-- पोखर ठोंके दावा-- अविनाश ब्यौहार Publisher : Centre : 2097/22, Balaji Market, Chah Indara, Bhagirath Place, Delhi-110006. Mob. : 79052668...
-- पोखर ठोंके दावा--
अविनाश ब्यौहार
Publisher :
Centre :
2097/22, Balaji Market, Chah Indara,
Bhagirath Place, Delhi-110006.
Mob. : 7905266820, 9918801353
Website : www.kavyapublications.com
YEAR :- 2019
ISBN : 978-93-88256-79-7
Price: 180/-
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With Co-operation:
KAVYA PUBLICATIONS
Abhinav R.H. 4, Awadhpuri, Bhopal.
462002, M.P.
--
माता
पिता
को
समर्पित
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कवि की कलम से
मेरा प्रथम नवगीत संग्रह ‘मौसम अंगार है’ के बाद द्वितीय नवगीत संग्रह ‘पोखर ठोंके दावा’ प्रकाशन पथ पर है।
समय-समय पर मुझे नवगीतकार आदरणीय निर्मल शुक्ल, आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, आदरणीय सुरेश ‘तन्मय’ जी, आदरणीय जयप्रकाश श्रीवास्तव एवं श्री बसंत शर्मा जी का प्रोत्साहन मिलता रहा एवं मैं डा. प्रभा ब्यौहार का बहुत-बहुत आभारी हूँ।
‘पोखर ठोंके दावा’ मुझे उम्मीद है आप लोगों को पसंद आएगा। एवं नवोदित रचनाकारों का मार्गदर्शन करेगा!
अविनाश ब्यौहार
रायल एस्टेट, कटंगी रोड,
जबलपुर (म. प्र.)
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सहकथन
भारतीय काव्य के मूलस्वर की पुर्नप्रतिष्ठा नवगीत के रूप में हुई है।
नवगीतकार अविनाश ब्यौहार का नया संग्रह ‘‘पोखर ठोंके दावा’’ सन् 2019 के उत्तरार्द्ध में आ रहा है।
अविनाश के नाम के अर्थानुरूप इन नवगीतों में उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता और प्रकृति के रंग उपलब्ध हैं जो फीके नहीं पड़ सकते।
संवेदनापूर्ण गहन अनुभूति, अनाभिमुख लोक, अपनी मिट्टी से रचे प्रतीकों, मुहावरों में अविनाश सृजन के स्थायी कारक, दृढ़ संवेदना, स्पष्टवादिता और अंतर के क्षोभ का परिचय देते हैं।
एक निश्चित शिल्प और तुर्कों से उत्पन्न नाद चाक्षुष बिंब उपस्थित करते हैं।
निश्चित रूप से यह संग्रह साहित्य क्षेत्र में अपना स्थान चिन्हित करेगा।
डा० (श्रीमती) प्रभा ब्यौहार,
से० नि० प्राचार्य,
शासकीय महाविद्यालय
इन्दौर
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1
1- नवगीत
उद्घाटन में नेता
काट रहे फीता।
आम आदमी प्रतिदिन
कुढ़-कुढ़ कर जीता।।
रहती है सबमें
जीने की
इक आस।
खरहा चीतल
क्यों बन
जाते हैं ग्रास।।
जंगल में
है शेर
लकड़बग्गा चीता।
दिल्ली में
देश की
खुशहाली बिकती।
महुआरी की
गंध दुखद
कथा लिखती।।
जीवन मौत का
अंतर है
एक बीता।
- -
2
2- नवगीत
अधिकारी ने है
प्रपत्र पर
नोट लिखा।
संलग्नक पर
हुए दस्तखत।
प्रकरण पर है
देते अभिमत।।
महिला कर्मी के
चरित्र पर
खोट लिखा।
वर्षों के दुख
की नस्ति पंजी।
बहुत लालसा थी
मिले अंजी।।
क्लाइंट की जेब
लिपिक ने
चोट लिखा।
- -
3
3- नवगीत
क्रिमिनल के लिए
सैरगाह है थाना।
रपट करने में
दाँतों पसीना आया।
थाने के दर्शन
से ही जीना आया।।
वहाँ चोर, गिरहकट,
रहजन हैं नाना।
चोर सिपाही जैसे कि
चोली दामन।
बदगोई का प्रांत
में हो कद वामन।।
खाकी वर्दी घर
फसाद का माना।
- -
4
4- नवगीत
रंगों में डूब
गई होली।
हवाओं में
उड़ रहा गुलाल।
रंगोत्सव में
धुलता मलाल।।
नशीली-नशीली
है बोली।
फूले टेसू
फूले कनेर।
फागुन में
गदरा गए बेर।।
देहरी में
सजी रंगोली।
- -
5
5- नवगीत
चेहरा ग्लो करता
हुआ फेशियल
औ मसाज।
विचार हैं संकीर्ण,
बहुत सकरे।
आटो के पैसे
बहुत अखरे।।
आया-महरी
करतीं हैं
इनके सारे काज।
ब्यूटी पार्लर में
होती भीड़।
घर की दीवारों
में है सीड़।।
नाज नखरे
औ शौक से
हम तो आए बाज!
