सामयिक - मुहावरे ज़िन्दगी के - देवेन्द्र कुमार पाठक

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आपने भी सुना होगा, सदियों पहले इस देश में दूध की नदियां बहती थीं. सोने की चिड़िया कहते थे इसे. वह कहावत है न, 'हमारे बाप-दादों ने घी ख...


आपने भी सुना होगा, सदियों पहले इस देश में दूध की नदियां बहती थीं. सोने की चिड़िया कहते थे इसे. वह कहावत है न, 'हमारे बाप-दादों ने घी खाया था, हमारी महकती अंगुलियां सूंघ लो . '

गये-गुज़रे जमानों की बातें हैं ये पर 'दूध-बियारी' करने का आशीष नानी ने मेरी जन्म वर्षगाँठ पर जब दिया था, तब एक कलोर (बछिया) भी घर पठवा दी थी. तीसरे साल से ही हम 'दूध-बियारी' करने लगे थे.

आज़ादी के बाद के दूसरे दशक में दो-दो युद्ध लड़ चुके देश में खेतिहर मजूर से लेकर छोटी और मँझोली जोतवाले खेतिहरों, फेरी लगाकर गाँव-देहात में सामान बेचनेवालों, खोमचे-ठेलेवाले, नाई, मनिहार, पटवा, लखेरा, धोबी, कुम्हार, कोरी, कुर्मी, काछी, कबाड़ी, पनवाड़ी और चरवाहों-हलवाहों की भी तब 'दाल-रोटी' चलती थी. रिश्ते तय होने का तयशुदा आधार या गारन्टी इसी मुहावरे के सर पर होती.

ऊंचे दर्ज़े की पढ़ाई, रोज़गार, व्यापार, कथा-भागवत, पर्व-पूजा, व्रत-उद्यापन, जात-मिलौनी की रोटी-भाजी, मुंडन-बारहों, हारी-बीमारी के इलाजआदमी कीअच्छी सेहत, नैन-नक़्श, मरही-तेरही के खर्च, शान-शौकत, भोग-विलास आदि का राज़ इसी मुहावरे में छुपा होता था. मेरी दुधमुंही उमर से लेकर होंठों पर स्याही गहराने तक यह 'दाल-बाटी' या 'दाल-रोटी चलने' का मुहावरा देश के लोगों की ज़िंदगी और उसकी आर्थिक स्थिति का अता-पता बताने में कारगर था वह नेहरू, शास्त्री जी का दौर था.

जयप्रकाश नारायण की समग्र क्रांति के समय जब आपात्काल में, हम कॉलेज के विद्यार्थी कम, युवा क्रांतिकारी ज़्यादा होते थे. एक दफा हम आंदोलन में भागीदारी के चलते जेल जाते-जाते जो बच निकले, तो बिना नौकरी के भी हमारा विवाह तय होने का आधार मुहावरा यही 'दाल-रोटी चलने का था. . . . . . 'हल जोतता किसान', और 'गाय-बछड़ा' की चुनावी जंग के जमाने में जब सूखा औरअकाल पड़ा, तब 'भाजी-भात' या 'रोटी-भाजी' का मुहावरा लोगों की कमजोर आर्थिक दशा का बोध कराने लगा. जिन दिनों देश के एक युवा प्रधानमंत्री ने रुपये में पचासी पैसे सरकारी ओहदेदारों और सियासती दल्लों, जबरमल्लों के बीच बंटने की कड़वी सच्चाई जनता के सामने रख दी. तब अहसास हुआ कि क्यों ज़िन्दगी के मुहावरे इस कदर बदलते हुये आदमी की बदहालात सच्चाई उजागर करने लगे हैं. 'कनकी', 'समा-पसई', भुर्ता-गक्कड़'और'लकचा-डोम्हरी'((दलिया-महुआ)का मुहावरा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की आमद के बाद लोगों की सोच और ज़ुबान पर ज्यादा नहीं टिका. उन दिनों जब बीसवीं सदी का सूरज उतार पर था, तब 'चटनी-रोटी'या 'नून-प्याज और रोटी' खाकर गुज़र करने का मुहावरा गरीबी रेखा से नीचे-ऊपर होने का अंदाजा कराने के लिये इस्तेमाल होने लगा था.

