[मारवाड़ का हिंदी नाटक] यह चांडाल चौकड़ी, बड़ी अलाम है। - खंड 10 - लेखक - दिनेश चन्द्र पुरोहित

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[मारवाड़ का हिंदी नाटक]

यह चांडाल चौकड़ी, बड़ी अलाम है।

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लेखक - दिनेश चन्द्र पुरोहित

पिछले खंड -

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खंड १०, धूल भरी आंधी

लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित


[मंच रोशन होता है, पाली स्टेशन का मंज़र सामने आता है। आज़ एफ़.सी.आई. के तीनों कर्मचारी रतनजी, ओमजी और रशीद भाई दफ्तर से छूटकर जोधपुर जाने के लिए पाली स्टेशन के प्लेटफोर्म पर आ चुके हैं। अब ये तीनों रतनजी, ओमजी और रशीद भाई उतरीय पुल की सीढ़ियों पर बैठे हैं। अचानक आभा में कम्पी चढ़ जाती है, अब तो पूरा आसमान धूल के कारण पीला दिखाई दे रहा है। चारों ओर यह धूल फ़ैल गयी है, अब जिधर देखो उधर ही पीला-पीला नज़र आ रहा है। यह धूल की खंक अस्थमा के रोगियों का दम उठाने में देरी नहीं करती, इस कारण रतनजी ताज़ी हवा सेवन करने ऊपर वाले स्टेप पर जाकर बैठ जाते हैं। फिर वहां से, आवाज़ देकर अपने साथियों से कहते हैं]
रतनजी – [आवाज़ देते हुए कहते हैं] – आ जाइये ऊपर, अगर उठ गया तो यहाँ कोई संभालने वाला नहीं है। वैसे भी अपनी ज़िंदगी चल रही है, गोलियों के ऊपर।
[ओमजी और रशीद भाई झट सीढ़ियां चढ़कर, ऊपर वाले वाले स्टेप पर जाकर रतनजी के पास बैठ जाते हैं। बैठने के बाद, रशीद भाई कहते हैं]
रशीद भाई – देखिये, जनाब। आज़ आभा में उड़ गयी है, धूल।
रतनजी – पहले आप इसका जवाब दीजिये, के ‘डस्ट ओपेरटर का महफ़ूम क्या है ?’ कहिये, रशीद भाई ?
ओमजी – ये क्या बोलेंगे ? मैं बताता हूं, आपको। डस्ट यानि धूल, और ओपेरटर यानि उड़ाने वाला। कहिये जनाब, सही कहा या नहीं ?
रशीद भाई – मालिक, आप तो बिल्कुल सही बोलेंगे। जैसा आपका नाम है, वैसे ही गुण, ऊपर वाले ने आपमें भर रखे हैं। आप तो ठोकते ही बोलते हो, अगले का कर देते हैं..हरी ओम शरणम। मगर, अब ध्यान रखना...अफ़सरों के सामने, ऐसे मत बोलना।
ओमजी – बोल दिया, तो होगा क्या ? सत्य बोलने में, काहे की शर्म ? बोलिए, किस बात का आपको है, एतराज़ ?
रशीद भाई – अब बोल गए, तो अपुन सबको यह दफ़्तर छोड़ना पडेगा। अफ़सरों को, क्या कहना ? ये लोग कभी कारण नहीं बताया करते, अगर मर्ज़ी हुई तो पीकर बनाकर भी अजमेर भेज सकते हैं। और कैसे ही, अपुन लोगों को पाली छुड़ा देंगे।
रतनजी – बदली होने के बाद, ये ओमजी जनाब क्या कहेंगे....जानते हो रशीद भाई ?

रशीद भाई – कहना क्या ? यही कहेंगे के, ये सारे अफ़सर है, रिश्वत खाने वाले। धूल उड़ा दी, इस महकमें की।
ओमजी – देखिये, जनाब। आप तो जानते ही हैं, मेरा नाम है, ओम। मैं बोलता हूं सत्य। समझ गए, या नहीं ?
रशीद भाई – मैं समझ गया, उस्ताद। आप हो, राजा हरीश चन्द्र के अवतार। तब ही सत्यवादीजी बोले डी.एम. साहब से, के “गाड़ी, देर से आयी”। कहिये, आपको ऐसा कहा किसने ? के ‘आप उनको, ऐसा जवाब दो। ऐसा कोई कारण बताया जाता है, लेट आने का ?
ओमजी – सच्च कहा, मैंने। मेरे सच्च कहने से, आपको मिर्चे क्यों लगी ?
रतनजी – मिर्चे यों लगती है, जनाब। फिर आपको, डी.एम. का क्या प्रत्युत्तर मिला ? यह मिला के जनाब ठीक है, आप रोज़ अप-डाउन करते हैं गाड़ी से। चलिए आप तीनों को लगा देते हैं, अजमेर या श्रीनगर। फिर आराम से करना, रोज़ का आना-जाना। बात यह है, सत्यावादीजी। ख़ुद मरोगे, और हमको भी साथ लेकर मरोगे।
रशीद भाई – छोड़िये जनाब, आख़िर है तो अपने साथी। क्या करें यार, आख़िर गेहूं के साथ घूण भी साथ पिसा जाता है। समझ गए ? वो घूण, हम दोनों ठहरे। मगर, ओमजी आपको यह सोचना चाहिए के..
ओमजी – मैं, क्या सोचूँ ? झूठ बोल दूं, रामा पीर का भक्त होकर ?
रतनजी – मेरे सत्यवादी, राजा हरीश चंद्रजी। आपको यह ध्यान रखना चाहिए, के “यहाँ के सारे लोकल कर्मचारियों ने कितनी बार, साहब के आने की सूचना आपको अवगत करवाई ?” और कहिये, ‘आपको कितनी बार, कुछ कहकर बचाया ?’
ओमजी – एक बार भी नहीं। ये सारे कुतिया के ताऊ है, कौए। इन कौओं की तरह अपने-अपने आदमियों को फ़ोन पर इतला दे देते हैं, के ‘साहब पधार गए हैं, आप फटके से दफ़्तर आ जाइये।’ और अपुन लोगों को फ़ोन करने में, इनको आती है मौत।
रतनजी – अब समझ गए आप, ये कैसे लोग हैं ? इसलिये ऐसे वक़्त अपुन लोगों को, मुंह बंद करके रखना चाहिए। यही हमारे हित में है, ये लोग तो डी.एम. साहब के सामने, हमारे खिलाफ़ दो की चार बात बनाकर उनको उकसा दिया करते हैं। पता नहीं, ये अपने दिल में क्यों पाप पाल रहे हैं ? रामा पीर जाने, ये लोग किस जन्म का बदला ले रहे हैं ?
रशीद भाई – मगर यह देखो, इस डी.एम. के कारण हमारे दीनजी भा’सा का साथ छूट गया। यह ज़रूर, देण हुई अपने।
रतनजी – क्या करते, भाई ? अपुन सब तो हैं, करम फूटोड़े। कैसे करते, उनका साथ ? यह करमजला डी.एम. तो अपनी सीट से उठता ही नहीं, यार। राजू साहब इस भले आदमी के लिए, किलो भर गुलाब हलुवा, दस कोफ्ते, दो मिर्ची बड़े और रोहट की दस कचोरियाँ मंगवा दी भय्या।
ओमजी – मगर, होना जाना कुछ नहीं। इधर घड़ी में बजे शाम के छ:, और मैंने पिलायी इसके ड्राइवर को रेड एंड व्हाइट सिगरेट। और उससे किया, आग्रह। के ‘बापूड़ा, किसी तरह ले जा दे तेरे साहब को यहाँ से, नहीं तो हमारी यह लास्ट जम्मूतवी एक्सप्रेस गाड़ी चली जायेगी और इसके बाद जोधपुर जाने वाली कोई गाड़ी नहीं।
रशीद भाई – हां, बिल्कुल शत प्रतिशत बात सही कही आपने। जाते-जाते, उसने अपने ड्राइवर को हुक्म दे डाला “ए मिट्ठू सिंह। खाने का वक़्त बचा नहीं है, ये सारी मिठाई-नमकीन वगैरा रख दे गाड़ी में। जल्दी कर, कहीं और भी इंसपेक्शन करने जाना है।
रतनजी – अरे भाई, मुझे फ़िक्र सताने लगी, अब यह कहाँ जाकर करेगा इंसपेक्शन ? यह इतना भी नहीं जानता, रात के वक़्त गोदाम कहाँ खुला रहता है ? क्या यह डी.एम., रात के वक़्त गोदाम खुलवा सकता है ?
ओमजी – खुलवा सकता हैं, यार। जहां मोहनजी जैसे अफ़सर हो, वे कभी वक़्त देखते नहीं..बस, धुन चढ़ी और आ गए गोदाम चैक करने। इनके जैसे अफ़सर फ़िक्र करते रहते है घर बैठे, के ‘इनके जोधपुर आने के बाद, डी.एम. खारची आकर उनका गोदाम तो नहीं खुलवा दे ? अगर खुलवा दिया, तब वे क्या करेंगे ?’
रतनजी – मोहनजी जितने ज़्यादा पढ़े हुए हैं, वैसी ही इन्होने पायी है बुद्धि। इतना तो कोई गेला-गूंगा भी जानता है, बिना अफ़सर की इज़ाज़त गोदाम के ताले नहीं खुलते। इधर शाम के पांच बजे, उधर वाचमेन आकर लगा देता है ताला। फिर जनाब, कोई माई का लाल नहीं खुलवा सकता ताला।
ओमजी – क्या करे, बेचारे मोहनजी ? इसमें, इनका क्या दोष ? वे तो जब पोकरण में थे, तब इन्होंने नाईट ड्यूटी में जाकर वाचमेन की ड्यूटी चैक की थी। उसका परिणाम, बेचारे अभी-तक भुगत रहे हैं। इनके बड़े अफ़सर अक़सर रोज़ इनसे, स्पष्टीकरण मांग लिया करते हैं। बेचारे जवाब देते-देते, परेशान हो गए। मगर, वे इनको छोड़ते ही नहीं।
[इतने में १८-२० साल की सुन्दर लड़की आती है, ओमजी के पास। सुन्दर ज़रूर है, मगर इसने बोब कट बाल कटाकर अजीब सी सूरत बना दी है अपनी, और ऊपर से इसने पहन लिए हैं ऊंची एडी के चप्पल और मिनीस्कर्ट। आँखों पर लगा रखा है, काला ऐनक..घाणी के बैल की तरह। अब वह लटका-झटका करती हुई, ओमजी से इंग्लिश में पूछती है।
छोरी – [बोम्बे स्टाइल में, लटका-झटका करती हुई कहती है] – ब्रदर यूं टेल मी, जम्मूतवी ओन एक्यूरेट टाइम ?
ओमजी – [मारवाड़ी भाषा में कहते हैं] - ओ बाईसा। थाणा घिसड़-फिसड़ आघा बाळो, गाड़ी रौ पतौ करणो हुवै तौ पधारौ ठेसण माड़साब रै दफ़्तर मअें। म्हारौ क्यूं माथौ खावौ, अठै ऊब नै ?
रशीद भाई – कितना अच्छा होता, आज़ दीनजी भा’सा यहाँ होते ? इस बेचारी को, इंग्लिश में जवाब ज़रूर मिल जाता ?
ओमजी – उनकी यहाँ क्या ज़रूरत, क्या मुझे अंग्रेजी भाषा नहीं आती ? अरे जनाब मुझे आप अनपढ़ मत समझिये, मुझे भी आती है यह अंग्रेजी भाषा। मगर मैं इसको अंग्रेजी में बोलकर जवाब देना नहीं चाहता, क्या यह छोरी फिरंगियों की बेटी है ? क्या इसको, मारवाड़ी भाषा आती नहीं ? इस छोरी के दादा-पड़दादा सभी, यहाँ पाली में ही पैदा हुए हैं।
[ओमजी के बोले गए डायलोग, उस छोरी को कैसे पसंद आते ? वह आँखें तरेरती हुई, ओमजी को देखती है। अब यह नज़ारा देखते ही, ओमजी की मींजी जल जाती है। वे गुस्से में उस छोरी से कहते हैं]
ओमजी – [क्रोधित होकर, कहते हैं] – औ बाईसा, क्यूं आंखियां काड नै म्हने दैखौ हौ अठै ऊबा-ऊबा ? की बोलनो हुवै तौ बोलौ, पाधरा-पाधरा मारवाड़ी भासा में। नी तौ पधारौ सा, ठेसण माड़साब रै दफ्तर मांय।
[अब ओमजी उंगली का इशारा करते हुए, दिखाते हैं ‘कहाँ है, स्टेशन मास्टर साहब का दफ़्तर?’ पुलिए के नज़दीक, घेवरसा चाय का थैला लगाते हैं। वे इस वक़्त, पास वाले तख़्त पर आराम से लेटे हैं। इस तख़्त के पास, एक बीस साल का काणा छोरा खड़ा है। दिखने में यह छोरा, फैशनेबल लगता है। अपनी काणी आँख को छुपाने के लिए, वह आँखों पर काला ऐनक लगता है। इस ऐनक से, वह घाणी के बैल की तरह दिखायी देता है। अभी वह लबों पर रखी सिलगी हुई सिगरेट से, धुंए के बादल निकालता जा रहा है। एक तो इस बेचारे की एक आँख है, नदारद। और ऊपर से इसके मां- बाप ने इसका नाम रखा है, नयन सुख। अचानक इस छोरे की निग़ाह, उस ख़ूबसूरत छोरी पर गिर जाती है। छोरी का दिखायी देना, आकाश में उड़ते कबूतरों को ज़मीन पर पड़ा अनाज दिखाई दे जाने के समान है। बस वह भी इन कबूतरों की तरह, रास्ते में बिना देखे पुलिए की सीढ़ियों की तरफ़ जाने की कोशिश करता है। जहां वह छोरी, ओमजी के निकट खड़ी है। फिर क्या ? वह उतावली में आगे बढ़ता हुआ, कुली नंबर तीन सौ पच्चीस यानि पूर्णसा से टिल्ला खा बैठता है। ये पूर्णसा है, इस छोरे के काकोसा। घुद्दा खाते ही, पूर्णसा उसको सुना बैठते हैं, बीबी फातमा की पुड़।]
पूरणसा – छोरे, तेरे आँखें है या बटन ? दिखाई नहीं देता क्या, भंगार के खुरपे ? पढ़ा दूंगा तूझे, वेताल-पच्चीसी। आख़िर बता मुझे, मैं हूं कौन ? सुन मैं हूं, कुली नंबर तीन सौ पच्चीस। समझा अब, या डालू तेरे कानों में उबलता हुआ तेल ?
[मगर वह ना तो उनकी तरफ़ देख़ता है, और ना कुछ कहता है..पूरणसा जैसे बूढों से, उसका क्या काम ? सभी जानते हैं, उपासरा में कंघे का कोई काम नहीं। बस वह तो बतूलिये की तरह सीढ़ियां चढ़ता हुआ, पहुँच जाता है उस हूर की परी के पास। फिर उस हूर की परी को पटाता हुआ कहता है]
नयन सुख – गुड इवनिंग, मेडम। प्लीज टेक टी, देयर आफ्टर आई लुक योर प्रोब्लम।
[उसकी सहमति देते ही वह झट, घेवरसा से ले आता है दो कप चाय। फिर क्या ? दोनों चाय की चुश्कियाँ लेते दिखायी देते हैं। वह छोरी चाय पीते-पीते, उस नयन सुख से कहती है]
छोरी – थेंक यू माई डिअर। यूं आर इंटेलिजेंट। [ओमजी, रशीद भाई व रतनजी की तरफ़ उंगली का इशारा करते हुए कहती है] दीज़ मेन इलिटरेट..गवांर।
रतनजी – [आँखें तरेरते हुए कहते हैं] – ओय लल्लो चप्पो बाईसा। हम लोगों को कैसे कह रही हो, इलिटरेट..गवांर ? यह आपकी अंग्रेजी की घिस-पिट, हम सब समझते हैं बाया। मगर आपकी तरह दिखावा नहीं करते हैं, हम। समझ गयी, बाईसा ? हमें आपकी तरह मारवाड़ी या हिंदी बोलने में, शर्म नहीं आती।
रशीद भाई – [मारवाड़ी भाषा में, बोलते हैं] बाईसा। गतगेला व्हेग्या हौ, कांई ? मारवाड़ मअें जळम्या, अर थान्नै थाणी मारवाड़ी भासा बोलण मअें कैंनी आवै सरम ? भूलग्या थे, थान्नै भईजी रै साथै काम कीधोड़ा लोगां नै ?
रतनजी – वाह बाईसा, वाह। आप हमारे बारे में, ऐसी बातें करती हैं ? आप हमें नहीं जानती, मगर हम सभी आपको जानते हैं। आप हो, सेठ मकुन्द चंदसा की पोतरी रेखा बाईसा। कल आपकी नाक बहती थी, और कहती थी मुझे “रतन काकोसा, मीठी गोळी खावंनै बारै लिजावौ कन्नी।” आज़ वही हमारी लाडली बाईसा बन गयी, हमारे सामने लाड साहबणी ?
ओमजी ऐसे लोगों के कारण ही हमारी मायड़ भाषा राज़स्थानीको मान्यता नहीं मिल रही है। इन फैशनेबल लोगों के व्यवहार के कारण ही, इस भाषा की बोली और संस्कृति समाप्त होती जा रही है।
[छोरी रेखा चाय पीकर, ख़ाली कप नयन सुख को थमा देती है। इसके बाद वह इन तीनों को, सत्य बात बताने की कोशिश करती है।]
रेखा – बा’सा, आई नो वेरी वेल मारवाड़ी। बट आई कांट स्पीक, बीकोज़ आई एम रीडिंग इन कोंवेन्ट स्कूल। सोरी बा’सा, सोरी।
[अब मन में बहुत सोचते हैं, तीनों महानुभव...के इस लड़की को मारवाड़ी बोलने में कहाँ आती है, तक़लीफ़ ? मारवाड़ी न बोलना चाहती, तब कम से कम मातृभाषा हिंदी में तो बात कर सकती है ना ? मगर यहाँ तो यह गेलसफ़ी पाश्चात्यीकरण में ढलकर भूल गयी है देश-प्रेम और यहाँ की संस्कृति। मगर, अब हमें क्या करना ? क्यों इन बच्चों को अपने मुंह लगाकर, अपनी जग हंसाई करवानी ?” यह सोचकर, तीनों चुप-चाप बैठ जाते हैं। अब घेवरसा को ख़ाली कप थमाकर आता है, नयन सुख। वापस आकर, उस छोरी रेखा से कहता है]
नयन सुख – मेडम। नाउ यूं गिव मी आर्डर। वाट डू आई, फोर यूं ?
रेखा – [लबों पर मुस्कान बिखेरती हुई, कहती है] – थेंक्यू माय डिअर। प्लीज ब्रिंग माय लगेज। फॉलो मी।
[फिर क्या ? नयन सुख स्टेशन के बाहर जाने के लिए अपने क़दम बढ़ाता जा रहा है। आगे-आगे चल रही है रेखा, और पीछे-पीछे चल रहा है नयन सुख...नौकरों की तरह, सर झुकाए। थोड़ी देर बाद वे दोनों, वापस प्लेटफोर्म पर आते दिखायी देते हैं। अब आगे-आगे वह रेखा चल रही है, और पीछे-पीछे मुंह झुकाए नयन सुख दोनों हाथों में अटेचियाँ उठाये चल रहा है। अब यह नयन सुख पूरणसा के हत्थे चढ़ जाता है, वे झट फूंकी जा रही बीड़ी को एक तरफ़ फेंककर उसका रास्ता रोक लेते हैं। अब वे, उससे कहते हैं]
पूरणसा – भईसा। यह कुलियों का धंधा, कब से शुरू किया है ? क्या आपने कुलियों का बिला, हासिल किया या नहीं ?