- -
6
6- नवगीत
जिंदगी होती है
मुट्ठी की रेत।
नदी किनारे
सीपी-घोंघे।
शिलाखंड रेत
हुए होंगे।
फसलें खलिहान में
सूने हैं खेत।
भँवर में पड़ गए
है पलछिन।
पंछी से उड़
जाते हैं दिन।।
चंदन में लिपटे
साँप बनकर प्रेत।
करें ठिठोली
फाग के रंग।
मधुऋतु में बदले
अलि के ढंग!
पतझर की आहट पा
गाछ हैं सचेत।
- -
7
7- नवगीत
पुलवामा के शहीद थे
देश की आँख
के तारे।
चमनबंदी, पल्लवन
है लगन।
आँसू करते हैं
शत-शत नमन।।
सिर पर कफन
हमेशा बाँधे
लगते सबसे न्यारे।
खूं का कतरा-
कतरा- बहाया।
संकट का है
गला रूंध आया।
इस दयार का
जर्रा-जर्रा है
आरती उतारे।
- -
8
8- नवगीत
तपती धूप
हलाल कर रही
काया को।
लाख दुआऐं दें
पेड़ों की
छाया को।।
प्यासे शीतल
जल की
टोह में।
जीवन उलझा
माया मोह में।।
दुखिया पूज रहा
कबसे
सरमाया को।
भट्टी जैसी
तपती है हवा।
प्याऊ का खुलवाना
है रवा।।
कोटर भी सहते हैं
लू के
साया को।
हरियाली की
संपदा खोई।
वसुधा फूट-फूट
कर रोई।।
ब्यंजन नेता को
भुखमरी
रिआया को।
9- नवगीत
- -
9
खोटे सिक्के ही तो
नेता बन पाये।
छल, कपट, झूठ
षड्यंत्र फलते हैं।
पूर्व पश्चिम उगते
औ ढलते हैं।।
चोर-चोर मौसेरे
भाई कहलाए।
रवि का मुख
कालिख अंधियारे की।
पगड़ी उछलती है
भिनसारे की।
होम के समय
समिधा ने हाँथ जलाए।
- -
10
10- नवगीत
कितना महंगा होता
जाता है बाजार।
ब्यापारी से
मोल तोल है।
खर्चा हो जाता
सुडौल है।
डेबिट कार्ड के आगे
बटुआ है लाचार।
सेल हुई है
जीन्स टॉप की।
शर्ट मिली है
ठीक नाप की।।
थोडे़ पैसों में तो
चिन्दी न आए यार।
- -
11
11- नवगीत
होने लगी हैं अब
विष बुझी बातें।
लगाव के
सूख गए झरने।
जलधि गया है
जल कर भरने।।
होती हैं कल्मश
के कारण घातें।
कुहू कुहू
कड़वाहट घोले।
हर शाखों पर
उल्लू बोले।।
अंधकार फैला
अंकुलाई रातें।
- -
12
12- नवगीत
फागुन के रंगों में
एक रंग और है।
रंग है मधुमास का।
हताशा में आस का।।
उड़ती हवाइयों में,
रंग है परिहास का।
गंध का हिंडोला है
आमों में बौर है।
कई रंग फूलों में।
रंग है बबूलों में।।
नदिया की लहरों में,
मीठी सी भूलों में।।
आस-पास झुरममुट है
फगुनाई ठौर है!
