विश्व विकलांगता(दिव्यांगता)दिवस की शुरुआत 3 दिसम्बर 1991 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने की थी। इसका मुख्य उद्देश्य आधुनिक समाज में निःशक्त जनों क...
विश्व विकलांगता(दिव्यांगता)दिवस की शुरुआत 3 दिसम्बर 1991 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने की थी। इसका मुख्य उद्देश्य आधुनिक समाज में निःशक्त जनों के साथ हो रहे भेद-भाव को मिटाने के लिए जागरूकता का प्रसार करना है। विकलांगता एक ऐसा शब्द है जो किसी को भी उसकी शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास में बाधा उत्पन्न करता है। यह एक ऐसी स्थिति है। जिसमें हम सहज जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। आँकड़ों के अनुसार विश्व में लगभग एक अरब लोग किसी ना किसी प्रकार की विकलांगता के शिकार है। भारत में वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार 2.68 करोड़ विकलांग है जिनमें 1.5 करोड़ पुरुष एवं 1.18 करोड़ महिलाएं है। खास बात यह है कि 1.86 करोड़ ऐसे लोग गाँवों में रहते हैं।
जनगणना 2011 में दिव्यांगता के प्रकारों पर नजर डाले तो सर्वाधिक अक्षमता 20 प्रतिशत चलन ह्रास, 19 प्रतिशत श्रवण ह्रास, 17 प्रतिशत दृष्टि ह्रास एवं 8 प्रतिशत बहुप्रकृति अक्षमता से ग्रसित है। दूसरी ओर देश में 17 प्रतिशत 10-12 वर्ष की आयु वर्ग के लोग सबसे ज्यादा अक्षमता से ग्रसित है जबकि 20-29 वर्ष के आयु वर्ग के लोगों की संख्या 16 प्रतिशत है। विकलांगता को एक कलंक के रूप में देखने की प्रवृत्ति से विकलांगों के प्रति समाज के व्यवहार में एक नकारात्मक नजरिया व्याप्त है।
समाज में यह धारणा है कि व्यक्ति में विकलांगता उसके पिछले पापों या कर्मों के कारण होती है चूंकि यह ईश्वरीय सजा है इसलिये इसे कोई बदल नहीं सकता। इन रूढ़िवादी व् अतार्किक बाधाओं का परिणाम है कि दिव्यांगजन समाज की मुख्यधारा से बाहर होकर हाँसिये पर आ खड़े हुए है तथा शिक्षा से वंचित होते चले जा रहे है। यदि जनगणना 2011 के आँकड़ों का अवलोकन करें तो नजर आता है कि अभी 61 प्रतिशत दिव्यांग बच्चों को ही हम स्कूल पहुँचा पाये है जिनमें बालकों की संख्या 57 प्रतिशत तथा बालिकाओं की 43 प्रतिशत है। 5 वर्ष के दिव्यांग बच्चों में से तीन -चौथाई किसी भी शैक्षणिक संस्थान में नहीं जाते हैं न ही 5 से 19 वर्ष की आयु के दिव्यांग बच्चों का एक-चौथाई भाग स्कूल जाता है।
आगे चुनौती यह है कि शिक्षा से वंचित दिव्यांग बच्चों के लिए शिक्षा कैसे सुनिश्चित की जाये क्योंकि इनके विकास के बिना देश का पूर्ण विकास सम्भव नहीं है। भारत की विशिष्ट शिक्षा आयामों में एक महत्वपूर्ण एवं आधुनिक आयाम है-समावेशी शिक्षा। समावेशी शिक्षा केवल एक दृष्टिकोण ही नहीं है बल्कि एक सशक्त माध्यम है उनके लिए जो तमाम बाधाओं के बावजूद सीखने की चाहत रखते हैं। यह एक ऐसी प्रणाली है जिसके मूल्यों, ज्ञान, प्रणालियों और संस्कृतियों में प्रक्रियाओं और संरचनाओं के सभी स्तरों पर समावेशी नीतियों और प्रथाओं के सृजन के माध्यम से बुनियादी मानव और शारीरिक, संवेदनशील, बौद्धिक या स्थितिजन्य हानियों के साथ सभी नागरिक अधिकारों को प्राप्त किया जाता है।
