(सुखमंगल सिंह) काव्य समीक्षा- सुखमंगल सिंह का काव्य संग्रह सुपाथेय काव्य सरिता : जीवन सौन्दर्य की बहुरंगी छवियां - डॉ. पद्माक...
(सुखमंगल सिंह)
काव्य समीक्षा-
सुखमंगल सिंह का काव्य संग्रह
सुपाथेय काव्य सरिता : जीवन सौन्दर्य की बहुरंगी छवियां
- डॉ. पद्माकर सिंह
कविता जीवन सौन्दर्य की छान्दसिक और संगीतात्मक अभिव्यक्ति है। गीत, संगीत और छंद कविता की पारम्परिक छवि है। कवि सुखमंगल सिंह के काव्य संग्रह ‘सुपाथेय काव्य सरिता’ में जीवन के बहुरंगी सौन्दर्य की छान्दसिक अभिव्यक्ति है। कवि को लोक मन जब गाँव जवार की बात करता है तो लोक सौन्दर्य की मिठास के साथ और व्यवस्था के प्रति प्रतिरोध का स्वर उतना ही तीखा और व्यंग्यात्मक है। भक्त कवियों से आस्था और भक्ति के स्वर को ग्रहण करते हुए कवि शक्ति की प्रतीक और ज्ञान के आगार माँ सरस्वती का श्रद्धा से आवाहन करता है मुक्ति के मार्ग को प्रशस्त करने वाले ईश्वर को ‘आराधना’ भी करता है। कवि समय की कीमत को बखूबी जानता है। ‘वक्त’ कविता मं जीवन के स्याह और सफेद रंग की अभिव्यक्ति करता है। हम अपने जड़ों से जुड़कर ही विकसित होते हैं, पल्लवित होते हैं। गाँव, जवार और उसके परिवेश की प्रकृति पर जब कवि अपनी स्मृतियों को कविता के द्वारा हमसे साझा करता है तो वह उसकी लोक के प्रति प्रतिबद्धता के कारण ही है।
‘बचपन में गाँव’ ऐसी ही कविताएं हैं जिसमें कवि का लोक हृदय झलकता है। काशी के साथ कवि का विशेष लगाव है। काशी का फक्कड़पन यहाँ के संस्कृति की विरलता पर कवि जब लिखता है तो काशी का जीवन और वहाँ का परिवेश उसके पूरेपन में कविता में रूपायित हो जाता है- ‘काशी का चार्तुमास’, ‘बाबा हमहूँ काशी आयो’ और ‘अनोखी काशी!’ शीर्षक कविताओं में काशी के अनोखेपन का ही वृतान्त है। काशी पर बार-बार लिखने का प्रण लेते हुए कवि कहता भी है-
अब पुनि-पुनि कलम उठायेंगे।
काशी! रहि-रहि गुण गायेंगे।।
लाख लताड़त शिव आयेंगे।
काशी करवट सुनायेंगे।।
किसी भी कवि की असली कविताई का परिचय तब मिलता है जब वह अपने समय की सच्चाई को बेवाक तरीके से कविता में उकेरता है। कवि सुखमंगल की कविताएं हमारे समय में व्याप्त भ्रष्टाचार, अमानवीयता और सत्ता की कारगुजारियों का पर्दाफाश करती हैं। ‘सठियाय गया भारत’, ‘वोटर’, ‘कुंडली मारे बैठे’, ‘भ्रष्टाचार एटम बम हो गइल’ ऐसी ही कविताएं हैं। भारतीय नारी की छवि को कवि उसके प्रेम की संवेदना और प्रतिरोध की ताकत के साथ रचता है। ‘नारी को जागरण और शक्ति का प्रतीक मानते हुए कवि ‘जागो नारी’, ‘नारी कब जागोगी’, ‘बहिनों की पुकार’ कविताओं में नारी के सृजनात्मक व्यक्तित्व को कवि उभारता है। कवि स्मृतियों के सहारे हमारे इतिहास की पुर्नव्याख्या करता है और एक शोषण विहीन समाज की कल्पना करता है।
भाषा से कवि के विशेष लगाव को ‘हुंकार भरो हिन्दी’ और ‘आंसू पोंछ तू अपनी हिन्दी’ जैसी कविताओं में देखा जा सकता है।
इस तरह कवि जीवन में बिम्बों विविध सौन्दर्य और संघर्ष को कविता में उसी भाव और भाषा के साथ रचता है जो कथ्य के अनुरूप हो।
कवि का मन लोक भाषा के शब्दों और लयों में विशेष रमता है इसलिए इनकी कविताओं में अवधी, भोजपुरी के शब्दों का उपयुक्त संयोजन किया गया है।
दिनांक- 13-04-2015 हस्ताक्षर
(डॉ. पद्माकर सिंह)
काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी
सरस्वती वन्दना
वीणावादिनी बुद्धि की दाता
वीणावादिनी, स्वरदायिनी माँ।
नारायणी स्वर दो।।
सिद्धि दायिनी वीणाधारिणी
कर करतब करि कारिणी माँ!
स्वरदायिनी स्वर दो!!
ब्रह्माणी, शिव पूजनी
दिन रात सदा, मनभावनी माँ।
वीणावादिनी स्वर दो!!
जय-जय-जय माँ दाता
जय-जय-जय जयकारिणी।
वीणा वादिनी स्वर दो!!
जिह्वा पर नित वास करो
हिय में माँ उल्लास भरो!
वीणा वादिनी स्वर दो!!
परमारथ हो हृदय में माँ
निर्मल मन कर दो।
वीणावादिनी स्वर दो!!
काया कल्प करो तनका
प्रतिपल तू वर दो।
वीणावादिनी स्वर दो।।
करुणा तेज भरो मन में
सागर सा वाणी मन दो
वीणावादिनी स्वर दो।।
--
‘कल्प’, काशी का चातुर्मास
मांगों न और काहू से
याचक बन काशी में।
चातुर्मास बिताय,
रहतु ना एकै द्वार।
लेत नहाय वहाँ,
सब तीरथराज देवगण।। मांगो.....
चरबन लेत चबाय
चहुँओर महिमा काशी में।।
पंचाक्षरी मंत्र पढ़,
महिमा तन की काशी
त्रिलोचन ऽ लोचन-
कर्णघंटा घंटा बजत।
गिरिजानंदन हम,
शिव याचक बनिहौं काशी में।।
--
आराधना
भगवान की भक्ति करना!
गुणगान करना ध्यान कर।
मुक्ति का है मार्ग प्रशस्त
न अभिमान करना मानकर।।
शक्तिराधना होती रहेगी
युग! युगों तक मानकर।
द्वापर सतयुग त्रेता युग में
हनु आराधना मानकर।।
कलयुग में प्रत्यक्ष प्राप्य
शिव श्लोक ध्यान कर।
चरण प्रथम कलयुग का
अति भ्रष्टाचार मानकर।
नैतिकता प्रेम राष्ट्र में
निराश होता, ध्यान कर?
माँ की ममता
ममतामयि माता का
हम मनन हैं करने आए।
हृदय में है भाव भरा
अभिनन्दन करने आए।।
दरस देख मन ही मन
माँ बन्दन करने आए।
करुणा सागर का
अभिनन्दन करने आए।।
दरश देख तन मन से
धरणी पर माँ का।
क्रन्दन करने आये
बन्दन करने आए।।
अभिनन्दन करने आए
माँ के चरणों में मैं
अवगुण अर्पण करता हूँ।
सोमवती सोमवार को
अभिनन्दन करता हूँ।।
माँ तेरे भक्तों का
नित, नव नूतन दर्शन करता हूँ।
नूतन दर्शन करता हूँ।
अभिनन्दन करता हूँ।।
कमल
कमल वासनी व्याघ्र आसनी
भव भावन हारिण हो तूँ।
मतंग मुनि पुनि किये तपस्या
तरण तारण तारिणी माँ तूँ।।
हम भी अर्पण करने आये
माता श्रद्धा सपरिवार तुझे।
वास करो तू पास रहो
जग उद्धारक, अधियार बुझे।।
माँ नूतन गीत सुनायें।
ममता मय, माता गायें।
हम भजन हैं करने आये।
सुख शांति का गीत सुनायें।।
कल्प
सूरज चन्दा ना बदला
पवन पुनर्नवा जहाँ-तहाँ
हम बेरिआ बेरिआ बदले उतने
स्वप्न नये जब आते इतने।।
कहाँ गवा वह आम महुअवा
कहाँ गवा कटहरिया कटहल।
शीशम सेमल कहाँ कहाँ
बड़हल गूलर क पुष्प यहाँ
अब तो केवल हरा भरा
ऊसर नित दे दरस खरा।
अतरे-अतरे यहाँ-वहाँ हरा
चन्दा सा सौन्दर्य बिखेरें।।
बूढ़े बच्चे बुढ़िया बापू
गुठली देख खिसियात राजू।
सरसों के खेतवा का रंग
चपला के अधरन चमकल।
बदल गया। मंगल ना बदला।।
खइले के चिन्ता केकरे
स्वस्थ रहे की आस जेकरे।
जाड़ा अति दौउरौले जाला
कपड़ा पहिने के शौक गयल।।
डाक्टर इहय कहत रहेन
मिट्टी में ना पाँव पड़े।
अलसी सरसों तन ना छूंवे,
ड्राप्सी कय भरमार भयल।।
--
पुकार
उठो बहादुर उठो
समर सुनशान पड़ा है।
लुटते देखी माँ की लाज
बलिदानी बलिदान खड़ा है।
उठो बहादुर उठो............।।
कुर्बानी की जंग है लड़नी
दुश्मन तो ललकार रहा है।
फौलादी जंगी बेड़ा को
तुम भी ते तैयार करो, अड़ा है।
उठो बहादुर उठो.................।।
खड़ा शहीदी जत्था भी
तुमको आज पुकार रहा है।
त्याग तपस्या बलिदानों का
यही रहा है केन्द्र बिन्दु?
मंगल आज पुकार रहा है।
उठो बहादुर उठो...........।।
चारो तरफ बिछी देख
लाशों की जब ढ़ेर
झुकने देना कभी ना अब
भारत माँ का शीश
उठों बहादुर उठो.............।।
तपो भूमि हर ग्राम हमारे
कवि की वाणी गाती है।
लोरी गाती शाम को माता
गाय हमारी प्यारी है।
कहाँ सिंह बन गये खिलौने
बलिदानी बलिदान खड़ा है।
उठो बहादुर उठो....................।।
--
राखो चुंदरिया संवारि
भीगल जाले मोर चुंदरिया, छिपाये छिपे नाँ द्युति दागरी।
चूक चटक चंदा जो छिपा था, चुंदरी तो चटकार री।।
भींगल चुदरी निखिल निचोड़ा, मोहन ज्यों सपने साथ री।।
घट-घट खोजत नीक चुंदरिया, पायो अपने पासरी।
इहै चुंदरिया नाहिं तुम्हारी, प्यारी-प्यारी यारी दुलारी।।
जेते सुन्दर चुंदरी पायो, तेते ज्ञान, मान, गान अगाध री।।
जाबुन लायो मोहन मोरे, मौन ज्यों महा भंडार री।।
चुनरी चुर चारो चौकछु रे, सूर्य चन्द्रमा चुन्यो संसार री।।
आंगन लाये पिया चुदरिया भीगी भीगीं झीनी सारी।
गणपति गावत बीज बजारे, नीक चुदरिया नीक किनारी।।
रंगी चुदरिया को रंग निराला, मागत मधुबन मां नन्दलाला।
मंगल मंदिर बूझत न्यारी, देखत बारी-बारी-सारी।।
सोलह सी बंद चुदरी चोखी, चार चौपटा नाग-पास री।
रंग धूमिल चुदरी चटकीली, राखो राजे इसे संवारि री।।
--
वक्त
वक्त! वक्त छोड़ता नहीं किसी को!
