पूरी करने के लिए आपको इस तरह के ताने [ओलमे] सुनने ही होंगे, जनाबे आली मोहनजी से। के...
रतनजी – [कथन पूरा करते हुए कहते हैं] – के, ऐसी क्या बासी चाय पायी रे कढ़ी खायोड़ा ? ऐसी चाय पानी थी तो पिला देते, लूणी स्टेशन पर..तो, रामा पीर आपका भला करता।
आस करणजी – [हंसते हुए, कहते हैं] – चाय..चाय, क्यों बोलते जा रहे हैं ? मोहनजी कहे तो इनको चाय से स्नान करवा देता हूं, ये कहे जिस स्टेशन पर।
[गाड़ी तेज़ गति से चलती हुई दिखायी दे रही है, अचानक रशीद भाई को याद आ जाता है, रोहट स्टेशन निकल गया है..अत: अब उन्हें हो गया है, बाबा का हुक्म। अब उठना तो है ही, अब आने वाला है पीर दुल्हे शाह हाल्ट। बस जनाब के क़दम बढ़ जाते हैं, पाख़ाने की तरफ़। उनको जाते देखकर, दीनजी उन्हें रोकते हुए कहते हैं..]
दीनजी – जनाब, कहाँ तशरीफ़ ले जा रहे हैं ? कहीं बाबा का हुक्म तो नहीं हो गया, जनाब ?
रशीद भाई – [रूककर, बैग से साबुन की बट्टी बाहर निकालते हुए कहते हैं] – जनाब ने सही फ़रमाया, अब चलते हैं पाख़ाना। हजूरे आलिया का हुक्म हो तो, हुज़ूर आपको भी ले जाकर बैठा दूं पाख़ाने में...बैठे-बैठे, पाख़ाने की सुगंध लेते रहना।
ओमजी – हम तो ठहरे, बाबा के मुरीद। बाबा जो हुक्म करता है, हमें तो तामिल करना है जनाब। समझ गए, रशीद भाई ? बाबा चाहेगा, तब दीनजी भा’सा भी आपके साथ पाख़ाने की सुगंध लेने चल पड़ेंगे।
[अब दीनजी भा’सा, क्या जवाब देते..? उनको तो शर्म आ रही है, जवाब देने में। और साथ में डर भी था, कहीं रशीद भाई अपनी हाज़िर-ज़वाबी से और कोई डायलोग बोलकर उनके लबों पर ताला न जड़ दे ? तभी मोहनजी को याद आता है, वे अभी-तक लघु-शंका से निपटे नहीं है। याद आते ही, लघु-शंका नाक़ाबिले बर्दाश्त हो जाती है। वे झट उठ जाते हैं, फिर दोनों पाख़ाने की ओर अपने क़दम बढ़ा देते हैं। अब रशीद भाई इस पाख़ाने में घुसते हैं, तब मोहनजी झट दाख़िल होना चाहते हैं दूसरे पाख़ाने के अन्दर। मगर, करते क्या, बेचारे मोहनजी ? उनका रास्ता रोककर, सौभाग मलसा सामने खड़े हो जाते हैं। अब वे उन्हें धमकाते हुए, कहते हैं..]
सौभाग मलसा – मुझे बहुत मिठाई खिला दी रे तूने, इस लूणी स्टेशन के ऊपर। अब मेरी इच्छा है, के पावणा तूझे भी थोडा प्रसाद दे दूं ?
