गुजरात संत-सूफियों, महाजनों, राजाओं, महा राजाओं, सुल्तानों, व्यापारियों, उद्योगकारों, महात्मा गांधी, सरदार पटेल, टाटा रतनजी, डॉ. साराभाई, झव...
गुजरात संत-सूफियों, महाजनों, राजाओं, महा राजाओं, सुल्तानों, व्यापारियों, उद्योगकारों, महात्मा गांधी, सरदार पटेल, टाटा रतनजी, डॉ. साराभाई, झवेरचंद मेघाणी, नरसिंह मेहता और महाराजा सयाजी राव का गुजरात नहीं बल्कि जो इस धारा का अमृत पीकर यहां बसा फला-फूला सब का गुजरात है।
यहां विश्व के तो प्रवासी मिलेंगे पर भारत का एक भी राज्य छूटा नहीं है जिसके निवासी सदाकाल से आजतक उद्योग, रोजी-रोटी, कला-कौशल्य बताने आते रहे और समृद्ध गुजरात की विविध संपदा से समृद्ध होकर यहां बस भी गए। विविधता में एकता का सुन्दर उदाहरण गुजरात है।
गुजरात की एक दूसरी विशेषता है जो चकित करती है वह यह है कि गुजरात समुद्र किनारे की संपदा से समृद्ध है। अनेक बडे-बडे बन्दरगाह आदिकाल से विदेशियों का आवागमन, भारतीय, गुजरात की संस्कृति, रहन-सहन पर प्रभाव डाला है। भुज, भावनगर, खंभात, सूरत ने विश्व में अपनी पहचान बनाई। व्यापार आदि के लिए विदेश गमन के कारण सांस्कृतिक आदान-प्रदान, साहित्यिक विचारों का आदान-प्रदान लगातार होता रहा। इन सभी व्यापार में भाषा की बड़ी ही महत्वपूर्ण भूमिका रहती है।
गुजरात में मात्र हिन्दी भाषियों की संस्था इतनी अधिक है मानों गुजराती बड़ी बहन बन गई हो और हिन्दी अनुजा की तरह अपनी संपूर्ण कलाओं विद्याओं में खिलकर विकसित है । अपना ओजस संपूर्ण भारत में फैलाने में सफल हो गई है।
आश्चर्य की बात तो तब लगती है जब गुजराती भाषी प्रदेश में रहकर हिन्दी में साहित्य सर्जन करना अपने आप में एक बहुत बड़ी उपलब्धि है । यहां की यूनीवर्सिटी कालेजेस में हिन्दी विषय लेकर बी.ए , एम.ए , के साथ हजारों विद्यार्थी पी.एच.डी की उच्चतम उपाधि पाने में रत हैं । गुजरात के अनेक शहरों से आधा दर्जन से भी अधिक हिन्दी की पत्रिकाएं विशेषतः साहित्यिक पत्रिकाएं निरंतर निकल रही है ।
गुजरात के हर शहर मे दो-चार हिन्दी संस्थाओं का भी बहुत बड़ा योगदान है । अहमदाबाद में गुजरात विद्यापीठ, हिन्दी साहित्य परिषद, हिन्दी साहित्य अकादमी गांधीनगर का गुजरात में हिन्दी के फलने-फूलने के लिए बहुत बड़ा योगदान है । अकादमी की पत्रिका “नूतन भाषा सेतु “ जिसके संस्थापक अंबाशंकर नागर जी थे, वे हिन्दी के लिए अनेकों महत कार्य किए । इनके साथ ही डॉ. राम कुमार गुप्ता जी का हिन्दी साहित्य में अनमोल योगदान है ।
प्रान्तीय राष्ट्रभाषा प्रचार केन्द्र से प्रकाशित “ नुतन राष्ट्रवीणा “ हिन्दी के लेखकों को सतत प्रोत्साहित करती रहती है । हिन्दी साहित्य अकादमी गांधीनगर, तो हिन्दी के नवोदित रचना कारों को आर्थिक सहायता प्रदान कर उनकी रचना शीलता को आधार दिलाती है । जेठालल जोशी, आचार्य रघुनाथ भट्ट, मालती दुबे आदी इनके लोह स्तंभ है । जिनका हिन्दी साहित्य के प्रती अत्यधिक सम्मान है और हिन्दी में रचनाएं करके हिन्दी साहित्य को समृद्ध कर रही है ।
कच्छ् का वॄजभाषा पाठशाला का उल्लेख अगर न करें तो कहना पूर्ण नहीं होगा । इन्होंने गुजरात में हिन्दी की पैंठ को मजबूत बनाया यहां के लोगों की यह विशेषता रही की हर प्रकार के भाषा और संस्कृति को अपने अंदर इस प्रकार से संजो लेते है कि जैसे यह भी यहाँ के लोगों की जीवन प्रणाली का एक अंग है ।
