जेहिं यह कथा सुनी नेंहि होई। जनि आचरजु करै सुनि सोई।। कथा अलौकिक सुनहिं जे ज्ञानी। नहिं आचरजु करहिं अस जानी।। रामकथा कै मिति जग नाहीं। असि प...
जेहिं यह कथा सुनी नेंहि होई। जनि आचरजु करै सुनि सोई।।
कथा अलौकिक सुनहिं जे ज्ञानी। नहिं आचरजु करहिं अस जानी।।
रामकथा कै मिति जग नाहीं। असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं।।
नाना भाँति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा।।
श्रीरामचरितमानस, बालकाण्ड ३३, २-३
जिसने यह श्रीरामकथा पूर्व में न सुनी हो, वह इसे सुनकर आश्चर्य न करें। जो ज्ञानी (भक्त) इस विचित्र श्रीरामकथा को सुनते हैं, वे यह जानकर आश्चर्य नहीं करते हैं कि इस संसार में श्रीरामकथा की कोई सीमा नहीं है अर्थात् श्रीरामकथा अनन्त है। उनके मन में ऐसा विश्वास रहता है। अनेक प्रकार से श्रीरामचन्द्रजी के अवतार हुए हैं और सौ करोड़ तथा अपार (अगणित) रामायण है।
इन्हीं श्रीरामकथाओं में भारत की प्रादेशिक भाषाओं में असमिया माधव कन्दली रामायण संभवत: सर्वप्रथम रामायण मानी गई है। श्री माधव कन्दली ने चौदहवीं सदी में अपनी असमिया भाषा में रामायण की रचना की थी। जयन्तपुर के कछारी राजा महामाणिक्य के आदेश से माधव कन्दली ने इस रामायण की रचना की थी। माधव कन्दली रामायण में अधिकांश कथावस्तु व प्रसंग वाल्मीकि रामायण के ही अनुसार है। माधव कन्दली ने कुछ प्रसंगों को अपने प्रदेश की मिट्टी की गंध देकर तथा वहाँ की हवा में सुगंध सहित स्थानीय रंग में सरोबार किया है। इस रामायण में आदि तथा उत्तरकाण्ड उपलब्ध नहीं था, अत: ऐसा माना जाता है कि माधव कन्दली के एक शती पश्चात् शंकरदेव ने स्वयं आदिकाण्ड तथा उनके शिष्य माधवदेव ने उत्तरकाण्ड की रचना की है। भाषा, छन्द, लय, शैली एवं कथाप्रसंगों के वर्णन चरित्र चित्रण में माधव कन्दली असमिया भाषा के आदि सर्वश्रेष्ठ ग्रंथों में एक है। इसे भक्ति काव्य की अपेक्षा इतिहास ग्रंथ भ्ीा कहा जा सकता है। असमिया भाषा के रचनाकारों ने श्रीराम के लिए कहीं-कहीं कृष्ण एवं हरि आदि शब्द ही प्रयुक्त किए हैं।
माधव कन्दली रामायण के अनेक कथा प्रसंगों में से कुछ चुने गए अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंगों को यहाँ दिया जा रहा है।
दशरथ के राज्य पर शनि की दृष्टि और जटायु मित्रता
राज्यभोग भुंजे भार्या- समूह सहित, राज्य चिन्ता नाहि भैला भार्यात मोहित
स्त्रीगण लैया क्रीड़ा करत नृपति, हेनकाले आसिला नारद महामति
असमिया माधव कन्दली रामायण, बालकाण्ड २६१-२६२