समावेशी नीति के मामले में दिव्यांगता के बजाय शिक्षा का दृष्टिकोण अपनाया गया है यह नीति दिव्यांग को अलग-थलग करने के प्रचलन को समाप्त करती है। यह प्रत्येक बच्चे के लिए ऐसे सक्षम तथा सहयोगी वातावरण में शिक्षा का अधिकार सुनिश्चित करने हेतु समावेशी दृष्टिकोण एवं लक्ष्यों को विशिष्ट दिखाई देने वाले मापने योग्य एवं प्राप्त करने योग्य कदमों से जोड़ती है। यूनिसेफ, यूनेस्को व् एन0सी0एफ02005 में बताया गया है कि समावेशी शिक्षा में दिव्यांग, शैक्षिक पिछड़ा, भाषाई अल्पसंख्यक, सामाजिक-आर्थिक रूप से कमजोर बच्चे, ग्रामीण पृष्ठभूमि के बच्चे, जनजातीय बच्चे, घुमन्तू समाज के बच्चे, कामकाजी समाज के बच्चे आदि विभिन्न प्रकार के बच्चों को शामिल किया जाता है।
समावेशी शिक्षा विशेष विद्यालय या कक्षा को स्वीकार नहीं करती। दिव्यांग बच्चों को भी सामान्य बच्चों की तरह ही शैक्षणिक गतिविधि में भाग लेने का अधिकार होता है यह दिव्यांग बच्चों को आत्म निर्भर बनाकर उन्हें समाज की मुख्य धारा से जोड़ती है। समावेशी शिक्षा का एक व्यापक लक्ष्य यह भी है कि एक साथ शिक्षित होने पर भविष्य में समाज के अंदर दिव्यांगों के सरोकारों को आम जन बेहतर ढंग से समझ सकें तथा उनके प्रति पर्याप्त संवेदनशीलता का विकास हो सके। हमारा संविधान भी जाति, वर्ग, धर्म, आय एवं लिंग के आधार पर किसी भी प्रकार की असमानता का निषेध करता है। निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 में भी 6 से 14 वर्ष की आयु के विशेष आवश्यकता वाले बच्चों सहित सभी बच्चों के लिए पड़ोस के स्कूल में निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था है।
इस प्रकार दिव्यांगों के सशक्तिकरण हेतु समावेशी शिक्षा ही सर्वोत्तम विकल्प के रूप में हमारे समक्ष है। दिव्यांगों के जीवन निर्माण में समावेशी शिक्षा ही नूतन व् मजबूत आधार प्रदान कर सकती है और यह तभी सम्भव है जब स्वयं दिव्यांगजन तत्पर हो, समाज दिव्यांगों के प्रति संवेदनशील हो, अभिभावक जागरूक हो और शिक्षा प्रक्रिया के केंद्र बिन्दु हमारे गुणी शिक्षक दिव्यांगों की विभिन्नता को ध्यान में रखते हुए उनके लिए उद्देश्य, पाठ्यक्रम, शिक्षण विधि, शिक्षण-अधिगम सामग्री तथा वातावरण का निर्माण करें तथा सरकार दिव्यांगों के लिए नई नई योजनाओं को और बेहतर तरीके से लागू करने की दिशा में कार्यरत हो।
निःसन्देह इन मूल घटकों के अभाव में दिव्यांगों के सशक्तिकरण की कोई भी योजना सफल नहीं हो सकती है। यह बहुत ही विचारणीय व् चिन्तनीय विषय है कि भारत अभी भी इस क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय मानदण्डों से अत्यधिक पीछे है। सबके लिए शिक्षा तथा दिव्यांगों के सशक्तिकरण जैसे अतिआवश्यक संकल्पों को पूर्ण करने के लिए इस दिशा में तत्काल व्यापक व् सार्थक पहल की जरूरत है।
लेखक-
*सुदर्शन सिंह*
असिस्टेन्ट प्रोफेसर
शिक्षाशास्त्र विभाग
डी0एस0एन0कालेज, उन्नाव, उत्तर प्रदेश
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