[सुनकर, वह अपना मुंह ठाकर उन्हें देख़ता है। उनको देखते ही, वह उन्हें पहचान जाता है]
नयन सुख – [मुंह उठाकर, कहता है] – अरे काकोसा, आप ? क्या आपने मुझे पहचाना नहीं ? अरे, मेरे प्यारे प्यारे काकाजी,..मैं हूं आपका ख़ास भतीजा, नयन सुख। अब तो पहचाना, मुझे ?
पूरणसा – [आंखें फाड़कर, उसे देखते हुए कहते हैं] – उम्र हो गयी रे, बेटा। बूढ़े हो गए, आज़कल याद रहता नहीं। अब बोल, तूझे देखकर करें भी क्या ? तू तो यहां, ख़ूबसूरत छोरियों को देखकर उनकी सेवा में लगा रहता है। और उधर तेरे बाप यानि मेरे बड़े भईसा और भाभीसा इस बुढापे में मज़दूरी करके अपना पेट पाल रहे हैं ? और,.बोल तो सही..
नयन सुख – अब क्या बोलूं, काकोसा ? आप जैसे बुजुर्गों के सामने, कैसे बोला जा सकता है ? और कोई हुक्म मेरे लिए हो तो, काकाजी..फ़रमाइए।
पूरणसा फ़रमाना अब क्या बाकी रह गया, बेटा ? ये तेरे बुढे मां-बाप तक़लीफ़ देख रहे हैं, और उनका जवान बेटा हसीन छोरियों की ख़िदमत करता जा रहा है। जा बेटा, जा। इस महारानी वसुंधरा की सेवा करता जा...!

