प्रांत -प्रांत की कहानियाँ (हिंदी-सिन्धी-अंग्रेजी व् अन्य भाषाओँ की कहानियों का अनुवाद) देवी नागरानी भारतीश्री प्रकाशन, दिल्ली-110032 Prant ...
प्रांत-प्रांत की कहानियाँ
(हिंदी-सिन्धी-अंग्रेजी व् अन्य भाषाओँ की कहानियों का अनुवाद)
देवी नागरानी
भारतीश्री प्रकाशन, दिल्ली-110032
Prant Prant Ki Kahaniyaan
—Year: 2018
—Price: Rs. 400
—Pages: 150
—ISBN-978-81-88425-79-2
—Prakashan: Bharat Shree
11/19 Patel Gali, Vishwa nagar, shahdara, Delhi 110032
अनुक्रम
फिर छिड़ी बात.. -रमेश जोशी 7
अहसास के दरीचे.... -डा. रेनू बहल 10
भूमिका -कविता वाचक्नवी 13
देश में महकती एकात्मकता -देवी नागरानी 18
1. ओरेलियो एस्कोबार (गर्शिया मारकुएज) -मेक्सिकन 21
2. आबे-हयात (नसीब अलशाद सीमाब) -पश्तू 24
3. आखिरी नज़र (वाहिद ज़हीर) -बराहवी 28
4. बारिश की दुआ (आरिफ़ जिया) -बराहवी 31
5. बिल्ली का खून (फरीदा राज़ी) -ईरानी 34
6. खून (भगवान अटलाणी) -सिन्धी 38
7. दोषी (खुशवंत सिंह) -उर्दू 47
8. घर जलाकर (इब्ने कंवल) -उर्दू 54
9. गोश्त का टुकड़ा (जगदीश) -ताशकंद 58
10. कर्नल सिंह (बलवंत सिंह) -पंजाबी 66
11. कोख (अरुणा जेठवाणी) -अंग्रेजी 78
12. द्रोपदी जाग उठी (रेणु बहल) -पंजाबी 84
13. क्या यही ज़िंदगी है(डा. नइमत गुलची) -बलूची 97
14. महबूब (मैक्सिम गोर्की) -रूसी 103
15. मुझपर कहानी लिखो (द. ब. मोकाशी) -मराठी 109
16. सराबों का सफ़र (दीपक बुड्की) -उर्दू 117
17. तारीक राहें (अली दोस्त बलूच) -पश्तू 123
18. उल्लाहना (हेनरी ग्राहम ग्रीन) -ब्रिटेन 130
19. उम्दा नसीहत (हमरा ख़लीक़) -कश्मीरी 138
लेखक परिचय 113
फिर छिड़ी बात.....
आज जिस तरह से प्रगति और विकास के नाम पर आदमी उड़ा जा रहा है उसमें गति तो है लेकिन लक्ष्य नहीं दिखता। जब लक्ष्य नहीं तो दशा और दिशा दोनों ही अपरिभाषित और अस्पष्ट रहती हैं। ऐसे में अपने मूल्यों से चिपटे रहना या उन्हें अपनी साँसों में बसाए रखना दीवानापन कहा जा सकता है। लेकिन दिल और दुनिया दोनों की अपनी-अपनी जिद हैं।
आज शताब्दियाँ बीत जाने पर भी आदमी अपनी जड़ें ढूँढ़ता है। किताबों में रखे ख़त और गुलाब खोजता है। यही जुनून आदमी की ताक़त और यही उसकी कमजोरी है। भारत के इतिहास में विभाजन आज भी एक अविस्मरणीय त्रासदी है जिसे कोई भी प्रभावित व्यक्ति न तो जीवन भर भूल सकता है और न ही घटिया राजनीति उसे भूलने देगी। हाँ, दोनों के अनुभव अलग-अलग हैं। जिस तरह योरप का इतिहास और साहित्य दो विश्व युद्धों के इर्द-गिर्द घूमता रहा है वहीं इस उपमहाद्वीप का इतिहास और साहित्य भी विभाजन की त्रासदी के चारों ओर घूमता रहा है। यशपाल का दो भागों में लिखा विराट उपन्यास ‘झूठा सच’ इस त्रासदी का एक प्रामाणिक महाकाव्य है। टोबा टेक सिंह, मलबे का मालिक, सिक्का बदल गया, पानी और पुल आदि इस दर्द की कुछ प्रसिद्ध कहानियाँ हैं। आज भी उन यादों का दर्द, उन रिश्तों की खुशबू सारी पाबंदियों के बावजूद सरहदों के आर-पार बेखौफ आती जाती रहती है।
