1. कविता– आजादी की 2. आदमी–4 3. दुश्मन 4. आग्रह बरगद से 5. तुम्हारे लिए 6. ये चमचमाते लोग 7. इस सदी को झूठ से महफ...
1. कविता– आजादी की
2. आदमी–4
3. दुश्मन
4. आग्रह बरगद से
5. तुम्हारे लिए
6. ये चमचमाते लोग
7. इस सदी को झूठ से महफूज—
8. आबाद रहे हर मधुशाला
9. सावधान मेरे मित्र
10. मेरी कविताएँ
11. कविताएँ बाँटेंगे,आ
12. --दु:ख
13. गजल--- मानें आपको जरूर कोई वहम हुआ होगा
1--कविता– आजादी की
अरूण कुमार प्रसाद‚पड़ोली‚महाराष्ट्र
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ये हवा जो उदास थी‚
संगीनों के पास–पास थी‚
किसी बाड़े से छूटी लगती है।
इसलिए हर तान और सुर में
कच्छ से बंग तक
लचक –लचक कर बहती है।
शब्द जो मुठ्ठियों में कैद थे
सेंसर की चिठ्ठियों से लैस थे
निरंकुश हुई फिर से एकबार और।
पुर्नप्रतिष्ठित हो सकी संसद से स्कूल तक
पा सकी अभिव्यक्ति की शक्ति‚स्वतंत्रता एकबार और।
आदमी‚शक्ल व अक्ल जिसके
दासत्व ने लिया था लील
हो गया था बदशक्ल।
जंगली पशुओं की भीड़ भरी असैनिक नकल।
पा सका है फिर आजादी का आईना
सजाने–संवारने मानवीय चेहरा।
दमन‚यातना‚और यंत्रणा की
अपसंस्कृत करतूतों के सिर
सकने रख
आदमियत का तराशा सेहरा।
हमारी आवाज
जो कर दिये गए थे ‘छन्दबद्ध’।
अपना भी नाम लेते थे तो बिल्कुल निःशब्द।
आरोपित तुकों के आरोह–अवरोह से सके थे निकल।
ताजे धुले हुए रँग–बिरँगे फूलों की तरह
कर सकने में हम हो गये समर्थ
भौंरों के साथ रसिक चुहल।
कलम और तूलिका
जो कहने लगे थे लोकतांत्रिक विरोध को बगावत।
झुकाये रहते थे सिर जमीन तक
करने राजसी मुकुट का स्वागत।
उठा सके गर्व और गौरव से अपने व्यक्तित्व का माथा।
रँगों की पकड़ सके पकड़ फिर
उतार सके कागजों पर फिर मानवतावादी गाथा।
राजनीति जो व्यक्तिगत सम्पन्नता का हो गया था प्रतीक।
धुरीहीन होकर लगाने धुरी का गया था सीख
निजी सन्दूकों से निकाले जा सके
आदमी आम के लिए।
बिकाऊ न रहा ज्यादा और गजरेवालों के शाम के लिए।
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2--आदमी–4
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आदमी को कोई नहीं‚ छला है आदमी के जीवन ने।
पर‚ आदमी देता रहा है इल्जाम हर एक आदमी को।
दगा खुद को दिये जायेगा और सजा उस खुदा को।
रेवड़ की भाँति बाँटेगा इन्तकाम हर एक आदमी को।
इश्क खुद से आदमी आशातीत ही करेगा‚ किया।
व पैदा करेगा नफरतों का श्राप हरेक आदमी को।
जीने को जोरू‚जर‚जमीन की बातों से परहेज नहीं।
और युद्ध की ललकार का इल्जाम हरेक आदमी को।
जीवन जीने के अक्ष पर जीवन कहीं रखेगा नहीं।
भौतिक स्वरूप जीवन का बाँटेगा हरेक आदमी को।
हर जीत के सेहरा को अपना सिर करेगा हाजिर।
हर हार का इल्जाम बाँटेगा दूजे हरेक आदमी को।
वक्त के कोख में डाला करेगा दुःख के बड़े बीज।
सुख का दिलासा हवा में छोड़ेगा हरेक आदमी को।
अमानवीय सोचों के सैलाब से भरेगा अपना दिमाग।
मानवीय सपनों से उल्लू करेगा हर एक आदमी को।
3-- दुश्मन
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दुश्मन मित्र से बड़ा कौन होगा?