- -
13
13- नवगीत
लग जाती है
तुच्छ-तुच्छ
बातों की रिट।
ठूंस-ठूंस
आरोपों से
भरी हुई।
झूठों से
एक हकीकत
डरी हुई।।
न देंगे उपदा तो
है लिपिक की
किट-किट।
मनगढं़त कहानी
कूट रचना है।
झूठी मिसिल-
गवाही से
बचना है।।
अखबार में पिटिशन
होती है
टिट बिट।
- -
14
14- नवगीत
पखवाड़े तक
नहीं मिलेंगे
कैसा पास पड़ोस।
महिलाओं में
कानाफूसी।
पुरूष कर रहे
हैं जासूसी।।
तूं तूं मैं मैं
से ही मिलता
है इनको परितोष।
संबंधों में
दुराभाव है।
एक किलो अब
एक पाव है।।
गल्ती चाहे
जितनी कर लो
मत करना अफसोस।
- -
15
15- नवगीत
मित्र-मित्र से
खेल रहा
है खेल।
वहशी, खूनी
और जुनूनी।
दाँव पेंच तो
हैं कानूनी।।
लाॉज जैसी
हुई
उनको जेल।
नहीं चलन में
अब है चिट्ठी।
हुई भावनाऐं
सब गिट्टी।।
डाकिये की
जगह
आया मेल।
पैसा-पैसा
केवल पैसा।
हालत है
जैसे को तैसा।।
निचोड़ने लगे
रेत से
तेल।
- -
16
16- नवगीत
पेड़ों की
छाँव है
चाँद पर बसी।
सब गोलमाल है।
उस पर बवाल है।।
ऐसी अराजकता,
सच में सवाल है।
गाँवों की
सभ्यता
माँद पर बसी।
छत पर गौरैया।
माँ की बलैया।।
लहरों से बातें,
नाव का खेवैया।
गैया की
जुगाली
नाँद पर बसी।
- -
17
17- नवगीत
हुए आँख के
आँसू अदहन।
कर सुघड़
चावल पसा रहे।
रंग फागुन के
हँसा रहे।।
पाहुन है
जाड़े का अगहन।
घूरा बैठा।
आँखें मूंद।
कहता धर की
बाड़ी रूँध।।
आसौं खूब हुई
है दलहन।
- -
18
18- नवगीत
कर रहा माघ
स्वागत -
ऋतुराज का।
टेसू, सेमल,
गुलमोहर।
होता है लुब्ध
हर बशर।।
कोयल बाँचे
समाचार -
आज का।
आम्रकुंज हैं
झूम रहे।
खजूर नभ को
चूम रहे।।
चर्चा सरसों के
नखरे -
नाज का।
- -
19
19- नवगीत
फूलते
पलाश।
चैती हवा।
अक्षत जवा।।
हर्षित आकाश।
पकते बेर।
फसलें हेर।।
चमकता
उजास।
झूमते वन।
उमंगी तन।।
अंकुरित
हुलास।
- -
20
20- नवगीत
कोर्ट कचहरी में फलते हैं
अपराधों के वाद।
वारदात है लूट की।
लगे गवाही झूठ की।।
हरे भरे पेड़ फिर भी,
पड़े जरूरत ठूंठ की।
साक्ष्य दें मिथ्या कथन को
हरदम पानी खाद।
मुजरिम का घर जेल है।
खून खराबा खेल है।।
मेला जैसा भरा है,
वहाँ पे रेल पेल है।।
वकील चिपकते क्लाइंट से
जैसे चिपके गाद।
- -
21
21- नवगीत
इतने प्रदेश हैं
कश्मीर हो गया।
देश का एक
अंग नहीं है।
फागुन है पर
चंग नहीं है।।
पुष्पहार ढलकर
जंजीर हो गया।
लंबी है भय
की परछाँई।
बिना कान की
जनसुनवाई।।
वस्त्र की जरूरत है
छीर हो गया।
- -
22
22- नवगीत
रहजन ही बना
खेवैया है।
करता है
तमस बरजोरी।
मेघ करे
धूप की चोरी।।
उधार के बदले
सवैया है।
बबूल बचे हैं
फूल गए।
बादल बरसना
भूल गए।।
हुआ अब बेकार
रवैया है।
कुप्रथाओं से
उपजा सोग।
क्या करते
मुट्ठी भर लोग।।
सब कुछ अफसर को
मुहैया है।
सपनों ने
सन्यास ओढ़ा।
पड़े बुरे वक्त
का कोड़ा।।
केंचुली को बीन
बजैया है।
- -
23
23- नवगीत
जीवन
आपाधापी है।
अलापेंगे
अपनी राग।
हुई ब्यर्थ की