धीरे-धीरे भाषाओं की भिन्नता मुखर होती गई लेकिन इसके बावजूद संवेदनशील लेखकों और अनुवादकों के इस सिलसिले को टूटने नहीं दिया और आज भी जोड़ने में लगे हुए हैं। सिन्धी और पंजाबी भारत और पाकिस्तान की दो ऐसी भाषाएँ हैं जो पाकिस्तान और भारत की सरहदों के आरपार हवाओं की तरह बहती हैं। दोनों देशों में विशेषकर भारत में पंजाबी और सिन्धी भाषी लेखकों ने कभी इसे अपनी मातृभाषा तो कभी अनुवाद के माध्यम से संजोने और एक पुल बनाने की कोशिश ज़ारी रखी है।
आज इस क्षेत्र में जो लोग निरंतर सक्रिय हैं उनमें देवी नागरानी का नाम भी प्रमुख है। उन्होंने कविता, कहानी में मौलिक हिंदी और सिन्धी लेखन के अलावा दोनों भाषाओं में आपस में अनुवाद भी पर्याप्त किये हैं। दोनों देशों के साहित्यकारों के संपर्क में हैं और नैतिक मूल्यों पर आधारित रचनाओं का पारस्परिक अनुवाद कर रही हैं। भारत जैसे बहुभाषी देश में तो अनुवाद का महत्त्व सबसे ज्यादा है। इतनी भाषाओं में मूलरूप से सब कुछ पढ़ पाना तो किसी राहुल संकृत्यायन के वश का भी नहीं है। इसलिए अनुवाद का महत्त्व तो रहेगा ही। यदि अनुवाद का काम नहीं होता तो शायद यह दुनिया बहुत से ज्ञान से वंचित हो जाती।
यह सच है कि अनुवाद में वह बात नहीं आ सकती जो मूल भाषा में हम अनुभव करते हैं। समीक्षक इसे किसी दुभाषिये के माध्यम से किया जाने वाला प्रेम कहते हैं। पर प्रेम की शुरुआत तो हो। फिर यदि इश्क में कशिश हुई तो अपने आप कोई और बेहतर रास्ता निकाल लेगा। लेकिन यह भी सच है कि यदि अनुवादक उसी भाषा का हो और दोनों भाषाओं का ज्ञाता हो तो यह काम इतने सुन्दर और परिपूर्ण ढंग से कर सकता है कि मूल और अनुवाद का फर्क ही मिट जाए। देवी नागरानी के साथ यह संयोग है कि वे दोनों भाषाओं पर समान अधिकार रखती हैं और स्वयं रचनाकार भी हैं। इसलिए उनके किए अनुवाद पाठकों को निश्चित रूप से मूल रचना का सा आनंद देंगे।
उन्होंने इस कहानी संकलन के लिए जिन कहानियों का चयन किया है वह भी एक खास महत्त्व रखता है। इनमें नए और पुराने, बुज़ुर्ग और ज़वान दोनों प्रकार के कहानीकार शामिल हैं लेकिन एक समान बात सभी कहानियों में है कि ये कहानियाँ केवल लिखने के लिए नहीं लिखी गई हैं और न ही फैशन में आकर कोई विमर्श को इनमें ढोने का नाटक किया गया है। ये सब सरल मानवीय जीवन, संबंधों, आशाओं और आकांक्षाओं, उसकी कमजोरियों और ताक़तों की सजीव कहानियाँ हैं।
तो फिर फूलों की बात छिड़ी है, खुशबू की बात छिड़ी है। गुलाबों की खुशबू की। जिसमें कांटें भी हैं तो न भूल सकने वाली गुलाबों की खुशबू भी। रिश्तों और साहित्य की यही तो लज्ज़त है कि वे हर रंग में मज़ा देते हैं।
मेरा विश्वास है कि ये कहानियाँ पाठकों को बहुत दिनों तक याद रहेंगी। मैं सोचता हूँ कि पाठक मूल लेखकों के साथ अनुवादक को भी याद रखेंगे जिसकी मेहनत और चुनाव के बिना वे कैसे सरहदों के आर पार यह साहित्यिक यात्रा करते।
रमेश जोशी
प्रधान संपादक ‘विश्वा’,
अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति अमरीका की त्रैमासिक पत्रिका
4758, DARBY COURT, STOW., OH., U.S.A। 44224
email: joshikavirai@gmail.com
अहसास के दरीचे...