[इतना कहकर सौभाग मलसा ने मोहनजी का गिरेबान पकड़कर, उन्हें पीटना चाहा मगर.. मोहनजी थे पूरे सावचेत, क्योंकि वे ठहरे गोपालिये के भाई। ऐसी कुश्तियों के दाव-पेच, तो वे बचपन में खेलते-कूदते अपने दोस्तों पर अजमा चुके थे। बस, फिर क्या ? भईजी ने मारी एक लात, सौभाग मलसा की रानों पर। दर्द के मारे सौभाग मलसा कराहते हुए आकर सीधे गिरते हैं, धरती पर। उनके नीचे गिरते ही, मोहनजी ने मारी दूसरी लात उनकी पिछली दुकान पर। फिर क्या ? उनके उठते वक़्त मोहनजी ने एक बार और लात मारी, बेचारे सौभाग मलसा लात खाकर गिरते हैं चम्पाकली के ऊपर। बेचारा चम्पाकली सामने से आ रहा था, गुलाबे का हाथ पकड़े हुए। इन दोनों हिज़ड़ो को, क्या पता ? अभी सवा मन का बोझा आकर गिर जायेगा, उनके कोमल बदन के ऊपर। यह बोझ तो इतना भारी है, जिसको संभालने की ताकत इन दोनों हिज़ड़ो में कहाँ..? बेचारे धड़ाम से आकर गिरते हैं, पीछे से आ रही बुढ़िया पानी बाई के ऊपर। इन दोनों हिज़ड़ो के नीचे दबी पानी बाई चमकी ज़ोर से, तभी उसे दिख जाते हैं भूतों के बाप मोहनजी। उनको देखते ही बुढ़िया का सर भन्नाने लगा, अब उसको पूरी तरह से भरोसा हो जाता है, इस इंसान के बदन पर भूतों ने अपना कब्ज़ा जमा रखा है। इस कारण ये भूत-प्रेत इस आदमी को बाध्य करते हैं, के वह गाड़ी में शैतानी हरक़त करता रहे। फिर, क्या ? इन हिज़ड़ो को एक तरफ़ धकेलकर वह उठती है, और डरकर गाँठ लेकर भाग जाती है दूसरे केबीन में। रास्ते में ज़ोर-ज़ोर से, लोगों को सुनाती जाती है..]
पानी बाई – [ज़ोर से चिल्लाती हुई, जाती है] – अरे मेरे बाबजी, जहां मोहनजी मौजूद रहते हैं..वहां नाचे, भूत-प्रेत। ओ मेरे खेतालाजी, अब यह बुढ़िया कभी यहाँ नहीं बैठेगी।
[इस बुढ़िया को इस तरह भागते देखकर, डब्बे में बैठे यात्रियों के मध्य हलबली मच जाती है। अब वे हर दूसरे यात्री को भूत होने का समाचार कहते हुए, अफ़वाह फैलाते जा रहे हैं। कोई कहता है, डब्बे में भूत है..तो कोई कहता है, आसेब आ गया है वापस। उधर आसेब के आने के समाचार सुनते ही, चाचा कमालुदीन अपनी बीबी को आवाज़ लगाकर ज़ोर से कहते हैं..]
चाचा कमालुदीन – अरी ओ मेरी नूरमहल। कित्ती पांण समझाया तूझे, के इमामजामीन पहन ले इमाम जामीन पहन ले। मगर तू तो मेरी बात को काना कोनी ढालती ? अब मर अपने लक्खण से, डब्बे में घुस गया है आसेब।
हमीदा बी – [मोहनजी की तरफ़, उंगली का इशारा करती हुई कहती है] – देख नी रिया है, कै आँखें फूटोड़ी है तुम्हारी ? यह तो वो ही आदमी है, जिसने कमरू दुल्हन की ओढ़नी नापाक की थी। मरता नहीं, नासपीटा। मैं सच्च कहती हूं, इस नासपीटे को लग गया, आसेब।
[हमीदा बी अपने दोनों हाथ ऊपर ले जाती हुई, बाबा पीर दुल्लेशाह से प्रार्थना करती है..]
हमीदा बी – [हाथ ऊपर ले जाती हुई कहती है] – बाबा पीर दुल्लेशाह। बचा दे इस बार, अगले जुम्मेरात आकर आपकी मज़ार पर शिरनी ज़रूर चढाऊंगी। इस बार मेरी ख़ता को माफ़ कर दे, बाबा। [मोहनजी की तरफ़ उंगली का इशारा करती हुई] बाबा अभी इस आसेबज़द को बांधकर भेजती हूं, आपके दरबार में।
चाचा कमालुदीन – अरी ओ बेग़म, पीर दुल्लेशाह हाल्ट आने वाला है। अब कैसे ले जाओगी, इसे बांधकर ? कौन बांधेगा, इसे ?