दौड़ भाग।।
वैभवशाली
पापी है।
चुप अखबारों
की सुर्खी।
खुशियों की
होती कुर्की।।
यार हुआ
संतापी है।
- -
24
24- नवगीत
बाहर कदमों
की आहट।
खुला जंगला
भोर हुई।
प्रेयस् हुआ
हिलोर हुई।।
कुत्तों की
है गुर्राहट।
किरण दरीचे
से झाँके।
धूप दोपहर
को टाँके।।
सख्ती में है
नरमाहट।
- -
25
25- नवगीत
सूरज ने
धूप से कहा
मौसम रंगीन
हो गया।
अब चलने लगी हैं
चुलबुली हवाऐं।
आपस में पेड़
जाने क्या बतियायें।।
मधुप जो है
फूल पर झुका
जुर्म संगीन
हो गया।
रोज-रोज होती
पुनर्नवा भोर है।
झलका सन्नाटे में
कोई शोर है।।
ऋतुओं का आलम
है कि पतझर
दीन हीन
हो गया।
- -
26
26- नवगीत
लोग करुणा हीन हैं
मानो मवेशी।
बन्द हुआ लोगों का
आपस में भेंटना।
आजकल का रिवाज
है रूपैया ऐंठना।।
छोड़कर दो चार घर
पड़ रही पेशी।
घने वृक्षों सा है
अपराध फल फूल रहा।
जो आपादमस्तक था
वो अब धूल रहा।।
आयातित की पूँछ
घूरे में देशी।
- -
27
27- नवगीत
रिश्वत लगती
है जूठन।
दुष्टों में
सन्यास दिखा।
आँसू ढुलके
हास दिखा।।
नैतिकता में
क्यों टूटन।
मानवता अब
घायल है।
बटमारी तो
कायल है।
हट्टे कट्टे
हड़फूटन।
- -
28
28- नवगीत
उम्मीद पर करने लगी
संवेदना हस्ताक्षर।
हैं ख्वाब आँखों के
पखेरू हो गए।
विश्वास के पर्वत
सुमेरू हो गए।।
आशा अंगूठा छाप थी
अब हो गई है साक्षर।।
पल्लव को हरियाली
रही है दुलार।
छलक पड़ा ऋतुओं का
मौसम से प्यार।
चमकीले हैं मोती जैसे
चौपाई के अक्षर।
- -
29
29- नवगीत
अफसर-बाबू
मैं साँठ-गाँठ।
योजनाऐं सब
है लंबित!
बदअमली
महिमा मंडित।।
उन्हें बुके है
हमको डाँट।
सबसे बड़ा
रूपैया है।
घूसखोर
खेवैया है।।
हुई दफ्तर में
बँदर बाँट।
- -
30
30- नवगीत
कृष्ण पक्ष का
शुक्ल पक्ष है।
फलीभूत
होती आशाऐं।
निष्फल होती
हैं कुंठाऐं।।
खुला झरोखा
वही कक्ष है।
भाग्य हुआ
सूरज चमकीला।
रुंधा हुआ था
तार कंटीला।।
वो नौसिखुआ
आज दक्ष है।
- -
31
31- नवगीत
जाड़े औ
गर्मी में
फूले मदार।
शिवजी को
चढ़ते हैं
विल्व पत्र,
आक।
जिनकी कृपा
से तो मनशा
है चाक़।।
मंद-मंद
पूर्व से
बहती बयार।
फैले चतुर्दिक
हैं कटुता
के जाल।
लोकतंत्र की
धेनु हाँक
रहे ग्वाल।।
खंड-खंड
बँटा हुआ
है ये दयार।
- -
32
32- नवगीत
लंबे हैं
झूठ के साए।
थाना
कोर्ट
कचहरी है।
अंधी
गूंगी
बहरी है।।
जन गण मन
कौन अब गाए।
हाँथ कटे
कानून के।
नेह रख दिया
भून के।।
दुराचार
पंख फैलाए।
- -
33
33- नवगीत
मंडराते खतरे
ज्यों चील
औ कौआ।
कतर ब्योंत हे
आपसदारी में।
पूरे मौके हैं
रंगदारी में।।
जहरीले नाते हैं
मानो अकौआ।
छीना झपटी
फैशन हो गई।
मेल मिलाप
नागफनी बो गई।।
आदमी लगने लगा
है कोई हौआ।
- -
34
34- नवगीत
लौस
रेहन
में है।
कामना है
प्रवासी।
चाल सब
है सियासी।।
कल्ला
बेहन
में है।
तमस करे
है तर्जन।
किरन के
लिए वर्जन।।
रोष
जेहन
में है।
- -
35
35- नवगीत
हो गया है
थाना का
अपराधी से मेल।