मुख्तलिफ मुल्कों, मुख्तलिफ सूबों की मिट्टी की सौंधी सौंधी खुशबू समेटकर देवी नागरानी जी ने एक नया गुलशन सजा दिया जिसमें बलूची, कश्मीरी, पंजाबी, हिंद-सिंध की सिंधी कहानियाँ, मराठी, ताशकंद, ईरान, इंग्लैंड, मेक्सिको, रूस व् लैटिन की महक से पाठकों को सरशार करने की भरपूर कोशिश की है। किसी ज़ुबान के अदब को पढ़ना समुद्र में गोता खाने से कम नहीं और फिर उस समुद्र से मोती चुन कर उसे उसकी असली सूरत को कायम रखते हुए हिंदी पाठकों के सामने पेश करना जो उस ज़बान के अदब से बिल्कुल नावाकिफ़ है, इस हुनर में देवी नागरानी को महारत हासिल है। अब तक उनके आठ कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं& ‘‘और मैं बड़ी हो गई, सिंधी कहानियाँ, सरहदों की कहानियाँ, पंद्रह सिन्धी कहानियाँ, अपने ही घर में, दर्द की एक गाथा, (सिन्धी से हिंदी, और बारिश की दुआ व् अपनी धरती (हिंदी से सिन्धी)। एक अच्छी कहानीकार और शायरा होने के साथ साथ देवी जी एक माहिर तर्जुमानिगार भी हैं, यह मैं नहीं कह रही, इस बात की गवाही उनका काम देता है।
इस संग्रह में उनकी 18 कहानियाँ शामिल हैं, जो भिन्न भाषाओं के परिवेश से परिचित करवा रही हैं। ‘आखिरी नज़र’ वहीद ज़हीर की ऐसी कहानी है जो चौकीदार की नफसीयात को बहुत खूबसूरती से बयान करती है। चौकीदारी की आदत से मजबूर बाप, अपनी जवान बेटी पर शक़ करने लगता है और उसकी चौकीदारी शुरू कर देता है। ‘मुझ पर कहानी लिखो’, मराठी के मशहूर कहानीकार मोकाशी की कहानी है। एक लड़की की ज़िन्दगी में कैसे कैसे उम्र और हालात के साथ सोच बदलती है, उसे बहुत दिलचस्प अंदाज में पेश किया है। ‘उलाहना’ ग्राहम ग्रीन इंग्लैंड की कहानी दो बुजुर्गों के ज़िन्दगी के हालात और उनकी ख्वाइशात का मुजाहरा करती है। मगरबी तहजीब का रंग भी इस में नुमायाँ है।
‘खँडहर’ गुनो सामतानी की सिंधी कहानी है जो दो बिछड़े हुए प्रेमियों को एक अरसे बाद आमने सामने कर उनके हालात और जज्बात की अक्काशी करती है। कहानी खूबसूरत भी है और उसका असलूब भी निराला है।
‘बारिश की दुआ’ आरिफ जिया की बलूची कहानी, एक मासूम बच्ची की मासूम कहानी है जिसकी सच्चे दिल से की हुई ‘बारिश न पड़ने की दुआ’ कबूल हो जाती है। ‘चोरों का सरदार’ हमारा खलीक़ की कश्मीरी कहानी है जो खासतौर से बच्चों के लिए लिखी गई है। ‘गोश्त का टुकड़ा’ जगदीश द्वारा लिखी ताशकंद की उर्दू कहानी है जिसमें इंसान की गरीबी, पेट की आग बुझाने की ज़रूरत, खानदान की जिम्मेदारी की भागदौड़ उसके सभी जज़बात खत्म कर देती है और धीरे-धीरे वह सिर्फ़ चलता फिरता गोश्त का टुकड़ा ही रह जाता है। कहानी की चन्द पंक्तियाँ दिल को छू जाती हैं।
‘अब माँ की ममता, बीवी के आँसू और बच्चे का प्यार उसके दिल की हरकत को तेज़ नहीं कर सकते थे। वह अब कटे हुए जानवर के गोश्त के टुकडे की तरह था जिस पर स्पर्श का कोई असर नहीं होता।’
‘कर्नल सिंह’ बलवंत सिंह की लिखी खूबसूरत उर्दू कहानी है जिसमें पंजाब की मिट्टी की खुशबू आती है, गांव की जिंदगी इस अंदाज से बयान की है कि सारी तस्वीरें आँखों के सामने घूमने लगती हैं। कहानी की पहली दो पंक्तियाँ ‘‘सिख जाट की दो चीजों में जान होती है&उसकी लाठी और उसकी सवारी की घोड़ी या घोड़ा।’’ इस कहानी का सार बहुत दिलचस्प अंदाज़ में कर्नल सिंह की खोई हुई घोड़ी की तलाश से शुरु होकर चोर तक पहुँच जाती है, और कर्नल सिंह मूछों को ताव देने के बजाय मूछों की छांव तले एक मासूम मुस्कुराहट बिखेरने पर मजबूर हो जाता है।