मोड़ देता है शालार, जी रहे जवानें को।।
तोड़ देता मैं भंग भरे इन्सानों को।
फोड़ देता अहम् लिये हैवानों को।।
वक्त का सत्य, सीता हुई बेहाल थी।
अशोक में रहीं, उनकी ही चाल थी।।
वक्त की निर्दयता पार्वती हुई विह्वल।
वक्त का दबाव विश्वामित्र हुए चंचल।।
---
कल तक रहे जो देव,
हैवान बन जीते सगरी।
माया रूपी नगरी,
शैतान बन जीते डगरी।।
अपना सब सपना यहाँ,
वक्त सबको है मारा।
मत कहो वक्त ने मुझे मारा,
वक्त भूखे दिलों का पुच्छल तारा।।
हे वक्त! तू बता यहाँ
मंजिल हमारी तू कहाँ।
पुष्पों से सारी साया सजा
सेज तू सजा सजग हो यहाँ
बारात बहु लगी जहाँ
बारात तू दिखा हमें भी वहाँ।
कल कहाँ रहेंगे, हम सभी जहाँ
जी से बता हमें तू समा समा।।
--
विष पिया था शम्भु ने
अमृत हुआ था वक्त से।
वक्त! ऋषि मुनियों को
नहीं कभी भी छोड़ा।
वक्त ने ब्रह्मा को
प्रभु की तरफ मोड़ा।
वक्त ने अर्जुन के
मय को है तोड़ा
वक्त ने कंस का
विनाश कर ही छोड़ा
वक्त ने सपरिजन
रावण को ना छोड़ा
वक्त ही तो है जो
परिवेष को निचोड़ा
वक्त ही है आज जो
शाश्वत कर वेद से जोड़ा।
वक्त ने कागा को भी मोड़ा
शंक युक्त जो थोड़ा-थोड़ा।।
--
गरुण पड़े विषमय में
वक्त ने अंडे को छोड़ा?
कागा ने सुन लिया!
वक्त का चमत्कार पार्वती
सो गयी, मिला नहीं अमरत्व।
नहीं लोभ है, सुनो वक्त
अब! जीवन जग में जीने को।
शिष से सनकी कूट रहा वक्त
सुनो वहीं अब चलने को सन्तप्त।।
--
चक्की में पिसवा दो ऐसे
जैसे गेहूँ पिसता वैसे।
चक्की में दरवा दो वैसे
दाल अरहर की दरती जैसे।।
निर्दय बनकर वक्त तू ऐसे
वल्लम-वल्लम चुभवाओ भय से।
नाला-नाली कीचड़ वैसे
जैसे चाहो ले चलो वक्त!
लाठी डन्डा बातों में
हमें ना भरमाओ वक्त!
मृत्यु लोक से ऊब चुका
चुभन बहुत भरमाया संशय।
सुख-दुःख तूने दिया सक्त,
हमने सहा बन भक्त।
--
शास्त्र में कहते क्यूं हो
सब कोई अपना है यहाँ
अपने सपने बनकर
दावानल दहते हैं जहाँ।
स्वारथ में सबको है देखा
जहाँ तनिक भी कसी लगाम
घोड़ा भहरा कर गिरे
खाये मुंह की, वक्त का काम।
वक्त छोड़ने की अभिलाषा
वक्त छोड़ने की है आशा।
नहीं चाहिए हमें सम्मान
वक्त! तू लाओ कृपानिधान।
--
परमारथ व स्वारथ सब कुछ
तुम्हें समर्पित कर देंगे।
माया के भव ज्वालों को
अब हम अर्पित कर देंगे।।
आओगे ना हमें तू लेने
तुम्हें नहीं पुकारेंगे तो!
मृत्यु लोक में मृत आत्मा
बन तुझे सदा निहारेंगे।।
--
वक्त को हमने पुकारा
आ जरा हम देख लें।
दिल के दर्दों को सँवारा
‘मंगल’ तुम्हीं करने लगे।।
शब्दार्थ- शालार-सोपान, सीढ़ी। भंग-तरंग, लहर, खंड, विनाश भांग।
अहम् - घमण्ड। सत्व- सत्य, समय। डगरी-रास्ता, एक पग से
दूसरे पग के बीच की दूरी। वन-जंगल, किरण, कुसुम, जल, पानी,
शंकराचार्य के शिष्यों की एक उपाधि।
दोहा, घनाक्षरी पर आधारित तुलसी जी का वर्णन-
बाबा हमहूँ काशी आयो?
तुलसी हुलसत मगन मन, दृग द्रुति द्वय ज्योति।
अपरा-परा पूर्ण प्रीति, अद्भुत गुरु का श्रोत।
रचना ओछी ना कियो, साथ पास जु प्रमाण।
परम्परा स्व सिद्ध कल्पना, विश्लेषण हितकारि।
कर प्राणि कल्याण, सिद्धान्त सहितकारि।
मार्ग दर्शन उचित सत्व, गौतम बुद्ध पुकारि।
सर्व-सिद्ध गुरु मूल मंत्र, हिय में पानी विज्ञानि।
तुलसी थे परिपूर्ण मानस सज्ञानी ध्यानि।
कन-कन-कन पिरोया पद, अवर घर गुण खानि।
बाबा संत शिरोमणि-मणि, अंतर्यामी सज्ञानि।
मंगल मंगलाचार करत, सब तुलसी कथा बखानि।
विश्लेषण था श्रोत ही, जगावत जग जानि।
तुलसी हरि शरण पहुँचे, गावत मृदु के बानि।।
---
अनोखी काशी!
अब! पुनि-पुनि कलम उठायेंगे।
काशी! रहि-रहि गुण गायेंगे।।
लाख लताड़त शिव आयेंगे।
काशी करवटऽ सुनायेंगे।।
भर भाँग धतूरा लायेंगे।
मेवा सब मिश्रि मिलायेंगे।।
पथिक पहलुआ पंडित-पापी।
भाँग धतूरा पीयत साथी।।
डंड बैठकी खुला सपाटी।
अबे-तबे अरु चोखा-बाटी।।
गंगा माँ खूब नहायेंगे।
भव-भावन गीत सुनायेंगे।।
भाषा
भाषा योग अरु भोग बहुत रोग बढ़ावै।
भाषा मिलावै राम भाषा शिव गुण गावै।।
भाषा स्वर्ग लै जाय भाषा नरक दिखावै।
भाषा करै उद्योग भाषा ही कैद करावै।
मंगल कहत भाषा सुनो भाषा संभार बोलिये।
निज भाषा पर गर्व भाषा एकाग्र करि बोलिये।।
अलंकार रस छन्द भाव भाषा शैली है।
जन-जन जब ज्योति जगावै वह भाषा है।
तम उरु तमस मिटावै रोम-रोम रोचकता लावै।
देश प्रेम का पाठ पढ़ावै वह भाषा है।
सदाचार का पाठ पढ़ावै सहानुभूति से जोश जगावै।
घर-घर गीत सुनावै वह भाषा है।।
पर हित त्याग करावै तप से ज्ञान बढ़ावै।
वेद पुरान कुरान सुनावैं वह भाषा है।
मसिजीवी मस्तिष्क पर अमिट छाप लावै।
नैतिकता सुसंस्कृति भावै वह भाषा है।
संस्कृति-सुसंस्कृत हिन्दी धर्म-धर्म में प्रेम करावै।।
मानव में मानवता लावै वह भाषा है।
लेखक का जब लेख निखारे वह भाषा है।
मंगल मंजु मंग मन में मिलावे वह भाषा है।।
मसि-लिखने की रोशनाई, काजल, कालिख। मंजु- मनोहर, सुन्दर।
मंग-मांग, नाव का अगला भाग। मंगल- अभीष्ट विषय की सिद्धि,
कल्याण, कुशल, मंगलग्रह, भौम।
हृदय सुधा
परम पिता परमेश्वर आना तू, अन्तर्यामी तोरा ध्याना।
तू सबका स्वामी विधाना, दया निधे अब सुनिये गाना।।
ज्ञान दीजिए रब ध्यान दीजिए, मान अवधेश सम्मान दीजिए।
दर पे तेरे शि शित शीष करुणा नव विधान दीजिए।।
नहीं हमें अभिलाषा शिव-शिव, जीवन यशी यशोधा वा।
ध्यान रहे अटल सुहाना, चरण कमल जहाना शीष।।
दयानिधे गाऊँ तेरा गाना, मंगल गावत गीत बहाना।
काशी आयो कृपा निधाना, गावत शिव शिव शिव नित गाना।।
कर्म का बंधन
कर्म बन्धन में पड़ा नर भोगता बांड सदा।
प्रीत प्रभु पावन पायो, क्रीड़ा ऽयदा -कदा।।
श्याम सुन्दर सांवरो, शुद्धा सबका सदा-सदा।
मेघ मोहन घबरा उठा, ऊसर सिंच यदा-कदा।।
स्वान सांतत ले जुदा, मंगल प्रीति लो खुदा।
मंगल हृदय सुधा-सुधा, क्षय छांव पुरी सुदा।।
आ-आभा नैना, प्रिया, त्रिजटी त्रिशूल शिवयदा।
मंगल नद नंद नंदिनी, छिन तिन ढिन गावत सदा।।
शब्दार्थ-
त्रिजटी-शिव। पुरी-काशी। मान- । शि-। शित-कृश, दुर्बल,
शिव-शिव - यशी- । जहाना-संसार। बहाना-अविरल।
शिव शिव शिव-सेंधा नमक, महादेव। बांड-दो नदिया
ें के संगम के बीच की भूमि। शुद्धा-अमृत। स्वान-
घड़घड़ाहट, शब्द। सांतत- दंड, सजा। नद-नदी।
नंद-मंगल। नंदिनी-गंगा, ननद, कन्या, पुत्री सुरभि
जो कामधेनु से उत्पन्न छिन-तिन ढिन-। आ-लक्ष्मी।
आभा-किरण। नयना-नम्रता। प्रिया-बल्लभी।
हुँकार भरो हिंदी
हिन्दी तुझको तरस ना हो जी कागज में तू ही रहती हो।
श्रद्धा सहित नम्र वाणी बन साधु सन्त मन हरती रहती हो।।
राजाओं के घर की शोभा, मधुर गीत से रंग भरती हो।
सूर श्याम बन सावन-भादो, मथुरा में जा रमती रहती हो।।
ग्वाल-मंडली मध्य विराजत, किलकारी भरती रहती हो।
भरि-भरि उदर विषय दुःख खचियन हिन्दी क्षत्रिय बन सहती हो।
धन्य सपूत अवनि तल हिन्दी ला छाये आद्य शंकराचार्य।
आठ वर्ष में वेद उचारे बारह छःशास्त्र धन्य हिन्दी आर्य।।
सूर्य चन्द्रमा चेहरे चमके बिंदी गंगा माँ सी बहती रहती।
साये में साहित्य है अनगिन भाषा हिन्दी तुलसी सी बढ़ती।।
रति बिहार तू-प्रेम राग हो कुमुद कली रजनी गंधा हो।
विकल विमल निर्मल रस-रंग-गंध में हिन्दी तू गंगा हो।।
लहर तुम्हीं हो कहर तुम्ही हो करुणा भरी भावना हो।
गंगा सरयू सरस्वती बहना, फाग भरी साधना तू हो।।
अम्बर हिन्दी तम् हिन्दी जन-मन हिन्दी ही आराधना हो।
सूर कबीर शारदा मीरा तुमसे तुलसी की साधना हो।।
ऊँ नाम प्रतिबंध लगा जब भारत में था अंधेरा हिन्दी।
चिंतित रहते भाई बहना, राखी कर बंधवाने बिंदी।।
हिन्दी हिन्दू बौद्ध जैन औ मौलवी करने को उपकार।
परमारथ उद्धारक हिन्दी करते वे राम शिव भी प्यार।।
हिन्दी मंत्रों में मूल मंत्र हो मानो काशी मथुरा राम।
हिन्दी शिव सिद्ध साधू सम मानव मानव हो घनश्याम।।
जागो नारी!
भूल जाओ गुजरा कल का
वह तमासा साल का
आइये चले स्वागत करें
सभी नये इक साल का।।
---
कमर में करधनी तोड़
पाँव में पायल मोहें।
हाथ जोहे कुण्डल
नारी लक्षण सज्जन
ना होगी नारी मंगन।।
---
नारी प्रेम कहानी
भटका पथिक उबारे।
मंगल पानी-पानी
नारी सज्ञानी ध्यानी
अमृत अनुज पियाओ पानी
गठरिया आनंद ध्यानी।।
किरनावली मचलने लगी
जब जब कहानी लिखी शहीदों की हो,
दीप किरनावली आ मचलने लगी।
दीप जलने लगे रात दिन वन सुमन,
दीवाली दीपिका थिरकने लगी।।
जगर मगर अगर ज्योति जले कनक किरन,
अंग अंग जन जन मन मचलने लगे।।
देखें छवि आज गये भूलि दुःख मिलन,
झपकि झपकि तन मन दीप जलने लगे।।
गोरे-गोरे गोल गोरी के कपोल,
घृत तोल-तोल सजने लगे।
जोति किरनावली कीर्ति अति ललित लोल,
द्रोण ढोल लोगन मा बजने लगे।।
तनकी सुबास बास उमगे अनंत जंत्र तंत्र,
कंत सुख समृद्धि संत सजने लगे।
अगर तगर सर चंदन चहल पहल महल महल,
रोदन लोगन लगन लगने लगे।
संपति सुमेर की कुबेर की मातु संग,
गणपति गणेश महेश महकने लगे।
फरकि फरकि उछरि उछरि लटा कर किरनावली,
चपला को चंद ठहकने लगे।।
सदियों से भटके दीप जले ज्यों ज्यों,
रौशनी सुमार चमकने लगे।
गौरव मुकुर मुकुट हिमालय दीप शीष,
चढ़े झरना त्यों त्यों झलकने लगे।
पलकों से प्यार उतर जाने दो नैनन स्वाति
रौशनी सुमार लाया हूँ।
कहें चाँद से कि कैसे ठहर जाओ कौतुक,
कि चांदनी बहार लाया हूँ।
रुक रुक उलझता पवन ज्यों चला कातिक,
झमकै किरन ऋचा सुनाया हूँ।
अमराइओं में कोकिला कुहकेगी मधुर,
ध्वनि किरनावली लाया हूँ।।
मनन मंगल दीप जला निश्छल दीपावली जो
बिखरे गीत गाया हूँ।
निशा तार तारों में उषा निखरेगी निखिल
निर्मल रीति गीत लाया हूँ।।
गंगा जमुना की लहरें रुक रुक नव ज्योति निहार रही मन मन
वीर शहीदों के सिर पर ले लौ माँग रहे पानी जन जन।।
निशा की गोद में तारे निहारे दीप जले कन कन छन छन।
मंगल वतन की आबरू दीपक सब जलाएं मिल यहीं जन जन।।
सठियाय गया भारत?
