(कलाकृति - एस. मरकाम) -- चंचलिका हर दिन, नया दिन अनावृत मन को अवगुंठित न करो.. रहने दो यूँ ही निरंकुश बहने दो कलकल छलछल झरने की तरह.....
(कलाकृति - एस. मरकाम)
--
चंचलिका
हर दिन, नया दिन
अनावृत मन को
अवगुंठित न करो..
रहने दो यूँ ही निरंकुश
बहने दो कलकल छलछल
झरने की तरह...
चहकने दो वातायन को ।
शब्दों का गुंजित आयाम
मन को सुकून देता है......
सुबह के खुशनुमा पल ने
आगाज़ किया है ।
आलस्य को छोड़ो ,
पहचानो , लोगों की कर्मठता ।
जुट जाओ साथ साथ उनके
यह पल दुबारा न आयेगा
हर दिन , एक नया दिन
नये दिन का सम्मान करो......
बहुत कुछ देता है वह ।
रहमत का शुक्रिया अदा करो ।
विश्वास , लगन से मिलता सब कुछ
अविश्वास से सब कुछ छिन जायेगा ।
भरोसा रखो खुद की मेहनत पर
एक वही शक्तिमान साथ है
जो सच्ची राह दिखाता है......
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शालू मिश्रा
--(स्वागतम् 2020)
पल पल बीत गया
इस वर्ष को
सहेज कर यादों में ।
नव वर्ष का
हृदय से करे स्वागत
महकती सी कल की
नई भोर में ।
सुख की नूतन अभिलाषा लेकर अपने चित्त में,
मिले अपार सफलता
नव उमंग लिए राह में।
बना हौसलों की नई
उङान बह चलें समीरमय
समय की धारा में,
फिर एक बार
कालचक्र की
अनजानी राह पर
थाम नई उम्मीदों की डोर में।
शुरू करें एक
नया सफ़र
एक बार फिर से
नव वर्ष की ओर चलने में......
आपको नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ
युवा कवयित्री/अध्यापिका
रा.बा.उ.प्रा.वि.सराणा
(जालोर)
शालू मिश्रा
नोहर (हनुमानगढ़)
राजस्थान
00000000000000000
दोहे रमेश के नववर्ष पर
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चला वर्ष उन्नीस भी , छोड सभी का साथ ।
हमें थमा कर हाथ में,. नये साल का हाथ ।।
पन्नों में इतिहास के, लिखा स्वयं का नाम ।
चला वर्ष उन्नीस भी , यादें छोड़ तमाम ।।
आने को मुस्तैद है ,.... ... नया नवेला वर्ष ।
दिल में सबके प्यार का, दिखे उमड़ता हर्ष ।।
चला वर्ष उन्नीस भी , खेल कई नव खेल ।
हुए बरी कुछ लोग तो, गए भ्रष्ट कुछ जेल ।।
मेरी है प्रभु आपसे, यही एक अरदास ।
नए वर्ष में देश में, घर घर हो उल्लास ।।
जाते-जाते साल यह, करा गया अहसास ।
नेताओं पर कीजिये, . नहीं मित्र विश्वास ।।
हो जाए अब तो विदा,... कलुषित भ्रष्टाचार ।
आई है इक बार फिर, बहुमत की सरकार ।।
ज्यों पतझड़ के बाद ही,आता सदा बसंत ।
खुशियां नूतन वर्ष में, सबको मिलें अनन्त ।।
पूरा हमें यकीन है , शासन से इस बार ।
नया पिटारा हर्ष का, देगी कुछ सरकार ।।
बदली है तारीख बस, बदले नहीं विचार ।
नए साल का कर रहे ,नाहक ही सत्कार ।।
जाते जाते हो गया , पिछला साल उदास ।
बन जाऊंगा शीघ्र ही, बोला मैं इतिहास ।।
मदिरा में डूबे रहे, …लोग समूची रात ।
नये साल की दोस्तों, यह कैसी शुरुआत ।।
नये साल का कीजिये, जोरों से आगाज ।
दीवारों पर टांगिये, .नया कलैंडर आज ।।
ढेरों मिली बधाइयाँ,........बेहिसाब संदेश ।
मिली धड़ी की सुइंयाँ,ज्यों ही रात "रमेश" ।।
नये साल की आ गई, नयी नवेली भोर ।
मानव पथ पे नाचता,जैसे मन में मोर ।।
आयेगा नववर्ष में, . ..शायद कुछ बदलाव ।
यही सोच कर आज फिर, कर लेता हूँ चाव ।।
घर में खुशियों का सदा,. भरा रहे भंडार ।
यही दुआ नव वर्ष मे,समझो नव उपहार ।।
ऱिश्ता वो जो टूटकर,हुआ अलग इस साल ।
हो जाए नववर्ष में, .....शायद पुन: बहाल ।।
देना है नव वर्ष में,........उनको भी अंजाम ।
नहीं मुकम्मल हो सके,,विगत वर्ष जो काम ।।
घर में खुशियों का सदा,. रहे भरा भंडार ।
यही दुआ नव वर्ष में,समझो नव उपहार ।।
रमेश शर्मा,
मुंबई ,
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आलोक कौशिक
(1) *कुछ ऐसा करो इस नूतन वर्ष*
शिक्षा से रहे ना कोई वंचित
संग सभी के व्यवहार उचित
रहे ना किसी से कोई कर्ष
कुछ ऐसा करो इस नूतन वर्ष
भले भरत को दिलवा दो सिंहासन
किंतु राम भी वन ना जायें सीता संग
सबको समान समझो सहर्ष
कुछ ऐसा करो इस नूतन वर्ष
मिलें पुत्रियों को उनके अधिकार
पर ना हों पुत्रवधुओं पर अत्याचार
ईर्ष्या रहित हो हर संघर्ष
कुछ ऐसा करो इस नूतन वर्ष
मनुष्य महान होता कर्मों से
देश श्रेष्ठ होता हर धर्मों से
हो सदैव भारत का उत्कर्ष
कुछ ऐसा करो इस नूतन वर्ष
....................