कहानियाँ चाहे किसी भी मुल्क की हों, किसी भी प्रांत की हों, जब तक वे आम जिंदगी से जुड़ी रहेंगी, लोगों के जज़्बात, उनकी परेशानियाँ, उनकी महरूमियाँ और मजबूरियाँ, उनकी मोहब्बत और उनकी नफरतों को बयान करती रहेंगी।
कहानियाँ इंसान की बनाई हुए सरहदों से परे हैं। इनकी मिटटी की महक मुख्तलिफ हो सकती है, मगर इनकी रूह की सरशरी एक सी ही है। देवी नागरानी जी को मेरी तरफ से ढेरों शुभकामनायें और दुआ करती हूँ कि वे इसी तरह पाठकों को अपनी साहित्य सफ़र की यात्रा में साथ साथ हमसफ़र बना कर आगे बढती रहेंगी।
डॉ. रेनू बहल
संपर्कः 1505, सैक्टर 49-बी,
चंडीगढ़-160047
विश्व कथा-साहित्य का सहज अनुवाद
कहानी की बात जब-जब उठती है, तो मुझे बचपन में सुनी हुई दादी-नानी की किस्सागोई और बच्चों को बहलाने-सिखलाने के लिए जीवन के किसी स्मरणीय, प्रेरणादायी, रोमांचक या रोचक प्रसंग/घटनाओं को अपने ढंग से कहने के दिन याद आते हैं। साहित्य जब पढ़ना प्रारम्भ किया था तो लगता था कहानी की परम्परा कुछ इसी तरह से प्रारम्भ हुई होगी, घटनाओं को इस तरह प्रस्तुत करना कि वह कलात्मकता के साथ रुचिपूर्ण-सुरुचिपूर्ण संवेदनात्मकता के साथ हो जाए और साथ ही धीरे-धीरे उनसे कुछ वैचारिक प्रेरणा भी मनुष्य ग्रहण कर सके।
साहित्य और विधाओं की सैद्धान्तिकी पर काव्य-शास्त्रियों की गम्भीर मीमांसाएँ और गवेषणाएँ लगभग प्रत्येक समुन्नत भाषा में कमोबेश उपलब्ध हो जाएँगी/जाती हैं। प्रकारान्तर से जीवन की जटिलताओं के बढ़ने के साथ-साथ विधाओं के विषय, शैली व कला रूपों में भी परिवर्तन हुए। किन्तु निस्सन्देह गद्य की सर्वाधिक प्रिय विधा के रूप में कहानी विश्व साहित्य की धुरी बनी हुई है। अन्तर यह आया है कि कल्पना या काल्पनिक जीवन की अटारी से हटकर कथा-साहित्य यथार्थ जीवन के धरातल पर अधिक दृढ़ता से आ खड़ा हुआ है। इस यथार्थ के प्रतिरूपण के मध्य, मूल्य और यथार्थ का द्वंद्व कहानीकार को कितना व कैसे घेरता है अथवा यथार्थ के चित्रण में वह अपनी कृति के लिए सीमा बाँधता है अथवा जानबूझ कर विद्रूप और मूल्यहीनता की चौहद्दियों को लाँघने में इसे चौंकाने वाले तत्व के रूप में सम्मिश्रित करने की भरसक चेष्टा से उसे ‘हटकर सबसे अनोखा किया’ का आनन्द आता है, यह विचारणीय है। आलोचना का ध्यान इस पर कितना जाता है और दूसरी ओर लेखक का हाशिए पर जीने वालों, अशक्तों तथा वंचितों के प्रति लगाव शिल्प में कितनी सहजता और अनौपचारिकता से रूपाकार पाता है, यह भी ज्ञातव्य होना चाहिए। कहानी के प्रचलित प्रतिमानों या तत्वों की औपचारिक उपस्थिति मात्र किसी घटना के कलात्मक निरूपण को कहानी बना सकने के लिए पर्याप्त नहीं रह गए हैं। कथावस्तु की प्रासंगिकता और कालोत्तरता कहानी को विशिष्टता देते हैं।