असल-फसल लहलहा रहे,
ललकार रहा जब भारत।
विश्व विदित विख्यात सभ्यता
बीर किसान महारथ।
सदियों की संस्कृति अपनी
धिक्कार रहा जब भारत।
हरि-हर हाहाकार मचा
पुकार रहा सब भारत।
‘मंगल’ माथे माटी मल
सठियाय गया जब भारत।
झंडा ले अब वहाँ कौन
पुकार रहा है भारत।।
श्रीकृष्ण
बूझत-बूझत ज्यों-ज्यों समझत उको संच।
त्यों-त्यों निखरत बिचारि-बिचारि तत्वज्ञ संत।।
देखो सबहि श्रीकृष्ण गुरु
सुघड़ निर्मल आरसी-पारखी।।
भेषज काशी सचु कमलनैन।
आडम्बर तजि भाषत मन बैन।।
कृष्ण को राखियो जु साथ में।
काशी कौशल आस-पास में।।
हरि की कथा होइ जबहि जहाँ।
श्रीकृष्ण चलि आवै उ वहाँ।।
दुःखदंद कुसंग तारत आरती।
सहजसुख सुसंगति संग सारथी।।
मोदक मुक्ता कन काशिका।
कृष्ण राखो मंगल पति भारती।।
शब्दार्थ-
बैन-वाणी। सचु-सुख, शांति। कमलनयन-श्रीकृष्ण। दुःखदंद-
छन में सकल निशाचर मारे, हारे सकल दुःखदंद।
मोदक- औषधि से बना लड्डू। आरती- दीपक घुमाना मंगल
के निमित्त। संच-संग्रह करना, संचय। काशिका- प्रकाश करने
वाला, प्रकाशित, प्रदीप्त।
--
वोटर
जब चारो तरफ प्रत्यासियों की लगी बाजार।
जनता सोच समझ ले वोट दे होशियार।।
वोट देना वोटरों अपना अधिकार मानो।
मुल्क मुकम्मल प्रत्यासियों से अधिकार मांगो।।
दागी दामन दाग लगाये उन्हें हटाओ।
मूल्यवान मत वोटर सारे गौरव गाओ।।
अभी उनकी बोलियों में वही तीरकमान।
जीत की कटारी पास होगी हर एक म्यान।।
देश की देने वाले हो जिसको तू कमान।
कहीं वे तुम्हारा चुनकर करें ना अपमान।।
आयोग से कहो निकाले अपना फरमान।
कोई नहीं कोई नहीं मंगल करें गान।।
पं. सुधाकर
(1)
सुधाकर जी शानी महान विज्ञानी
जीवन जन का ज्ञान मानी विज्ञानी
उपकारी तन मन में थी दीवानी
सुनते सबकी वे जिह्वा रही पुरानी।।
जन जन करता रहता पंडित का गुणगान
सुन इधर उधर की बातें, सुनते गुनते नींद हराम।
बड़ी चतुरता से पण्डित जी करते हरि का गान
बिखरी बड़ी सभा संवार बढ़ाया हिंदी का मान।।
शब्द, सहज ज्ञानबद्ध थे, जीवट के जवान
चन्दौली से दौड़ लगाकर गये दिल्ली दरम्यान।।
दिल्ली दल दरबार दौड़कर बढ़ाया काशी का मान।
लेख और कविता लिख गाया गौरव गुणगान।।
सभा का गुणगान बड़े बड़ों के छक्के छूटे।
जो-जो जब-जब ललकारा उनके दांत किये खट्टे।।
आवा जाही लगी रही सत्ताधारी बहुत जुटें
जब तक रहे सुधाकर जन अरमान नहीं टूटे।।
मंगल रहा पुकार सुनो ज्ञानी और विज्ञानी
जहाँ छाई रहे बहार सुधाकर होवें ना बे पानी।।
--
जीने दो
दर्द समेटे दिल में अपने, अपने सपने टूट न जायें
जिसको-जिसको समझा अपना, अपना सपना ले वे आये।।
सगरे अगर मगर डगर-डगर, जगर मगर रहे वा जाये
सपना अपना अपना अपना, अपना उफनाते ही जाये।।
चुक चुक चटक चमक चमन में, दामन में डर दाग न आये
सुबह सबेरे साम सरहरी, दोपहरी में मन मुरझाये।।
लपट लहलहाती लमहे, लानत तानत शूल सताये
तृण-तृण तूल तलातल तल, तपकर शूल मूल बन जाये।।
लमहे बीते लघु इतने ना, वर्तमान रीते से आये
स्वाती की आस लिए बूदें, नद नव सीप खुले रह जाये।।
जटिल कटीले कंटक पथ-पंथ, प्यारी-प्यारी नींद न आये
मन मुसकाता पुनि घबराता, हिय की आस प्यास बुझाये
समुझावत बहलावत जियरा, मीत बेर बहु बंदा लाये।।
--
ब्रज बीथिन होरी
ब्रज वीथिन खेलिबो होरी, फाग राग किशोरी गायो।
थकौं छकौ बलिन गोरी, घाघर दुबिये दाबि सजायो।।
अँखियन अंजन रेख रसीले मंगल गोविन्द गोरी गायो।
नैन तरेरे निगाहें होरी, गोरी अलबेली ऽ आयो।।
फाग को रंग रीति रसीले, वियोगी योगी ढोल बजायो।
घूमत घूरत चटक चातुरी दम्पति जानि मोह दिखायो।।
गोरो भाल बदन लाल मोती माल आनन और लायो।
अंग अंग तरंग नख शिख उमंग मेरू औ कुबेर गिरिआयो।।
उड़ी अबीर साहित्य समीर मार बेसुमार राग गायो।
पवन सुगंध कंत आयो बसंत फूल केतकी सेज सजायो।।
कोकिल सरस सोइ वाग राग वसंत मोर खोर गायो।
मोहक छबि ब्रज वीथिन बारि कसि केसर गुलाल सजायो।।
--
बदरंग
गुन गुन करते बहते शब्द कानों को हर दम।
खाने को कब दोगे, मुट्ठी भर तू अन्न।।
तुम्हीं बताओ बढ़कर क्यों जगमग राहें सन्न।
युगों-युगों से होता, कब शोषण होगा बंद।।
--
झोरी-होरी!
हरषि-हरषि घूमत घूंघट में भ्रष्टाचार अपार।
तरासि-तरसि तरि जाते बड़कऊ आरक्षण नामार।।
भरै कुमकुमा गुलालन झोरी होरी की हुंकार।
नट नागरि गागरि गज गामिनी मथुरा रही पुकार।।
लाल गुलाल अभेद लाडलो होरी होरो प्यार।
करि कृपा धन-धाम-श्याम सुमिरौ करो उपकार।।
छच्छ नाई लट्ठ सवारे पाँव मा घाव अपार।
नव अच्छत ला थाल सजाये हारो का वाजार।।
चढ़ चंदन ठाढ़ ठठोली सेवा शान रसधार।
बूका बंदन चंदन चमकीला झांकी झक झकझार।।
रसिक रसीले छैल-छबीले उमदा ह्य वाजार।
कहू चहू चैता-चनैली राग रंग भंग घर द्वार।।
ठाकुर धाम उधौ रंग झोरै राधा नी इनकार।
अनहद ताल पखावज बाजत नारी नर विहार।।
काशी को कोतवाल कुतूहल कंकण कंचनहार।
चंदा-सूरज फाग-फगुवा मंगल वासन्ती रंगवारि।।
--
सद्भावना
सद्भावना आधार है इस भव्य जीवन धाम का।
है शान्ति इसमें एकता साफल्य लक्षण काम का।।
यह है पुरातन अति सनातन अभ्यतन शास्वत सही
इसके सहारे ही बनेगी स्वर्ग सी अपनी मही।
चाहे जहाँ भी हम रहें आकाश या पाताल में।।
यह भूमि है सफला तथा सुजला हरी हर काल में।
कालुष्य कटुता द्वेष ईर्ष्या शत्रुता अभिशाप है।
है तामसी ये वृत्तियाँ जो सालती अभिशाप है।।
इससे बचाती हर घरी ऐसी तरी सद्भावना।
लेती मिलाती सब गले निर्मूल कर दुर्भावना।।
है संगठन उत्थान पथ पर आज विघटन हो रहा।
जग जा सही सद्भावना होवे मुदित जग रो रहा।
ये धर्म कर्म विभेद जितने चर्म शर्म दिखा रहे।
देखें सुधाकर या प्रभाकर मंगल भाव सिखा रहे।
--
हमरी दइयाँ निष्ठुर भइला हो बनवारी
हमरी दइयां निष्ठुर भइला हो बनवारी
पाँव धरे अहिल्या तारे
ऋषि गौतम की नारी
दुख दारिद्र सुदामा तारे
मड़ई से हो गई अटारी।। हमरी ....................
अग्नि जलत प्रह्लाद उबारे
हरिण्याकश्यप को तू तारे
दसंकधर रावण को मारे
राज विभिषण को दे डारे। हमरे दइयां..............
अर्जुन भीम नकुल सहदेवा
गये महलों में हारी
दुःशासन को चीर ग्रहण
दुर्योधन को तूने ललकारी।। हमरी दइयां................
तुम यश मरनी मरम नाहीं
जानत चितै-चितै हमारी। हमरी दइयां..........
सूर श्याम निकट तब अइबा
जब हम होइबै उघारी।। हमरी दइयां................
मंगल गावत गीत बाजारी
सखा पति श्याम तू हमारी।।
हमरी दइयां निष्ठुर भइला हो बनवारी।।
--
अंधकार
ओसरवा से माई करेले पुकार
दलनिया दरके खटिया खसके हमार।।
बिचे बलमा आँगना ओढ़नी ओहार
बड़के ओसरवा आवै बबुआ पुकार।।
आँगनवा से सटल सजीला ओसार
माई की ले लेता खबरिया मेहार।।
ओ ही कहीं रहेली मेहरिया तुहार
तनिक बबुनी से बबुआ करता गुहार।।
अह अह बुढ़िया माई भरे हुँकार
माई के आइलबा जड़ईया बुखार।।
बबुनी ‘विशाली’ ले ला खबरिया हमार
महामति होइहै तोहार उपकार।।
माई उदास करती ओसरिया पुकार
‘सजीले’ ओसरवा से बोले चटकार।।
कदमों की डार सखी ना।।
झूला झूल रहे नन्द के कुमार सखी।
कदमों की डार सखी ना।।
--
रात
आज की रात जख्म भर दो तो कुछ बात बने।
वर्ना कल हम भी कटार ले निकलेंगे तो?