मेरे राह में बनके रोड़ा
सिवा इसके खड़ा कौन होगा?
मेरे मिशन से मुझे स्खलित करने हेतु
अपने आप से लड़ा कौन होगा?
गुलेल लेकर झुरमुटों में
पड़ा कौन होगा?
छलाँग सामने से लगायेगा दुश्मन–
बगल से मारनेवाला
इनसे तगड़ा कौन होगा?
4-- आग्रह बरगद से
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उष्ण आदित्य के तीक्ष्ण ताप में
बिलबिलाते हुए समुद्र से
मत कहो कि
बड़ा शीतल है तुम्हारा छाँव।
कर्मयोगी का योग न करो भंग।
शुष्क पवन के तेज प्यास में
आहूति की तरह होम हो रहे मेघ से
मत कहो कि
बड़ा विशाल है तुम्हारा ठाँव।
कर्मशील का शील न करो भंग।
शुभ्र आकाश के विराट फैलाव में
प्रवाहित हो रहे वायु से
मत कहो कि
बड़े आकर्षक हैं तुम्हारे गह्वर।
कर्मनिष्ठ की न्ष्ठिा न करो भंग।
घनघोर वृष्टि के घातक आघात में
खेत जोतते हुए किसान से
मत कहो कि
बड़ा मीठा है तुम्हारा फल।
कर्मोद्योगी का उद्योग न करो भंग।
लौह भठ्ठी के उच्च तापक्रम में
लौह पिघलाते लौह पुरूष से
मत कहो कि
बड़ा ठंढ़ा है तुम्हारा श्वेत–रक्त।
कर्मसिद्ध की सिद्धि न करो भंग।
अंधेरी‚भयावह‚काली सुरँगों में
फावड़े चलाते दृढ़ भुजाओं को
मत कहो कि
बड़ी उर्जाशील है तुम्हारी काष्ठकाया
मनोबली का मनबल मत करो भंग।
5--तुम्हारे लिए
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रात पीयूष वर्षा हुई देर तक।
चाँद पूनम का ठहरा रहा देर तक।
तुम्हारे लिए बस तुम्हारे लिए।
कन्दरा का अँधेरा क्यों रास आ गया?
और अँधा सबेरा क्यों रास आ गया?
ऊध्र्व उठते हुए श्वास शाश्वत नहीं‚
साधना‚जोग‚तप कोई शाश्वत नहीं।
रस बरसा किया नभ के हर छोर से।
इतनी मधुमय विभा नभ के हर छोर से।
तुम्हारे लिए बस तुम्हारे लिए।
राधिका रास रचती रही रात भर।
पी–पी पपीहा पुकारा किया रात भर।
तुम भभूती लगाते–लगाते रहे।
जोग यूँ तुम जगाते–जगाते रहे।
हर सरोवर को चूमा किया चन्द्रमा।
पत्ते–पत्ते में ढूँढ़ा किया चन्द्रमा।
तुम्हारे लिए बस तुम्हारे लिए।
ये क्षितिज ने क्षितिज से है पूछा किया।
तुमने देखा पिया? तुमने देखा पिया?
