[मारवाड़ का हिंदी नाटक] यह चांडाल चौकड़ी, बड़ी अलाम है। लेखक - दिनेश चन्द्र पुरोहित पिछले खंड - खंड 1 | खंड 2 | खंड 3 | खंड 4 | खंड 5 | खं...
[मारवाड़ का हिंदी नाटक]
यह चांडाल चौकड़ी, बड़ी अलाम है।
लेखक - दिनेश चन्द्र पुरोहित
पिछले खंड -
खंड 1 | खंड 2 | खंड 3 | खंड 4 | खंड 5 | खंड 6 | खंड 7 | खंड 8 | खंड 9 | खंड 10 | खंड 11 | खंड 12 | खंड 13 | खंड 14 |
नाटक “यह चांडाल-चौकड़ी, बड़ी अलाम है” का अंतिम खंड १५
“बाबा भली करे।”
– लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित
[मंच पर रौशनी फ़ैल जाती है, बैगलूर-चेन्नई एक्सप्रेस गाड़ी पटरियों पर तेज़ी से दौड़ रही है। अब इस गाड़ी का शयनान डब्बा दिखाई देता है। एक केबीन की बर्थ पर छंगाणी साहब लेटे दिखाई दे रहे हैं, ऐसा लगता है उन्होंने अपने बूट पहन लिए हैं। बूट पहनने के बाद, उन्हें पक्का भरोसा हो गया है के “अब कोई एम.एस.टी. होल्डर, उनके बूट छुपाने की शरारत नहीं कर पायेगा..!” इस कारण वे पूर्ण रूप से, निश्चिन्त हो चुके हैं। इनके सावधानी बरतने के बाद, दूसरी बर्थ पर लेटे चंदूसा भी सावधानी कुछ ज्यादा ही बरत रहे हैं। जैसे ही उनको, नीचे की सीट ख़ाली दिखायी देती है...जनाब झट नीचे उतरकर, उस सीट पर लेट जाते हैं। उनको भय है, “कहीं मोहनजी इधर आ गए तो, वे उन्हें इस तख़्त पर सोने नहीं देंगे।” उधर दूसरे तख़्त पर, ओमजी खूंटी तानकर सो जाते हैं। अब बाकी रही, आमने-सामने वाली खिड़की वाली सीटें..जिन पर, करीब सत्रह साल के दो शरारती छोरे बैठे हैं। वे बराबर मोहनजी की कुबदी [शैतानी] हरक़तों पर, नज़र गढ़ाए बैठे हैं। अब मोहनजी आते हैं, इस केबीन में ख़ाली सीट न मिल पाने से...वे बीच मार्ग में पड़े बॉक्स पर, जम जाते हैं। मगर उनका दिल करता है, “किसी तरह खिड़की वाली सीट पर कब्ज़ा ज़माकर वहां बैठ जाए।” अब वे, दिल में सोची हुई शैतानी हरक़त को अंजाम देने के लिए उठते है। और बार-बार खिड़की के पास जाकर, बाहर पीक थूकते हैं। उनकी मंशा यह है, “इनके बार-बार पीक थूके जाने पर, ये दोनों छोरे परेशान होकर...अपनी सीट छोड़ देंगे, और वे फ़ौरन खिड़की वाली सीट पर कब्ज़ा जमा लेंगे।” मगर ये दोनों शरारती छोरे, शरारत के मामले में मोहनजी को चार क़दम पीछे छोड़ने वाले ठहरे। अब ऐसा होता है, जैसे ही मोहनजी बॉक्स से उठते हैं..एक छोरा उठकर बैठ जाता है, अपने साथी के पास..वहां बैठकर वह उसके कान में कोई बात फुसफुसाकर कहता है। वह छोरा अपने साथी को, क्या कह रहा है ?’ इससे मोहनजी को कोई सारोकार नहीं। बस मोहनजी, इस हाथ लगे मौक़े को खोना नहीं चाहते। वे उस छोरे की छोड़ी हुई सीट पर जस्ट ‘म्यूजिकल चेयर वाले गेम की तरह’ बैठ जाना चाहते हैं, मगर यह छोरा तो ठहरा.. कुचमादी का ठीकरा । उनके बैठने के पहले, वह जाकर अपनी सीट पर बैठ जाता है। इस दशा में मोहनजी की बुरी ‘हास्यास्पद स्थिति’ बन जाती है, बेचारे संतुलन खोकर धब्बीड़ करते गिर पड़ते हैं उस छोरे की गोद में। उनके गिरते ही छोरा चमकता है, मगर बेचारे मोहनजी गोद में गिरते ही दर्द के मारे चिल्लाते हुए उछलते हैं। ऐसा लगता है, “मानो किसी कुदीठ आदमी ने उनके पिछवाड़े में बिच्छु-कांटी का कांटा चुभा दिया है ?” इस तरह उनके उछलने से, दोनों छोरे ख़िल-खिलाकर हंस पड़ते हैं। उन दोनों को हंसते देखकर, मोहनजी गुस्से में उस छोरे को फटकारते हैं।]
मोहनजी - [गुस्से में डांटते हुए, कहते हैं] – ठोकिरा, कढ़ी खायोड़ा। सीधा बैठ नहीं सकता, आलपिन चुभाकर बड़े-बुजुर्गों से करता है मज़ाक ? शर्म नहीं आती, तूझे ? अब पागलों की तरह, ख़िल-ख़िल हंसता जा रहा है..बेवकूफ।
सामने बैठा छोरा – काकाजी। आप कब रहे, अल्लाह मियां की गाय ? हमारी उम्र के थे, तब आप कब चुप-चाप बैठे रहते थे ? कुचमादी करने की आदतें, अब भी इस उम्र में आपने नहीं छोड़ी ?
[इतने में दूसरा छोरा आँखों पर थूक लगाकर, फर्जी आंसू निकाल बैठता है। और ज़ोर-ज़ोर से, रोने का अभिनय करता है..इस तरह रुदन करता हुआ वह, पूरे डब्बे को अपने सर पर उठा लेता है। रोता हुआ यह कुबदी छोरा, मोहनजी को साथ में कहता जा रहा है..]
पहला छोरा – [रोने का अभिनय करता हुआ, कहता है] – काकाजी, ज़रा शरीर को हल्का कीजिये। मेरे ऊपर बैठकर, मेरी हड्डियों का कचमूर निकाल डाला आपने।
[इतना कहकर वह छोरा, फिर झूठे आंसू बहाता हुआ रोने लगता है। इसका रुदन सुनकर, पड़ोस के केबीन में सो रहे रतनजी की नींद खुल जाती है। कौन रो रहा है ? इसकी जांच करने के लिए, वे इस केबीन में चले आते हैं। यहां आते ही, वे उस छोरे के सर पर अपना हाथ रखकर उसे दिलासा देते हैं..]
रतनजी – [रुदन कर रहे छोरे के सर पर हाथ रखकर, कहते हैं] – बेटा, तूझे किसने पीटा ? ऐसा है कौन कुदीठ आदमी, जिसने राज़पुत्र जैसे बच्चे को रुला दिया ? अगर वह दुष्ट सामने आ जाय तो, मैं उस नालायक का कीमा बना डालूं ?
[फिर क्या ? दिलासा मिलते ही, वह छोरा फर्ज़ी आंसू साफ़ करके कहता है..]
पहला छोरा – [रोनी आवाज़ में, कहता है] – बा’सा ओ बा’सा। [मोहनजी की तरफ़ उंगली से इशारा करता हुआ] काकाजी को पीटिये। मेरे ऊपर बैठ गए, बा’सा। ऊपर बैठकर, मुझे पोदीने की चटनी की तरह पीस डाला।
दूसरा छोरा – देखिये बा’सा। अगर किसी बेचारे फूल जैसे कोमल बच्चे के ऊपर गिर जाए सौ मन वज़नी धान की बोरी, तब बा’सा उसकी क्या हालत होगी ? अब आप ही बताएं, बा’सा।
[एफ़.सी.आई. दफ़्तर में मोहनजी को दिन-भर, धान की बोरियां गिनना, धान की क्वालिटी देखनी, आंकड़े तैयार करना वगैरा काम करने होते हैं। अब ख़ुद के लिए धान की बोरी की उपमा दिये जाने से वे भड़क जाते हैं, फिर उस छोरे को फटकारते हुए ज़ोर से कहते हैं..]
मोहनजी - [फटकारते हुए, कहते हैं] – कुचमादी के ठीकरे। कढ़ी खायोड़ा बता मुझे, किस धान की बोरी गिरी ? देशी, या स्पेशल आस्ट्रेलिया गेहूं की बोरी ? गधे, तूझे क्या पत्ता, धान की कौन-कौनसी किस्में होती है ? आया बड़ा, धान की बोरी की उपमा देने वाला ?
दूसरा छोरा – [लबों पर मुस्कान बिखेरता हुआ, कहता है] – अरे काकाजी, क्या हाफ-माइंड जैसी बात कर रहे हैं आप ? मुझे तो ऐसा लगता है, चूहे मारने वाली बदबूदार गोलियों की बोरी ही गिरी है..बेचारे, इस राज़पुत्र जैसे बच्चे के ऊपर।
[चूहे मारने की बदबूदार गोलियों का नाम भी, बड़ा अजीब है ? दोनों छोरे हंसते जा रहे हैं, और उनको हंसते देखकर रतनजी भी अपनी हंसी रोक नहीं पाते। अब, इन बच्चों के क्या मुंह लगना ? यह सोचकर, रतनजी झट मोहनजी का हाथ पकड़कर उठाते हैं। फिर उनका हाथ थामकर, कहते हैं..]
रतनजी - [हाथ पकड़कर, कहते हैं] – अब चलिये, यहां से। क्यों इन बच्चों के मुंह लग रहे हैं, आप ? ये बच्चे क्या, आपकी उम्र के है ? सीट ही चाहिए, आपको ? चलिए पड़ोस के केबीन में, कई सीटें ख़ाली पड़ी है। मर्ज़ी हो वहां बैठना, कम से कम आप हमें...शान्ति से, सफ़र करने दीजिये।
[रतनजी एक हाथ से मोहनजी का बैग लेकर, दूसरे हाथ से उनका हाथ पकड़कर ले आते हैं, अपने पड़ोस वाले केबीन में। इस केबीन की ख़ाली सीटों पर दीनजी, गोपसा और उनके ताश खेलने वाले साथी बैठे हैं। वहां आकर, रतनजी मोहनजी से कहते हैं..]
रतनजी – अब आंखें फाड़कर देख लीजिये, मोहनजी..इतनी सारी पड़ी है, ख़ाली सीटें। अब डालो, इनका अचार। [दीनजी से कहते हैं] यार दीनजी, थोडा उधर खिसकिये। [गोपसा से कहते हैं] आप भी खिसको गोपसा, और अब पत्ते खेलने बंद कीजिये..जनाबे आली मोहनजी, तशरीफ़ लाये हैं।
[मोहनजी इस केबीन में क्या आ गए, मानो बादशाह अकबर तशरीफ़ लाये हैं..? फिर क्या ? गोपसा भी कोई कम नहीं, झट चोबदार के लहजे में ज़ोर से आवाज़ देते हुए कहते हैं..]
गोपसा – [ज़ोर से आवाज़ देते हुए, कहते हैं] – होशियार। एफ़.सी.आई. के साहब-ए-आलम, जनाबे आली मोहनजी क़दमबोशी कर रहे हैं..! सावधान..तख़लिया। [ताश के पत्ते उठाते हैं, और उनके दूसरे साथी भी सीट छोड़कर उठ जाते हैं] लीजिये बैठिये महाराज़, रैयत के धणी। अब आप इन गुलामों को, रुख्सत दीजिये।
[खड़े होकर अदब से कमर झुककर, गोपसा कोर्निश करते हैं]
मोहनजी – इस वक़्त इन खिड़कियों से तेज़ धूप आ रही है, आज़ तो गोपसा ऐसा लग रहा है..मानो आसमान से सूर्य, आग के गोले बरसाता जा रहा है ? अब मैं खिड़की के पास कैसे बैठ सकता हूं, गोपसा ?
गोपसा – [झुककर कोर्निश करते हुए, कहते हैं] – हुज़ूर की ख़िदमत में, धूप को रुख्सत देने की इज़ाज़त चाहता हूं।
[खिड़कियों पर लगे पर्दों को नीचे गिराकर, खिड़की बंद कर देते है। फिर गोपसा अपने साथियों को साथ लेकर चले जाते हैं, दूसरे केबीन में। अब मोहनजी बैठ जाते हैं, रतनजी के पहलू में। थोड़ी देर बाद, सेणी भा’सा भी आकर दीनजी भा’सा के पहलू में बैठ जाते हैं। रशीद भाई को अस्थमा की बीमारी है, इसलिए वे सिंगल खिड़की वाली सीट पर आकर बैठ जाते हैं..ताकि, वे आराम से ताज़ी हवा का लुत्फ़ उठा सके। अब सलाद बेचने वाला इस केबीन में दाख़िल होता है, उसको देखकर सेणी भा’सा उसे सलाद लाने का हुक्म देते हैं।]
सेणी भा’सा – इधर आ रे, डाल चंद।
डाल चंद – आया, हुज़ूर।
[अख़बार के पन्ने पर ककड़ी और टमाटर के टुकडे चाकू से काटकर, उन पर मसाले का छिड़काव करता है। फिर यह तैयार किया गया सलाद, सेणी भा’सा को थमाता हुआ उनसे कहता है]
डाल चंद – [सलाद थमाते हुए, कहता है] – हुज़ूर कई दिनों से, मालिक आपके दर्शन गाड़ी में नहीं हो रहे हैं ? हुज़ूर, खैरियत है ?
सेणी भा’सा – [सलाद लेते हुए, कहते हैं] – भाई डालचंद, मुझे तो आज़कल वक़्त मिलता नहीं। दफ़्तर में आज़कल अवाम की बहुत शिकायतें आ जाया करती है, क्या कहूं तुम्हें ? छोटी-छोटी शिकायतों को लेकर यह अवाम पहुंच जाती है, इन एम.एल.ए., और एम.पी. जैसे जन-प्रतिनिधियों के पास।
डाल चंद – इनको जाने दीजिये, जनाब। आपको, क्या करना जी ?
सेणी भा’सा – क्या बोल रहा है, डाल चंद ? इधर इस भयानक गर्मी में पानी की भारी किल्लत, सुनते-सुनते परेशान हो जाते हैं यार। करें क्या ? इनकी समस्या का समाधान करते-करते काफ़ी देर हो जाया करती है, इस कारण एक्सप्रेस गाड़ी को पकड़ नहीं पाता। फिर कैसे मिलूं रे, डोफ़ा तूझे ? तू तो फिरता है, इन एक्सप्रेस गाड़ियों के अन्दर।
डाल चंद – फिर जनाब, आज़ कैसे मुलाक़ात हो गयी आपसे ?
सेणी भा’सा – बात यह है, मैं आया तो देरी से ही..मगर, मेरी क़िस्मत अच्छी रही एक्सप्रेस गाड़ी लेट थी जो मिल गयी डाल चंद। अब तू खड़ा-खड़ा बातें करता ही रहेगा, या जाकर कुछ कमायेगा ? अब जा, थोड़ा गाड़ी में घुम और कमाई कर। ख़ाली गपें हांकने से, तेरा पेट भरेगा नहीं।
डाल चंद – [ककड़ी-टमाटर से भरी टोकरी को, सर पर रख़ता हुआ कहता है] – हुज़ूर, आपकी मेहरबानी से कमा रहा हूं। आपकी सुफ़ारस लगी, और ये टी.टी.ई. लोग मुझे घुमने देते हैं इन एक्सप्रेस गाड़ियों में। अब मेहरबानी बनी रखना, हुज़ूर। [आवाज़ लगाता हुआ, जाता है] ले लो भय्या, सलाद। ताज़ी-ताज़ी ककड़ी, ताज़े टमाटर।
[डाल चंद चला जाता है, दूर से उसकी आवाज़ गूंज़ती जा रही है। अब सेणी भा’सा सलाद को सभी साथियों के बीच में रखते हुए, कहते हैं।]
सेणी भा’सा – [साथियों के बीच सलाद रखते हुए, कहते हैं] – हाथ बढ़ाइये, अरोगिये। [दीनजी से कहते हुए] दीनजी, यार बोलो ना। आगे क्या हुआ, आपके बिल्ले का ?
[दीनजी को छोड़कर, सभी सलाद के टुकड़े उठाकर खाने लगते हैं। दीनजी खिड़की से बाहर देखते हुए, कह रहे हैं]
दीनजी – भा’सा, अभी-तक लूणी स्टेशन आया नहीं है। चलिये, शेष कहानी बांच ही लेते है। अब सुनिए, जनाब। वह बिल्ला सरकारी क्वाटरों में घुमता रहता था, किसी के लिये वह अज़नबी नहीं था।
सेणी भा’सा – ऐसी क्या ख़ासियत थी, उस बिल्ले में ?
दीनजी – अरे जनाब, वह बिल्ला तो बड़ा जबरा था, जो रास्ते में खड़े कुत्तों से भी नहीं डरता..उनको देखकर, वह गुर्राया करता। उसका यह रूप देखकर, कुत्ते डरकर भाग जाया करते। क्वाटरों में रहने वाले बच्चों का वह दोस्त बन गया, कोई उसे रोटी खिलाता तो कोई पिलाता दूध। मगर जंग बहादुरजी की घरवाली से, वह.....
सेणी भासा – अब कह दीजिये, जनाब। ऐसी क्या ख़ास चीज़ खाता था, उनसे ?
दीनजी – [लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए, कहते हैं] – जंग बहादुरजी की घरवाली की दी हुई सूखी रोटियां भी, बड़े प्रेम खाया करता। अरे जनाब, वह तो अकरमजी की रसोई में घुसकर गूंधे हुए आटे को भी नहीं छोड़ता..उसे भी, खा जाता।
सेणी भा’सा – करमठोक ठहरा, वह बिल्ला। दूध-मलाई की ठौड़ खा जाता, सूखी रोटियां और गूंधा हुआ आटा। अब कहिये, आगे क्या हुआ ?
[इंजन ज़ोर से सीटी देता है, और अब गाड़ी की रफ़्तार कम हो जाती है। थोड़ी देर में लूणी स्टेशन आ जाता है, प्लेटफोर्म पर आकर गाड़ी रुक जाती है। अब, दीनजी कहते हैं..]
दीनजी – लीजिये लूणी स्टेशन आ गया, अब शेष गाथा बाद में बांच लेंगे।
मोहनजी – हां भा’सा, सही बात है। बाद में सुना देना, आप। [सलाद खलास हो जाने से, वे कागज़ को खिड़की से बाहर फेंक देते है] अब चाय-वाय का इंतज़ाम हो जाना चाहिये, कढ़ी खायोड़ा।
दीनजी – मोहनजी क्यों बासी चाय पीने की बात कह रहे हैं, आप ? [बैग से काजू-दाख, बिदाम, मिश्री आदि प्रसाद से भरी पोलीथिन थैली निकालकर कहते हैं] अब मोहनजी, बिदाम, काजू, दाख और मिश्री का भोग लगाइए।
[बिल्ले की गाथा वापस चालू होती न देख, सेणी भा’सा उठ जाते हैं। फिर कानों में यज्ञोपवित डालकर, पाख़ाने की तरफ़ अपने क़दम बढ़ा देते हैं। उनके जाते ही, रशीद भाई कहते हैं..]