जुरर्त करना नहीं पता हमें तेरी कूबत की।
देखा था कल आप भी तलुए चाटते मिले।।
--
दिलवर
काम कितना भी कठिन हो, मनुज जो चाह दे।
पथ पर पड़े काँटे जटिल, पल भर में ढाह दे।।
दुनिया दागी गमगीन, जिन्दा दिलवर ला दे।
है कोई इन्सा जहाँ में आइना मुहब्बत की गीत सुना दे।
दिल पे पत्थर रख बैठा जहाँ, महौल खुशनुमा बना दे।
शहर आइना निहार बैठा, कोई तो चिराग जला दे।।
शान्ति, बीरान हुई जुल्म बहुत, यारी पक्की करा दे।
सूख गई स्याह गुलशन की, महफिल का रंग जमा दे।।
--
शहर में अंधेरा
सूरज बिखेरता उजाला,
मगर अपनों को अंधेरे ने घेरा है।।
उजाले को चुराया अंधेरों ने,
उन अंधेरों में मेरा घर बसेरा है।
अपना घर फूंक ओ ढूढ़ते रोशनी,
अपना शहर कहे ठांव में अंधेरा है।।
जब कभी धरोहर के चिराग जले,
आस्था की बस्ती में उजाला है।
जब चारो तरफ घना अंधियारा तो
इक टिमटिमाते दीपक का सहारा है।
मिल जलाओ सारे दीये साथ में
एक दीया कोई अलग जलाया है।
सब भागते हैं छाँव की तलाश में
हर डाल देखा बाज का बसेरा है।
यूँ तो मंदिरों में देवी देवता चुप बैठे,
युगों-युगों से शहर में अंधेरा है।।
--
बरसात करा के न जाइए
मौसम गर न आवे,
कृत्रिम बरसात करवाके न जा।
साधन सब संदूक में,
इन नयनों को सुखा के न जा।
वर्षों टूटी झोपड़ी,
सबेरे गुसैया महल बना के न जा।
डग डूबा हृदय मरुस्थल,
आँसू नयन मेंं ढरका के न जा।
सखियाँ चढ़े पहाड़,
गुलगुले पंचर कराके न जा।
मौसम सदाबहार बह,
रंग रोदन कराके न जा।
बे मौसम खिली कलियाँ,
गलियाँ सॅवार के न जा।
जैसा दाम वैसा काम,
जौहर दिखा-दिखा के न जा।
अंधा धुंध उड़ान चढ़े,
टकसाल लुटा लुटा के न जा।
त्यौरी चढ़ी चाँद,
मुखड़ा दिखा-दिखा के न जा।
दागी गर जहाँ के,
सस्ता वेद थमा के न जा।
महलें अलीशान बढ़े,
सर सड़क बना-बना के न जा।
झोली फकीर के दो आना,
उबला भात फैला के न जा।
मूंद रही पलकें तपन,
मूसलाधार बरसात बरपा के न जा।
कुछ खास अपने,
रेवड़ी पुनि थमा के न जा।
फारम हाउस भरा अन्न,
मुट्ठी भर दाना लुटा के न जा।
--
कुंडली मारि बैठे?
जाने कब अनजाना बाज।
झुंड का झुंड चला आया।।
पूर्वांचल का राज छुपाये।
कालोनी -कालोनी छाया।।
हिम्मत किसकी उसे टटोले।
मन माफिक मिलती माया।।
एक से बढ़कर एक खास।
दूर देश तक जिसकी छाया।।
कुंडली मारि बैठे वर्षों से।
शासन निज लाचारी गाया।।
दूर दराज का खेल खेलते।
जहाँ तहाँ आतंक की छाया।।
मौजी बस्ती बलवानों सी।
अनजानों की भारी माया।।
अखबारी दरबारी गाथा।
जाने क्यों खास सुनाया।।
--
हिंदू मुसलिम बांट-बाँट
कर इंसान खरीदा जाता।
मिश्रित सभ्यता सम्पन्न देश,
अमन चमन से रहता।
अर्थ व्यवस्था उत्तम मन,
आतंकवाद से लड़ता।।
फल-फूलों से लदा दरख्त,
खग-मृग का मन भरता।
बलिदानी बलशाली सारे,
जत्था-जत्था लड़ता।।
--
कवि
कवि कुछ तान सुनाने का।
उथल-पुथल मच जाने का।
सच माँग सदा जमाने का।
दूर महानाश भगाने का।
प्रलयंकार हटाने का।
को कौशल पास छुपावे।
तो वह कविता कह जावे।
कवि को राज बतावे।।
--
बहिनों की पुकार
बढ़े न भ्रष्टाचार अत्याचार जग उबार।
बुद्धि बल बिलसित जन्म मनुज तुम्हार।।
भाषा सिखा हृदय अद्भुत हो बढे़ निखार।
कृपण बन सानन्द समेटे स्वयं करें सुधार।।
ज्वलित ज्वलंत दुःख दावानल कहें विचार।
सोते-जगते खाते-पीते रोते हंसते बढ़े निखार।।
त्राहि-त्राहि करता हाहाकार नारी दुःख अपार।
छल में क्रान्ति भीषण भ्रम भाषण में व्यापार।।
कलुषित कर कलयुग काँपता देख-दुराचार।
मुक्के मार-मारकर दुराचार नीचे देहु गिरा।।
चिल्लात बिलबिलात अकुलात अति अत्याचार।
पिछली पगडंडी पकड़ी न्याय करे जो गुहार।।
लखी लेखनी बढ़ी बजार भ्रष्टाचार निहार।
एक-एक कर नव दुर्ग अनेकों बढ़े चढ़े विचार।।
साम-दाम अरु दण्ड-भेद दुर्गम दुःख दुधार।
उन अंगरेजों का याद कराता भारी भार।।
वीर बहादुर बाँकुरे हिंद के कर लेकर तलवार।
त्राहि त्राहि जहाँ माँ ममता की कैसी पुकार।।
सबका साहस बढ़ा खुली साँस बही बयार।
जीवन जीने की जतन जुगति भूमि हमार।।
ब्रह्म भोज तर्पण अर्पण नूतन दिखा निखार।
गांव-शहर लहर बहिनों मिला खिला अधिकार।।
कहा कही कहन बड़न की धोखा दिया निकार।
छेड़-छाड़ तलवार तान छोड़ शक्ति सघन संचार।।
होश उड़े अच्छे अच्छों के कवि का बन्द विचार।
हक से हार जीत जनजीवन बहिनों की पुकार।।
--
माथे दर दउरी भरकर के,
दउरल फूल सजाना होगा।।
बेटवन भूखे पेट बितावें,
बाबा को दुलराना होगा।
गांव मुहल्ला हल्ला बोल,
गीत बाबा का गाना होगा।।
शिखर चढ़ि जब बोले दारू,
झगड़ा तुम्हें छुड़ाना होगा।
मुर्गा खा के तोंद तनी तो,
हकीम तुम्हीं को लाना होगा।
पंडित पोंगा पड़ी पाले तो,
लबदा लेकर दौड़ाना होगा।
दिल से दइतरा बाबा के,
ड्योढ़ी पर शीष झुकाना होगा।।
--
सर्वनाश की ज्वाला उसमें! कमी करम है।
हा! निश्चय जानों भ्रष्टाचार एटम बम है।।
था शुभ सरल देश सुसज्जित सभ्यता सुख देता।
जब बन्धु पिता प्रतिकूल सहोदर भी दुःख देता।।
प्रथा दहेज का खुला मुख अति मुहफट दबते तो।
ले स्वाभिमान खड़ा जहाँ शून्य हृदय रोते हो?
हो हृदय धीरता नहीं मति में चतुराई।
कौन कुबुद्धि अनभिज्ञ आपकी करैं विदाई।।
हाय सुबुद्धि-शान्ति में बढ़ी-चढ़ी लड़ाई।
का संसद का गलियारे को दंगल हो जाई।।
शब्दार्थ- वेत्ता- जानने वाला, ज्ञाता।
--
मौसमी मन
थी चाहत फूल की हेलया टाटा काँटा मिला।
गया पकड़ा पगडंडी पर चटाचट चाटा मिला।।
हिमाकत हुस्न छूने की दर्दे दिल खाटा मिला।
पावडर प्रेम के बदले चमकता साटा मिला।।
अच्छा हुआ था उससे सगाई ना किया।
हुआ मैं शौहर वह लुगाई जुदाई ना किया।।
रूप क पुजारी पुजारन नूर जिसे देख लिया।
फिरा जिसके खातिर गलियन मर्म हमने देख लिया।।
आशिकों को उसका हमने निशाना ना बनने दिया।
सारी दुनियाँ गलती मेरी जब तलक न मान लिया।।
मैं छेड़ता रहा फेसबुक पर तब तलक गिला।
सरे बाजार जब तलक मेरी पिटाई ना किया।।
शब्दार्थ- हेलया-खिलवाड़ में।
--
अफसर सारे आराम करेंगे,
डट चारो धाम करेंगे।
जा विदेश धन लाएंगे
मिल जुल उसे सभी खाएंगे।।
तिब्बत से दुशाला लाऊँगा?
मेवाड़ मखमल पहिनाऊँगा।
समलैंगिक सरकार बनेगी?
फिल्मी शिक्षा मुफ्त मिलेगी।
अगर युवक सब माँग करेंगे,
डिग्री सभी मुफ्त मिलेगी।
मंत्री कोई मतिमंद न होगा?
लेना रिश्वत बन्द न होगा?
रिश्वत ते चन्दा आयेगा?
बन्दा बैठ-बैठ खाएगा।।
महामूर्ख को जनता जाने,
मूँछ मुड़ाएं सूट पहिचानें।
उनकी महिमा पुलिस बखाने?
कलियुग संत समाज भी माने।
नव युग मंत्री को पहिचाने,
प्रजातन्त्र हौ खुद को जाने।।
--
जिन कहा हमार
न कहब तुहांर।
काहें करेल गुहार
ले ला हमसे उधार!
न यहाँ कोई तुहार
कोई न हमार!
माटी धुने कोहार
तलवार गढ़े लोहार।
शहर देखा हजार,
‘मंगल’ गाओ मल्हार।।
शब्दार्थ- खुशबू-सुगन्ध, तुहार-तुम्हारा।
--
चना
मेरा चना बना है खर्र,
पुड़िया बाँधा है फरफर।
ले के जाना भाई अपने घर,
खाना भाभी से मिलकर।
पूछेंगी कहाँ से लाए देवर,
बताओ चने वाले का घर।
चना खरीदेंगी बढ़कर,
चना जोर गरम।।
मेरा चना बना कनखिया,
नीचे बहती गंगा मइया।
ऊपर चले रेल का पहिया,
नीचे चले हजारो नैया।
जिस पर बैठे ‘मंगल’ भैया,
चना जोर गरम।।
मेरा चना बना है ओझा,
पतोहिया खोल के आई झोंटा।
देवर तड़ी में खोला लंगोटा,
बाबूजी उठाय लिए सोटा,
बहुरिया खींच के मारे लोटा।
चना जोर गरम।।
टन टन टन टन घंटा बोला,
चपरासी बढ़ फाटक खोला।
लड़के पढ़ने गये स्कूल,
मास्टर मारें खींच के रूल!
लड़के गये भाग बिलकुल,
चना जोर गरम।।
शब्दार्थ- कनखिया-कटाक्ष। रूल-डंडा। ओझा-बाजीगर, चतुर। तड़ी-घमण्ड
(गुजराती भाषा)।
दुःख सुख तो....................... हैं।
मन में नव अभिलाषा झिलमिल
झंकृत काया कर जाती है।
शोकयुक्त निर्जन नव पथ पर
खिल खिल विकल हँसी आती है।
रजनी किस कोने छुप बैठी
मधुर जागरण लुट जाता है।
संकट का दौर पड़े ना किसी पे
शीतल प्रान बल खाता है।
कपटी व्याकुल आलिंगन करते
जीवन की चंचलता जाती है।
आशा कोमलता तन्तु सा दीखता
नारी अपनी कह जाती है।
वह नीड़ बना छट जायेगा
आकुल भीड़ छँट जाती है।
मन परवश हो जाता क्यों
माना ईश्वर रूठ जाता है।
फिर भी रहता सर्वत्र सुलभ
स्थिर मुक्ति प्रतिष्ठा वैसी दे जाता है।
माता-पिता स्व कर्मों के फल
हार-उधार हृदय पहनाता है।
संकट सा दौर..............................
दुःख सुख तो आता जाता है।
--
कुनैन की गोली
स्वाती बरसे पपीहा हरषे।
पी पी की आवाज कहाँ।।
कोयल बागों में कू कू करते।
बिनु कोयल ज्यों दिल तरसे।।
चौपालों का दौर कहाँ।
नीम पीपल के पेड़ जहाँ।।
पथिक बबूल की छाँव में।
थक करते विश्राम वहाँ।।
पेड़ों की सफाई होती।
जनता में लड़ाई होती।।
सूखी लकड़ी ठाँव कहाँ।
संस्कार का पाँव कहाँ।।
महुआ मह मह फूल नहीं।
जन-जन की कैसी भूल रही।।
वह कुनैन की गोली गायब।
जो मलेरिया को करती घायल।।
--
जब पुष्प खिल जायेगा
एक पुष्प देश में क्या वह निखार लाएगा?
