[मारवाड़ का हिंदी नाटक] यह चांडाल चौकड़ी, बड़ी अलाम है। लेखक - दिनेश चन्द्र पुरोहित पिछले खंड - खंड 1 | खंड 2 | खंड 3 | खंड 4 | खंड 5 | खं...
[मारवाड़ का हिंदी नाटक]
यह चांडाल चौकड़ी, बड़ी अलाम है।
लेखक - दिनेश चन्द्र पुरोहित
पिछले खंड -
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ओटाळपने के सबूत खंड - १२
लेखक - दिनेश चन्द्र पुरोहित
[मंच पर रौशनी फैलती है, भगत की कोठी से गाड़ी गुज़रती हुई दिखायी देती है। युरीनल के बाहर चम्पाकली खड़ा है, वह पर्स से मोबाइल बाहर निकालकर उसे मचकाता जा रहा है। किसी तरह, गुलाबे का नंबर मिल जाने पर वह उससे बात करता है। आख़िर, गुलाबा से उसका वार्तालाप पूरा हो जाता है। उधर वह गुलाबा किसी दूसरे केबीन में खड़ा है, वह अपना मोबाइल अपने पर्स में रखकर अगले केबीन में जाने के लिए क़दम आगे बढ़ाता है। रास्ते में आते हर केबीन में यात्रियों का मनोरंजन करता हुआ, रुपये-पैसे कमाता जा रहा है। कहीं वह ठुमका लगाता है, तो कहीं अपनी गायकी का हुनर काम में लेकर दिलकश ग़ज़लें और नज्में यात्रियों को सुनाता आ रहा है। इस तरह वह कई केबिनों से गुज़रता हुआ आख़िर में वह, इस चम्पाकली के पास आ जाता है। वहां इधर-उधर देखकर चम्पाकली तसल्ली कर लेता है, कि कोई इन दोनों को बातें करते हुए नहीं देख रहा है। अब वह विगतवार, पूरी जानकारी हासिल करने की कोशिश करता है।]
चम्पाकली – अब पधारे, आप ? कब से मचकाती जा रही हूं, यह मोबाइल ? मगर उस्ताद आपके दीदार होने की कोई संभावना नहीं ? क्या करें, गुलाबो बी ? आप तो बीबी, देवी लक्ष्मी की भक्तिन बन गयी हैं।
गुलाबो – अब बता ए, चम्पाकली। अभी क्यों बुलाया, मुझे ? सच्च बात तो यह है, तू बड़ी ओटाळ है चम्पाकली। तूझे, क्या पत्ता ? मैं अभी-अभी रुपये-पैसों की होती बरसात को छोड़कर तेरे पास आयी हूं। इन दिनों कई बरातें सफ़र कर रही है, गाड़ी में। तेरे कारण ही मुझे देवी लक्ष्मी को छोड़कर, यहां आना पड़ा।
चम्पाकली – गुलाबो बी, इस वक़्त हमारा ख़ास मक़सद क्या है ? बस, आप उसी पर ध्यान रखिये। बेफ़िज़ूल वक़्त बरबाद करने का अभी वक़्त नहीं है, इस वक़्त आपको ध्यान रखना है के ‘इस केस का ख़ास पूर्जा है मोहनजी। उन पर आ रही है, आफ़त।’ वह भी, आपके ओटाळपने के सबूत के ख़ातिर।
गुलाबो – ऐसी क्या बात है, चम्पाकली ? कहीं शर्माजी की लायी बासी लापसी, मोहनजी खा गये क्या ?
चम्पाकली - मोहनजी क्या खाये और क्या नहीं खाये, इस बात का हमें ध्यान नहीं रखना है। मगर यह ध्यान रखना है, कहीं आपके ओटाळपने की वजह मोहनजी मुसीबत में नहीं फंस गये... ?
गुलाबो – विगतवार बता, आख़िर बात क्या है ? ज्यादा बकवास, कर मत। तू तो राम, इस मोहन लाल के आस-पास घुमती-घुमती खोटी आदत बना डाली बेफ़िज़ूल बकवास करने की। अब ज़्यादा अपनी इम्पोर्टेन्स दिखलायी तो, मैं तूझे यहीं मचका दूंगी।
चम्पाकली – क्यों दिल जला रही हैं, आप ? [हंसी का ठहाका लगाता है] मैं तो यह कह रही थी, आप पहले अपने कानों के कपाट खोलिये। खोल दिए हो तो सुनिये, बीबी। आपने जैसा कहा, उसी तरह मैंने सारी बात चपकू गैंग के आदमियों के सामने रख दी।
गुलाबो – फिर क्या, कोई खिलका हुआ ?
चम्पाकली – जी हां, बहुत मज़ा आ गया बीबी। इन लोगों की गैंग में, वह है ना..?
गुलाबो – अरेSS, कौन ? बोल राम, बिना बोले मैं क्या समझ पाऊंगी ?
चम्पाकली – अरे बीबी, वही औरतों से गया बीता..बाईरोंडिया शादी लाल। जो अभी तक अविवाहित है, और रूलेट की तरह पूरी गाड़ी में घुमता रहता है। वह कुजात लड़कियों को देखते ही, अपनी ज़ेब से मंगल सूत्र निकालकर कहता है उनसे कि ‘क्या आप मुझसे, शादी करोगी ?’ इन लड़कियां ने उसको कई बार पकड़कर ठोक दिया, मगर..
गुलाबो – मगर, क्या ?
चम्पाकली – मगर यह बदमाश, सुधरने का नाम ही नहीं लेता।
गुलाबो – तूझे क्या मालुम, वह जान-बूझकर बेहूदी हरक़तें करता हो ? ताकि इस तरह वह, लोगों का ध्यान उनके क़ीमती सामान से हटाकर उनका ध्यान उसकी बेहूदी हरक़तों की तरफ़ लग जाय..ताकि उसकी गैंग को, क़ीमती सामान पार करने का मौक़ा मिल जाय और वे लोग माल लेकर चम्पत हो जाय...समझ गयी, मेरी छमक छल्लो ?
चम्पाकली – अब मैं आपको, अपनी आपबीती सुनाती हूं। एक दिन मैं खिड़की वाली सीट पर, बैठी थी। खिड़की से आ रही तेज़ धूप से बचने के लिये, मैंने घूंगट निकाल रखा था। तभी, यह शादी लाल..
गुलाबो – आगे बोल, इस शादी लाल ने आख़िर किया क्या ?
चम्पाकली – यह नालायक शादी लाल मेरा पीला चमकता ओढ़ना देखकर, झट मेरे पास आया और कहने लगा के ‘मैं आपका साजन और आप मेरी सजनी, चलिए अपुन दोनों छैल बगीचे में घुम आयें।’
गुलाबो – फिर क्या ? उसने तेरा कोमल हाथ पकड़कर, चूम लिया होगा ?
चम्पाकली – नहीं बीबी, ऐसी कोई बात नहीं। जैसे ही मैंने अपना घूंगट हटाकर, अपना मुंह उसे दिखाया और कहा ‘ले देख माता के दीने, मेरा मुंह। अब बोल, क्या चलूं अब तेरे साथ छैल बगीचे ?’ मगर वह नकचढ़ा कहने लगा, कि..
गुलाबो – बता तू, उसने क्या कहा होगा ? आख़िर तू तो ख़ूबसूरत ही है, मेरी छमक छल्लो। अब बोल आगे, सुन्दरी।
चम्पाकली – वह ऐसा बोला, बीबी...कि, ‘हीज़ड़े हो, मगर मुझे क्या ? मेरे लिए सब चलता है, चाहे वह बांझ औरत हो या हीज़ड़ा। अविवाहित रहता-रहता मैं तो सुन्दरी, अब हो गया आधा बुढा..आप ख़ुश हो तो, मैं आपको पहना दूं मंगल-सूत्र।
गुलाबो – फिर क्या हुआ, चम्पाकली ?
चम्पाकली – फिर क्या, बीबी ? मैंने पकड़ा, उसका गिरेबान। और उसके रुख़सारों पर, जमाये खींचकर चार लाप्पे। फिर कहा ‘बुलाऊं पुलिस को, साला मेरी इज़्ज़त पर हाथ डाल रहा है हरामखोर ?
गुलाबो – फिर, आगे हुआ क्या ?
चम्पाकली – मुझे गुस्से में आग-बबूला होते देख, वह नालायक भाग गया।
गुलाबो – वाह री, चम्पाकली। तू तो, बहुत होशियार निकली। अब ख़ुश होकर मैं तेरे ऊपर, दो रुपयों की गोळ कर देती हूं। फिर बोल, आगे क्या हुआ ?
[चम्पाकली गुलाबो का बैग, खींचकर ले लेता है। फटा-फट उसे खोलकर, कहता है]
चम्पाकली – दो रुपये नहीं बीबी, मैं तो सारे रुपये लूंगी..जो इस बैग में आपने रख छोड़े हैं। बस आप यह समझ लेना, कि ‘आपने इन सारे रुपयों की गोळ मुझ पर की है।’
गुलाबो – रख तेरे पास, अब आगे बोल..आगे क्या हुआ ?
चम्पाकली – अरे बीबी, मैं तो भूल गयी..क्या कह रही थी मैं ? अच्छा याद आया, मैं कह रही थी ‘लातों के भूत बातों से नहीं माना करते।’ तब ठोकिरे शादी लाल ने खाया, मेरे बाएं हाथ का झापड़। फिर, भाग गया नालायक अपनी जान बचाकर। उतावली में वह गधा भूल गया, पोलीथिन की नीली थैली।
गुलाबा - आगे बोल, क्या हुआ ?
चम्पाकली – उसके जाने के बाद, मैंने संभाली, उसकी नीली थैली। उस थैली में मुझे मिले, बीस हज़ार रुपये, एक मोबाइल और एक डायरी। ये सभी चीज़ें, मैं आपको दे चुकी हूं। याद है, आपको ? या आप, भूल गयी ?
गुलाबा – याद है, याद है। तेरे इसी कमाल के कारण, सौभाग मल और इस फ़क़ीर बाबा के गैंग की दास्तान मेरे सामने आयी है। इस कारण ही, दोनों गैंग पकड़ी गयी। मगर अपनी एक भूल से, यह फ़क़ीर बाबा हाथ आते-आते रह गया।
चम्पाकली – ऐसे कैसे, हाथ आने से रह गया ?
गुलाबो – यह कुचमादिया का ठीकरा, मेले में आया ज़रूर। मगर हमारा ध्यान सौभाग मल की तरफ़ होने से, यह फ़क़ीर बाबा और इसकी आधी गैंग पकड़े जाने से रह गयी। चलिए कुछ नहीं, आज़ शेष रहे आदमी पकड़े जायेंगे।
चम्पाकली – अब, कहां पकड़े जायेंगे ? जब आपके हाथ में था, उनका पकड़ा जाना। तब आप पकड़ नहीं पाए, अब तो बीबी..वे सावधान हो गए, होंगे ?
गुलाबा – तो क्या हो गया, कुतिया की ताई ? पहले मेरा बैग मुझे थमा, फिर काम की चीज़ तूझे दिखलाती हूं। [बैग लेकर, उस बैग से मुंह पर लगाने की झिल्ली निकालता है। फिर उस झिल्ली को, अपने मुंह पर फिट करता है] देख, अब मैं क्या बन गयी ?
चम्पाकली – [आश्चर्य करता हुआ] – वाह बीबी, वाह। आप तो वास्तव में, सौभाग मलसा कैसे बन गयी ?