रशीद भाई – भा’सा बाल गोपाल का प्रसाद लाये, क्या ?
[रतनजी व मोहनजी का हिस्सा रखकर, दीनजी बाकी का प्रसाद रशीद भाई को थमा देते हैं। फिर कहते हैं..]
दीनजी – रशीद भाई, मोहनजी और रतनजी को यह प्रसाद मैं दे दूंगा। बस आप [शेष प्रसाद रशीद भाई को थमाते हुए] शेष साथियों को, यह प्रसाद बांटकर आ जाइये। ये सभी, पड़ोस के केबिनों में बैठे हुए हैं।
[रशीद भाई प्रसाद लेकर चले जाते हैं, पड़ोस के केबीन में। उनके जाने के बाद, दीनजी रतनजी से कहते हैं।]
दीनजी – [रतनजी से कहते हैं] – रतनजी, यह लीजिये अपना हिस्सा। [प्रसाद देने के लिए, हाथ आगे करते हैं]
रतनजी – [नखरे करते हुए, कहते हैं] – नहीं लेता।
दीनजी – अरे सा, ले लीजिये प्रसाद। बाल गोपाल का प्रसाद है, जनाब इसका निरादर नहीं किया जाता। जनाब, ले लीजिये। ना तो आप गाड़ी के सभी एम.एस.टी. होल्डर्स से कहते रहेंगे, के “भा’सा ने बाल गोपाल का प्रसाद, मुझे खिलाया नहीं। ये सारे लोग हैं, फड़सा। इनको खिला दिया, सारा प्रसाद।”
रतनजी – [गुस्से में कहते हैं] – अब आपको क्या कहूं, भा’सा ? आपके जैसा निशर्मा नहीं है, इस ख़िलक़त में। आंखें होते भी आप समझ नहीं रहे हैं, के ‘मैं यह प्रसाद, क्यों नहीं खा रहा हूं ?
[पड़ोस के केबीन में बैठे ओमजी और रशीद भाई को, रतनजी के कहे एक-एक शब्द सुनायी दे जाते हैं। वे दोनों अच्छी तरह से जानते हैं, “वे इस प्रसाद को, खाना क्यों नहीं चाहते हैं ?”]
रशीद भाई - [ज़ोर से कहते हैं] – रतनजी, आज़ नक़ली दांत लाना भूल गये ? तो क्या हो गया, जनाब ? ले लीजिये, यार। बाल गोपाल के प्रसाद का, निरादर मत कीजिये। चबा नहीं सकते, तो क्या हो गया ? मिश्री और दाखें चूष लीजिये, और बिदामों को इमामदस्ते में कूटकर खा लीजिये।
ओमजी – यह मेवा है, रतनजी। खा लीजिये, जनाब। बदन में ताकत लाने का काम करती है, ये बिदामें। चाबी नहीं जाती, तब आप इन्हें गिट लीजिये जनाब। कार ही करेगी, बस आप निरादर मत कीजिये।
दीनजी – देख लो। मैं बार-बार, गरज नहीं कर सकता। आपको लेना है, तो ले लीजिये। अन्यथा यह सारा प्रसाद, मोहनजी को दे दूंगा। फिर, ये चाहेंगे तो आपको दे देंगे। [मोहनजी को प्रसाद थमाकर, उनसे कहते हैं] लीजिये जनाब, आप दोनों का प्रसाद..!
मोहनजी – लाइए भा’सा, लाइए। यह प्रसाद वितरण-सम्बन्धी सेवा का काम, अब मुझे ही करना होगा। [प्रसाद लेकर, अब वे उसमें से बिदामें चुग-चुगकर खाते हैं। यह मंज़र देखकर, दीनजी विस्मित होकर कहते हैं..]
दीनजी – यह क्या कर रहे हैं, मोहनजी ? आप अकेले ही ठोक रहे हैं, बिदामें ? फिर, रतनजी को क्या खिलाओगे ?
[मोहनजी टाळ-टाळकर बिदामें खाते जा रहे हैं, और रतनजी उन्हें जहरीली नज़रों से देखते जा रहे हैं।]
मोहनजी – [बिदामें पूरी खलास करके, कहते हैं] – आक थू..आक थू [फर्श पर थूकते हुए] पैसे भी खर्चे, और लाये नक़ली माल। ये कोई, बिदामें है..?
दीनजी – [आश्चर्य से, कहते हैं] – आप यह क्या कह रहे हैं, मोहनजी ?
मोहनजी – यह कहा जनाब, ये मोम की बिदामें नहीं है। मैं केवल खाता हूं, मोम की बिदामें। वह भी, संदीणा में डलवाकर। अभी इस बार भी सर्दी में, भागवान ने संदीणा के लड्डू तैयार किये हैं।
रतनजी – खर्रास मत बनिए, जनाब। झूठ बोलना, पाप है। मोम की बिदामों को छोडिये आप...घृत कुमारी काम लेकर, बनवाये होंगे संदीणा के लड्डू। इसलिए कहता हूं, थोडा राम को सर पर रखकर बोलिए, जनाब।
[रशीद भाई प्रसाद बांटकर वापस आ गए हैं, केबीन में। रतनजी की बात उनके कानों में पड़ते ही, वे बीच में बोलकर करने लगे परायी पंचायती।]
रशीद भाई – अब कौन बोल रहा है, झूठ। [रतनजी को देखते हुए] बोलो रतनजी, प्रसाद लिया या नहीं ?
[रशीद भाई को, रतनजी से किसी तरह का ज़वाब नहीं मिलता। तब वे, दीनजी से कहते हैं..]
रशीद भाई – सबको, बाल गोपाल का प्रसाद दे दिया गया। फ़िक्र मत कीजिये, सेणी भा’सा को भी मिल गया प्रसाद। [रतनजी की तरफ इशारा करते हुए, कहते हैं] जनाबे आली ने, प्रसाद ले लिया क्या ?
रतनजी – [बीच में बोलते हुए, गुस्से से कहते हैं] – प्रसाद ? कैसे लूं, यह प्रसाद..? यह बात आपको भी मालुम होनी चाहिये, के ‘मैं क्यों नहीं ले रहा हूं...? मगर भा’सा तो रह गये भोले, इनको आदमी की कोई पहचान नहीं ? बिदामें खिलायी, तो किसे ? खर को..
रशीद भाई – [उछलकर कहते है] – यह क्या कह दिया, आपने ?
रतनजी – [तेज़ी खाते हुए, कहते हैं] – कहा, और कहूंगा..मगर, आपको क्यों बताऊं ? यह बात, मैंने क्यों कही ? आपने सुना नहीं, या आप बहरे हैं ? भगवान ने दो कान मुझको भी दे रखे हैं, और आपको भी। उन कानों की खिड़कियां खोलने की तक़लीफ़ कीजिये जनाब, और सुन लीजिये एक बार और..के ‘भा’सा ने बिदामें खिलायी है, खर को..!’ समझ में, आया..?
[पड़ोस के केबीन में बैठे ओमजी उनके जुमले को सुनकर ठहाका लगाकर ज़ोर से हंसते हैं। फिर अपनी हंसी को रोकते हुए, जनाब कहते हैं..]
ओमजी की आवाज़ आती है – सच्च कहा रतनजी, काबुल में तो गधे बिदामें ही खाया करते हैं। इसलिए भा’सा ने, खर को बिदामें खिलाकर कोई गुनाह नहीं किया। [मोहनजी से कहते हुए] जनाबे आली मोहनजी, एक बात आपको कह देता हूं के “आपको कुछ भी, खिला दो..उससे ना तो होता है पाप, और न होता है पुण्य।”
तभी सीटी देती हुई मालानी-एक्सप्रेस, सामने के प्लेटफार्म पर आती हुई दिखायी देती है। जैसे ही गाड़ी रुकती है, गाड़ी बदलने के लिये यात्री उतरते दिखायी देते हैं। इन यात्रियों के आगे-आगे एक बेलदार गधों पर बजरी लादे, आता दिखायी देता है। अब ये गधे इस शयनान-डब्बे के काफ़ी नज़दीक आ चुके हैं, और उनका “ढेंचू-ढेंचू” का सुर गूंज़ने लगता हैं। उन गधों को देखते हुए, ओमजी कहते हैं..]
ओमजी – मोहनजी, तशरीफ़ ला रहे हैं..आपके, काबुल वाले बिरादर। नीचे उतरकर, मिल लीजिये उनसे।
[इनके जुमले को सुनकर, सभी ठहाके लगाकर ज़ोर से हंसते हैं। उधर मालानी एक्सप्रेस से उतरे यात्री इस डब्बे की तरफ़ आते दिखायी देते हैं, उनको रोकने के लिये टी.टी.ई. आस करणजी और किसनजी आकर खड़े हो जाते हैं..डब्बे के, दरवाज़े के पास। वहां खड़े आस करणजी चुप रहने वाले नहीं, वे हाथ हिलाते हुए ज़ोर-ज़ोर से उन लोगों को हिदायत देते हुए कह रहे हैं...]
आस करणजी – [हाथ हिला-हिलाकर, ज़ोर से कहते हैं] – ओल इंडिया..कोई नहीं आयेगा, यह डब्बा आरक्षित है..ओल इंडिया, कोई नहीं आयेगा..!
[तभी गाड़ी प्लेटफोर्म छोड़कर धीमे-धीमे आगे बढ़ती है, मगर अभी भी आस करणजी बोलते जा रहे हैं..वे, चुप होने वाले नहीं। आख़िर किसनजी, उनका हाथ थामकर कहते हैं..]
किसनजी – [हाथ थामकर, कहते हैं] – यहां से रुख्सत लीजिये, मालिक। अब ओल इंडिया ने, स्टेशन छोड़ दिया है..
आस करणजी – [होठों के नीचे ज़र्दा दबाकर, कहते हैं] – ठंडी हवा चल रही हैं, जनाब। थोड़ी हवा, खाने दीजिये ना..! काहे परेशान कर रहे हैं, आप ?
किसनजी – हवा ? अरे मालिक, यह हवा अपुन लोगों की खाने की चीज़ नहीं है। हवा तो हम लोगों को खिलाया करते हैं, जो गाड़ी में बेटिकट सफ़र करते हैं।
आस करणजी – फिर क्या खाये, मालकां ? मेरे भाणजे के मामी-ससुरसा, किसनजी मालक। आपसे हमारे दो क्या, तीन रिश्ते जुड़े हैं। मालकां, अब कुछ मीठा मुंह तो होना चाहिए...
किसनजी – मालकां, यही बात मैं आपको कह रहा था। अब सेणी भा’सा को साथ लेकर चलते हैं वातानुकूलित डब्बे में, वहां ताश भी खेलेंगे और साथ में खायेंगे अजमेर से लाया हुआ सोहन-हलुआ।
[तभी पाख़ाने का दरवाज़ा खोलकर, कानों में यज्ञोपवित डाले सेणी भा’सा बाहर आते हैं। फिर वाश-बेसिन के पास आकर अपने हाथ धोते हैं। हाथ धोने के बाद, कानों पर चढ़ायी हुई यज्ञोपवित को कानों से निकालकर उसे बनियान में डालते हैं..फिर वे कहते हैं..]
सेणी भा’सा – पगेलागूसा। भा’सा, खैरियत है ? इधर आपने याद किया मुझे, और यह शैतान हाज़िर हो गया हुज़ूर। फ़रमाइये जनाब, कौन-कौनसी मिठाइयां खिला रहे हैं आप-दोनों ?
किसनजी – ऐसी क्या बात है, सेणी भा’सा ? आपके आगे मिठाई क्या चीज़ है, मालकां ? आपको तो हम मिठाई से तौल दें, आख़िर आप हो हमारे काळज़े के टुकड़े। लीजिये सुनिये, अजमेर से मैं लेकर आया सोहन हलुआ..और आस करणजीसा मालक लेकर आये हैं, मथुरा के पेड़े।
सेणी भा’सा – वाह सा, वाह। क्या चीज़ लाये हैं, मालक ? मथुरा के पेड़े, बस यह ख़ास प्रसाद है जनाब..जो बाल गुपाल को, बड़े प्रेम से चढ़ाया जाता है। अब तो मालकां अपुन सब ज़रूर ठोकेंगे, प्रसाद।
आस करणजी – मालकां, अब बातें करने में वक़्त ख़राब मत कीजिये। चलिए वातानुकूलित डब्बे में, वहां ताश खेलेंगे और साथ में अरोगेंगे मिठाई।
[तीनों महानुभव वातानुकूलित डब्बे की तरफ़ जाते हुए दिखायी देते हैं, धीरे-धीरे पदचाप की आवाज़ सुनाई नहीं देती। मंच पर अंधेरा छा जाता है, थोड़ी देर बाद मंच वापस रोशन होता है और सामने शयनान डब्बे का मंज़र दिखायी देता है। केबीन में दयाल साहब अपनी सीट पर बैठे हैं, तभी उनके मोबाइल पर घंटी आती है। मोबाइल ओन करके वे उसे अपने कान के पास ले जाते हैं, और कहते हैं...]
दयाल साहब – [मोबाइल से बात करते हुए] – हल्लो। मैं दयाल बोल रहा हूं जी, आप साहब कौन..? [मोबाइल से आवाज़ आती है, उसे सुनकर वे झट खड़े हो जाते हैं] साहब नमस्कार, साहब नमस्कार। इस नाचीज़ को कैसे याद किया, हुज़ूर ?
[बड़े साहब की बात सुनकर, दयाल साहब का चेहरा कमल के फूल की तरह ख़िल जाता है। वे ख़ुश होकर, उनसे कहते हैं..]
दयाल साहब – [ख़ुश होकर कहते हैं] – शुक्रिया, जनाब हुक्रिया। हां जी...हां जी। अजी साहब, आपका हुक्म, सर आँखों पर। ....
[मोबाइल बंद होते ही, वे उसे अपनी ज़ेब में रख देते हैं। फिर वे ख़ुश होकर, पड़ोस के केबीन में अपने साथियों के पास जाने के लिए अपने क़दम बढ़ाते हैं। अब-तक इस केबीन में ओमजी भी पधार गए हैं, और वे भी गुफ़्तगू में शामिल हो गए हैं। दयाल साहब केबीन में आकर, दीनजी भा’सा से ख़ुश होकर कहते हैं....]
दयाल साहब – [ख़ुश होकर, कहते हैं] – भा’सा। कमाल हो गया, बाल गुपाल का प्रसाद इधर लिया...और उधर हो गया, कमाल।
मोहनजी – [व्यंग से भरा ताना देते हुए, कहते हैं] – यही हुआ होगा, आख़िर ? बगीचे में सांप या सम्पलोटिया निकलकर, सामने आ गया होगा ? और होना, क्या ?
दयाल साहब – [कड़े लब्जों में, कहते हैं] – सांप निकलेगा उसके घर, जो करेगा बुरे काम। सुनो, अभी बड़े साहब का फ़ोन आया..उन्होंने कहा है, मेरा तबादला जोधपुर हो गया है।
दीनजी – [ख़ुश होकर, कहते हैं] – बधाई हो, बधाई हो।
रशीद भाई – ऐसी खुशियां, सभी को मिले। हुज़ूर, आज़ तो बोवनी अच्छी हुई।
रतनजी - दयाल साहब, अब आपकी तरफ़ से मिठाई पक्की ?
ओमजी – मिठाई तो बाद में खा लेंगे, पहले जनाबे आली मोहनजी को संभालो। देखिये इस समाचार को सुनकर, इनका मुंह कैसा हो हो गया ? मानो, किसी ने इनके रुख़सारों पर धब्बीड़ करता थप्पड़ जमा दिया हो ?
मोहनजी – [गुस्से में कहते हैं] – सब बिक गए, साले। सभी बदमाश है, ठोकिरे कढ़ी खायोड़े। दो दिन पहले मैं जयपुर गया था, [भद्दी गाली की पर्ची निकालकर, बाद में आगे कहते हैं] इनकी मां की.....कमबख्तों को बहुत ऊंचा लिया, मगर ठोकिरा कढ़ी खायोड़ा..निकाले नहीं, मेरे ट्रांसफर आर्डर ?
रतनजी – साहब, आप दो दिन पहले ससुराल जाने की बात कह रहे थे ? ससुराल जाते-जाते जयपुर कैसे पहुंच गये, जनाब ?
रशीद भाई – रतनजी, साहब बिल्कुल सत्य कह रहे हैं। अब आपको जुम्मे रात के दिन की बात बताता हूं, सुनिये। बाद नमाज़ के वक़्त मेरे पास आया था, एक फ़ोन।
ओमजी – किसका फ़ोन आया, जनाब ? शायद, किसी रिश्तेदार का होगा ? और, किसका आ सकता है ?
रशीद भाई – संघ के सेक्रेटरी साहब का आया था, फ़ोन। [खीजते हुए कहते है] क्या आपके पास ही आ सकता है, संघ वालों के फ़ोन ? मेरे पास, नहीं आ सकते ? सुनो, उन्होंने कहा के ‘मोहनजी जयपुर आये थे हेड ऑफिस में, और सीधे आकर वे बड़े साहब से मिले और उनसे कहा..’
रतनजी – आख़िर मोहनजी करेंगे, क्या ? तेरी-मेरी शिकायतें, और क्या ? यानि, मोती पिरोकर आ गये...
मोहनजी – [उछलते हुए] – मैंने कुछ नहीं कहा, मुझ पर विशवास रखो, कढ़ी खायोड़ा।
रशीद भाई – [ज़ोर से कहते हैं] – आपने कैसे नहीं कहा, बड़े साहब से ? आपने यही कहा, ‘हम तीनों पाली, आराम से बैठे हैं...हमने चाहकर, पाली बदली करवायी। अब हम रेल गाड़ी में बैठकर आराम से, ठीक बारह या एक बजे पहुंच जाते हैं दफ़्तर..!’
रतनजी – फिर दफ़्तर में आकर ‘सबसे पहले पीते हैं चाय, वह भी मसाले वाली। उसके बाद टिफ़िन खोलकर गिटते हैं रोटियां। इतने में घड़ी में बज जाते हैं, दोपहर के दो या ढाई।’
ओमजी – फिर क्या ? ‘बैग उठाकर, पहुंच जाते हैं स्टेशन, जोधपुर जाने के लिये।’
दयाल साहब – [मुस्कराते हुए] – ‘गाड़ी आये जल्दी या देर से, मगर उसका इंतज़ार उतरीय पुल की सीढियों पर बैठकर करेंगे। यह इतनी बढ़िया जगह है, जहां बैठकर आराम से गुफ़्तगू कर सकते हैं। क्यंकि यहां इनको, कोई कहने वाला नहीं।’ क्यों मोहन लाल, मैं झूठ तो नहीं कह रहा हूं ?
मोहनजी – [आब-आब होते हुए] – कोई पूछ ले जनाब, के ‘दयाल साहब कैसे हैं ? तब ऐसे नहीं कहा जाता, के आप बीमार हैं..!’
दयाल साहब – अरे मोहन लाल, तू मुझे क्यों बीमार बना रहा है..कमबख़्त ?
मोहनजी – दयाल साहब, एक बार मेरी बात सुन लीजिये..मैं उदाहरण के तौर पर कह रहा हूं।
दयाल साहब – उदहारण पेश करना है तो, झट कर यार।
मोहनजी – तब सुनिए, हुज़ूर।बात यह है कि, ‘ऐसा कहने कहने से अगला हितेषी आदमी फ़िक्रमंद हो जाता है, इसलिए जनाब दयाल साहब आपके चंगे न होने पर भी कहना पड़ता है के ‘दयाल साहब, खैरियत से है।’ नहीं तो जनाब, अगले हितेषी को कितना दुःख...