[आगे खड़ी उस छोरी रेखा ने सुन लिया, पूरणसा का इतना लंबा व्याख्यान। फिर उसे महारानी वसुंधरा का नाम मिलते ही, वह पागल कुत्ती की तरह लाल-लाल आंखे की हुई पूरणसा के नज़दीक आती है, फिर उन्हें अंट-शंट बकती जाती है]
रेखा – [गुस्से में बकती हुई, कहती है] – डेमफूल। हू इज़ महारानी ? व्हाट वसुंधरा ?
[डरकर झट पूरणसा दो क़दम आगे बढ़ा देते हैं, उनको जाते देखकर वह रेखा क्रोधित होकर उनसे कहती है]
रेखा – [दामिनी की तरह कड़कती हुई, वह बेनियाम बकती है] – मिस्टर, स्टॉप।
[रेखा का यह ताड़का रूप देखकर, पूरणसा के पांव थर-थर कांपते हैं। दर के मारे, वे अपने दिल में सोचते जा रहे हैं के “यहाँ खड़े रह गये तो, इस बुढ़ापे में चरित्र पर दाग लगने की पूर्ण संभावना है। आज़ का ज़माना औरतों का, अगर यहाँ भीड़ इकट्ठी हो गयी तो सभी लोग औरतों का पक्ष लेंगे। इन लोगों को, मेरे बुढ़ापे पर आयेगी नहीं दया। अरे राम रे, ये कुत्तिया के ताऊ तो मुझे ठोकते ही नज़र आयेंगे। अब मुझे यहाँ खड़े रहकर अपनी इज़्ज़त की बखिया उधेड़ने का नज़ारा पेश करना है, क्या ? अब-तक इस भतीजे को बहुत सीख दे दी है, मैंने। अब यहाँ से रुख़्सत होना ही अपने हित में होगा। यह सोचकर वे वहां से नौ दो ग्यारह हो जाते हैं। चलते-चलते रास्ते में, मज़में को देखकर थोड़ी देर वे रुकते हैं। फिर वहां खड़े लोगों से पूछकर मालुम करते हैं, के “यह मज़मा यहाँ क्यों लगा है ?” पूछने पर मालुम होता है, किसी खोजबलिये ने सुलगती बीड़ी कुली नंबर चार सौ बीस के मुंह पर फेंककर, की है कुचमादी। फिर क्या ? इस तरह बेचारे कुली के हजामत किये हुए गाल सुलगती बीडी से जल गए। जिसकी जलन नाक़ाबिले बर्दाश्त थी, बेचारा कुली गाल जलते ही, उस जलन को सहन नहीं कर सका। और सर पर रखे बोक्स को नीचे गिराकर, वह अपने गाल मसलने लगा। उस बेचारे को, क्या मालुम ? उसके हाथ से बोक्स छिटककर, कहाँ जाकर गिरा ? बदक़िस्मत से वह बोक्स, पीछे आ रहे आस करणजी टी.टी.ई. के पांवों पर जा गिरा। बोक्स के गिरते ही, आस करणजी ज़ोर से चिल्लाये। और जाकर पकड़ा, उस कुली का गला।” अब यह पूरा मामला, पूरणसा के समझ में आ गया, के “यह कुचमादी करने वाला कोई और नहीं, वे ख़ुद हैं।” यह ख़ता उनसे, अनजाने में हो गयी है। अब उन्हें भय सताने लगा, अब अगर असल मामला किसी के सामने आ गया, तो वो कुली और आस करणजी उनकी क्या गत बनायेंगे ? इसकी कल्पना करते, उनके बदन पर भय की सिहरन दौड़ने लगती है। फिर क्या ? वे दौड़कर जा पहुँचते हैं, पुलिए की सीढियों पर..जहां रतनजी अपने साथियों के साथ बैठे हैं। पूरणसा हाम्पते-हाम्पते, वहां जाकर उनके पास बैठ जाते हैं। उनके बैठते ही, रतनजी उनसे कहते हैं]
रतनजी – [हंसते हुए कहते हैं] – पूरणसा, क्या हाल है, जनाब ? यहाँ कैसे पधारे, महारानीजी को छोड़कर ? जाओ..जाओ, महारानी की सेवा कीजिये..तगड़ी बख्सीस देगी। यार, यहाँ मेरे पास आपको देने के लिए कुछ भी नहीं। देने को है, ख़ाली रामजी का नाम। या फिर है, धक्के।
[ओमजी भी कम नहीं, वे उनको ताने देते हुए कहते हैं]
ओमजी – जनाब, आस करणजी के पांव दबाकर आ गए ? यार बोक्स तो कम वज़नी रहा होगा...? हल्का था, तो वज़नी पत्थर डालकर उनका पांव अच्छी तरह से दबा डालते ? कुछ नहीं...इनाम तो वे आपको ज़रूर देंगे, चाहे उनको बुलाना पड़े..जी.आर.पी.वालों को। अब जाइये, इनाम लेते आइये।
[अब बेचारे पूरणसा क्या जवाब देते ? शर्मसार होकर, गरदन झुकाये बेचारे बैठे रहते हैं। इतने में स्टेशन का उदघोषक घोषणा करता है]
उदघोषक – [घोषणा करता हुआ कहता है] – जोधपुर जाने वाली जम्मू-तवी एक्सप्रेस अपने निर्धारित समय से पंद्रह मिनट लेट है। मौसम विभाग की रिपोर्ट के अनुसार तेज़ आंधी आ सकती है, सभी यात्री सुरुक्षित स्थानों पर खड़े रहें। कोई रेल की पटरी क्रोस नहीं करें, पटरी पार करना रेलवे नियम के विरुद्ध है।
रतनजी – [घोषणा सुनकर, कहते हैं] – अब उठ जाइये, प्लेटफोर्म पर छप्पर लगा हुआ है। उसके नीचे आराम से खड़े हो जायेंगे। ताकि, आंधी-तूफ़ान से अपना बचाव हो जाएगा।
रशीद भाई – ऐसी धूल तो, रोज़ ही उड़ती है जनाब। वाह, यहाँ तो आ रही है मनभावनी..आनंद लाने वाली हवा। अहाsss हाsss सांस अच्छी तरह..[इतने में तेज़ हवा चलती है, जनाबे आली रशीद भाई की हालत हो जाती है पतली।] अरेsss अरेsss...
[रशीद भाई की बात पूरी होती नहीं, और इधर चलती है तेज़ हवा..और उधर चलता है भूतेला। अब भूतेला चलने से, रशीद भाई की बोलती बंद हो जाते है। और ये तेज़ हवा जनाब की टोपी उड़ाकर ले जाती है। यहाँ, बेचारे रतनजी की हालत और भी बुरी..? जनाब के टांगें धूज़ती जाती है इस हवा के कारण, उनका कोमल बदन हिचकोले खाता जा रहा है। कभी उनका कोमल बदन इधर झुकता है, कभी उधर। इन हिचकोलों के कारण वे अपना बैग संभाल नहीं पा रहे हैं, तभी चलता है भूतेला..? इस भूतेले के कारण उनका बैग हाथ से छूट जाता है, और पुलिए के नीचे गिर पड़ता है। पुलिए के नीचे चटाई बिछाकर बैठा बजरंगी पहलवान कर रहा था विश्राम, जो अभी-अभी अखाड़े में कुश्ती लड़कर यहाँ आया ही था..उस बेचारे के ऊपर गिर जाता है रतनजी का भारी भरकम बैग। इतना भारी बैग ऊपर से गिरता है, यह कोई आम नहीं गिरा जिसका दर्द बर्दाश्त किया जा सके। यह तो रतनजी का भारी बैग ठहरा, जिसमें तरह-तरह का सामान भरा रहता है, दादी के मटके की तरह। ऐसे भारी भरकम बैग के ऊपर गिरने से, जो दर्द पैदा होता है..वह नाक़ाबिले बर्दाश्त है। इस कारण वह पहलवान, नाक़ाबिले दर्द के कारण मचाता जाता है कूकारोल। फिर वह, चीत्कारता हुआ कहता है]
बजरंगी पहलवान – [चीत्कारता हुआ, कहता है] – यह कौन है, कमबख़्त ? किसकी हिम्मत हो गयी, इस बंजरंगी पहलवान को ललकारने की ? अहहहsss.. [दर्द नाक़ाबिले बर्दाश्त होने से, वह चीत्कारता है] अरेsss… मेरी मां। किसका आटा वादी करता है, आज़ ? ओ मेरे सामने तो आ जा, छलिये। छुप-छुप वार करने का क्या राज़ है ? तू छिप ना सकेगा, गेलसफ़ा..मेरी आत्मा की यह आवाज़ है।
[रतनजी, ओमजी और रशीद भाई, भयभीत होकर दबे पांव रेलिंग थामे धीरे-धीरे पुलिए की सीढ़ियां उतरते हैं। फिर बेचारे दबी आवाज़ में एक-दूसरे से कहते हैं]
रतनजी – [भयभीत होकर, कहते हैं] – बुरा हुआ रे, रामा पीर। [रशीद भाई से कहते हैं] ओ सेवाभावी रशीद भाईजान, ज़रा इस बजरंगी के पास से मेरा बैग ले आइये। सोच लीजिये आप, या तो आप अपना सेवाभाव दिखलाइये, या फिर मैं जाऊं उसके पास अपनी पिटाई करवाने..आप पर ही निर्भर करता है, मुझे पिटवाना या आपका बैग लाना।
ओमजी – अरे ओ रतनजी। आप यों काहे बोल रहे हैं ? आप उस राक्षस के पास जाकर, अपनी हड्डियां काहे तुडवाना चाहते हैं ? सोच लीजिये, एक बार। इस बुढ़ापे में ये हड्डियां, बहुत कठिनाई से जुड़ती है।
रशीद भाई – [ओमजी पर, नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए कहते हैं] - यार ओमजी, फिर आप मुझे वहां भेजकर मेरी हड्डियां तुड़ वाना चाहते हैं ? [रतनजी की तरफ़ देखते हुए, कहते हैं] आप मेरे दोस्त हो या दुश्मन ? या आपकी बुद्धि का नाश हो गया ? अब आप अपने दिमाग़ में यह बात बैठा लीजिये, के ‘इस रशीद के खोपड़े में अक्ल है, कोई गोबर नहीं भरा है।’
रतनजी – [उनको उकसाते हुए कहते हैं] – वाह उस्ताद। क्या कहना है, आपका ?
रशीद भाई – [खुश होकर कहते हैं] – भले आप अपनी ठौड़ मुझे पिटवाने बजरंगी के पास भेज रहे हैं, मगर अब आप देखना..मैं क्या करता हूं, वहां जाकर ?
रतनजी – [उतावली करते हुए, कहते हैं] – कुछ जल्दी करो, यार। किसी तरह, लेकर आ जाओ मेरा बैग। आप, जानते नहीं ? गाड़ी आने का, वक़्त हो गया है।
रशीद भाई – [एक हाथ ऊंचा करते हुए, अमिताभ बच्चन की स्टाइल में कहते हैं] – “बेफिक्र हो जाओ, मेरे दोस्त। यह रशीद अभी अपनी जान हथेली पर रखकर, लाता है आपका बैग। आख़िर हम है, कौन ? बोलिए, बोलिए। चलिए हम बोल देते हैं..हम हैं, सेवाभावी रशीद।
[रशीद भाई बैग लाने के लिए वहां से रुख़्सत होते दिखायी देते हैं, उनके जाते ही रतनजी अपनी आदत से लाचार होकर कहते हैं]
रतनजी – [हंसते हुए, कहते हैं] दफ़्तर में यह नामाकूल करता है, केबरा डांसर हेलन का स्वांग। और वहां यह गधा दिखाता है, एक-एक स्टेप हेलन के डांस का। अब यहाँ बेचारा बना है, अमिताभ बच्चन का बाप ?
[इधर रशीद भाई अब पहुँच जाते हैं, घेवरसा के पास। वहां आकर, वे उनसे “जय रामजी सा” कहकर उनका अभिवादन करते हैं।]
रशीद भाई – जय रामजी सा। घेवरसा क्या हाल है, आपके ?
घेवरसा – [अभिवादन स्वीकार करते हुए, कहते हैं] – जय रामजी सा। अब कहिये कितने कप चाय भेजूं ?
रशीद भाई – चाय पीनी नहीं है, यार। मगर..
घेवरसा – [झुंझलाते हुए, कहते हैं] – फिर, क्या ? आप मेरा धंधा ख़राब करने पधारे हैं, जनाब ? [हाथ जोड़कर, कहते हैं] माफ़ कीजिये, आप ठहरे सरकारी नौकर। गपें हांकना आप लोगों के लिए चल सकता है, मगर मेरे जैसे ग़रीब आदमी के लिए ऐसा संभव नहीं है। गाड़ी आ रही है, धंधे का वक़्त हो गया..मुझे अभी माफ़ कीजिये।
रशीद भाई – आपने ग़लत समझा, मुझे। मैं पहले आपको, एक चाय के पैसे दे रहा हूं। [एक चाय के पैसे देते हुए कहते हैं] अब आप अपना कान इधर लाइए, मैं समझा देता हूं. आपको करना क्या है ? [घेवरसा के कान में फुसफुसाते हैं]
घेवरसा – [खुश होकर, कहते हैं] – आप फ़िक्र मत कीजिये। अभी करता हूं, आपका काम। आपको मालुम नहीं, क्या ? मेरे चाय के मसालों की सौरम पाकर, अभी यह बजरंगी आता है दौड़ता हुआ..मेरे पास।
रशीद भाई – कमाल है, तब ठीक है। अब यह काम आपको सुपर्द किया। मगर जनाब आपको याद रखना है, के यह बजरंगी, यहीं आपके ठेले के पास ही खड़ा होकर चाय पीये। और वह यहाँ आते वक़्त, वह हमारे रतनजी का बैग यहाँ लेकर नहीं आये। समझ गए, घेवरसा ?
घेवरसा – भरोसा आपको करना होगा, रशीद भाई। आप कहो जिसको बुलाकर मैं यहाँ चाय पा सकता हूं। क्योंकि मेरी चाय में है, खांसी, जुकाम, और बुख़ार का पक्का इलाज़। बड़े-बड़े रौबदार यहाँ खड़े रहकर, चाय पीते हैं। फिर यह बजरंगी किस खेत की मूली है, कुतिया का ताऊ ?
रशीद भाई – हंसते हुए कहते हैं] - अब आप काम कीजिये। धंधे का वक़्त है, गाड़ी आने वाली है। एक बार और देख लीजिये, यह बजरंगी पुलिए के नीचे ही बैठा है। अब मैं चलता हूं, आप ध्यान रखना।
[फिर वे चले जाते हैं, अपने साथियों के पास। उधर घेवरसा जाते हैं बजरंगी के पास, और कहते हैं]
घेवरसा – ताज़े मसाले कूट दिए हैं, बजरंगी अब आ जा ठेले के पास। और चाय पी ले, फटके से।
बजरंगी – [सर दबाता हुआ कहता है] – यहीं ला दीजिये ना, अभी मेरे सर में बहुत दर्द है।
घेवरसा – तूझे चाय पीनी हो तो, आ जा ठेले के पास। गाड़ी आने वाली है, मेरे पास वक़्त नहीं है...चाय लाने का। झट आ जा, मेरा धंधा खोटी मत कर।
बजरंगी – जैसी आपकी इच्छा, अभी आता हूं ठेले के पास। आप चलो, मैं पीछे आ रहा हूं।
[घेवरसा और बजरंगी पहुँच जाते हैं, ठेले के पास। घेवरसा से चाय लेकर, बजरंगी सुड़क-सुड़क की आवाज़ मुंह से निकालता हुआ चाय पीने लगता है। उधर रशीद भाई को इसी मौक़े की तलाश थी, वे झट पहुँच जाते हैं बजरंगी के बैठने की ठौड़। वहां पहुंचकर फटके से रतनजी का बैग उठाकर, सीधे चले जाते हैं अपने साथियों के पास।
रतनजी – [रशीद भाई से बैग लेकर कहते हैं] – रशीद भाई, भगवान आपका भला करे। अब आप साथियों की ख़ाली बोतलें ले जाकर, ठंडा पानी भरकर लेते आयें। जल्दी आना, अब गाड़ी आने वाली ही है।
[रशीद भाई बोतलें लेकर, जाते हैं शीतल जल के नल के पास। बोतलों में पानी भरकर, जैसे ही वे आगे क़दम उठाते हैं..तभी ख़ुदा जाने, कहाँ से आभा में काले बादल छा जाते हैं ? घड़ घड़ की आवाज़ करते बादल गरज़ने लगते हैं। फिर क्या ? तेज़ हवा के झोंकों के साथ ओले गिरते हैं। ख़ुदा की करामात, इधर बेचारे रशीद भाई ने ख़िदमत की और उधर उनकी टाट पर बरसते जाते हैं ओले। ये सफ़ेद भाटे यानि ओले उनकी टाट पर बजाते जा रहे हैं नगाड़ा। ओले गिरते ही उनको मालुम होता है, के “उनके सर पर टोपी नदारद है।” बेचारे फ़िक्र करते हुए साथियों के पास आते हैं। कुछ कहने के लिए, वे मुंह खोलना चाहते ही थे.. तभी रतनजी बोल उठते हैं]
रतनजी – अब आकर विश्राम कर लीजिये। बहुत पानी भर लिया, यार। अगर अब आप यहाँ शान्ति से नहीं बैठे, तो ये गरज़ते बादल आपकी टाट पर टना-टन नगाड़ा बजा देंगे।
रशीद भाई – [सबको, बोतले थमाते हुए कहते हैं] – अब आगे बोलो मत, मेरे साथ बहुत बुरी हुई। अभी रखा मैंने सर पर हाथ..तब मालुम हुआ के “टोपी नदारद है। शायद, वह तेज़ हवा उसे उड़ा ले गयी हो ?”
रतनजी – [हंसते हुए कहते हैं] – अमिताभ बच्चन साहब। अब आप अपनी टोपी लाकर, अक्ल और बहादुरी का ख़िताब जीत लीजिये।
ओमजी – क्या देख रहे हैं, हमारा मुंह ? पुलिए के नीचे उड़कर गयी है, तुम्हारी टोपी। आ जाइये, टोपी लेकर। वहां जाकर बैठना मत, ताश खेलने वाले वालों के पास।
रशीद भाई – फ़िक्र कीजिये मत, मैं अभी गया और अभी आया।
[रशीद भाई पुलिए के नीचे आते हैं, वहां आकर वे क्या देखते हैं ? ताश खेलने वालों दल तीन पत्ती का खेल खेल रहे हैं। इन ताश खेलने वालों में एक भाई तो ऐसा कुतिया का ताऊ निकला, जो बेचारे रशीद भाई के सर की टोपी को गद्दी बनाकर उस पर बैठ गया है। उसे देखकर, रशीद भाई की आँखें गुस्से से लाल हो जाती है। वे सोचते हैं, के जहां माथे की टोपी या पगड़ी आदमी की इज़्ज़त मानी जाती है, वहां यह नामाकूल उस टोपी को अपनी पिछली दुकान के नीचे रखकर उस पर बैठ गया है ? अब कहें, तो इस लंगूर को क्या कहें ? यहाँ बैठे ये सारे ताश खिलाड़ी ठहरे, बदतमीज़। जो खुले आम यहाँ बैठकर दारु पीते जा रहे हैं, और इन लोगों को कहाँ शर्म ? जो खुले-आम अश्लील गालियां बोलते जा रहे हैं, ऐसे लोग क्या समझेंगे पगड़ी या टोपी की इज़्ज़त ?” इतना सोचकर उनसे बिना विवाद किये, चुप-चाप जाकर उस आदमी के सीट के नीचे से अपनी टोपी खींचकर निकाल लेते हैं। फिर टोपी लेकर झट पुलिए के नीचे से बाहर आते हैं, और टोपी पहनना चाहते हैं..उससे पहले आसमान से, ओले तड़ा-तड़ रशीद भाई की टाट पर गिरते हैं। इन ओलो की मार का दर्द, रशीद भाई सहन नहीं कर पा रहे हैं। फिर क्या ? वे दर्द के मारे कराहते जाते हैं, और अल्लाह मियाँ से शिकवा कर बैठते हैं]
रशीद भाई – [शिकवा गिला करते हुए, कहते हैं] – ख़ुदा रहम। या अल्लाह मैंने एक सच्चे मोमिन की तरह लोगों की ख़िदमत की है, और करता भी आ रहा हूं। उसके बाद भी आपने मेरे सर पर तड़ा-तड़ ओलों की बरसात ऐसे की है, जैसे आप मेरी टाट को नगाड़ा समझकर उसे बजाते जा रहे हो ?
[इतने में पुलिए के नीचे बैठी बुढ़िया, उनकी आह सुनकर बोल उठती है]
बुढ़िया कलयुग आ गया है, मेरे भाई। अब किसी की भलाई मत करना। देख ले तेरे ऊपर ओले गिरे हैं, और मेरे बच्चों ने मुझे घर से बेदखल कर डाला। आज़ पड़ी हूं, इस पुलिए के नीचे। जो कल लोगों को छत नसीब कराती थी, उसे आज़ बिना छत बेसहारा भटकना पड़ता है। वाह रे भगवान, तेरे घर का न्याय।
[फिर क्या ? रशीद भाई दौड़कर पहुंचते हैं, अपने साथियों के पास। वहां इन साथियों का प्रवचन सुनकर, उनका दिल खट्टा हो जाता है।]
रतनजी – जो झूठ बोलता है, उसके ऊपर ही ओले गिरते हैं।
ओमजी – सच्च कहा, रतनजी आपने। खर्रास [झूठ बोलने वाले] आदमियों के ऊपर ही, ओले गिरते हैं।
रशीद भाई – [होंठों में ही कहते हैं] – यहाँ किसी की भलाई नहीं करनी चाहिए। क्या करें ? मति मारी गयी मेरी, जो इन लाड साहब का बैग बजरंगी पहलवान के चंगुल से छुड़ाकर लाया। बजरंगी को पीटने का मौक़ा नहीं मिलने दिया। अब ये लाड साहब दो मिनट में भूल गए, मेरा किया अहसान ? ऐसे आदमी से, दूर रहना ही अच्छा है।
[रशीद भाई का दिल भर आया, ग़म से। अब ग़मज़दा रशीद भाई झट उठाते हैं, अपना बैग। और आ जाते हैं, घेवरसा के ठेले के पास। ठेले के पास वाले तख़्त पर दयाल साहब, अनिल बाबू और ओमजी बैठे हुए हैं। और उनके आस-पास छंगाणी साहब, मछली विभाग के सतनराणजी खड़े हैं। गपों का पिटारा खुलता जा रहा है, हर कोई अपनी-अपनी फेंक रहा है। पीछे रहे गपोड़ी मास्टर रतनजी, वो भी आ गए हैं। इनके शामिल हो जाने से, गपों के पिटारे में चार चांद लग गए हैं। अब दयाल साहब कहते हैं]
दयाल साहब – यार ओमजी, तू कुछ बोलता नहीं ? हमेशा चुप रहता है, क्या बात है भय्या ?