हमीदा बी – नूरिये के अब्बा, स्टेशन पर उतरकर सीधे पीर बाबा की मज़ार पर चलेंगे। बाबा का परचा है..वहां ले चलेंगे, इस मरदूद को। अब नूरिया कमबख्त, कहाँ चला गया ? अब इस मरदूद को बांधेगा, कौन ?
[अब हमीदा बी इधर-उधर अपनी निग़ाहे डालती है, शायद कहीं वो नूरिया दिखायी दे जाय ? वो दिखायी देता, कैसे ? वो तो बेंच पर बैठा-बैठा झपकी ले रहा है, और उसके निकट खड़ा है, किन्नर चम्पाकली। जो गाड़ी में सफ़र करने वालों से, पैसे मांग रहा है। हमीदा बी को इस तरह इधर-उधर आँखें फाड़ते देखकर, चाचा कमालुदीन कहते हैं..]
चाचा कमालुदीन – अरी ओ बेग़म, काहे आँखे फाड़-फाड़कर इधर-उधर देख रही हो ? [उंगली से इशारा करते हुए] तुम्हारा नूरिया तो उस बेंच पर, बैठा-बैठा झेरा खा रिया है। दीखता नहीं क्या, तुमको ?
हमीदा बी – [नूरिये को ज़ोर से आवाज़ देते हुए] – अरे ओ नूरिया, क्या पड़िया-पड़िया ऊंघ ले रिया है ? ज़रा ऊठ, पकड़ इस नासपीटे को..[मोहनजी की तरफ़ उंगली से इशारा करती हुई, आगे कहती है] बांधकर लेजा दे, बाबा की मज़ार पे। कमबख्त का, आसेब उतर जायेगा। पीपे पे बाँध के जो रस्सी लाया था तू, उसी से बांध दे इसे।
[नूरिया अपनी अम्माजान की लताड़ पाकर, आँखें मसलता हुआ उठता है। उसकी आँखों से नींद जाने का, कोई सवाल नहीं। बेचारा, बार-बार झपकी खाता जा रहा है। अम्मी का हुक्म पाकर चितबंगे की तरह रस्सी ढूँढ़ने के लिए इधर-उधर हाथ मारता है, मगर पलकें भारी होने के कारण, वो देख नहीं पाता..के, उसका हाथ कहाँ जा रहा है ? उसके पास खड़ा है, चम्पाकली..जो इस वक़्त गाड़ी में बैठे यात्रियों से, पैसे मांग रहा है। उसके घाघरे का नाड़ा बाहर निकला हुआ है, इससे बेख़बर होकर वह पैसे मांगता जा रहा है। नूरिये का हाथ पीपे पर पड़ना चाहिये था, मगर ख़ुदा की पनाह नूरिया का हाथ उस लटकते घाघरे के नाड़े को छू जाता है, बस उसे वह रस्सी समझकर वह उसे खींचकर लेने की कोशिश करता है। घाघरा खुलने को हुआ, बस बेचारे चम्पाकली की शामत आ जाती है। झट हाथ में रखे रुपये-पैसे फेंककर, चम्पाकली दोनों हाथों से अपना घाघरा थाम लेता है। इस तरह बेचारा हिज़ड़ा नंगे होने से बच जाता है, अब वह नाड़े को अच्छी तरह से बांधकर घाघरे को नीचे गिरने से बचा लेता है। फिर गुस्से में उस नूरिये की पिछली दुकान पर, जमा देता है एक ज़ोर की लात। लात खाते ही नूरिये की नींद खुल जाती है, और वह दर्द से कराह उठता है। देर रात तक, कल नूरिये ने टी.वी. में देखी थी भूतों की फिल्म। अब अचानक पड़ी लात को समझ बैठा, के कालिये भूत ने मारी होगी लात। बस अब वह डरकर, ज़ोर से “आसेब, आसेब आ गया” चिल्लाने लगता है। उसे भयभीत देखकर, ख़ुद हमीदा बी भी सहम जाती है। उसका बदन कांपने लगता है, अब वह अलग से चिल्लाती हुई ज़ोर से कहती है..]