ओमजी – [बात पूरी करते हुए] – हितेषी को कितना दुःख पहुंचेगा..इसलिए कहना पड़ता है, के वे ‘मज़े में है..ये सब पिकनिक मनाने पाली आते हैं।’ क्यों मोहनजी, यही बात कही आपने ?
मोहनजी – [मुस्कराते हुए, असली मुद्दे पर आ जाते हैं] – मेरे काम में, देर कैसे हो गयी ? ठोकिरा कढ़ी खायोड़ा, मरो कमबख्तों..! मैं ग़रीब आदमी कहां से लाऊं इतने रुपये ? रुपये होते तो मैं भी इन लोगों की तरह, इन अफ़सरों का मुंह भर देता नोटों से।
दयाल साहब – [क्रोधित होकर, कड़वे लफ्ज़ कह डालते हैं] – क्या कहता है, मोहन लाल ? ज़बान पर लगाम लगा, जब खारची बड़े साहब आते हैं तब तू उनसे कितनी बार मिलता है..बता अब ? बता मोहन लाल, तेरी दफ़्तर में कितनी साख है ?
मोहनजी – बहुत है, मेरी साख। ढेर सारी, जितनी धान की बोरियां अपने डिपो में नहीं है उससे ज्यादा मेरी साख है।
दयाल साहब – रहने दे, मोहन लाल। सभी अफ़सर जानते हैं, तुम क्या करते हो ? ‘लोगों की चुगली खाना’ हो गयी है, तुम्हारी आदत। जगह-जगह जाकर, तुम मेरी करते हो बुराई ? क्या, मुझे मालुम नहीं ?
मोहनजी – मैं क्यों खाऊंगा, आपकी चुगली ? रामा पीर की कसम, आपकी बुराई की हो तो..अगर की हो तो तो टूटे आपकी टांग, टूटे आपके हाथ..
रतनजी – [बीच में बात काटते हुए, कहते हैं] – अरे, ओ मोहनजी। ज़बान संभालकर, बात कीजिये [झट उछलकर समीप आते हैं] ऐसे बोलो, के ‘अगर बुराई की हो तो, टूटे मेरे घुटने टूटे मेरी टांग, टूटे मेरे..’
मोहनजी - [चेहरे पर मुस्कान लाते हुए, कहते हैं] – फिर आख़िर, मैं कह क्या रहा हूं ? [रतनजी की ओर उंगली करते हुए कहते हैं] आपके कहे अनुसार ही, कह रहा हूं। के ‘टूटे आपके घुटने, टूटे आपकी टांग, टूटे आपके...!’ अब बोलो, और कुछ कहना ?
रशीद भाई – [ज़ोर से कहते हैं] - चुप हो जाओ, रतनजी। चुप-चाप बैठ जाओ, अपनी सीट पर। [रतनजी को ज़बरदस्ती बैठाते हैं, उनकी सीट पर] मोहनजी जैसे विद्धवान, दानिशमंद जैसा आप इन्हें जानते हैं। आगे से सीख ले लो, मोहनजी जैसे महापुरुष को समझाना आपके वश में नहीं है।
ओमजी – [मुस्कराते हुए, कहते हैं] – ये ठहरे, महापुरुष। ऐसे महापुरुषों को क्या कहा जाता है, बताइये ? [गाते हुए कहते हैं] ‘मूर्ख को माला दीनी फेंकता फिरे रे, अज्ञानी को ज्ञान दिया कहता फिरे रे।’ [गंभीर होकर] मैं यह कहता हूं, के ‘मूर्ख को समझाना मुश्किल है, मगर मारना आसान है।’
[उनके इतना कहते ही, मोहनजी को छोड़कर सभी ज़ोर से ठहाके लगाकर हंसते हैं। उनके द्वारा लगाए जा रहे ये ठहाके, मोहनजी के लिए नाक़ाबिले-बर्दाश्त है। बस अब जनाबे आली मोहनजी, क्रोध के अंगारे उगलते दिखाई देते हैं। फिर क्या ? अब महापुरुष हाथ में जूत्ता लिये लपकते हैं, बेचारे ओमजी को पीटने।]
मोहनजी – [पांव से जूत्ता उतारकर, हाथ में लेते हैं] – ले बता भाई ओम प्रकाश। कौन है, मूर्ख ? आज़ तो मैं उसे पीटूंगा, ज़रूर.....बोल, ओम प्रकाश कौन है मूर्ख ?
[डरकर ओमजी दौड़ लगाते हैं, और पाख़ाने में घुसकर अपना बचाव कर लेते हैं। पीछे से दयाल साहब मुस्कराते हुए, कहते हैं..]
दयाल साहब – [मुस्कराते हुए] – ऐसी बात है, तो पीट ले अपना सर। लो मैं तो जाता हूं, मेरे जाने के बाद पीट लेना अपना सर। अब तो यहां रुकना, ख़तरे से ख़ाली नहीं। [दीनजी से कहते हैं] भा’सा, बाद में मिलूंगा। कल आओ तब, बालगुपाल का बीड़ा ज़रूर लेते आना। बस जाते वक़्त, मेरे शगुन अच्छे हो जायें...तो अच्छा रहे।
[इतना कहने के बाद, दयाल साहब झट घुस जाते हैं अपने केबीन के अन्दर। उनके जाने के बाद, थोड़ी देर तक श्मसान सी शान्ति छाई रहती है। मगर अब मोहनजी से बिना बोले रहा नहीं जाता, ऐसा लगता है ‘मानो जनाब के पिछवाड़े में, चुनिये काटते जा रहे हैं ?’ झट उठकर वे, खिड़की से मुंह बाहर निकालकर पीक थूकते हैं। फिर साथियों की तरफ़ मुंह करके, थूक उछालते हुए कहते हैं..]
मोहनजी – [थूक उछालते हुए, कहते हैं] – रशीद भाई कढ़ी खायोड़ा, मैंने कुछ ग़लत तो नहीं कह दिया..किसी को ?
[जहां होती हो, जूत्तों की बरसात ? वहां रशीद भाई चुप रहने में, अपनी समझदारी समझते हैं। बस, वे बेचारे चुप-चाप बैठ गये हैं। अब वे ना तो कुछ बोल रहे हैं, और ना वे उनकी तरफ़ देख रहे हैं। तब मोहनजी उनका मुंह खुलवाने के लिये, उनको पटाने की योजना बना डालते हैं..अब वे, उनसे कहते हैं।]
मोहनजी – मेरे हितेषी तो आप ही हो, रशीद भाई। यार कढ़ी खायोड़ा, कुछ तो बोलो यार। यों क्या, चुप-चाप गधे की तरह बैठ गए ?
रशीद भाई – [खीजते हुए, कह देते हैं] – मुझे गधा मत कहिये, जनाब। मुझे किसी को परेशान करना, आता नहीं। और न हूं मैं, आपका काबुल वाला बिरादर..
मोहनजी – कौनसा बिरादर ?
रशीद भाई – जनाब वही...जो ढेंचू-ढेंचू के, मीठे सुर में गाने वाला। अब आप एक बात अपने दिमाग़ में बैठा लीजिये, मैंने कढ़ी खायी नहीं है। मुझे बार-बार आप कढ़ी खायोड़ा कहकर, मेरा सर मत खाया करें।
[रशीद भाई के अनमोल वचन सुनकर, मोहनजी आश्चर्य चकित होकर रशीद भाई का चेहरा देखने लग जाते हैं। उनको इस तरह अपनी ओर ताकते देखकर, रशीद भाई झुंझलाते हुए कह देते हैं..]
रशीद भाई – [झुंझलाते हुए, कहते हैं] – मैं आपके जैसा खोड़ीला-खाम्पा नहीं हूं, और ना मुझको आती है आपकी तरह टोचराई करनी [पिंच करना]। मुझे तो सबसे मेल-मिलाप रखना पड़ता है, जनाब।
[इतने में केबीन की पछीत से उठकर, चंदूसा नीचे आते हैं...और आकर, रशीद भाई के पास वाली सीट पर बैठ जाते हैं। फिर वहां बैठकर, करने लगते हैं परायी पंचायती।]
चंदूसा – रशीद भाई, आपने बिल्कुल सच्च कहा है। आपको सबसे रसूख़ात रखना पड़ता है, क्योकि आप ठहरे मिलनसार। वैसे भी आपको, लोगों ने दे रखा है ख़िताब “सेवाभावी” का।
रतनजी – अरे चंदूसा, रशीद भाई का सेवाभाव गया तेल लेने। मिलनसार तो आप ख़ुद हैं, मिलनसारिता आपके चेहरे से झलकती है।
चंदूसा – मुझे तो आप लोग कहो ही मत, मिलनसार। इस मिलनसारिता को निभाते, हथाई पर बैठे वल्लभजी भा’सा की खैरियत पूछी। ये खोजबलिये यह सुनते ही ज्वालामुखी की तरह भड़क उठे, और भड़ककर कहने लगे..
रतनजी – ऐसा क्या बक दिया, जनाब ने ?
चंदूसा – भद्दी-भद्दी गालियां देते हुए कहने लगे ‘क्यों रे, मुझे क्या हुआ ? तूझे क्या मैं बीमार लगता हूं ? डोफा, तू चाहता क्या है, मैं बीमार पड़ जाऊं ? तू आकर मेरी सेवा करेगा, क्या ? कुतिया के ताऊ, आ गया यहां..नालायक, मां के..[भद्दी गालियों की पर्ची निकालते है] बड़ा आया तेल लगाने..भाग यहां से..’
[इतना सुनकर रशीद भाई अपनी हंसी दबा नहीं पाते, और वे ठहाके लगाकर ज़ोर से हंसते हैं। अब रशीद भाई का मुख कमल के फूल की तरह खिल जाता है। इनका मुख इस तरह खिला हुआ पाकर, चंदूसा कहते हैं..]
चंदूसा – लीजिये जनाब, अब रशीद भाई का मुख कमल के फूल की तरह ख़िल गया है।
रतनजी – [लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए, कहते हैं] – जनाब आप, क्या बात कह रहे हैं ? सच है, आज़कल यह कमल मुसलमानों को लुभाने लग गया है। इन मुसलमानों के थोक-बंद वोट, इस बार बी.जे.पी. को मिलने वाले हैं। [रशीद भाई से कहते हैं] क्यों रशीद भाई, सच कहा ना ?
रशीद भाई – [मुस्कराते हुए, कहते हैं] – बात तो सही है, तभी इनकी पार्टी के हाईकमान ने बना दिया है, मुझे..मोहल्ला-समिति का, अध्यक्ष। जनाब, अब आपको क्या कहूं ? ये कमबख़्त मोहल्ले वाले मेरा असली नाम भूलकर, अब मुझे कमल खां कहकर पुकारने लगे हैं।
मोहनजी – [रशीद भाई से थोडा दूर हटते हुए, कहते हैं] – धुर-धुर कादो-कीच। दूर हट रे, तेरे अन्दर से कीचड़ की बदबू आ रही है..कहां कीचड़ में लोट लगाकर आ गया, जानता नहीं कमल कीचड़ में खिलता है ? अब मुझे यहां से उठना ही होगा, छी छी..आ रही है, कीचड़ की बदबू..
रशीद भाई – क्यों दूर हटते हो, मोहनजी ? अभी-तक मैं कीचड़ से भरकर, आया नहीं हूं। मगर आपके पास बैठ गया, तो ज़रूर ‘मैं आपके द्वारा उछाले जा रहे थूक और ज़र्दे की बदबू से, ज़रूर वास जाऊंगा।’ इस कारण, मैं ख़ुद दूर हट जाता हूं। यह ज़र्दा व थूक तो जनाब, कीचड़ से...
रतनजी – [जुमला पूरा करते हुए] – कीचड़ से भी, ज्यादा बदबूदार है। अगर आप इस बदबूदार ज़र्दा व थूक से भर गए, तो सच्च कहता हूं रशीद भाई..मैं उठकर, किसी दूसरे केबीन में चला जाऊंगा। मैं आपके पास नहीं बैठूंगा, मुझे तो जनाब यह पिछवाड़े से छूटती हुई तोप और इस ज़र्दे की बदबू एकसी लगती है।
मोहनजी – [मुंह बिगाड़कर, कहते हैं] – चलिए, मैं ही चला जाता हूं। अब जाकर मैं, किसी दूसरे केबीन में बैठ जाऊंगा। फिर आप लोग मेरी नहीं, आप अपनी बदबू लेते रहना..बैठे-बैठे।
[केबीन का वातावरण ठीक हो जाने पर, ओमजी केबीन में पधार गए हैं और मोहनजी के नज़दीक आकर बिराज़ गए हैं।]
ओमजी – [नज़दीक आकर, मुस्कराते हुए कहते हैं] – नहीं जनाब, आप कैसे रुख्सत हो सकते हैं ? आप तो हमारे जीव की जड़ी हैं, कढ़ी खायोड़ा। कहिये, मैंने सच कहा या नहीं ?
[दोस्तों के बीच मोहनजी के सम्बन्ध मधुर रहते हैं, वे झट भूल गए हैं के “अभी वे पांव का जूत्ता लिए ओमजी को पीटने के लिए उतारू हुए थे ?’ इस कारण मोहनजी अपना तकिया कलाम “कढ़ी खायोड़ा” सुनकर, पुलकित हो उठते हैं। उनके चेहरे पर, मुस्कान छा जाती है। इतने में रशीद भाई, अलंकारी भाषा का प्रयोग करते हुए कहते हैं..]
रशीद भाई – आप और हम कैसे रह सकते हैं, अलग-अलग ? कभी पतंगा, शमा से दूर रह सकता है ?
चंदूसा – पतंगा शमा के पास जाकर, जलकर भस्म हो जाता है। क्या मोहनजी के योग, अब ऐसे ही आ गए हैं जलने के ? कुछ नहीं, जल गए तो मांग लेंगे ट्यूब अपने सेवाभावी रशीद भाई से। नहीं तो दीनजी भा’सा लेकर आ जायेंगे, डिसपेंसरी से यह बरनोल ट्यूब।
रतनजी – पैसे से ख़रीदी हुई चीज़, मोहनजी को अच्छी लगती नहीं। इसलिए भा’सा ज़रूर, सरकारी डिसपेंसरी से मुफ़्त में लेकर आ जायेंगे..बरनोल ट्यूब।
[अब मोहनजी सबके मुंह ताकने लगते हैं, वे समझ नहीं पाते..आख़िर माज़रा क्या है ? ये लोग मेरी तारीफ़ कर रहे हैं, या मेरी हंसी उड़ाते जा रहे हैं ? इतने में ओमजी, आग में घास का पूला डालते जैसे शब्दों में कह देते हैं..]
ओमजी – देखिये चंदूसा, मैं तो हूं शनि। ये रतनजी और रशीद भाई है, राहू और केतू। हम तीनों ग्रह अगर किसी आदमी को एक साथ लग जाये, तो चंदूसा उस अगले आदमी की क्या हालत होगी ? बस, आप पूछो ही मत। अब चंदूसा आप यह समझ लीजिये, हम ऐसे ही चिपकू ग्रह हैं के...
रशीद भाई – [मोहनजी की तरफ देखते हुए, कहते हैं] - साथ नहीं छोड़ते हैं, समझ गये मोहनजी ? आप जहां जायेंगे, हम तीनों ग्रह एक साथ आपके साथ पीछे-पीछे..समझ गए, मोहनजी ? आप जहां बदली करवाकर जायेंगे, हम भी आपके पीछे-पीछे...
मोहनजी – [झुंझलाते हुए, कहते हैं] – फिर चले जाइए आप भी जयपुर, क्यों चूकते हो ऐसा मौक़ा ? काट लीजिये जनाब, एक जयपुर का चक्कर। फिर इस ग़रीब को क्यों परेशान कर रहे हैं, यहां बैठकर ?
ओमजी – जयपुर जाना ज़रूर चाहते हैं, वहां जाकर सीधा मिलूं बड़े साहब से। मगर, करूं क्या ? अब उनको कहूं, क्या ?
रशीद भाई – मगर भाई, अब बाधा क्या है ? कहीं किसी खडूसिये ने चुगे हुए धान में, कंकर मिला दिये क्या ?
ओमजी – बात कुछ ऐसी ही है, कल ही मैंने युनियन के सक्रेटरी से फ़ोन पर बात की। उनसे कहा ‘भाई साहब, मेरी बदली जोधपुर करवा दीजिये ना। मगर ऐसा ज़वाब दिया उन्होंने, मेरी पूरी आशा ही समाप्त हो गयी।’ अब क्या बताऊं, आपको,? बात ऐसी है, ‘खीर बनायी जतन से, चरखा दिया जलाय। आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजा।’
चंदूसा – कुत्ता खा गया ? [आश्चर्य चकित होने का अभिनय करते हुए, कहते हैं] ऐसा है कौन, जनाब ? कोई खडूसिया आकर, कई महीनों की मेहनत पर पानी डाल गया ? आख़िर, ऐसा बलोकड़ा [ईर्ष्यालु] है कौन ?
[मोहनजी पर वहम करते हुए, सभी मोहनजी को देखते हैं...! उनको इस तरह विस्मित होकर देखते रहने से, मोहनजी अपनी हंसी दबा नहीं पाते..वे खिड़की से बाहर झांकते हुए, मींई मींई निम्बली की तरह हंसते जाते हैं। थोड़ी देर तक सन्नाटा छाया रहता है, फिर बिना बोले उनसे रहा नहीं जाता। अन्दर मुंह लेकर अब वे, ताना देते हुए कहते हैं..]
मोहनजी – आंखें तरेरकर क्यों मेणे की तरह देखते जा रहे हो, मुझे ? इसमें, मेरा क्या दोष ? आप लोग, बड़े चतुर निकले ? आप लोगों ने मुझे बिना बताये अपने तबादले का आवेदन, अग्रेषित करवाकर भिजवा दिये जयपुर ?
रतनजी – मोहनजी, क्यों झूठ बोलते जा रहे हैं आप ?
मोहनजी – चुप रहो, रतनजी। आप लोगों ने इतना भी मुझसे नहीं पूछा, के “मोहनजी, जोधपुर बदली करवाने की अर्जी आप कब भेज रहे हैं ?’ मगर आप कढ़ी खायोड़ो, आपने यह कैसे सोच लिया, के ‘यह मोहनजी तो है, पागल। इसे क्या पता पड़ता है, यदि हम लोग चुप-चाप जयपुर अपनी अर्जी भेजकर..ख़ुद-ख़ुद की बदली, करवा लें जोधपुर...?’
[इतना कहकर मोहनजी ज़र्दे को अपने होठ के नीचे दबाते हैं, फिर गम्भीर होकर आगे कहते हैं..]
मोहनजी – [गंभीर होकर कहते हैं] – अब आप लोग अपने दिमाग़ में यह बात बैठा लेना, के ‘यह मोहन लाल है, कुबदी नंबर एक। यह आपको इस तरह कैसे छोड़ सकता है, बिना अपना चमत्कार दिखाये ?’