बढ़े भ्रष्टाचार जो दूर ओ भगाएगा।
‘मां गंगा’ को गंदगी बाट साफ कराएगा?
विश्व में फैले भ्रम को बढ़ आगे मिटाएगा।
शिक्षा में भ्रष्टाचार को दूर वह कराएगा?
नौजवानों को सृजन कर कर्मी बनाएगा।
ई टेन्डरिग कर देश को आगे बढ़ाएगा।।
भ्रष्टाचारी देश न हो कुछ ऐसा कर जाएगा?
सुविधा शुल्क राज्यवार कौन-कौन मिटाएगा?
काज के साथ प्रचार प्रसार कौन कराएगा?
राज्यों में टैक्स समान हो नीति बनाएगा।
मिडडे आँगनबाड़ी पर नियंत्रण आएगा।
विद्युत व्यवस्था जल सबको सुलभ करायेगा।।
बलात्कार को देश से दूर वह भगाएगा।
संस्कृति सभ्यता का सुन्दर पाठ पढ़ाएगा।।
दैहिक दैविक भौतिक तापोंसे पूर्ण मुक्ति दिलाएगा।
ऐश्वर्य की धारा कान्ति युक्त का फिर से आएगा।।
सूर्य उदय हो शत्रुओं का तेज हर जाएगा।
स्त्री पुरुष में प्राण और अपान शक्ति बढ़ाएगा।।
वह प्रतिसर मणि फिर एक पुष्प लाएगा।
दर्भ मणि विश्व देश का कल्याण कराएगा।।
भ्रष्टाचारियों का धन क्या देश में आएगा?
क्या त्रिभुज में फिर से आत्मा आएगा?
जो काले और धारीदार नागों को प्रणाम कराएगा।
पुष्प स्व लालिमा से कृत्रिम चमक को हटाएगा।।
आओ मिलजुल कर देश खुशहाल बनाया जाएगा।
राष्ट्र रक्षार्थ सुशासन हेतु यज्ञ कराया जाएगा?
सत्कर्मों की जननी मातृभूमि पर यज्ञ कराया जायेगा।
अग्नि और चन्द्रमा को हव्य दिलाया जाएगा?
मनरेगा की मन्दगतिऽ धरती को मुक्ति दिलाएगा।
पंच द्वार से होता शोषण पुष्प सर्वेक्षक को लाएगा?
लूट पाट की बनी अट्टालिका का धरोहर बन पाएगा।
बड़ बोली मनमानी को भी अंकुश लग पायेगा?
‘धरती माँ’ मालामाल होगी जब पुष्प खिल जायेगा।।
प्रतिसर मणि- इस मणि से इंद्र ने वृत्त को मारा और वे पृथ्वी को जीते।
दर्भ मणि- विश्व कल्याणार्थ।
--
वर्णन मंगल आओ
मण्लेश्वर हुए राजे
परीक्षित जनमेजय अश्वमेध
द्वितीय राम छत्रमल आदि
दो सौ वर्ष राजे राज्य किए
अन्तिम राजा पृथ्वीराज
छल छन्द में कैद हुआ राज
गोरी शहाबुद्दीन के हाथ।।
मुसमिल वर्ष छः सौ इक्यावन राज
ता उप्पर अंग्रेजी बाज
उनके दो सौ वर्ष समाय
फिर भी साठ क्षत्रिय राज
बड़े-बड़े खड़े पड़े साज बाजे
दिल्ली ऊपर है हुआ राज।
सौ पाँच छोटे राजाराजे
पराधीन जन बन राज।
बड़े तालुकेदार रहे दो जमींदार
सौ सौरभ का रहा हिसाब राज।।
शब्दार्थ-
अस्तत्व तरुसा- पीपल का वृक्ष, अजसा- ईश्वर, विष्णु, जिसका जन्म न हो, औषधि। दंत सा- पर्वत का ऊँचा भाग, प्राणियों का दांत आदि। दुहिता- कन्या, पुत्री, लड़की आदि, ठाकुर- देवता पूज्य व्यक्ति।
--
माँ गौरव गायेंगी
नारी स्व के मान को खुद ब खुद बतलायेंगी।
भारत का सीस रहे ऊँचा नवगीत सुनायेंगी।।
ज्ञानी विज्ञानी विश्व बढ़े, कबीरा पाठ पढ़ाएंगी।
नीति रीति का ध्यान हो, वह प्रीति बतलायेंगी।।
सदियों की अपनी संस्कृति, जब पूजन करवायेंगी।
दामन अपना रहा हिमालय, माँ सब गौरव गायेंगी।।
--
छणिकाएँ
काम, क्रोध, मद मोह जब तक हृदय ना त्यागे।
रघुबर हृदय मम प्रीति, तब तक नहिं लागे।।
कवन नाथ गलती मम् कीन्हाँ फिर-फिर प्रतिज्ञा कीन्हा।
बहुविधि यतन कीन्ह रघुरायी यज्ञ पुनः करि नहिं पायी।।
संगत धर्म धुरन्धर की, पहले वर्ष आठ मह कीन्ह।
साधन बिन सिद्धि कर, युति-युति संगत दीनो दीन।।
धर्म ज्ञान वैराग सब, रटत को लागे नीक।
परमारथ बिन, ‘मंगल’ तू, नारि बाँझ सम दीन।।
मातु-पिता गुरु देव द्विज, हरि संत बिन आप।
सागर पार लगाइहैं, गाइये रघुबर आज।।
मंगल वहाँ न जाइये, जहाँ होत नहिं मान।
नाम धर्म का लेना, धन का हो अभिमान।।
मारग एक भक्ति का, दूजा सबऽ निष्काम।
लदा दरख्त फल ते, तोड़्यो नहिं बिन काम।।
कपट दम्भ छोड़कर, शम्भु को पुकार तूँ।
शम्भु के आते ही, सबको लताड़ेगे।।
मन में लेकर आश, कुशल क्षेम पूछन गये।
मन में हो विश्वास, हरि दर्शन करने लगे।।
जालिम के मुख पर कसके, तमाचा लगाइये जरा।
मंगल जुल्मऽ सहके, मुस्कराइयेऽ जरा।।
कर्म धर्म ध्यान धरि, करहु हृदय विश्वास।
प्रभु में निसदिन आस, ते घट-घट वासी आप।।
ऐ शेर तूँ रुक यहीं कुछ खोया
देखना है हमने तुझे, कुछ रोया।।
रसातल निहारता तूँ रुक जरा।
तू जहाँ जहाँ चलेगा निहारता तुझे।।
--
ले जहइैं कब जन-जन तोड़के।।
फाल्गुन बिति जइहै सेमल विचारे।
लालटेस फुलवा रहिहै अब मशोशिके।।
लागल ...................
जीवन भी देवता है, देखा सम्हाला।
उड़ि ना जाय अब होली में, लाला।।
--
आग
(अथर्ववेद सूक्त 28)
तेरी सेवा अग्ने रोग मुक्त बालक
ना करे, अनिष्ट, पिशाची वृद्धातक।।
मित्र द्रोह मित्रवत, माता सा रक्षक वन
देवमित्र! वरुण! मत दे, बृद्धा प्राप्य करें।।
देवाहन सब देवों से, जीवन दीर्घ करें मेरी।
सौ वर्ष जिये नभ धरणी, ते विनती मेरी-तेरी।।
तूँ सबके स्वामी अग्ने? ‘मंगल’ विनय करे कैसे।
वीर्यवान बालक हो सर्वगुण सम्पन्न सब जैसे।
बालक सुखी रहें वैसे, जैसे अदिति देती वर वैसे।।
--
आँत सिर पसलियों के क्रिमि, ‘मंगल’ मंत्रों के बल नष्ट
जैसे भी प्रविष्टि कृमि पर्वत बन औषधि पशु में
पुष्टि, रोग नष्ट किया ‘मंगल’ मंत्रोषधि से।।
--
यक्षमा निवारण
पृथक यक्ष्मा मनुज किया, चिवुक नेत्र, कर्म जिह्वा से तेरा
पृथक नाड़ी से चौदह यक्षमा रोग से आज अब
नाड़ी कष्ठ वक्ष कन्धे, भुजाओं, की उष्णिह नाड़ी।।
हृदय-हलीक्ष्ण, प्लीहा-पार्श्व उदय प्रकृत यक्ष्मा जो।
कुक्षियों पलाशि नेत्र उदर से यक्ष्मा रहा भगाय।
कटि के निम्न पट के उच्च गुह्य भाग और नेत्र से।
उंगली नखों अस्थि मज्जा, स्थूल सूक्ष्म ते।
त्वचा जड़ों अंगों कूपों से, यक्षमा रोग हसाता रोगिन।
महर्षि विवाह मन्त्र ते, कश्यप के आज हटाता रोग।।
--
शब्दार्थ-
बल्क-बड़ा आकार-प्रकार, तिमिर-अंधकार, बंडल-बेकार
होना, कौंध उठा-चौक गया (घबराहट), झंकृत-झकझोर,
विफरे-फैल जाना (छितरा जाना), स-ईश्वर, शिव, विष्णु,
कान्ति, ज्ञान संगीत में षड्ज स्वर का सूचक अक्षर।
--
कभी नहीं
जीवन भर तुझे छोड़ न पाया
जीवन को अभी मोड़ न पाया
फिर भी क्यूं भरते हो दम्भ
खट्ठे-मीठे सुनाते जंग।।
ना ना
मेर पास ना आ
तू तन में
मेरे आश ना ला
कुचल
पसीने रहे जो तन
तुझको
उनसे त्राश ना हो।।
--
चौथ का चाँद
माघ महीना क कृष्णपक्ष में
पहला पक्ष दिखबा आइलबा।
पुतवन के कल्याण के खातिर
सिसिर सर पर चढ़ल आइलबा।।
सखियन चला मिलि करी तपस्या
तिजियै के हम खाइब ना अब।
होत भिनहिया चौथ लगी जब
भूखे पेट बिताइब जा तब।।
दिन भर हम उपवास करब जब
गौरी गणेश के भाइब तब।
गणपति बाबा आशिष ले तब
गौरी माँ जाय मनाइब जब।।
साँझ ढलत हम नहा धोइके
कंचन थाल सजाइब हम सब।
गौरी गणेश राउरै को भोग,
कन्ना, गुण अच्छत चढ़ाइब तब।।
घी, दीप, नैवेद्य माला, पुष्प
तिल गंगाजल ले मनाइब हम।
चन्दा मामा देखल बिनु सखी
कछु तुहके नाहि चढ़ाइब हम।।
साक्षी रहिहै चन्दा मामा
सखिय संग गितिया गाइब हम।
अरसे बरस भर भला रखिहा
दूसरो बरस भल अइबा पुनि
अइसे दरसन दिल मा रहिहां,
कंचन थाल ला समाइब पुनि।।।
माघ महिना क कृष्णपक्ष में
पहला पक्ष दिखवा आइलबा।।
--
आँसू पोंछ तू अपनी हिंदी
आँसू पोंछ तू अपनी हिन्दी
ओझल आँखें क्यों टोकेंगी।
विश्वव्यापी तू इतनी हिन्दी
अमीर आँगन वाले क्यों रोकेंगे।।
तू तो सागर खुद हो हिन्दी
नाले-नाली क्यों कोसेंगे।।
अंजन-अन्जसार-अंज तू
कण-कण में हिन्दी खोजेंगे।
अमी-असम अमरीका हिन्दी
गृह-गृह कण-कण में देखेंगे।।
हिन्दी तू हिन्दुस्तान की भाषा
वह बोले हैकन की भाषा।
वह बोले बड़ वार की भाषा
हिन्दी हिन्द हिन्दुस्तान की भाषा।।
हिन्दी तू दीदार की भाषा
हिन्दी तू परिवार की भाषा।
हिन्दी तू वान की भाषा
समरसता जीवन की भाषा
हिन्दी तू उद्गार की भाषा।।
सुना था सबमें प्यार की भाषा
जन-जन के उद्धार की भाषा।।
निर्भय निर्मल प्रेम की भाषा
हिन्दी तू प्रज्ञा की भाषा।।
हिन्दी ही है शक्ति की भाषा
हिन्दी तू शिव-शक्ति की भाषा।।
हिन्दी तू जन-गण की भाषा
हिन्दी तू तन-मन की भाषा।।
विश्व विदित विजयी तू हिन्दी
वारि-वारि सब देखें हिन्दी।।
ऊपर नीचे दायें बायें
जहाँ भी देखो होगी हिंदी।।
--
सुसुआती गायें
सलख शिशिर के पास
सदा सुसुआती गायें।
निलख हृदय में आज
सदा गाते ही जायें।।
जन्म धन्य धरनी धन्य
जीवन धन्य हो जाये।
जहाँ विष्णु करते विनय
प्रभु चरनन में ध्यान
संहार अमृत बन गायें।।
भक्तों से प्यार किया
चारों वेदों का गान किया।
वैदिक ऋचाओं और मंत्रों
में बसा प्रभु ध्यान सुनायें।।
--
बारूद
कलिकाल के काले पन्नों में कथा कही जायेगी।
‘मंगल’ महावीर मंदिर से मानों बू आयेगी।।
कलियुग करतब काल करते, अपने-अपनों को खोते हैं।
काले-काले काल कहाँ तक, बद्दुआ माथे पर ढोते हैं।।
बाजू में बारूदऽ बिछी बोते, बबुआ सेज सजा सोते हैं?
