उत्कोचः भारतीय समाज का सच - सुनीता

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सुनीता सहायक प्राध्यापिका राजा सिंह कॉलेज, सीवान जयप्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा उत्कोचः भारतीय समाज का सच ‘उत्कोच’ हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य...

सुनीता

सहायक प्राध्यापिका

राजा सिंह कॉलेज, सीवान

जयप्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा

उत्कोचः भारतीय समाज का सच

‘उत्कोच’ हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य रचनाकारों में से एक डॉ0 जयप्रकाश कर्दम द्वारा रचित उपन्यास है। उत्कोच का अर्थ है-रिश्वत या घूस। इस साधारण विषय पर रचित यह एक असाधारण उपन्यास है। इस मुद्दे पर लिखा गया अपनी तरह का यह पहला उपन्यास है। ‘उत्कोच’ मनोहर की कथा है। वह बिक्री कर जैसे विभाग में (जो रिश्वतखोरी के लिए बदनाम है) क्लर्क के रूप में कार्यरत है। वह भ्रष्टाचार का घोर विरोधी है। वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में रिश्वत का बहिष्कार करता है। उसकी पत्नी श्यामा उसके विचारों से तालमेल नहीं बैठा पाती। प्यारी सी बेटी सुजाता के जन्म के पश्चात् उनके जीवन में खुशियाँ छा जाती है। परन्तु श्यामा मनोहर पर सदैव दबाव बनाती है कि वह रिश्वत लेकर अतिरिक्त कमाई से अपने परिवार की सुख-सुविधा के साधन जुटाए। वह क्रोध में कहती है। सही कह रही हूँ। सुजाता से तनिक भी प्यार नहीं है तुम्हें।01 मनोहर अपने सिद्धांतों पर अडिग है। अंततः श्यामा तनावग्रस्त रहने लगती है वह बीमार पड़ जाती है। छोटी सी बच्ची सुजाता को छोड़कर वह असमय दुनिया से कूच कर जाती है।

निरन्तर इतने आघातों को झेलते हुए भी मनोहर अपने सिद्धांतों पर अटल रहता है। वह अपने मित्रों को भी रिश्वतखोरी का त्याग करने की प्रेरणा देता रहता है। ‘उत्कोच’ या रिश्वत भारतीय प्रशासनिक तंत्र में रच-बस गया है। यह आधुनिक समस्या नहीं है, बल्कि अत्यंत प्राचीनकाल से भारत में इसके प्रमाण मिलते है। '' हाल के दिनों में स्थानीय ताराचंडी धाम स्थित 12वीं सदी के शिलालेख के पूरी तरह से पाठन के बाद अधिकारी द्वारा उत्कोच लेने का उल्लेख सामने आया है।02 अंग्रेजी शासनकाल में भी रिश्वत या उत्कोच का बोलबाला था। अपनी सुप्रसिद्ध कहानी 'नमक का दरोगा' में प्रेमचंद्र लिखते है। नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर की मजार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूंढना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो।03 उल्लेखनीय है कि उक्त वक्तव्य में एक पिता अपने पुत्र को रिश्वत लेने का उपदेश दे रहा है, वह भी बड़े सात्विक भाव से। वर्तमान समय में तो उत्कोच भारतीय राजनीति, प्रशासन, शिक्षा, कला, सभी क्षेत्रों में विषाणुओं की तरह फैल गया है।

सभी भ्रष्टाचार से त्रस्त है, परंतु अवसर आने पर स्वयं भी रिश्वत लेने से नहीं चूकते, स्वयं के भ्रष्टाचार के लिए सभी के पास अपने-अपने तर्क हैं। मनोहर की पत्नी श्यामा तर्क देते हुए कहती है, अरे बाबा, भष्टाचार वह होता है, जब लोग गबन या घोटाला करते हैं। तुम यदि थोड़ी-बहुत रिश्वत लेते हो तो वह भ्रष्टाचार नहीं होता है।.............तुम अपने मन से इस ग्रंथी को निकाल दो।04 श्यामा, मनोहर को हीनभावना से ग्रस्त समझती है, जबकि सच्चाई यह है कि वह स्वयं हीनभावना से ग्रस्त है। दूसरी महिलाओं के गहने, कपड़े देखकर वह स्वयं को हीन समझती है। किसी समारोह में नहीं जाना चाहती, किसी से मिलती जुलती नहीं है। मनोहर पर रिश्वत लेने के लेने के लिए दबाव बनाती है। झगड़ा करती है। अंततः तनावग्रस्त रहने के कारण बीमार पड़ जाती है।

मनोहर आदर्श पात्र है। घर एवं बाहर दोनों जगह अपमान व उपहास का पात्र बनने पर भी वह अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं करता। रोजमर्रा की समस्याओं में भी वह अपने उसूल नहीं तोड़ता। लखनऊ जाने के लिए कंफर्म सीट न मिलने की स्थिति में उसके एस0 टी0 ओ0 सुझाव देते है। ष्अरे किसी भी ट्रेन से चले जाओ। टी.सी. को सौ-पचास रूपये देना, सीट का इंतजाम हो जाएगाष्05 परन्तु मनोहर किसी स्तर पर भी रिश्वत का समर्थन करने को तैयार नहीं होता है। 'सेवासदन' के दरोगा कृष्णचन्द्र की भांति अपना रास्ता नहीं बदलता। कृष्णचन्द्र कहते हैं - धर्म का मजा चख लिया, सुनीति का हाल भी देख चुका। अब लोगों को खूब दबाऊँगा। खूब रिश्वत लूंगा, यही अंतिम उपाय है। 06