ओमजी – अब यह बात बिल्कुल साफ़ हो गयी है, के ‘बिल्ली ना तो किसी को खाने देती है, और ना वह ख़ुद खाती है। मगर, चीज़ का सत्यानाश करके चली जाती है।’ इनके कारनामें के कारण, हमारा आवेदन-पत्र इस आपत्ति के साथ लौटकर आ गया के ‘आपका ठहराव पूरा हुआ नहीं, आवेदन वापस लौटाया जाता है।’
[ओमजी की बात सुनकर, मोहनजी ख़ुश हो जाते हैं के ‘अच्छा सबक मिल गया, इन लंगूरों को।’ बस, अब वे होंठों में ही मुस्कराते जा रहे हैं। उन तीनों की रोवणकाळी सूरत देखकर, उनका रोम-रोम पुलकित हो उठता है। तब, रतनजी उनके मुंह पर ही कह देते हैं..]
रतनजी – क्या करे, जनाब ? हमारा तो योग बना हुआ है आराम से बैठने का, मगर दफ़्तर में सारे दिन क्या करें ? आपके जैसे अफ़सर बैठे हैं, टोचराई करने वाले, जो आराम से बैठने देते नहीं।
रशीद भाई – इधर यह सरकार देती नहीं मास्क, उधर ये हितंगिये अफ़सर करते नहीं डिमांड। फिर क्या ? हम लोगों ने अपना मुंह बंद रखते हुए, चुप-चाप इस अस्थमा की बीमारी को मोल ले ली..!
रतनजी – आप अफ़सर लोग बैठे रहते हैं, कूलर के पास..ठंडी-ठंडी हवा खा रहे हैं। आपको, क्या पत्ता, आपके अधीनस्थ कर्मचारियों के क्या हाल है ? आप जैसे अफ़सर जीमते हैं, रावले। कभी बदन से पसीना निकालते कोई काम दफ़्तर में किया हो, तो आपको मालुम हो..के ‘आराम क्या चीज़ होती है..?’
मोहनजी – देखिये, रतनजी कढ़ी खायोड़ा। मुझे भी यह सरकार नहीं देती है, ऐसी सुविधा ? वह डी.एम. ख़ुद बैठा है, वातानुकूलित कमरे में और घुमता रहता है वातानुकूलित कारों में।
रतनजी – आप अपनी बात कीजिये, जनाब। कभी इस सुविधा लेने के लिये, आपने डी.एम. से कभी बात की या नहीं ?
मोहनजी – अरे यार क्या कहें उनसे, या उनके पास अपनी डिमांड रखें ? यहां तो उनका एक ही ज़वाब रहता है, के ‘बज़ट नहीं है।’ तब मैं आपकी तरह सवाल करता हूं, के ‘जनाब, आप बैठे हैं वातानुकूलित कमरे में। तब, बज़ट तो होगा ही ?’
रशीद भाई – जी हां, फिर उन्होंने क्या कहा ?
[मोहनजी खिड़की से मुंह बाहर निकालकर, पीक थूकते हैं। फिर मुंह अन्दर लाकर, आगे कहते हैं..]
मोहनजी – [होठ के नीचे ज़र्दा दबाकर, आगे कहते हैं] – होता क्या, वे ही ढाक के पत्ते तीन और क्या ? इन उच्च अधिकारियों में है कहां, इतनी ताकत..जो सुविधा दे सके ? सुविधा उपलब्ध कराने वालों में होता है, डेड बेंत का कलेजा। और साथ में रहना पड़ता है ईमानदार, बिल्कुल मेरे जैसा।
ओमजी - जी हां, आपने सही कहा। यह ईमानदारी का ठप्पा, आपके ऊपर ही लगा हुआ है।
मोहनजी – [ख़ुश होकर, आगे कहते हैं] – ठीक है, ओमजी कढ़ी खायोड़ा। मैं यही बात आपसे कह रहा था, इस ठप्पे के कारण ही मैं अलग़ से तला जा रहा हूं। यह सरकार तो रही भोली, ऐसे कुदीठ आदमियों को रोटी खाने के लिए यह नौकरी दी। मगर ये डोफे बहुत होशियार निकले, इस सरकार को घुण की तरह खोखली बना डाली।
रतनजी – उन लोगों में, आपकी भी गिनती होती होगी ? आप भी उनसे कम पड़ने वाले नहीं, उनसे आप चार क़दम आगे ही रहते होंगे ?
मोहनजी – रतनजी दफ़्तर के टाइम की ज़रूर करता हूं, चोरी। मगर इनकी तरह मैं करता नहीं, पैसे के घोटाले। आप तो जानते ही है, ये बातें..के “स्टोक में कभी धान की कमी आ जाती है, किसी लोस के कारण..”
रतनजी – फिर आप क्या करते हैं, जनाब ? स्टोक बराबर कैसे रखते हैं, आप
मोहनजी – झट ख़ुद के पैसे ख़र्च करके, बाज़ार से धान मंगवा लिया करता हूं। इस तरह मैं, पूरा एक्यूरेट स्टोक रख़ता हूं।’ इस आदत के कारण कढ़ी खायोड़ा, मैं घर फूंककर तमाशा देख़ता हूं।
रतनजी – [लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए, कहते हैं] – आप कैसे घर से भुगत सकते हैं, जनाब ? आप जैसे आदमी लूणी स्टेशन पर एक कप चाय नहीं पिला सकते, वे कैसे घर के पैसे ख़र्च करके लोस पूरा करेंगे ?
रशीद भाई – [मुस्कराते हुए मोहनजी का डायलोग, उनकी की आवाज़ में बोलते हैं] – आपको कैसे अच्छी लगती है, यह बासी चाय ? आपको मालुम नहीं, ये वेंडर क्या करते हैं ?
चंदूसा – [मोहनजी की आवाज़ में, उनका ही अधूरा जुमला बोलते हैं] – सूर्य नगरी एक्सप्रेस के आने के वक़्त जो चाय बनती है, उसी चाय को ये वेंडर दिन-भर काम में लेते हैं। अब ऐसी बासी चाय आपको पाकर, क्या आपको मारना है ? [अपनी आवाज़ में कहते हैं] जनाबे आली मोहनजी, क्या आप यही बात कहना चाहते हैं ?
रतनजी – मोहनजी आप चाय पिलाते हैं, तो बासी चाय भी पी लेंगे। मगर, कोई पिलाने वाला तो हो..? वह भी, प्रेम से पिलाने वाला ? यह तो आप भी जानते हैं, के...
चंदूसा – आपके कहने का मफ़हूम क्या है ?
रतनजी – यह कह रहा हूँ चंदूसा कि, ‘चबीना मैं चबा नहीं सकता। चूषने की कोई चीज़ हो तो चूष लूं, चाटने की कोई चीज़ हो तो चाट लूं। कोई भला आदमी साज़ बजा रहा हो, तो नाच लूंगा। और कोई काम कहो, वही कर लूंगा।’
ओमजी – जी हां, बस..कोई आर्डर मारने वाला आदमी, तो होना चाहिए ?
चंदूसा – चलिए, मैं आर्डर मरता हूँ, आप ज़रा नाचकर दिखलाइये।
रतनजी – इस रतन प्यारे का डांस मुफ़्त में देखने को नहीं मिलता, आप जैसे साहेबान नोटों की थैली ख़ाली करें तो, यह बन्दा कोई भी नृत्य हो प्रस्तुत कर सकता है। कहिये, तैयार हैं आप ?
ओमजी – नोटों की थैली खोलने...
[मगर, यह क्या ? चंदूसा की बोलती हो जाती है बंद, जेब में ढेर सारे नोट हो तो उनकी यह ज़ुबान खुले। अब रतनजी चुप रहने वाले कहाँ ? जनाब झट कह उठे..]
रतनजी – चलिए, चंदूसा तो आर्डर मारेंगे नहीं। अब मोहनजी से पूछ लिया जाय..हुज़ूर क्या आप तैयार हैं ? कहिये, हुज़ूर कहिये। जनाब दिल होना चाहिए, पैसे ख़र्च करने का। तब तो हम पी लेंगे पंद्रह दिन पुरानी लस्सी, जो फ्रिज में रखी हुई हो। कोई खिलाये रसगुल्ला तो वो भी खा लेंगे, चाहे उसमें खांड की चासनी डाली हुई हो।
ओमजी – कहीं जनाब, आप लूणी के रसगुल्लों की बात तो नहीं कह रहे हैं ?
रतनजी – और क्या ? कोई ऐसा सेवाभावी, तो होना चाहिये। मगर ये भले आदमी अब मुझे लोहे के चने चबाने की बात कहेंगे, जिसकी अब ताकत बदन में रही नहीं।
मोहनजी – [गंभीर होकर कहते हैं] – देखो भाई, मैं तो हूं ईमानदार अफ़सर। मेरी ऊपर की कमाई है नहीं, ज्यों आप कहते जाओ और मैं ख़र्च करता जाऊं। मुझे भी, अपने नन्हे बच्चों को पालना है। घर में एक-मात्र कमाने वाला हूं, मुझे कुछ हो गया तो मेरे बच्चों को कौन पालेगा ?
ओमजी – [मुंह नज़दीक लाते हुए, कहते हैं] - बात तो आपने सोलह आन्ने सही कही, क्योंकि रिटायर भी आप जल्दी होने वाले हैं।
मोहनजी – [मुंह से ज़र्दा और थूक उछालते हुए, कहते हैं] – बस यही कारण है, ओमजी कढ़ी खायोड़ा।
[ज़र्दा और थूक की बरसात से बचने के लिए, ओमजी झट अपना मुंह दूर ले जाते हैं..मगर, मोहनजी के क्या फर्क पड़ने वाला ? वे तो बोलते हुए, ज़र्दा और थूक उछालने में पीछे रहने वाले नहीं।]
मोहनजी – मुझे फ़िक्र है, कढ़ी खायोड़ा। रिटायर होने के बाद, मैं अपने छोटे-छोटे बच्चों को कैसे पालूंगा ? [खिड़की के बाहर पीक थूकते हैं] एक बात कह देता हूं, भले कुछ भी हो..मैंने कभी अपने सफ़ेद कपड़ो के ऊपर, भ्रष्टाचारी होने का दाग लगने नहीं दिया।
रशीद भाई – अरे साहब, आपने सफ़ेद कपड़े नहीं पहने हैं, बल्कि आपने काले रंग का सफारी सूट पहन रखा है। वह भी, लक्की नंबर एक।
ओमजी – अरे मालिक, क्या कहें ? काले वस्त्र के ऊपर कोई दाग लगता ही नहीं, कैसा भी दाग हो वो आसानी से छुपा लेता है। क्यों जनाब, बात सही कही या नहीं ?
मोहनजी – काले वस्त्र पहनने का मुझे कोई परहेज नहीं है, मेरे बाप कढ़ी खायोड़ो। क्योंकि काले तो ख़ुद श्रीकृष्ण भी है, कहते हैं आज़ भी वे वृन्दावन में राधाजी के संग विचरण करते हैं।
रतनजी – काले रंग का तो जनाब मींढा भी होता है, और वह साल में दो बार मूंडा जाता है। मगर आप ठहरे महापुरुष, साल में एक बार भी मूंडे नहीं जाते।
मोहनजी – यही बात मैं आपको समझा रहा था, कढ़ी खायोड़ा। अच्छा हुआ, आपने मुझे याद दिला दी। मेरे ऊपर के अफ़सर मुझे कहते हैं, “बोलिए प्रिंस मोहन लाल। क्या देते हो, मुझको ? जिसके एवज़ में, मैं तुम्हारे लिए लगा दूं कूलर ?”
रतनजी - और आगे क्या कहा, उन्होंने ?
मोहनजी – उन्होंने कहा, “बोलो मोहन लाल तुम कुछ हमारा ध्यान रखोगे, तो कूलर क्या बड़ी चीज़ है ? तुम्हारे कमरे को, वातानुकूलित बना दूंगा।”
रशीद भाई – बाद में, आगे क्या हुआ जनाब ?
मोहनजी - होना क्या, कढ़ी खायोड़ा ?‘ मैं अपने उज़ले-बुर्क वस्त्रों के ऊपर, कैसे दाग लगा दूं ? इनके लिए, क्यों मैं इन ठेकेदारों को परेशान करूं ?’ क्या याद नहीं है, तुम्हें ? अपुन जब, भगत की कोठी के डिपो में थे तब...
रशीद भाई – जनाब, हम तो भूल गए। आप वापस कहकर, याद दिला दीजिये।
मोहनजी – इस तरह अफ़सर लोग, मुझसे हो गए नाराज़। फिर, होना क्या ? इनके कोप से बचने के लिये, मुझे खारची डिपो में आपे-थापे बदली करवानी पड़ी। [दुखी होकर] ए रामा पीर, अब इस खारची से कैसे पीछा छूटेगा ? [ऊपर देखते हुए, हाथ जोड़कर कहते हैं] ओ मेरे रामसा पीर अजमालजी के कुंवर, अब मेरा क्या होगा ? कब होगी, मेरी बदली ?
[दिल-ए-दर्द अब आँखों में जा पहुंचा, मोहनजी का गला अवरुद्ध होने लगा..बस कसर एक ही बाकी रही, बस उनकी आँखों से आंसू नहीं गिरे। इतने में उन्हें हंसी का किल्लोर सुनायी देता है, मोहनजी सामने क्या देखते हैं ? सामने दयाल साहब आकर खड़े हो गए हैं, और वे हंसी के ठहाके लगाकर कह रहे हैं, के...]
दयाल साहब – [लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए, कहते हैं] – मोहन लाल सांई, अब रोकर अपना दिल मत दुखा। आख़िर रामा पीर ने सुन लिया, तेरा हेला [अरदास]। तेरे तबादले के आदेश, मेरे आदेश के साथ ही निकले हैं। बस, मैं तूझे कहना भूल गया था। अब तो तू रोज़ देखेगा, जोधपुर का क़िला।
[समाचार सुनते ही, मोहनजी का चेहरा कमल के फूल की तरह ख़िल जाता है। मगर, यहां बैठे रामापीर के भक्त “ओमजी”। वे जयकारा लगाने में, पीछे रहने वालों में नहीं। वे रामसा पीर को धोक देकर, ज़ोर से जयकारा लगाते हैं।]
ओमजी – [दोनों हाथ ऊपर ले जाते हुए, ज़ोर से कहते हैं] – बोलो रे, बोलो रामसा पीर की...
सभी – [ज़ोर से बोलते हैं] – जय हो। जय हो।
ओमजी – [हाथ जोड़कर, कहते हैं] – बाबा भली करे।
मोहनजी – [हाथ जोड़कर, कहते हैं] – बाबा सबका भला करे। जय बाबा की। [ओमजी से कहते हैं] ओमजी, आपका और मेरा प्रकरण एक समान है। क्योंकि, दोनों के रिटायरमेंट पास-पास है। कढ़ी खायोड़ा, अब आप भी जयपुर जाकर धोक देकर आ जाइये। सौ फीसदी, आपका काम हो जायेगा।
दयाल साहब – जी हां, मैं अभी यही कहने इधर आया..के ‘इस वक़्त उन लोगों के ही तबादले हो रहे हैं, जिनकी सेवानिवृति तिथि नज़दीक है।’ [मोहनजी से] क्यों मोहन लाल, सही कह रहा हूं या नहीं ? अब तो तू मेरे बगीचे में, सांप को नहीं बुलायेगा ? अब सबको पिला दे, चाय।
रतनजी – अब तो मोहनजी आपको पिलानी होगी मसाले वाली चाय, वह भी एम.एस.टी. कट।
[अब तो ऐसा मालुम हो रहा है, मोहनजी ख़ुश हो गए हैं और “वे झट ही पैसे ख़र्च करने के लिए, इन लोगों की शीशी में उतरने वाले हैं ?” बस, फिर क्या ? फटके से ज़ेब में हाथ डालकर निकाल लेते है, एक कड़का-कड़क नोट दस का। फिर उसे रशीद भाई को थमाते हुए, दानवीर कर्ण की तरह अलग से कहते हैं..]
मोहनजी – [नोट थमाते हुए, कहते हैं] – लो रशीद भाई, पिला दो सबको एम.एस.टी. कट मसाले वाली चाय।
[गाड़ी की रफ़्तार कम हो जाती है, सालावास स्टेशन आने पर गाड़ी रुक जाती है।]
रतनजी – [लबों पर मुस्कान छोड़ते हुए, कहते हैं] – लीजिये जनाब, आज़ भी मोहनजी ने सालावास जैसी ठौड़ पर आर्डर मारा है..के, लेकर आओ एम.एस.टी. कट चाय।
ओमजी - ठोकिरा, जहां चाय की दुकान को छोड़ यहां एक ढाबा भी नहीं..कहां से लायेगा अब यह चाय, यह आपका सेवाभावी...?
रशीद भाई – नोट कड़का-कड़क है, साहब का। बहुत दिनों से इनकी ज़ेब को गर्मी देता रहा, कुछ नहीं भाइयों, अपुन सब जोधपुर स्टेशन पर पी लेंगे चाय और कर लेंगे स्नेह-मिलन।
[अब कहीं, यह दुनिया का सातवां अचूम्भा दिखाई न दे जाय ? एम.एस.ती. गपास्टिक रेडियो यह ख़बर प्रसारित न कर दे, के “आज़ कंजूसों के उस्ताद मोहनजी ने सभी दोस्तों को चाय पिलाकर, कंजूसों के इतिहास में अपने नाम के आगे कालिख पोत दी है ?” कंजूसों की ज़ेब से पैसे निकलवाना, कोई आसान काम नहीं। बहुत कोशिशों के बाद इनकी ज़ेब से निकला है, यह नोट। अब इस कड़का-कड़क नोट को रशीद भाई देखते-देखते, होते जा रहे है चितबंगे। वे तो अपनी ज़ेब से उस नोट को, बार-बार निकालकर देखते जा रहे हैं। बस अब यही मौक़ा है, मोहनजी के लिये..नोट को, बाज़ की तरह झपटने का। बस, फिर क्या ? होशियार मोहनजी, अब यह मौक़ा कैसे चूकते ? जैसे ही रशीद भाई उस नोट को देखने के लिए, अपनी ज़ेब से निकालते हैं...तभी वे बाज़ के तरह, उस नोट पर झपाट्टा मारकर उनसे छीन लेते हैं। फिर नोट को अपनी ज़ेब के हवाला करके, वे मुस्कराते हुए कहते हैं..]
मोहनजी – [मुस्कराते हुए, कहते हैं] - अरे यार, क्या करते हो रशीद भाई कढ़ी खायोड़ा ? कम से कम जोधपुर स्टेशन नहीं आये तब-तक तो, इस ज़ेब को गरम रहने दीजिये।
[ढ़ाक के पत्ते वही तीन, कंजूस अपनी कंजूसी छोड़ नहीं सकता। बस मोहनजी ने कंजूसी का यह शानदार करिश्मा दिखलाकर, आखिर कंजूसों के इतिहास में कंजूसो का उस्ताद नामक ओहदे को बकरार रखा। यह मंज़र देखकर सभी, मोहनजी को खारी-खारी नज़रों से देखते जा रहे हैं। तभी मोहनजी मुस्कराते हुए, कहते हैं..]
मोहनजी – [मुस्कराते हुए कहते हैं] – क्यों मेणे की तरह मुझे देखते जा रहे हो, कढ़ी खायोड़ो ? कह दिया ना आप लोगों को, के ‘चाय पिला दूंगा।’ क्या अब, आप मेरी जान लेकर मुझे छोड़ोगे ? ख़ाली चाय ही, पीनी है आप लोगों को..?