(2) *कवि हो तुम*
गौर से देखा उसने मुझे और कहा
लगता है कवि हो तुम
नश्तर सी चुभती हैं तुम्हारी बातें
लेकिन सही हो तुम
कहते हो कि सुकून है मुझे
पर रुह लगती तुम्हारी प्यासी है
तेरी मुस्कुराहटों में भी छिपी हुई
एक गहरी उदासी है
तुम्हारी खामोशी में भी
सुनाई देता है एक अंजाना शोर
एक तलाश दिखती है तुम्हारी आँखों में
आखिर किसे ढूंढ़ती हैं ये चारों ओर
....................
(3) *प्रेम दिवस*
चक्षुओं में मदिरा सी मदहोशी
मुख पर कुसुम सी कोमलता
तरूणाई जैसे उफनती तरंगिणी
उर में मिलन की व्याकुलता
जवां जिस्म की भीनी खुशबू
कमरे का एकांत वातावरण
प्रेम-पुलक होने लगा अंगों में
जब हुआ परस्पर प्रेमालिंगन
डूब गया तन प्रेम-पयोधि में
तीव्र हो उठा हृदय स्पंदन
अंकित है स्मृति पटल पर
प्रेम दिवस पर प्रथम मिलन
....................
:- आलोक कौशिक
संक्षिप्त परिचय:-
नाम- आलोक कौशिक
शिक्षा- स्नातकोत्तर (अंग्रेजी साहित्य)
पेशा- पत्रकारिता एवं स्वतंत्र लेखन
पता:- मनीषा मैन्शन, जिला- बेगूसराय, राज्य- बिहार, 851101,
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सचिन राणा हीरो
"नए साल पर कुछ ऐसा, मेरा भारत हो जाए"
भाईचारे का प्रेम रहे, टूटता कोई ख्वाब ना हो,
गंगा जमुनी भूमि पर, नफरत का सैलाब ना हो,
देश के हर कोने में, अमन चैन अब हो जाए,
नए साल पर कुछ ऐसा, मेरा भारत हो जाए,
हर घर में बुजुर्गों के, शोभा पाते शुभ पांव रहे,
बूढ़े दरख्त के पत्ते, हर घर में देते छांव रहे,
मां-बाप किसी भी घर से, वृद्धाश्रम को ना जाएं,
नए साल पर कुछ ऐसा, मेरा भारत हो जाए,
बेटी कोख में भी ना डरे, हमें ऐसा माहौल बनाना है,
बेटी की इज्जत कैसे हो, हमें बेटों को समझाना है,
हंसती बेटी आजाद रहे,क़ैद में घुट कर मर ना जाए,
नए साल पर कुछ ऐसा, मेरा भारत हो जाए,
सचिन राणा हीरो(कवि व गीतकार)
हरिद्वार उत्तराखंड
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बृजेन्द्र श्रीवास्तव "उत्कर्ष"
नया सबेरा
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नए साल का, नया सबेरा,
जब, अम्बर से धरती पर उतरे,
तब, शान्ति, प्रेम की पंखुड़ियाँ,
धरती के कण-कण पर बिखरें,
चिडियों के कलरव गान के संग,
मानवता की शुरू कहानी हो,
फिर न किसी का लहू बहे,
न किसी आँख में पानी हो,
शबनम की सतरंगी बूँदें,
बरसे घर-घर द्वार,
मिटे गरीबी,भुखमरी,
नफरत की दीवार,
ठण्डी-ठण्डी पवन खोल दे,
समरसता के द्वार,
सत्य,अहिंसा,और प्रेम,
सीखे सारा संसार,
सूरज की ऊर्जामय किरणें,
अंतर्मन का तम हर ले,
नई सोच के नव प्रभात से,
घर-घर मंगल दीप जलें//
भवदीय,
बृजेन्द्र श्रीवास्तव "उत्कर्ष"
206, टाइप-2,
आई.आई.टी.,कानपुर-208016, भारत
0000000000000000
निज़ाम- फतेहपुरी
ग़ज़ल- 122 122 122 122
अरकान- फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
चमन में गया दरबदर मैंने देखा।
लबे गुल पे ख़ूने जिगर मैंने देखा।।
तुम्हें खुद से जब बेख़बर मैंने देखा।
तभी दो घड़ी भर नज़र मैंने देखा ।।
जुनू है निगाहों का धोखा है क्या है।
तुम्हीं तुम खड़े हो जिधर मैंने देखा।।