हमीदा बी – [डर से चिल्लाती हुई, कहती है] – आसेब...आसेब, डब्बे में आसेब आ गया। अब इस इस मूंछों वाले आदमी से आसेब निकलकर, घुस गया है हिज़ड़े में। ख़ुदा रहम, ख़ुदा रहम अब बचा रे पीर बाबा दुल्लेशाह।
[पास बैठे चौधरीजी को आती नहीं यह उर्दू भाषा, फिर बेचारे क्या समझे..किसे कहते हैं “आसेब” ? आख़िर बोले बिना, उनसे रहा नहीं जाता। झट चाची हमिदा बी से सवाल कर बैठते हैं।]
पास बैठे चौधरीजी – क्या घुस गया, चाची ?
[उधर उनकी घरवाली चौधरण लोक-लाज बताती हुई, घूंगट ऊंचा करके कहने लगती है..]
चौधरण – अरे, ओ गीगले के बापू। चुप-चाप बैठे रहिये, आपको क्या ? जिसके अन्दर घुसा, उसे होगी तक़लीफ़। आपको, क्या लेना-देना ? अब बोलो मत, कहीं वह आपके अन्दर न घुस जाये..फिर उसे निकालना मुश्किल हो जायेगा।
[डब्बे के सभी केबिनों में मच जाती है, धमा-चौकड़ी। कोई कहता भूत, तो कोई कहता प्रेत..कहीं से किसी यात्री की आवाज़ आती है, यह तो है, आसेब। कोई यात्री कहता जा रहा है, के ‘यह तो खबीस है।’ इधर चाचा कमालुदीन के परिवार की, हालत पतली होती जा रही है...उनका परिवार, पीर दुल्लेशाह का वज़ीफ़ा पढ़ने लगता है। इस तरह इस खिलके के कारण मोहनजी को काफी वक़्त मिल जाता है, बचने के लिए। वे झट दौड़कर, सीधे घुस जाते हैं पाख़ाने के अन्दर। रास्ते के बीच पड़े सौभाग मलसा लम्बी सांस लेते हैं, अब उनके बदन का दर्द कुछ कम हो गया है। चेतन होने के बाद, वे आँखें खोलकर सामने देखते हैं..उनको दिखायी देता है, एक फ़क़ीर। जो भगवा कपड़े पहना बैठा है, वो भी उनके घुटने से अपना घुटना अड़ाकर। यह इंसान, कोई सीधा लग नहीं रहा है। क्योंकि इसने सौभाग मलसा से बिना इज़ाज़त लिए, उनकी थैली से दारू की बोतल बाहर निकालकर पीनी चालू कर दी है। अब वे उस फ़क़ीर को आंखे फाड़कर देखते हैं, और सोचते जा रहे हैं के “मैं इस इलाके बड़ा डोन हूं, जो गांजे तस्करी करने वाले तस्करों का सरदार है। अब यहाँ इस कालाबेलिये की इतनी कैसे हिम्मत हो गयी, जो बिना इज़ाज़त लिए मेरी थैली से दारु की बोतल निकालकर पीता जा रहा है ? ग्रामीण इलाके की सारी औरतें मेरा नाम लेकर अपने बच्चों को डराकर कहती है ‘मेरे लाडके बेटे सो जा, नहीं तो आ जायेगा सरदार सौभाग मल।’ अब यह मेरा बाप करमठोक, आया कहाँ से ?” इतना सोचकर, सौभाग मलसा उस फ़क़ीर से कहते हैं..]
सौभाग मलसा – [आँखें तरेरकर, कहते हैं] – तू कौन है, मेरे बाप ?
फ़क़ीर – [आँखें टमकाता हुआ, कहता है] – आँखें मत फाड़ रे, झाहू चूहे। कल धुंदाड़ा गाँव में, तू चुराता था गाय-भैंस। अब तू मुझे दिखा रहा है, अपनी आँखें ? कमबख़्त तेरी ये आँखें निकालकर गोटी खेल सकता हूं, तू जानता नहीं मुझे..मैं कौन हूं ?