गुलाबा – [बैग से कपड़े निकालता हुआ, कहता है] – ले देख, इन कपड़ों को। ये सौभाग मल के कपड़े हैं, जिन्हें मैं जेल जाकर ले आयी। लूणी स्टेशन आने के पहले मैं, सौभाग मल बन गयी और लूणी स्टेशन आने पर मैं जाकर खड़ी हो गयी प्याऊ के पास। वहां मुझे फ़क़ीर बाबा और उसकी गैंग के आदमी, आकर मुझसे मिले। मिलते ही मैंने, पढ़ायी उल्टी पट्टी।
चम्पाकली – आपने शायद, मोहनजी के खिलाफ़ भड़का दिया होगा ? बीबी, आपने बहुत बड़ी ग़लती की है। आपने मरा दिया, बेचारे मोहनजी को।
गुलाबो – बीच में मत बोला कर, अब सुन मैं क्या कहती हूं ? मैंने कहा फ़क़ीर बाबा से, यहां क्या लेने आये हो मेरे पास ? आपकी नीली थैली, उस कुतिया के ताऊ मोहन लाल के हाथ लग गयी है। मगर आपके भाग्य अच्छे हैं, अभी तक उसने आपके काले कारनामों की डायरी पुलिस को नहीं सौंपी है।
चम्पाकली – अरे यह क्या कर डाला, आपने ?
गुलाबो – चुप रह, आगे सुन। इन लोगों ने मोहन लाल को देखा तब इसके हाथ में वह पोलीथीन की नीली थैली मौजूद थी, इस कारण इन लोगों को मेरी बात पर वसूक हो गया..जब वह, डब्बे के दरवाज़े पर खड़ा था। बोल अब, इसके आगे और तूझे क्या कहूं ?
चम्पाकली – ऐसा क्या हो गया, बीबी ? कहीं मोहनजी ठोक तो नहीं खा गये, इन गैंग वालों से ?
गुलाबो – अरे चम्पाकली वह मोहन लाल है, वह कैसे ठोक खा सकता है ? यहां तो, फ़क़ीर बाबा और इनके साथियों की बारह बज गयी। जिस डब्बे में मोहन लाल बैठा था, वहां जी.आर.पी. वालों की टीम आकर बैठ गयी।
चम्पाकली – फिर, आगे क्या हुआ ?
गुलाबो – फिर, होता क्या ? डरकर वे, दूसरे डब्बे में चढ़ गए। उनके चढ़ जाने के बाद, मैं चलती गाड़ी का हेंडल थामकर डब्बे में चढ़ गयी। और सीधे युरीनल में आकर, कपड़े बदल डाले। इस तरह मैं वापस बन गयी, गुलाबो। इतनी देर तूने क्या किया, चम्पाकली ?
चम्पाकली – अब मुझे आपकी बात पर भरोसा हो रहा है, इतनी बात सुनकर अब मुझे एक बात याद आयी। शादी लाल के जाने के बाद, शर्माजी आये और साथ में लाये अपने पुत्र की शादी के बचे लाडू, घेवर और लापसी। फिर इन लाडू, घेवर और लापसी को उन्होंने, सब में बराबर वितरित कर डाली।
गुलाबो – आगे बता, क्या हुआ ?
चम्पाकली – अरे बीबी, लाडू और घेवर ठोक गए सभी मिलकर। लापसी किसी ने खायी नहीं, उसे अख़बार पर रखकर सबने बेचारे मोहनजी को थमा दी। लापसी लेकर मोहनजी बोले ‘भाई मुझे कोई पोलिथीन की थैली दे दीजिये, ताकि यह लापसी मैं अपने घर ले जा सकूं। बच्चों को खिलाऊंगा, तो वे ख़ुश हो जायेंगे।
गुलाबो – फिर, क्या हुआ ?
चम्पाकली – मगर, थैली देवे कौन ? यहां तो इनके सभी मित्र पोलिथीन की थैलियों को, रखते हैं अपने काळज़े की कोर की तरह। इस कारण किसी ने उनको थैली दी नहीं, आख़िर मुझे दया आ गयी मोहनजी पर। मैंने सोचा, मोहनजी के नन्हे-नन्हे बच्चे लापसी खाकर ख़ुश हो जायेंगे।
गुलाबो – अरी चम्पाकली, तू तो बड़ी दयावान है। अब आगे बोल, आगे क्या हुआ ?
चम्पाकली – फिर बीबी मैंने झट शादी लाल की थैली का सारा सामान, अपने बैग में डाल दिया। और, ख़ाली नीली पोलीथीन की थैली आशामुखी मोहनजी को दे डाली।
गुलाबो – तू आगे बोल, क्या हुआ आगे ? फटा-फट बोल, मुझे आगे भी जाना है।
चम्पाकली – अब मैं यही कह रही हूं, बीबी..के, ‘फ़क़ीर बाबा और उसके गैंग के आदमी, मोहनजी को इस नीली थैली के साथ देख चुके हैं। इस तरह उन लोगों को, आपकी कही गयी बात पर भरोसा हो गया। फिर..
गुलाबो – पहले तू अपनी कही हुई बात को, सिद्ध करने के लिए सबूत पेश कर। जिसके आधार पर मैं मान लूं, के ‘तू सच्च कह रही है ?’
चम्पाकली – देखिये बीबी यह सब होने के बाद, मैंने सेनियो टेप रेकर्ड ओन करके अपने बैग में रखा। फिर उस बैग को गाड़ी में बैठे फ़क़ीर बाबा के साथियों के पास रखकर, मैं चली गयी युरीनल के अन्दर।
गुलाबो – आगे बोल, बार-बार बातों की गाड़ी को रोका मत कर। बोल, आगे क्या.. ?
चम्पाकली – जैसे ही मैं युरीनल घुसी, और पीछे से फ़क़ीर बाबा आया अपने साथियों के पास।
गुलाबो – आगे बोल चम्पाकली, क्या हुआ ?
चम्पाकली – बीबी, क्या कह रही थी मैं ? अरे याद आया, मैं तो झट घुस गयी युरीनल के अन्दर। मेरे जाते ही, फ़क़ीर बाबा आ गया वहां। वह अपने साथियों के पास बैठकर, मोहनजी को अपहरण करने की योजना समझाने लगा।
गुलाबो – वाह चम्पाकली, वाह। तूने तो, तगड़ा काम निकाला। अब तू, यों कर।
चम्पाकली – बीबी, अब क्या पोठा करूं ? [टेपरेकर्ड देता हुआ, कहता है] यह लीजिये, आपका सबूत। अब आप इस टेपरेकर्ड को ओन करके सुन लीजिये, उनकी पूरी योजना। अब आपको तसल्ली हो गयी, ना ?
गुलाबो – तसल्ली कहां ? काम बढ़ गया, राम....चम्पाकली। अब मैं तूझे एक काम दे रही हूं, अब तू जोधपुर स्टेशन पर मोहनजी और उनके साथियों को किसी तरह रोककर रखना।
चम्पाकली – कैसे रोककर रखूं, बीबी ? मुझे तो इनके साथी ओमजी जैसे शैतान को देखते ही, डर लगता है...
गुलाबो – अरे गधेड़ी, यह क्या कह रही है तू ? इस काम को पूरा करने के लिए, तू सारी सीखी हुई किन्नर-कलाएं काम में ले लेना। फिर ये किन्नर-कला, और कब काम आयेगी ? उतनी देर में, मैं जी.आर.पी. प्रभारी सवाई सिंहजी से मिलकर इस मोहन लाल की पूरी गैंग को हवालात में बैठाने का पक्का प्रबंध करके..मैं तेरे पास, आ जाऊंगी।
[अब गाड़ी का इंजन ज़ोर से सीटी देता है, गाड़ी की रफ़्तार कम हो जाती है। प्लेटफोर्म पर गाड़ी आती हुई दिखायी देती है। अब छंगाणी साहब झट पछीत से नीचे उतरकर, अपना बैग उठाते हैं। फिर चलती गाड़ी से झट कूदकर, उतर जाते हैं..प्लेटफोर्म पर। और अब वे तेज़ क़दम चलते हुए, झट पुलिया पार करते हैं। फिर वे, स्टेशन के मेन-गेट की तरफ़ बढ़ जाते हैं..क्योंकि, हमेशा की तरह इन्हें आज़ भी झट अपनी मेम साहब के निकट पहुंचना है। अब प्लेटफोर्म तीन पर आकर, गाड़ी रुकती है। डब्बे में बैठे यात्रियों का जमाव, उसके दरवाज़े पास हो जाता है। सभी उतावली करते हुए, झट गाड़ी से नीचे उतरने की कोशिश कर रहे हैं। इधर इस यात्रियों की भीड़ के कारण, बेचारे मोहनजी एक क़दम आगे बढ़ा नहीं पाते। तब क्रोधित होकर वे, उस भीड़ में खड़े लोगों को कड़वे शब्द सुना बैठते हैं।]
मोहनजी – [क्रोधित होकर कटु-शब्द सुनाते हैं] – दूर हटो रे, कढ़ी खायोड़ो। इधर मुझे हो रही है, तेज़ लघु-शंका। और तुम कढ़ी खायोड़ो, बीच-बीच में आते जा रहे हो ? अरे करमठोक इंसानों, मुझे युरीनल के अन्दर जाने दो।
रतनजी – [पीछे से आते हुए, कहते हैं] – अब आप स्टेशन के बाहर जाकर, मूत लेना।
[इतने में ओमजी मुंह फाड़े, बोल उठते हैं]
ओमजी – [ज़ोर से कहते हैं] – ओ मोहनजी, स्टेशन के बाहर जाकर मूतना मत। बाहर तो जनाब, एक भी युरीनल नहीं है। दीवार पर पेशाब की धार चलाते किसी पुलिसकर्मी ने देख लिया, तो रामा पीर की कसम..वह आपको पकड़कर, हवालात में बैठा देगा ?
रशीद भाई – [बीच में बोलते हैं] – तो अब क्या करेंगे, मोहनजी ? मैं तो जनाब, यही कहूंगा..आप डोरी बांधकर, बैठ जायें मालिक।
रतनजी – मोहनजी आप हमारी बात मान लीजिये, पेशाब करने के लिये मत जाइये। बात यह है, हम तो अभी उतर जायेंगे..फिर पीछे से, आपके बैग की रखवाली कौन करेगा ?