यह तो बात सहयोग की है पर यह अविरोध की बात नहीं है । यह तो बात है हमारे संपूर्ण सहयोग की अपेक्षा करना । सबसे पहली बात तो यह है कि हिन्दी की शिक्षा स्कूली कक्षा में केवल सातवीं कक्षा तक ही सर्व सामान्यरुप से है । उसके बाद यह संस्कॄत, गुजराती के साथ घुलमिल कर विद्यार्थीयों के चयन प्रणाली पर निर्भर करता है । इससे एक बात स्पष्ट है की विद्यार्थी यों की हिन्दी भाषा पर रूचि कम हो जाती हैं और बोर्ड में इस विषय के बदले अन्य विषय पढ़ने में अधिक रूचि रखते है । जैसे गुजराती या संस्कृत या अन्य कोई भी भाषा । जिस स्कूल में जैसे उपलब्ध कराई जाती है वैसे । इससे यह होता है की विद्यार्थियों की रूचि हिन्दी भाषा में निरंतर कम होती दिखाई पड़ती है ।
इसी प्रक्रिया या बहाव में अगर पैंठ या अपनी राह बनाने की चाह हो तो वहाँ पर अवरोधो के लिए भी हमें तैयार रहना होगा ।
गुजरात भी इस विषय में नितान्त अकेला नहीं । बाजारवाद के कारण भाषा का सार्वजनीकरण आवश्यक हो चला है । पर साधारण जनता जो मूलतः मातृभाषा को ही आधार बनाकर हर क्षेत्र में अपना कदम रखती हैं । वहाँ हिन्दी को अपना साम्राज्य स्थापित करना हो तो संघर्ष आवश्यक है जन साधारण अपनी मातृभाषा को ही समझती हैं और उसी भाषा का व्यवहार करने वालों को भी अपना समझती है । अतः एक प्रेमभाव भी प्रादेशिक हो या प्रादेशिक भाषा के प्रति औदार्य की भावना से ओतप्रोत रहता है ।
सरकारी कामों में भी गुजराती भाषा का प्रभुत्व देखा जाता है । जैसे इलेक्ट्रिक बिल, टैक्स के पेपर, किसी भी प्रकार के सरकारी कागजात, कोर्ट के कागज, कोर्ट की भाषा, आदी मूल रूप से गुजराती में ही है । जिससे की इतर प्रदेश से आने वालों को परेशानी का सामना करना पड़ता है। ऐसे क्षेत्र मे दुभाषिए की आवश्यकता आन पड़ती है।
भुमन्डलीकरण और बाजारवाद के इस समय ने अपनी भाषा के प्रति लगाव कभी-कभी प्रगति के पथ पर या इतर भाषा भाषी प्रदेश के लोगों के प्रति विद्वेश का भाव देखने में आता है ऐसे में हिन्दी समझ नहीं पाते ऐसा नहीं है पर प्रयोगविधि के प्रति रसहीनता का आभास होता है बाजार एक ऐसी जगह है जहाँ सामान के साथ साथ धैर्य, सहनशिलता, संस्कार, लेनदेन की भाषा आदी की प्रधानता होती है । इस लिए मूल रूप से इस जगह की भाषा में स्थानीय भाषा का आधिपत्य देखने में आता है ।
पर गुजरात के लोग संस्कारी और सहयोगी होने के कारण उसका प्रभाव यह पड़ता है कि बडे धैर्य के साथ और धीरे-धीरे हिन्दी यहां पर अपना प्रभुत्व विस्तार कर रही है । लोग अगर बोल नहीं पाते तो कोई बात नहीं पर समझ जरुर लेते हैं । और सवाल जवाब का सिलसिला इस तरह से आगे बढ़ता जा रहा है ।
मेरे विचार से हिन्दी को जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए । अंग्रेजी में कहावत है “Slow and Steady wins the race” वही यहाँ पर चरितार्थ होगी । एक न एक दीन सभी जगह पर हिन्दी का झंडा फहराएगा । कोर्ट कचहरी तो क्या सरकारी कार्य क्षेत्र में भी हिन्दी ही आगे आयेगी ।
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परिचय – पत्र
नाम - डॉ. रानू मुखर्जी
जन्म - कलकता
मातृभाषा - बंगला
शिक्षा - एम.ए. (हिंदी), पी.एच.डी.(महाराजा सयाजी राव युनिवर्सिटी,वडोदरा), बी.एड. (भारतीय
शिक्षा परिषद, यु.पी.)