सदी बदली, सहस्त्राब्दी बदली और प्याज का कुछ ऐसा भाव-ताव बढ़ा-चढ़ा, कि पेट की भूख को निबटाने का जो मुहावरा 'प्याज' के जुगत-जुगाड़ से बनता-सधता था, 'भारत'में एकबारगी बिगड़गया. 'शाइनिंगइंडिया' लफ्फाजियों और कागज़ीआंकड़ों की चमचमाती रौशनियों से नहायी सियासत, सत्ता-व्यवस्था के मंच के पीछे अंधेरे में अटक-भटक रहे बहुसंख्यक जनमत ने प्याज के नाम पर जो गाज गिराई, उसकी निर्मम मार से उबरने में एक पूरा दशक लग गया और अब आधे दशक से इस देश की जनता फिर उन्हीं कविताई तुकबंदियों, लफ्फाजियों को गाती-दोहराती, खाती-पीती, ओढ़ती-बिछाती, रामभरोसे दुर्दिन काट रही है. अब कोई मुहावरा ही नहीं रह गया, या रहने नहीं दिया जा रहा;सारे मुहावरे बड़बोले सियासती अगुओं ओर उनके लगुओं-भगुओं ने छीन-हथिया लिये हैं. हिंग्रेजी के घटाटोप में अपनी बोली-बानी गंवाकर अब लोक का मन-ज़ेहन क्षुब्ध, दिल ग़मगीन है. बूढ़े-जवान, औरत-मर्द, बच्चों सबको साफ नजर आने लगा है.

                    'देश ठीक ठाक चल तो रहा है' का ऊपरवालों का मुगालता या नया मुहावरा जमीनी सच भुगतते मानुष-मन की सोच-समझ में कहीं कतई अँटता-टिकता ही नहीं. . . . . . ज़िंदगी किसी नये ओर कारगर मुहावरे को गढ़ने की राह पर चल निकली है. जनमत नये मुहावरे गढ़ने की सोच में पड़ गया है, इन दिनों ऐसा क्यों लगता है मुझे. मैं तो सठियायी सोच-समझ और बरसों के बासी, घिसे-पिटे अनुभवों वाला हाशिये के बाहर पड़ा नाचीज़ हूँ; मेरी क्या औकात-बिसात! ज़िंदगी कोई मुहावरा तो है नहीं. हाँ, मुहावरे बनते-चलते और बदलते रहते हैं, उन्हें आदमी की ज़िन्दगी गढ़ती है. जो, जैसी ज़िंदगी हम इन दिनों जी रहे हैं या जीने को बाध्य हैं, वह कैसी है? ज़िन्दगी यदि कीड़े-मकोड़ों सी जैसी जीनी पड़े, तो आदमी को नागवार लगता है. आदमी की अपनी ज़िंदगी की निजता, रुचि, ढंग, नज़रिया और कुछ उद्देश्य हैं, पर वह एकदम निरपेक्ष नहीं;परिवार, समाज और दूसरे लोगों के सापेक्ष है. समाज और आदमी ने अपने लिये एक विधान बहुमत से स्वीकारा और चुना है.

समाज के विकासक्रम में अनेकानेक मोड़-पड़ावों ओर बदलावों से होकर हम जिस लोकतांत्रिक विधान तक पहुंचे हैं, वह अपनी कई कमियों, कमजोरियों के बावजूद बेहतर है; बेहतरीन होने की संभावनाओं से परिपूर्ण है. किन्तु तन्त्र यदि लोकहित ओर लोकमत को अपनी सुविधा से पारिभाषित करके जनमत से प्राप्त संख्याबल का बदइस्तेमाल करने की राह पर चल पड़ा हो, तो फिर जनमत देनेवाला जन मन मानस आमने सामने होकर विरोध अख्तियार कर लेता है. पिछली सदी में इस तरह की निरंकुशता के दुष्परिणाम दो विश्वयुद्धों के रूप में मानव समाज को झेलने पड़े हैं. बेहतर हो कि मौजूदा तन्त्र अपनी संकीर्ण सोच और पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर लोकतांत्रिक दृष्टि और लोकहित की दिशा तय करे, इतिहास से सबक ले. इतिहास की घटनाओं और तत्कालीन व्यक्तियों के फैसलों और उनके अच्छे या बुरे नतीजों को वर्तमान राजनीतिक सामाजिक परिस्थितियों के आधार पर कसौटियाँ पर कसना संगत नहीं है. यह जनमत के साथ धोखा और अन्याय है.

आने वाली पीढ़ी यदि इसी तरह से अपने नए मापदण्ड-मानक तय करेगी, तो . . . . , जीव और जगत के सारे मुहावरे जीवन के 'अभी' और 'आज' से बनते हैं. जीवन से बड़ी और अंतिम सच्चाई कुछ नहीं. कुछ बददिमाग, दुराग्रही और एक ही खूंटे पर बंधे चकरघिन्नी खा रहे लोगों की सोच-समझ एक ही घिसे-पिटे मुहावरे से संचालित होती रहती है.

1315, साईंपुरम कॉलोनी, कटनी, म. प्र. .         

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रचनाकार: सामयिक - मुहावरे ज़िन्दगी के - देवेन्द्र कुमार पाठक
सामयिक - मुहावरे ज़िन्दगी के - देवेन्द्र कुमार पाठक
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रचनाकार
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