सारे तारे विचरते रहे ढूँढ़ते।
नील नभ‚नील सागर सभी खोजते।
तुम तो धूनी रमाते–रमाते रहे।
झूठ को सच बनाते–बनाते रहे।
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6--ये चमचमाते लोग
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यातना की तंद्रा से अलसायी आंखों में।
वासना के लाल डोरे खोजते हैं लोग ।
संत्रास व संताप से सिहर उठे अंगों में।
यौवन का आमंत्रण खोजते हैं लोग ।
यंत्रणा के तनाव से तने रगों,जिस्म में।
संभोग के साथ के अवसर खोजते हैं लोग।
पीड़ा की साँसों से उभरे हुए वक्ष में
वात्सायन के कामसूत्र खोजते हैं लोग।
कल की टूटन और आज के घुटन से बिखरे जुल्फों में
साँझ की सर्वजयी शीतलता खोजते हैं लोग ।
अनास्था के प्रहार से ठहर गये मन में
अपने लिए आकर्षण खोजते हैं लोग।
आतंक के अहसास से सहमे हुए भंगिमा में
हिरनी की कुलांचें मारती अदा खोजते हैं लोग ।
दमन की चक्की में पिसकर स्तब्ध देहयष्टि में
सौन्दर्य का खजुराहो खोजते हैं लोग ।
भावनाएँ मरी हुई मछली की तरह गँधाता है
पर, पढ़े हुए शब्दों के अर्थ यहीं खोजते हैं लोग।
इन दहशतजदा,युगों से शोषित,दलित लोगों के
शोषण,दमन में भी अपने लिए सुख खोजते हैं लोग।
अभाव और भूख से चाहे त्रस्त हों व परेशान
अर्थ और रोटी से वे,सुख ही सुख खोजते हैं ये लोग ।
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अरूण कुमार प्रसाद
7--इस सदी को झूठ से महफूज—
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इस सदी को झूठ से महफ़ूज रखने के लिए
हवा,पानी,वृक्ष,जंगल और अपनी कसम खानी चाहिए।
इस जहाँ से नफ़रतों को दूर करने के लिए
हर दिलों में प्यार के सुकुमार पौधे रोपिए।
क्यों नहीं कटिबद्ध हो सकते हैं हम इस कार्य को
क्यों नहीं निर्माण कर सकते सदी यह सोचिए।
कर रहे निर्मूल तन के रोग सब,हर दिन हमी
क्यों नहीं निर्मूल मन के रोग होंगे सोचिए।
कर्म के अर्जुन को संकट से उठाने के लिए
इस सदी में कृष्ण का अवतार होना चाहिए।
इस सदी के चेहरे पर हों न छींटे खून के
इस सदी में कुंद सब हथियार होने चाहिए।
हर परीक्षण से गुजरकर स्वर्ण होने के लिए
अब कोई गांधी या गौतम बुद्ध होना चाहिए।
विश्व के कल्याण की हो यह सदी बेशक पुरुष
इस सदी में इस सदी का प्राण होना चाहिए।
इस सदी को व्यर्थता से दूर रखने के लिए
इस सदी में एक नया संकल्प लेना चाहिए।
आइये आतंक और आतंक के पर्याय को
दृढ़ता के साथ ही बिलकुल कुचलना चाहिए।
जी लिए अनगिन सदी वृत में,त्रिभुज में,वर्ग में
विश्व के एकीकरण हित पहल करनी चाहिए।
इस सदी में जीव,जीवन,हवा,पानी,व्योम,ब्रह्म
इस सदी में केंद्र में रख काम करना चाहिए।
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8---आबाद रहे हर मधुशाला
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हे कवि ! तेरी मधुशाला में
देखा तेरा साकी बाला।
ओठों पर स्मित हँसी देखी
कर में थामे देखा प्याला।
उसे निमंत्रित करके मैंने
अपना जीवन धन्य किया।
इस मधुशाले का रूह कोई
रक्त–पिपासु पर‚बाला।
हाला बहता हुआ लहू है
ध्वंस की जिह्वा है प्याला।