ओमजी – जान क्या लेवें साहब, आपकी ? आप तो ऐसे आदमी हैं, जो केवल लेने में ही आगे रहते हैं। और देने में, रामजी का नाम। आपकी ज़ेब से पैसे निकलवाना, कोई आसान काम नहीं। ख़ुद को कोल्हू के बैल की जगह जुतवाकर तेल निकालना, और आपकी ज़ेब से पैसे निकलवाना दोनों बराबर है।
रशीद भाई – आप तो जोधपुर स्टेशन आते ही कह देंगे, के ‘आप लोगों को चाय पिला दी तो, फिर मेरे पास सिटी-बस का किराया भी नहीं बचेगा। फिर कढ़ी खायोड़ा, क्या आप मुझे पैदल घर भेजेंगे ?’
[इन लोगों के वार्तालाप से छिड़ी बहस से, इन लोगों की आवाज़ के सुर तेज़ होते जा रहे हैं। जिससे, पछीत पर सो रहे ‘छंगाणी साहब’ की नींद खुल जाती है। नींद के खुलते ही उन्हें याद आती है, उनकी “कलेजे की कोर” यानि ससुराल से आये जूत्ते। जिनकी वे बीसों पैबंद लगवाकर, वे उनकी उम्र बढाते जा रहे हैं। अब वे उन पर हाथ फेरकर तसल्ली कर लेते हैं, के ‘कोई खोडीला-खाम्पा यहां आया नहीं..जो टोचराई करता हुआ, उनके कलेज़े की कोर यानि जूत्तो को कहीं छुपाकर आ गया हो ?’ तसल्ली होने के बाद, वे बरबस बोल उठते हैं..]
छंगाणी साहब – [जूत्तो पर हाथ फेरते हुए, कहते हैं] – सलामत है, जय हो तापी बावड़ी वाले बालाजी की। बाबजी सा आपने सलामत रखे, मेरे जूत्ते। खम्मा घणी, मेरे बाबजी।
[इधर चंदूसा अंगड़ाई लेकर, उठते हैं। उठते ही वे छंगाणी साहब को जूत्तो पर हाथ फेरते देखकर, मुस्कराते हैं। उनकी बात को सुनते ही, वे छंगाणी साहब से कहते हैं..]
चंदूसा – संध्या आरती की वेला, आप क्यों जूत्तो पर हाथ लगा रहे हैं ?
छंगाणी साहब – [लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए, कहते हैं] – अरे चंदूसा, सावधानी रखनी पड़ती है। अभी-तक मेम साहब लाये नहीं, बाटा कंपनी के नए बूट।
[इतना कहकर छंगाणी साहब नीचे आकर, चंदूसा के पास बैठ जाते हैं। फिर, वे कहते हैं..]
छंगाणी साहब - वे कह रहे थे चंदूसा, के ‘बरसात के दिनों को जाने दीजिये, नहीं तो वे बूट ख़राब हो जायेंगे..इसलिए, बाद में खरीद लेंगे।’ बोलो चंदूसा, ठीक है ? बोलो, मैंने क्या कहा ?
चंदूसा – [ज़बरदस्ती हूंकारा भरते हुए, कहते हैं] – जी हां, जनाब आप कह रहे थे..के, बरसात के दिनों को जाने दीजिये। बाद में खरीद लेंगे, जूत्ते..नहीं तो, जूत्ते ख़राब हो जायेंगे।’ ठीक है जनाब, आप यही बात मेरे मुख से कहलाना चाहते थे ?
छंगाणी – ठीक है, चंदूसा। बाद में चंदूसा, मेम साहब ने ऐसे कहा...
[उन दोनों के बीच चल रही गुफ़्तगू मोहनजी के कानों को सुनायी दे जाती है, उस गुफ़्तगू को सुनकर मोहनजी ज़ोर से कहते हैं..]
मोहनजी – पहले जाकर लघु शंका का निवारण कर लीजिये, छंगाणी साहब। नहीं तो यह गाड़ी रवाना होने को है, फिर आप चेन पकड़े घुमते रहना ठौड़-ठौड़। अगर आप नहीं जाना चाहते हैं, तो बहुत ही अच्छा। चलो मैं जाकर आ जाऊं, युरीनल।
[छंगाणी साहब की, कहां है उठने की इच्छा ? जब एक बार मेम साहब का टोपिक चल जाय, उसके बाद वे कभी उसे अधूरा छोड़कर उठते नहीं। फिर क्या ? जनाबे आली छंगाणी साहब व्यस्त हो जाते हैं मेम साहब का पुराण सुनाने, और मोहनजी युरीनल की तरफ़ जाते दिखायी देते हैं। तभी सामने की पटरी पर, एक मालगाड़ी तेज़ी से गुज़रती हुई दिखायी देती है। युरीनल के नज़दीक वाले केबीन में, जुलिट अकेली बैठी दिखायी देती है। अब एक वृद्ध आदमी पुलिस के जवानों के साथ, इस केबीन में दाख़िल होता है। उसके पीछे-पीछे दो हट्टे-कट्टे सफ़ेद कपड़े पहने जवान, इस केबीन में दाख़िल होते हैं। जुलिट को देखते ही, वह वृद्ध आदमी उसके पास आकर बैठ जाता है। सफ़ेद कपड़े पहने जवान, युरीनल के नज़दीक जाकर खड़े हो जाते हैं। और वहां खड़े-खड़े इधर-उधर निगाहें डालकर तसल्ली कर रहे हैं, के ‘कोई व्यक्ति, इधर आ तो नहीं रहा है ?’ गाड़ी चल देती है। अब वह वृद्ध आदमी, जुलिट से बात करता हुआ दिखायी देता है।]
जुलिट – मैं सच कहती हूं, उनके साथ मेरा कोई सम्बन्ध नहीं। आख़िर तुमने ऐसी गंदी बात, अपने दिमाग़ में सोच भी कैसे ली ? तुम्हारा दिमाग़, क्या घास चरने गया है ? छोटी सी बात समझ नहीं पाते, के “एक रोगी और नर्स के बीच, क्या रिश्ता होता है ?” ख़ाक...भाड़ झोंकी, इस सी.आई.डी. महकमें में आकर।
वृद्ध – मैं जब तक पूरी जांच-पड़ताल नहीं कर लूं, जुलिट...तब-तक मैं, तुम पर कैसे भरोसा करूं ? अब क्या कहूं, जुलिट ? रेलगाड़ियों में घुमते-फिरते, मैं कई उल्टी-सीधी बातें सुनता आया हूं..तुम्हारे बारे में। मगर...
जुलिट – [बात काटती हुई, कहती है] – तुम इतना भी नहीं जानते, या जानना नहीं चाहते ? निरे उल्लू ठहरे, तुम। एक सेवाभावी नर्स को, मां, बहन, भुआ, भतीजी वगैरा सभी के रोल, निभाने पड़ते हैं, ताकि वह मरीज़ के अन्दर जीने की ख्वाहिश पैदा कर सके। उस मरीज़ में आत्म-बल पैदा हो सके, जिससे वह बीमारी से लड़ने की ताकत को..वह अपने अन्दर, जुटा सके।
वृद्ध – वाह जुलिट, वाह। तूने तो नर्सिंग ट्रेनिंग करने के साथ-साथ, अभिनय-कौशलता भी हासिल कर ली है ? अब तूझे समझना, कोई आसन काम नहीं रहा।
जुलिट – चुप रहो, पहले बात पूरी सुन लिया करो। तुम नहीं जानते नर्स का कर्तव्य है, वह रोगी के ऊपर प्रेम बरसाकर पहले उसकी पीड़ा कम कर दे। जिससे उस रोगी में, बीमारी से लड़ने की शक्ति आ जाय। जिसके लिये..
वृद्ध – और, कुछ कहना ?
जुलिट – सुन लीजिये, एक बार। बार-बार, कहूंगी नहीं। अपना-पन या सात्वना के, दो बोल ही काफ़ी है। जनाब फिर, ऐसा मैंने क्या कर डाला..? एक ट्यूब ही मसली है, मैंने। बोलिये, ऐसा कौनसा ग़लत काम कर डाला मैंने ?
[किसी के द्वारा उसके ऊपर झूठे आरोप थोप दिए जाना, जुलिट के लिये तक़लीफ़देह बन जाता है। जो उसके लिये, नाक़ाबिले-बर्दाश्त है। दुःख के मारे उसके नयनों में आंसू आकर रुक जाते हैं, तभी उसे युरीनल से बाहर निकलते हुए मोहनजी दिखायी दे जाते हैं। उनको देखते ही वह, उन्हें ज़ोर से आवाज़ देकर कहती है..]
जुलिट – [ज़ोर से आवाज़ देती हुई, कहती है] – ओ मोहनजी, इधर आकर समझाओ इन्हें..आपका और मेरे बीच, क्या रिश्ता है ?
[कोई ग़लती नहीं होने के बाद भी, इतने सारे आरोप..? अब सहन करने की ताकत, जुलिट के अन्दर नहीं रहती। बेचारी, फफक-फफककर रोती जा रही है। उसकी यह हालत देखकर, मोहनजी को उस पर रहम आने लगा। यह मंज़र देखकर, वे ख़ुद दुखी हो जाते हैं। वाश-बेसिन के पास जाकर हाथ धोते हैं, फिर आकर जुलिट के सामने वाली सीट पर बैठ जाते हैं। अब वे उसके सर पर हाथ फेरकर, उसको समझाते हुए कहते हैं..]
मोहनजी – [सर पर हाथ फेरते हुए, कहते हैं] – बोल बेटी, क्या बात है ? यह बुढ़ऊ, तूझे क्यों परेशान करता जा रहा है ?
[उसके बोलने के पहले, गीत गाने वाला एक मंगता डफली बजाता हुआ केबीन में दाख़िल होता है। उसके दर्द भरे सुर, जुलिट के कानों में गिरते हैं। जिससे उसके दिल का दर्द बढ़ता जाता है, वह भूला नहीं पाती के “इस वृद्ध ने उस पर, झूठा आरोप कैसे लगा दिया ?” उधर मोहनजी, उस मंगते के गाये जा रहे दर्दीले गीत का मर्म समझते जा रहे हैं।]
गीत गाने वाला मंगता – [डफली बजाता हुआ, गाता है] – औरत ने जन्म दिया, मर्दों को। मर्दों ने, उसको बाज़ार दिया। जब चाहा कुचला मचला, जब चाहा दुतकार दिया..
[बैग से पैसे निकालकर, जुलिट उस मंगते को देती है। पैसे लेकर, वह मंगता दूसरे केबीन में चला जाता है। उसके जाने के बाद, मोहनजी जुलिट को समझाते हैं...]
मोहनजी – [जुलिट को समझाते हुए, कहते हैं] – तू बोल बेटा, एक बाप और बेटी के बीच क्या रिश्ता होता है ? तू मेरी बेटी सरीखी है। मगर यह बोल, तू यह बात क्यों पूछ रही है मुझे ? [उस वृद्ध की ओर देखते हुए, कहते हैं] तू बोल भाई, तू क्यों कर रहा है तंग..इस बाई को ?
वृद्ध – [लबों पर मुस्कान बिखेरता हुआ, कहता है] – ग़लती हो गयी, अब आगे से तंग नहीं करूंगा।
[दिलासा पाकर, जुलिट फफक-फफककर रोने लगती है। मोहनजी उसके आंसू पोंछकर, उसे दिलासा देते हुए समझाते हैं..]
मोहनजी – [जुलिट को समझाते हुए, कहते हैं] – ए जुलिट बाई। इस दुनिया के लोग ठहरे, स्वार्थ के पुतले। यह समाज, इन मर्दों को कुछ नहीं कहता। जब चाहे ये मर्द किसी भी बाड़ में जाकर, मूतकर वापस आ सकते हैं। मगर औरतों की छोटी-छोटी बातों को, राई का पहाड़ बनाकर...उनकी बदनामी का ठीकरा, उनके सर फोड़ते आये हैं।
[जुलिट दिलासा पाकर सामने बैठे मोहनजी की तरफ़ देखती है, मोहनजी आगे कहते हैं]
मोहनजी – इन मर्दों को उनकी ग़लती का अहसास, कराने के लिए कभी कोई समाज का बन्दा अपने क़दम आगे नहीं बढ़ाता। यह समाज, मर्दों को उनके जन्म से यही सिखाता आया है के “औरत तुम्हारे पांव की, पगरखी है..”
वृद्ध – [आश्चर्य से सवाल करता है] – पगरखी ? समझ में नहीं आ रहा है, आप क्या कह रहे हैं ?
मोहनजी – कान खोलकर पहले सुना कर, खोटी आदत पड़ गयी तेरी बीच में बक-बक करने की ? सुन..पगरखी का मफ़हूम है, जूत्ती। देखा जाय, इन पुरुषों के आदर्श ठहरे भगवान राम। उन्होंने अपनी जीवन संगिनी पर विश्वास नहीं किया, धोबी के कहने पर सावत्री जैसी अपनी जीवन-संगिनी के चरित्र पर आरोप लगाकर उसे महलों से बाहर कर दिया। इस घटना के पहले, इन्होने....
जुलिट – [रोवणकाळी आवाज़ में, पूछती है] – क्या किया, जनाब ?
मोहनजी – लोगों को दिखाने के लिए, बेचारी जीवित सीता को जलती चिता पर बैठाकर उसकी अग्नि-परीक्षा ली।
जुलिट – आग के लिए कोई सगा नहीं, वह तो केवल जलाने का ही काम करती है।
मोहनजी – अब मैं आपको यह समझाना चाहता हूं, के ‘अग्नि-परीक्षा लेने के बाद उसे पवित्र मान लिया गया, फिर लोगों को दिखाने के लिए उसे महलों से बाहर निकालने की कहां ज़रूरत थी ?’ क्या कहूं, जुलिट बाईसा ? उस वक़्त वह, गर्भवती अलग से थी।
वृद्ध – गर्भवती औरत को इस तरह बाहर निकालना, क्या मानवता है ?
जुलिट – [वृद्ध की तरफ़ देखती हुई, कहती हैं] – अरे जनाब, पहले मोहनजी की बात को पूरी होने दें। [मोहनजी की तरफ़ देखती हुई कहती है] जादूगर जादू का खेल दिखलाता है, तब सभी खड़े तमाशबीन ख़ुश होकर तालियां पीटते हैं। मगर मोहनजी, कोई तमाशबीन उस जादूगर का भक्त नहीं बनता।
मोहनजी – जुलिट बाईसा, अब आगे कहिये।
जुलिट – यही खेल जब कोई धर्म से जुड़ा कोई व्यक्ति दिखला देता है, तब उसके आस-पास इन भक्तों का मज़मा एकत्रित हो जाता है। फिर, क्या जनाब ? उसके दिखाये गए खेल को ये भक्त, चमत्कार मानकर उस व्यक्ति को भगवान का दर्जा दे डालते हैं।
[इतने में एक वह युरीनल के निकट खड़ा सफेदपोश पुलिस वाला, इस चल रही चर्चा के बीच में बोल जाता है..]
पुलिस वाला – बड़े लोगों की बड़ी बातें होती है, जनाब। धर्म-ग्रंथों में यह लिखा हुआ है, के ‘राजा ईश्वर का रूप होता है..अब आप यह सोचिये, के रामजी ठहरे राजा। किसकी मां ने अजमा खाया है, जो राजा को कुछ कह सके ? मगर यहां तो बात ही कुछ अलग लगती है, उनके धाम पधारने के बाद भी इनके भक्त इनकी महिमा का बखान करते आ रहे हैं।’
वृद्ध – अरे खोजबलिया, तू आख़िर कहना क्या चाहता है ? वही बात कहा कर, क्यों गुड़ में लपेटकर बात को परोस रहा है माता के दीने ?
पुलिस वाला – मैं यह कहना चाहता हूं, जनाब। अब चाहे देश में प्रजातंत्र का राज़ है, मगर इन धर्म-कर्म वाले कट्टरपंथियों पर कोई लगाम कसी नहीं जा सकती। अब आप इधर बोल रहे हैं, और उधर ये भगवा पंथी राज़नैतिक दल वाले और इनके सम्बन्धी संगठन के कार्यकर्ता आकर आपके माली-पनां उतार सकते हैं। तब उस वक़्त, आपको बचाने वाला यहां कोई नहीं आयेगा।
वृद्ध – देख चम्पा लाल, हमारा देश लोकतांत्रिक गण राज्य है। यहां सबको बोलने की आज़ादी है रे, डोफा। इनको भी, अपनी तकरीर रखने का पूरा हक़ है। तू इनको, भयभीत मत कर।
मोहनजी – यह बात है, तो फिर सुन लीजिये मेरी तकरीर। मैं कह रहा था, के महिमा बखान करती-करती इस प्रजा ने उनको बना डाला है भगवान। अब आप ही सोचिये, ये महाशय ठहरे शक्तिशाली और साधन-सम्पन्न आदमी। उस वक़्त इनके खिलाफ़ कोई बात, अपने मुंह से बाहर निकालनी इतनी सहज नहीं थी।
वृद्ध – आपकी बात सही साबित हो सकती है, जनाब। आख़िर, किसी की हिम्मत कैसे होगी राजा के विरुद्ध बोलने की। अब आप, आगे कहिये।
मोहनजी – रामजी इस बात को, अपने कानों में नहीं डाली होगी ? के ‘इस वाकया का असर, उनकी प्रजा और उनके भक्तों के ऊपर कैसा रहेगा ?’ बस वे तो स्वर्ग में बैठे-बैठे, अपना गुण-गान करवाते जा रहे हैं।
वृद्ध - उनके पद-चिन्हों पर, आज़ भी उनकी प्रजा व उनके भक्त चल रहे हैं। उन्होंने कहीं स्पष्ट नहीं किया, क्या गर्भवती पत्नी का त्याग करना न्यायसंगत है या नहीं ?