अपनी पत्नियों सहित राजा दशरथ राज्य सुख का उपभोग करते रहे। पत्नियों में मुग्ध पड़े रहने से उनको राजकाज की चिन्ता नहीं रही। राजा नारियों को लेकर क्रीड़ा में मस्त (मत्त) थे कि ऐसे समय देवर्षि नारदजी वहाँ आ पहुँचे। नारदजी ने आकर राजा दशरथ को कहा कि तुम राज्य के भले बुरे की कोई चिन्ता नहीं करते। उन्होंने कहा कि सूर्यवंश में जितने महान् राजा हुए उन्होंने पुत्र से भी अधिक प्रजा को मानकर पालन किया। उसी सूर्यवंश में तुम एक प्रधान राजा हुए हो, स्त्रियों के पीछे तुम पागल बने हुए हो, दूसरी कोई चिन्ता तुम्हें नहीं है। नारदजी के वचन सुनकर राजा राज्य की स्थिति जानने के लिए वन में गए। वहाँ उन्होंने सुना कि एक सुग्गा-सुग्गी से कहता है कि मेरी बात सुनो। इस वन को छोड़कर दूसरे वन में चलो। सुग्गी ने सुग्गे से कहा कि हम तो हमारे सात पुश्त (पीढ़ी) से इस वन में निवास कर रहे हैं यहाँ से चले जाने पर बड़ा कष्ट होगा। यह सुनकर सुग्गे ने कहा कि यहाँ का राजा नारियों के साथ क्रीड़ा में मग्न है उसे प्रजा के सुख-दु:ख का कोई ख्याल नहीं है। इसके राज्य में मेरी मृत्यु हो जाएगी, अत: अच्छा है कि हम तुरन्त इस वन को त्यागकर दूसरे वन में चले जाएं। यहाँ पाँच वर्षों तक वर्षा नहीं होगी। यह कह कर सुग्गा ने पेड़ के नीचे वृक्ष के तने के पास राजा दशरथ को बैठा देखा। पक्षी राजा को एकाएक सामने देखकर भयभीत हो गया। राजा ने पक्षी से कहा कि तुम भयभीत मत हो, यह वन मैं तुम्हें दे देता हूँ। अब तुम यहाँ अपना अधिकार कर सुखपूर्वक रहो। इतना कहकर राजा दशरथ इन्द्र के पास युद्ध करने पहुँच गए तथा उन्होंने इन्द्र से कहा कि सुनो इन्द्र (पुरन्दर) मेरे राज्य में वर्षा क्यों नहीं हो रही है, प्रजा भूख से मर रही है, इसका क्या कारण है?
इन्द्र ने कहा कि महाराज शान्त चित्त से सुनो। रोहिणी में शनि की पूर्ण दृष्टि पड़ी। इसी कारण तुम्हारे राज्य में वर्षा नहीं हुई। हे महाराज! आप शनि के पास जाओ। उनसे कहना कि वे रोहणी में दृष्टि डालना छोड़ दें, तब कहीं जाकर आपके राज्य में वर्षा होगी। इतना सुनकर राजा तुरन्त रथ पर चढ़कर शनि के पास चल पड़े। शनि की कोप दृष्टि राजा पर पड़ते ही रथ के टुकड़े-टुकड़े हो गए, घोड़े रथ से नीचे गिर गए। राजा दशरथ भी अचेक होकर चक्कर खाते नीचे गिरने लगे। गरुड़ के पुत्र जटायु नामक पक्षी ने उन्हें आकाश से पृथ्वी पर गिरते देखा। जटायु ने अपने विशाल पंख फैलाकर उन्हें गिरने से रोक लिया। राजा ने जटायु से कहा- हे पक्षी! तुम महाबलवान हो, तुम महान हो, आकाश से गिरकर मैं यमराज के घर जा रहा था, तुमने अपने विशाल पंखों को फैलाकर पीठ पसारकर मेरे प्राणों की रक्षा की। तीनों लोकों में ऐसा उपकार करने वाला दूसरा कोई नहीं है। आज से तुम मेरे महामित्र हो गए तथा इतना कहकर लकड़ी लाकर आग जलाकर, दोनों ने एक-दूसरे को हाथ थाम कर अग्रि को साक्षी कर परस्पर मित्र बन गए।
उन पचास पवनों की उत्पत्ति कथाप्रसंग
राजा दशरथ से ऋषि विश्वामित्र यज्ञ की रक्षा हेतु श्रीराम एवं लक्ष्मण को लेकर वन में अपने सिद्धाश्रम जा रहे थे तब-