[इन साथियों से तो, रशीद भाई पहले से नाराज़ थे। फिर क्या ? ओमजी की बखिया उधेड़ते हुए कह देते हैं]
रशीद भाई ये नहीं बोलते हैं, जितना हो अच्छा है। बोलने के बाद, ये जनाब या तो बरसाएंगे पत्थर या फिर बरसाएंगे सम्पलोटिया।
दयाल साहब – रशीद, यह सम्पलोटिया क्या होता है ? शायद तू कहना चाहता होगा, सांप का बच्चा ? यार तूने ऐसा कहकर मुझे एक खौफ़नाक वाकया याद दिला दिया। कल शाम की बात है, मेरे घर के पिछवाड़े वाले बगीचे में एक टांका है..जिसका ढक्कन खोलकर मैंने क्या देखा...?
रशीद भाई – क्या देखा, जनाब ?
दयाल साहब – पानी लेने के लिए जैसे ही, मैंने बाल्टी अन्दर डाली। तब, क्या देखा ? वह..वह कोई सांप था, या कोई सांप का बच्चा ? यार फुंफकार मारता हुआ दिखायी दिया, और नासपीटा मुझे देखकर लगा पानी में तैरने..यार रशीद, मैं तो डर गया। अरे, मेरे लाल सांई झूले लाल। मेरी तो चीख निकल उठी, यार।
रशीद भाई – फिर क्या, कहीं आपको दिल का दौरा तो न पडा ?
दयाल साहब – दिल का दौरा पड़े, मेरे दुश्मन को। सारे पड़ोसी मेरी चीख सुनकर वहां इकट्ठे हो गए, और इधर आ गए घर वाले। सभी मुफ़्त की सलाह देने लगे, कोई कहे, टांका ख़ाली कर दो...और कोई कहे, सपेरे को बुला दो। मगर एक भी आगे नहीं आया, काम करने। ख़ाली सलाह देने से पेट भरा नहीं जाता, रशीद।
रशीद भाई – मैं देता हूं, आपको एक ऐसी सलाह। आपके ज़रूर काम आयेगी। ना तो करना है, टांका ख़ाली..और ना टाँके को ओवर फ्लो करना है। सपेरे को बुलाने की तो ज़रूरत ही नहीं। बस मालिक, आप ऐसा कीजिये के...
ओमजी रहने दीजिये, आपकी सलाह। अभी आप दोगे, आदमी-मार सलाह। के, डालो बाल्टी टाँके के अन्दर..उस बाल्टी में सांप बैठ जाएगा, तब बाल्टी को खींच लेना। यहाँ तो सांप को देखते ही साहब को आता है, पसीना। अब साहब को ही सोचने दीजिये, उन्हें क्या करना है ?
रशीद भाई – [नाराज़ होकर कहते हैं] – या तो आप बोलते ही नहीं, और आप जब कभी बोलते हैं... तब पत्थर बरसाते ही बोलते हो। आख़िर, हुआ वाही। आपने मेरी बात को उड़ा दी ? मेरा कहना का, यह मफ़हूम नहीं था। मैं बेचारा कोई दूसरी बात कह रहा था, अब साहब का हुक्म हो तो मैं कोई सलाह पेश करूँ।
दयाल साहब – [लबों पर, मुस्कान बिखेरते हुए, कहते हैं] मुलाहिजा, पेश किया जाय। जनाबे आली, शहंशाहे हफ्वात जलालुद्दीन मोहम्मद रशीद साहेब। [नीमत-सलीम करते हुए कहते हैं] हुज़ूर को, इस नाचीज़ का सलाम मंज़ूर हो। जनाब से गुजारिश है, वे अपना मशवरा इस गुलाम को देने की कृपा करें।
रशीद भाई – साहब, इस तरह नीमत-स्लीम करके आप मुझे दोज़ख नसीब न कराएं। आप मेरे आका, मैं आपका ताबेदार गुलाम..आप मुझे हुक्म दीजियेगा, मगर इस तरह इस धूल को सर पर चढ़ाकर मुझे आप गुनाहगार ना बनाएं।
दयाल साहब – अब बकना। या मारूं तेरे सर पर, चार ठोल ? फिर बोलेगा, क्या ?
रशीद भाई – यह कह रहा हूं, जनाब..के हिम्मत की कद्र होती है। इस खिलक़त में यह बात विख्यात है, के “हिम्मते मर्द, बादशाह की लड़की फ़कीर से विवाह।”
दयाल साहब – अरे गधे की दुम, मैं ना तो बादशाह हूं..ना मैं अपनी बेटी का विवाह फ़कीर से कराने वाला ?
रशीद भाई – साहब, काहे नाराज़ होते है। आपको बस यही करना है, आपको टाँके में डोरी से एक चूहा बांधकर लटकाना है..जैसे ही वह सांप उस चूहे को पकड़ेगा, आप तपाक से डोरी खींच लेना। फिर क्या ? यह आया जनाब, आपका सांप बाहर।
सतनराणसा – बेचारे साहब पर रहम करो, रशीद भाई। क्या, आपका दिमाग़ घास चराने गया है ? आप ऐसी सलाह दे रहे हैं रशीद भाई, मानो साहब गुणवत्ता अधिकारी नहीं होकर मछुआरे हो ? अब आप सब क्यों तक़लीफ़ करते हैं ? मैं बैठा हूं ना, मछली विभाग का..मैं कब काम आऊंगा ? [दयाल साहब से कहते हैं] कहिये साहब, मेरे लायक कोई काम..!
[जम्मू तवी एक्सप्रेस सीटी देती हुई, आती दिखायी देती है। सतनराणसा की आवाज़ गाड़ी की आवाज़ के आगे दब जाती है। उनकी आवाज़, अब सुनायी नहीं देती। थोड़ी देर में गाड़ी, प्लेटफोर्म पर आकर रुक जाती है। गाड़ी रुकने के बाद, ओमजी सतनराणसा के दिल में ऐसी काम करने की प्रबल तमन्ना देखकर कहते हैं]
ओमजी – जाइये सतनराणसा, डब्बे में जाकर सीटें रोकिये। अभी, आपके लिए यही काम है। मछुआरा बाद में बनना।
[सभी शयनान डब्बे में दाख़िल होते है, ख़ाली केबीन देखने के चक्कर में वे आगे बढ़ते जा रहे हैं। अचानक इन लोगों को एक ख़ाली केबीन दिखाई देता हैं, जहां खिड़की वाली सीट पर मोहनजी अकेले बैठे नज़र आते हैं। उनको देखकर, दयाल साहब और अनिल बाबू आगे बढ़ जाते हैं। मगर, रशीद भाई अपने साथियों को इसी केबीन में बैठने का आग्रह करते हैं।]
रशीद भाई – आइये, अपुन सब यहीं मोहनजी के पास ही बैठेंगे।
[फिर क्या ? उनके आस-पास की ख़ाली सीटों पर, सभी बैठ जाते हैं। अब रशीद भाई, मोहनजी से अभिवादन करते हैं]
रशीद भाई – जय बाबा री सा।
[मोहनजी ना उनकी तरफ़ देखते हैं, ना जवाब देते हैं और न अपने लबों पर मुस्कान छोड़ते हैं। बस वे तो खिड़की से मुंह बाहर निकालकर, बाहर झांकते हुए उन लोगों को एवोइड करते जा रहे हैं। रशीद भाई उन्हें कहाँ छोड़ने वाले ? वे उनके और नज़दीक खिसककर फिर एक बार और कहते हैं]
रशीद भाई – मोहनजी, जय बाबा री। यों क्यों मुंह बिगाड़कर, बैठ गए जनाब ? हम सब आपके साथी हैं, यानि आपकी गैंग हैं।

ओमजी – यानी, आपकी अलाम चांडाल-चौकड़ी के सदस्य।

रशीद भाई - नाराज़गी हुई होगी, तो उस चैकिंग करने वाले डी.एम. पर हुई होगी ? गुस्सा निकालना है तो उस डी.एम. पर निकालो, हम लोगों पर क्यों ? गाड़ी जाने वाली है, पानी की बोतल भरनी है तो बोल दीजिये।
[पानी भरने की बात सुनते ही जनाबे आली मोहनजी मुस्कराने लगे, फिर बैग से बोतल निकालकर शेष बचा हुआ पानी पी जाते हैं। फिर रशीद भाई को ख़ाली बोतल थमाकर, वे पुन: कुबदी मोहनजी बन जाते हैं। झट खिड़की से बाहर ज़र्दे की पीक थूककर, नाक साफ़ करते हैं। बाद में चुप-चाप, रशीद भाई की कमीज़ से अपने हाथ साफ़ कर लेते हैं। अब वे प्रेम से कहते हैं]
मोहनजी – आप लोग तो मेरी गैंग हो, यानी मेंबर ऑफ़ माय रेस्पेक्टेड अलाम चांडाल-चौकड़ी। आप लोगों से कैसे नाराज़ हो सकता हूं ? यह डी.एम. तो रोज़ भटकता हुआ, आता जाता रहेगा। मगर मोहनजी रहेंगे..जैसे हैं, वैसे ही रहेंगे। वे तो ज्यों के त्यों ही रहेंगे, कढ़ी खायोड़ो। यों कैसे फेरा बदल दे, भाई ? यह नौ बजे वाली गाड़ी ही, अपुन को सूट करती है। [हथेली पर ज़र्दा लेकर, उसे होठ के नीचे दबाते हैं]
रशीद भाई – इसमें, डी.एम. से डरने की क्या बात है ? क्या उसके दफ़्तर के मुलाजिम, रोज़ का आना-जाना नहीं करते हैं ? मेरे विचार से बीस प्रतिशत लोग, रोज़ का आना-जाना तो करते ही हैं। जब यह डी.एम. उन लोगों की आदत नहीं बदल सकता, तब हम लोगों की आदत कैसे बदलेगा ?
[यह मनभावनी बात सुनते ही, मोहनजी अपने लबों पर मुस्कान बिखेर देते हैं। फिर हंसते हैं, जिससे उनके उनके होठ के नीचे दबाया हुआ ज़र्दा उनके थूक के साथ उछलता है। जो सामने बैठे रतनजी के मुंह पर, आकर गिरता है। बेचारे रतनजी झट अपनी जेब से रुमाल बाहर निकालकर अपना मुंह साफ़ करते हैं। फिर झिड़कते हुए, रशीद भाई से कहते हैं]
रतनजी – [झिड़कते हुए कहते हैं] – यह क्या, आपका यहां बैठना ? रशीद भाई सिंगनल हो गया है, आपको पानी भरकर लाना है तो जाइये। मगर यहां बैठकर, बिना मौसम की बरसात क्यों करवाते हैं मेरे बाप ? नहीं जाना है, तो चुप-चाप बिराज़ जाइये।