बिखेरी जो तुमने ये ज़ुल्फें घनेरी।
घटा छा गई हर डगर मैंने देखा ।।
भुलाने का मतलब तो है याद करना।
भुला कर तो शामो सहर मैंने देखा।।
मिला शाह राहों के पीछे अंधेरा।
कई रात सारा नगर मैंने देखा।।
जो थकते न थे मेरी तारीफ़ करते।
न रोए मेरी मौत पर मैंने देखा।।
हक़ीक़त समझ ली है दुनिया की जिसने।
वो ख़ामोश है इस कदर मैंने देखा।।
था कांधा भी अपना जनाज़ा भी अपना।
अजब अपनी रोशन क़बर मैंने देखा।।
सुकूं क्यों है शहरे खमोशा मे यारों।
बशर का तो नन्हा सा घर मैंने देखा।।
निज़ाम इस जहाँ में कहाँ चैन दिल को।
परेशां यहाँ हर बशर मैंने देखा।।
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ग़ज़ल- 122 122 122 122
अरकान- फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
मुझे रास आई न दुनिया तुम्हारी।
परेशां तुम्हारा यहाँ है पुजारी।।
सुखी है वही जो ग़लत है जहाँ में।
सही आदमी बन गया है भिखारी।।
दरिंदे हैं बे-ख़ौफ़ कितने यहाँ पर।
सरेआम लुटती बाजारों में नारी।।
जो सौ में सवा सौ काहे झूठ यारों।
वही रहनुमा बन गया है मदारी।।
यही डर है सबको सही बोलने में।
कहीं घट न जाए ये इज़्ज़त हमारी।।
बड़ा तो वही है जो चलता अकड़ कर।
शरीफों का जीना जहाँ में है भारी।।
निज़ाम अब कहाँ जाए या रब बताओ।
भरी है बुराई से दुनिया ये सारी।।
निज़ाम- फतेहपुरी
ग्राम व पोस्ट मदोकीपुर
ज़िला-फतेहपुर ( उत्तर प्रदेश )
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डॉ सुशील शर्मा
उठो उठो तुम हे रणचंडी
गीत
आँखों में भर कर अंगारे
मन प्रतिशोध की ज्वाला हो।
आज प्रियंका को खाया है
हवस के कुकुरमुत्तों ने।
एक शेरनी को मारा है
नरपिशाच उन कुत्तों ने।
हर दिन ऐसी कितनी बेटी
लुटती सरे बाजारों में।
जाने कितने हवस के कुत्ते
बैठे हैं अँधियारों में।
कौन बचाएगा बेटी को
जब भक्षक रखवाला हो।
आज पिता की आँखें चिंतित
माँ की सारी नींद उड़ी है।
भाई का मन रहे सशंकित
विपदा कैसी आन खड़ी है।
बेटी नहीं आज तक रक्षित
किस समाज में हम जीते।
सोती सत्ता तंत्र निकम्मा
घूँट जहर के हम पीते।
गैरों की क्या करें शिकायत
जब दुश्मन घरवाला हो।
बेटी रामायण है घर की
बेटी है गीता का ज्ञान।
बेटी है कुरान की आयत
बेटी बाइबल का आख्यान।
बेटी तुम अब सशक्त बन जाओ
रणचंडी का रूप धरो।
ये समाज अब बना शिखंडी
अपनी रक्षा आप करो।
हे रणचंडी निकल पड़ो तुम
कर नरपशुओं की माला हो।
आज नहीं तुम अबला नारी
तुम सशक्त इंसान हो।
समता ओज सुरक्षा शुचिता
पूर्णशक्ति आधान हो।
कलयुग का महिषासुर देखो
तुमको आज नकार रहा है
उठो उठो तुम हे रणचंडी
समय तुम्हें पुकार रहा है।
होंठों पर जयघोष का नारा
अरु हाथों में भाला हो।
(डॉ प्रियंका रेड्डी को समर्पित )
000000000000000
ज्ञानंद चौबे
कैसा ये दाव है , कैसा ये भाव है ?
किसको कहे कोई ,कैसा स्वभाव है ?
इसका उसका किसका, ये प्रभाव है ?
बस इतना है पता ,उसका अभाव है ||
उथल - पुथल में , है जिंदगी |
उसके इर्द - गिर्द , है जिंदगी ||
कोई कैसे कहे,मुश्किल में है जिंदगी ?
कोई कैसे कहे , खुशहाल है जिंदगी ?
