01 जग के ऐसे नियमों से, प्रीति नहीं चल सकती है मेरे तेरे कदमों से रीति नहीं टल सकती है प्यास नहीं बुझ सकती है बेमौसम बरसातों से समझौत...
01
जग के ऐसे नियमों से,
प्रीति नहीं चल सकती है
मेरे तेरे कदमों से
रीति नहीं टल सकती है
प्यास नहीं बुझ सकती है
बेमौसम बरसातों से
समझौता कर लेते हैं ,जीवन के हालातों से
मैं तो हूँ ये समझ चुका
ख़्वाब नींद में आते हैं
फिर ये मेरे हिस्से के
चैन छीन के जाते हैं
मंजिल उनको मिलती है
जो जूझते हैं झंझावातों से
समझौता कर लेते हैं प्यार भरी बरसातों से
हृदय प्रेम की अनुभूति ,
सबके बस की बात नहीं
वादे तो सब कर लेते ,
पर सब देते साथ नहीं
कभी किनारे ना मिलते
कैसी भी हालातों से
समझौता कर लेते हैं,व्यर्थ की अब मुलाकातों से
तेरी यादें आतीं हैं,
आँखें नम हो जाती हैं
आँखों मोती क्यों झारूं,
इनको तुझपर क्यों वारूं
आँसू हरदम हारे हैं
चिकनी चुपड़ी बातों से
समझौता कर लेते हैं अब अपनी जज्बातों से
ख़्वाब में अक्सर मिलते थे
रात चाँदनी होती थी
सुबह नजर ना आते थे
मेरी आँखें रोती थीं
हार चुका है हृदय हमारा
मृगतृष्णा के घातों से
समझौता कर लेते हैं अब तो चांदनी रातों से
खाली बातें करते हो
मिलने से तुम डरते हो
बस बातें करने वाले हो
साथ ना चलने वाले हो
कब तक छलेगा हृदय बेचारा
प्रीति के शह और मातों से
समझौता कर लेते हैं प्यारी प्यारी बातों से
02
उसे देख कर ही तो, श्रृंगार नजर आता है
मां को बच्चे में अपने प्यार नजर आता है
वैसे तो भरी है , यह दुनिया फरेबों से
मग़र उस आंखों में एतबार नजर आता है
बेटे के स्वार्थ ने हराया माँ की उम्मीदों को
पर कहां आंखों में पलटवार नजर आता है
जिस बेटे ने आंखों में अलग दुनिया बसा ली
माँ को उसी आंखों में, संसार नजर आता है
03
जब हृदय बेकरार हो,
आंखों में इंतजार हो,
अकेलापन सवार हो,
तब तुझे सोचने का मजा कुछ और है।
रूह में दर्द हो ,
मौसम जरा सर्द हो,
जमाना खुदगर्ज हो,
तब तुझे सोचने का मजा कुछ और है
सपना कोई टूट जाए,
सारा जग रूठ जाए,
साहिल जब छूट जाए,
तब तुझे सोचने का मजा कुछ और है
मौसम उदास हो,
आंखों में प्यास हो,
रुकने वाली साँस हो,
तब तुझे सोचने का मजा कुछ और है
04
कभी भी ना मायूसी मिली
ना ही कभी मुफ़लिसी मिली
खुली अगर हथेली इधर या उधर
हर ओर दिल को खुशी ही मिली
मैंने कर्म को बस तवज्जो दिया
तरक्की मुस्कुरा के सखी सी मिली
दाग़ से दामन को बचाया सदा
मेरे चेहरे पे सदा ताजग़ी ही मिली
सच्चे रिश्ते को भटका मैं दर बदर
रिश्तों में बस दिल्लगी ही मिली
05
सब जानते हैं, छुपाओगे क्या
हमें पता है , बताओगे क्या
निगाहों में हवस देखी है मैंने
दरिंदगी और दिखाओगे क्या
ये कम है क्या मैं लड़की बनी
इससे ज्यादा सताओगे क्या
मर्दों की सोच सिमटती हैं वहीं
इस सोच को बदल पाओगे क्या
जली थी जली हूँ जलती ही रहूंगी
तुम अपने हवस को जलाओगे क्या
खैर!छोड़ो फिर लुटी आज रूह मेरी
बेटी बचाओ का नारा लगाओगे क्या
06
अंधेरे में जीने वाले , उजाले से डरते हैं
सुनो रक्त पीने वाले ,निवाले से डरते हैं
तजुर्बा हुआ है जबसे रंगीनियों का
मोहब्बत करने वाले ,हुश्नवाले से डरते हैं
कैद होंगे पखेरू, फिज़ा के ये पल में
पर - बेपर वाले , खादीवाले से डरते हैं
संभालो तीर - ऐ - नजर मेनिकाओं
हैं नाथ निराले , दुनिया वाले से डरते हैं
07
हमको ना , कोई बहाना चाहिये
बेशक हमें , रंग जमाना चाहिये
दूर कर देते, गलतफहमियां तेरी
सामने से मेरे, आजमाना चाहिये
तेरे हाथ में है , ग़र मुकद्दर मेरा