घृणा‚द्वेष कर ओढ़ सभ्यता
शीत–युद्ध है खेल रही।
क्या ही अच्छा हो खुल बातें
करने आयें मधुशाला।
मधुशाले में मधुविक्रेता
मधु नहीं‚बेच रहा प्याला।
ओढ़ा वस्त्र सफेद बेदागी
मन का पर‚बिल्कुल काला।
शोषण का इतिहास‚खण्डहर
हर के नीचे छुपा हुआ।
अथवा वह खण्डहर नहीं होता
होती तेरी कोई मधुशाला।
मधु का लोभी यह भी वह भी
यह भी वह भी मतवाला।
यह भी प्यासा आस लगाये
वह भी प्यासा है लाला।
यह पीकर संतुष्ट हुआ तो
वह भी सच हो जायेगा।
प्यास और तृष्णा नहीं मिटती
मिट जाये चाहे मधुशाला।
प्यास मधुर हो या कड़वा
इसे चाहिए है हाला।
पर पीड़ा पर दुःख से चूकर
भरी हुई हो मधुप्याला।
शक्ति और सामर्थ्य पिघलते
अश्क से किसने देखा हैॐ
वह तो भाई लाल शिला से
निर्मित बहरी मधुशाला।
उसे ज्ञात है हिचकिचायगी
अन्धकार में हर बाला।
अगर निचोड़ा नहीं गया तो
नहीं भरेगी रे प्याला।
नीम अंधेरी की आदी आँखों की
चमक में भूख भरी।
रक्त–पिपासु हो गयी कैसे
खुदा तुम्हारी मधुशाला।
बना हुआ है मन्दिर‚मस्जिद
इस हाला की मधुशाला।
एक दूजे को कहकर काफिर
भरता जाता है प्याला।
पीने वाले लाज करें क्यों
उनका है क्या कुछ जाताॐ
मुफ्त मिला है बाला‚हाला‚
प्याला‚साकी‚मधुशाला।
मैं मन्दिर की नींव डालता
बनवा देता तू मधुशाला
तू इतना है क्रूर वहीं पर
बैठ बनाता है प्याला।
नींव हिली है हर बाड़ी की
वक्त नहीं ठहरा है कभी।
आज नचा ले जितना जैसा
भूधर कल होगी मधुशाला।
गढ़ जैसा निर्माण किया
और किला बनाया मधुशाला।
पहरे पर पहरा बिठा दिया
इतनी है रक्षित मधुशाला।
इन्क्लाब की आँधी किन्तु
लील लिया करता है सब।
सुलग रही है अभी गर्भ में
ध्वंस करेगी मधुशाला।
मदिरा को जब जब हाथ बढ़े
हर बार टूट जाये प्याला।
हर बार अधर तक आ आकर
हाला बन जाये विष–ज्वाला।
हर शिव शोषित का हो साथी
दुःख इसके पीकर नीलकंठ।
निर्बल के मन में ताण्डव का
बस नाच जगाये मधुशाला।
मधु विक्रेता बेच रहा है
आयुध कह कह कर प्याला।
सत्ता मद में मस्त मदकची
चाट रहा खुश हो हाला।
उसे बना रहना सत्ता में
चाहे दुनिया जल जाये।
चलो चलें गम घोल‚घुला दें
अब हम चलकर मधुशाला।
किसकी प्यास बुझाने आई
हाथों में भरकर प्याला।
किसको किसको बाँटेगी वह
अपनी यह षटरस हाला।
कर सोलह श्रृँगार नृत्य
करती आई छमछम साकी।
दिया निमंत्रण उसने किसको
किसको उसकी मधुशाला।
सब प्यासे हैं इस दुनिया में
पाने को उत्सुक हाला।
जीवन में जितनी कटुता
उतनी ही मधुर है मधुशाला।
किसे कहेगी ' पिओ नहीं तुम’
किसे कहेगी 'तुम आओ’।
बन्द नहीं क्यों कर देती है
यह दुनिया रूपी मधुशाला।
सृष्टि जिसने किया‚पुनः
बनवायेगा वह मधुशाला।
वह अनुभवी अब बनवायेगा
विष से रहित मधुर हाला।
जीव‚जीव को सह जीवन का
जन्म से ज्ञान दिलायेगा।
खुद जीने को नहीं किसीका
छीनेगा व ह प्याला।
आज खरे डरते खोटे से
शीशे से पत्थर का प्याला।
जालिम के हाथों क्योंकि है
नीलाम हो गई मधुशाला।
जुल्मों के इतिहास लिखेगी
तब हाला कहलायेगी।
अब शराब के बदले शोला
बाँटो री‚साकीबाला।
क्यों शराब भर जाम उठाते
ललचाता है क्यों हाला।
बरबस उठ जाते क्यों पग हैं
रे‚जाने को मधुशाला।
तू न समझता‚मैं समझाता