अनूदित कहानियों को पढ़ने पर मूल लेखक की भाषा की संरचनात्मक विशिष्टताओं तथा भाषिक व्यञ्जना का अनुमान लगाना सम्भव नहीं होता। यह कार्य अनुवादक की स्रोत भाषा पर पकड़ के स्तर के परिमाण में उसी के द्वारा सम्भव हो सकता है। अनुवादक से अपने प्राक्कथन में इसे इंगित करने की अपेक्षा पाठकों व आलोचकों को बनी रहती है।
देवी नागरानी द्वारा विश्व की विविध भाषाओं की हिन्दी में अनूदित कहानियों की पाण्डुलिपि मेरे हाथ में है। ये कहानियाँ पश्तो, बलूची, ईरानी, सिन्धी, कश्मीरी उर्दू, रूसी, पंजाबी, मराठी, मेक्सिकन, अंग्रेज़ी आदि भाषायी अंचलों का प्रतिनिधित्व करती हैं। विविध देशों, सभ्यताओं और भाषाओं में लिखी होने बावजूद एक बात इनमें समान है कि ये सभी मानव जीवन की दुरुहताओं और जटिलताओं को व्यक्त करती हैं। सम्वेदना के स्तर पर विश्वमानव और विश्वमानस समान हैं, उसके सुख-दुःख, आवश्यकता-अभाव, संवेग-पीड़ाएँ एक समान हैं; परिस्थितियाँ, घटनाक्रम, स्थान, काल और नाम भले भिन्न-भिन्न होते हैं।
संकलन की पहली कहानी के रूप में बलूची कहानी ‘आबे-हयात’ सन्तान शोक से कई बार गुजर चुकी इकलौते पुत्र की डरी हुई माँ की कहानी है, जो पुत्र को मृत्यु के स्थायी भय में पालती है और उस भय से पार होने का जो नुस्खा पुत्र अपनाता है, वह केवल वीरों की माँ जान सकती है। बलूचिस्तान के समाज पर निरन्तर होते अत्याचारों के समाचारों से परिचित होने के कारण पाठक की संवेदना कथा पढ़ते हुए विशेषतया अंत तक आते-आते विगलित-सी हो जाती है।
दूसरी कहानी भी बलूची कहानी ही है, पश्तो भाषा में कही गई ‘आखिरी नजर’ ; जो पुरुष के मन की सन्देह वृत्ति घातक परिणाम की सम्भावना को पुष्ट करती है। साधारण जीवन जीने वाले नागरिकों के जीवन के ऊहापोह की कहानी है। स्त्रियों को लेकर पुरुषों का मन आधुनिक समय में भी कुछ खास बदला नहीं है।
एक और बलूची कहानी ‘बारिश की दुआ’ झोंपड़ी में रहने वाली निर्धन बच्ची की कथा है जिसका निश्छल मन और स्मृति तथा संसार सब अभावग्रस्त जीवन की यातना से त्रस्त और आप्लावित है। लेखक ने मौलवी और प्रार्थना के बरक्स निरपराध बाल-मन की आस्था को रख कर, उसे बड़ा बताया है।
ईरानी कहानी ‘बिल्ली का खून’ अपने आसपास घटने वाली कुछ बहुत ही सामान्य-सी प्रतीत होती घटनाओं में से एक को लेकर बुनी हुई कहानी है जिसे एक सम्वेदनशील ही भली प्रकार पकड़ सकता है। बिल्ली या किसी भी पशु को लेकर लिखी गई ऐसी कहानियाँ बहुधा पढ़ने में नहीं आतीं। जिस काल में मनुष्य अपने साथ रहने वाले व्यक्ति की वेदना और पीड़ा से अनजान है, उस काल में पशु के जीवन को कथावस्तु के रूप में पढ़ना पाठक की मनोभूमि को उमगा सकता है।
कश्मीरी कहानी ‘चोरों का सरदार’ बचपन में पढ़ी कहानियों की तरह की कहानी प्रतीत होती है। इस कहानी को पढ़ते हुए कश्मीर को वहाँ के साहित्य में देखने की इच्छा-सी पैदा हुई, एक अपेक्षा-सी कहानी से जगी किन्तु कहानी वैसा कुछ यथार्थ प्रस्तुत नहीं कर पाई।
पंजाबी कहानी ‘द्रौपदी जाग उठी’, संकलन की अन्य कहानियों की तुलना में कुछ लम्बी है और वर्णानात्मकता के चलते साहित्यिक कहानी जैसा भाव तो जगाती है, किन्तु पटाक्षेप पंजाब की पृष्ठभूमि पर लिखी गयी स्त्री की एक ख़ास प्रकार की कहानियों के दौर की कहानी का आभास देती है।