रशीद भाई – सही बात है, रतनजी। अभी हमारे उतरने के बाद, ये बोतले चुगने वाले छोरे आ जायेंगे डब्बे के अन्दर, और उनके साथ ये मंगते-फ़क़ीर भी आ जायेंगे। [मोहनजी से कहते हैं] ओ मोहनजी ख़ुदा जाने, कहीं किसी ने आपका बैग पार कर लिया..तो फिर आप, हमें दोष मत देना।
[अब भीड़ नीचे उतर चुकी है, मोहनजी अपना बैग उठाते हैं। उनको बैग उठाते देखकर, ओमजी झट बोल देते हैं]
ओमजी – लीजिये साहेबान, मोहनजी कितनी सावधानी बरत रहे हैं ? अब वे बैग लेकर ही, युरीनल में क़दम रखेंगे।
रशीद भाई – ओ मोहनजी, अपने साथ बैग ले जाने की ग़लती मत करना। पेशाब करते वक़्त, यह बैग बार-बार सामने आयेगा। और इस पर पेशाब के छांटे उछलकर इस पर गिर गए, तो ख़ुदा भी आपको माफ़ नहीं करेगा ? क्योंकि आप इस बैग में ही, खाने का टिफ़िन रखते हैं।
मोहनजी – [गुस्से में कहते हैं] – अब मुझे, पेशाब करने कहीं नहीं जाना है, मेरे बाप। बार-बार बीच में बोलकर, तुम कमबख़्तों ने मेरा पेशाब रोक डाला। अब चलो कढ़ी खायोड़ो, स्टेशन के बाहर।
[अब थोड़ी देर बाद, मोहनजी की चांडाल-चौकड़ी पुलिया चढ़ती हुई दिखायी देती है। अब सभी सीढ़ियां चढ़कर पुलिए के प्लेटफोर्म [समतल-भाग] पर आ गये हैं। तभी चम्पाकली इनके आगे आकर, इनका रास्ता रोककर खड़ा हो जाता है। अब वह नाचता हुआ ठुमके लगाता है, कभी आकर मोहनजी के गाल खींच लेता है। कभी वह रशीद भाई की टोपी उनके सर से उठाकर, अपने सर पर रख लेता है। इधर जैसे ही रतनजी अपना क़दम आगे बढ़ाते हैं, और यह चम्पाकली उनके पास आकर उनकी बोतल निकाल लेता है...उनके बैग से। इस बार तो यह चम्पाकली ओमजी से भी नहीं डरता है, वह उनका एक गाल खींचकर उनके पिछवाड़े पर चिमटी काट लेता है। इस तरह वह ओमजी को बराबर खिज़ाता जा रहा है, आस-पास आने-जाने वाले यात्रियों के लिए तो यह, बिना पैसे का तमाशा बन गया है। वे सभी तमाशबीन बने यात्री, मोहनजी की चांडाल-चौकड़ी को चारों ओर घेरा डालकर खड़े हो जाते हैं। और तालियां पीटते हुए, इस चम्पाकली का ज़ोश बढ़ाते जा रहे हैं। इन यात्रियों में कई यात्री बड़े रसिक निकले, वे मोहनजी की चांडाल-चौकड़ी पर रुपयों की गोळ करके चम्पाकली को कड़का-कड़क नोट देते जा रहे हैं। इस तरह चम्पाकली की झोली भरती जा रही है, कड़का-कड़क नोटों से। फिर क्या कहना, चम्पाकली का ? वह ज़ोश में आकर, गीत गाता हुआ ज़ोर से नाचना शुरू कर देता है]
चम्पाकली – [गीत गाता हुआ, नाचता है] – मत जा, मत जा, मत जा रे भोगी। पांव पडूं तेरे, सेठ मोहन लाल। मत जा, मत जा, मत जा रे भोगी। बाहर खड़े हैं तूझे उठाने, वक़्त थोडा है तेरे सामने। अब तो रुक जा, रुक जा, सेठ मोहन लाल। मत जा, मत जा, मत जा रे भोगी। पांव पडूं तेरे, सेठ मोहन लाल।
मोहनजी – [गीत गाते हुए, उसका जवाब देते हैं] – प्रीत का दर्द, तू क्या जाने..? ना है मर्द, ना है नारी। विरह का दर्द, तू क्या जाने ? सोच थोडा तू, अक्ल लड़ा के, बाट नाल रही मेरी मेहरारू। छोड़ रास्ता, हट जा रे किन्नर। हट जा, हट जा, रे किन्नर।
चम्पाकली – [गीत गाता हुआ, नाचता जाता है] – वह चमकता चन्दा, और ठंडी ठंडी लहरें। मनभावनी बहती गयी, उस चांदनी रात। पाळ सरवरे नंगे नाचे, बन कालिया भूत। सेठ मोहन लाल, कैसी थी वह रात ?
[गीत में कालिया भूत का नाम आते ही, मोहनजी घबरा जाते हैं..उन्हें लगा “कहीं यह किन्नर भूतिया नाडी पर घटित हुई घटना सबके सामने ज़ाहिर करता हुआ, उनके रोमांस का भेद न खोल दे ? फिर क्या ? झट उन्होंने चम्पाकली के होंठों पर हाथ रखकर, उसे चुप रहने का इशारा कर डाला। मगर, यह क्या ? मोहनजी के इस तरह उस किन्नर को चुप कराने के तरीके को देखकर, उनके साथी ज़ोर से ठहाके लगाकर हंसते हैं। इधर इस हंसी के किल्लोर को सुनकर, सवाई सिंहजी अपने पुलिस कांस्टेबलों को साथ लेकर वहां प्रगट हो जाते हैं। तभी गुलाबो भी वहां आकर, खड़ा हो जाता है। इन लोगों को देखकर, चम्पाकली का नाच-गाना स्वत: बंद हो जाता है। वहां खड़े तमाशबीन भी, एक-एक करके वहां से चले जाते हैं।]
सवाई सिंहजी – [डंडा फटाकरते हुए, कहते हैं] – यह क्या बदतमीज़ी है, मोहन लाल ? आज़कल वापस चार सौ बीसी करनी, शुरू कर दी क्या..? कर दूंगा साले, तूझे हवालात में बंद। क्या समझता है मोहन लाल, तुम अपने आप को ?
[मौक़ा देखकर, चम्पाकली सवाई सिंहजी के पास आकर कहता है] ***********
चम्पाकली – जनाब, आपसे क्या कहूं ? [मोहनजी और उनके साथियों की तरफ़, उंगली से इशारा करता हुआ] मोहनजी और इनके साथी पक्के नटवर लाल है, जनाब। ये लोग फर्जी चैकिंग पार्टी बनकर आये डब्बे में, और इन्होंने मुझ ग़रीब को लूट लिया।
सवाई सिंहजी – चुप बे हीज़ड़े। तू गाड़ी में लोगों को लूटता है, तुझको कौन लूटेगा ?
चम्पाकली – [रोवणकाळी आवाज़ में कहता है] – अरे जनाब, आपको क्या मालुम ? मेरे मेहनत के पैसे थे, जनाब। गाड़ी में नाच-गाकर, बहुत मेहनत करके पैसे इकट्ठे किये थे। इन्होने सारे रुपये-पैसे छीन लिए, हुज़ूर। मौक़े की वारदात के वक़्त, गुलाबो बी भी उस वक़्त उस डब्बे में हाज़िर थी। इनकी गवाही, भले काम आ जायेगी। हुज़ूर मेरे रुपये-पैसे दिलवा दीजिये, वापस।
गुलाबो – [नज़दीक आकर कहता है] – हुज़ूर अन्नदाता। न्याय दिलाइये, मैं अपनी गवाही ज़रूर दूंगी। [ताली बजाकर कहता है] जनाब, ये वे ही सेठ मोहन लाल है। जब हम दोनों मिलकर, नाच-गान से कमाये हुए रुपयों को गिन रही थी..
सवाई सिंहजी – आगे बोल, गुलाबा।
गुलाबो – [रोवणकाळी आवाज़ में, कहता है] – अब आगे क्या कहूं, अन्नदाता ? तब सेठ मोहन लाल अपने साथियों के साथ फर्जी चैकिंग पार्टी बनकर वहां आये, और आकर इन लोगों ने कई दिनों की हमारी कमाई लूट डाली..जनाब।
[इतना कहकर गुलाबा, चुप-चाप अपने पर्स में से ग्लिसरीन की शीशी निकाल लेता है। और उसका ढक्कन खोलकर, उसमें अपनी उंगली डूबा देता है..फिर उसका ढक्कन बंद करके, वापस पर्स में रख देता है। अब वह इस उंगली को, आंखों में लगाता है। आंखों में उंगली रखते ही, नक़ली आंसू ढलक जाते हैं। अब वह अपनी रोवणकाळी आवाज़ बनाता हुआ, आगे कहता है]
गुलाबो – [नक़ली आंसू ढलकाता हुआ, रोवणकाळी आवाज़ में कहता है] – साहब आप इन सबको हवालात में बंद कर लीजिये, तब तक आप इन्हें नहीं छोड़ना जब तक ये चोर-उचक्के हमारे रुपये वापस नहीं लौटा दे।
सवाई सिंहजी – [मूंछों पर ताव देते हुए, कहते हैं] – अच्छा मिस्टर नटवर लाल, दिखने में तुम सीधे लगते हो। मगर असल में हो तुम मिस्टर चार्ल्स शोभ राज़ के भतीजे, लुटेरे नंबर एक। [सिपाइयों को हुक्म देते हुए, कहते हैं] पकड़ लो, इन सबको। यह तो इन बदमाश, लुच्चे-लफंगों की गैंग लगती है। ले चलो इन्हें, अपने दफ़्तर।
[अचानक इनकी नज़र खाक़ी वर्दी पहने हुए ओमजी पर गिरती है, उनको देखते ही उनका सिर चकराने लगता है। वे नज़दीक आकर, एक हाथ से डंडा घुमाते हुए कहते हैं।
सवाई सिंहजी – होम गार्ड बना फिरता है, कमबख़्त। करता क्या है, साले चवन्नी क्लास ?
ओमजी – हुकूम, यह वर्दी नहीं है। जनाब, मैं तो अक़्सर ऐसे कपड़े ही सिलाई करवाकर पहनता हूं। मुझे पुलिस जैसे कपड़े पहनने, बहुत अच्छे लगते हैं।
सवाई सिंहजी – धत तेरे की। मुझे तो तूने भ्रम में डाल दिया, अब मुझे पक्का भरोसा हो गया है...
ओमजी – [ख़ुश होकर कहते हैं] – आपको भरोसा हो गया ना, कि ‘हम बेक़सूर हैं ?’ फिर, जनाब हम लोग अपने घर चले जायें ?
सवाई सिंहजी – जाते कहां हो, भंगार के खुरपों ? मैं यह कह रहा था, तुम पक्के चार सौ बीस..यानि मिस्टर नटवर लाल हो। [पास खड़े सिपाइयों से कहते हैं] ले जाओ रे इनको, और कर दो इनको हवालात में बंद। [गुलाबा से कहते हैं] ओय गुलाबे तू भी चल कमबख़्त, इस चम्पाकली को साथ लेकर।
गुलाबो – हुज़ूर, मुझे क्यों..?
सवाई सिंहजी – बयान कौन देगा, तेरा बाप ?
[अब चारों तरफ़ इनके सिपाई फैलकर, घेर लेते हैं मोहनजी और इनके साथियों को। अब सभी सवाई सिंहजी के साथ-साथ जी.आर.पी, दफ़्तर की ओर क़दम बढाते दिखायी देते हैं। इन सबके पीछे-पीछे, गुलाबो और चम्पाकली हंसी के ठहाके लगाते हुए चलते दिखायी देते हैं। पुलिया उतरते वक़्त इस स्थिति में अपने-आपको पाकर मोहनजी, दुःख के मारे आँसू ढलकाते हुए रोवणकाळी आवाज़ में साथ चल रहे रशीद भाई से कहते हैं]
मोहनजी – [रोते हुए कहते हैं] – अब और करना रशीद भाई, लोगों की सेवा। आपकी तरह मैं भी बना सेवाभावी, दूसरों के काम हमने मिलकर सलटाये..और, अब हमने पाये फोड़े। अब ठोकिरा आस करणजी अगर कहीं मिल जाये, तो उनके उतार दूं माली-पनां ?