उजाले का
खून हो गया।
पहरू अफलातून
हो गया।।
जीवन लगता
है मानों
शतरंज का खेल।
कलियाँ हैं
रांदी बाग में।
पड़ते हैं
छाले राग में।।
आहत करती
बतकही
जैसे चले गुलेल।
- -
36
36- नवगीत
बाग में
पड़ रहे हैं
तितली के पाँव।
फूलों में है
खुशबुऐं
आकर बसी।
बबूल की है
बाग से
रस्साकसी।।
तैरता है
हवा में
सपनों का गाँव।
बागों में
खिंचा है
गन्ध का वितान।
अलि की
गुंजन का
है कोई विधान।।
महकती है
जास्मिन सी
गुलों की छाँव।
- -
37
37- नवगीत
पराये दुख दर्द भी
संलग्न हो गये।
कष्टों ने तिनके से
घोंसला बनाया।
पीड़ा का एक शहर,
कोलाहल छाया।
आदमकद आईने तक
भग्न हो गये।
ऋतुओं का ही
पतझर भी
एक रूप है।
छाया थी जहाँ,
वहाँ कटखनी धूप है।
मधुऋतु में हैं आम्रकुंज
मग्न हो गये।
- -
38
38- नवगीत
ठंडी की ऋतु का
अवसान हो गया।
सर्द हवा
कुहरा है।
जाड़ा तो
दुहरा है।।
बस कुछ दिन का
मेहमान हो गया।
स्वागतम
ऋतुराज का।
सप्त स्वर में
साज का।
फूलों का शर औ
कमान हो गया।
- -
39
39- नवगीत
सर्द सर्द सुबहें हैं
सर्द सर्द रात है।
गगन से झर रहा
धुन्ध में तुषार है।
धूप बनी छाया
सूरज लाचार है।।
कड़कदार ठंड लगे
देहों पर घात है।
मफलर नें स्वेटर
की काटी चिकोटी।
साँझ की बल खाई
लंबी सी चोटी।
खजूर लगे कलम से
पोखर दावात है।
- -
40
40- नवगीत
सबको बहुत
लुभाता है
जाड़े का मौसम।
महल, झोपड़ी,
गाँव शहर हो।
या फिर दिन के
आठ पहर हो।।
कभी-कभी
तो लगता है
भाड़े का मौसम।
कंबल, स्वेटर
और रजाई।
ठिठुरन की तो
शामत आई।।
लुटी धूप ने
कहा दिन -
दहाड़े का मौसम।
- -
41
41- नवगीत
प्रवाहिनी पर है
चढ़ आया पूर।
बारिश की
अंगड़ाई।
बादलों को
है भायी।।
छाया ताल के
चेहरे पर नूर।
दामिनी है
अब तड़की।
और नदिया
है भड़की।।
आँखों मेंं अर्णोद
की है सुरूर।
वसुधा ने
कजरी गाई।
हरियाली को
बधाई।।
फुनगी से बोली
चश्मे बद्दूर।
- -
42
42- नवगीत
तारीखें तो
हर रोज
निकलती है।
तीजा, हरछट औ
दीवाली, होली।
खग की मौसम में
रस घोले बोली।।
आयु हयन की
पल प्रतिपल
ढलती है।
है बारिश, जाड़ा,
बसंत औ गर्मी।
आहत जनहित हो
ये है बेशर्मी।।
कुदरत स्वभाव
से नित्य
बदलती है।
- -
43
43- नवगीत
आइने में
बसा हुआ
रूप।
हुई कंचन
देह है।
दिखे शबनम
नेह है।।
संवर रही
निर्जन में
धूप।
मुख ज्यों
चाँद समाया।
यौवन है
सरमाया।।
होना
साज सिंगार
अनूप।
- -
44
44- नवगीत
लोगों की
प्यास बुझाती
प्यासी रही गिलास!
सूनी आँखों में
उड़ता हुआ सुआ!
मानो कि दर्द को
चैन है छुआ।।
मर्यादा को
सर्पदंश
उन्मुक्त है विलास।
मुंदरी में नगीना
दूब की ओस।
सर्द हवा है भूली
लू भरा रोश।।
है छल फरेबों
के नगर में
गुमशुदा हुलास।
- -
45
45- नवगीत
पूष को
सूर्य किरण
रही है
बुहार।
जाड़े में
है जम गइंर्
रातें।
कंबल ऊनी
शाल के
नाते।।
बाग में
मंडराते
अलि की
गुहार।
है पहाड़ों
पर कोहरा
घना।
पारा लुड़का
मौसम
अनमना!