उर्दू कहानियों के रूप में त्रासद यथार्थ की मार्मिक कथा ‘घर जलाकर’ के साथ ही खुशवंत सिंह की उर्दू कहानी ‘दोषी’ भी इसमें सम्मिलित है। ‘कर्नल सिंह’ पर्याप्त रोचक व विवरणात्मक शैली में लिखी गयी कहानी है। संकलन की एक अन्य उर्दू कहानी ‘सराबों का सफर’ एकदम समकालीन मुद्दों की नवीनतम कहानी है, जिसमें राजनीति का गन्दला रूप अपने यथार्थ के साथ उकेरने का यत्न किया गया है। इसी विषय पर केन्द्रित बलूची कहानी ‘तारीक राहें’ राजनीति के अपराधीकरण को मुद्दा बनाती हैं। मेक्सिकन कहानी ‘ओरलियो एस्कोबार’ भी मूलतः राजनीति, प्रशासन और सत्ता के कलुष की ही कहानी है। अलग-अलग भाषाओं और अलग देश-काल की इन कहानियों में एक समानता है।
ताशकंद की कहानी ‘गोश्त का टुकड़ा’ गाँव के तथाकथित पढ़े-लिखे व्यक्ति की कहानी है जो हाथ के काम को कमतर और मजदूर बन कर जीवन खो देता है। कथावस्तु का यह पक्ष ‘गोदान’ की एक विसंगति का अनायास स्मरण करवाता है।
एक अन्य बलूची कहानी ‘क्या यही जिंदगी है’ की बिम्बात्मकता इसे अन्य कहानियों से अलगाती है&
‘‘हवाएँ तलवार की तरह काट पैदा कर रही थीं। तेज़ झोकों ने तूफ़ान बरपा कर रखा था। दरख़्तों ने ख़िज़ाँ की काली चादर ओढ़ ली थी। यूँ लगता था जैसे गए मौसमों का सोग मना रहे हैं।
कोई क्या जाने ये क्यों दुखी हैं? रातों की स्याही अब दिन में भी नज़र आती है। परिंदे, हवाओं में उड़ते सारे समूह अपने घोंसलों में पनाह लेकर, अपनी जमा की हुई पूँजी पर ज़िन्दगी बसर कर रहे थे।’’
‘‘सूरज ढलकर क्षितिज पर झुक रहा था। दक्षिण की तरफ़ से काले-काले बादल झूम-झूम कर बढ़ रहे थे, थोड़ी ही देर में सूरज गायब हो गया। अंधेरा बढ़ गया। बादलों ने बढ़कर सारे आसमान को ढाँप लिया। एक तो रात का अंधेरा, ऊपर से बादलों की स्याही। घोर अंधेरे में हाथ को हाथ सुझाई नहीं दे रहा था। खूब बूंदा-बांदी और मूसलाधार बारिश हुई। ओले तड़तड़ाने लगे। बारिश ने यूँ समाँ बाँधा कि जैसे आज ही टूट कर बरसना है। भेड़-बकरियों ने सहमकर जोर-जोर से मिमियाना और डकरना शुरू कर दिया। अमीर अपने पक्के घरों में और ग़रीब अपने बेहाल झोपड़ों में फटे-पुराने कपड़ों में दांत बजा रहे थे। बारिश रुक गई। जानवरों की आवाज़ें आनी बंद हो गईं मगर अब भी कहीं कहीं से अभी पैदा हुए बच्चों के कराहने की आवाज़ आती तो अपनी गिरी हुई झोंपड़ियों से आग की तमन्ना लिये दांत बजाते, बगलों में हाथ दे, सहमे हुए सर्दी का दुख झेल रहे थे। यूँ लगता था कि ये कहावत सही है&‘गुलाबी जाड़ा भूखे-नंगे लोगों की रज़ाई है।’
यह कथा सम्भवतः इस संकलन की सर्वाधिक मार्मिक, यथार्थ और विडम्बनात्मक कहानी है।
मैक्सिम गोर्की की रूसी कहानी ‘महबूब’ मानव मन की तहें खोलती है, प्रेम के अभाव में व्यक्ति का रुक्ष और कठोर हो जाना या कठोर व्यक्ति के निजी जीवन का अकेलापन और अभाव दोनों एक के दो पक्ष हैं।
मराठी कहानी ‘मुझपर कहानी लिखो’ का कथ्य रोचक है और इन अर्थों में विशेष है कि यह एकसाथ कई मूलभूत प्रश्नों को छूती है।
इंग्लैण्ड की कहानी ‘उलाहना’ (ग्राहम ग्रीन) में प्रेम विवाह के बावजूद गृहस्थ जीवन की विसंगतियों का चित्रण है। प्रेम के अभाव में निभती गृहस्थियाँ भारतीय समाज के लिए मानो सामान्य-सी घटना है।