साकी की तेरी हसरत।
पर‚जो अमीर तू नहीं‚नहीं
पा सकता है साकीबाला।
मौत सजा हो पीने आना
जुल्म से लड़ने को प्याला।
इन्कलाब का आग लगाने
आते रहना मधुशाला।
सत्ता और हुकूमत जिसके
उसके सिर चढ़ जाते सिंह।
उसकी उँगली में फँस नाचे
हर साकी की मधुशाला।
साकी का सौन्दर्य लजाकर
गई आज है मधुशाला।
रँगीनी‚ रौनक‚यौवन से
हार गया भी है हाला।
इतनी सुगठित देह धरी
और धरकर आयी है साकी।
एक नजर बस एक नजर
कहते सब झपट रहे प्याला।
नशा बाँटता फिरता योगी
छुआ नहीं जिसने प्याला।
हर भोगी को बतलाता है
किस पथ जाती मधुशाला।
साकी का परिचय बतलाता
मधुर और कितनी हाला।
इन्कलाब के योगासन से
क्योंकि उठा लाया प्याला।
लिखते जाना शान में इसकी
भर देना तू मधुशाला।
पहले पीकर हो लेना पर‚
ऐ शायर‚ तू मतवाला।
शायर तू जो कभी लिखे गजल‚
गजल हमारी साकी की।
कलम कलश को तोड़ बनाना
स्याही को लेना हाला।
ईश्वर साकी‚जीवन हाला
दुनिया ही तो मधुशाला।
पीड़ा‚दुःख‚संत्रास‚घुटन से
निर्मित सारा ही प्याला।
मरने को मन तरसे कितना
पर‚जीना जीवन का कर्ज।
बिना पिये है कौन जियाॐ
है जिया सिर्फ पीनेवाला।
हो जाता हैरान मौत
जब भी आता वह मधुशाला।
कैसेॐ कैसेॐ हँसी बाँटती
सुख उपजाती है हाला।
पीनेवाले के उपहासों से
मर जाती है मौत यहाँ।
जीने को मधुशाला आया
मरने भी आना मधुशाला।
श्वेत चाँदनी जैसी काया
नख–शिख सजी हुई बाला।
यौवन अँटता नहीं बदन में
छलक रही जैसे हाला।
गहने‚जेवर‚फूल‚इत्र सब
पाते शोभा सज जिस पर
वह मधुशाला में आयें
क्यों झूम न जाये मधुशाला।
जब चढ़ता है नशा‚ नशीली
हो जाती तीखी हाला।
दिल से लोग लगा रख लेते
टूटी‚ फूटी‚जूठी प्याला।
पर जब जाता उतर सभी
लगता है कितना अर्थहीन
इसीलिए कहना है कि
आबाद रहे यह मधुशाला
……………
9--सावधान मेरे मित्र
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हम ‘विक्षिप्त-युद्ध’ करने नहीं
स्तब्ध-शांति को देने आए थे भरोसा.
तुमने हत्या किया है भरोसे का.
सावधान!
अब हम देंगे तुम्हें विक्षिप्त युद्ध.
तुमने स्वयं खुद को अभिशाप दे लिया है.
खींच ली है तुमने खुद के पैरों तले से जमीन.
कहाँ भागोगे तुम?
हमारे ग्रन्थों में जिक्र है भस्मासुर का-
लिप्सित हो स्त्री सौन्दर्य पर हुआ आत्महंता.
तुम लिप्सित और मोहित हो
विस्तार व विध्वंस के मिथ्या मानसिक सुख पर-
बने फिरते रहे हो हृदयहीन आक्रान्ता.
यह राष्ट्र गौतम और गाँधी का है अनुगामी.
सत्य है हमारे लिए
“वसुधैव कुटुम्बकम्” और “ओम् शांति”.
किन्तु,गीता हमारा कर्म ग्रन्थ है.
छीजती मानवता को स्थिर रखने हेतु
गीता हमारा धर्म ग्रन्थ है.
हम शांति को ढंक रख देंगे चार दिन.
और स्तब्ध शांति को भरोसा देने
विजय का युद्ध देंगे उसे चार दिन.
हम देंगे तुम्हें विक्षिप्त युद्ध.
अस्तित्व युद्ध के भरोसे नहीं
शांति के भरोसे रहता है कायम.
शांति कायर नहीं, होता है विनम्र.
इसे कृश होने का मत पालना भरम.
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10--मेरी कविताएँ
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रह जायेंगी मेरी कविताएँ
तुम्हें तुम्हारा अतीत दिलाने याद.