[धीरे-धीरे पदचाप की आवाज़ आनी बंद हो जाती है, थोड़ी देर बाद मंच पर अंधेरा छा जाता है। कुछ देर बाद मंच पर रौशनी फ़ैल जाती है, पुलिया के बिल्कुल सामने ही जी.आर.पी. का दफ़्तर है..अब उसका मंज़र, सामने दिखायी देता है। इस दफ़्तर के आगे, छोटा सा बगीचा लगा है। बगीचे में एक छोटा चबूतरा है, जिस पर छोटा सा मंदिर बना है। इस मंदिर पर चमचमाती हुई डिस्को लट्टूड़ीयां लगी हुई है, अब एक सिपाही आकर इस बगीचे में पानी का छिड़काव करता जा रहा है। बगीचे के अन्दर दो पत्थर के तख़्त लगे हैं, उसके निकट ही तीन कुर्सियां रखी है। दफ़्तर के दोनों गेट पर दो सिपाई डंडा लिये, राउंड काट रहे हैं। दफ़्तर के आगे, गलियारा बना हुआ है। जिसके पास, मोदी खाना और रसोड़ा है। इसके पहलू में, सवाई- सिंहजी का कक्ष है। इसके आगे, दफ़्तर के दूसरे कमरे भी आये हुए हैं। बिल्डिंग के एक ओर, पाख़ाना, युरीनल, और स्नानागार बने हुए हैं। जिसके आगे ही, गाड़ियां रखने का पार्किंग स्थान है। अब मोहनजी और उनके साथी, जी.आर.पी. के सिपाईयों के साथ इस बगीचे में दाख़िल होते हैं। इन लोगों का ध्यान रखने के लिये, कुछ सिपाही बगीचे में लगे तख़्त पर बैठ जाते हैं। बगीचे में छिड़काव हो जाने से, गीली दूब को स्पर्श करती हवा मनभावनी ख़ुशबू फ़ैला देती है। अब रतनजी का दिल, गीली दूब की ख़ुशबू पाकर ख़ुश हो जाता है। किसी गायक के लिए ऐसी सुगन्धित हवा, गायकी का मूड बनाने के लिए पर्याप्त है। बगीचे में बह रही यह शीतल वायु उनके मन-मयूर को, भजन गाने के लिये मज़बूर करती जा रही है। अब वे, अपने साथियों से गुफ़्तगू करते दिखाई दे रहे हैं]
रतनजी – अरे यार, क्या छिड़काव हुआ है बगीचे में ? इस छिड़काव से, मनभावनी भीनी-भीनी ख़ुशबू फ़ैल गयी है।
ओमजी – [मंदिर की तरफ़, उंगली से इशारा करते हुए कहते हैं] – वाह भाई, वाह। बाबा के मंदिर के ऊपर, क्या शानदार छोटे-छोटे डिस्को बल्व लगाए गए हैं ? मुझे तो अब ऐसा लगता है, आज़ बाबा का जागरण यहीं रखा गया है। देख लीजिये..क्या बढ़िया व्यवस्था हो रही है, जागरण की ?
रतनजी – क्या देखें, जनाब ? बात तो कांच की तरह साफ़ है। देख लीजिये, मंदिर में दिया-धूप होने का क्या तात्पर्य है ? मुझे तो इन पुलिस वालों के दिल में, प्रभु के प्रति भक्ति-भाव दिखायी दे रहा है। अब क्या करूं, यार ? दिल में सत्संग की भावना, उछाले खाती हुई प्रतीत हो रही है।
ओमजी – सच कहा, आपने। मेरा दिल, बाबा रामसा पीर के चार भजन गाने के लिए उतावला हो रहा है। जय रामसा पीर की, बाबा भला करे..बाबा रामसा पीर की जय हो। [मंदिर की तरफ़ देखते हुए, रामसा पीर को हाथ जोड़ते हैं]
रतनजी – यार ओमजी, आपने तो मेरी मन की बात कह दी। यहां, चार क्या ? दस भजन गा लेने चाहिये, हमें। यहां सत्संग हो जाय, तो आनन्द आ जायेगा ओमजी। फिर जनाब, यहां बहेगी मीठे-मीठे सुर की लहरें।
रशीद भाई – फिर भाईजान, आप पीछे क्यों रहते हैं ? हो जाओ शुरू, और दिखाओ अपनी गायकी का जौहर। आज़ फिर कर लीजिये पूरी अपनी दिल-ए-तमन्ना, राग अलापने की। ऐसा मौक़ा फिर कभी आयेगा नहीं, आख़िर आप हैं जागरण से निकाले हुए तड़ी-पार। बस आप यह सोच लीजिये, यहां जागरण में आपको बाहर निकालने वाला कोई नहीं।
रतनजी – [होंठों पर मुस्कान बिखेरते हुए, कहते हैं] – कोलेज के वक़्त की नासमझी की बातें छोड़िये, रशीद भाई। उन बातों को वापस याद मत दिलाओ, याद आते ही मेरे दिल में आग लग जाती है। कि, ‘मैं जागरण से बाहर किया हुआ यानि मैं जागरण का तड़ी-पार हूं।’
रशीद भाई – वापस याद कर लीजिये, जवानी की बातों को। शायद इस बुढ़ापे में, उन बातों को याद करते आपके अन्दर जवानी का जोश उमड़ जाए ? [धीरे-धीरे, कहते हैं] फिर तो जनाब, बुढी घोड़ी लाल लगाम..आप वासती जवानी का लुत्फ़, उठाते रहना।
(पिछला जुमला धीरे से बोला गया, जो वे सुन नहीं पाते...फिर भी श्रीमानजी बोले गए जुमले को सही ठहराते हुए कह देते हैं ।
रतनजी – सही कहा, आपने। क्या, दिन थे ? अब वे दिन वापस आने वाले नहीं। करते रहते थे मटरगश्ती, कोई फ़िक्र नहीं थी उन दिनों में। भायली को रिंझाने के लिए जाते थे, जागरण में। उस वक़्त इस गले से, क्या सुर निकलते थे ? क्या बताऊं, आपको ?
[बातें करते-करते रतनजी बैठ जाते हैं, कुर्सी पर। कोलेज के वक़्त की यादों को दिल में संजोये हुए, वे खो जाते है यादो के सागर में। बगीचे की ठंडी-ठंडी चल रही हवा से, उनकी पलकें भारी होती जा रही है। कुछ ही पल में वे, नींद के आगोश में चले जाते हैं। अब कोलेज के दिनों के किस्से, चित्र बनकर उनके मानस-पटल पर छाते जा रहे हैं। मंच पर अंधेरा छा जाता है, थोड़ी देर बाद, मंच पर वापस रौशनी फ़ैल जाती है। अब जोधपुर विश्वविद्यालय ओल्ड कैम्पस का मंज़र, सामने आता है। जसवंत होल में, विदाई समारोह का कार्यक्रम चल रहा है। अब रतनजी और उनका मित्र छत्तर सिंह, पुस्तकालय भवन के पास से दबे पांव गुज़र रहे हैं। वे दोनों इस समय, चुचाप जसवंत होल का कार्यक्रम देखने की कोशिश में लगे हैं। पुस्तकालय के पास ही, रसायन प्रयोगशाला आयी हुई है। जहां रतनजी के पिताजी अनोप सिंहजी, तकनीकी सहायक का काम करते हैं। वे दोनों डर रहे हैं, ‘कहीं इनको मालुम न हो जाय, कि वे जसवंत होल में हो रहे रंगारंग कार्यक्रम देखने जा रहे हैं ?’ इस कारण, वे दोनों दबे पांव धीरे-धीरे आगे क़दम बढ़ा रहे हैं। इतने में इन दोनों को, पीछे से किसी के पुकारने की आवाज़ सुनायी देती है। दोनों पीछे मुड़कर, क्या देखते हैं ? कोई अठारह या बीस साल की सुन्दर युवती आ रही है, जिसने धवल चांदनी के समान सफ़ेद सलवार-कुर्ती और दुपट्टा पहना रखा है। इस नवयुवती के बाल, साधना-कट कटे हुए हैं। इसके जुल्फें, फिल्म ‘मेरा साया’ की नायिका “साधना” की तरह, चेहरे पर छाई हुई है। ऐसा लगता है, मानो उसका चन्द्रमुख उसके काले-काले बादल रूपी केशों से ढका जा रहा है ? इस चन्द्रमुख के आगे से यह केश राशि दूर होती हुई, ऐसा आभास देती है मानो “बादलों की ओट से, पूर्णिमा का चन्द्रमा बाहर आ रहा है ?” इस चंद्रमुखी लड़की का नाम है, आशा। अब आशा नज़दीक आकर, कहती है]
आशा – रतन, मुझे स्टेज पर शास्त्रीय [क्लासिकल] डांस करने का रोल मिल गया है। मगर तू साथ में गाता, तो मज़ा आ जाता।
रतनजी – आशा, तेरे पिताजी इस विश्वविद्यालय में काम नहीं करते हैं...इस लिये तू अभी, इतनी चौड़ी होकर बोल रही है। मेरे पिताजी को मालुम हो जाय, कि उनका सपुत्र कोलेज के स्टेज पर गीत गा रहा है...तो वे ईधन की लकड़ी लिये, मुझे पीटते नज़र आयेंगे ?
छत्तर सिंह – इसके पिताजी को, मालुम क्यों नहीं होगा ? यहां इसी रसायन प्रयोगशाला में, काम करते हैं। और वे बराबर ध्यान रखते हैं, कहीं उनका सपुत्र बिगड़ ना जाय ? क्या करें ? बेचारा रतन तो अभी ठहरा, नन्हा बच्चा। बीस-बाईस साल का हो गया, मगर आशा अभी इसके दूध के दांत टूटे नहीं है।
रतनजी – अरे यार छत्तर सिंह, फिर तू क्या है अपने वालिद के सामने ? तू क्या, बच्चों का बाप बन गया क्या ? जानता नहीं माता के दीने, मां-बाप की नज़रों में उनके बच्चे हमेशा बच्चे ही बने रहते हैं। भले उनके बच्चों की, चार-चार औलादे हो गयी है ?
आशा – [फिक्रमंद होकर, कहती है] – अब छोड़ इस बात को, अब यह बता तेरे पिताजी वास्तव में तूझे स्टेज पर गीत गाने नहीं देंगे ?
रतनजी – हां आशा, सच्च बात यही है..! मगर आशा, मैं करूं क्या ? ये संगीत के कार्यक्रम, गाना-बजाना, नाचना आदि उनको अच्छे नहीं लगते। यहां तो उनकी नज़रों में, कला की कोई क़द्र नहीं। जब भी इसका जिक्र चले, तब एक ही बात उनके श्रीमुख से निकलकर बाहर आती है, कि ‘नाचना-गाना तवायफ़ों का काम है।’
आशा – इसके अलावा, और कोई प्रवचन तो देते होंगे ?
रतनजी – पिताजी कहते हैं, ‘तू खूब ऊंची पढ़ाई करके, बड़ा अफ़सर बनना और ख़ानदान को रोशन करना। ख़ानदानी आदमियों को, नाच-गाने के शौक से बहुत दूर रहना चाहिये।’
[पिताजी का जिक्र करते-करते, रतनजी के कलेज़े पर डर छा जाता है। इस डर के कारण ज़ब्हा [ललाट] पर पसीना छलकने लगता है, अब वे पसीने के एक-एक कतरे को रुमाल से साफ़ करते हैं। फिर, वे आगे कहते हैं]
रतनजी – तू फ़िक्र मत कर, आशा। और, कहीं..
छत्तर सिंह – ‘रंग जमायेंगे, फिर तूझे फ़िक्र करने की क्या ज़रूरत ? पिताजी कमाते हैं, और मैं बैठा-बैठा खाता हूं।’ क्यों रे रतन, तू यही बात आशा को कहना चाहता है ना ?