[फिर क्या ? इस जर्दे की बे-मौसम बरसात से परेशान होकर गुस्साए रतनजी, जाकर दूसरी सीट पर बैठ जाते हैं। अब वे यहां, मोहनजी के मुख से हो रही ज़र्दे के फूलों की बरसात से बच सकते हैं। इधर बेचारे सेवाभावी रशीद भाईजान ठंडा पानी लाने के लिए नीचे उतरकर सीधे जाते हैं शीतल जल के नल के पास। टोंटी खोलकर जैसे ही बोतल भरते हैं, और उधर उन्हें सुनायी दे जाती है गाड़ी की सीटी की आवाज़। बेचारे अस्थमा के मरीज़ रशीद भाई दौड़कर, चलती गाड़ी का हैंडल पकड़ते हैं। रास्ते में खड़ी भीड़ से धक्के खाते हुए, किसी तरह वे अपनी सीट पर पहुंचते हैं। अब स्टेशन छोड़कर, यह गाड़ी तेज़ रफ़्तार से पटरियों पर दौड़ती जा रही है। मोहनजी झट खिड़की से बाहर पीक थूककर, पुन: होंठ के नीचे ज़र्दा ठूंस लेते हैं। इसके बाद, वे दो दिन नहीं आने का करण बताते हुए आगे कहते हैं]
मोहनजी – [ज़र्दा होठ के नीचे दबाकर, कहते हैं] – देण ऊपर देण हो गयी, रशीद भाई। अब आगे क्या बयान करूं ? दो दिन नाणा रुक गया..अरे नहीं रे, खारची रुक गया..!
रशीद भाई – नाणा ही बोलिए, जनाब। आपको झूठ बोलना शोभा नहीं देता, सच्च कहता हूं झूठ बोलने से आपकी टाट पर बरसेंगे सफ़ेद भाटे [ओले]।
रतनजी – [हंसते हुए, कहते हैं] – अरे जनाब, रशीद भाई को इसका अच्छा-ख़ासा तुजुर्बा है। अभी पाली स्टेशन पर, आसमान से गिर रहे सफ़ेद भाटे इनकी टाट पर नगाड़ा बजा चुके हैं। मोहनजी, रशीद भाई के ये सत्य वचन है। सत्य बात कह दीजिये, काहे दोस्तों से छुपा रहे हैं सच्चाई ? कह दीजिये, दो दिन कहां भटकते रहे ?
मोहनजी – बात सच्च कही, जनाब। भागवान के पास बो मैं झूठ बोला, तब से इसका परिणाम सामने है। अब हो गयी देण, भागवान मुझ पर भरोसा करती ही नहीं। ऊपर से उन्होंने मुझको, झूठ के मगरमच्छ का ख़िताब दे डाला। अब मैं करूँ, तो कढ़ी खायोड़ो क्या करूँ ?
[ग़मागीन हो जाते हैं, मोहनजी। उनकी नयनों से अश्रु ढलकते जा रहे हैं, और उनका गला अलग से रुंद जाता है। उनकी यह दशा देखकर सभी चुप रहते हैं, केबीन में ख़ामोशी छा जाती है। आख़िर मोहनजी पहलू में बैठे रशीद भाई की कमीज़ से अपने आंसू पौंछ डालते हैं, मानो यह रशीद भाई का कमीज़ न होकर मोहनजी का नेपकिन ही हो ? इसके बाद वे, ख़ुद ही रुन्दते गले से कहते हैं]
मोहनजी – [रुन्दते गले से कहते है] – क्या कहूं आपको,..कल रात का वाकया ? थकाहारा घर पहुंचा, उस वक़्त घड़ी में बजे थे रात के करीब ग्यारह। मेरा जीव सुखी है या दुखी ? कुछ नहीं पूछा, भागवान ने।
रशीद भाई – खैरियत ज़रूर पूछी होगी जनाब, क्यों आप खर्रास बन रहे हैं ?
मोहनजी – झूठ नहीं बोल रहा हूं, मेरे बाप। वह तो दामिनी की तरह तड़ककर कहने लगी ‘रात को देरी से आने का राज़ अब खुल गया है, गीगले का बापू। तीन-तीन औरतों के साथ आपने शादी की, फिर भी आपका दिल भरा नहीं ?’ फिर मैंने ज़ब्हा का पसीना साफ़ करके पास रखे सोफे पर बैठना चाहा, मगर भगवान आकर बीच में खड़ी हो गयी और मुझे बैठने नहीं दिया रशीद भाई।
रशीद भाई – फिर क्या हुआ, जनाब ?
मोहनजी – भागवान ने कहा, के ‘यह करमजली नर्स कौन है, जिसको आपने अपने मोह-जाल में फंसा डाला ? मुझसे आप, संतुष्ट हो गए ? अब यह राज़ की बात जानकर मैं अब यहाँ नहीं रहूँगी। सुबह की पहली बस में बैठकर, चली जाऊंगी अपने पीहर इस गीगले को लेकर।’
रतनजी – राम राम, आपकी ऐसी बुरी आदतें हैं ? कब से कह रहा हूं, ‘साहब, आप सुधर जाओ। न तो जनाब, आप बुढ़ापे में तक़लीफ़ देखेंगे..जानते हैं, आप ?

मोहनजी – [दुखी स्वर में] – क्या जानू रे, कढ़ी खायोड़ा ?

रतनजी – ये औरतें होती है, बड़ी शंकालु। ऐसी आदतें रही आपकी, तो आपका बुढ़ापा बिगड़ जाएगा, साहब।’ मगर, करूं, क्या ? आपने मेरी एक बात भी, सुनी नहीं।
रशीद भाई – रतनजी, आप चुप-चाप बैठ जाइये। [मोहनजी से कहते हैं] साहब, आगे क्या हुआ ? बयान कीजिये। रतनजी का स्वाभाव ही ग़लत पड़ गया है, क्या करें..बीच-बीच में बोल-बोलकर, किस्से का मटियामेट कर देते हैं। बोलो, मोहनजी।
मोहनजी – फिर मैंने उनको नम्रता से कहा ‘कुछ बोलिए, भागवान। आख़िर मुझसे ग़लती कहाँ हुई ? इतने अंगारे मत उगलिए अपने मुंह से, भले घर की बहू को ऐसा बोलना अच्छा नहीं लगता। अरे गीगले की मां, ऐसा मत समझो, मैं कुछ काम का नहीं हूं..काहे आप मुझे, भंगार की गाड़ी समझती आ रही हैं ?’

रशीद भाई – आगे क्या हुआ, जनाब ?

मोहनजी – [रोवणकाली आवाज़ में कहते हैं] - मगर यह सुनकर भागवान तड़ककर बोले, रशीद भाई आपको उनकी बात सुनकर बहुत ताज्जुब होगा।
रतनजी – [एक बार और बीच में बोलते हैं] – यह कहा होगा, के “डाल दो इस नर्स को घर में, और फिर मुझे दे दीजिये फांसी।” अरेss जनाब, फिर ग़लती हो गयी...बीच में बोल गया। आगे से, ऐसी गलती नहीं होगी। आप आगे का, किस्सा बयान कीजिये।
मोहनजी – भागवान ने कहा, के “अंगारे क्या ? मैं तो पूरा जलता हुआ पूला लाकर आप पर डाल दूंगी। क्या समझ रखा है, मुझे ? लोगों के सामने आप ऐसे सच्चे पति-परमेश्वर बनते हैं मेरे, तो बताइये आपके इस नीले बैग में क्या है ?” इतना कहकर, उन्होंने नीला बैग लाकर मेरे सामने रख दिया...
रशीद भाई – यह नीला बैग तो, नर्स बहनजी जुलिट का होना चाहिए। क्या आपके पास रह गया, क्या ?
मोहनजी – जी हां, वह गाड़ी में भूल गयी और मैं ले आया। सोचा दूसरे दिन मिलेगी, तब दे दूंगा उसे। मगर यहाँ तो बात बिल्कुल उल्टी हो गयी। भागवान कहने लगी, के “मुझे कहने में शर्म आ रही है, गीगले के बापू।” आगे उन्होंने यों कहा, के...
रतनजी – आप निसंकोच होकर कहिये, यहाँ शर्म रखने की कोई ज़रूरत नहीं। हम सब, आपके ही आदमी है।
मोहनजी – उन्होंने आगे कहा “इस बैग को जब मैंने पड़ोसन चूकली को दिखाया। राम राम, वह चूकली क्या कह रही थी..ऐसी बातें। उसने बैग से पैकेट निकालकर दिखाए मुझे, और कहा ये पैकेट परिवार नियोजन...
रतनजी – अब आगे कहिये, जनाब।
मोहनजी – उन्होंने आगे कहा “वह बेचारा गीगला इसे, गुब्बारा समझकर बाहर खेलने लगा। इस बेचारे को ऐसे गुब्बारे से खेलता देखकर, गली-मोहल्ले के लोग, मुझ पर हंसने लगे। और आपस में यह कहते रहे, के गीगले के बापू रोज़ दफ़्तर जाते हैं, या कहीं दूसरी जगह बाड़ में मूतने जाते हैं ?” अब इसके आगे क्या कहूं, मेरी दास्तान ?”
रशीद भाई – गाड़ी को चलती रखो, आपकी बातों की गाड़ी का गार्ड मैं हूं। मैं कहूं, जब इस गाड़ी को रोका करें। अब आप वापस, इस बातों की गाड़ी को रवाना कीजिये।
मोहनजी – मेरी इज़्ज़त की बखिया उधेड़ डाली..और आगे कहा, के “आप दो दिन खारची रुक गए, इसका पूरा राज़ मेरे पास आ गया है।” इसके बाद भागवान ने गीगले को पुकारा “कहाँ गया रे, गीगला ? जल्दी आ बेटा, बोक्स में तेरे और मेरे कपड़े डाल देती हूं। फिर कल सुबह पहली बस से चले जायंगे तेरे ननिहाल। याद रख, तू और मैं यहाँ नहीं रहेंगे।”
रशीद भाई – साहब, आपने यह क्या कर डाला ? घर में महाभारत मचा डाला, पहले ही कहता था...आप, सुधर जाओ।
मोहनजी – [नाराज़ होकर, कहते हैं] – आगे ही मैं भागवान के कारण परेशान हूं, ऊपर से रशीद भाई आप मुझ पर आरोप लगाते जा रहे हो ? असल में कारण तो यह है कि, मेरी ग्रह दशा ख़राब आयी है। जिस कारण, मुझे जगह-जगह लोगों के कॉमेंट्स सुननी पड़ते है।
रतनजी ग्रह दशा आपकी नहीं, हमारी ख़राब आयी है। क्योंकि, अभी-तक हम आपका साथ करते आ रहे हैं। पहले भाभीसा कहती थे, के आप रुलियार हैं। मगर फिर भी, हमने आप पर भरोसा किया। मगर, अब तो सत्य बिल्कुल सामने आ रहा है।
मोहनजी – रुलियार रुलियार क्यों कह रहे हैं, जनाब ? यह रुलियार का ख़िताब मुझे इनके पीहर वालों की वजह से मिला है, इसी भागवान के मुंह से। उनके पीहर के गाँव में रहने वाले इस सौभाग मलसा के कारण ही मैं तक़लीफ़ पा रहा हूं, और यह झगड़ा भी इसी आदमी के कारण हुआ है।
रशीद भाई – बताइये, फिर सच्च क्या है ?
मोहनजी – रशीद भाई यह तो रामसा पीर की कृपा हुई, अचानक फ़ोन पर घंटी आयी। भागवान गयी फ़ोन के पास, और वापस आयी तब उनके चेहरे पर संतोष छाया हुआ दिखाई देने लगा। पास आकर, उन्होंने कहा “आगे से ध्यान रखना, अब आगे से आप इस सौभाग्या जैसे आदमी से दूर रहना।”
रशीद भाई – फिर सच्चाई क्या थी, बताइये साहब।
रतनजी – बात कुछ और है, ग़लती आपकी ही लगती है। क्यों छुपा रहे हैं, आप ? बयान कर लीजिये, जनाब। नहीं तो हम समझेंगे, आप रुलियार ही हैं।
मोहनजी – एक बार कान खोलकर सुन लीजिये, वह फ़ोन सौभाग मलसा का ही था...वह कह रहा था ‘उसका बैग जुलिट नर्स के बैग से बदल दिया गया, क्या पावणा उसका बैग जुलिट से वापस लेकर आये या नहीं ?’ इतना कहकर, भागवान कहने लगी “फ़ोन सुनकर मुझे जास मिली, के आपका किसी के साथ चक्कर नहीं चल रहा है।”
रशीद भाई वाहss जनाब, वाह। आख़िर, आपका पीछा छूटा। यह रुलियार ही, रुलियार के घर महाभारत मिटाने के काम आया।
[यह घटना याद करते हुए, मोहनजी के दिल में यह दुःख शूल की तरह चुभता जा रहा है। वे अपने दिल में, सोचते जा रहे हैं]
मोहनजी – [होंठों में ही कहते है] – यहाँ तो मेरी औरत मुझ पर भरोसा नहीं कर रही है, और इधर इन मित्रों ने भी मुझ पर भरोसा करना छोड़ दिया है। अब कैसी दशा हुई है, मेरी ? ए रामसा पीर, यह क्या कर डाला आपने ?
[अब मोहनजी का दिल-ए-दर्द अब नयनों में आकर, अश्रु बनकर नयनों से ढलकता जा रहा है। वे इस दुःख को भूलने के लिए, रुन्दते गले से गीत गाते हैं]
मोहनजी – [दर्द भरा गीत गाते हैं] – दोस्तsss दोस्त नाsss रहा sss प्यारsss प्यारsss ना रहा..ये ज़िंदगी हमेंsss तेरा एतबार ना रहा..
[यह गीत सुनकर, रशीद भाई का जीव कलपता जा रहा है। फिर क्या ? वे उनके छलकते आंसूओं को साफ़ करके, उन्हें दिलासा देते हैं]
रशीद भाई – यह क्या कर रहे हैं, साहब ? आख़िर आप मर्द हैं, औरत नहीं। अरे जनाब..इन आंसूओं की क़ीमत जानो, इन्हें व्यर्थ मत बहावो साहब।

रतनजी - जब हम आपके साथी बैठे है ना, आपके सुख-दुःख के साथी। फिर, आपको क्या दुःख ?