कुल मिलाकर संकलन की अधिकांश कहानियाँ पारिवारिक-सामाजिक जीवन के मार्मिक विघटन तथा मनुष्य की सम्वेदन-हीनता की कहानियाँ हैं। अनुवाद बहुत सहज व मूल भाषा में कहानी पढ़ने का-सा आनन्द देता है, जिसके लिए अनुवादक देवी नागरानी बधाई की पात्र हैं। कुछ स्थलों पर वर्तनी व व्याकरण पर विशेष ध्यान दिए जाने की आवश्यकता अनुभव होती है। जिस अनुवादक के पास विभिन्न भाषाओं से अनुवाद का सामर्थ्य है, सहज ही उस अनुवादक से श्रेष्ठ समकालीन कथा-साहित्य के अनुवाद की अपेक्षा जगती है। आशा है, वे भविष्य में उत्तरोत्तर अधिक गम्भीर वैश्विक साहित्य से हिन्दी के पाठकों का परिचय करवाती रहेंगी। इस संकलन के लिए उन्हें बधाई और शुभ कामनाएँ देते हुए मैं हर्ष का अनुभव कर रही हूँ।
(डॉ.) कविता वाचक्नवी
(ह्यूस्टन, अमेरिका)
देश में महकती एकात्मकता
हिन्दी भारत की जननी है, भाषाओं की जड़ है, और भारतीय संस्कृति की नींव व हर हिंदुस्तानी की पहचान है। बावजूद इसके प्रांतीय भाषाएँ भी अपनी अस्मिता चाहती हैं, जिनका संस्कार व आचरण प्रदर्शन करने का माध्यम सिर्फ़ प्रांतीय भाषाओं को ज़िंदा रखकर किया जा सकता है। भाषा संवाद का माध्यम है। हरेक प्रांतीय भाषा के साहित्य से भी उस प्रांत की सभ्यता की जड़ों तक पहुँचा जा सकता है। भाषओं के माध्यम से शब्दों की यात्रा शुरू होती है जो नदी की धार की तरह आपने आँचल में हर परिवर्तन को समेटते हुए प्रवाहित होती है।
भाषा के साथ ज्ञान जुड़ा हुआ होता है&एक नहीं अनेक भाषाओं का ज्ञान, उन भाषाओं की शब्दावली, उनके सुगंधित संस्कार जो परिवेश में पाये जाते हैं। चिंतन की अभिव्यक्ति, अनुभूति की अभिव्यक्ति लिखने और बोलने वाले व्यक्ति में समय के साथ बदलती हुई सोच में नवनिर्माण का बीज बोती है। प्रंतीय भाषाओं के संदर्भ में कहा गया सत्य दोहराते हुए यह मानना होगा कि ‘‘मौलिक चिंतन यदि अपनी मात्र भाषा में ही किया जाये तो उसका परिणाम अनुकूल होता है। भाषा की स्थिति जटिल तब होती है जब वह प्रयोग में नहीं आती हो या अपनी पहचान खो देती है।’’
जहाँ भाषा व सभ्यता की प्रगति दिन- ब-दिन बढ़ रही है, वहीं विविधताओं से युक्त भारत जैसे बहुभाषा-भाषी देश में एकात्मकता की परम आवश्यकता है और अनुवाद साहित्यिक धरातल पर इस आवश्यकता की पूर्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने में सक्षम है। अनुवाद वह सेतु है जो साहित्यिक आदान-प्रदान, भावनात्मक एकात्मकता, भाषा समृद्धि, तुलनात्मक अध्ययन तथा राष्ट्रीय सौमनस्य की संकल्पनाओं को साकार कर हमें वृहत्तर साहित्य-जगत् से जोड़ता है। अनुवाद-विज्ञानी डॉ. जी. गोपीनाथन लिखते हैं&‘‘भारत जैसे बहुभाषा-भाषी देश में अनुवाद की उपादेयता स्वयंसिद्ध है। भारत के विभिन्न प्रदेशों के साहित्य में निहित मूलभूत एकता के स्परूप को निखारने, दर्शन करने के लिए अनुवाद ही एकमात्र अचूक साधन है। इस तरह अनुवाद द्वारा मानव की एकता को रोकने वाली भौगोलिक और भाषायी दीवारों को डाहकर विश्वमैत्री को और भी सुदृढ़ बना सकते हैं।’’
यहीं से अनुवाद का अध्याय शुरू होता है। अनुवाद की अपूर्णता के बारे में चाहे कुछ भी कहा जाए, परन्तु सच्चाई यह है कि संसार के व्यावहारिक कार्यों के लिए उसका महत्व असाधरण और बहुमूल्य है। जब तक अनुवादक मूल रचना की अनुभूति, आशय और अभिव्यक्ति के साथ एकाकार नहीं हो जाता तब तक सुन्दर एवं पठनीय अनुवाद की सृष्टि नहीं हो पाती। मूल रचनाकार की तरह अनुवादक भी कथ्य को आत्मसात् करता है, इसलिए अनुवादक में सृजनशील प्रतिभा का होना अनिवार्य है।