यहाँ - वहाँ सबका , मोल - भाव है |
बस इतना है पता ,उसका अभाव है ||
✒
0000000000000000
_"नरेंद्र भाकुनी"
अपने देश का गला घोंट कर
रक्त सा माहौल क्यों बनाते हो?
तिरंगा तो हाथ में लेकर जाते हो
तो बसें क्यों जलाते हो।
यह मुल्क मेरा भी और तेरा भी
फिर हम तो भाई हुए।
अशफाक, बिस्मिल्ला , भगत, चंद्रशेखर
एक साथ सहाय हुए।
पैगाम तो अमन और शांति का है
तो दूसरों का सर कुचलते क्यों हो?
यह देश है, नानक का, गौतम का
राम_ रहीम का, कृष्ण_ करीम का।
कहीं गुरुवाणी, बाईबिल
वेद_ पुराण पढ़ते हैं।
तो कहीं पर त्रिपिटक
कुरान रचते हैं।
जन्म लिया है इस माटी में तुमने और मैंने
तो नफरत की आह क्यों भरते हो?
मांग करो तो समन्वय का करो
देश का विरोध क्यों करते हो?
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सौरभ पाण्डेय
धधक रही इस ज्वाला को, शांत कराने आना होगा।
हे युवा शक्ति ,प्रेम पुष्प का,तुम्हें ही दीप जलाना होगा।
अतीत का वंदन करने में, आज की विषम परिस्थिति है,
न भविष्य भाग्य के चिंतन की, दिखती अपनी यह दुर्गति है।
इतिहास उठा के देखो तुम, हम दोनों की हार हुई,
उन गोरों के चंगुल में, कितनी ही तकरार हुई।
क्या नवाब, क्या राजपूत, क्या गाँधी, क्या गफ्फार हुए,
उन षड्यंत्रों के शिकार, कितने वीर हजार हुए।
प्रारम्भ हुआ था ऐसे ही, यही दंभ उन सबमें था,
मैं वीर, मैं महावीर, यही संकल्प सर्वोपरि था।
अभी समय है अपनी ही, गलती से कुछ सीखो तुम,
मत राग अलापो उस अतीत का, नियति भविष्य को देखो तुम।
यह वैमनस्य , यह द्वेष भाव, सब छोड़ो कुछ विश्राम करो,
फिर उठो चलो एक प्रज्वल पथ को, हे पथिक प्रस्थान करो।
सौरभ पाण्डेय
गोरखपुर
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स्नेह
खुद के पैरों में खड़ी स्त्रियाँ
सबकी आँखों में खटकती है।
किसी को बददिमाग तो किसी को
चालाक नज़र आती हैं।
उनका तेज़ी से घर से निकलना
और थके कदमों से घर के अंदर आना
हर किसी को अभिनय मात्र लगता है।
उनका पुरुषों से बात करना,
उनके चालचलन पर अकसर अंगुली उठा जाता है।
अजी बाहर वालों की छोड़िए,
ये अंदर वालों की नज़रों में भी नज़र आता है।
अकसर बाहर से कठोर नज़र आने वाली
ये लड़कियाँ भीतर से कमज़ोर होती है।
रुपया पैसा ये तो हाथ का मैल है।
ये नौकरी वाली स्त्रियाँ,
सिर्फ प्यार और विश्वास की भूखी होती है।
उनका घर जल्दी आना
और कभी देर से आना भी
इस प्रश्न का इंतज़ार करता है
पहला
अरे !इतनी जल्दी !कहाँ गयी थी?
दूसरा
अरे ! इतनी देर ! कहाँ से आ रही हो?