रशीद भाई – [दिलासा देते हुए, कहते हैं] - अब रोइये मत, उठिए चलकर हाथ-मुंह धो लीजिये। लूणी स्टेशन आ रहा है, अभी मैं सबके लिए एम.एस.टी. कट चाय मंगवाता हूं।
रतनजी – जी हां, पहले चाय पियेंगे सभी बैठकर। फिर करेंगे, सुख-दुःख की बातें। अब बोलिए ना, मोहनजी [उनकी हिचकी पकड़कर उनका मुंह ऊंचा करते हैं] यों क्या ? अब तो लबों पर मुस्कान बिखेर दीजिये ना, देखो ये ओमजी कैसे मंद मंद मुस्करा रहे है आपका कुम्हलाया हुआ मुंह देखकर ?
रशीद भाई – अरे जनाब, आप समझदार आदमी है। अब उठकर फाट-मुंह धो लीजिये, ग़मगीन रहने से क्या फायदा ? ज़िंदगी में आ रही समस्याओं का, डटकर मुक़ाबला कीजिये।
[मोहनजी का हाथ थामकर, उन्हें वाशबेसिन की तरफ़ ले जाते हैं। उनके चले जाने के बाद, रतनजी मुस्कराते हुए ओमजी से कहते हैं]
रतनजी – देखिये ओमजी, चाय का इंतज़ाम हो गया जनाब। रशीद भाई की तरफ़ से, चाय पक्की। बस अब तो दाल के बड़ो की कमी रह गयी, अब वह कमी आपकी तरफ़ से पूरी हो जाय लूणी स्टेशन पर..तो समझ लेंगे, के ‘भली करी रामा पीर।’
[रामा पीर के भक्त ओमजी, भादवो के हर मेले में जाते हैं रामदेवरा..वह भी पैदल-पैदल। इनके सामने कोई रामा पीर का नाम ले ले, ये जनाब बहुत खुश हो जाते हैं। मुअज्ज़म यह बात प्राय: कहते हैं ‘बाबा की कृपा से घर पर सब आनंद है, अब रतनजी की बात सुनकर वे बाबा को ह्रदय से दंडवत करते हैं। फिर, वे कहते हैं]
ओमजी – [बाबा को दिल से दंडवत करके, कहते है] – हुक्म बाबा का होना चाहिए, अरे जनाब आपको क्या कहूं ? बाबा के हुक्म के बिना, मैं एक क़दम आगे नहीं बढ़ाता।
रतनजी, यह लीजिये रुपये और लेकर आइये गरमा-गरम मूंग की दाल के बड़े। मर्ज़ी आये जितने बड़े मंगवावो, जय बाबा री सा।
[रतनजी को रुपये थमाते हैं, रुपये लेकर रतनजी अपने लबों पर मुस्कान बिखेर देते हैं। अब ओमजी खुश होकर, उन्हें आपबीती सुनाने बैठ जाते हैं।]
ओमजी – लीजिये सुनिए, रतनजी। आपको मेरी आपबीती सुनाता हूं। पांच वर्ष पहले, मैं अपने परिवार के साथ रामदेवरा जाने के लिए पैदल रवाना हुआ। रास्ते में हम भूल गए, रामदेवरा पहुँचने का सही रास्ता कौनसा है ? फिर क्या ? हम सबने अपने दिल से बाबा को दण्डवत-प्रणाम करके सही रास्ता दिखलाने की विनती की, और हुआ चमत्कार।
रतनजी [आश्चर्य-चकित होकर, कहते हैं] – सच्च कह रहे हो, जनाब ?
ओमजी – सच्च कह रहा हूं, जनाब। आप विश्वास नहीं करेंगे ? हमारे बिल्कुल सामने खेत-खलिहानों से लीले घोड़े पर कई असवार..सफ़ेद वस्त्र पहने हुए आये मेरे सामने। उन सवारों का मुखिया था, एक दाढ़ी वाला ओजस्वी आदमी। वह मुखिया हमारे सामने आया, जो बहुत रौबदार लगता था। आकर हम लोगों से पूछा, के ‘कहिये, क्या बात है ?
रतनजी – जनाब, क्या आप सत्य कह रहे हैं ?
ओमजी – सत्य कह रहा हूं, रतनजी। आप विश्वास नहीं करेंगे, बाबा की कृपा हुई हम सब पर ! उन्होंने रामदेवरा जाने का सही रास्ता दिखला दिया। अरे जनाब, क्या कहूं आपको ? वे थोड़ी देर में ही, सभी असवार हमारी आँखों के सामने लोप हो गए। [इतना कहकर, बाबा रामसा पीर को दण्डवत करते हैं] जनाब, चमत्कार हो गया..
रतनजी – सच्च, कहीं सवारों का मुखिया बाबा रामदेव ही थे ?
ओमजी – सच है, बाबा ने मेरा हेला [पुकार] सुन लिया। वे ख़ुद, घोड़े पर बैठकर पधारे..! अहोभाग्य है मेरे, उन्होंने मुझको साक्षात दर्शन दिए।
[गाड़ी का इंजन सीटी देता है, अब गाड़ी की रफ़्तार कम हो जाती है। लूणी स्टेशन आ गया है, अब चारों तरफ़ से वेंडरों की आवाज़े सुनायी देती है। पुड़ी-सब्जी बेचने वाले शर्माजी अपना ठेला आगे बढाते हुए, रोवणकाळी आवाज़ लगाते जा रहे हैं।]
शर्माजी – [ज़ोर से रोवणकाळी आवाज़ देते हुए] – अेंऽऽऽ अेंऽऽऽ पुड़ी सब्ज़ी ले लो। दस रुपये पुड़ी सब्ज़ी खायके..! दाणा-मेथी का आचार मुफ़्त में, साथ में। [पगड़ी वाले को देखकर] ओ पगड़ी वाले भाईजान, ले लो पुड़ी-सब्ज़ी।
[अब शर्माजी आवाज़ देते हुए, मोहनजी वाले केबीन के पास से गुज़रते हैं। तभी वाश बेसीन के नल से मुंह धोते हुए मोहनजी दिखायी दे जाते हैं, उन्हें देखते ही वे कहते हैं..ज़ोर से।]
शर्माजी – [मोहनजी को आवाज़ देते हुए, कहते हैं] – ओ एफ.सी.आई. के अफ़सरों। दाणा-मेथी की अचार साथ में, मुफ़्त में डालूंगा..आप ले लीजिये, दस रुपये पाव पुड़ी-सब्जी।
[हाथ-मुंह धोने के बाद, मोहनजी नेपकिन से हाथ-मुंह पौंछ डालते हैं। फिर वापस अपने केबीन में आकर, अपनी सीट पर बैठते हुए कहते हैं]
मोहनजी – [सीट पर बैठते हुए, कहते हैं] – यह पुड़ी वाला, शरमा नहीं होकर साला निशरमा बन गया है। साला कमबख़्त कढ़ी खायोड़ा पुड़ी-सब्जी पुड़ी-सब्जी बार-बार बोलता ही जा रहा है...

ओमजी – साहब, क्या हो गया ? बेचारा दो पैसे कमा रहा है, अपुन को क्या ?