[कह तो डाला उस वृद्ध ने, मगर उसके दिल में उथल-पुथल मचने लगी। आज़कल अग्निरोधक वस्त्र पहनकर, अग्निकर्मी आग से अपना बचाव कर लिया करते हैं। ऐसा माना जा सकता है, उस युग में भी सीता के पास ऐसे ही वस्त्र थे। लंका जाने के पहले, उसने अग्निरोधक वस्त्र पहन रखे थे। ऐसे वस्त्र उसे, सती अनुसूया से मिले थे। इसका प्रमाण, वाल्मीकि रामायण में मिलता है। ऐसे वस्त्रों को देते वक़्त सती अनुसूया ने सीता से कहा था, के ‘इन वस्त्रों पर मैल चढ़ना तो क्या, इन पर आग और जल का भी असर नहीं होता।’ लंका विजय करने के बाद रामजी ने सीता की अग्नि-परीक्षा ली, तब उस वक़्त सीता के जलने का सवाल ही पैदा नहीं होता। क्योंकि उस वक़्त उसने, सती अनुसूया के दिए अग्निरोधक वस्त्र पहन रखे थे। इस तरह रामजी ने उपस्थित लोगों को एक जादूग़र की तरह जादू का खेल ही दिखाया था। जो वास्तव में, चमत्कार नहीं था। आज़ भी लोग, कई धार्मिक साधुओं को चमत्कारी मानकर उन्हें ईश्वर का दर्जा देते आये हैं..वे भी केवल इस तरह के, जादू के खेल ही दिखाया करते हैं। अपनी कमीज़ की बाहों में वस्तुओं को छिपाए रखते हैं, और हाथ की सफ़ाई का प्रयोग करते हुए वे अपनी हथेली पर उन वस्तुओं को प्रगट करते हैं। इस तरह इस जादू के खेल को ये भक्त चमत्कार मानकर, प्रभावित हो जाते हैं। ये भोले भक्त इतने प्रभावित हो जाते हैं, के झट ‘वे इनको भगवान का दर्जा दे देते हैं।’ इसके प्रत्यक्ष उदाहरण स्वयं सत्य सांईबाबा थे, जो इस तरह के जादू के खेल अपने भक्तों के समक्ष प्रदर्शित करते थे। कभी वे हथेली पर भभूत प्रकट करते, तो कभी वे शिव लिंग। मध्य काल में चिता पर, सतियों को जलाये जाने के कई चित्र चित्रकारों ने उपलब्ध करवाये हैं, जिनमें कहीं सती अपने मृत पति को गोद में लिए चिता पर बैठी है। सतियों के मंदिरों में ऐसी कई सतियों की मूरत या चित्र मौज़ूद है, जहां सती अपने मृत पति को गोद में लिए जल रही है। मगर ये चित्र या मूरत वास्तविकता नहीं दर्शाते, जबकि सत्य यह है “उस वक़्त स्वार्थी धर्म के ठेकेदार, इन औरतों को अफ़ीम के प्याले पिला देते। जिससे नशे की अवस्था में, उन्हें जलने का भान नहीं होता। फिर इन अबला औरतों को ऐसी अवस्था में, जला दिया जाता। उस काल के कई चित्रकारों ने ऐसे भी चित्र उपलब्ध करवाए हैं, जिनमें चिता पर बैठी औरत को अक्समात चेतना आ जाती..तब वह जलने का विरोध करती हुई, चिता से उठने का प्रयास करती। मगर उस दौरान, ये धर्म के ठेकेदार चारों तरफ ज़ोर-ज़ोर से ढोल बजवा दिया करते। जिससे उन अबलाओं की आवाज़, उपस्थित लोगों को सुनायी नहीं देती। ऐसी अवस्था में कई बार ये धर्म के ठेकेदार, चिता के चारों ओर अपने आदमियों को खड़ा करके ऐसा घेरा तैयार कर देते, जिससे उपस्थित जन-समुदाय इस चिता को देख नहीं पाता। फिर ये लोग चेतन हुई इन अबलाओं को लाठियों से पीट-पीटकर, वापस उन्हें चिता की तरफ़ धकेल देते। ऐसे अमानवीय लोमहर्षक कांडों को देखकर, राजा राममोहन राय ने प्रयास करके सती-प्रथा समाप्त करने का क़ानून पार्लियामेंट से पारित करवाया। इसके बाद अब उस वृद्ध की आँखों के आगे आधुनिक काल में, दहेज़ के नाम से जलायी जा रही अबलाओं के चित्र फिल्म की तरह सामने आते हैं। अब यह वृद्ध समझ नहीं पा रहा है, आज़ भी कन्या भ्रूणहत्या के प्रकरण बराबर सामने क्यों आ रहे हैं ? न तो जनता में जागृति पैदा हो रही है, और ना सरकार इन हत्याओं को रोकने के लिए कोई ठोस क़दम उठा पा रही है ? लोगों को वंश चलाने के लिए पुत्र की ज़रूरत बनी रहती है, इस कारण लड़की के कुदीठ ससुराल वाले गर्भवती बहू का अवैधानिक तरीके से भ्रूण परीक्षा करवा लेते हैं। और कन्या भ्रूण होने पर, वे लोग इस गर्भवती बहू को दवाइयां देकर उसका गर्भपात करवा देते हैं। इस तरह पैदा होने वाली कन्या को जन्म से पहले ही, उसे मार दिया जाता है। चाहे पौराणिक काल में औरत को देवी का रूप प्रदान किया गया है, मगर वास्तविकता यह है कि ‘समाज में आज़ भी उसे, मर्द के पांव की जूत्ती ही समझता आ रहा है। जूत्तियां पुरानी पड़ने पर बदल दी जाती है, उसी तरह औरत के पुत्रवती न होने पर..मर्द नयी शादी करके, अपनी पहली औरत की स्थिति नौकरानी से बदतर बना देता है। कई बार किसी विधवा या किसी बुढ़िया की सम्पति हड़पने के लिए, ये समाज के ठेकेदार साजिश करके उसे डायन घोषित कर देते हैं। फिर उसे, मार-पीटकर जला डालते हैं..या उसे गाँव की सीमा से बाहर, खदेड़ देते हैं।’ ऐसे किस्सों के कई चित्र, वृद्ध के मानस-पटल पर छा जाते हैं। अब वह वृद्ध समझ नहीं पा रहा है, एक तरफ़ नारी को देवी या लक्ष्मी समझा जाता है, और दूसरी तरफ़ उसे समाज अपनी स्वार्थ-पूर्ति के लिये उसे डायन घोषित करके उस पर नाना प्रकार के जुल्म ढाह देता है..इस समाज का यह दो तरफ़ा व्यवहार, वृद्ध के लिए समझ पाना मुश्किल हो जाता है। वह यह भी समझ नहीं पा रहा है, एक तरफ़ ये राज़ नेता सती-प्रथा का विरोध करते हैं और दूसरी तरफ़ सतियों के स्मारक पर जाकर अपना सर झुकाकर महिमा-मंडन करने का ग़लत काम कर बैठते हैं। समाज के लोगों का यह दोहरा व्यवहार, समाज के पतन का कारण बनता जा रहा है। इन वाकयों के बारे में सोचता हुआ, वह वृद्ध ग़मगीन हो जाता है। उधर तकरीर पेश कर रहे मोहनजी का गला, ग़म से अवरुद्ध हो जाता है। उनके ख़ुद की आँखों के आगे, तीन-तीन शादियां रचाने के सारे वाकये छा जाते हैं। बस शादियां रचाते वक़्त उनका एक ही विचार रहा, “किसी तरह, उनके वंश को चलाने वाले पुत्र का जन्म हो।” ख़ानदान को आगे चलाना बहुत ज़रूरी है, इस मत को मानते हुए वारिस पैदा करने के लिये उनको तीन शादियां करनी पड़ी..वे भी कम थी, उनके विचार के अनुसार। इनकी पहली पत्नी बिना बच्चे पैदा किये रामजी के घर चली गयी, बच्चे पैदा न होने पर दूसरी को इन्होने छोड़ दी। बाद में तीसरी लाडी बाई से ब्याव किया, वह बहुत ज्यादा सुन्दर है। इस लाडी बाई ने, इनके ख़ानदान-ए-चिराग़ “गीगले” को जन्म दिया। इस तरह अब, लाडी बाई का दर्ज़ा बढ़ जाता है। वे अपने कलेज़े के टुकड़े की तरह, लाडी बाई से प्यार करते हैं। भले इन दोनों के मध्य उमर का फासला, बहुत ज़्यादा है। मगर मोहनजी लाडी बाई को, अपने कलेज़े की कोर की तरह रखते हैं। वह जितनी ख़ूबसूरत है, उतनी ही ख़ूबसूरत जुलिट है। लाडी बाई से मोहनजी इतनी प्रीत करते हैं, उसके आगे समुन्द्र का पानी भी कम है। मोहनजी जब कभी किसी ख़ूबसूरत नारी को देखते हैं, उसी वक़्त इनकी आँखों के आगे लाडी बाई का चित्र छा जाता है..और वे तुरंत लाडी बाई से मिलने को, आतुर हो जाते हैं...! के ‘कितनी जल्दी घर जाकर, लाडी बाई से मिले ?’ अब उनके सामने यह प्रश्न पैदा होता है, ‘यदि लाडी बाई बदसूरत होती तो, क्या मोहनजी उनसे इतना प्यार करते या नहीं ?’ अब वह वृद्ध मोहनजी के चेहरे को देख़ता हुआ, उनके मन के भावों को पढ़ने की कोशिश करता जा रहा है। और साथ में वह, मुस्कराता भी जा रहा है। अचानक वह, उनके कंधे पर अपना हाथ रख देता है। बाद में चेहरे पर लगी नक़ली दाढ़ी [रीश] और मूंछ हटाकर, अलग से गुलाबा हिज़ड़ा की आवाज़ निकालता हुआ कहता है..]
वृद्ध – [गुलाबा हिज़डा की आवाज़ निकालता हुआ, कहता है] – कहां खो गए, मेरे मोहन लाल सेठ ? मुझे पहचाना, या नहीं ?
[मोहनजी चमकते हैं, और उस वृद्ध की आवाज़ को वे पहचान जाते हैं। इस आवाज़ को सुनकर, उनकी विचारों की कड़ियां टूट जाती है। उस वृद्ध को देखते ही, वे ख़ुद ज़ोर से ठहाका लगाकर हंस पड़ते हैं। वे हंसते-हंसते, कहते हैं..]
मोहनजी – [हंसते-हंसते, कहते हैं] – अर रSS र र रेSS, ठोकिरा कढ़ी खायोड़ा। तू तो गुलाबो हिज़डा निकला। मेरी झूठी शिकायत करने वाला, कमबख़्त तूने मुझे हवालात में कैसे बैठा दिया ? अब ठोकिरा मैं तूझे ऐसा फोडूंगा, सात जन्म तक तूझे याद रहेगी मेरी पिटाई।
[बाएं पांव में पहने जूत्ते को बाहर निकालकर, वे अपने हाथ में लेते हैं। मगर वह गुलाबा हिज़डा, यानी गुलाब सिंह रहता है..सावधान। झट उनके हाथ से जूत्ता छीनकर, गुलाबा यानि गुलाब सिंह कहता है]
गुलाबो – [मोहनजी का हाथ पकड़कर, कहता है] – हां रे, मोहन लाल सेठ। मैं गुलाबा ही हूं। और मैं सी.आई.डी. इंस्पेक्टर, गुलाब सिंह भी हूं। समझ गये, मालिक ? हम लोगों को कई बार, हिज़ड़ों जैसे अनचाहे रोल भी करने होते हैं। क्योकि, आख़िर हम लोगों को करनी है..अपने देश की सेवा।
[मोहनजी अब अपने बाएं पांव में, वापस जूत्ता पहन लेते हैं। उधर गुलाब सिंह ज़ेब से अपना परिचय-पत्र निकालकर, मोहनजी को थमा देते हैं। फिर कहते हैं..]
गुलाब सिंह – [परिचय-पत्र थमाते हुए, कहते हैं] - लीजिये मालिक, अच्छी तरह से देख लीजिये इस परिचय-पत्र को। हम लोगों के कारण ही, आपको ढेरों तक़लीफ़ें देखनी पड़ी। मगर, हम करते क्या ? मज़बूर थे, जनाब। हमें इतला मिली, के ‘चपकू गैंग आपका अपहरण करने वाली है।’ फिर, क्या ?
मोहनजी – [हंसी का किल्लोर छोड़ते हुए, कहते हैं] – उस फकीरड़े की, क्या औकात ? अपहरण तो तूने मेरा किया है, रे। हम लोगों को हवालात के अन्दर, बैठाकर।
गुलाब सिंह – एक बार कह दिया जनाब, आपको..के ‘हम उस वक़्त मज़बूर थे।’ क्योंकि, गांजे जैसे ग़ैर-कानूनी धंधे के सम्बंधित हिसाब-किताब और उनकी गैंग की करतूतों की डायरी..आपके हाथ लग गयी। जो मिलनी थी, सौभाग मलसा से..अब आपको समझ में आ गया ना ? आप खतरे से खेल रहे थे, मालिक।
मोहनजी – चोटा कहीं का। तूने मेरी ज़ेब में हाथ डालकर, तूने ही काग़ज़ात निकाल लिये होंगे ? इसकी सज़ा तो तूझे ज़रूर दूंगा, मगर अभी तू आगे बोल गुलाबा। अरे नहीं रे,गुलाब सिंह..अब, आगे बोल।
गुलाब सिंह – बात समझ में आ गयी आपको, या नहीं ? तब मुझे सवाई सिंहजी से मिलकर बनाना पड़ा, तगड़ा प्लान, आपको महफ़ूज़ रखने के लिए आपको हवालात में बैठाना पड़ा। उस वक़्त हवालात से ज़्यादा सुरुक्षित, कौनसी जगह थी, मालिक ? तब..तब..
मोहनजी – तब..तब..क्या बोलता जा रहा है, कढ़ी खायोड़ा ? बोल आगे, काहे तूने ब्रेक लगाकर बातों की गाड़ी को रोक दी ? ख़ाली मुफ़्त में दिमाग़ खाता जा रहा है, मेरा ? अब तेरे सर पर मारूं जूत्ते चार, तब तेरी ज़बान खुलेगी।
गुलाब सिंह – मालिक धीरज रखिये, आगे कह रहा हूं। आप लोगों को हवालात के अन्दर बैठाकर, हम जा पहुंचे स्टेशन के बाहर..वहां जाकर चपकू गैंग का किया एनकाउंटर। उसमें हमें, पूरी-पूरी सफलता मिली है। मगर जैसे ही हम दौड़कर आये, जी.आर.पी. दफ़्तर में...
मोहनजी – [मुस्कराकर कहते हैं] – बोल आगे, चुप क्यों हो गया ?
गुलाब सिंह – अरे जनाब, हमने क्या देखा ? आप सभी हो गये गायब, आप और आपकी पूरी चांडाल-चौकड़ी को क्या कहे मालिक ? पूरीSS, कुबदी नंबर एक है।
मोहनजी – [लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए, कहते हैं] – और यह भी बोल आगे, ओटाळ नंबर एक। सिपाइयों की खोल दी हमने, पिछली दुकान। और भाग छूटे, क्या अब तू यही यश देना चाहता है..? अब कढ़ी खायोड़ा तेरे दिमाग़ में यह बात बैठा देना, के ‘आगे से, मुझसे अड़ना मत।’
[इतना कहकर, मोहनजी ज़ोरों का ठहाका लगाते हैं, अब गुलाब सिंह मोहनजी से अपना परिचय-पत्र लेकर उसे अपनी ज़ेब के हवाले करते हैं। फिर मोहनजी के व्यक्तित्व का कशीदा पढ़ते हुए, आगे कहते हैं।]
गुलाब सिंह – मालिक, आपकी क्या तारीफ़ करूं ? जो भी कहूं, वह भी कम है। आपकी मेहरबानी से हमारा मिशन सफल हुआ, न तो इस कमबख़्त सौभाग मल और फ़क़ीर बाबा की गैंग एक साथ कैसे पकड़ी जाती ?
मोहनजी – [मुस्कराते हुए, कहते हैं] – मुझे बहुत खुशी हुई है, गुलाब सिंह कढ़ी खायोड़ा। अब तू हिज़ड़े से मर्द बन गया है, मगर अब तू यह बताता जा के उस प्यारी और चम्पाकली के क्या हाल-चाल हैं ?
गुलाब सिंह – [आवाज़ बदलकर, कहते हैं] – ओ मोहन लाल सेठ। क्या हाल है, आपके ? वापस रसिक बन गये, क्या ? रुलियार कहीं के, आपको शर्म नहीं आती..?
जुलिट – [बीच में बात काटती हुई, कहती है] – अरे गुलाब सिंह। यह प्यारी है, कौन ? और कौन है, यह चम्पाकली ? मोहनजी, क्या छुपे रुस्तम तो नहीं ?
[गुलाब सिंह ताली बजाते हैं, ताली की आवाज़ सुनते ही दोनों सफ़ेदपोश जवान आकर झट मोहनजी से बिल्कुल सटकर खड़े हो जाते हैं। अब वे दोनों, मोहनजी की सूरत देखकर हंस पड़ते हैं। मोहनजी उन दोनों को घूरकर देखते हैं, जैसे ही उनकी नज़र उस ख़ूबसूरत जवान पर गिरती है..उसको देखते ही वे उसे पहचान जाते हैं, और उन्हें भूतिया नाडी पर प्यारी के साथ बिताये गए रोमांस का एक-एक पल अलग से याद आ जाता है। रोमांस के साथ, उनको वे सारी हरक़ते भी याद आ जाती है..जो भूतिया नाडी में उन्होंने की थी। अब वे हरक़तें याद आते ही बेचारे मोहनजी, आब-आब हो जाते हैं। फिर अपनी झेंप मिटाते हुए, उस खूबसूरत जवान का हाथ पकड़ लेते हैं..और दूसरे हाथ से, उसकी गरदन पकड़ते हैं। अब वे लज्ज़ा से गढ़ते हुए, उससे कहते हैं]
मोहनजी – [आब-आब होकर, कह देते हैं] – साला प्यारे लाल, तू मुझसे मज़ाक करता है रे कढ़ी खायोड़ा ? मेरी बीबी का भाई होकर, तू तो गधा का गधा ही रहा। कढ़ी खायोड़े, तूझमें अक्ल नाम की कोई चीज़ नहीं। अब तू सीधा रहने वाला नहीं, अब तू घर में कलह करायेगा क्या ?
प्यारे लाल – [अपनी गरदन छुड़ाने की कोशिश करता हुआ, कहता है] – छोड़ दीजिये, जीजाजी। आपको मेरी जीजी की कसम, अगर गरदन नहीं छोड़ी तो मैं..
मोहनजी – न तो तू क्या करेगा रे, कढ़ी खायोड़ा ?
प्यारे लाल – नहीं तो पूरी बात बता दूंगा, जीजी को। अभी तक मैंने कुछ भी नहीं बताया, जीजी को। अपना जूत्ता निकालकर आप, इस कुत्ते कमीने चम्पा लाल की पूजा कीजिये।
मोहनजी – इसकी पूजा क्यों करूं रे, कढ़ी खायोड़ा ?
प्यारे लाल - यह कुचक्र इसी कमीने ने चलाया था, आपको फंसाने का। जीजाजी आपको दण्ड देना है तो, इसे दीजिये। यह कमीना आपके पास खड़ा है, पकड़िये..जीजाजी।
[फिर, क्या ? प्यारे लाल की गरदन छोड़कर, मोहनजी चम्पा लाल की गरदन पकड़ने की कोशिश करते हैं। मगर यह शैतानों का चाचा चम्पा लाल, उनके हाथ आने वाला कहां ? वह कुचमादी का ठीकरा तो भाग छूटता है, और भागता-भागता अलग से कहता जा रहा है..]
चम्पा लाल – [भागता-भागता, कहता है] – वाह जीजाजी, वाह। भूतिया नाडी की पाळ पर, आप कैसे नाचे नंग-धडंग होकर ? [गुलाबा की आवाज़ की नक़ल करता हुआ, कहता है ] मोहन लाल सेठ, क्या आपकी चड्डी का नाड़ा खोल दूं आकर ?
[भागकर वह, दूसरे केबीन में चला जाता है। उसके जाने के बाद, जुलिट गुलाब सिंह से कहती है]
जुलिट – मगर गुलाब सिंह, मुझे यह समझ में नहीं आया..आख़िर, प्यारी और जुलिट का क्या माज़रा है ?
गुलाब सिंह – कुछ नहीं, यह तुम्हारे काम की बात नहीं है। तुम अपना दिमाग़ मत खपाओ, बस तुम यही मान लो के यह प्यारे लाल बना प्यारी और चम्पालाल बना चम्पाकली। और मैं बना, गुलाबा। इस प्रकरण को हल करने के लिए, हम सभी को ये सारे स्वांग रचाने पड़े। अब आ गया, तूझे समझ में ?