रतनजी – देख छत्तर सिंह, अब तू चुपचाप बैठ जा। ना तो यह मेरा बाएं का थप्पड़, धब्बीड़ करता पडेगा तेरे गाल के ऊपर।
छत्तर सिंह – नाराज़ क्यों होता है, रतन ? तूझे, किसकी फ़िक्र ? तू तो ठकराई से यही कहता आया है, पढ़ने की क्या ज़रूरत ? ‘अनपढ़ घोड़ा चढ़े, पढ्या मांगे भीख’ फिर भाई रतन, अपुन क्यों मांगे भीख ? अपुन को तो रोज़ जाना चाहिये, जागरण में..और ख़ुश रखना है, आशा बाईसा को। क्या करना है, बेफ़ालतू पढ़ाई करके ?’
रतनजी – ए आशा, तू इस पागल की बातों पर ध्यान मत दे..यह तो, पूरा पागल है। तू फ़िक्र कर मत, देख तेरी सहेली बदनकौर के घर कल रात को सत्य नारायण भगवान का जागरण है। वहां मैं तूझे, अवश्य मिलूंगा। तू धीरज रख, जागरण का प्रोग्राम पूरा फिक्स है। बस तू वहां आना भूलना मत, वहां तू मुझसे सातों ही सुर सुन लेना।
[फिर, क्या ? आश्वासन पाकर आशा तो जसवंत हाल की तरफ़ अपने क़दम बढ़ा देती है, और इधर..ख़ुदा जाने, कैसे अनोप सिंहजी को अपने लाडले रतन की आवाज़ सुनायी दे जाती है ? वे तेज़ आवाज़ में, रतनजी को पुकार बैठते हैं...]
अनोप सिंहजी – [रसायन प्रयोगशाला की खिड़की से बाहर झांककर, आवाज़ देते हैं] – ए रे सावंतिया, किधर जा रिया है ? इधर मर, कुचमादिया का ठीकरा।
[मगर इनकी आवाज़ सुनकर, अब वे दोनों यहां क्यों रुकेंगे ? यहां तो भईजी के दीदार पाते ही, उनके डर से इनका पेशाब उतरता है..? वहां इन दोनों के रुकने का, कोई सवाल ही नहीं। दोनों झट हो जाते हैं, नौ दो इग्यारह। मंच पर अंधेरा छा जाता है, थोड़ी देर बाद मंच पर रौशनी फ़ैल जाती है। रातानाडा शिव मंदिर के पड़ोस में आया, बदन कौर का मकान नज़र आता है। इस मकान की दीवारों पर, रंग-बिरंगे छोटे-छोटे लट्टूओं की कतारे लगी है। जो इस रात्रि में, झिल-मिल रौशनी देते जा रहे हैं। सूर्यास्त हुए, काफ़ी वक़्त बीत गया है। अब आभा में, आसियत का अंधेरा फैल गया है। चाँद-सितारों रूपी रत्नों का श्रृंगार की हुई आभा, सुन्दर परी की तरह सजी हुई है। मकान के अन्दर, बहुत चहल-पहल है। बदन कौर के पिताजी ने पूर्णिमा-व्रत का उजावणा किया है, इस कारण दोपहर को कथा रखी गयी और प्रसादी भी की गयी। अब रात को सत्यनारायण भगवान के जागरण की, तैयारी हो रही है। छत पर पानी का छिड़काव हो चुका है, और सत्संग करने वाले भक्तों के बैठने के लिए जाजमें बिछायी जा चुकी है। ठंडी-ठंडी मनभावनी वायु की लहरें, लोगों के दिल में उमंग पैदा कर रही है। पूर्व दिशा की ओर एक छोटी टेबल पर, भगवान सत्यनारायण की तस्वीर तथा राधा कृष्ण की मूर्तियां रखी गयी है। उनके आगे दिया-धूप और चांदी की थाली में पताशे, मखाने, मूंगफली और मिश्री का भोग रखा गया है। जाजम पर तबला-पेटी, मंजीरा [छम-छमिया], खड़ताल आदि साज़ के सामान रखे गये हैं। उनके पास ही एक थाली में रखी है, जिसमें रात्रि-जागरण करने वालों के लिये बीड़ी-सिगरेट, अफ़ीम की किरचियां और काली-मिर्च व मिश्री का मिश्रण वगैरा सभी आवश्यक चीजें रख रख दी गयी है। लाउडस्पीकर की भी व्यवस्था की जा चुकी है, जिससे जुड़े भूंगले को बिंडी पर रख दिया गया है। जिसका मुंह मोहल्ले की तरफ़ है, ताकि मोहल्ले वासियों को इसकी तेज़ आवाज़ सुनायी देती रहे। चाहे इन मोहल्ले वालों को मज़बूर होकर, अपने कानों में उंगली डालनी पड़े ? अब छत पर पहुंचने के लिए, रतनजी और उनकी मित्र मंडली सीढ़ियां चढ़ती जा रही है। और साथ में वे लोग संगम फिल्म का गीत “तेरे मन की गंगा, और मेरे मन की जमना का बोल राधा बोल, संगम होगा या नहीं..” गाते जा रहे हैं। इन लोगों के पीछे सीढ़ियां चढ़ते आ रहे, एक बुढ़ऊ को इनका यह गीत सुनायी देता है। वह समझ नहीं पा रहा है, इस गीत को ये बच्चे क्यों गा रहे हैं ? आख़िर यह गीत, इनकी भजन-मंडली द्वारा गाये जाने वाला भजन तो नहीं है ? उससे रहा नहीं जाता, और वह पूछ बैठता है।]
बुढ़ऊ – अरे छोरों..गट्टूड़ा बट्टूडा, क्या गा रहे हो तुम लोग ? बताओ, बताओ मेरे लाडकों।
छत्तर सिंह – [सीढ़ियां चढ़ता हुआ, कहता है] – बा’सा, हम लोग राधा-कृष्ण का भजन गा रहे हैं।
[इतना कहकर छत्तर सिंह, झट सीढ़ियां चढ़कर छत पर चला आता है। वहां पहुंचकर वह, झट नीचे रखी प्रसाद की थाली को टेबल पर रख देता है। उधर वह बुढ़ऊ ख़ुश होकर, रतनजी की मंडली को कहता जा रहा है..]
बुढ़ऊ – [ख़ुश होकर कहता है] – गाओ बेटा, गाओ। [भजन गाने की स्टाइल में, उस फ़िल्मी गीत को गाता है] तेरे मन की गंगाजी, और मेरे मन की जमनाजी..बोलो राधेजी संगम होगा या नहीं..
[अब उस बुढ़ऊ के दूसरे साथी जो पीछे-पीछे आ रहे हैं, वे भी उसका साथ देते हुए इस गीत को गाने लगते हैं। इन बूढ़ों की मंडली तो धीरे-धीरे सीढ़ियां चढ़ती आ रही है, मगर रतनजी की पूरी टोली झट-पट पहुंच जाती है छत पर। और वहां आकर पहला काम करती है, साज़ के सामान पर कब्ज़ा जमाने की। इस तरह रतनजी माइक पकड़ लेते हैं, तो छत्तर सिंह थामकर बैठ जाता है हारमोनियम की पेटी। प्यारे मोहन तबले पर थाप देने लगता है, अट्टूड़ा और गट्टूड़ा छम-छमिया और खड़ताल बजाने बैठ जाते हैं। जब ये सभी बुढ़ऊ सीढ़ियां चढ़कर आते हैं छत पर, वहां की स्थिति इनके लिए नाक़ाबिले बर्दाश्त हो जाती है के ‘उनकी उपस्थिति में कोई दूसरे आकर, साज़ के सामान पर कब्ज़ा कैसे जमा सकते हैं ?’ उन लोगों को साज़ का सामान कब्ज़ा जमाये देखकर, इन खोड़ीले बुढ़ऊओं से बिना बोले रहा नहीं जाता..बस उनमें से झट भड़ास निकालता हुआ, दूसरा बुढ़ऊ कहता है]
दूसरा बुढ़ऊ – अरे ए रतन सिंह, इधर ला माइक।
रतनजी – फिर हम क्या करेंगे, बा’सा ?
तीसरा बुढ़ऊ – सेवा करना, सेवा करोगे तो पाओगे मेवा।
चौथा बुढ़ऊ – बेटा अट्टूड़ा गट्टूड़ा, ठंडा पानी पिलाओ। प्रसाद की पुड़ियाँ बनाओ, काम तो बहुत है बच्चों..करो उतना ही कम है।
तीसरा बुढ़ऊ – [रतनजी से] – बेटा रतन, अपने दोस्तों को साथ ले जा। और जाकर, चाय-वाय का इंतजाम करो बेटा।
छत्तर सिंह – फिर आप क्या करेंगे, बा’सा ?
[सभी बुढ़ऊ जाजम पर बैठ जाते हैं, फिर पहला बुढ़ऊ सभी बुढ़ऊ जनों से कहता है]
पहला बुढ़ऊ – हम लोग गायेंगे भजन, [दूसरे सभी बुढ़ऊओं से कहता है] लो भाइयों, गाओ पहला भजन गजाननजी महाराज़ का। [भजन गाना शुरू करता है] जय गणेश जय गणेश, जय गणेश देवा। [अपने साथियों से, वापस कहता है] अरे क्यों चुप-चाप बैठ गए, खरगू की तरह ? देवो रे, मेरा साथ।
दूसरा बुढ़ऊ – [रतनजी से माइक छीनकर, कहता है] – इकट्ठे हो गए यहां, गधों की तरह ? यहां, क्या लड्डू मिल रहे है ? जाओ, जाओ। अपना काम देखो। [इतना कहकर, वह धक्का देकर रतनजी को उठाता है]
तीसरा बुढ़ऊ – ए रे छत्तरिया, बीड़ी-सिगरेट की थाली थमा दे रे इधर। अब तलब होने लगी है रे, अब तो अहले धुंए निकालेंगे सिगरेटों के। फिर गायेंगे, आराम से।
[छत्तर सिंह उन बुढ़ऊओं के सामने, थाली रख देता हैं। अब उस थाली से सभी बुढ़ऊ उठाते जा रहे हैं सिगरेटें, एक भी बुढ़ऊ बीड़ी के हाथ नहीं लगा रहा है ? फटा-फट वे माचिस से उन सिगरेटों को सिलगाकर, धुंए निकालते जा रहे हैं। थोड़ी देर में ही सिगरेटों के कई पाकेट ख़त्म हो जाते हैं, धुंए के उठते बादल से लोगों के लिए सांस लेना कठिन हो जाता है। यह मंज़र देखकर, रतनजी का दिल जलता है। इन बुढ़ऊओं का ऐसा व्यवहार देखकर, उन पर बहुत क्रोध आता है। कि, ‘ये कमबख़्त अपने घर पर फूंकते हैं बीड़ियाँ, और यहां जागरण में मुफ़्त की सिगरेटें क्या हाथ लग गयी ? सभी उन पर हाथ साफ़ करते, थक नहीं रहे हैं ?’ फिर, क्या ? रतनजी झट उस थाली को वहां से हटाकर, कहते हैं]
रतनजी – [ज़ोर से, कहते है] – क्या कर रहे हो, बा’सा ? पूरी उम्र गुज़र गयी बीड़ियाँ फूंकते-फूंकते, अब यहां हाथ लग गयी मुफ़्त की सिगरेटें…..और आप सब बन गए, राजा भोज। क्यों बेचारे यजमान का ख़र्च बढ़ाते जा रहे हैं, अपना शौक पूरा करने के लिए ?