पुनरपि रामे कथा पुछिला ऋषित, एक लोकपाल वायु जगते बिदित
किमते पवन भैला उपपंचाशत, शुनि विश्वामित्रे कथा कहन्त राभत
असमिया माधव कन्दली रामायण आदिकाण्ड १०४१-१०४२
फिर श्रीराम ने महर्षि विश्वामित्र से पूछा- वायु एक लोकपाल के रूप में संसार में जाना जाता है फिर पवन किस प्रकार से उनपचास बन गए? इतना सुनकर महर्षि विश्वामित्र ने श्रीराम से कहा कि मरीचि राजर्षि से उत्पन्न कश्यप नाम के प्रजापति थे। उनकी दो पत्नियाँ दिति और अदिति थी। अदिति से देवताओं का तथा दिति से असुरों का जन्म हुआ। देवताओं एवं असुरों में सदा झगड़ा होता रहता था। असुरों ने पूर्व में सुरों (देवताओं) को पराजित कर दिया। कुछ वर्षों उपरान्त भगवान् नारायण की शिक्षा के प्रभाव से सुर और असुर मित्र बन गए। अमृत प्राप्ति हेतु सुर और असुरों ने मिलकर समुद्र मंथन किया तथा अन्त में पूर्ण घट लिए हुए धन्वन्तरि प्रकट हुए। देवताओं की उपेक्षा कर असुरों ने उस अमृत को ले लिया। बाद में जब नारायण ने सुरों को अत्यन्त दु:खी देखा तथा उन्होंने मोहिनी का रूप धारण कर, छलकपट के द्वारा सारे असुरों को मोहित करते हुए नारायण ने सारे सुरों को अमृत पान करवा दिया। तत्पश्चात देवताओं ने भयंकर युद्ध करके असुरों का वध कर दिया।
इतना सुनकर दिति कश्यप ऋषि के चरण पकड़ कर रोने लगी। कश्यप ऋषि ने दिति से रोने का कारण पूछा। दिति ने रोते रोते हुए बताया कि उसके पुत्रों का इन्द्र ने वध कर डाला है। देवता अमृत का सेवन करके सब अजर-अमर हो गए हैं। अब आप मुझे यह वर दो कि मेरा पुत्र इन्द्र बने। कश्यप ऋषि ने कहा तथास्तु अर्थात् ऐसा ही होगा यथा-
बर दिया कश्यपे बुलिला हास्य करि, शुचि हुया गर्भ तुभि धारिबा सुन्दरी
नियमे थाकिबे पारा द्वादशबत्सर, हैवे तयु पुत्र इन्द्र किलो महू बर
असमिया माधव कन्दली रामायण आदिकाण्ड १०५६
तब वर देकर कश्यप ऋषि ने हँसते हुए कहा हे सुन्दरी! पवित्र होकर तुम गर्भ को धारण करना। यदि बारह वर्ष नियमपूर्वक रह सको तो तुम्हारा पुत्र इन्द्र होगा, यह मैं तुम्हें वर देता हूँ। दिति को गर्भवती देखकर इन्द्र बहुत दु:खी हुआ और छल से दिति की सेवा करने पहुँच गया। कोई भी छिद्र (दोष-कमी) मिल जाय तो गर्भ नष्ट करने का मौका ढूंढने लगा। इन्द्र दिन रात दिति की सेवा करने लग गया तथा गर्भ नष्ट करने की ताक में रहने लगा। एक बार गर्भ के भार से दिति नियम भूल गई और संध्या की बेला में केश खुले कर लेट गई। सिरहाने की ओर पैर और पैर (पैंताने) की ओर सिर करके लेट गई। ऐसा छिद्र (दोष) पाकर इन्द्र हँस पड़ा तथा माया के सहारे वज्र लेकर वह दिति के गर्भ में प्रवेश कर गया। वहाँ गर्भ में पहुँच कर इन्द्र ने उस पुत्र को सात खण्डों (टुकड़ों) में काट डाला तत्पश्चात् उन सात खण्डों (टुकड़ों) में प्रत्येक खण्ड को सात-सात बार काट डाला। जब दिति को होश आया तो विस्मित होकर इन्द्र से कहा कि तूने मेरे पुत्र को क्यों मार डाला? यह सुनकर इन्द्र ने दिति से कहा क्योंकि तुम नियम भंग कर लेटी हुई थी। इसलिए तुम्हारा गर्भ नष्ट कर डाला। अब यह देवता बनकर मेरे साथ रहेगा। विश्वामित्र ने श्रीराम को इस प्रकार उनपचास पवन कैसे बने बताया।