और ये पूछने वाली भी उनकी अपनी
कौम की ही स्त्रियाँ होती है।
पलट के सही जवाब देते हुए
वाक़ई में वे स्त्रियां,
अब बददिमाग स्त्रियाँ हो जाती हैं।।।।
स्नेह (सर्वाधिकार सुरक्षित)
00000000000
अशोक कुमार
आग देश प्रेम की न बुझने देंगे
नमन सभी वीरों को
देश प्रगति रुकने न देंगे
शान तिरंगे की झुकने न देंगे
आग देश प्रेम की न बुझने देंगे
तन समर्पित मन समर्पित धन समर्पित तुझे
साहस करके ,आगे बढकर जो बाजी मारी है
संकट हो या दुख महान हर पल होंठों पर मुस्कान हमारी है
अब तक दुश्मन पर नभ ,थल, जल सेना भारी है
छलक रहे थे जो आँसू ,दीपक बनकर वो चमकेंगे
देशनिर्मित हथियारों से दुश्मन छाती छलनी कर देंगे
है कसम गंगे माँ की एक इंच भू भी कम न होने देंगे
आग देश प्रेम की कम न होने देंगे
जिसने अब तक दीन सताए ,वो दया कैसे दिखाए
जो खून पशुओ का पीता हो ,उसे दर्द पराया क्या भाए
अब तो श्री कृष्ण ने भी भ्रकुटि तानी है
धन्य तू माँ भारती न तेरा कोई सानी है
मैं मौन का उपासक विध्नेशवर लेखनी मेरी धन्य कर दे
करूं माँ भारती की मरते दम तक सेवा ऐसा मुझको वर दे
INDIA 24-11-2019
©®
ASHOK KUMAR
(Principal )
BARAUT BAGHPAT
00000000000000
सीताराम पटेल सीतेश
धान
किसानों के लिए
धान सोना है
उसको पाने के लिए
अपना सारा सुकून खोना है
रात दिन वर्षा धूप ठंड में
कड़ी मेहनत करता है
पुआल सा सड़ता है
खाद बनता है
और भूमि की उर्वरता बढ़ाता है
तब जाकर चार अंगुल
पेट भर पाता है
भुंइया के भगवान
माटी में लोटता है
कीचड़ में सनाता है
पसीना में नहाता है
तभी उसका सोना
खेत में सुनहला लहलहाता है
पैर और भूमि में
अद्भुत समानता है
दोनों एक दूसरे से मिले महानता है
दोनों नंगे और फटे हैं
इसीलिए समाज से कटे हैं
सम्मान और हक
किस चिड़िया का नाम है
ये नहीं जानते हैं
जिव्हा को ही जीवन मानते हैं
पीठ और पेट एक दूसरे से सटे हैं
फिर भी जिजीविषा का पहाड़ा रटे हैं
फटे पैर और फटे भूमि देखकर
वह तनिक भी विचलित नहीं होता है
खलिहान के पर्णकुटी में
रात को पुआल पर सीना तान के सोता है
अपनी किस्मत पर वह कभी नहीं रोता है
अपने परिवार का भार
अपने पीठ पर ढोता है
उसे अपने बाहुबल पर अटूट विश्वास है
लगता वही सिकन्दर का पोता है
कौसलखंड को उसने धान का कटोरा बनाया है
चावल की मलिया का गीत सारा संसार गाया है
किसान हमारा भोला छत्तीसगढ़िया है
सत्ता के लिए उसका धान खरा सोना है
उसका कत्र्तव्य उस सोना के सही कीमत देना है
बाहर के हों या भीतर के हों
बिचौलिए से इनको बचाना है
ये इनका हक न मार दे
इसलिए सभी जगह पहरा बिछाते है
जिसे देखकर विपक्ष और बिचैलिए थर्राते हैं
उसका प्रचार भी वह गलत ढंग से कराते है
उन्हें लगता है
धान धान नहीं गांजा है
उन्हें नहीं पता ये धान
कौशल्या का बेटा राम हमारा भांजा है
इस भगवान का उस भगवान से नाता है
इनके बदौलत ही सब यहां खाता है
आज सारा संसार जिन्दा है
लोग उसी का कर रहे निन्दा है
भुंइया का बेटा ही इनका दर्द समझता है
बिचौलिए तो यहां दर्द का व्यापार करते हैं
किसानों से नकली प्यार करते हैं
किताबी कीड़ा बहीखाता लिखते हैं
कर्ज देकर डकारते हैं
उन्हें आत्महत्या को मजबूर करते हैं
वह अन्नदाता है
सबका विधाता है
सबको खिलाता है
बासी नून और मिर्चा उसके भाग आता है
नमक तेल लकड़ी के चक्कर में फंसाता है
उससे वह कभी उबर नहीं पाता है
वह धान उगाता है
दूसरा उसे गोदाम में सड़ाता है
कैसे दुर्भाग्य है इस देश का
सड़ाने वाला ही यहां सम्मान पाता है
ये जग सारा उनका गीत गाता है
हाथ पांव चले या न चले
पर इनका जबान चलता है
जबान के जादू से सबको छलता है
स्वयं स्वर्ग के समान पलता है
किसानों को नर्क में पलने को मजबूर करता है
स्वर्ग नर्क का भोग
दोनों इसी धरती में भोगते हैं
पाप पुण्य धर्म अधर्म कह डराते हैं
खुद पाप अधर्म का खाते हैं
सभी बुरा काम इन्हें भाते हैं
राजहंस सा हमें चुनना है
अपने भीतर से हमें गुनना है
हमें सदा सत्कर्म करना है
समाज के सारे अंगों का
हमें विकास करना है
तभी हमारा देश आगे बढ़ेगा