[अब रहस्य पर ढके सारे पर्दे हट जाते हैं, सारा माज़रा समझ में आने के बाद अब जुलिट ज़ोर से ठहाके लगाकर हंसती जा रही है। इस तरह हंसते रहने से, उसके रुख़सार कश्मीरी सेब की तरह लाल सुर्ख हो जाते हैं। अब हाथ जोड़कर, गुलाब सिंह मोहनजी से कहते हैं..]
गुलाब सिंह – [हाथ जोड़कर कहते हैं] – मालिक, आपका क्या कहना ? इस खिलक़त में ऐसा कौन है, जो आपसे ज़बान लड़ा सके ? अप तो बेचारे पुलिस वालों की पिछली दुकान, बेवक्त खुलवा डाली ? मगर हमारे रहमदिल सवाई सिंहजी अपनी पूरी पलटन के साथ, खड़े हैं जोधपुर स्टेशन पर...और वह भी पुलिस बेंड के साथ, आपका स्वागत करने के लिए।
मोहनजी – ए रे गुलाब सिंह कढ़ी खायोड़ा, मुझसे मज़ाक मत किया कर। मेरी शादी हो चुकी है, अब ठोकिरा तू किसका बैंड-बाज़ा बजा रहा हैं ? गधेड़ा, तूझे तो मेरे मेरे जूत्ते खाने की आदत बन गयी है।
गुलाब सिंह – मालिक बात को पूरी सुना करो, सुनकर फिर बोला करो। आप बिना सुने ही, झट जूत्ता लेकर तैयार हो जाते हैं ? [धीमे-धीमे कहते हैं] धान की जगह, अब आप जूत्ते बनाने लग गए..क्या ? शायद कहीं आपने, मोची की दुकान तो नहीं खोल दी...?
[गुलाब सिंह के लबों को हिलते देख, मोहनजी समझ लेते हैं “ठोकिरा गुलाब सिंह उनकी शान में गुस्ताख़ी करता जा रहा है ?’’]
मोहनजी – [क्रोधित होकर, कहते हैं] – ठोकिरा तू अपने होंठों में क्या बुदबुदा रहा है, गधेड़ा ? ए रे कढ़ी खायोड़ा गुलाब सिंह, अब तो शर्म कर, गधे। मेरी मेहरबानी से अब तू मर्द बन चुका है, अब तू हिज़डा रहा नहीं।
गुलाब सिंह – [अपने लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए, कहते हैं] – जनाब मैं यह कह रहा था, के “रेलवे मिनिस्टर साहब लालू प्रसादजी यादव ने अपने ख़ास प्रतिनिधि को भेजा है, तहे दिल से आपका स्वागत करने के लिए। वे प्लेटफार्म पर खड़े हैं, जनाब। वहां एक जलसा रखा गया है, उस जलसे में आपको अपनी पूरी चांडाल-चौकड़ी के साथ आना है। और, मेरी अर्ज़ है..
मोहनजी – झट बोल दे, नहीं तो मैं तूझे और तेरे साथियों को वह दवा दूंगा..जो सिपाइयों को दी थी, उनका पेट साफ़ करने के लिये। फिर तुम सभी हिज़ड़े..अरे नहीं रे, अब तो तुम लोग मर्द बन गये हो। ना..ना..अब तुम लोगों को मैं, हिज़डा नहीं कहूंगा। यह ज़रूर कहूंगा, दवा लेने के बाद तुम लोग एक पाख़ाने को....
गुलाब सिंह – [आश्चर्य चकित होकर, कहते हैं] - पाख़ाने से, हमारा क्या काम ?
मोहनजी – [लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए, कहते हैं] – पूरा दिन लगता है पेट साफ़ करने के लिये, अब गुलाब सिंह तुम उस पाख़ाने को आरक्षित करवा लेना। और उसके बाहर यह लिख देना, आरक्षित पाख़ाना सी.आई.डी. पुलिस जरिये मोहनजी..!
जुलिट – [हंसी का ठहाका लगाकर, कहती है] – फिर गुलाब सिंह तुम सभी लोग, पूरे दिन पाख़ाने को काम लेते रहना। यह सज़ा तुम लोगों के लिए बेहतर है, मोहनजी को परेशान करने की। [वापस हंसती हैं] आख़िर तुम लोगों ने, बेचारे मोहनजी की हालत कैसी बदतर कर डाली...?
गुलाब सिंह – [मुस्कान बिखेरते हुए, कहते हैं] – छोड़िये जनाब, मैं कह रहा था..जब आप जोधपुर ड्यूटी जोइन करो तब, आप..
मोहनजी – [तेज़ी खाते हुए] – गुलाब सिंह कढ़ी खायोड़ा, तूझे किसने कह दिया के मेरी बदली जोधपुर हो गयी ? [होंठों में ही] अब यह काबुल का गधा तैयार हो गया, मुझसे ट्रांसफर की मिठाई खाने..? अरे कमबख़्त मैंने अपने साथियों तक को चाय नहीं पायी, और तूझे खिलाऊंगा मिठाई ? वाह रे वाह, मेरे कढ़ी खायोड़े शेर।
गुलाब सिंह – [लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए, कहते हैं] – अपना दिल छोटा मत कीजिये, मैं आपसे मिठाई नहीं मांगूगा। आपकी हर ख़बर हमारे पास रहती है, आख़िर हम ठहरे सी.आई.डी. विभाग के।
जुलिट – दिल को थामे रखिये, जनाब। अब इस वक़्त गुलाब सिंह, गुलाबो हिज़ड़े के रूप में नहीं है। होता तो आपके कपड़े खुलवाकर, मिठाई खा जाता।
मोहनजी – गधेड़ा मैं कितनी दफ़े पाख़ाना जाता हूं, यह भी रिपोर्ट बनाता होगा तू ? बना दी है तो, अपने उच्च अधिकारियों के पास मत भेजना। नहीं तो फिर, यह मेरा जूत्ता है और तू है।
गुलाब सिंह – अब आप मज़ाक मत कीजिये, पहले आप मेरी बात सुनिये..पहले आप यह बताइये, हम लोग किस विभाग के हैं ? हम हैं सी.आई.डी. विभाग के, इसलिए सभी ख़बरें हम लोगों को रखनी होती है। इसलिए आप बार-बार, हमारी बात सुनकर चौंका न करें। सुनिये, आपको हमारा एक काम करना है..
मोहनजी – कढ़ी खायोड़े, अब क्या काम बाकी रह गया ? मेरा पूरा कस तो तुम लोग ले चुके, अब तो ख़ाली पोठे [गोबर] करने बाकी रह गये हैं।
गुलाब सिंह – मालिक आप पोठे भी करोगे, आख़िर बचपन से आप गाय-भैंसों के साथ रहे हैं..इस कारण आप, पोठे ही करोगे जनाब। इसके अलावा, आपसे क्या उम्मीद की जा सकती है ? अब सुनिये, जनाब। हमारे बड़े अफ़सर चाहते हैं, के ‘आप जोधपुर रहते वक़्त, अक़सर जोधपुर स्टेशन आते रहें....’
मोहनजी – अब तू मुझे किस मुसीबत में फंसा रहा है, कढ़ी खायोड़ा ?
गुलाब सिंग – [मोहनजी की बात पर ध्यान न देते हुए] – और पाकिस्तान जाने वाली थार एक्सप्रेस के यात्रियों पर, आपको कड़ी नज़र रखनी है। अगर काम पड़े इस काम के लिए, तो आपको पाकिस्तान की भी यात्रा करनी होगी।
मोहनजी - मुझे क्यों पाकिस्तान भेज रहा है, कढ़ी खायोड़ा ? मैंने तेरा क्या बिगाड़ किया है ?
[गाड़ी का इंजन सीटी देता है, अब गाड़ी की रफ़्तार कम हो जाती है। गुलाब सिंह ज़ेब से चांदी की डिबिया निकालते हैं, फिर उसमें से पान की गिलोरी निकालकर अपने मुंह में ठूंसते हैं। फिर फिल्म डॉन के नायक अमिताभ बच्चन की नक़ल उतारते हुए, कहते हैं..]
गुलाब सिंह – [हथेली आगे करते हुए, कहते हैं] – क्या करें, जनाब ? किन्नर रहते-रहते ग़लत आदत डाल दी हमने..
मोहनजी – [घबराये हुए, कहते हैं] – दूर हट, नामर्द। तब ही तू मेरे रुख़सारों को सहलाता, और कभी तू..
गुलाब सिंह – [हंसी का ठहाका लगाकर, कहते हैं] – अरे जनाब, आप मुझे ग़लत मत समझो। मैं ऐसा-वैसा नहीं हूं, अब डरो मत। मैं तो जनाब, पान चबाने की ग़लत आदत का जिक्र कर रहा था। अरे राम राम, आप मेरे बारे में ऐसे ग़लत विचार इस भूसे भरे दिमाग़ में रखते हैं ?
[जुलिट के साथ-साथ, प्यारे लाल भी हंसने को मज़बूर हो जाता है। गुलाब सिंह आंखें तरेरकर, प्यारे लाल की तरफ देखते हैं। वह बेचारा सहम जाता है। अब गुलाब सिंह, पान को चबाते-चबाते कहते हैं..]
गुलाब सिंह – [मोहनजी की तरफ़ देखते हुए, कहते हैं] – मालिक, आप तो गुणों की खान हैं। हमारे विभाग के सभी लोग, आपकी तारीफ़ करते हैं। जनाब मैं सत्य कहता हूं, आप जैसे दिखायी देते हैं..वैसे, आप नहीं हैं। वे लोग मूर्ख हैं, जो आपकी आदतों को देखकर आपको पागल कहते हैं।
मोहनजी – साला, काबुल का गधा। मेरी कौनसी आदत खोटी देखी है रे, कढ़ी खायोड़ा ? क्या मैं छोरियां छेड़ता हूं, या मैं दारु पीकर नालियों में पड़ा रहता हूं ? बोल कौनसी ख़राब आदत ख़राब है, मुझमें ?
गुलाब सिंह – पहले मेरी बात सुन लिया करो, कान खोलकर। सुन लीजिये, जनाब। पागलों जैसी बातें करनी और मर्जी आये जहां पीक थूक देना। ये सारी बातें, लोगों को मूर्ख बनाने की है। इस व्यवहार को लोग समझ नहीं पाते, मगर मैं सौ फीसदी सत्य बात कहता हूं के ‘आप जैसा समझदार व मतलब में होशियार इंसान कहां मिलता है, इस ख़िलक़त में ?’
[इतनी बात करने के बाद, गुलाब सिंह सीट से उठते हैं। इसके बाद अपने होंठों पर मुस्कान बिखेरते हुए, आगे कहते हैं]
गुलाब सिंह – बस, अब मुझे यही कहना है के, ‘हमें आपकी यही अदा, बहुत पसन्द आयी।’ अब आप अगले मिशन को कामयाब कीजिये, जनाब। बस अब आपको, थार एक्सप्रेस से यात्रा करने वाले पाकिस्तानी दलालों पर कड़ा ध्यान रखना है। अगर आपने ऐसा नहीं किया, तो मैं सच्च कहता हूं आपको..यह गुलाबा वापस आकर खींच लेगा, आपकी चड्डी का नाड़ा।
[मगर यहां मोहनजी ठहरे कुत्ती चीज़, ऐसे वे इस गुलाब सिंह के हाथ आने वाले नहीं। पहले वे अपने होंठों पर मुस्कान बिखेरते हैं, फिर टसकाई [गंभीर होकर] से ज़वाब देते हैं..]
मोहनजी – उस वक़्त कढ़ी खायोड़ा, मेरे ऊपर पूरे डिपो का चार्ज रहेगा। ना बाबा ना, मेरे पास कहां रहेगा इतना समय ? मैं कुछ नहीं कर सकता, मुझे मत फंसा रे गुलाब सिंह कढ़ी खायोड़ा।
गुलाब सिंह – [मुस्कराते हुए कहते हैं] – मैं सब जानता हूं, जनाब। आप पहले इसी दफ़्तर में थे..तब आप कब तो आप दफ़्तर में आते थे, और कब अपने घर लौटते थे ? कितनी बार, आप मारते थे गौत ? मुझसे ये सारी बातें छिपी नहीं है, अब आप समझ गए जनाब। इन आदतों के कारण ही, आपका मनपसंद कार्य आपको सौंपा जा रहा है।
[यह सुनकर मोहनजी आंखें तरेरकर, गुलाब सिंह को देखते जाते हैं। मगर गुलाब सिंह परवाह नहीं करते हैं, के मोहनजी उनको किस नज़र से देख रहे हैं ? वे तो आगे कहते ही, जा रहे हैं..]
गुलाब सिंह – एक बात और कह दूं, आपको ? आपको अपने विभाग की ओर से, फ़िक्र करने की कोई ज़रूरत नहीं। आपके विभाग के बड़े साहब से, हमारी बात हो गयी है। उन्होंने आपको पूरी छूट भी दे दी है, इस काम को करते हुए जब इच्छा हो तब दफ़्तर जाना है..बस, आपको हमारा काम ज़रूर पूरा करना है।
जुलिट – [सीट छोड़ती हुई, अलग से कहती है] – मान जाइये मोहनजी, गुलाब सिंह का कहना मानना आपके हित में है। वैसे भी आप एक नंबर के..क्या कहते हैं उसे ? जो एक जगह, टिकता नहीं। हां याद आया जी, उसे कहते हैं फिटोल। बस, आप वह ही हैं।
मोहनजी – [हंसते हैं, फिर मुस्कराकर कहते हैं] – जुलिट तू कुछ भी बोल, मर्जी आये जो बोल। चाहे तो कह दे, के मेरे पांव में है भवंरा। जो मुझे ख़ाली, एक जगह बैठने देता नहीं। पहले रोज़ करते थे, जोधपुर और खारची के बीच की यात्रा। और अब करेंगे, पाकिस्तान और जोधपुर के बीच आने-जाने की यात्रा। मगर, मेरी एक शर्त है..
जुलिट और गुलाब सिंह - [एक साथ कहते हैं] – मंज़ूर है, अब कहिये क्या शर्त है आपकी ?
[मोहनजी झट खड़े हो जाते हैं, और उन दोनों के सर पर आशीर्वाद देने के लिए अपना हाथ रखते हैं। फिर कहते हैं..]
मोहनजी – [आशीर्वाद देते हुए, कहते हैं] – तुम दोनों की जोड़ी सलामत रहे, अब अपनी शादी में मुझे बुलाना भूलना मत।
[सुनकर, जुलिट शर्म से अपनी नज़रें झुका लेती है। फिर दोनों ख़ुश होकर, मोहनजी के पांव छूते हैं। मोहनजी अब उनको, ढेर सारी आशीष देते हैं। गुलाब सिंह, मोहनजी से कहते हैं..]
गुलाब सिंह – मालिक, जुलिट की माताजी का कोई मां-जाया भाई नहीं है। इसलिए आपको अब हमारी शादी में जुलिट का मामा बनकर, उसे चूड़ा पहनाना है। इसके ननिहाल के सारे रिवाज़, आपको ही निभाने होंगे।
मोहनजी – ज़रूर, ज़रूर। बाई के लिए तो, हमारी ज़ान हाज़िर है।
गुलाब सिंह - [गुलाबा की आवाज़ में, कहते हैं] - समझ गये, मामू प्यारे। कंजूसो के सेठ, अब ज़ेब ढीली करने के लिए तैयार हो जाओ..मामा बनकर। [धीरे से कहते हैं] मामू प्यारे, आ गए प्यारे रंग में भंग डालने..बांगी कहीं के।
मोहनजी – क्या कहा, गुलाब सिंह कढ़ी खायोड़ा ?
जुलिट - [हंसती हुई कहती है] – कुछ नहीं मामूजान, ज़रा थोड़ी सी आपकी तारीफ़ कर डाली..!
[सभी हंसी के ठहाके लगाते हैं, थोड़ी देर बाद मोहनजी इन सबको जाते हुए देखते हैं। जाते-जाते गुलाब सिंह की, लौटती आवाज़ उनके कानों को सुनायी देती है..]
गुलाब सिंह की दूर से आवाज़ सुनायी देती है – ये मोहनजी, कोई भूलने वाली चीज़ नहीं है। बड़ी कुत्ती चीज़ है, कमबख़्त।
मोहनजी – [गुस्सा करते हुए, बड़बड़ाते हैं] – गुलाब सिंह गेलसफ़ा कढ़ी खायोड़ा, तू तो हिज़डा था, तब ही तू ठीक था। अब वापस आ, मेरा छ: नंबर का जूत्ता तैयार है, तूझे ठोकने के लिये..
[गाड़ी का इंजन सीटी देता है, उसकी तेज़ आवाज़ के आगे मोहनजी की आवाज़ सुनायी नहीं देती। थोड़ी देर बाद, वे अपने साथियों के पास अपने केबीन की ओर जाते दिखाई देते हैं। मंच पर, अंधेरा छा जाता है। थोड़ी देर बाद, मंच पर वापस रौशनी फ़ैल जाती है। अब शयनान डब्बे का मंज़र सामने दिखाई देता है, इस डब्बे में मोहनजी और उनके सभी साथी बैठे दिखाये देते हैं। तभी एक नौ साल का लड़का आता है, अब वह फर्श पर बैठ जाता है। फिर बदन से अपना फटा हुआ कुर्ता उतारकर, बैठा-बैठा उससे फर्श साफ़ करता हुआ वह आगे बढ़ता है। वह लड़का लूले-पांगलों की तरह अपने बदन को घसीटता हुआ, अब इस केबीन में आ जाता है। रशीद भाई ठहरे सेवाभावी, वे जान नहीं पाते इस लडके की असलियत ? इसे लूला-पांगला ही समझकर, उसके सफाई करने के काम को पर-हित में की जा रही सेवा समझ लेते हैं। अब जनाब...उस पर रहम दिखाते हुए दयाल साहब से कहते हैं..]
रशीद भाई – [दयाल साहब से कहते हुए] – देखो साहब, रेलवे के कर्मचारी इन डब्बों में सफ़ाई करते नहीं। अब यह सेवाभावी पांगला छोरा, कितनी तक़लीफ़ें देखकर डब्बे के फर्श को साफ़ करता जा रहा है।
दयाल साहब – अरे, रशीद। यह छोरा ना तो है तेरा जैसा सेवाभावी, और न है इसे पोलियो। और न है यह, ग़रीब। इसका तो रोज़ का धंधा है, भीख मांगने का। अभी देखना तुम, दरवाज़े के पास जाकर..यह कमबख़्त, सीधा खड़ा हो जायेगा।
चंदूसा – अरे साहब, ऐसे कई लडके हैं..जो पूरी गाड़ी में यात्रियों से मांग-मागकर, पैसे इकट्ठे करते रहते हैं। फिर खारची आने पर ये लोग बैठकर करते हैं, इन पैसों का हिसाब। इसके बाद ये कमबख़्त, सिनेमाघर जाकर देखते हैं...हर नयी लगने वाली, फिल्म। अरे जनाब, ऐसे छोरे कैसे हो सकते हैं..ग़रीब ?
दयाल साहब – बिल्कुल सच्च कहा, चंदूसा। मैंने ख़ुद ने एक वाकया देखा है, जिसे मैं भूल नहीं सकता। इस जोधपुर प्लेटफोर्म पर मैंने, एक भिखारन को देखा..जो मैली-कुचली थैली से कई पांच-पांच सौ के नोट निकालकर, उन्हें गठरी में रख रही थी। मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ, अरे सांई..कैसे-कैसे इंसान भरे पड़े हैं, इस भारत में ?