सौभाग मलसा – कहो मेरे बाप, आप है कौन ?
फ़क़ीर बाबा – मैं हूं, चपकू गैंग का सरदार ‘फ़क़ीर बाबा।’ सो रही ठकुराइनों की चोटियां काट लाता हूं, उनकी आँखों का काज़ल चुराने वाला मैं ही हूं..मैं हूं अलामों का बाप, ‘फ़क़ीर बाबा।’ अरे रे, काले चूहे। तू मुझे बिल्ली समझकर, नाच चूहे की तरह। जानता नहीं, तेरे जैसे कई डॉन मेरी जूत्तियाँ उठाते हैं।
[चपकू गैंग का नाम सुनकर, सौभाग मलसा घबरा जाते हैं। इस गैंग के ख़तरनाक कारनामें, देसी डॉन-जगत में कुख्यात है। जैसे दाऊद इब्राहीम की डी कंपनी मोहम्मद अली मार्ग वाले इलाक़े में अपना असर रखती है। उस क्षेत्र के जवान लोंडे इस कंपनी में भर्ती होने की दिल-ए-ख़्वाहिश रखते हैं, वैसे ही इस ग्रामीण इलाक़े के जवान लौंडे इस चपकू गैंग में काम करने की दिल-ए-ख़्वाहिश रखते हैं। इस गैंग में काम करने के चांस किसी तरह मिल जाये, इसके लिए वे तरसते हैं। ख़ास तौर से यह चपकू गैंग, रेलवे प्लेटफोर्म और रेल गाड़ियों में यात्रियों के माल पार करने का काम किया करती है। इनकी गैंग के मेम्बरों को कई तरह की भाषा आती है, और वे कई इल्म की जानकारी रखते हैं। कई तरह के नशों व जहर की तो, ये लोग विशेष जानकारी रखते हैं। यात्रियों को सम्मोहित करने में, इनको महारत हासिल है। इस गैंग ने, पूरे रेलवे महकमें का सुख और चैन छीन लिया है। गैंग की पूरी जानकारी दिमाग़ में आते ही, सौभाग मलसा झट उठकर फ़क़ीर बाबा के चरण छूते हैं और उनसे निवेदन करते हैं..]
सौभाग मलसा – [चरण छूकर, कहते हैं] – हुकम अन्नदाता। मुझे माफ़ कीजिये, ग़लती हो गयी मुझसे। मैं आपको पहचान नहीं पाया, आप मेरे ऊपर मेहरबानी रखें। बाबजी मैं आपका सेवक, पहले से दुखी हूं। हुक्म दीजिये, मैं आपकी ख़िदमत कर सकूं ?
फ़क़ीर बाबा – सुन ले, अच्छी तरह से। मैं जैसा कहता हूं, वैसा ही तू कर। नहीं तो, तेरी मौत यह आयी। मैं जानता हू, तू क्यों परेशान है ? सावधानी नहीं रखी तूने, अब इसी कारण तू अभी फुठरिये जैसे तुच्छ प्राणी से तला जा रहा है। तेरा नीला बैग, वह ला नहीं रहा है तेरे पास। और तू, उसका बाल बांका नहीं कर पा रहा है।
सौभाग मलसा – हुकूम, सत्य वचन।
फ़क़ीर बाबा – बैग में रखे हैं, तेरे तस्करी धंधे के हिसाबी-काग़ज़ात। अब तूझे यह डर है, कहीं ये काग़ज़ात पुलिस के हाथ न लग जाये। अगर लग गये, तो तूझे यह पुलिस गंगाजी में डाल देगी।
सौभागमालसा – सत्य वचन, अन्नदाता। अब आप ही मझे बचा सकते हैं, मेरे आका, मैं आपकी पनाह में हूं। मेरी इज़्ज़त बचाना, अब आपके हाथ में है। मुझे किसी तरह आप बचा लीजिये, बाबजी।
फ़क़ीर बाबा – मगर सौभाग्या, तू जानता नहीं ? इस दुनिया में, बिना लिये-दिये कोई काम बनता नहीं। इस हाथ ले, और इस हाथ दे। मगर, तू अभी फ़िक्र कर मत।
सौभाग मलसा – जी हाँ।
फ़क़ीर बाबा – यह देख, तेरी जीव की देण है यह मोहन लाल। उस कुचमादी ठीकरे से मैं ख़ुद निपट लूँगा, उसके बाद मैं जो काम तूझे सुपर्द करूंगा उस काम को तूझे..