शब्द का प्रयोग भी एक कला है। उन्हें कैसे, कहाँ, किस संदर्भ में प्रयोग करना है यह रचनाकार की अपनी रचनात्मक क्षमता है। इसके लिए भाषा ज्ञान का होना अनिवार्य है। भाषाई संस्कार परिवेश से पाया जाता है, जहाँ मातृभाषाई ज़बान में बाल शिशु को पहली पहचान मिलती है। वह किसी भी प्रांत की भाषा हो सकती है। भारत में अनेक भाषाओं का प्रचलन व प्रयोग है, जिनमें से कुछ दबी हुई हैं, कुछ उभरी हुई हैं, कुछ विलूप सी होती जा रही हैं। पर यह निश्चित है कि हर भाषा के साहित्य के भंडार का कुछ अंश लोगों को विरासत में मिला होगा, जो कितने ही कारणों से मध्य पीढ़ी व आज की नव पीढ़ी के पल्ले नहीं पड़ा है। इस का मूल कारण भाषा ज्ञान की कमी, या बालावस्था में पाठशालाओं में वह भाषा उस प्रदेश में न पढ़ाई जाती हो। यही बात हमारी सिंधी भाषा पर लागू होती है।
मानव का संबंध मानव से, भाषा का संबंध भाषा से है। एक भाषा में कही व लिखी बात अनुवाद के माध्यम से दूसरी भाषा में अभिव्यक्त करके, हिन्दी भाषा के सूत्र में बांधते हुए शब्दों के माध्यम से भावनात्मक संदेश पाठकों तक पहुँचाना ही इस अनुवाद की प्राथमिकता है। अनुवाद किया हुआ साहित्य पाठक को अनुवाद नहीं बल्कि स्वाभाविक लगे, यही अनुवाद की मौलिकता है, और अनुवाद किये गए साहित्य के सही बिम्ब अंकित करने में अनुवादक की सार्थकता होती है।
भाषा की समृद्धि में शायद हम अपना विकास देख रहे हैं। आज प्रांतीय भाषाओं से हिन्दी में, और हिन्दी से अन्य भाषाओं में अनुवाद हो रहा है। इसी एवज़ साहित्य की समृद्धि निश्चित रूप से हो रही है। यही सबब है कि पाठक गण को सिर्फ़ एक परिवार नहीं, एक परिवेश, एक नए निर्माणित समाज, एक समृद्ध राष्ट्र की समृद्ध भाषाओं के माध्यम से पठनीयता का अधिकार मिलता रहे और चिंतन मनन के लिए खाद प्राप्त होता रहे!
इसी प्रयास के महायज्ञ में एक छोटी सी कोशिश मेरी मात्रभाषा सिन्धी से हिन्दी में अनुवाद के माध्यम से हुई, और हिन्दी कथाकारों की कहानियाँ भी सिन्धी भाषा में संग्रह के रूप में आई हैं। इस संग्रह की कहानियाँ मैंने उर्दू, सिन्धी और अंग्रेजी भाषा से की हैं। बलूचिस्तान की भाषाओं&पश्तू, बराहवी और बलूची की कहानियाँ उर्दू से अनुवाद हुई हैं। इन कहानियों में वहाँ के परिवार व परिवेश की झलकियाँ मौजूद हैं। मेरी दिली ख्वाहिश है कि सिन्धी व अन्य प्रांतीय भाषाई सौहार्द अदब-अदीबों के बीच पनपता रहे और भाषाई सीमाएं सिमट कर एक आँचल तले फलते-फूलते मुक्त फिज़ाओं को महकाती रहे।
मैं प्रकाशक की तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ, जो इन प्रांतीय भाषाओं की खुशबू से सराबोर मेरे इस कहानी-संग्रह के प्रयास में अपना सहयोग देते हुए समय की अनुकूलता के साथ आप तक पहुँचाने में सक्रिय रहे हैं। संग्रह में योगदान देने वाले साहित्यकारों की कहानियाँ उनकी अनुमति से शामिल हैं!
इसी सद्भावना के साथ आपकी अपनी,
देवी नागरानी
न्यू जर्सी (यू.एस.ए.)
COMMENTS