[पहला बुढ़ऊ झट रतनजी को अपने नज़दीक बुलाता है, फिर उनके कान में फुसफुसाता हुआ कहता है]
पहला बुढ़ऊ – [कान में फुसफुसाकर, कहता है] – क्यों बखिया उधेड़ रहा है, कुछ तो हमारी इज़्ज़त का ख़्याल कर ? बेटा रतन तुझको पीनी है तो बेटा तू भी पी ले रे, और दो-दो सिगरेटें तेरे दोस्तों को भी थमा दे। ऐसी बातें अन्दर ही रहने दे, बाहर चौड़ी करने की कोई ज़रूरत नहीं।
दूसरा बुढ़ऊ – यह तो तेरे और हमारे बीच, चुपचाप रहकर अपना काम पूरा कर लेने का सौदा है। बस बेटा, चुप रहकर फ़ायदा उठा लेना ही अच्छा है। तुम लोग भी सिगरेट फूंकते हुए धुंए के छल्ले बनाओ, और हम भी मज़ा ले लेंगे धूम्र-पान का।
रतनजी – यह बात तो ठीक है, बा’सा। मगर हम लोग भी, भजन गाना चाहते हैं।
दूसरा बुढ़ऊ – धीरज रखो, बेटा। पहले हम लोग गजानन देव का पहला भजन गा लेते हैं, फिर तुम लोगों का ही नम्बर है। ले रतन अब जगह छोड़, और ले जा तेरे दोस्तों को..और जाकर, चाय बनाकर लेकर आ जाओ।
पहला बुढ़ऊ – जा रे, रतन। अब हम लोगों को गाने दे, रे।
तीसरा बुढ़ऊ – जल्दी जा, वक़्त ख़राब मत कर।
[पहला बुढ़ऊ तबले पर थाप देने लगता है, तो दूसरा उठाता है मंजीरा। फिर तीसरा, कब कम पड़ने वाला ? वह झट उठाता है, हारमोनियम की पेटी। साज़ के साथ निकलने लगते हैं, सुर। उधर इनका मुखिया पकड़ता है, माइक..और ज़ोर-ज़ोर से गाने लगता है। अब इनके सुर भूंगले में गूंजते हैं, ‘गजानन पालने में झूले ओ गजानन..’ इधर यह सुर उठता है, और मकान के बाहर इधर-उधर विचरण कर रहे सारे गधे एक जगह इकट्ठे होकर, ढेंचू, ढेंचू के सुर ज़ोर से निकाल बैठते हैं। उधर रतनजी और उनके दोस्त दुमदुमे के पास आकर, बैठ जाते हैं। इस दुमदुमे पर, बाल्टी में पीने का ठंडा पानी भरकर रख दिया गया है। इन बुढ़ऊओं का सुर ‘पालने में झूले गजानन..’ उठता है, और उधर रतनजी एक हाथ की मुट्ठी दबाते हैं, फिर दूसरे हाथ से इस हाथ की कोहनी पकड़कर उसे हिलाते हैं झूले के माफ़िक। तभी सीढ़िया चढ़ते आ रहे एक बुढ़ऊ की निग़ाह इस तरह के इशारा कर रहे रतनजी पर गिरती है, इन इशारों को देखते ही वह बुढ़ऊ चमकता है। फिर, क्या ? वह इनके नज़दीक आकर, इनसे कहता है..]
नया बुढ़ऊ – क्या कर रहे हो, छोरों ?
रतनजी – [मुस्कराते हुए कहते हैं] – हिंडोला [झूले] में झूला रहे हैं, गजानन देव को।
छत्तर सिंह – बा’सा, ज़रा रतन का नाच देखकर जाइए। बहुत अच्छा नाचता है, जनाब।
नया बुढ़ऊ – नहीं बेटा, मुझे तो अपने साथियों के पास जाना है। उनके पास बैठकर, भजन गाने में उनका साथ देना है। आप लोग नाचो, बेटा नाचो।
[अब नया बुढ़ऊ, अपने साथियों के पास आकर कहता है]
नया बुढ़ऊ – [जाजम पर बैठता हुआ, कहता है] – देखो रे, भाया। अपने मोहल्ले के छोरे बहुत होशियार हो गए हैं, नाचने में। आपको क्या कहूं, दोस्तों। ये बच्चे ऐसे नाचते हैं, जैसे मधुवन में राधा-कृष्ण की जोड़ी नाचती है।
[इतने में सारे बुढ़ऊ भजन का अगला मुखड़ा गाना शुरू करते हैं, सभी बुढ़ऊ साज़ बजाते हुए गाते दिखायी देते हैं]
सारे बुढ़ऊ - [अगला मुखड़ा गाते हुए] - “रिद्धि-सिद्धि थोरे संग बिराजे ओ, माणक-मोती लावे ओ देवा”
[छत्तर सिंह मर्द-औरत के एक साथ सोने की एक्टिंग करके दिखाता है, इस तरह वह इस भजन की अलग ही व्याख्या देता दिखायी देता है। वक़्त बीतता जा रहा है, काफ़ी वक़्त बीत जाने के बाद..अब घड़ी के दोनों कांटें, बारह के निशान पर आकर मिल जाते हैं। अब घड़ी में मध्य रात्रि के बारह बजे हैं। अब सारे बुढ़ऊ झेरे खाने लगे, नींद के कारण उनकी पलकें भारी होती जा रही है। बस, रतनजी को इसी मौक़े की तलाश थी। झट हथेली पर अफ़ीम की किरचियां रखकर, एक-एक बुढ़ऊ के पास जाकर मनुआर करते हैं। फिर क्या ? हरेक बुढ़ऊ किरची उठाकर अपने मुंह में रख़ता जा रहा है, और साथ में ‘ॐ नम: शिवाय’ अलग से बोलता जा रहा है। थोड़ी ही देर में, उनके मुखिया के हाथ से माइक छूट जाता है। रतनजी झट माइक थामकर, जागरण का मंच जीत लेते हैं। अब सारे बुढ़ऊ अब, झेरे खाते नज़र आ रहे हैं। अब रतनजी के साथी, इन लोगों के हाथ से साज़ के सामान लेकर उन पर कब्ज़ा जमा चुके हैं। सभी साथी, साज़ बजाते हुए दिखाई दे रहे हैं। रतनजी ठहरे, कुबदी नंबर एक। कुबद को अंजाम देने के लिए, अब वे फ़िल्मी तर्ज़ पर भजन गाते जा रहे हैं। जिसकी तान के पीछे ये झेरे खा रहे बुढ़ऊ, पीछे के सुर देते जा रहे हैं। अब इस चांदनी रात में, रतनजी ऊंची तान छोड़ते हैं। अब इनके सुर, इनकी भायली आशा के कानों में गिरते हैं। वह झट..काली मिर्च और मिश्री का मिश्रण लेकर, मुंडेर [छत] पर चली आती है। और वहां बावली की तरह, रतनजी के पास आकर खड़ी हो जाती है। उसे अपने पास बैठाकर, रतनजी अपनी ज़ेब से चांदी की डिबिया निकालते हैं। उस डिबिया में रखी पान की गिलोरियों से, बर्क लगी हुई दो पान की गिलोरी निकालते हैं। फिर एक ख़ुद अपने मुंह में ठूंसते हैं, और दूसरी गिलोरी देते हैं आशा को। पान की गिलोरी चबाते-चबाते, आशा के होंठ लाल सुर्ख हो जाते हैं। अब वह रतनजी के पास बैठकर, तन्मयता से उनके गाये भजन सुनती है। इन दोनों को देखकर ऐसा लगता है, मानो सौन्दर्यता की देवी “बनी ठनी”, अपने प्रेमी किशनगढ़ महाराजा रतन सिंह [कवि नागरी दास] के पास बैठी है ? कुछ वक़्त गुज़रता है, उसकी सहेली बदन कौर सीढ़ियां चढ़कर छत पर चली आती है। और आकर, आशा से कहती है]
बदन कौर – [नज़दीक आकर, कहती है] – ए आशा। तूझे लेने आ गए हैं, तेरे ताऊजी। नीचे चल, वे बाहर खड़े तेरा इंतज़ार कर रहे हैं।
[जैसे किसी प्रेयसी की दुर्दशा उसके प्रेमी के बिछुड़ने से हो जाती है, आशा की भी वही दशा होती जा रही है। उसके नयनों से, अश्रु सरिता बहने लगी। अब होने वाला बिछोव का दर्द, नाक़ाबिले बर्दाश्त होता जा रहा है। नयनों से आंसू गिराती हुई, वह अवरुद्ध गले से बदन कौर से कहती है]
आशा – [आंसू गिराती हुई, कहती है] – भायली, ऐसे मीठे सुरों को छोड़कर मुझे कहीं जाने की इच्छा नहीं होती। अब ताऊजी को, इनकार कैसे करूं ? इनकार कर दिया, तो वे नाराज़ हो जायेंगे।
[प्रीत का सोमरस पीये हुए नयनों से, आंसू गिरते जा रहे हैं..इन गिर रहे आंसूओं को देखकर, रतनजी का दिल-ए-दर्द नाक़ाबिले बर्दाश्त हो जाता है। वे इन गिरते आंसू रूपी मोतियों को, अपने रुमाल से साफ़ कर डालते हैं। इस तरह वे इन मोतियों को, ज़मीन पर गिरने नहीं देते। फिर उसे दिलासा देते हुए, कहते हैं]
रतनजी – यह कैसा, पागलपन ? आज़ नहीं तो कल फिर मिलेंगे, कोलेज के अन्दर। अभी ताऊसा को नाराज़ मत कर, आशा।
[आशा से बिछुड़ना रतनजी के लिए, नाक़ाबिले बर्दाश्त है। उनका दिल नहीं चाहता, कि ‘आशा यहां से चली जाय।’ दिल चाहता है, वे उसके सर और गालों को हाथ से सहलाते हुए दिलासा दे दें..मगर लोक-लाज़ के डर से, वे ऐसा कर नहीं पाते। फिर क्या ? आशा उठकर बदन कौर के साथ, रुख़्सत होती दिखायी देती है। उस जा रही आशा को देखते-देखते, उनकी आँखें नम हो जाती है। अब वे उस बिछोह को बर्दाश्त करते हुए, उद्धवजी और गोपियों के बीच होने वाले सम्वाद पर तैयार किया गया भजन ऊंची तान लेकर गाते हैं। “आंखों से झरने बहते, कहो नी..” मुखड़ा आते ही, उनके नयनों से अश्रुधारा इस तरह बहती है..जिसे वे रोक नहीं पाते ? उनके लिए ‘श्री कृष्ण व गोपियों के वियोग’ विषय पर तैयार किया गया “उद्धव-गोपी संवाद” भजन, उनके दिल को असर करता जा रहा है..उसके सुर ऐसे लगते हैं..मानो उनके दिल को चीरकर, वे ऊंचे सुर उनके कंठ से निकले हो ? कुछ ही देर में, आशा उनकी नज़रों से ओझल हो जाती है। अब रतनजी “उसके जाने का कारण” बुढ़ऊ रिश्तेदार [ताऊजी] को मानकर बिछोव का दोषी उन्हें समझ लेते हैं। उन पर आये क्रोध का कहर, इन सभी बुढ़ऊ लोगों पर ढहाने लगते हैं। फिर क्या ? वे प्रतिशोधात्मक क़दम, वे इन सभी बुढ़ऊ लोगों की इज़्ज़त उधेड़ने के लिए उठा लेते हैं..! उनको मालुम है, ये बुढ़ऊ पिछले सुर की टेर बराबर देते जा रहे हैं, भले ये बुढ़ऊ झेरे ही खा रहे हैं ? फिर क्यों नहीं, इनके साथ कुबद की जाए ? अब वे, दू-अर्थी संवाद के भजन गाने शुरू करते हैं। उनका विचार, शत प्रतिशत सही साबित होता है। क्योंकि अब, उनकी गायी हुई हर लाइन के बाद बुढ़ऊ टेर देते जा रहे हैं।
रतनजी – [दू-अर्थी भजन गाते हुए] – चामड़ी री पुतली भजन कर ए ऽऽऽ
सभी बुढ़ऊ – [झेरे खाते हुए, टेर देते हैं] – अें SS अें SS जी ओऽऽऽ जी ओऽऽऽ...