मोहनजी – अरे ओमजी आप समझते नहीं, इतनी बार बक-बककर इसने मेरी भूख को बढ़ा डाली। अब अच्छा रहे आप में से कोई कढ़ी खायोड़ा, इस कमबख़्त कड़ी खायोड़ा शर्माजी से पुड़ी-सब्जी ख़रीदकर मुझे खिला दे।
ओमजी – अरे जनाब, पुड़ी-सब्जी तो आप रोज़ खाते ही हैं..मगर ये दाल के बड़े लूणी स्टेशन पर कभी-कभी दिखाई देते हैं। [रतनजी से कहते हैं] रतनजी बड़े के रुपये रशीद भाई को थमा दीजिये..वे चाय लाते, बड़े भी लेते आयेंगे। अब आपको जाने की ज़रूरत नहीं।
[रशीद भाई उनसे रुपये लेकर, प्लेटफोर्म पर उतरते हैं। मोहनजी खिड़की से मुंह बाहर झांकते हैं, और उनकी नज़र प्याऊ के पास खड़े सौभाग मलसा पर गिरती है। उनको देखते ही, उनका कलेज़ा हलक में आ जाता है। रामसा पीर को याद करते हुए, वे उनसे मन्नत माँगते हुए होठों में कहते हैं]
मोहनजी – [होठों में ही कहते हैं] – ओ रामसा पीर, आपने यह किया किया ? इस शैतान को यहाँ क्यों लाये ? आपसे अरदास है, आप इस शैतान को गाड़ी में चढ़ने मत देना, बाबजी। मैं आपको, सवा रुपये का प्रसाद ज़रूर चढाऊंगा।
[इस शैतान सौभाग मलसा के दीदार पाते ही, उन्हें बीती हुई घटनाएं याद आने लगी। उनको याद करते-करते वे ख़्यालों की दुनिया में खो जाते हैं। मंच पर अंधेरा छा जाता है, थोड़ी देर बाद मंच पर रौशनी फैलती है। गौतम मुनि और महादेवजी के मंदिर का मंज़र सामने आता है। आज़ तो मंदिर की सजावट देखने लायक है। मंदिर के चौक में बड़ी जाजम बिछी हुई है, यहां मेणा समाज के मोटवीर लोगों की बैठक चल रही है। इस बैठक में ठौड़-ठौड़ से समाज के पंच और समाज के प्रतिनिधि इकट्ठे हुए हैं। मंदिर के बाहर, एक विशाल बरगद का पेड़ है। पूजा करने आ रही मेणा समाज की औरतें इस बरगद के तने पर धागा बांधती जा रही है। आगे चौगान में अस्थायी दुकानें लगी हुई है, जहां घर-बिक्री का सामन बेचा जा रहा है। दुकानों के पास ही एक पुलिस चौकी बनी हुई ही। जिसमें सभी हवलदार सिविल ड्रेस में काम कर रहे हैं। कई जवान छोरे और छोरियों के रिश्ते मिलाने हेतु. उनके माता-पिता आपस में बात कर रहे हैं। कई युवक और युवतियां कहीं एकांत पाकर, एक-दूसरे के विचार जानने का प्रयास कर रहे हैं। पुलिस चौकी के आगे एक मेडिकल बूथ बनाया गया है, जहां लोग इलाज़ के लिये कतार बनाकर खड़े हैं। अचानक मेणा समाज के कार्यकर्ता ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते हुए, मंदिर की सीढ़ियां चढ़ते दिखाई देते हैं। वे सीढ़ियां चढ़कर सीधे चौक में आते हैं, जहां समाज के पंचों की बैठक चल रही है। अब वे उन पंचों को, ख़ास ख़बर देते हैं।]
एक कार्यकर्ता – [हड़बड़ाता हुआ ज़ोर से कहता है] – पंचों, गज़ब हो गया। बहुत ज़्यादा सावधानी बरतने के बाद भी ये नकटे पुलिस वाले अपनी वर्दी पहनकर इस मेले में आ गए हैं। जनाब अब क्या करना है, जल्दी हुक्म दीजिये।
ख़ास पंच – अनाड़ीया लगा फ़ोन, अभी के अभी इस होम मिनिस्टर को। इतना कहने के बाद भी, इन्होंने क्यों भेजे वर्दी पहने पुलिस वालों को ? आख़िर, समाज के भी कुछ नियम होते हैं या नहीं ?
दूसरा पंच – पंचों के सरदार। मुझे तो सरपंच साहब ने कहा था, के ‘पुलिस वाले सादी वर्दी में ही इस मेले में घुमेंगे।’ मगर यहाँ तो इन्होंने, अपना वादा तोड़ डाला..? अरे राम राम इनका दुस्साहस तो देखिये, इन लोगों ने वर्दी पहने पुलिस कर्मियों को मेले में भेजकर हमारे मेणा युवाओं को भड़काया है।
तीसरा पंच – [जोश में आकर कहता है] – अरे जनाब, यह कोई सरकारी मेला है ? यह मेणा समाज का मेला है, इसमें लोगों की हिफ़ाज़त का काम हमारा है..फिर इन पुलिसियों का यहाँ क्या काम ? [समाज के बैठे मोटवीर लोगों को, संबोंधित करते हुए] भाइयों, क्या आज़ इस समाज में इतना दम नहीं रहा क्या, हम अपने लोगों की हिफ़ाज़त ख़ुद न कर सकें ?
दूसरा पंच – [सबको संबोधित करता हुआ, कहता है] – भाइयों, कहिये यह सरकार आपसे क्या मांग रही है ? क्यों इस समाज के क़ायदों की परवाह न करके, मेले की व्यवस्था में खलल डाला ?
ख़ास पंच – [अनाड़िये को गुस्से में, कहता है] – अनाड़िये। अब तू फ़ोन बाद में लगाना, पहले जा मंदिर की साळ में। वहां बैठे हैं लठैतों को कह, “दो-चार घुम रहे पुलिस वालों को पकड़कर, जन्तराये..फिर उन नामाकूलों को बांधकर लाये, हमारे सामने।” बड़े आये लाड साहब, यहां मेले में खलल डालने वाले।
[अनाड़िया और उसके साथी झट रवाना होते है, मंच पर अंधेरा छा जाता है। थोड़ी देर बाद, वापस मंच पर रौशनी होती है। बरगद के पास एक खोखे [लकड़ी की बनी छोटी दुकान] की आड़ में सौभाग मलसा अपने तस्कर साथियों के साथ खड़े हैं। अचानक उनके मोबाइल पर घंटी आती है। जेब से मोबाइल निकालकर, ओन करते हैं। फिर वे उसे अपने कान के पास ले जाकर, बोलते हैं]
सौभाग मलसा – [कान के पास मोबाइल ले जाकर, कहते हैं] – हेलो कौन सरदार बोल रहे हैं, जनाब ?
मोबाइल में कमलकी की आवाज़ आती है – हुज़ूर, मैं सरदार नहीं। सरदार तो हुज़ूर आप हैं। मैं तो आपकी सेवक कमलकी हूं।
सौभाग मलसा – [मुंह बिगाड़कर, कहते हैं] – अरे राण्ड तू तो साली हर्राफ़, कमलकी सांसण निकली। बोल अब तूने फ़ोन क्यों किया, क्या काम है मुझसे ?
कमलकी – [फ़ोन पर बोलती है] – जी हां, मैं कमलकी ही बोल रही हूं। फ़रमाइए हुज़ूर, कैसे याद किया इस बंदी को ?
सौभाग मलसा – [फ़ोन में कहते हैं] – मैंने क्या कहा, तूझे ? तू भूल गयी, क्या ? अभी-तक वहीं बैठी है, क्या ? गयी नहीं ? या फिर तू गांजा चढ़ाकर, सो गयी ?
कमलकी – [फ़ोन पर कहती है] – नहीं जनाब, अभी-तक चढ़ाया नहीं है, गांजा। अब आप हुक्म देते हैं तो, मैं गांजा चढ़ाकर सो जाऊं ? आख़िर आपका हर हुक्म, मेरे सर-आँखों पर।
सौभाग मलसा – [फ़ोन में कहते हैं] – गतगेली मैं तो, मोहन लाल की बात कह रहा था। अब सुन, तू फ़ोन करने का कह रही थी ? फ़ोन किया, या नहीं ? मैं यह सोच रहा था, अब-तक तो तू तेरे ज़ाल में इस मोहन लाल को फंसाकर लेकर आ गयी होगी..भूतिया नाडी।
कमलकी – साहब, आपने जो मोबाइल नंबर मुझे दिए उस पर कई बार फ़ोन लगा चुकी हूं मैं। मगर, घंटी जाती रही और फ़ोन किसी ने नहीं उठाया...हुकूम, अब मैं क्या करूँ ?
सौभाग मलसा – [गुस्से में कहते हैं] – काली राण्ड। [गुस्से में कहते हैं] काम करना चाहती नहीं, अब मेरा नुक्सान हो गया तेरे कारण। फिर यह बता, यह मोहनिया कैसे कह रहा था, के “तेरा फ़ोन आया था।” अगर तूने फ़ोन नहीं किया, तब बता, आख़िर फ़ोन किया किसने ? गेलसफ़ी झालर। फ़ोन नहीं लगा, तब एक बार वापस फ़ोन करती मुझे ?
कमलकी – हुज़ूर, कई बार फ़ोन लगाया आपको। मगर हर बार आपका फ़ोन अंगेज़ आता रहा।
सौभाग मलसा - यह इतना महँगा मोबाइल, किस लिए दिया तूझे ? तेरे भरोसे मैं इस मोहनिये को छ: हज़ार रुपये देकर रुख़्सत दी थी, अब मुझे ख़ुद को जाना होगा, भूतिया नाडी।
[सौभाग मलसा मोबाइल का स्विच बंद करते हैं, कमलकी से बात करने के बाद उनके दिल में मचती है, उतावली। के, कितनी जल्दी वे पहुँच जाए, भूतिया नाडी। अब इसके बाद वे अपने साथियों से कहते हैं]
सौभाग मलसा – [अपने साथियों से, कहते हैं] – सुनो रे, मैं जा रहा हूं भूतिया नाडी। कोई ज़रूरी काम मुझे याद आ गया है।
[सौभाग मलसा के दिल में मची हुई है, उतावली। वे अपने दिल में ही निर्णय ले बैठते हैं, के ‘वहां जाते ही उस मोहनिये का गिरेबान पकड़कर, दिए हुए रुपयों को वसूल करूंगा और साथ-साथ गांजा के व्यापार के काग़ज़ात हासिल करके उसकी अक्ल ठिकाने ला दूंगा।’ अब वे किसी साथी की बात को सुनते नहीं, कौन क्या बोल रहा है ? वे शीघ्र मोटर साइकल पर बैठकर, चाबी घुमाते हैं। फिर गाड़ी को किक मारकर, उसे स्टार्ट करते हैं। फिर फरणाटे से उसे चलाकर ले जाते हैं। पीछे से उनके साथी, आवाज़ देते रह जाते है। अब पीछे गाड़ी से उड़ रहे धूल के गुब्बार को, दिखते रह जाते हैं। उनके जाने के बाद उनका एक साथी दूसरे साथियों से कहता है]
एक साथी – अरे जनाब, मैं बोस को बता रहा था...के, गांजे के माल को यहाँ से निकालने का मैंने तगड़ा प्लान बना रखा है।
दूसरा साथी – लपकू यार कुछ तो बोल, चुप क्यों हो गया है ? ऐसा क्या प्लान बना डाला तूने ? और तूझे, बनाने की ज़रूरत कहां आन पड़ी ? प्लान बनाने काम है, बोस का। तू क्यों बना बीच में, मैं लाडे की भुआ ?
लपकू – बात यह है, भाई करम चन्द। के आज़ इस मेले में, कई सी.आई.डी. वाले घुम रहे हैं। इस कारण माल ठिकाना पहुंचाना कोई सरल काम नहीं रे, भाई। इस कारण अपने दो-तीन साथियों को पुलिस की वर्दी पहनाकर, मेले में खड़ा किया है मैंने।
करम चन्द – फिर, होगा क्या ?
लपकू – यह होगा, के “ये गेलसफे मेणा नक़ली पुलिस वालों को असली पुलिस वाले समझकर, उन पर करेंगे हमला। उस वक़्त अपुन, गांजे के माल को ठिकाने पहुंचा देंगे। बोल
करम चन्द, कैसा बनाया प्लान ?
करम चन्द – अरे भाई लापकू, यह कोई प्लान है ? नक़ली पुलिस वालों के रोल में, अपुन के साथी ठोक खा जायेंगे ना ? बोस होते तो, जिस किसी को खाना होता तो उसे खिला-पिलाकर अपने साथियों का छुटकारा दिला देते। मगर, अब तो...
[यह सुनकर, खीजा हुआ लपकू बीच में बोलता है]
लपकू – [खीजा हुआ, कहता है] – क्यों खायेंगे रे, मार ? जब प्लान मैं बनाता हूं तो ऐसा तगड़ा बनाता हूं, सांप भी मर जाए और लाठी भी नहीं टूटे। अब तू यह बता, के यह रुपला और खीमला कब काम आयेंगे ? बस ये दोनों आकर, अपुन के साथियों को ले जाकर छुपा देंगे या फिर उनके कपड़े चेंज करवाकर बचा लेंगे उनको।
करम चन्द – [लपकू को शाबासी देता हुआ, कहता हैं] – शाबास। अभी अपने बोस होते तो, तूझे इस काम को अंजाम तक पहुंचाने की.. ज़रूर शाबासी देते। अरे शाबासी क्या, इनाम भी देते।
[करम चन्द की बात सुनकर, सभी हंस पड़े। ये सारे तस्कर सौभाग मलसा की आदतें जानते हैं, के जनाबे आली इनाम तो बाद में देते हैं..मगर अगले के खोपड़े पर पहले चार ठोल मार दिया करते हैं। मंच पर अंधेरा छा जाता है, और थोड़ी देर बाद मंच पर वापस रौशनी फ़ैल जाती है। भूतिया नाडी का मंज़र सामने आता है, नाडी पानी से पूरी भरी हुई है। नाडी की पाळ पर एक चेतावनी का बोर्ड लगा दिखायी है। जिस पर चेतावनी लिखी हुई है, वह यह है यह भूतों की नाडी है, कोई आदम जात नाडी के पास नहीं आयें। अगर ग़लती से यहाँ आ गया और कालिया भूत की चपेट में वह आ जाता है, तब वह अपनी जान व माल के लिए ख़ुद जिम्मेदार होगा। नाडी से कोई बीस क़दम दूर, पुराने महल के खण्डहर दिखाई देते हैं। इस महल में एक पुराना कुआ नज़र आता है। इस कुए के अन्दर उतरने के लिए, एक लोहे की सीढ़ी लगी हुई है। अब दो आदमी इस सीढ़ी पर चढ़कर कुए की जगत पर आते हैं, दोनों आदमी अपने कंधो पर कपड़े की गाँठ ऊंचाये हुए हैं। अब ये दोनों महल के एक बड़े कमरे में दाख़िल होते हैं। अब वे अलमारी खोलकर मेक-अप का सामान निकालते हैं, इन दोनों में एक आदमी सत्ताईस वर्ष का रौबदार नौजवान है। इसको दाढ़ी [रीश] रखने का शौक नहीं है, चेहरा क्लीन सेव रखने का ज़रूर इसे शौक है। इसके रौबदार चेहरे को देखने से प्रतीत होता है, यह किसी कुलीन राज़वंश का युवक हो ? दूसरा आदमी कम उम्र का ही लगता है, यह अठारह साळ का ख़ूबसूरत गोर वर्ण का युवक है। अभी-तक इसके चेहरे पर कहीं भी मर्दाना दाढ़ी-मूंछ आने के सकेंत नहीं है। यानि, जवानी की मसें फूटी नहीं है। इसके रुखसार चिकने और कश्मीर के सेब की तरह, लाल सुर्ख है। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं, अगर इसे कोई जनाना वस्त्र पहना दे, तो यह ख़ूबसूरत हूर की परी की तरह दिखाई देने लगता है। उस वक़्त यह किसी हालत में मर्द दिखायी नहीं देता, अगर कोई मर्द इसे देख ले, तब वह इस पर मोहित हुए बिना नहीं रहता। अब इस वक़्त ये दोनों आपस में वार्तालाप करते दिखाई दे रहे हैं।]
रौबदार युवक – [मुस्कराकर कहता है] – प्यारे मेरी जान, पहन ले यार अब घाघरा-ओढ़ना। और फिर बन जा तू, ख़ूबसूरत छोरी। [प्यारे का गाल खींचते हुए, कहता है] यार, अब आ गया है वक़्त, तेरे रोल अदा करने का।
प्यारे – [मुस्कराता हुआ, ठुमका लगाता है] – मगर साहब, मैं गुलाबो बी जैसी ख़ूबसूरत नहीं हूं। क्या कुवंर गुलाब सिंहजीसा, मैंने सही बात कही या नहीं ?
गुलाब सिंह – धत साला। गधा तू तो कैंची की तरह, ज़बान चला रहा है ? अब काम की बात कर, तेरा आशिक मोहन लाल आ रहा है भूतिया नाडी। अब यार, तेरी क्या तारीफ़ करूँ ? किस तरह तूने उस मोहन लाल को, मीठी-मीठी बातों का ज़ाल लगाकर उसे फंसा डाला ? वाह यार, क्या अदा है तेरी ? कायल हो गया, मैं तो।
[घाघरा, चोली और ओढ़ना आदि जनाना वस्त्र गाँठ से निकालकर पहनता है, फिर कहता है]
प्यारे – [जनाना वस्त्र पहनाकर, कहता हैं] – साहब, ज़रा सुनिए। आपकी मेहरबानी हुई, ना तो आपके नंबर लाये बिना मैं मोहनजी को कैसे पटाता ? मगर साहब, आप इनको बीच में फंसाकर हमारी मेरी रिश्तेदारी में झगड़ा मत करवाइये। फिर मुझे...
गुलाब सिंह – ए मेरे बहादुर सिपाही। तू यों कैसे बोल रहा है ? तूझे याद नहीं, प्रशिक्षण के वक़्त तूने क्या ली थी.. कसम ? भूल गया ? वतन के लिये अपनी क़ुरबानी देने, हर सिपाही को आगे रहना है। यह तो ख़ाली तेरी रिश्तेदारी है। मगर इसके साथ तू, अपनी रिश्तेदारी निभा सकता है।
प्यारे – कैसे निभाऊं, रिश्तेदारी ? जनाब, आप मुझे फंसा रहे हैं झोड़ में ?
गुलाब सिंह – गेलसफ़ा तेरा यह धर्म नहीं है, के तू तेरी मासी की बेटी बहन के पति के चरित्र की ख़ोज-बीन करे ?

प्यारे – क्या खोज करूँ, साहब ?