- सीताराम पटेल सीतेश
00000000000000000
आशुतोष मिश्र तीरथ
जब बेवफाई से कुछ ऊपर होगा नाम तुम्हारा आएगा
जब प्रेम की सजा तुमसे
मृत्यु कोई प्रेमी मांगेगा
तुम्हें भूलने हेतु अंतस से
जान अपनी खूंटी टांगेगा
मर कर हर दिन हर पल
जिंदगी से वह भगेगा
खून सी उसकी आंखें होंगी
ज्वर से धधकता सा बदन
अस्ल में न गर्मी होगी न खून
न ही होगा चैनो अमन
जब जब बिन लकड़ी के लाश जलेगी सुन लो
हर उस प्रेमी के खून से नाम तुम्हारा लिखा जाएगा
जब प्रेम पत्र की जगह
प्रेमी के कैरियर की लाश जलेगी
अपने भविष्य को जलता देख
भारत माता चीख चीख रोएगी
प्रेमी के साथ उसके
मां बहन बापू की लाश जलेगी
एक बार जब फिर तेरे जैसे कुकृत्यों से
किसी प्रेमी की बली चढ़ेगी
भले वह प्रेम कुछ न कह पाए पर उसके खून से
सुसाइड नोट में जमाना तेरा नाम लिखा पाएगा
तुम चाहती तो प्रपोजल मेरा
अस्वीकार कर सकती थी
जैसे मर्जी तुम संग मेरे
व्यवहार कर सकती थी
पर तुमने संग मेरे कपट किया
जो नहीं किया उसका दण्ड दिया
जिस दिन कारनामों को तुम्हारे जानेगा बाप तुम्हारा
तुमको बेटी कहने से भी बाप तुम्हारा कतराएगा
आशुतोष मिश्र तीरथ
गोण्डा
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अनिल कुमार
'एक मौन छवि'
एक नारी माँ बनकर
कितने कष्ट उठाती है
माँ की महिमा इस जग में
सबसे न्यारी कहलाती है
सब माँ के उपकारों को जानते है
पर एक और छवि जीवन में
बिन पहचान के भी रह जाती है
जो करके समर्पण जीवन का
सब कुछ अपनी औलाद को देती है
और खामोशी से जीवन में
विपदों से निपटकर
मौन छवि चुप ही रहती है
नाम से जिसके पहचान बनी
मौन रहा जो अपने त्यागों पर
उस पिता को क्या कहूँ
क्यों न उसको मन से धन्यवाद करुँ
कष्टों का सागर पाकर भी
जिसने मुझको हँसना सिखाया
खुद हार गया बोजों से
पर चेहरे पे मेरे मुस्काया
देकर मुझको अमृत पीयूष
खुद गरल पी गया जीवन का
मन से शीश झुकाकर
नमन है उनको मेरा
जो पिता नहीं होते तो
क्या जीवन होता मेरा
पिता के इन उपकारों पर
मैं खुद को न्यौछावर करता हूँ
जिसने सब कुछ त्यागा मेरी खातिर
उनको मैं अभिनन्दन करता हूँ।
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'वजूद'
वजूद सबके यहाँ
टिके हुए हैं स्वार्थ के लिए
या फिर
डटे हुए हैं
वर्चस्व हासिल करने के लिए
टकरा रहे हैं
एक-दूसरे के व्यक्तित्व
एक-दूसरे के वजूद से
खोखले है सबके जमीर
हकीकत की जमीं पर
केवल दिखलाते
आसमान के घोड़े
कोरी बातों से
महानता का लिबास लिए
तर्क के विवादों तक
केवल आवरण है
अपनी छवि को दिखाने
और अपने वजूद को
दूसरों से बेहतर बतलाने का
सच का चेहरा
उनका नकली है
वे केवल बातों की
बादशाहत करते है
अपने वजूद को बनाने
और औरों के वजूद को
नीचे लाने के लिए..।
--
अनिल कुमार, वरिष्ठ अध्यापक 'हिन्दी'
ग्राम व पोस्ट देई, तहसील नैनवाँ, जिला बून्दी, राजस्थान
00000000000000000000
सत्यम तिवारी
फिर एक बार हैं आँखे नम
••••••••••••••••••••••••••••
इतनी देर लगा दी तुमने
किस गलती की सजा दी तुमने,
एक लफ्ज़ में कहना साथी
जब बादल तुमने बुलवाए
क्यों बरसात भुला दी तुमने..
गलत अकेले मैं ही हूँ तो
क्या पूरी दुनिया वेली है,
साथी हाथ बढ़ाना कहकर
काफी अच्छा खेल गयी है,
लोगों ने बस चारा फेंका
लेकिन आग लगा दी तुमने..
देखो साथी चीज़ भयानक
ये बारिश भी होती है,
ख़ुदी गरज़कर ख़ुदी मचलकर
आखिर में खुद रोती है,
ऐसे ही फिर गरज़ के एक दिन
बूंदें चार बहा दी तुमने..
मैं आया था जिसे बचाने
तुमने उसका क़त्ल किया फिर,
ख़ुदी इंतल्ला कर लोगों को
खंज़र हाथ थमा दी मेरी,
तुमको सबसे अलग था जाना
पर औकात दिखा दी तुमने..
दुख़ ने जिस से नजर मिलाई
उसका घर रंगीन किया है,
ये तो ग़लती सुख की है न
अगर तुम्हारे शहर न आई,
फिर एक बार हैं आँखें बादल
किसकी ग़ज़ल सुना दी तुमने।।
© सत्यम तिवारी (वाराणसी)
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सुधांशु रघुवंशी
होता है विरह के पृष्ठ में कोई ना कोई भव्य हेतु...
निर्मित ना होता अन्यथा जलधि पर पत्थर का सेतु..