बला बुलाई मुम्बई जाई पता बता कितने रोते हैं।।
स्याह सुर्ख-सुर्ख कागज कोरे हमें जगा हम सोते रोते।
हमें जगा हम सोते रोते, बारूदों से बिछी शृंखला बोते?
हमें सुलाते उन्हें रुलाते जागो जागो जवाँ तु जागों
बना बनारस भागे भोते बबुआ सेज सजा सोते हैं।
बाजू में बारूद बिछी, बोते बबुआ सेज सजा सोते हैं।।
--
मीत
हे मन के मीत मल्हार करो।
गीत गुथ गुथ गुन गुंजार करो।
देवों ऋषियों की वाणी हो।
पावन धरती हमारी हो।।
जीवन ऽ कुच कुच सुधार करो।
वाणी औरों सम न्यारी हो
जिगर की सबकी दुलारी हो।
हे मन के मीत गुहार करो।
राधा-काँधा सम प्यार करो।
हे मन के मीत मल्हार करो।
गीत की धुन गुन गुंजार करो।।
--
हे मन के मीत पुकारो सदा
‘मंगल’ सा तू दुलार्यो सदा।
मन मंगल कहकर निहारो कदा
जीवन ज्योति ज्यों किनारो सदा
मन ‘मंगल’ अयोध्यावासी है
मानो प्रभु बिनु उदासी है।।
स
होली आई हो!
बरसाने में धूम मची है
होली, होली आई रे।
--
आई जब होली बनी, लंहगा।
खड़ी रहिहै छोरी उड़ी लंहगा।।
उठिहै जो लोइ सड़ी लंहगा।
पावन पथ पात पड़ी लंहगा।।
--
आगे आगे गोरी
पीछे-पीछे बाबा
लहर-लहर लहरें
ल-ल-ल ढ़ाबा।।
--
शरीर पर पड़ी छींटा, गोरी जो लगइबू
ललका पीला नीला, होलिया में टीका।
हु जइबू तू हू जवान, जो करबू विहान।
कइला थोड़ा मुसकान, उजड़ि जाई सिवान।।
---
‘‘विलखत-विहान’’
भोरवै विदा करौले, ओरे बाबा विलखत भइनै विहान हे राम!
केकरिय रोअले गंगा बढ़ि अइली,
केकरिय रोअले अधियार हे राम।।
केकरिय रोअले भींजल मोर अंचरवा।
केकरि बाड़ी कठिन परान हे राम!।
माई के रोअले गंगा बढ़ि अइली
बाबू के रोअले अंधियार हे राम!।
भइया के रोअले भींजल मोर अंचरवा।
भउजी के कठिन परान हे राम!।
भोरवै बिदवा करौले मोरे बाबा।
विलखत भइलै विहान हे राम!।
छोरी पर देखें व्यंग रचना-
कइसे क तोहसे करी बरजोरी गोरिया।
अबही त तू देखत में बाडू छोरी गोरिया।।
पति को पाकर नाइका का सखि से बातें-
अइसन मउगा भतार, देखबा मिलल बाबा।
देखबा इनके मुख प अधियार मिलल बाबा।।
आसे पास रहेला करेला बरजोरी।
सांझ ते विहान भइल, मुहवाँ मउगा चोरी।।
भोर होतें नाइका कहती है-
झुलनी
पनिया भरत के गोरिया के झुलनी हो हेराइल
से अति हो घरवाँ जाले आप हो पतरंगवा।
जाय कहेलि घरवाँ सुनबा हे लहुरा देवरवा।
झुलनियाँ मोर हेराइल पाके कि इनरवाँ
झुलनियाँ मोर हेराइलबा।।
एक ओर खोजे हे सखि सहेलिया
एक ओर खोजे हे लहुरा देवरवा।
एक ओर खोजे हो नन्हे कै मिलनुआ।।
नायिका पर रंग मलवाने का हठ-
डरवा ला हो, डरवाला हो
होली हौ आइल डरवाला हो
मलवाला हो मलवाला हो
लाल गुलाल हमसे मलवाला हो।।
--
ओ! मुसाफिर
ओ! मुसाफिर सुनो तेरा
स्वागत द्वारे मेरा।
धन्य काशी परम्परा
आये आप विचारि।
अवधपुरी हम बासी
काशी आया साथी।
काशी संस्कृत केन्द्र
घर-घर शिव देवेन्द्र।
गुन-गुन कियो विचार
अनजानी आहट सुधार।
संस्कृत स्वर कानों में
मानों करता गान।
नगर गाँव की गलियाँ
कहीं-कहीं झोपड़ियाँ।
संस्कृत केन्द्र पुरी सदा
लूट ठगी यदा-कदा
आर्थिक विषमता
फैलायें विद्रोह विषमता?
उपयोगी और पूर्ण नहीं
मानव शास्त्र अपूर्ण सही।
समरथ को नहिं दोष
दासो चिंतन भूले एथेंस
मानव की अवधारणा देखो
अनुक्रमण भेदभाव में वृद्धि
समता न्याय बदलते रहे।
आय का स्तर हो गया ठीक?
हुई विषमता बटवारे में
आदर्श मूलक विधि और
नीति शास्त्र अपनाया सार।
जिससे विकसित राष्ट्र
कर तुलना जन जन से
तुलना पुनि-पुनि ना करें
तुलना एक ही बार।।
--
मुल्क
निशानी- हां गर्दिशों में जाने जा, शहर घिरा मेरा।
जहाँ मौन बैठी चांदनी घिरा घनेरा।।
कविता-
युद्ध-गृहयुद्ध आते मड़राते देखो ऐ कातिल।
मुल्क पर काले बादलों की छाया घनघोर।।
सलील-सलिल सरसे, सरकता टुपुक-टुपुक।
काबिल काफिर खा रहे को कच्चा बच्चा-अच्छा।
युद्ध होता हो युद्ध होता रहे सच्चा अच्छा।
मुदरायें मुल्क मुकर्रर मिटा रहे चुपचाप।
मोहनी! मुल्क मुर्झा जाय सो भी सही मंगल?
सोहन! सलिल सर से सरकता सरसरा रहा।।
युद्ध होता है युद्ध होता रहे अच्छा-सच्चा।
काबिल काफिरों को खा रहे कच्चा-बच्चा अच्छा।
दर्द दिल को दुखता दिखा, देखे बच्चा-बच्चा।
मधुमय मंजिल मन मोर्यो मना रही गच्चा-गच्चा।
सभा सारे शमा-समां सजोकर सजी घना।
मुल्क
निशानी- हां गर्दिशों में जाने जा, शहर घिरा मेरा।
जहाँ मौन बैठी चांदनी घिरा घनेरा।।
कविता-
युद्ध-गृहयुद्ध आते मड़राते देखो ऐ कातिल।
मुल्क पर काले बादलों की छाया घनघोर।।
सलील-सलिल सरसे, सरकता टुपुक-टुपुक।
काबिल काफिर खा रहे को कच्चा बच्चा-अच्छा।
युद्ध होता हो युद्ध होता रहे सच्चा अच्छा।
मुदरायें मुल्क मुकर्रर मिटा रहे चुपचाप।
मोहनी! मुल्क मुर्झा जाय सो भी सही मंगल?
सोहन! सलिल सर से सरकता सरसरा रहा।।
युद्ध होता है युद्ध होता रहे अच्छा-सच्चा।
काबिल काफिरों को खा रहे कच्चा-बच्चा अच्छा।
दर्द दिल को दुखता दिखा, देखे बच्चा-बच्चा।
मधुमय मंजिल मन मोर्यो मना रही गच्चा-गच्चा।
सभा सारे शमा-समां सजोकर सजी घना।
मुल्क
निशानी- हां गर्दिशों में जाने जा, शहर घिरा मेरा।
जहाँ मौन बैठी चांदनी घिरा घनेरा।।
कविता-
युद्ध-गृहयुद्ध आते मड़राते देखो ऐ कातिल।
मुल्क पर काले बादलों की छाया घनघोर।।
सलील-सलिल सरसे, सरकता टुपुक-टुपुक।
काबिल काफिर खा रहे को कच्चा बच्चा-अच्छा।
युद्ध होता हो युद्ध होता रहे सच्चा अच्छा।
मुदरायें मुल्क मुकर्रर मिटा रहे चुपचाप।
मोहनी! मुल्क मुर्झा जाय सो भी सही मंगल?
सोहन! सलिल सर से सरकता सरसरा रहा।।
युद्ध होता है युद्ध होता रहे अच्छा-सच्चा।
काबिल काफिरों को खा रहे कच्चा-बच्चा अच्छा।
दर्द दिल को दुखता दिखा, देखे बच्चा-बच्चा।
मधुमय मंजिल मन मोर्यो मना रही गच्चा-गच्चा।
सभा सारे शमा-समां सजोकर सजी घना।
--
जागो नारी!
भूल जाओ गुजरा कल का
वह तमासा साल का।
आइये चलें स्वागत करें
सभी नये इक काल का।।
कमर में करधनी तोड़
पांव में पायल मोहें।
हाथ जोहे कुण्डल
नारी लक्षण सज्जन
ना होगी नारी मंगन।।
नारी प्रेम कहानी
भटका पथिक उबारे।
मंगल पानी-पानी
नारी सज्ञानी ध्यानी।।
अमृत अनुज पियाओ पानी
गठरिया आनंद ध्यानी।।
--
हृदय सुधा
परम पिता परमेश्वर आ ना, तू अन्तर्यामी तोरा ध्यान।
तू सबका स्वामी विधाना, दयानिधे अब सुनिये गाना।।
ज्ञान दीजिए रब ध्यान दीजिए, मान अवधेश सम्मान दीजिए।
दर पे तेरे शि शित शीष करुणा नव विधान दीजिए।।
नहीं हमें अटल सुहाना, चरण कमल जहाना शीष।
दयानिधे गाऊँ तेरा गाना, मंगल गावत गीत पुराना।।
काशी आयो कृपा निधाना, गावत शिव-शिव-शिव नित गाना।।
---
कर्म बन्धन में पड़ा नर भोगता बाड सदा।
प्रीत प्रभु पावन पायो, क्रीड़ा ऽ यदा कदा।।
श्याम सुन्दर सावरो, शुद्धा सबका सदा-सदा।
मेघ मोहन घ्ज्ञबरा उठा, ऊसर सिंथ यदा-कदा।
सांतत ले जुदा, मंगल प्रीति लो खुदा।।
मंगल हृदय सुधा-सुधा, क्षय छांव पुरी खुदा।
आ आभा नैना प्रिया, त्रिजटा त्रिशूल शिव यदा।
मंगल नद नंद नंदिनी, छिन तिन दिन गावत सदा।।
--
गंगा
आह! कहें क्या तुझे भगीरथ इसीलिए धरती पर लाये।
युग-युग तक मानव का दुःख तू सहती ही जाये।।
मानव को तरने को पुनर्जन्म ना धरने को।
अमृत जल पीने को तुम पर दावानल दहने को।।
गंगोत्री से ले चले भगीरथ तुझको अपने साथ।
जगह-जगह रुक जाते मन में लेकर आस।।
नींद ना आये सो ना सकी कितने हुए बेदर्दी।
खुद तो वे विश्राम करें तू हाहाकार मचाती।।
तेरे अविरल धाराओं का नहीं रहा आभास।
उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम ले जाते थे वे।।
तू न पूछती थी क्यूं गंगे कितना मुझको मोड़ोगे।
गावों नगरों शहरों कितनी धाराओं से जोड़ोगे।।
ऊंचे नीचे पर्वत खाड़ी समतल करने का काम लिया।
गड़ी पड़ी और सड़ी लाश को, तारने का काम दिया।।
उजड़ी बस्ती ऊँचे नीचे पापी का तू साथ दिया।
जो पापी आये धरती पर तू हरने का काम किया।।
खोई-खोई अविरल लट थी जन मानस को रही समेट।
निर्जन से भी ले जाते थे धनवानों के बीच अन्येत।।
सुन्दरियों के भोग काल में भूपति तेरे साथ।
बड़े-खड़े राजर्षि भी चूसें तुझको आज।।
इतने से भी नहीं अघाये, लिया है तेरा नीर।
समय-समय पर किया परीक्षण, निकला निर्मल नीर।।
जगह-जगह ऊपर तेरे पुल का है निर्माण किया।
ईंट पत्थरों से समय-समय पर तेरा है अपमान किया।।
तूने भी इस लोक में किया बहुत अन्वेषण?