रतनजी – [गाते हुए] – चामड़ा रा हाथी-घोड़ा, चामड़ा रा ऊंट, चामड़ा रा बाजा बाजे, बाजे च्यारू खूट...
सभी बुढ़ऊ – [टेर देते हुए, मुखड़ा वापस गाते हैं] – ओ ऽऽऽ ओ SS जीओ जीओ चामड़ा रा बाजा बाजे ओऽऽऽ बाजेऽऽऽ ओऽऽऽ बाजे च्यारू खूट ओऽऽऽ जीओऽऽऽ जीओऽऽऽ जीओऽऽऽ बाजेऽऽऽ
[अफ़ीम की पिनक में, सभी बुढ़ऊ ज़ोर-ज़ोर से देने लगे तान। इस तरह रतनजी सभी बुढ़ऊ से, लगा-लग टेर दिलवाते जा रहे हैं। जब इन बुढ़ऊ की टेर देने की आवाज़ भूंगले में गूंज़ती है, तब छत पर सो रहे मोहल्ले के निवासियों को नींद उछट जाती है। जगने के बाद जब मोहल्ले वालों ने, सारे बुढ़ऊओं की आवाज़ को ध्यान से सुनी। आवाज़ सुनते ही वे, इन सभी बुढ़ऊओं को पहचान जाते हैं। वे अब आश्चर्य चकित होकर, इन बुढ़ऊओं को बुरा-भला कहते हैं। उनको इस बात का आश्चर्य है, फागुन माह आया नहीं, फिर ये बुढ़ऊ कैसे गा रहे हैं फागुन के गीत ? फिर वे बिंडी के पास इकट्ठे होकर करते है, परायी पंचायती।]
एक चालीस साल का आदमी – [पड़ोसी से बात करता हुआ] – ये बुढ़ऊ लोग तो, सारे शरारती निकले ? रात की नींद ख़राब कर डाली, इन्होने। खींवजीसा। अब मैं तड़के उठकर कैसे पकडूंगा, जयपुर की गाड़ी ?
खींवजी – आपका जयपुर जाना, फिर कभी हो जाएगा..मगर मोहल्ले के सारे बुढ़ऊ बिगड़ गए तो, क्या करेंगे रामसा ? अब, बोलते क्यों नहीं ?
रामसा – भोगने फूटे हुए हैं इन बुढ़ऊओं के, यह कोई भजन है “चामड़ा रा बाजा बाजे...” मुझे तो कहते हुए लाज़ आती है।
खींवजी – ‘साठा बुद्धि न्हाटे’ मैं यही कहूंगा, रामसा। बन्दर बूढा हो जाता है, मगर छलांग लगाना नहीं भूलता। बस, ये सारे बुढ़ऊ जन अपने मोहल्ले के ऐसे ही है।
रामसा की बहू – खींवजी की बहू। मैं तो हूं आधी पागल, जब गट्टूड़ा के बापू ने कहा था “जागरण में जाने वाले या तो होते हैं निक्कमें या फिर होते हैं रुलियार।” उस वक़्त मैंने इनकी बात पर भरोसा किया नहीं। मगर अब मुझे पूरा भरोसा हो गया है, ये सारे बुढ़ऊ जन रुलियार ही है। इसलिए, ये एक भी जागरण नहीं छोड़ते।
खींवजी – हां भाभी, हर जागरण में यही बुढ़ऊ जन मिलते हैं। आप, कहीं जाकर देख लो।
[रतनजी की यह रात, ख़ाली कुबद करने में ही बीती। दू-अर्थी सावन और फागुन के गीतों का प्रयोग, कितना बढ़िया इन भजनों में किया गया...ऐसा प्रयोग, होली पर्व पर शलील गीत गाने वाले माई दासजी भी नहीं कर सकते। फिर क्या ? इधर बजे सुबह के चार, और इन बुढ़ऊओं का उतर जाता है अफ़ीम का नशा। फिर क्या ? इन लोगों की आंखों से उतर जाती है नींद, और वे जागरण का मंच संभाल लेते हैं। फिर रतनजी और उनके दोस्त झट चाय तैयार करके, ले आते हैं इन बुढ़ऊओं के पास। सभी बुढ़ऊओं ने चाय से भरे प्याले उठा लिए हैं, और अब वे चुस्कियां लेते हुए चाय पीते जा रहे हैं। चाय पीने के बाद, सभी बुढ़ऊ जन ने दियासलाई से सिगरेटें सिलगा दी है। अब वे सिगरेटों से धुंए के छल्ले बनाते हुए, इधर-उधर की गपें भी ठोकते जा रहे हैं। तभी राज़ रणछोड़जी के मंदिर से, मंगला के भजनों की आवाज़ सुनायी देती है। फिर क्या ? बुढ़ऊ जन झट, ‘सत्य नारायण की आरती’ की तैयारी करते हैं। आरती करने के बाद, इन बुढ़ऊओं का मुखिया रतनजी और उनके दोस्तों को हुक्म देता है, कि ‘वे झट प्रसाद की पुड़िया बनाकर, सबको वितरित कर दें।’]
बुढ़ऊ का मुखिया – [रतनजी से, कहता है] – रतन सिंह, तूने खूब गा लिए भजन। तू गाकर सन्तुष्ट हो गया, ना ? अब, आप लोग सभी प्रसाद बांटने की तैयारी करो। फटा-फट प्रसाद की पुड़िया बनाओ, और सबको बांटो।
[रतनजी और उनके मित्र प्रसाद की पुड़िया बनाकर, सबको बांटते दिखायी देते हैं। उधर सारे बुढ़ऊ लोग, भगवान की जय-जयकार करते जा रहे हैं।
बुढ़ऊ का मुखिया – [ज़ोर से जय बोलाता हुआ] – बोलो रे बेलियों, अमृत वाणी।
सभी बुढ़ऊ – [ज़ोर से, एक साथ बोलते हैं] – हर हर महादेव।
[जागरण के नियम के अनुसार जयकारा तीन बार लगाते हैं, अत: सभी बुढ़ऊ दो बार और जयकारा लगाते हैं]
बुढ़ऊ का मुखिया – [ज़ोर से बोलता है] – बोलो रे बेलियों अमृत वाणी।
सभी बुढ़ऊ – [ज़ोर से, एक साथ बोलते हैं] – हर हर महादेव।
बुढ़ऊ का मुखिया – [ज़ोर से, बोलता है] – बोलो रे बेलियों अमृत वाणी।
सभी बुढ़ऊ – [ज़ोर से, एक साथ बोलते हैं] – हर हर महादेव।
बुढ़ऊ का मुखिया – [ज़ोर से, बोलता है] – आज़ के आनंद की..!
सभी बुढ़ऊ – [एक साथ, बोलते हैं] – जय हो।
[प्रसाद की पुड़िया लेकर, सभी बुढ़ऊ जन रवाना होते दिखाई देते हैं। दूसरे दिन रतनजी के घर पर, उनके सारे मित्र इकट्ठे हो जाते हैं। और फिर करते हैं, जागरण में बीती घटना का जिक्र।]
रतनजी – देखिये मित्रों। कैसी बीती रे, इन खोड़ीले बुढ़ऊओं के साथ ? फिर वापस करना, खोड़ीलाई ? ये लोग, क्या समझते हैं ? मेरा नाम रतन सिंह है। मैं हूं, ओटाळपने का उस्ताद।
[इतने में मोहल्ले में, कई लोगों के ज़ोर-ज़ोर से बोलने की आवाज़ सुनायी देती है। रतनजी को ऐसा लगता है, ‘कई लोग चौपाल पर बैठे बुढ़ऊओं को, फ़टकार रहे हैं ? या कोई, उन पर ताना कस रहा है ? इन आवाज़ों को सुनकर, रतनजी अपने दोस्तों से कहते हैं]
रतनजी – [ख़ुश होकर, कहते हैं] – चलो चलो, खिड़की के पास। वहां चलकर, देखते हैं...इन बुढ़ऊ जन की इज़्ज़त की बखिया, कैसे उधेड़ते हैं ये मोहल्ले वाले ?
[खिड़की से झांक रहे रतनजी और इनके दोस्तों को, मोहल्ले की चौपाल का चबूतरा दिखायी देता है। उस चबूतरे पर बैठे इन बुढ़ऊओं को, मोहल्ले के लोग फ़टकारते दिखायी दे रहे हैं]
रामसा – पप्पूड़े के भईजी, क्या बात है ? रात को आप क्या पीकर बैठे थे, जागरण में ? कैसे चहक रहे थे, आप ? कहीं बा’सा, आपने अफ़ीम तो नहीं ठोक ली, अपने दोस्तों के साथ बैठकर ?
खींवजी – बात यह है, रामसा। कि, पप्पूड़े की मां बा’सा के ऐसे गुण देखकर इनसे पहले चली गयी, भगवान के घर। अब यह वासती जवानी है, बड़ी ख़राब। अफ़ीम की किरची बिना, इनका काम चलता नहीं। जागरण में मुफ़्त में मिल जाती है, अफ़ीम की किरचियां और फूंकने के लिए बेहतरीन सिगरेटें।
रामसा की बहू – [घूंगट निकाले, कहती है] – गट्टूड़ा के पापा। मैं तो यही कहूंगी, बा’सा का मन वापस शादी करने का हो गया है। क्या करे, बेचारे ? कुछ कर नहीं सकते, तो क्या हो गया ? फाटा बोलकर दिल की बाफ निकालते हैं, बेचारे।
बुढ़ऊ का मुखिया – [क्रोधित होकर, कहता है] – आप सभी, मेरे बच्चों की उम्र के हैं। आपके माता-पिता ने सिखाया नहीं कि ‘बड़ो से बात कैसे की जाती है ?’ कहीं तुम लोग, भंग पीकर तो यहां नहीं आ गए ?
रामसा – ऐसे बड़े-बूढ़े बनते हैं आप, फिर रात को ऐसे भजन आप लोगों ने कैसे गाये ? ये कैसे भजन है ? [गाने का अभिनय करते हुए कहते हैं] “चामड़ा रा बाजा बाजे, बाजे च्यारू खूट” अब कहिये, इस भजन का क्या मफ़हूम है ?
दूसरा बुढ़ऊ – हमने तो ऐसे भजन गाये नहीं, हम तो ले रहे थे ऊंघ। फिर, गाये किसने ? [अपने साथियों पर, नज़र डालता हुआ कहता है] बोलो भाई, किसने की ऐसी कुबद ?
बुढ़ऊ का मुखिया – [याद करता हुआ, कहता है] - माइक तो था, इस बदमाश रतनिये के पास।
[अब वह सोचने बैठ जाता है, फिर याद आते ही ज़ोर से कहता है]
बुढ़ऊ का मुखिया – [ज़ोर से, कहता है] – अरे भाइयों, इस कुबदी ने ही शरारत कर डाली हमारे साथ। इस रतनिये को माइक दिया नहीं हमने, बस यही कारण है...इस नालायक ने बदला निकाला है, हमारे साथ।
तीसरा बुढ़ऊ – तब जनाब, आज़ से इस रतन सिंह और इसके दोस्तों को जागरण से निकाला जाता है..यह हमारी भजन मंडली का ऐलान है।
रतनजी – [ज़ोर से, कहते हैं] – मुझे मत निकालो रे.., मुझे मत निकालो रे...!