सौभाग मलसा – [अपने दोनों कान पकड़कर, कहते हैं] – बराबर सावधानी रखता हुआ, आपके काम को अंजाम दूंगा। आगे से कोई ग़लती नहीं होगी, बस बाबजी आप अपना हाथ मेरे सर पर रख दीजिये। आप इस आदमी से, मेरा पीछा छुड़ा दीजिये।
फ़क़ीर बाबा – देख रे, चूहे। यह मोहन लाल बार-बार युरीनल में जाता है, और वहां अन्दर जाकर दीवार पर लिखे मादक डायलोग पढ़कर आनंद लेता है। ऐसा लगता है, यह इंसान बड़ा रसिक है। अब तू ऐसे कर, के..[हाथ की उंगलियां हिला-हिलाकर गूंगे-बहरों की सांकेतिक भाषा में समझाने की कोशिश करते हैं]
सौभाग मलसा – बाबजी सा, इस तरह उंगलियां हिलाने से, मेरे भोगने में कुछ पल्ले नहीं पड़ता। अब क्या करूँ, मालिक ? आप अच्छी तरह से समझा दीजिये, मुझे।
फ़क़ीर बाबा – देख तेरे गैंग की कमलकी सांसण के मोबाइल नंबर, इसके हाथ लग गये हैं। अब तू इस फुठरिये के पास जा मत, बस अब तू यों कर।
सौभाग मलसा – जो हुकूम।
फ़क़ीर बाबा - तू ध्यान रख, अभी यह फुठरिया किसी का मोबाइल मांगकर लेगा। फिर करेगा यह, उस कमलकी को फ़ोन। अब तू उस कमलकी को फ़ोन करके कह दे, के ‘उसका फोन आने पर वह उससे मीठी-मीठी बातें करें और उसको नाणा-बेडा के मेले में बुला ले।’
सौभाग मलसा – मेले में क्यों, बाबजी ? वहां बैठाकर उससे, हरी-कीर्तन करवाना है क्या ?
फ़क़ीर बाबा – बीच में मत बोला कर, चूहे। पहले, मेरी बात सुना कर। अब सुन, वहां गौतम मुनि का मंदिर है, वहां हमेशा की तरह मेला भरा जाने वाला है। उसको उस मेले में बुला ले, फिर मैं उसको वहां देख लूँगा।
सौभाग मलसा – जी हुज़ूर, आगे कहिये।
फ़क़ीर बाबा - तू देखते रहना, मैं उसकी क्या गत बनाता हूं ? उसकी सात पुश्तें याद रखेगी, मुझे। [दारू की बोतल थमाते हुए] अब तू बची हुई मेरी प्रसादी ले ले, और इसे पीकर मस्त हो जा।
[इतना कहकर, फ़क़ीर बाबा सौभाग मलसा के सर पर हाथ रखते हुए कहता है]
फ़क़ीर बाबा – [सौभाग मलसा के सर पर, हाथ रखता हुआ कहता है] – आज़ से मेरी कृपा, तेरे ऊपर बराबर रहेगी। [ज़ोर से गुंजारा करता हुआ] अलख निरंजन, अलख निरंजन।
[चिमटा हिलाता हुआ आगे चला जाता है, पीछे से “अलख निरंजन, अलख निरंजन” की गूंज़ सुनायी देती है। फ़क़ीर बाबा के जाने के बाद, अब सौभाग मलसा बेफिक्र होकर फ़क़ीर बाबा की लौटाई गयी दारु की बोतल से दारु पीनी शुरू करते हैं। अब बड़े डॉन का आशीर्वाद मिल जाने से, वे बहुत खुश है। अब बैठे-बैठे, वे सोचते जा रहे हैं...]