जिसकी जैसी भावना उसको वैसा पोषण।।
कभी तो उन पर सोचो गंगे जिसने दर्द दिये।
हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई सबने तुझे पिये।।
साधु संत मौलवी मुल्ला कठमुल्लाओं को सहता जा।
तूने प्रण किया है पालन ‘मंगल’ धन्य तू कहते जा।।
--
इंसान बनकर देख
खंजर भी बदल जाता, मंजर को देख।
तू नहीं बदला भला, सिकन्दर को देख।।
अरमान बहुत तुझमें, अंजान बहुत देख।
सुनशान में खड़ा, इंसान बहुत देख।।
काँटो से भरी वाट आंखों से देख।
भक्षक बना कौन, रक्षक हो देख।।
लोहा बनो कहीं, सोना होकर देख।
बहाने मरने के बहुत, ठिकाना जीकर देख।।
उदास विश्वास कर, आदमी बनकर देख।
अंधा बहरा आदमी, सहारा बनके देख।।
बरबाद ना हो मंजर, समन्दर बन देख।
बहने सभी तुम्हारी, संस्कृति पढ़कर देख।।
--
भूचाल
मेरे लाले लाल लंगोटिया भारत माँ की सुसंतान हो।
कभी ना झुकने देना यादें, माँ भारत के इस शान को।
मंदिर-मस्जिद कलश वा मूरति, भगत बिस्मिल्ला सूरत।
चली जब महिला हाथ कुदाल, पृथिवी फिर आया भूचाल।
बिछा था लम्बा कितना जाल, फौलादी बालाएं बेहाल।
क्रोध में सब सैनिक थे लाल, नाचता गलियों में था काल।
मुक्त गगन का नव पंछी बन इतिहास नया हो डांडीजन।
स्वाभिमान हो वीर सुताएं, रण आंगन संदेश अब मुक्ताएं।।
शब्दार्थ-
लंगोटिया-सहयोगी। मुक्त गगन-स्वच्छंद विचरण का स्थान। डांडी-लम्बा
पतला डंडा, लम्बा हत्था। जन- मनुष्य।सुताएं-पुत्रियां।
--
अमृत छोड़ मैखाने जाते
लज्जा से काँप रही धरती,
नर कूप कराह रहे कोकिल।
सूखे प्रियतम अंग-अंग,
नयनों से आँसू आनन्द बन।
दवा धरा पर खरे नहीं,
नहरों में पानी कहीं नहीं।
नारी की लाज बचाने को,
लश्कर मैखाने अड़ा नहीं।
शरण लिये जो छले हैं आते,
प्रणव छोड़कर प्राण बचाते।
अमृत छोड़ मैखाने आते,
अपने ही घर अन्तर्दाह कराते।।
--
कल्पनाएं
सीने में हमने जितने जख्म सजोये।
उन्हें तय करेंगी तुम्हारी योजनाएँ।
लड़की है बैठी जो कसक दबाये।
तय वही कल करेंगी वीरांगनाएं।।
दौलतमंद कितने अपराधी बनाये।
तुम्हारी शख्सियत तय करेंगी संवेदनाएं।।
मुल्क के खुद्दार जाँबाज चुप लगाये।
इतिहास रचायेंगी शहीदों की चिताएँ।।
दिन-दिन आपाधापी रात को चिंतायें।
मिटा देगी तुम्हें जन-जन की कल्पनाएँ।।
--
देख लिया
फूँककर हमने तमाशा देख लिया।
बोझ ढो हमने हताशा देख लिया।।
झंझर किया कर्ज ज़नाजा देख लिया।
रंग रगत से भरा था देख लिया।।
था समंदर नाव छोटी देख लिया।
जीव जोखिम भरा धमाका देख लिया।।
पथ-पथ पथरीले संग्राम सो देख लिया।
लड़ तुम लड़-लड़ लड़ हमने देख लिया।।
--
जेठ
दम खम दमकत चमकत हसि, समिधा उष्ण महि।
द्रष्टा दर्शक द्युति गति सद्यः, अग्नि तीक्ष्ण लहि।
अंग-अंग तरंग उमसि उठि जंह, तहं आली सहि।
छैल छबीले छन-छन छके, भृगुटी भेद वहि।
नैन नचावत बैन बजावत, गुरमुख गारि रहि।
ग्रीष्म गजब धुनि लौ आनंद, जेठ सो ठेठ महि।
मलय पवन आगम छवि लोचत, बन वसंत मही बहि।
नैन बैन चैन नहिं आँखिन, उर उन्माद लखि रहि।।
--
गाओ गान
कुछ कहो पहलवान।
सुनने वाले कद्रदान।
देखने वाला मेहमान।
बड़े-बड़े श्रीमान्।
हो गये बे इमान।
बचाओ अपनी जान।
गाओ सब मिल गान।।
--
श्रीपति आवत
हौले-हौले श्रीपति आवत।
अरबराइ मन ‘मंगल’ पावत।।
सारंगपानि को गीत सुनावत।
कमलनयन सो गारी गावत।।
श्रीपति स्वामी गुन गान सुनावत।
रस-रसिक पतित पावन को भावत।।
मूरख रहि-रहि नाच नचावत।
ज्ञानी सुधि बिधि वेद पढ़ावत।।
सावन मा संत-चिंतन धावत।
विषय विकार निसाचर छाड़त।।
शब्दार्थ-
श्रीपति-भगवान। अरबराई-घबराकर। सारंगपाणि-विष्णु। कमलनयन-श्रीकृष्ण।
--
शंख बजे
महल खड़ा जीर्ण-शीर्ण अब,
कई दरारें दरक रहीं जब।
जहाँ सघन आनंद भरा तब,
वहीं अस्त्र-शस्त्र घटा अब।
यहीं प्रेम की नदियाँ थी तब,
वहीं नफरत का जल जंगल अब।
महल महकता मनमोहक तब,
दस्तक दे देता दुर्दिन अब।
लोक नीति बाधा छाया जब,
मिलजुल कालिख दूर करें अब।
जाति-पाँति का जहर जहाँ सब,
रोटी छिन-छिन खा जाते सब।
चिड़चिड़े बूढ़े वंसी बजाते सब,
मित्र मंडली शंख बजायेगी कब।।
--
भूलो बीती बात
दे गये मेरा राज।
साहबान सजी बारात।।
बहुत बहुत धन्यवाद।
कृतज्ञ हो उनके आज।।
सधै साज सुसम्बाद।
संस्कृति समता साध।।
उद्यम अपरा अगाध।
भूलो बीती बात।।
--
रंग जमा दे
काम कितना भी कठिन हो,
मनुज जो चाह दे।
पथ पर पड़े काँटे जटिल,
क्षण भर में ढाह दे।
दुनिया दागी गमगीन,
जिन्दा दिलवर ला दे।
है कोई इन्सा जहाँ में,
मुहब्बत की गीत सुना दे।
दिल पे पत्थर रखे बैठा जहाँ,
महौल खुशनुमा बना दें।
शहर आइना निहार बैठा,
कोई तो चिराग जला दे।
सूख गई स्याह गुलशन की,
महफिल का रंग जमा दे।।
--
बालाएं गायेंगी
कोल भील किरात की बालाएं गायेंगी।
तरुवर झूम-झूम प्रेम कहानी सुनायेंगे।।
कलिकाएं खिलकर फूल फिर फूल जायेगा।
आनन्द हमारे जीवन अधीन रह जायेगा।।
जब बन देवी देबियाँ द्रुति गति ले आयेंगी।
युगो-युगों तक मुझसे सुकर्म कार्य करायेंगी।।
शुक सुघर सुबह-सुबह सुमधुर फल फिर खायेंगे।
फिर गद्गद गिद्ध गजब धरती पर आयेंगे।।
तितली मयूर कपोत के जोड़े पुनि गायेंगे।
स्वर खींच चिड़िया चह-चह गुन गीत सुनायेंगे।।
पथिक पथ के उलझे रोड़े सुलझ सब जायेंगे।
जजब गुरुजन परिजन वन्धु मंगल गीत सुनाएँगे।।
--
नया भोर
सठियाया का देश
बाजे बाजे थम थम के।
बिधान सभा बढ़ा क्लेश,
बाजे बाजे जम जम के।
मंत्री जाते देखो जेल,
कानपुर वकीलों ने की तोड़फोड़,
मची अफरा तफरी धम-धम के।
शोषण बलात्कार चहुं ओर,
हुड़दंग मची रम-रम के।
पुलिस पिटती चारों ओर
मंत्री संतरी बनते जन-जन के।
खिड़की खुलेगी देकर जोर,
जनता मचायेगी शोर।
जब चारो ओर होगा जोर,
तंद्रा टूटेगी नया होगा भोर।।
राम का अयोध्या में प्रवेश
राम अइलै बन से
मगन भइली माई।
राम-लखन जब
द्वारे अइलै।
मातु कौशल्या
आरती उतारै।
राम अइलै बन से
मगन भइली माई।
राम-लखन
महलों में अइलै।
कैकेई कोन लुकाई।
हाथ जोरि
रामजी बिनवै।
तोहरे पुन्नि से
माता
सुख बन में
राम अइलै बन से
मगन भइली माई।
हाथ जोरि
कैकेई विनवै
द्वापर में जन्म
जब लेबै।
हम होबै देवकी
तुम कृष्ण कन्हाई।
राम अइलै बन से
मगन भइली माई।।
--
माला माँ अम्बे की
माँ अम्बे की माला,
जपेला कोई दिल वाला।
उस माला को सीताजी जपीं
मिल गया दशरथ लाला।।
जपेला......................
उस माला को राधाजी जपीं
मिल गया मुरली वाला।
जपेला कोई.....................
उस माला को गौरी ने जपा
मिल गया डमरू वाला।
जपेला ................................
उस माला को लक्ष्मी ने जपा,
मिल गया चक्रवाला।
जपेला कोई दिल वाला।।
माँ अम्बे की माला,
जपेला कोई दिलवाला।।स
कब अइबू महरानी (पचरा)
कब अइबू हमरी बखरिया,
हे दुर्गा महरानी।
सब निर्धन के धन दे देहलू
हमहूँ के दे दा तब हम जानीं,
हे दुर्गा महरानी!
कब अइबू हमरी........।
सब अंधन के आँख दे देहलू
हमहूँ के दे दा महरानी!
कब अइबू.............................।
सब लंगड़न के पैर दे देहलू
हमहूँ के दे दा तब जानीं,
हे दुर्गा महरानी!
कब अइबू.........................।
जतन कर रहा हूँ
तुम्हें क्या बताऊं क्यों सहन कर रहा हूँ।
सुबह शाम मिल जुल आचमन कर रहा हूँ।।
यह संबंध दिनों दिन बहस में टंगे हैं।
निकलने का इससे जतन कर रहा हूँ।।
थकन ने हमें तोड़ डाला बहुत है।
उसी का दिनों दिन स्मरण कर रहा हूँ।।
अंधेरे में सारी जिन्दगी होम कर दी।
उजाले में थोड़ा भजन कर रहा हूँ।।
शख्त दरवाजे इतने कि खुलते नहीं हैं।
तोड़ने का बराबर जतन कर रहा हूँ।।स
पीपल की छांह
जानें कहाँ चला दिल,
खुले आसमान में।
आना पड़ेगा एक दिन,
पतझड़ की ठाँव में।
लगता नहीं अब दिल,
उजड़े बिरान में।
मिलता जहां था दिल,
पीपल की छाँव में।
उठो जागो
उठो देश के स्वाभिमानी?
सावधान हो जा सैलानी।
कब तक मौन प्रवास करोगे?
दुःशासन का दुराचार सहोगे।
भूख से व्याकुल जनता है?
पानी सर से ऊपर ना हो।
उलटी गंगा बह निकले ना?
पानी ऽ कब तक आस करोगे।
कब तक यह व्यभिचार सहोगे?
कब तक सुहाग लुटता देखोगे।
कब तक अत्याचार सहोगे?
कब तक हाहाकार सहोगे।
सावधान हो जा सेनानी।।
उठो देश के स्वाभिमानी?
--
माँ तारिणी
रथ पर गंगा पथ पर गंगा बूँद-बूँद को तरस रहे हम?