रतनजी – किस बात का ताज्जुब, जनाब ? बम्बई में रहने वाले भिखारी तो जनाब, कार रखते हैं और साथ में वे आयकर भी भरते हैं।
चंदूसा – बम्बई की बात छोडो, रतनजी। इस जोधपुर स्टेशन के बाहर एक भिखारी बैठता है, जिसके पास तीन-तीन कारें हैं। सुबह कार में आता है, और शाम को उसे कार लेने आती हैं। अरे जनाब, उसके तीन-तीन बेगमें है। बहुत पैसे वाला है, जनाब।
दयाल साहब – सच्च कहा चंदूसा, आपने। मैंने ख़ुद ने एक ऐसा ही वाकया देखा, अपने दोस्त की कपड़े की दुकान पर। वहां एक भिखारी आया, दोस्त ने उसको एक रुपया देना चाहा..मगर, उसने भीख लेने से साफ़ इनकार कर दिया। फिर, उसने कहा..
रतनजी – अजी, साहब। यह ऐसा कैसा भिखारी है, जिसने भीख के पैसे लेने से इनकार...?
दयाल साहब – पहले सुनो, मेरी बात। उसने आगे कहा “सेठ साहब, कपड़ा दिखाइये। मुझे खरीदना है, जनाब।” दोस्त ने उसकी हालत देखकर सस्ते कपड़े दिखलाने शुरू किये, तब रतन सिंह उसने क्या कहा..सुना, तुमने ? उसने कहा “सस्ता कपड़ा क्यों दिखलाते हो, कुछ महंगा कपड़ा दिखलाइये।” फिर..
रशीद भाई – वाह भाई, वाह। भिखारी के पास, इतने सारे रुपये..? ख़ुदा की पनाह, अब क्या भेद रहेगा ? हमारे, और भिखारी के बीच ? जब कोई भिखारी रहेगा नहीं, तब रमजान के महीने में हम किसे खैरात देकर सवाब लेंगे ?
दयाल साहब – पहले सुन, रशीद। दोस्त ने दिखाये क़ीमती वस्त्र, तब उस मरदूद ने बड़ी मुश्किल से एक महंगा कपड़ा पसंद किया। और कहने लगा, ‘इसे पेक कर लीजिये।’ फिर उसने पैसे देने के वक़्त, पूरे सौ रुपये कम दिए..
रशीद भाई – फिर क्या हुआ, कहीं उसने उधारी खाते में अपना नाम लिखवा तो नहीं लिया ? या फिर, सौ रुपये का चैक देकर चला गया ?
दयाल साहब – रशीद पहले सोचा कर, वो भिखारी है..बिना साख, कैसे लिखायेगा अपना नाम ? सुन, आगे। जब दोस्त ने बाकी के रुपये मांगे, तब उसने क्या कहा ? उसने कहा “मुझसे क्या रुपये मांगते हो ? मैं तो, एक अदना सा भिखारी हूं।” उसका ज़वाब सुनकर, दोस्त उसका मुंह ताकने लगा।
[दयाल साहब से किस्सा सुनकर, सभी ठहाके लगाकर ज़ोर से हंसते हैं। अब उस छोरे ने समझ लिया, के ‘जो दूसरे भिखारियों की पोल खोलते जा रहे हैं..वे साहेबान, मुझे क्या भीख देंगे ? यहां तो तिलों में तेल नहीं, ये लोग तो इतने होशियार है..ये तो मेरे अन्दर से, तेल निकाल बैठेंगे ?’ बस, फिर क्या ? वह दौड़कर, जा पहुंचता है..डब्बे के, दरवाज़े के पास। वहां शान्ति से नीचे बैठ जाता है, फिर अपनी सभी जेबों से रुपये निकालकर उन सारे रुपयों को..वह चोर ज़ेब में, रख़ता जाता है। उन रुपयों में कई पांच सौ और हज़ार के नोट, कई सौ-सौ के नोट और ढेर सारी रेज़गी..इतने सारे रुपये देखकर, सभी को आश्चर्य होता है। अपना काम निपटाकर वह छोरा, दूसरे डब्बे में भाग जाता है। यह करिश्मा देखकर, सभी ज़ोर से हंसते हैं। दीनजी नोवल को अपने बैग में रखते हैं, फिर दयाल साहब से कहते हैं..]
दीनजी – दयाल साहब। कौन कहता है, अपना देश ग़रीब है ? साधु-संतों के मठों में अपार करोड़ो की दौलत पड़ी है, और ये लोग ऐशोआराम की ज़िंदगी व्यतीत कर रहे हैं।
रतनजी – अरे हुज़ूर, एक तरफ़ है यह अंध भक्त जनता, और दूसरी तरफ़ है कुटिल राज़नेता और इन पाखंडी अधु-संतों का गठजोड़..? इन अंध भक्तों की आँखें खुलवाना और दूसरी तरफ़ ऐसे पाखंडी कपटी लोगों को पकड़कर, सज़ा दिलवाना अब इस लोकतंत्र में असंभव है।
ओमजी – ये साधु नहीं, स्वाधु है। इन स्वाधुओं ने सत्ताधारी दल के साथ ऐसा गठ बंधन बना रखा है, जो एक दूसरे के हितों को साधते रहते हैं। सरकार इनकी हिफाज़त के लिए, इनको पुलिस-गार्ड भी उपलब्ध करवाती है..और ये लोग..? इन सत्ताधारी लोगों की काली कमाई को, एक नंबर में बदलने का काम करते हैं।
[अब आस करणजी और सेणी भा’सा वातानुकूलित डब्बे से निकलकर, मोहनजी वाले केबीन में आ चुके हैं। जनाबे आली आस करणजी भा’सा की निगाह में, प्रसन्नचित मोहनजी आ जाते हैं। उनका मुंह, कमल के फूल की तरह खिला हुआ है। यह देखकर, उनको बहुत आश्चर्य होता है। फिर क्या ? वे दोनों गुफ़्तगू करने के लक्ष्य से, आकर मोहनजी के आस-पास आकर बैठ जाते हैं। बैठने के बाद, आस करणजी मोहनजी से कहते हैं..]
आस करणजी – [उनके पास बैठकर, कहते हैं] - मोहनजी, जय श्याम री सा। वाह मालिक, आज़ इस तरह आपके लबों पर मुस्कान कैसे..? कहीं देवी जुलिट के दीदार तो न हो गए, आपको ?
[मोहनजी एक शब्द नहीं बोलते, बस चुचाप नज़रे चुराए...खिड़की के बाहर, देखते रहते हैं। तब आस करणजी, एक बार वापस बोलते हैं ]
आस करणजी – अरे मोहनजी मालिक, क्या खरगू की तरह बैठ गये चुपचाप ? ज़रा ‘जय श्याम री’ तो बोल दीजिये।
रतनजी – आस करणजी भा’सा, आप मोहनजी को छोडिये। उनकी जगह मैं बोल देता हूं, “भा’सा, जय श्याम री सा।” अब आप श्याम की कृपा से, ऐसे समाचार सुनेंगे..आप, सुनकर आप ख़ुद कहेंगे “मोहनजी, चढ़ाइये बालगोपाल को प्रसाद।”
[यह तो श्याम की लीला ठहरी, मोहनजी ने तो नकटाई धार ली। वे अब, क्यों बोलेंगे ? नकटाई तेरा आसरा, उन्होंने ख़र्च करना करना सीखा ही नहीं। वे तो खर्चे से बहुत दूर ही रहते हैं, चाहे कितना भी अच्छा समाचार उन्हें सुनने के लिये मिल जाये ? मगर, ऐसे प्राणी “हम डाल-डाल तुम पात-पात” को चरितार्थ करते रहेंगे। आख़िर दीनजी ज़ोर से, मोहनजी से कहते हैं..]
दीनजी – [ज़ोर से कहते हैं] – मोहनजी, क्या यार सोचने बैठ गये ? अब आप चुप-चाप मत बैठिये, बिल्ली की तरह ? जोधपुर बदली हुई आपकी, खुशी हुई आपको। फिर अपना मुंह क्यों छिपाते जा रहे हैं आप, इन औरतों की तरह ? कह दीजिये आस करणजी भा’सा को, के ‘आपकी बदली, जोधपुर हो गयी है।’
[बिल्ली का नाम सुनते ही, सेणी भा’सा को याद आ जाता है दीनजी भा’सा का अधूरा छोड़ा गया बिलाव का किस्सा। फिर, क्या ? वे झट, उचककर कहते हैं..]
सेणी भा’सा – [उछलकर, कहते हैं] – मुंह मोहनजी छिपा नहीं रहे हैं, बल्कि आप छिपा रहे हैं। बिलाव की थोड़ी-थोड़ी कहानी कहकर, मुझे आप देते आ रहे हैं फुटास की गोली। अब भा’सा, ऐसा नहीं चलेगा। जोधपुर स्टेशन आने वाला है, अब यह कथा अधूरी नहीं रहनी चाहिये।
दीनजी – आगे, होना क्या ? [छंगाणी साहब की तरफ़ देखते हुए, मेम साहब शब्द पर ज़ोर देते हुए कहते हैं] मेरे मेम साहब का तबादला हो जाता है, जोधपुर। और मुझे करना पड़ता है आप लोगों के साथ, यह रोज़ का आना-जाना। सुनो एक दिन यह हुआ, के...
सेणी भा’सा – कहिये, आगे क्या हुआ ?
दीनजी भा’सा – एक दिन मैं पाली रुक गया, और वह बिल्ला मुझे कहीं दिखायी नहीं दिया। तब मैंने अकरमजी से, उस बिल्ले के बारे में पूछा..तब अकरमजी माथुर साहब की प्रकृति बताते हुए, इस तरह कहने लगे के “भा’सा, आपके जाने के बाद एक दिन वह बिल्ला किसी से जंग लड़कर आया था। उसका पूरा बदन रक्त से लथ-पथ था, उसके बदन पर कई घाव थे...”
रशीद भाई – ख़ुदा रहम, बेचारे बिल्ले की यह बुरी हालत ?
दीनजी – अकरमजी ने आगे यह कहा, के ‘बिल्ले ने यह सोचा होगा, के ‘माथुर साहब, भा’सा के मिलने वाले हैं। जो उस पर रहम खाकर, उसके बदन पर दवाई लगा देंगे ? मगर..?’
रशीद भाई – मगर क्या ? क्या हुआ, उस बिल्ले का ? क्या माथुर साहब ने दवाई लगायी या नहीं ? आगे कहिये, जनाब।
दीनजी – वह भोला जानवर समझ न सका, के ‘इस ख़िलक़त में स्वार्थ और दिखावा बहुत बढ़ गया है।’ माथुर साहब ने, उस खून से लथ-पथ बिल्ले को देखा। फिर लकड़ी लेकर, बतूलिये की तरह उस बिल्ले को पीटने..उसके, पीछे दौड़े। उसके बाद, वह मासूम बिल्ला इन सरकारी क्वाटरों में कभी दिखायी नहीं दिया।
रशीद भाई – माथुर साहब ठहरे, स्वार्थी इंसान। वे भा’सा के बगीचे से चाहते थे, मुफ़्त में पुष्प। जब तक पुष्प मिलते रहे, तब-तक भा’सा की तारीफ़ करते रहे। और अपने गमलों में, पौधे मुफ़्त में लगवाते रहे। और उस वक़्त, करते रहे इस बिल्ले की तारीफ़।
रतनजी – भा’सा के जोधपुर जाने के पश्चात, उनकी बनावटी प्रीत हो गयी ख़त्म। और बाद में लोगों से कहते रहे, के “भा’सा तो पागल थे, जिन्होंने ठौड़-ठौड़ पौधे लगाकर जंगल बना डाला।” बस इस ख़िलक़त में यह प्रेम, रेलगाड़ी के मुसाफ़िरों की भांति रहता है।
चंदूसा – ठौड़-ठौड़ के इंसान यहां मिलते हैं, जब वक़्त आता है..तब, बिछुड़ जाते हैं..! यह तो एक ऐसी सराय है, जनाब। जहां लोग आते रहते हैं, और जाते रहते हैं।
रशीद भाई – फिर, यह ख़िलक़त है क्या ? ख़ुदा की बरक़त है। यहां जीवों का जन्म होता है, और यहां अंतिम सांस लेकर वे इस ख़िलक़त को छोड़ देते हैं। बस पीछे उनकी यादे शेष रह जाती है, उनके प्रेम और मोहब्बत की। इसी से यह, ख़िलक़त चलता रहता है।
चंदूसा – वो बेचारा बिल्ला, इस मोहब्बत का प्यासा था..ईश्वर का पैदा किया हुआ यह अबोल जीव, इन इंसानों के लोभ, स्वार्थ, और क्रूरता के आगे..छोड़ देता है, इस ख़िलक़त को। मगर, इंसानों का क्या ? उन्होंने कोई सीख नहीं ली, आख़िर यह मोहब्बत है क्या ?
[सन्नाटा छा जाता है, इस सन्नाटें को तोड़ते हुए रतनजी कहते है..]
रतनजी – यार, ज़िंदगी का सफ़र गाड़ी के मुसाफिर की तरह है। आज़ मिले और कल बिछुड़ गये।
ओमजी – [बैग उठाते हुए, कहते हैं] – यह तबादला होने का काग़ज़, आख़िर है क्या ? बाबा के हुक्म से ही यह काग़ज़ मिलता है, फिर क्या ? यह उठाया बिस्तर, और यह चल दिये..! उस ऊपर वाले के ऊपर, किसी का ज़ोर नहीं चलता है..जनाब।
छंगाणी साहब – जितना लिखा है, गाड़ी का अन्न-जल। तब-तक सफ़र हमें करना होगा..फिर क्या ? लिखा अन्न-जल पूरा होते ही, यह रोज़ का आना-जाना..स्वत: समाप्त हो जायेगा। [मोहनजी से कहते हैं] जनाबे आली मोहनजी, क्या यह सच है ?
[मोहनजी सुनकर, हो जाते हैं, उदास। उनका मुंह उतर जाता है, उनकी आँखों के सामने वे सारे मंज़र आते हैं..कैसे वे साथियों के साथ प्रेम, झगड़े व टोचराई करते रहे ? ये सारे वाकये याद आते ही मोहनजी का दिल बिछोव के दर्द से भर जाता है, अब उनके लिए “अब यह ग़म, नाक़ाबिले बर्दाश्त होता जा रहा है।” इस ग़म को कम करने के लिये, मोहनजी ज़ेब से मिराज़ ज़र्दे की पुड़िया निकालते हैं। फिर उस तैयार सुर्ती को हथेली में लेकर, अपने होठ के नीचे दबाते हैं। तभी डफली बजाता हुआ मंगता, केबीन में दाख़िल होता है। रामसा पीर समाधि लेने समाधिस्थल में प्रवेश करने जा रहे थे, तब जो गीत गाया जा रहा था..वह गीत, अब वह मंगता गाता जा रहा है।]
गीत गाने वाला मंगता – [अवरुद्ध गले से, गीत गाता है] – मैं तौ चाल्या म्होरे गाम, था सगळा नै राम राम। कुण हिन्दू नै कुण मुसलमान, सगळा जीव है एक समान। ईश्वर अल्लाह तेरो नांम, सबको सुमति दे भगवान।
[यह गीत सुनते ही, मोहनजी बहुत ग़मगीन हो जाते हैं, कभी वे बेचारे देखते हैं दीनजी भा’सा का चेहरा..और आता है ख़याल, कैसे अरोग रहे थे दीनजी भा’सा का लाया बालगुपाल का प्रसाद ? कभी वे देखते हैं, छंगाणी साहब का चेहरा..और दिल में ख़याल आता है, कैसे उन्होंने छंगाणी साहब को खिलाया था उनके सर पर..ससुराल से आये, जूत्ते का प्रसाद ? ऐसी कई बीती घटनाएं उनके ख़यालों में आने लगती है, और उनको ग़म में डालती जा रही है। अब मोहनजी को मालुम हो जाता है, अब साथियों से विदा लेने का वह वक़्त आ गया है। उनको एक ही फ़िक्र सताती जा रही है, अब उनके साथी...वापस, कब मिलेंगे ? ग़मगीन मोहनजी, अब अवरुद्ध गले से कहते हैं..]
मोहनजी – [अवरुद्ध गले से कहते हैं] – दीनजी भा’सा, अब मेरा अन्न-जल उठ गया है। खूब खाया, आपका लाया हुआ ‘बिदामों वाला बालगुपाल का प्रसाद।’ अब बाबा का हुक्म मिल गया, [गीत गाते हुए, कहते हैं] ‘मैं तौ चाल्या म्होरे गाम, था सगळा नै राम राम।’ रामसा पीर, आप सबकी दिल-ए-ख़्वाहिश पूरी करें..बाबा भली करे।
[इतना कहकर, मोहनजी सबको हाथ जोड़ते हैं। फिर, वे सबसे विदाई लेते हैं। तभी गाड़ी का इंजन ज़ोर से सीटी देता है, गाड़ी की रफ़्तार धीमी हो जाती है। अज तो सभी का भाग्य अच्छा है, क्योंकि गाड़ी प्लेटफोर्म नंबर एक पर आकर रुक जाती है। ख़ुदा के मेहर से, उतरीय पुल चढ़ने की आज़ कोई ज़रूरत नहीं। उधर प्लेटफोर्म एक पर मोहनजी के स्वागत-सत्कार में, बैंड-बाजे बज रहे हैं। सवाई सिंहजी का रसाला, अड़ीजंट खड़ा है। जन-समुदाय और विशिष्ठ जन, मालाएं लिए हुए खड़े हैं। वे अपनी आंखें मोहनजी के दीदार पाने के लिए, इधर-उधर घुमाते जा रहे हैं। रेलवे मिनिस्टर साहब के ख़ास प्रतिनिधि जन-प्रतिनिधियों से घिरे हुए, मोहनजी का इंतज़ार कर रहे हैं। अब अपने बैग थामे मोहनजी की टीम, गाड़ी से उतरती है। उतरते ही, मोहनजी की चांडाल-चौकड़ी एक साथ रामसा पीर का जयकारा लगाती हैं।]
मोहनजी की चांडाल-चौकड़ी – [एक साथ, जयकारा लगाती है] – जय बाबा री।
प्लेटफोर्म पर खड़ा जन समुदाय एक साथ जयकारा लगाता हुआ, मोहनजी की तरफ़ बढ़ता है।]
सभी – [एक साथ कहते हैं] – बाबा भली करे।
जन समुदाय – [ज़ोर से जयकारा लगाता है] - जय बाबा री सा।
[मंच पर अंधेरा छा जाता है।]
(समाप्त)
जय बाबा री सा। बाबा भली करे।
पाठकों, मेरी लिखी गयी पुस्तक “यह चांडाल-चौकड़ी, बड़ी अलाम है” ने आपका भरपूर मनोरंजन किया होगा। अब आपसे निवेदन है, आप मेरे ई मेल dineshchandrapurohit2@gmail.com और dineshchandrapurohit2018@gmail.com पर अपनी राय भेजकर बताएं कि, आपको यह पुस्तक कैसी लगी ?
आपके ख़तों की इंतिज़ार में
दिनेश चन्द्र पुरोहित
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