सौभाग मलसा – [होंठों में ही] – बस, अब इस कमलकी को फ़ोन करके, इस फुठरिये को बुला लेता हूं भूतिया नाडी। इस भूतिया नाडी से दो फलांग आगे है बाबजी का झूपा। बस वहीँ बैठा हूं मैं, वहां यह कमलकी उस फुठरिये को लेकर आ जायेगी मेरे पास।
[इन डोनों को, क्या पत्ता ? इन दोनों का वार्तालाप, गुलाबा चुप-चाप सुन चुका है। और साथ में वह, मोबाइल से इनकी गतिविधियों का विडिओ-क्लेप भी तैयार कर चुका है। फ़क़ीर बाबा के रुख़्सत होने के बाद, गुलाबा छुपे स्थान से निकलकर बाहर आता है। बाहर आकर वह सौभाग मलसा के पास आता है। फिर वह झुककर, सौभाग मलसा से मुजरा [झुककर सलाम] करता है। फिर ताली बजाता हुआ, कहता है..]
गुलाबा – [झुककर, सलाम करता है] – मुजरोसा, खम्मा घणी अन्नदाता। आज़ तो सेठ साहब, बहुत मुस्करा रहे हैं। [ताली बजाकर, आगे कहता है] अब कुछ ख़र्चा-पानी हो जाना चाहिए, मालिक। मालकां का भण्डार, भरा रहे।
[आज़ सौभाग मलसा का दिल खुश है, क्योंकि आज़ इनकी मुलाक़ात हो गयी है, बड़े डॉन से। इस कारण आज़ इनकी कली-कली खिल गयी है। फिर क्या ? अब सौभाग मलसा खुश होकर, जेब से कई सौ के कड़का-कड़क नोट निकालते हैं। और उन नोटों को अपने ऊपर वारकर, थमा देते हैं गुलाबा को। और साथ में, उससे कहते हैं..]
सौभाग मलसा – [नोट देते हुए, कहते हैं] – आज़ तबीयत खुश कर दे, गुलाबा। लगा ठुमका, और फिर सुना मुझे ठुमरी।
[गुलाबा ब्लाउज में नोट खसोलकर, गीत गाता हुआ घूमर लेकर नाचता जाता है।]
गुलाबा – [गीत गाता हुआ, नाचता जाता है] – थारे कन्नै अेक आलौ गाबौ, नै म्हारै कन्नै है अेक नागी देह। दे सकोला कांई थे दो बेंत गाबौ ? थारै कन्नै अेक रुळी ज़िंदगी। दे सकोला कांई थे, रैवण नै म्हने दो गज़ ज़मीन ?
[गाड़ी का इंजन सीटी देता है, अब गाड़ी ने अपनी रफ़्तार बना ली है..वह तेज़ गति से, पटरियों पर दौड़ रही है। इस गाड़ी की खरड़-खरड़ आवाज़ के आगे, गीत सुनायी देना बंद हो गया है। इधर सौभाग मलसा के मोबाइल पर घंटी आती है, मोबाइल को कानों के पास ले जाकर वे बात करते हैं..]
सौभाग मलसा – [फ़ोन पर] – कौन है ?
मोबाइल से आवाज़ आती है – जनाब, मैं कमलकी हूं। हुज़ूर, कैसे याद किया आपने ?
सौभाग मलसा – [मोबाइल पर] – तू धीरज रख़, आ रहा हूं मैं..! वहीँ बैठी रहना तू, कहीं चली मत जाना।
[मोबाइल बंद कर, सौभाग मलसा उसे जेब में रखते हैं। फिर वे रुख़्सत होते दिखायी देते हैं। उनको रुख़्सत होते देखकर, गुलाबो पीछे से कहता है।]
गुलाबो – वाह रे, सेठ। तेरी दिल-ए-ख़्वाहिश पूरी हुई, अब मेरी दिल-ए-ख़्वाहिश पूरी होगी।
[गाड़ी की गति धीमी हो जाती है, पीर दुल्लेशाह हाल्ट आ गया है। गाड़ी प्लेटफोर्म पर आकर रुकती है। थोड़ी देर में मंच पर अन्धेरा छा जाता है।]
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