बच्चे-बूढ़े महिला-पुरुष अधिकारी-मंत्री हरष रहे सब।
माला फूल पालोथिन कचरा जगह जगह ठूँस रहा जन।
हर-हर गंगे जय-जय गंगे डगर-डगर गूँज रहा जन।।
विश्वम्भर खड़े हो गये ले पुष्प की माला मन ही मन।
शहनाई औ गान सुन झूम उठा सारा विद्वत मन जन।।
शासन सत्ता मगन हो चला हावे कलश का दरस परस।
सद्भाव की अलख जगाकर जंगमबाड़ी अद्भुत मोहा मन।
झाँकी झाँक झरोखे झलमल-झलमल झलफल झलकनि।
गंगा की सफाई संकल्पों में गठरी बाधा मुखरित सुजन।।
ढोल नगाड़ा ताशे डमाडम नूतन रंग नव उनंग तरंग मन।
हर हर महादेव बम बम गंगा लहरें लहरें दिल काशी जन।
साधु संत व्यापारी नेता बच्चे करते दिखते खैर मकदम।
जाह्नवी संकल्पों का पोस्टर महिलाएँ निकलीं ले बन ठन।।
खाका खींचा फैक्टरियों का कचरा गिरता मिलियन टन।
गाँव-शहर के नाला-नाली माँ का करता मलिन मन।।
वंद! बैंड-मृदंग तुरही पखाउज पुरी और विशिष्ट जन-मन।
रहे साध सभी साधना कहो गंगा होगी फिर निर्मल मन।।
--
राधा-राधा
नव गीत सुनाऊँ, राधा-राधा।
बहु भाँति रिझाऊँ, राधा-राधा।
प्यारी बरसानेऽ न्यारी, राधा-राधा।
हौ चौकस चेरी, राधा-राधा।
सबकी प्यारी, राधा-राधा।
दिल से न्यारी, राधा-राधा।
मन को भाती, राधा-राधा।
बीन बजाती, राधा-राधा।
कृष्ण मुरारी की, राधा-राधा।
छबि छैल छबीली, राधा-राधा।
भली भोली भाली, राधा-राधा।
सरल सुरीली है, राधा-राधा।
रंग रंगीली है, राधा-राधा।
सुन्दर आनन की, राधा-राधा।
छवि मन भावन की, राधा-राधा।स
उसने दिव्य हृदय जो पाया।
कर्म खूब-खूब लिखवाया।।
राजनीति स्वच्छ छवि पाया।
धर्म-नगर ऽ परचम लहराया।।
हिंदी संस्कृति जेहन में पाया।
‘मंगल’ बनारसी बाबू कहलाया।।
शान बान भाषा साहित्य का देश हमारा।
दिव्य ज्ञान का दिया जलाने वाला आया।।
वर्षों की वह रही तपस्या ‘मंगल’ ऽ पाया।
खिंची हुई है सरहदें-सरहदी जानो आया।।
सेकुलर-गैर सेकुलर का जनमत भेद मिटाया।
जानो धरती पर गाँधी पटेल फिर आया।।
विकास पुरुष बन कलियुग में गरीबी में जन्म पाया।
नारायण दि. पं. गंगाधर सा ज्यौं मोदी काशी को भाया।।
खर्च भयानक आमद सीमित सीना तान परचम लहराया।
दिव्य ज्ञान का दिया जलाने वाला ज्यौं ‘मंगल’ आया।।
अद्भुत बंधन मुक्त कराने वाला आया?
देश को सोने की चिड़िया का मान दिलाने आया।।
बोझिल गंगा माँ को निर्मल मुक्ति कराने आया?
छम छमाछम छम बादल बरसाने वाला आया।।
उलटबासियाँ मत उछालिये हल निकालिए आया?
बेठन से बंधे लेखन संस्कृत संस्कृति संस्कार निखारने आया।।
विविध धर्म भाषा में बढ़कर मेल कराने वाला आया?
संध्या थी विश्व क्षितिज पर गरजते ‘विकास पुरुष’ आया।।
तन्त्र-मन्त्र साध-साधना राम-रहीम कहने आया।
ठाकुर और विवेकानन्द से आशीश ले काशी में आया।।
सवाल-जवाब पास हो जिसके पुरुष ऐसा भारत ने पाया।
विश्व पटल पर विश्व गुरु बने शान्ति संदेश सुनाया।।
जन-जन गूँजे बन्देमातरम् जनगणमन की गाथा गाया।
प्रगति और शान्ति के पथ चल अत्याचार भगाने आया।।-
-
कहने तो दो
आम की डाली है।
कहने तो दो।।
पीपल के पेड़ को।
श्वास लेने तो दो।।
जिसने बना रखा।
झोपड़ी और महल।
दिल है अपना।
ठहरने तो दो।।
वह बोला तो अमृत।
हम बोले तो जहर।
उसे अपना मरम।
कहने तो दो।।
कितनी प्यास लिए।
खूँटों से बंधे हम।
बढ़ा घना अंधेरा।
बात अपनी कहने तो दो।।
कच्चा मकान हूँ मैं।
गिरने ना दो।
गर्दिश में शिर छुपाने को।
उसे रहने तो दो।
--
रीढ़ मानें
सत्य अहिंसा दया जो जाने।
क्रोध लोलुपता मन से भागे।।
धैर्य पंथ-पथ-पथिक प्रकाश।
भटका राही रहि-रहि उड़े आकाश।।
सामवेद ब्रह्म का पूर्ण केश जानें।
ऋग्वेद ब्रह्म की पूर्ण रीढ़ मानें।।
वेद गीत संगीत छन्द जो जाने।
ज्ञान सत्य प्रेम भक्ति को माने।।
--
कुछ कर दिखला दे
साहित्य वह मशाल जो,
आगे चला करता सदा।
सामंतशाही राजनीति को,
धकिया के चलता सदा।
नेता ऐसा बने कि जो,
नारी की रक्षा करे सदा।
बेरोजगारी दूर करे जो,
सृजन रोजगार करे सदा।
दुष्कर्मी देश में बढ़ते हों, उन सबको समझा दे।
गुण्डागर्दी राज में बढ़ती हो, छुटकारा करवा दे।।
आतंकी आश्रम ना पनपे,
कुछ ऐसा काम करा दे।
भ्रष्टाचार मुक्त समाज हो,
विकास की अलख जगा दे।
पीने का पानी गंदा जो,
स्वच्छ जल तो पिला दे।
बहता शहरों से गंदा पानी, शोधित नदियों में गिरा दे।
युवा शक्ति भरमे जो हो, शिक्षा उच्च दिला दे।
स्वास्थ्य सेवा गिरता स्तर,
आगे बढ़ अलख जगा दे।
सोशल आडिट हो अपना,
विश्व में बढ़ नाम करा दे।।
अपना देश बना दे कोई, अपना देश हवा दे।
अपना देश बना दे कोई, अपना देश हवा दे।
--
सितारे सारे रूठे?
ढूँढ़ रहा हूँ पन्ने सारे।
काहे रूठे सभी सितारे।।
खेत जहाँ तक अपना फैला।
रहता कोई नहीं था मैला।।
आँखों का अरमान था सुन्दर।
प्यारी प्यारी मुस्कान फैली।।
दर्द ले दुनियाँ ढँकी हुई पर।
वक्त इतना हैवान न फैला।।
माँ का प्यार लिए दिल सारे।
समता में बीरान न फैला।।
रक्त रन्जित सैलाब नहीं पर।
गणित और विज्ञान था फैला।।
मिलजुल जन सब डगर संवारें।
खेती औ खलिहान तक फैला।।स
दिन रात्रि रहें कैसे
हृदय में तेरा वास रहे
रघुनाथ रहो तूँ साथ हमारे।
माँ पर नित आश रहे,
माँ का नित साथ रहे।
रघुनाथ रहो तू पास हमारे।
दरख्त सभी रहे गृह में
रघुनाथ रहो तू साथ हमारे।
सूर्य शौर्य लिए लालिमा
भजन यजन नित होता रहे।
रघुनाथ रहो तू साथ हमारे।
नियम बद्ध हम रहें सदा
रिद्धि-सिद्धि निज साथ रहें।।
भोले तेरे पास सदा
रघुनाथ रहो तू साथ हमारे।
पवन पुष्प संग -संग बहे नित
चिड़िया चह-चह करें सदा।
किलकारी, करतल ध्वनि हो
नन्हें बच्चे साथ सदा।
मंगल रघुनाथ के साथ रहो।
हनुमत रक्षा करें सदा।।स
मयखाना
देखा न था,
जब कभी।
जब वहाँ पहुचा,
चारों तरफ देखा,
अंधेरा सा छा गया।।
ढूढ़ने लगा प्रकाश,
टूटा अंधेरा तो,
सवेरा हो गया।
मयखाना दूर ...........।।
--
प्रेयसी
बिनु प्रेयसी जिन्दगी,
माने सेमल का फूल।
जैसे-तैसे कटती,
कटा खीरा तरबूज।
खीरा तो भी हीरा,
हरितमाँ कायम रहती।
तरबूजे की लालिमा,
कभी ना गायब होती।।स
बादल उस ओर गये
बूँद-बूँद को तरस रहे हम, बादल उस ओर गये।
आन के पेड़ व ही फिर भी, बादल उस ओर गये।
सपनों के खेगोश है भूखे, बादल उस ओर गये।
घास डालता कौन इन्हें जब, बादल उस ओर गये।
सूखे दिनों की आशंका ले, बादल उस ओर गये।
मेघों की घनघोर छाया पर, बादल उस ओर गये।
बूँद-बूँद को तरसा कर जब, बादल उस ओर गये।।
--
समर्पण
हे माँ! तुझे मेरा तन समर्पित।
धन समर्पित, पुनि क्या क्या बचा।।
गान समर्पित मेरा प्राण समर्पित।
चाहता! चाँद तारे कर दूँ समर्पित।।
सूर्य! अंगारे घोड़े शेर हाथी लाकर।
पेड़ पौधा फूल माला प्रकृति समर्पित।।
पक्ष में कृष्ण पक्ष व शुक्ल पक्ष लाकर।
हीरा मोती उजाला लाकर करूँ समर्पित।।
पृथ्वी ईश्वर गणेश दाँत शुक्राचार्य का नेत्र,
विद्या राम कर्म लोक ताप दोष ऋण काल,
बल रात्रि बेद वर्ण दिशा धाम सेना वायु,
पाँच छः सात आठ नौ दस ग्यारह बारह
चौदह पन्द्रह सोलह शृंगार ला करूँ समर्पित।।
अट्ठारहो पुराण सत्ताइसो नक्षत्र मैं लाकर,
तैंतिस कोट देवता सातो स्वर करूँ समर्पित।।
मातु मेरी कवल सादर विनती तुझसे,
जो भी चाहो मैं करूँ समर्पित।।
चाहता मैं कुछ और कुछ उस आरे गये और करूँ समर्पित।
जिससे संवर जाय निखर जाय मेरी यह जिन्दगी।।
देवी कब देबू दरशनवाँ
देवी कब देबू दरशनवाँ,
अब ऋतु चढ़े सवनवाँ ना,
केहू चढ़ावे दधि दूध अच्छत,
केहू चढ़ावे बेलपतिया,
देवी कब देबू दरशनवाँ,
अब ऋतु चढ़े सवनवाँ ना।।
रानी चढ़ावे दधि दूध अच्छत,
अब ऋतु चढ़े सवनवाँ ना।
देवी कब देबू दरशनवाँ।।
केहू चढ़ावे हरिनी से हरिना,
केहू गोदी के लाल।
देवी कब देबू दरशनवाँ,
अब ऋतु चढ़े सवनवाँ ना।
राजा चढ़ावे हरिनी से हरिना,
रानी गोदी के लाल।
देवी कब देबू दरशनवाँ,
अब ऋतु चढ़े सवनवाँ ना।
केहू चढ़ावे हाथी घोड़ा,
केहू गले का हार।
देवी कब देबू दरशनवाँ,
अब ऋतु चढ़े सवनवाँ ना।
राजा चढ़ावे हाथी घोड़ा,
रानी गले का हार।
देवी कब देबू दरशनवाँ,
अब ऋतु चढ़े सवनवाँ ना।।स
..
Sukhmangal Singh
आदरणीय रवि रतलामी ॰
जवाब देंहटाएंरचनाकार मेन मेरी स्वरचित रचना को प्रकाशित किया |
आभारी हूँ रचनाकार का ,और आशा करता हूँ भाभिष्य
मेन भी मेरे द्वारा प्रस्तुत की गयी रचनाओं को भी
आपका आशीर्वाद मिलेगा | सद्भावना सहित
-सुखमंगल सिंह,अवध निवासी