रहूँगा नहीं मैं, आत्मा या देह से.
छोड़ जाऊंगा निकालकर स्वत्व अपना
मेरे अस्तित्व में दफन है जो,नेह से.
पत्ते चरमराकर मर जायेंगे.
माटी में पिघल जायेंगे
उनके उत्सवों की कथाएँ.
मेरे शब्दों में पर,चित्रित रहेंगी वे.
झांककर देखता रहेगा अतीत उसका
मेरे गेह से.
अनन्तजीविता है भविष्य
अतीत भी होता नहीं कभी नष्ट.
यह तो वर्तमान है जो है
क्षणभंगुर,होता है त्वरित ध्वस्त.
दस्तक देता है समय
खरगोश की तरह दौडकर.
किन्तु,आदमी के वन में
कंटीले षड्यंत्रों से जाता है हार.
आदमी समय को जीता है
समय,आदमी को नहीं जी पाता
बहुत नुंचा,चुंथा है समय का संसार.
कविताएँ मन के कैनवास पर
उकेरे
समय और मनुष्य के चरित्र हैं.
ब्रह्मा के जय या पराजय का
अनूठे कथा चित्र हैं.
अनुभूतियों से निकले विचार
भाषाओँ के बंदिशों से अलग
देह की भंगिमा
देती हैं भाव को पूर्णता-
उन प्राणियों के गीत भी
जो लिख नहीं पाते.
उनकी कविताएँ दिखेंगी
मेरी कविताओं में.
शावकों के बेफिक्र उछल-कूद.
युवावस्था प्राप्त हुए देह के
प्रणय निवेदन.
बुजुर्गियत की लाचारियों से सन्न
शान से मरने हेतु किन्तु,
समूह का कर परित्याग
उनका एकांतवास.
ये शब्द दिशा दें मनुष्य की ओर.
अक्षर की आकृति
तुम्हारे आकृतियों को गढ़ेंगे
आत्मसात् करना इन्हें
होकर आत्मविभोर.
11--कविताएँ बाँटेंगे,आ
गाँव के किसी माटी से पनपा
मैं एक परेशान कवि हूँ.
मेरे सामने से दिन
उछल-उछल कर भागता जाता है.
मेरे पास पूंजी जैसा खालीपन है.
दिन इसलिए अनन्त है मेरा.
दिन टिका रहता है
मैं रोज लुढ़क जाता हूँ
प्राची देहरी से प्रतीची देहरी तक
सूर्य के आंगन में.
चिढ़ मेरा वजूद है और बेबसी हताशा.
गढ़ता है मुझे एक भयभीत कवि में.
मेरे सारे दिन इस भय में होंगे समाप्त.
पर मैं एक जन्मजात कवि है.
सुध-बुध क्रीडा और क्रन्दन में लगाये.
उस कवि का पुरुष सजग हो और
उसका व्यक्तित्व कठोर और कर्मठ.
उसका कवित्व युवा और प्रौढ़ हो
और बुढ़ा भी.
किन्तु, सारा दिन
जब फिसल जायगा तभी वह कवि
हो पायेगा युवा,प्रौढ़ व बूढ़ा.
दे पायेगा राजनैतिक संघर्ष की
इच्छाशक्ति.
नैतिक मनुष्य के
अपूर्वाग्रह की अदम्य भक्ति.
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12--दु:ख
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तर्क है, दु:ख है
तर्क ही दु:ख है।
मानव जीवन से इतर कहाँ है दु:ख.
प्राणी जगत में दिव्य सुख.
मनुष्य आत्मप्रशंसित है-
ईश्वर अपने अहम् में ढूँढ रहा.
इसलिए अपना दु:ख जन्म दे रहा.
मानव करता है शौर्य के लिए हत्या सा कर्म.
प्राणी-जगत में हत्या है क्षुधा का धर्म.
मानव को विधाता ने कर्मशील कर दिए.
बनाया पालनकर्ता विष्णु सा.
पर,हर घृणित कार्य को सर्वदा उत्सुक और उद्धत.
बना वह महारौद्र, बनना था उसे सहिष्णु सा.