श्रीरामचरितमानस में जब हनुमानजी लंकादहन करके समुद्र के पास आते हैं तब भी ऐसा ही उपचास पवनों का उल्लेख है-
हरि प्रेरित तेंहि अवसर चले मरूत उनचास।
अट्ठास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास।।
श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड दो-२५
उस समय भगवान् (श्रीहरि) की प्रेरणा से उनचास पवन चलन लगे। हनुमान्जी अट्ठहास करके गरजे और बढ़कर आकाश से जा लगे। ये ४९ पवनों के नाम है- १. प्रवह श्वासिनी टाना महाबल, २. परिवह विहग उड्डीयान ऋलवाह, 3. परिवह सप्तस्वर शब्द स्थिति, 4. परिवह प्राण निमीळन, 5. परावह मातरिश्वा, 6. परावह जगत् प्राण, ७. परावह पवमान क्रिया, ८. परावह नवप्राण, ९. परवाह हमि मोक्ष अस्तिमित्र, १०. परावह सारङ नित्य पतिवास, 11. परावह स्तंभन सर्वव्यापिमित, १२. प्रवह श्वसन श्वास प्रश्वासादि ईंद्र, १३. प्रवह सदागति गमनादौगति, १४. प्रवदृश्य स्पर्श शक्ति अदृश्यर्गत प्रवह, १५. प्रवह गंधवाह अनुष्णअशीत ईदृश, १६. प्रवह वाह चलन वृतिन, १७. प्रवह वेगिकंत भोगकाम, १८. उद्वह व्यान जंभृण आंकुचन प्रसारण द्विशक्र, १९. आवह गंधवह गंधेर अणुके आने त्रिशक्र, २०. आवह अशुग शैघ्रं अदृश, २१. आवह मारुत भित्तेरर वायु अपात्, २२. आवह पवन पवन अपराजित, २३. आवह फणिप्रिय उर्ध्वगति धृव, २४. आवह निश्वासंक त्वगिन्द्रिय व्यापि युतिर्ग, २५. आवह उदान उद्गीरण संकृत, २६. परिवह अनिल अनुष्ठा अशीत अक्षय, २७. परिवह समिरण पश्चिमेर वायु सुसेन, २८. परिवह अनुष्ण शीत स्पर्श पसदीक्ष, २९. परिवह सुखास सुखदादेवदेव, ३०. विवह वातव्यक संभव, ३१. विवह प्रणति धारणा अनमित्र, ३२. विवह प्रकंपन कंपन भीम, ३३. विवह समान पोषण एक ज्योति, ३४. उद्वह नभस्थान अपंकज अभियुक्त, ३५. उद्वह मरुत उत्तरदिगेर वायुसेनाजित्, ३६. उद्वह धनुध्वज अदिमित, ३७. उद्वह कंपना सेचना दर्ता, ३८. उद्वह वासदेह व्यापि विधारण, ३९. उद्वह मृगवाहन विशुतवरण, ४०. संवह चंचल उत्क्षेपण द्विज्योति, ४१. संवह पृषतांपति बलमहाबल, ४२. संवह अपान क्षुधाकर अधोगमन एकशक्र, ४३. विवह स्पर्शन स्पर्श विराट्, ४४. विवह वात तिर्कक् गमन पुराणह्य, ४५. विवह प्रभंजन मन पृथक सुमित, ४६. संवत अजगत् प्राण जन्म मरण अदृश्य, ४७. संवह आवक फेला पुरिमित्र, ४८. संवह प्रकंपन गंघेर अणुके अणुके आने मित्रासन, ४९. संवह समिर प्रात: कालेर वायुसङमित।
नाना माल्यवान् के द्वारा अहंकारी रावण को उपदेश प्रसंग