खिल रहे
फूलों की
सूर्य को
जुहार।
- -
46
46- नवगीत
उखड़े-उखड़े से
मिलते हैं
कालोनी के लोग।
है औपचारिक
सी बातें।
हमदर्दी पर
निष्ठुर घातें।।
उनका मिलना
अक्सर लगता
महज एक संयोग।
है पर्वो में
उदासीनता।
महल के मुखड़े
पर दीनता।।
कालोनी में
हर घर मिलता
मिथ्या और दुरोग।
- -
47
47- नवगीत
नव वर्ष की डाल में
दिन का फूल खिला।
नव संवत्सर के
स्वागत में खुश घड़ियाँ।
खून से लथपथ
भोर न हो, न गड़बड़ियाँ।।
तिथि पत्रों-पंचांग को
अब शुभ लगन मिला।
तौबा है शिकवा शिकायतें
भूलों से।
पेंग बढ़ायेंगे सावन के
झूलों से।।
हो ख्वाबों का आँख में
अटूट सिलसिला।
- -
48
48- नवगीत
शरद ऋतु
में फूल
रही काँस।
मेड़ों पर
फैली है।
हवा क्यों
विषैली है।।
खून चूसे
सूदखोर डाँस।
हरियाली
मोह रही।
पुरवा को
टोह रही।।
प्राची है
छोड़ रही
उसाँस।
- -
49
49- नवगीत
कुहरे में
डूब गये
सिहराते वन।
दिन फिरे हैं
कंबल औ
रजाई के।
स्वप्न साकार
ऊन के
सलाई के।।
साँझ लपेटे शाल
कर रही
है पूजन।
चना का होरा
औ मटर
की फल्लियाँ।
होंगी अनाज
के बोरों
की छल्लियाँ।।
करता है
कौड़ा ही
ठंड का शमन।
- -
50
50- नवगीत
खड़े हुए हैं
लाइन में पर
सर्वर डाउन है।
लिपिक रहा
भांहे सिकोड़ता।
प्यून भी इधर
उधर दौड़ता।।
नदी किनारे
बसा हुआ
छोटा सा टाउन है।
दफ्तर में रहती
भीड़ भाड़।
बात है बनती
तिल का ताड़।।
खड़ा हुआ हर
शख्स वहाँ पर
लगता क्लाउन है।
- -
51
51- नवगीत
नटखट सी
ऋतुऐं है
जाड़ा सुवेल।
सर्द-सर्द
राते हैं।
फूलों सी
बातें हैं।।
ठंड भी
ठिठुरती है
पूष को झेल।
झर रहा
तुषार है।
यौवन का
भार है।।
ओस से
धुली हुई
पिठवन की बेल।
- -
52
52- नवगीत
पूरव में
दिनकर मुस्काया
भोर हुई।
आँगन में
गौरइया चहकी।
चलती हुई हवा
है महकी।
खेतों ने हल
गले लगाया
भोर हुई।
पगडंडी है
राहगीर है।
बरगद-पीपल
बहुत धीर है।।
फूलों पर शवाब
है छाया
भोर हुई।
- -
53
53- नवगीत
कोलाहल भीड़ का
हो गया
पर्यस्त है।
निकलती सायरन
बजाती गाड़ी।
एक पक्ष है
बंद पड़ी दिहाड़ी।।
गली औ नुक्कड़ में
वर्दियों की
गश्त है।
अगरचे बाड़ खेत
को है खाये।
और बाग हाँथ
से छूटा जाये।।
डरा-डरा मानव है
चुप्पी का
दश्त है।
- -
54
54- नवगीत
भावनाओं का रूप
ले लिया
व्हाट्स एप ने।
चैटिंग से सब
बातें होतीं।
हिचक-हिचक
गलबहियाँ रोतीं।
गपशप से नाता
तुड़वाया
व्हाट्स एप ने।
नदियों की पावनता खोई
जार-जार है नदिया है रोई
द्वारे-द्वारे नदिया
ला दी
आज टैप ने।
- -
55
55- नवगीत
सांझ हुई मंदिर में
घंटियाँ बजने लगी।
मुस्काते हैं
जगमग तारे।
खड़ी रौशनी
की मीनारें।
आरती की थाल में
आरती सजने लगी।
चौकड़ियाँ भरते
मृगछौने।
खुशियों को
लग गए दिठौने।
भोर की पहली किरन
तमस को तजने लगी।
- -
56
56- नवगीत
आज अदालत
में लगवाई
मैंने इक अर्जी।
वर्षों तक वह
लंबित होगी।
न्यायधीश हैं
सुविधा भोगी।।
छलक-छलक कर
अब दिखती है
मुझको खुदगर्जी।
अनचाहे चक्कर
वकील के।