ये महिमा राम की ना थी , ना क्षमता नील और नल की..
विरह की अग्नि ने ही थाह ले ली सिंधु के जल की।
विरह के काल में बस, तुम इतना समझ लेना...
की हाँ तुम हो गई गंगा , मैं हिम का धाम हो गया हूँ,
सिया तुम हो गई कुछ क्षण,मैं कुछ क्षण राम हो गया हूँ!
मनुज जब दग्ध होता है कड़े अभिशाप से
धरणी जल रही होती है दिनकर ताप से
पागल,शुष्क होते हैं पौधे , जीव-जंतु सब
धरा तब शांत होती है , विरह के भाप से
नदियां जो बिछड़ती हैं , भू से मेल होता है
कोई पटरी है बनता , तो कोई रेल होता है
नदी का रूप जो है वाष्प, बादल बन ही जाता है,
कोई बिछड़े किसी से तब , वो पागल हो ही जाता है।
पूर्ण होता नहीं किन्तु ,बिछड़ कर मिल नहीं पाना,
कोई आता है जाता है , तुम भी लौट कर आना...
नदी का जल,प्रयासों से भी भू का हो नहीं पाता,
किंतु हाय! कदाचित् वह विरह में रो नहीं पाता।
सभी हर्षित हैं हो जाते ये अद्भुत जब मिलन होता ...
लेकिन फूट पड़ता है , नदी-क्रन्दन का एक सोता...
मिलन की जब घड़ी आती, तो क्रन्दन खूब करती है...
वसुधा से बिछड़ने से पुन: नदी खूब डरती है।
शीतल हो गई धरती औ हल्का हो गया अम्बर ,
कही ना पर कहीं नदी को, सताता है विरह का डर ,
इस अवांछित निराशा की ही आशा में..
नदी सागर में आत्महत्या कर ही जाती है
असल में! वसुधा से बिछड़ने के भय ,
अनिच्छा से , अंतत: मर ही जाती है!
विरह के काल में तुम भी बस इतना समझ लेना की
तुम , हो गई हो तुम और मैं कुछ क्षण आप हो गया हूँ
धरा तुम हो गई कुछ क्षण, मैं कुछ क्षण भाप हो गया हूँ !
[सुधांशु रघुवंशी]
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मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
माँ मेरी
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माँ मेरी अपने मन में बसाऊँ तुम्हीं को |
हृदय में भगवान बना के बिठाऊँ तुम्हीं को ||
मेरी साँसें
मेरी धड़कन
सब तुम्हारी दी हुईं...
माँ तुम्हीं से मेरा जीवन बना अभय है |
माँ तुम्हारी ममता से मेरा पल-पल प्रेममय है ||
तुमने किनारा दिखाया
मुझको चलना सिखाया
मिला मुझको सहारा...
जब भी पीड़ा हुई मुझको, माँ तुमको पुकारा |
तुमने सदा ही मुझको हर दुःख-पीड़ा से उबारा ||
तुम्हारे बिना
विरह सागर में
गोता लगाना पड़ेगा...
माँ मेरी अपने मन में बसाऊँ तुम्हीं को |
हृदय में भगवान बना के बिठाऊँ तुम्हीं को ||
मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
ग्राम रिहावली, डाक तारौली गूजर,
फतेहाबाद, आगरा, 283111
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खान मनजीत भावड़िया मजीद
आजकल
आजकल सभी जगह मुझे
इंसान दिखाई नहीं देते
यह पता नहीं क्यों
इसके पीछे क्या हाथ है
वही हवस के शिकारी
लड़कियों के पीछे भागते रहते हैं
जैसे इन्होंने कभी लड़कियां देखी नहीं
क्यों ऐसा करते हैं
इस अपने समाज में
मुझे कोई बता तो दे
सोचे कि जवान जवान का ही हवस करता है
पर उसके बारे में कैसे सोचे
जिसने दुनिया के कुछ ही साल देखे हैं
3 या 4 साल
वह हवस के पुजारी
तीन-चार साल की लड़की को
भी नहीं बख्शते
क्या यही हमारा समाज है
या फिर वह 80 साल की
वृद्ध औरत
उसको भी नहीं बख्शते
यह कब तक होता रहेगा
मुझे इस जहालत की दुनिया से
कैसे निजात पा सकता हूं
है इसका कोई जवाब
मेरे मन में बहुत सारे सवाल है
वह यह सवाल है
किस जवान लड़का जवान लड़की से
मोहब्बत भी कर सकता है
प्यार प्रेम की बातें भी कर सकता है
उसके साथ रात भी बिता सकता है
पर वह 2व3 साल की लड़की
अर वो 70-80 साल की बुढ़िया
क्या चल रहा है दिमाग में
अपने मुल्क लोगों में
मुझे समझ में नहीं आता
आए दिन
पूरा अखबार
इन समाचारों का भरा रहता है
क्या करें
है कोई इसका जवाब
या फिर समय परिवर्तन है
पता नहीं
मुझे नहीं समझ में आ रहा
क्या बताऊं
मेरे मुल्क के लोगों
अब मैं भी थक गया हूं
सुनते सुनते कहते कहते
पर इसका जवाब नहीं
हर रोज
सुबह से लेकर शाम तक
मेरे दिमाग में
हजारों प्रश्न घूमते हैं
उन प्रश्नों का उत्तर नहीं है
क्या करें
आखिर क्या है इनका जवाब
मुझे बताओ.....................