माल्यवान् (माल्यवंत) गन्धर्व पुत्री देववती और सुकेश राक्षस का पुत्र था। माल्यवान् के भाई का नाम सुमाली था जो कि रावण की माता कैकसी का पिता था। वाल्मीकि रामायणानुसार कैकसी रावण की माता एवं विश्रवा की पत्नी थी। इस प्रकार माल्यवंत सुमाली का भाई होने के कारण उसे रावण का नाना भी कहा गया है। माल्यवान् का एक और छोटा भाई माली भी था।
माल्यवान के बारे में श्रीरामचरित मानस में भी बहुत प्रशंसा की गई है-
माल्यवंत अति सचिव सयाना। तासु बचन सुनि अति सुख माना।।
श्रीरामचरितमानस मानस सुन्दरकाण्ड ३९ (ख)
रावण के दरबार में माल्यवान् नाम का एक बहुत बुद्धिमान मंत्री था। उसने विभीषण के वचन सुनकर बहुत सुख माना, जिसमें रावण के दादाश्री पुलस्त्य ऋषि ने अपने शिष्य के द्वारा उसे समझाइश दी थी। विभीषण ने रावण से कहा हे तात् सुन्दर अवसर पाकर मैंने प्रभु आपसे तुरंत कह दी है आप मोह-मद-त्यागकर श्रीराम का भजन कीजिये।
अध्यात्म रामायण में भी माल्यवान् की प्रशंसा कर कहा है-
तत: समागमद्वृद्धो माल्यवान् राक्षसो महान्।
बुद्धिमान्नीतिनिपुणो राज्ञो मातु: प्रिय पिता।।
अध्यात्मरामायण युद्धकाण्ड सर्ग ५-२६
राजा रावण की माता का प्रिय पिता अति बुद्धिमान और निपुण वृद्ध राक्षस माल्यवान् वहाँ आया।
असमिया माधव कन्दली रामायण में भी माल्यवान् का चरित्र एवं उनके द्वारा दिया गया रावण को उपदेश अद्वितीय है। माल्यवान् ने रावण से कहा-
सम्बुधि बुलिला ताक वृद्ध माल्यवन्त, रावणर मातामह पात्र बुद्धिमन्त
शुना कहो दशस्कन्घ येन राजनय, तइ नसुघिले मोर बुलिते लागय
आग तल याइ यदि हातीयो बुरय, तोर सब कुलओ मोहोर वंश क्षय
असमिया माधवकन्दली रामायण लंकाकाण्ड ४९७०-४९७१
रावण का नाना बुद्धिमान मंत्री वृद्ध माल्यवान् ने तब उसे सम्बोधित कर कहा रावण! राजनीति की बात मैं तुम्हें बता रहा हूँ सुनो, तुम यदि मुझसे पूछना नहीं चाहो तो भी मुझे कहना उचित एवं न्यायपूर्ण है। हाथी के सिर तक पानी आ जाने पर हाथी भी पानी में डूब जाता है। उसी प्रकार तुम्हारे वंश का तथा मेरे भी वंश का विनाश है। सीता के हरण का पाप तुम्हारे पीछे लगा है। इसी कारण तुम्हारी कुबुद्धि हो गई है। जो व्यक्ति सभा (दरबार) में रहकर भी उचित परामर्श बात नहीं कहता है, उससे उसे अधर्म होता है और उसे उसके पाप में जलना पड़ता है। जो जान बुझकर सत्य बात नहीं कहता तथा विमूढ़ता का अवलम्बन किये रहता है वैसे जन को सभी प्रकार का कलुष होता है। धर्म-कर्म का अनुकरण-अनुसरण कर ही शत्रु का वध किया जा सकता है। धर्म का अनुसरण कर ही शुद्ध मुक्ति का साधन हो सकता। तुमने धर्म का मार्ग त्यागकर पाप का आचरण किया है और अग्रि तेजस्वी ऋषियों को भयभीत किया है।