तो तुमको भी ,ज़ोर लगाना चाहिये
ग़र इश्क की , खैरात मंजूर तुम्हें
तो तुमको हवेली पर, आना चाहिये
पाँव जब बुलन्दी, पा जाये तो रुको
हमें रास्ते का पत्थर, हटाना चाहिये
नशा करो मय का,मगर मंजिल पाके
कौन कहता कि, लड़खड़ाना चाहिये
08
संजीदगी से साझा, जज़्बात हो जाय
देखते - देखते ही ,कुछ बात हो जाय
हम भटकते ही हैं ,अँधेरे में इसलिए
शायद उजाले में, मुलाक़ात हो जाय
के आज मैं रहूँ ख्वाबों में, वो तड़पे
ख़ुदा कुछ ऐसी ,करामात हो जाय
शाम बेचैन हो , मिलने की खातिर
सुबह ऐसी , बरसात हो जाय
संसद की रौशनी, हमें ना तबाह करे
कभी तो उसके साथ, घात हो जाय
दुबारा आएं हैं, विकास के दावेदार
चलो कुछ तो, सवालात हो जाय
जगूँ तो हर ओर, इंसान नजर आये
नाथ कभी तो ऐसी, रात हो जाय
09
प्रकृति का भार ढोता है पुरुष
सच है संसार ढोता है पुरुष
प्रण पे प्राण है समर्पित कर दिया
नेह का व्यापार ढोता है पुरुष
हर कदम पे द्वन्द से है जूझता
दंश औ प्रतिकार ढोता है पुरुष
खुद की इच्छा खुद से ही वो रौंद के
स्वयं से सरकार होता है पुरुष
कंटको के सेज मिलते हर क़दम
पर कभी भी है नहीं रोता पुरुष
मुट्ठी उसकी सृष्टि को निर्मित करें
हाँ! मगर लाचार होता है पुरुष
10
क्यों ना किताबों में... वो मंजर पढ़ी जाये
जिससे हक़ीकत में...ऐसी पैकर गढ़ी जाये
आदमज़ात की वो... पहली पीढ़ी हो
जिसे मोहब्बत हो...पर जंग ना लड़ी जाये
जिसके लबों से हो... शबनमी बरसात
कातिलों की फ़ौज भी ... रह खड़ी जाये
नफरत की मज़हबी किताबें... बंद हों
चलो इंसानियत की... किताबें पढ़ी जाये
11
कोई तो मकां हो, जहां बेटियां संवर जाएं
हैवानियत है हर तरफ,बेटियां किधर जाएं
चाँदनी रात का सफ़र, बेटियां भी तय करें
इस चमन में अगर ,इंसानियत नजर आएं
उनके आँगन में भी, बेटियां गुलजार होंगी
ज़िस्म के जल्लादों से कह दो संभल जाएं
ग़र माँ बाप ज़रा, बेटे पर भी ध्यान देते
तब शायद ही, नन्ही चिड़िया बेपर आएं
12-
कहते हुए डर लगता है
बेगाना ये शहर लगता है
नसीहतें ना दो किसी को
सब को ये ज़हर लगता है
मैंने इश्क-ऐ-गज़ल लिखा
बड़ा टेढ़ा बहर लगता है
उसकी याद में पड़े ख़लल
तो वो इक कहर लगता है
साहिल के ख़ातिर बेताब
समंदर का लहर लगता है
"नाथ"मत देख मोहब्बत से
सब कहते हैं नजर लगता है
13
तुम करीब हो फिर भी डर लगता है
मोहब्बत का कातिल शहर लगता है
सुनो मत देखो मुझको मोहब्बत से
मुझको मोहब्बत से नजर लगता है
कोई साया मेरे पास मंडराता रहता है
शायद वह मेरा रहगुजर लगता है
मौत को भी मात दे देती है मेरी जिंदगी
ये किसी की दुआओं का असर लगता है
मेरी निगाहों ने दस्तक दी थी तेरे दिल पर
पर "नाथ" तेरा हृदय बेअसर लगता है
14
सच बोलके बवाल ना करो
इस तरह सवाल ना करो
यूं ही इश्क मिलेगा तुमको
इस तरह ख्याल ना करो
पलकों को रस्ते पे बिछाके
ज़ाया अपना साल ना करो
इश्क किया है गुनाह नहीं
इस तरह मलाल ना करो
यह नखरे हैं अदा कारों के
अपना दिल बेहाल ना करो
तुम भी क़सीदे पढ़ो ज़ुल्म के
नाथ कलम से कमाल ना करो
15
प्रकृति का भार ढोता है पुरुष
सच है संसार ढोता है पुरुष
प्रण पे प्राण है समर्पित कर दिया
नेह का व्यापार ढोता है पुरुष
हर कदम पे द्वन्द से है जूझता
दंश औ प्रतिकार ढोता है पुरुष
खुद की इच्छा खुद से ही वो रौंद के
स्वयं से सरकार होता है पुरुष
कंटको के सेज मिलते हर क़दम
पर कभी भी है नहीं रोता पुरुष
मुट्ठी उसकी सृष्टि को निर्मित करें
हाँ मगर लाचार होता है पुरुष
- नाथ गोरखपुरी
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