[रतनजी को ऐसा लगता है, कोई उनके कंधे को ज़ोर से हिला रहा है। इस तरह कंधे को झंझोड़ने से, उनकी आँख खुल जाती है। वे आँखें मसलते हुए जागृत होते हैं, और सामने क्या देखते हैं..? आस-पास खड़े उनके साथी उनका कंधा झंझोड़कर उनको उठा रहे हैं। और उनको बड़बड़ाते देखकर, पास खड़ा हवलदार मुस्कराकर उन्हें कह रहा है..]
हवलदार – ओ बाबू साहब। आपको कैसे निकालें बाहर ? आपको तो बंद करेंगे अभी, हवालात के अन्दर। मालिक, आपको यह कुर्सी बैठने को क्या मिल गयी ? वाह भाई, वाह। इस कुम्भकर्ण को भी पीछे छोड़ दिया, आपने..नींद लेने में। अब उठ जाइये, जाकर मिल लीजिये सवाई सिंहजी से। ऐसी नींद तो जानवर भी नहीं लेते हैं, भाई।
[उस हवलदार की आवाज़ सुनकर, दूसरे बैठे हवलदार ज़ोर से हंसते हैं। अब उन्हें इस तरह हंसते देखकर, अब रतनजी क्या बोल पाते ? जनाब रतनजी तो, शर्मसार होते जा रहे हैं। अब वे, सर झुकाकर बैठ जाते हैं। अचानक मोदीखाने से मोदीजी की आवाज़, यहा बैठे सिपाइयों को सुनायी देती है। आवाज़ सुनकर वह हवलदार, मोहनजी की चांडाल-चौकड़ी को सवाई सिंहजी के पास हाज़िर होने का हुक्म देता है।]
हवलदार – अब आप सभी जाइये, और सीधे जाकर साहब के पास हाज़िर हो जाइए।
[मगर इन बेचारों को क्या मालुम, सवाई सिंहजी कहां बैठते हैं ? इधर मोहनजी ठहरे, अफ़सर। वे क्यों अदने से हवलदार का हुक्म, मानेंगे ? उधर रतनजी और रशीद भाई जानते नहीं, सवाई सिंहजी का कमरा किधर है ? वे बेचारे सवाई सिंहजी के कमरे के स्थान पर, मोदीजी के कमरे में घुस जाते हैं। ओमजी ठहरे, अपनी मर्ज़ी के मालिक। वे तो वहीँ खड़े रह जाते हैं, गलियारे में। इस गलियारे में, उन्हें कहीं हवलदार का डंडा मिल जाता है। उसे उठाकर वे गलियारे में, हवलदार की तरह राउंड काटने लग जाते हैं। मोदीखाने में दाख़िल होने पर, उन्हें मोदीजी बैठे दिखायी देते हैं। उनको घेरकर, तीन-चार पुलिस वाले बैठे हैं। रसोड़दार [महराज़] की व्यवस्था न हो पाने से, मोदीजी नाराज़ होकर उन पुलिस वालों को कटु वचन सुना रहे हैं]
मोदीजी – अरे कमबख़्तों घनचक्कर की तरह पूरे दिन भटकते रहते हो, पूरे जोधपुर शहर में। मगर मेरा कहा काम करने में आपको आती है, मौत। कितनी बार कहूंगा, आप लोगों को ? कि, ‘महराज़ का, बंदोबस्त करना है।’ मगर आप लोग इस कान से सुनते हैं, और दूसरे कान से निकाल देते हैं। अब, सुन लेना मेरी बात।
एक पुलिस वाला – अरे बोलिए, मोदीजी। नहीं तो फिर आप, लोगों से हमारी शिकायत करते रहेंगे ?
मोदीजी - [गुस्से में, कहते हैं] – या तो तुम लोग व्यवस्था कर दीजिये एक रसोड़दार की, नहीं तो रामा पीर की कसम..खाना आप लोगों से ही बनवाऊंगा। फिर कहना मत, बेचारे ग़रीब हवलदारों को नाहक परेशान कर रहा हूं मैं ?
एक पुलिस वाला – [पास बैठे पुलिस वाले से, कहता हैं] - घर पर, अपनी घर वाली से हो गए होंगे परेशान। अब यहां बेचारे, घर वाली पर आये क्रोध को हम लोगों पर उतार रहे हैं। [उस पुलिस वाले की बात सुनकर, वह दूसरा पुलिस वाला अपने होंठों पर मुस्कान बिखेर देता है। फिर दोनों, एक साथ हंस पड़ते हैं। हंसते हुए उनकी नज़र, कमरे में दाख़िल हो रहे रतनजी पर गिरती है। रतनजी की सूरत, पहनावा और उनके रहने का ढंग देखकर, वे उन्हें रसोड़दार महराज़ ही समझ लेते हैं। रतनजी ठहरे दुबले-पतले, कमीज़ से बाहर आयी हुई यज्ञोपवीत, सर पर चोबेजी की तरह गांठ दी हुई चोटी..यह सारा व्यक्तित्व किसी रसोड़दार महराज़ का ही हो सकता है। इनको देखते ही, पुलिस वाले और मोदीजी हो जाते हैं ख़ुश। एक पुलिस वाला, मुस्कराता हुआ कहता है]
पुलिस वाला – [मुस्कान बिखेरता हुआ, ज़ोर से कहता है] – अरे मोदीजी देख लीजिये, जनाब। आपके रसोड़दार महराज़, आ गए हैं। मोदीजी अब ताना देना बंद कीजिये, और मंगवा लीजिये दो किलो गुलाब-जामुन चतुरजी की दुकान से। फिर लगाओ भोग, बाबा रामसा पीर को।
मोदीजी – [रतनजी से, कहते है] – इतनी देर से पधारे, महराज़ ? आपका इंतज़ार करते-करते, मैं हो गया परेशान। [उठकर, रतनजी को रसोड़े की चाबी देते हैं] यह लीजिये चाबी, रसोड़े की। अब आप पहले यह बताकर जाइये, पहले आप क्या बनाओगे ?
[रतनजी झट मोदीजी से रसोड़े की चाबी लेकर उनकी बात पर, आश्चर्य चकित होकर उनका मुंह ताकते हैं ? ‘वे समझ नहीं पा रहे हैं, यह मोदी क्या कहता जा रहा है ? शायद यह मोदी, मुझे पहचान नहीं पाया है ? इन बातों से, अपुन को क्या लेना-देना ? बस अब तो मुझे ऐसी जुगत लड़ानी है, जिससे हम चारों यहां से छूटकर अपने घर पहुंच सके ?’ इतना सोचकर, वे मुस्कराते हुए मोदी से कहते हैं]
रतनजी – [मुस्कराते हुए, कहते हैं] – मोदीजी, जय श्याम री सा। आप देखिये बाहर, मौसम कैसा सुहावना है। इन पेड़-पौधो को देखकर, मन-मयूर नाच उठता है। बस ऐसे मौसम में जनाब, दाल के बड़े बन जाए..तो मालिक, आप सब बड़े खाकर ख़ुश हो जायेंगे। जनाब, फ्रिज में मूंग की दाल पीसी हुई होगी ?
[दाल के गरमा-गरम बड़ों का नाम सुनकर, पास बैठा पुलिस वाला ख़ुश हो जाता है। वह ख़ुश होकर, कहता है]
पुलिस वाला – [ख़ुश होकर, कहता है] – आनंद से बनाओ, महराज़। कल ही दाल पिसाकर, फ्रिज में रखी है। दाल के गरमा-गरम बड़े, वाह भाई वाह। मज़ा आ जाएगा।
[सीट से उठकर, अब वह पुलिस वाला मोदीजी से कहता है]
पुलिस वाला – मोदीजी, अब हम सभी बाहर जाकर बैठते हैं। आपको कोई काम हो, तो हमें बुला लेना। [अपने साथियों से] चलो भाई, चलो। कहीं साहब वापस न आ जाए, इधर घुमते-घुमते।
[सभी पुलिस वाले कमरे से, बाहर चले जाते हैं। मोदीजी से ली हुई रसोड़े की चाबी को अच्छी तरह से संभालकर, रतनजी रशीद भाई को साथ लिए रसोड़े की तरफ़ चल देते हैं। रसोड़े का ताला खोलकर, वे दोनों अन्दर दाख़िल होते हैं। अब रशीद भाई अपने बैग से, जमालगोटे की पुड़िया और केंवड़ा जल की शीशी निकालकर रतनजी को दिखलाते हैं। फिर उन्हें जमालगोटे की पुड़िया देकर, केंवड़ा जल की शीशी अपने पास रख लेते हैं। अब वे, उनसे कहते हैं]
रशीद भाई – आप जितने ओटाळ हैं, मैं उससे कम नहीं तो क्या..? सवाया तो, ज़रूर पड़ता हूं। यह लीजिये, जमालगोटे की पुड़िया। [जमालगोटे की पुड़िया देते हैं] इसे आप मूंग की दाल में मिलाकर, बड़े तल लेना। इतने में...
रतनजी – [फ्रिज खोलते हुए, कहते हैं] – आगे बोल, क्या कहना चाहता है ?
रशीद भाई - मैं ठंडे जल में, केंवड़ा जल डालकर सिपाईयों पिला देता हूं। जनाब देखिये, मुझे रहती है कब्जी। इसलिए यह जमालगोटे की पुड़िया, मैं अक़सर अपने बैग में रख़ता हूं।
रतनजी - [फ्रिज से, पीसी हुई दाल बाहर निकालते हैं] – अरे मियां, मुझे सब ध्यान है। तू क्या रख़ता है, और क्या नहीं रख़ता ? मैं तेरी पूरी जानकारी रख़ता हूं, अब आगे मत बोल। मुझे काम करने दे, और तू जाकर सिपाईयों को ठंडा पानी पिला।
[इतना कहकर रतनजी अलमारी से परात बाहर निकालकर उसमें पीसी हुई दाल डालते हैं, फिर उस दाल में जमालगोटा और अन्य मसाले डालकर दाल के बड़े बनाने की तैयारी शुरू करते हैं। उधर रशीद भाई फ्रिज से बर्फ निकालकर, बाल्टी में रखते हैं। फिर मटकी से पानी बाल्टी में लेकर, उसमें केंवड़े जल की कई बूंदे डाल देते हैं। फिर पुलिस वालों को पानी पिलाने के लिए, उस बाल्टी में लोटा डाल देते हैं। अब वे बाल्टी ऊंचाये रसोड़े से बाहर आते हैं, और बाहर राउंड काट रहे सिपाईयों को पानी पिलाने का काम शुरू कर देते हैं।]
रशीद भाई – [सिपाईयों को आवाज़ देते हुए, उन्हें पानी पिलाते जा रहे हैं] – पीजिये हुज़ूर, ठंडा-ठंडा पानी। बहादुर जवानों, देश की रक्षा करने वालों पीजिये ठंडा-ठंडा केंवड़े का पानी। ओ मेरे देश की रक्षा करने वाले बहादुर सिपाईयों, पीते रहो ठंडा-ठंडा पानी। और करते रहो, देश की रक्षा।
[इधर अपने मोहनजी बगीचे में बैठे-बैठे, सिपाईयों को अपनी ईमानदारी के किस्से सुनाते जा रहे हैं। इस तरह मोहनजी की चांडाल-चौकड़ी, अपने-अपने स्थान पर पेश करती जा रही है “ओटाळपने के सबूत।” अब मंच पर, अंधेरा फ़ैल जाता है।]
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