लंका में तुम्हारे पाप के कारण ही अनिष्ट हुआ है। तुम्हारे पाप के कारण लंका के मार्गों पर बार बार सियार रो रहे हैं। सूअर, कुत्ते सभी झुण्डों में घूम रहे हैं। राक्षस कुल का मानो प्रलयकाल आ गया है। गायें लंका में गधों के बच्चे जन रही है। नेवले के गर्भ में चूहा हो रहा है। बिल्लियों से बाघ माँद में रहने वाले जानवरों से ऊँट और भैंस से बकरे जन्म ले रहे हैं। बादल विपरीत कार्य कर रहे हैं जैसे मैदानों के स्थान पर पर्वत शिखरों पर वर्षा कर रहे हैं। कौवे लंका के ऊपर करुण कटुवाणी में बोलते हैं। हे रावण तूने सीता का हरण कर यह कैसा दुष्टतापूर्ण कार्य किया है। तूने बुरा आचरण किया है। श्रीराम-लक्ष्मण नारायण के अवतार हैं। तुम प्रयत्न कर श्रीराम की शरण में जाओ। सीताजी को शीश पर चढ़ाकर उन्हें सम्मानपूर्वक समर्पित कर दे। मान-धर्म को छोड़कर अपने पुत्र, परिवार एवं वंश की रक्षा करो। शक्तिहीन प्राणी के लिए शरण ले लेना ही उचित है। राजनीति के बारे में इतना बताकर माल्यवान् मौन हो गया। राजा रावण ने क्रोधपूर्वक माल्यवान् की ओर सिर उठाकर देखा। क्रोध के मारे उसकी भौंहे टेढ़ी हो गईं, नेत्र आरक्त हो उठे। वह कहने लगा- यहाँ इन्हें कौन बुला लाया। तुम राम को शक्तिशाली और मुझे शक्तिहीन समझते हो। तुम कुछ जानते समझते सुनते नहीं इसलिए बिना कुछ कहे मौन रहो तो अच्छा है। बूढ़े हठी की बोली कहीं गले उतरती है? बाप के कहने से जो राम वनवास में चला आया, वह वानरों के सहारे मुझसे लड़ना चाहता है। मैंने तुमसे कुछ भी नहीं पूछा तुम स्वयं आगे बढ़कर बताने आये हो। जान गया तुम राम की रिश्वत खाते हो, तुम यहाँ क्या कर रहे हो? घर चले जाओ। वह बूढ़ा रावण को फटकारता हुआ अपने भवन चला गया। तू गर्व के मारे दिशा ज्ञान भूल गया है। राम के बाणों की चोट से बिन्धकर तू बुरी तरह तड़पेगा। तदनन्तर उसने कहा-
अल्प पानीर सल ददरा ददरि, राम शर धावे थाकिबिहि दान्ततरि
एहि बुलि माल्यवन्त गैला दरदरि, लोथरा बुढ़ार बोले पाइबाहा चेञ्छेरि
असमिया माधव कन्दली रामायण लंकाकाण्ड ४९८६
तू पिछले पानी में रहने वाली मछली जैसा कूदफाँद कर रहा है। राम के बाणों की चोटों से दाँत निपोर कर पड़ा रहेगा। यह माल्यवान् तेजी से वहाँ से चला गया और इस लोथरे बूढ़े के वचन से तुम कष्ट भोगेगो।
रावण को सन्मार्ग पर लाने हेतु कैकसी का विभीषण को उपदेश
इस कथा का प्रसंग हनुमान्जी द्वारा लंका दहन के पश्चात् का है। कवि माधव कन्दली ने असमिया रामायण में रावण की माता नाम नैकेषी का उल्लेख किया है। लंकापुरी को जलाकर हनुमान्जी ने मीठे फल खाकर अस्सी हजार राक्षसों को मार डाला। यह सब देखकर विभीषण के मन में सोच विचार आया वह इस प्रकार था-
इसब कार्य्यक देखि जानिलन्त मने, सबे कथा मावन कहिल विभीषणे
रावणर मातृ ताइ बुलिय नैकेषी, सम्बधि बोलय विभीषणक राक्षसी
दुर चक्षु फुटिल रावण भायेरर, हरि आनिले सीता जीव जनकर
सुखे ताक विद्याताये थाकिबे ने दिल, श्रीरामर भाय्या सीता हरिया आनिल