छुटकारा है
रूपय ढील के।।
क्या होगा
प्रकरण में
ऊपर वाले की मर्जी।
- -
57
57- नवगीत
न्यायालय में
पेश होते
मनगढंत दावे।
ऐंठ रहे
क्लाइंट से पैसे
ज्यों सूदखोर।
झूठ हुआ
बलशाली है
सच्चाई कमजोर।।
ज्वालामुखी से
फूट रहे
लावे पर लावे।
समय नहीं
बाद में आना
यह कह देते हैं।
सुनवाई के
नाम पर
तारीखें लेते हैं।।
कूट-कूट कर
भरे हैं
धोखे और छलावे।
- -
58
58- नवगीत
होने लगी
है आजकल
वादों की खेती।
धोखाधड़ी है,
नीति पथ से
गिर गए।
वादों के पक्के
वादों से
फिर गए।।
उत्कोच के
खरपात को
साफ करे गैंती।
क्रूर सभ्यताऐं
जंगली होती है।
मावस की
बात क्या
पूनम रोती है।
खराब समय में
मुंह फेर
लेते हैं हेती।
- -
59
59- नवगीत
चूल्हा है तिरश्कृत
जलती हुई
लुआठी है।
मिक्सी, ग्राइन्डर,
गैंस, स्टोव
है जरूरी।
कल्छुरी-बटलोई
से सदियों की दूरी।।
धुंधआते रिश्तों की
सुडौल कद
काठी है।
चांपालें पंचायत
सब हुए ढकोसले।
धुन कैबरे की
गायिका आशा भोंसले।
विप्लव में
होता पथराव
चलती लाठी है।
- -
60
60- नवगीत
दो सुकोमल
हाँथ हैं
कंडे थाप रहे।
गैया को
खली चुनी
सानी देना।
बछड़े को
छोड़ना दूध
दुह लेना।।
अपना-अपना
बुढ्ढे राग
अलाप रहे।
हाँकते
गाड़ी में
जुते हुए बैल।
लीक-लीक
चलते हैं
याद है गैल।।
कंठी माला से
राम-राम
जाप रहे।
- -
61
61- नवगीत
मज़लूम पर
रौब जमाती
खाकी वर्दी है।
चांराहे पर
हैं मुस्टंडे।
लोफर, लुच्चों,
चुहड़ों को
पड़ते डंडे।।
पुलिस के
रूतबे से हुई
जून में सर्दी है।
काटते चालान
औ नकली
है रसीद।
मोटे आसामी
से मनती
होली-ईद।
भलमनसी तो
जरा नहीं
बल्कि बेदर्दी है।।
- -
62
62- नवगीत
अभी टूटे नहीं
दूध के दाँत।
उलटी पट्टी
पढ़ा रहे।
बहला रहे,
फुसला रहे।।
होती है बे सिर पैर
की बात।
समय हुआ
आवारा है।
दिन में दिखता
तारा है।।
आड़ा वक्त ताक
रहा है घात।
- -
63
63- नवगीत
गजाला की करूण
चीखें हैं गजल।
पहाड़ों की
गोद में
मचले झरने।
धीरे-धीरे संताप
लगे हरने।।
झंझटों का रूका तूफाँ,
है फजल।
झील पर
है उतरती
शाम खुशनुमा।
उड़ान भरता
हुआ दिखता
है हुमा।।
माटी का ढेला
होता है सजल।
- -
64
64- नवगीत
मरूस्थल में
बैठी है प्यास।
न कोई नदी
न कोई झरने।
एक तड़प
लगी है संवरने।।
इर्द गिर्द झिर
करी तलाश।
उड़ते हैं
रेत के बगूले।
सहरा में हैं
दिशाऐं भूले।।
परछाइंर् है
अभी सकाश।
- -
65
65- नवगीत
चारों दिशाओं में
बरसता है नूर।
मंडप सजा
हुआ है।
शंख बजा
हुआ है।।
समारोह में
चलते हैं दस्तूर।
होता आना
जाना।
बैंड पर नाच गाना।
प्रीतिभोज का
स्वाद लिया भरपूर।
- -
66
66- नवगीत
क्यूँ उदास से
छप्पर छानी हैं।
आँगन में गौरैया
न चहकी।
आँगन में अब
जास्मिन न महकी।।
जीवन की यह
राम कहानी है।
बुझा-बुझा लगता
दिनमान है।
शापित होती सी
क्यों आन है।।
लाज शर्म से
पानी-पानी है।
- -
67
67- नवगीत
पत्थरों को भी
होने लगा आसंग।
कुदरत का यानि
अजब गजब है प्रसंग।।
फूलों के होंठ में