खान मनजीत भावड़िया मजीद
गांव भावड तहसील गोहाना जिला सोनीपत
हरियाणा
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कवि संजय कुमार श्रीवास्तव
के
मुक्तक
1 . सितारों की पनाहों में
अगर, कोई शाम मिल जाए
गुमराह सी इस दुनिया में
कोई पहचान मिल जाए
मेरे यारों की यारी को ,हमेशा यार मिल जाए
दीवानों को दीवानी का, तुरत दीदार हो जाए
2 . बरसना है तो बरसो तेज
अन्यथा तुम चले जाओ
यूं ही तुम फुहारों से हमें ना याद दिलवाओ
जो बीते कल का सपना था ,
जो बीता कल भी अपना था
देखते रह गए नैना ,सुना कुछ भी नहीं पाए ,
सुना में भी नहीं पाया ,नहीं पाया
3. प्रेम की आग इंसां को
जला अंदर ही देती है
नदी में लाख कूदो पर
बुझा वो भी न पाती है
जिन्होंने आग दी तुमको , उसी से शांत होती है
मिले जब दिल से दिल यारों ,तभी वो आग बुझती
4. गुमसुद जो बैठा रहता है
उसकी ये पहचान है
या फिर उसे सब कुछ आता है
या फिर ओ अनजान है
लोग समझते है उसको ,इसे नहीं कुछ आता
तुम क्या जानो उसके मन की ,तुम से बड़ा हो सकता
शायरी
अब वो बदले बदले से लगते हैं
फोन करो तो टाइम नहीं कहते हैं
पता नहीं क्या हो गया उनको
जो सरे आम बादनाम किया करते थे
मुझे तेरी हर अदा पसंद आती है
तू बात न करे तो दिन में शाम हो जाती है
ये महबूब तू इस कदर न तड़पा मुझे
बस दो साल की ही तो बात है फिर तो चले जाना है
किसी के साथ जो की थीं वफ़ाएं याद करती हैं,
हमारी धूप को ठंडी हवाएं याद करती हैं.
कभी होंठों से हमने उनकी बूंदों को नहीं छूआ,
हमारी प्यास को अब वो घटाएं याद करती हैं
कवि संजय कुमार श्रीवास्तव
मंगरौली
धौरहरा (खीरी)
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नीरज जांगिड़
जब बादल आएंगे तो पानी की जिद करूँगा ,मान जाएंगे
अगर नहीं माने तो ?
जब खेत जुतेंगे, साहूकार के यहां नाक रगडूंगा ,कुछ उधार मिल जाएगा
अगर नहीं मिला तो ?
जब बीज कम पड़ेंगे तब घर का अनाज खपा दूंगा ,अगले बरस फिर आ जायेगा
अगर नहीं आया तो ?
जब पानी देना होगा फसल को तो खुद प्यासा रह जाऊंगा
अगर फिर भी फसल की प्यास न भुजी तो ?
जब अंधड ओर पाला आया बिगाड़ा करने तो रोक दूंगा उन्हें
अगर नहीं रुके तो?
जब सुनहरी हो जाएगी फसल तो रातें रखवाली में गुजार दूंगा
अगर नींद लग गई तो ?
नीरज जांगिड़
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प्रिया देवांगन "प्रियू"
कछुआ और खरगोश
कछुआ और खरगोश में ,
हुई दोनों में रेस ।
बहुत घमण्डी था खरगोश ,
मारता था वह टेस ।
दोनों में एक बात चली,
चलो लगाएँ रेस।
हाथी आया बंदर आया ,
आया जंगल का राजा।
चिड़िया रानी गाना गाई,
लोमड़ी बजाया बाजा।
दोनों निकल पड़े रेस में,
खरगोश दौड़ लगाया ।
धीरे धीरे कछुआ चलकर,
मंद मंद मुस्काया।
थक कर बैठा खरगोश राजा,
खाने लगा वह गाजर।
खाते खाते वहीं सो गया,
नाक बजा बजा कर।
कछुआ आया धीरे धीरे ,
देखा खरगोश को सोते।
निकल पड़ा वह आगे भैया
खुश होते होते।
नींद खुली जब खरगोश का,
फिर से दौड़ा होकर खुश ।
जीत गया कछुआ राजा
ख़रगोश को हुआ दुःख।
आया जंगल का राजा ,
कछुआ को दिया पुरस्कार ।
घमंडी एक खरगोश का ,
हो गया तिरस्कार ।
रचना
प्रिया देवांगन "प्रियू"
पंडरिया (कवर्धा)
छत्तीसगढ़
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