भ्रष्टाचार से लड़ते हुए मनोहर को उस समय सुखद आश्चर्य हुआ, जब उसी के दफ्तर में काम करने वाला क्लर्क सुन्दरलाल, रिश्वतखोरी का विरोध करने लगता है। दरअसल सुन्दरलाल के पुत्र को विद्यालय में कुछ लड़के 'दो नम्बरी का बेटा' कहकर चिढ़ाने लगे थें। इस कारण वह हीनभावना का शिकार हो जाता है। अपने बेटे को शर्मिन्दगी से बचाने के लिए सुन्दरलाल, अब से रिश्वत न लेने का प्रण करता है। इस उम्मीद के साथ उपन्यास समाप्त होता है कि कभी न कभी सभी को रिश्वत या उत्कोच की बुराईयां समझ में आएंगी।

उपन्यास भारतीय समाज की एक ज्वलंत समस्या को उजागर करता है। 'भ्रष्टाचार' एक ऐसी समस्या है, जिसे सभी भुनाना चाहते है। परन्तु इसकी जड़ में जाकर कोई प्रहार नहीं करना चाहता। आखिर किसी न किसी को तो शुरूआत करनी ही होगी। प्रत्येक व्यक्ति अगर अपने स्तर पर प्रयास करे तो बड़ी से बड़ी समस्या भी हल हो सकती है। मनोहर के विचार उल्लेखनीय है। आप लोग बहुत कुछ कर सकते हो। भ्रष्टाचार के विरूद्ध आंदोलन एक दिन में तो खड़ा होगा नहीं। सभी लोग अपने-अपने स्तर से भ्रष्टाचार का विरोध कीजिए।07 अपने साथी सुन्दरलाल द्वारा प्रश्न पूछने पर पुनः मनोहर समझाता है। आप लोग जो रिश्वत लेते है, यह भी तो भ्रष्टाचार ही है। आप लोग रिश्वत लेना बन्द कर दीजिए। ऐसा करके हम लोग कम से कम अपने दफ्तर में तो भ्रष्टाचार खत्म कर ही सकते हैं।08 अपने अध्यापक मित्र सुधीर राजौरा को समझाते हुए मनोहर कहता है - तुम अध्यापक हो। बच्चों को समाज पर रिश्वत के दुष्प्रभावों के बारे में बताकर उन्हें प्रेरित कर सकते हो कि बड़े होकर जब वे नौकरी पर जाएँ तो रिश्वत नहीं लें।09 मनोहर समस्या की जड़ पर प्रहार करना चाहता है।

इस प्रकार उत्कोच या रिश्वत की समस्या को आधार बनाकर यह उपन्यास लिखा गया है। परन्तु लेखक की पैनी दृष्टि समाज की अन्य बुराइयों को भी नजरअन्दाज नहीं कर सकी है। जातीय विषमता, वर्गीय विषमता, सामाजिक विषमता व आर्थिक विषमता किस प्रकार एक-दूसरे में गुंथे हुए हैं, इसे लेखक ने भलीभांति दर्शाया है। यथास्थान जाति संबंधी, आरक्षण संबंधी व स्त्री जीवन की समस्याओं का भी चित्रण हुआ है। यह उपन्यास डॉ0 कर्दम के लेखन की विविधता को दर्शाता है।

उपन्यास की भाषा अत्यंत सरल व सहज है। आवश्वकतानुसार अंग्रेजी, उर्दू, आदि शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। मनोहर की माँ के संवाद, श्यामा की मृत्यु व अंत्येष्टि क्रिया के दृश्य भावुक कर जाते है। उत्कोच या रिश्वत भ्रष्टाचार का बीज है। भ्रष्टाचार से पूरा भारतीय समाज त्रस्त है। यह किसी एक वर्ग की समस्या नहीं है। उम्मीद है कि उपरोक्त उपन्यास को किसी विशेष साहित्य की चौखट में कसने की बजाय मुक्त रूप से पढ़ा व सराहा जाएगा।

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संदर्भ

1 - डॉ0 जय प्रकाश कर्दम, 'उत्कोच' पृ0-87 पहला संस्करणः 2019, प्रकाशकः राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड जी-17, जगतपुरी दिल्ली- 110051

2 - 'भ्रष्टाचार की कहानी बहुत पुरानी' https/m.jagran.com/bihar 19 अक्टूबर 2012

3 - प्रेमचन्द्र 'नमक का दारोगा' premchand.co.in>namak-ka-daroga

4 - डॉ0 जयप्रकाश कर्दम 'उत्कोच' पृ0- 76

5 - वही पृ0- 68

6 - प्रेमचन्द 'सेवासदन' पृ0- 09 धीरज पॉकेट बुक्स।

7 - डॉ0 जयप्रकाश कर्दम 'उत्कोच' पृ0- 64।

8 - वहीं पृ0- 64

9 - वहीं पृ0- 122

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