गुलाब सिंह - वे एक नंबर के रुलियार हैं। रुलियारों की तरह, सुन्दर औरतों के पीछे लट्टू बने चक्कर काट रहे हैं ? तूझे फ़िक्र नहीं, वे अपनी जमायी हुई गृहस्थी में आग लगाते जा रहे हैं ?
प्यारे – क्या कह रहे हैं, जनाब ? मेरे जीजाजी देवता समान है, इस दुनिया में दिया लेकर ढूँढ़ने निकलो..मगर, उन जैसा देवता समान आदमी आपको कहीं नहीं मिलेगा। ऐसे पत्नी-परायण आदमी के चरित्र पर आरोप लगाकर, साहब आप अच्छा काम नहीं कर रहे हैं ? कहिये, आपके दिल में ऐसी क्या बात है..जिसके कारण, आप उन्हें रुलियार कह रहे हैं ?
गुलाब सिंह – [गुस्से में कहता है] – नहीं तो उसे क्या कहूं, प्यारे ? वह आदमी, क्यों जुलिट के ऊपर डोरे डालता जा रहा है ?
प्यारे – [सर पर विग रखते हुए, कहता है] – यह हमारी जुलिट है, कौन ?
गुलाब सिंह – [गुस्से में कहता है] – हमारी कैसे कह रहा है, कुतिया के ताऊ ? यह जुलिट, केवल मेरी ही है..और किसी की नहीं, यह मेरे सपनों की रानी है समझ गया गेलसफ़ा ? [ग़मागीन होकर कहता है] इसको मैंने, पांच साल पहले खो दी। इस ख़िलक़त में चल रही पैसे और झूठे सम्मान की आंधी ने, [रोनी आवाज़ में] मेरे सपने तोड़ डाले..
प्यारे – सपने तो टूटने के लिए ही...
गुलाब सिंह – [गुस्से में कहते हैं] – नालायक, मेरे सपने कोई कांच का दर्पण नहीं है..जिसे कोई आकर तोड़ जाए। मेरी बात समझ, इस जुलिट को बहूरानी बनाना, मेरे पिताजी को मंजूर नहीं था..इसलिए उन्होंने साफ़ इनकार कर डाला।
प्यारे – इसमें नयी बात, क्या है ? आप हुकूम भैंसवाड़ा जैसे बड़े ठिकाने के कुवंर साहब हो, और वह रही होगी ओछे ख़ानदान मसीहा जाति की। फिर आप दोनों का मेल, आपस में कैसे बैठता ?
गुलाब सिंह – अरे प्यारे तू तो रहा, एक नंबर का गेलसफ़ा ? ले सुन, इस लड़की का नाम ख़ाली जुलिट है। यह लड़की असावड़ी ठाकुर साहब की इकलौती बेटी है, अब तूझे कुछ समझ में आया या नहीं ?
प्यारे – मुझे तो अब भी, दाल में काला नज़र आ रहा है। यह आपकी बात, मेरे समझ के बाहर है। उसका नाम आख़िर, जुलिट कैसे हो सकता है ? क्या आज़कल रावले में अपनी बाईसा का नाम, मसीहा मज़हब के नाम रखने लग गए ?
गुलाब सिंह – [अपने लबों पर, मुस्कान बिखेरता हुआ कहता है] – अब मुझे पूरे रहस्य पर पर्दा, हटाना होगा। ले सुन, यह पुराने ज़माने के प्यार की कहानी है। इस कहानी के नायक रहे हैं, असावड़ी ठाकुर साहब। वे अपनी जवानी में करते थे प्यार, किसी गोरी मेम से। मगर यह जात-पांत की पंचायत बीच में आ गयी, बेचारे उससे शादी नहीं कर पाए।
प्यारे – न्यात वाले न्यात की भलाई के बारे में ही सोचा करते हैं, जनाब वे खलनायक नहीं है।
गुलाब सिंह – दो प्रेमियों को मिलने नहीं देना, यह क्या है ? खलनायकी के सिवाय और क्या है ?
प्यारे - कई दफे चिकित्सक को रोगी की भलाई के लिए, उसे कुनैन जैसी कड़वी दवाई भी देनी पड़ती है। ताकि उसका रोग दूर हो जाय, इसलिए जनाब आप न्यात को दोष मत दें।
गुलाब सिंह – अब तू कहानी सुन, बेकार की मगजमारी कर मत। शादी न होने पर, दोनों को न्यात की इज़्ज़त बनायी रखने के लिए अपने प्यार की क़ुरबानी देनी पड़ी। मगर दिल में बसी यादें, ठाकुर साहब भूल नहीं सके। वक़्त बीतता गया, इनकी शादी भी हो गयी। और पहली औलाद एक लड़की हुई, एक बात तूझे कहना भूल गया...
प्यारे – कोई बात नहीं, जनाब। अब, कह दीजिये आप।
गुलाब सिंह – मैं यह कह रहा था, उस गोरी मेम का नाम जुलिट था। उसकी अमिट याद बनाने के लिए उन्होंने उस नवजात छोरी का नाम जुलिट रख दिया। अब तूझे सारा मामला, समझ में आ गया ना ?
प्यारे – मगर यह समझ में नहीं आ रहा है, आपका कांटा इस जुलिट से कैसे भिड़ा ? इसका सविस्तार वर्णन कर लीजिये, जनाब।
गुलाब सिंह – अब यहाँ ही बैठ जाऊं, तेरे पास..रामायण बांचने ? इतना समझ ले यार, कोलेज में साथ पढ़े और हो गया प्यार..और, क्या ?
प्यारे – जनाब, मुझे यह बात समझ में नहीं आ रही है..के, जुलिट इतनी ख़ूबसूरत व गुणवान है फिर आपके दाता उसको बहूरानी बनाना क्यों नहीं चाहते थे ?
गुलाब सिंह – रजवाड़ों के वक़्त असावड़ी ठिकाना, भैंसवाड़ा ठिकाना से छोटा माना जाता था। ये सभी बातें, पैसा और रसूख़ात की बातें है। दरबार से मिले ओहदे, को मंद्दे नज़र रखकर शादी के रिश्ते तय होते थे, और अब भी यही पुरानी परिपाटी चल रही है। जबकि लोकतंत्र आ चुका है। इस तरह हमारा रिश्ता तय न होने से, मैं दाता से नाराज़ होकर चला गया।
प्यारे – फिर आपने सी.आई.डी. इंसपेक्टर की नौकरी ज्वाइन कर ली, इस तरह आपका और मेरा मिलना हुआ। अब मुझे सारी बात समझ में आ गयी, और यह भी जान गया के आप देश सेवा के लिए नौकरी कर रहे है। आपको पैसे की कोई कमी नहीं, केवल आप अपना वक़्त देश सेवा के लिए दे रहे हैं। शायद, आपके ज़ख्म पर महरम लग सके।
गुलाब सिंह – ले पहले सुन, मेरी बात। पीछे से जीसा बीमार पड़े, और उनको जोधपुर के एम.डी.एम. अस्पताल भर्ती करवाया गया। उस दौरान इस जुलिट की ड्यूटी वहीँ लगी हुई थी, जहां जीसा भर्ती थे। वहां पर इस जुलिट ने निस्वार्थ भाव से इनकी सेवा की, तब इसके गुण और मृदु स्वाभाव देखकर इनका हृदय परिवर्तन हो गया। मगर..
प्यारे – आगे क्या ? अगर-मगर कहकर, आप क्यों बातों की गाड़ी को रोक रहे हैं ? [मुंह का मेक-अप करता हुआ कहता है] अच्छी तरह शान्ति से बैठकर, अपनी बात को रखिये ना ?
गुलाब सिंह – बात यह है, बाद में इसने अपना तबादला ‘मूविंग-स्टाफ’ में करवाकर, ठौड़-ठौड़ लग रहे मेडिकल शिविरों में अपनी ड्यूटी देने लगी। इस कारण इससे, मिलना हो गया कठिन। अब यह रोज़ हमें सफ़र करती हुई दिखाई देती है, मगर मैं अब इससे कैसे मिलूं ?
प्यारे – मिलते क्यों नहीं, आपको किसने रोका है ? अब तो आपको फायदा ही उठाना है, जाइये..जाइये मिलकर आ जाइये..और, शादी की तारीख़ भी तय कर लीजिये।
गुलाब सिंह – प्यारे तू ख़ुद देख ले, इस हिज़ड़े के वेश में जाकर कैसे करूँ उससे बात ? रामसा पीर ने मिलाया, मगर मिलाकर भी उन्होंने ऐसे मिलाया..के, मैं उससे चाहकर भी नहीं मिल सकता। अब तू बोल, प्यारे। इस किन्नर के वेश में, मैं कैसे अपनी व्यथा उसे सुनाऊं ?
प्यारे – [हंसता हुआ कहता है] – सुनाइये, जनाब। आपको, किसने मना किया है ? किन्नर बन गए तो क्या हो गया, क्या किन्नर कोई इंसान नहीं है..आपकी नज़रों में ? अरे जनाब, बलैया लेते हुए सुनाइये, या नाच-गाकर..क्या फ़र्क पड़ता है, अब तो आप आदी हो गए हैं...
गुलाब सिंह – [बनावटी गुस्सा दिखाता हुआ, कहता है] – खोजबलिया। अब तू इस प्यारी के वेश में, मिलकर आ जा तेरे मां-बाप से ? फिर आकर कहना मुझे, के आप भी पधार जाओ इस वेश में...जुलिट के पास।
प्यारे – अब आप आगे कहिये, जनाब।
गुलाब सिंह - अब सुन, सफ़र करते वक़्त इस मोहनिये को देख़ता हूं मैं..देखकर, मेरा दिल जल जाता है। यह खोजबलिया, इस पर डोरे डालता ही दिखायी देता है। यह बेचारी है, भोली। यह क्या जाने, इसके अन्दर का कपट ?
प्यारे – [माथे पर बिंदी लगाता हुआ कहता है] – देखिये, आप मेरे जीजोसा को मोहनिया न कहें...वे मेरे आदरणीय जीजोसा है। चलिए, कहिये..फिर, क्या ? कोई सबूत आपके हाथ लगा, मेरे जीजाजी के ख़िलाफ़ ? के, जीजाजी रुलियार है..?
गुलाब सिंह – बताता हूं, यार। पहले, तू मेरी बात सुन। देख इधर, जोधपुर डिवीज़न में ठौड़-ठौड़ जन-सेवा हेतु मेडिकल के शिविर लगते रहते हैं। कभी पल्स पोलियो के, तो कभी क्षय निवारण। इस तरह तरह-तरह के मेडिकल शिविरों में ड्यूटी देती हुई जुलिट, देश की सेवा करती आ रही है।
प्यारे – हुज़ूर, फिर हम भी इससे दो क़दम आगे चलकर देश की सेवा करते आ रहे हैं।
गुलाब सिंह – ठीक कहा, प्यारे। और इधर अपुन ने भी वतन के लिए, लोगों की जान-माल की रक्षा करते हुए...इस सौभाग्या तस्कर का, प्रकरण हाथ में लिया है। यह सौभाग्या है, गांजे का बड़ा तस्कर।
प्यारे – मैं इसे जानता हूं, हुज़ूर। यह आदमी, मेरे मासोजी के गाँव का ही है। जब से यह पाकिस्तान जाने वाली थार-एक्सप्रेस चालू हुई है, तब से इसका धंधा पाकिस्तान के अन्दर तक फ़ैल गया है। मैं यह भी जान गया हूं, इस प्रकरण को हल करते-करते आपको आपकी देवी जुलिट के दर्शन हो गए हैं। [तैयार होकर, खड़ा हो जाता है अड़ीजंट।]
गुलाब सिंह – [प्यारे को देख़ता हुआ, कहता है] – सच्च कह रहा हूं, यार तू इन जनाने वस्त्रों में जुलिट का दूसरा रूप ही लगता है।
[जोश में आकर, गुलाब सिंह प्यारे को अपने बाहुपोश में झकड़ लेता है। वह उस जाल से छूटने की कोशिश करता है, और इस छूटने की कोशिश में उसके रुखसार लाल-सुर्ख हो जाते हैं। आख़िर वह पूरी ताकत लगाकर, उसके बाहुपोश से छूट जाता है। इस तरह लज्जा के मारे उसकी आंखें नीचे झुक जाती है। अब यह प्यारे से ख़ूबसूरत प्यारी बन चुका है। अब यह प्यारी अपनी मादक अदाएं दिखाती हुई, जाकर कमरे की खिड़की खोलती है। फिर, खिड़की से बाहर झांकती है। वह, क्या देखती है ? आभा में कम्पी चढ़ी हुई है, मगर थोड़ी देर में अब वायु-वेग कम हो गया है। वेग कम होते ही, धूल धीरे-धीरे ज़मीन पर झरने लगी है। उधर मोहनजी पैरों को घसीटते-घसीटते धीरे-धीरे, भूतिया नाडी के नज़दीक आते जा रहे हैं। इस भूतिया नाडी से दो या तीन फलांग दूर, सौभाग मलसा मोटर साइकल दौड़ाते आ रहे हैं। और उनके पीछे धूल भरी आंधी बनती जा रही है, उस धूल-भरी आंधी के पीछे क्या है ? कुछ नज़र नहीं आ रहा है। अब प्यारी को झांकते देखकर, गुलाब सिंह भी पीछे रहने वाला नहीं। वह भी उठकर, खिड़की के पास चला आता है। वह भी बाहर झांकता हुआ बरबस कह उठता है]
गुलाब सिंह – [खिड़की के बाहर, झांकता हुआ कहता है] – यह धूल भरी आंधी दूर होकर अब, तस्करी के राज़ उजागर करेगी। और मेरी ज़िंदगी में जुलिट वापस आकर, दूर कर देगी मेरी तन्हाई। [रामसा पीर को दिल से, दण्डवत करके कहता है] ए मेरे रामा पीर। आपने आकर मेरे हृदय में, आशा की ज्योति जला डाली। वाह, कैसी है यह “धूल भरी आंधी” ?
[मंच पर, अंधेरा फ़ैल जाता है।]

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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)

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रचनाकार: [मारवाड़ का हिंदी नाटक] यह चांडाल चौकड़ी, बड़ी अलाम है। - खंड 10 - लेखक - दिनेश चन्द्र पुरोहित
[मारवाड़ का हिंदी नाटक] यह चांडाल चौकड़ी, बड़ी अलाम है। - खंड 10 - लेखक - दिनेश चन्द्र पुरोहित
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https://www.rachanakar.org/2019/12/yah-chandal-chaukdi-bdi-alam-hai-10.html
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