लेखन - हिंदी, बंगला, गुजराती, ओडीया, अँग्रेजी भाषाओं के ज्ञान के कारण अनुवाद कार्य में
संलग्न। स्वरचित कहानी, आलोचना, कविता, लेख आदि हंस (दिल्ली), वागर्थ (कलकता), समकालीन भारतीय साहित्य (दिल्ली), कथाक्रम (दिल्ली), नव भारत (भोपाल), शैली (बिहार), संदर्भ माजरा (जयपुर), शिवानंद वाणी (बनारस), दैनिक जागरण (कानपुर), दक्षिण समाचार (हैदराबाद), नारी अस्मिता (बडौदा),नेपथ्य (भोपाल), भाषासेतु (अहमदाबाद) आदि प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं में प्रकशित। “गुजरात में हिन्दी साहित्य का इतिहास” के लेखन में सहायक।
प्रकाशन - “मध्यकालीन हिंदी गुजराती साखी साहित्य” (शोध ग्रंथ-1998), “किसे पुकारुँ?”(कहानी
संग्रह – 2000), “मोड पर” (कहानी संग्रह – 2001), “नारी चेतना” (आलोचना – 2001), “अबके बिछ्डे ना मिलै” (कहानी संग्रह – 2004), “किसे पुकारुँ?” (गुजराती भाषा में अनुवाद -2008), “बाहर वाला चेहरा” (कहानी संग्रह-2013), “सुरभी” बांग्ला कहानियों का हिन्दी अनुवाद – प्रकाशित, “स्वप्न दुःस्वप्न” तथा “मेमरी लेन” (चिनु मोदी के गुजराती नाटकों का अनुवाद 2017), “बांग्ला नाटय साहित्य तथा रंगमंच का संक्षिप्त इति.” (शीघ्र प्रकाश्य)।
उपलब्धियाँ - हिंदी साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा वर्ष 2000 में शोध ग्रंथ “साखी साहित्य” प्रथम
पुरस्कृत, गुजरात साहित्य परिषद द्वारा 2000 में स्वरचित कहानी “मुखौटा” द्वितीय पुरस्कृत, हिंदी साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा वर्ष 2002 में स्वरचित कहानी संग्रह “किसे पुकारुँ?” को कहानी विधा के अंतर्गत प्रथम पुरस्कृत, केन्द्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा कहानी संग्रह “किसे पुकारुँ?” को अहिंदी भाषी लेखकों को पुरस्कृत करने की योजना के अंतर्गत माननीय प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयीजी के हाथों प्रधान मंत्री निवास में प्रशस्ति पत्र, शाल, मोमेंटो तथा पचास हजार रु. प्रदान कर 30-04-2003 को सम्मानित किया। वर्ष 2003 में साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा पुस्तक “मोड़ पर” को कहानी विधा के अंतर्गत द्वितीय पुरस्कृत। 2019 में बिहार हिन्दी- साहित्य सम्मेलन द्वारा सृजनात्मक साहित्य के लिए “ साहित्य सम्मेलन शताब्दी सम्मान “ से सम्मानित किया गया। 2019 में सृजनलोक प्रकाशन द्वारा गुजराती से हिन्दी में अनुवादित पुस्तक “स्वप्न दुस्वप्न” को “ सृजनलोक अनुवाद सम्मान” से सम्मानित किया गया।
अन्य उपलब्धियाँ - आकाशवाणी (अहमदाबाद-वडोदरा) को वार्ताकार। टी.वी. पर साहित्यिक पुस्तकों क परिचय कराना।
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डॉ. रानू मुखर्जी
17, जे.एम.के. अपार्ट्मेन्ट,
एच. टी. रोड, सुभानपुरा, वडोदरा – 390023.
Email – ranumukharji@yahoo.co.in.
बढ़िया लेख
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