जीवन वृत्त है –कृष्ण की व्याख्या.
क्योंकि,जीवन वस्तुत: है उर्जा.
उर्जा के विभिन्न रूपों में एक रूप जीवन.
अत: अनवरत चलायमान विवस्वान जैसा.(सूर्य)
सृष्टि में दु:ख नहीं है कहीं,हमारे मन में है.
दु:ख मानव-रचित मात्र तार्किक वचन में है.
दु:ख जीवन से आस्था खंडित होने का नाम है.
दु:ख हमारे किये कार्यों का ही तो परिणाम है.
यौगिकों और रसायनों का ही ढूह है यह जीवन.
हमारे तन, मन,वचन के योग और वियोग का आसन.
दिव्यासनों से होते हम हैं दिव्य.
तब हमारे दु:ख होते है सुखों जैसा भव्य.
मृत्यु दु:ख है.
पर,जन्म ही करता है हर दु:ख का सृजन.
दु:ख स्पंदन है,स्पंदन है अत: दु:ख है.
मन के स्पंदन में चेतना हो तो दु:ख है.
अचैतन्य मन नहीं होता कभी दु:खित.
जीवन को आना है और जाना है.
मानव मात्र होता आया है भ्रमित.
दु:ख सापेक्ष है.
स्याह को गौर से दु:ख है.
दरिद्रता को ऐश्वर्य से ईर्ष्या.
मृत्यु को जीवन से स्पर्द्धा.
मरुभूमि को वन का स्पृहा.
वन्य जीवों को मानव होने की आकांक्षा.
मनुष्य को अमृत की चाह.
दु:ख उपजता यहीं है.
दु:ख बाजे सा बजता यहीं है.
सर्जक के प्रारूप में जो मन है-
वह जन्मता भाव-शून्य है.
भूख और प्यास आदिम इच्छा है.
इसके इतर तृष्णा है
अविभावकों द्वारा दिया गया
पाप या पुण्य है.
तृष्णा दु:ख का है सर्जक.
सुख का वर्जक.
शून्य से दिव्य हो भाव तो मानवीय
आसुरिक हो तो दु:ख और दानवीय.
..............................................
13--गजल--- मानें आपको जरुर कोई वहम हुआ होगा
~~~~~~
मानें आपको जरुर कोई वहम हुआ होगा.
अंधेर में आदमी नहीं भेड़िया छुआ होगा.
आप कहते हैं पूरे विश्वास के साथ तो.
हो सकता है वह एक आदमी रहा होगा.
बनावट और बुनावट से क्या होता है.
भेड़िया का उसका फितरत रहा होगा.
हमने सर टिका कर आंसू जहाँ बहाये.
आदमी नहीं वक्त का शाना रहा होगा.
तेरे इशारे में जो रहस्य छुपा था.
यकीनन षडयंत्र का हिस्सा रहा होगा.
तूने तारीकी में डूबा दिया है तहजीब.
लौटो अभी वक्त ज्यादा नहीं बजा होगा.
रौशनी दिलकश होती होगी कहीं और.
इसे तूने ही यहाँ बदहवास किया होगा.
ब्रह्मज्ञान का दावा करने वाले मेरे दोस्त.
हाँ तूने ही ब्रह्म का कत्ल किया होगा.
सौन्दर्य मदिरा की तरह बिकती जहाँ.
किसी हारे हुए ने दुकान लगाया होगा.
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अरुण कुमार प्रसाद
शिक्षा--- ग्रेजुएट (मेकैनिकल इंजीनियरिंग)/स्नातक,यांत्रिक अभियांत्रिकी
सेवा- कोल इण्डिया लिमिटेड में प्राय: ३४ वर्षों तक विभिन्न पदों पर कार्यरत रहा हूँ.
वर्तमान-सेवा निवृत
साहित्यिक गतिविधि- लिखता हूँ जितना, प्रकाशित नहीं हूँ.१९६० से जब मैं सातवीं का छात्र था तब से लिखने की प्रक्रिया है. मेरे पास सैकड़ों रचनाएँ हैं. यदा कदा विभिन्न पत्र, पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ हूँ.
अरुण कुमार प्रसाद
Arun Kumar Prasad
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