असमिया माधव कन्दली रामायण सुन्दरकाण्ड ४७०७-४७०८
लंका दहन तथा अगणित राक्षसों के वध को देखकर विभीषण ने मन में बहुत सोच विचार कर माँ कैकसी (नैकेषी) को जाकर सारा वृत्तान्त कह सुनाया। रावण की माँ जिसका नाम नैकेषी (कैकसी) था, उस राक्षसी ने यह सब सुनकर विभीषण को सम्बोधित करते हुए कहा- तेरे भाई रावण की आँखें फूट गई है। इसी कारण वह जनक कन्या सीता को हरण कर लाया है। उसे विधाता सुखपूर्वक रहने देना नहीं चाहते हैं। इसी से वह श्रीराम की भार्या सीताजी का हरण कर ले आया है। संभवत: उसके जन्म के समय उसकी गंदी चीजें पूरी तरह साफ नहीं हुई थी। अब उसके विनाश में वृद्धि ही होगी। रावण के सारे अंग तो मर चुके हैं केवल कमर में बत्ती जल रही है। सीता के लिये व्याकुल हो वह अपना सर्वनाश करता घूम है। वह दुराचारी अधर्म में रत हो गया है। इसीलिए परस्त्री पतिव्रता सती सीता को हरण कर लाया है। रावण ब्राह्मण वंश का पुत्र है किन्तु वह अधोगामी हो गया है। वह व्यर्थ ही मेरे गर्भ से उत्पन्न हुआ, उसे हमें जला डालना चाहिए। राम के समान वीर धनुर्धर और कोई नहीं है, वे अकेले ही इस पृथ्वी को उलट-पुलट कर सकते हैं। वे बाण मारकर सागर का शोषण कर सकते हैं। उनके बाणों के प्रहार से पराजित होकर राक्षस सभी दिशाओं में प्राण बचाकर भाग जाते हैं।
राजा का जैसा आचरण होता है, प्रजा भी उसी का आचरण का अनुरण किया करती है। विभीषण पुत्र तुम अपने धर्म के बल से राक्षसों को साथ किये रहो। धर्म और कर्म के अनुसरण में तुम सर्वश्रेष्ठ हो। रावण ने तो वंश को कलंकित कर डूबो डाला है, तुम्हीं उसका उद्धार करो तथा इतना कहकर पुन: कहा-
तुमिसि आछाहा बाप कुल निस्तारण, रावणे रामत येन पराय शरण
सीता समर्पिबाक दुलिया राजनय, मोर बचनक बेटा काणे नुशुनय
असमिया माधव कन्दली रामायण सुन्दरकाण्ड- ४७१३
बेटा विभीषण तुम्हीं इस वंश का उद्धार करने वाले हो। रावण जैसे श्रीराम की शरण लेकर सीताजी को समर्पित कर दे, इस कारण तुम उसे राजनीति की शिक्षा देना। मेरी बात तो वह कानों से सुनना भी पसंद नहीं करता है। नैकेषी की शिक्षा सुनकर विभीषण उसे प्रणाम कर वहाँ से रावण के पास शीघ्र चला गया। कैकसी का राक्षसनियों में ऐसा चरित्र अन्य श्रीरामकथाओं में अन्यत्र ढूंढे नहीं मिलता है। कैकसी का चरित्र इस रामायण में आदर्श माता के रूप में एक अपनी छवि लिये है।
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डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
'मानसश्री', मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर
सीनि. एमआईजी-१०३, व्यास नगर,
ऋषिनगर विस्तार, उज्जैन (म.प्र.)
Email : drnarendrakmehta@gmail.com
पिनकोड- ४५६ ०१०
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