खिलती मुस्कान।
मधुमास ने कृति
रची डूबा जहान।।
नीड़ों से टुकुर-टुकुर
झाँकते विहंग।
चलती बयार के
खूब नाज नखरे।
खाया है मन भर के
लज़ीज अखरे।।
ढोलक की थाप पड़ी
नाचते मृदंग।
- -
68
68- नवगीत
अकाल के
पंजे में
फँस गया जिला।
छाती पीट
रोए खेत।
बहती नदी
होती रेत।।
बदले में
फ़ज़ल के
धोखे का सिला।।
चीखें, रूदन,
करूण पुकार।
हैं ज़लज़ले
के आसार।।
पत्थरों का
पेड़ है
काँप कर हिला।
- -
69
69- नवगीत
हिरणों का झुंड है
शेर की घात है।
निरंकुशता से
हो रहीं हत्याऐं।
जीवन को क्यों
डंसती है ब्यथाऐं।।
दिन हुए लिजलिजे
कलमुंही रात है।
वन के दरख्त ने
बहुत कुछ देखा है।
वधक का शासन
औ नहीं लेखा है।।
हुआ मारपेच,
आई गई बात है।
- -
70
70- नवगीत
अमराई नें पहने
वासंती गहने।
महुआरी ले
रही बलैंयाँ।
चम्पा सी
महकी है छैंया।
पुरवाई बार-बार
दे रही उलहने।
टेसु शर्म से
लाल हो रहा।
बबूलों का
बवाल हो रहा।
अंगड़ाई ले ले
नदियां लगी बहने।
फाग ने बखूबी
रंग भरे।
उस पर फूलों
के ढंग भरे।
सूर्य अब धीरे-धीरे
लगेगा दहने।
- -
71
71- नवगीत
छूछी गागर से
रीते संबंध हुए।
रिश्ते सिक्कों से
खनकते थे।
बैठकर दिन
टिकोरे चखते थे।।
उजड्ड लहरों से
घायल लटबंध हुए।
उल्लास पलक
झपकते गायब।
हुआ है वक्त
दुखों का नायब।।
गुनगुनी धूप से
प्राणी सब अंध हुए।
- -
72
72- नवगीत
आम हुए हैं
मधुऋतु के मुख्तार।
दूर तक
लहराती फसलें।
दुख की
दिखती नहीं नस्लें।।
लाल गुलाबी
टेसू के रूखसार।
गंध को
उलीचता समीर।
ताकते नयना
हैं अधीर।।
सूर्य कर रहा
किरणों का ब्यापार!
- -
73
73- नवगीत
हम ठहरे
ईमान के टट्टू
उनके वारे न्यारे हैं।
खींच खाँचकर
जेब भरेंगे।
दुनिया से वे
नहीं डरेंगे।।
बेईमान की
जय बोले जो
वे अफसर को प्यारे हैं।
ब्यवहारिकता जरा
नहीं है।
लेन-देन में
खरा नहीं है।।
काम उचक्के
की माफिक है
दिन में दिखते तारे हैं।
- -
74
74- नवगीत
नेता जी दिखाते हैं
आश्वासन के
लाली पॉप!
चलता है कारिंदों
का सघन काफिला!
दौरे से है पूरा
धरती गगन हिला।।
अवतरित इलाके में
जैसे कि हरने
दुख संताप!
है प्रजा में
लाल बत्ती
बहुत प्रभावी।
खाकी वर्दी
ऊपर से
होती हावी।।
देख ताम झाम इनका
बुड्ढे बकें
अनाप शनाप!
- -
75
75- नवगीत
भोर हुई
प्राची की गोद मेंं
खेले दिनमान।
दिन उदय
होते ही
अंधेरा दूर हुआ।
रात में
नीड़ों में
आराम भरपूर हुआ।।
दिन चढे़
सूरज ने कर दिया
धूप का है दान।
किरनें हैं
प्राणी के
देह को दुलारतीं।
तालों के
दर्पण में
खुद को निहारतीं।।
ढलता हुआ सूरज
चला गया
छोड़कर जहान!
- -
76
76- नवगीत
आज अपना घर भी
पराया सा घर लगे।
उनकी तो बात क्या
सुर्खाब के पर लगे।।
अँधेरों के बाहुपाश
रातों को जकड़े!
जाल फरेबों का बुनते
अनचाहे लफड़े।।
बाजों के झुंडों से
चिड़ियों को डर लगे।
आवागमन निषेधन है
दौड़ रही सड़कें।
मंगलमय क्षण के बदले
उपजी हैं झड़पें।।
पाप के फल लटके हों
ऐसा शजर लगे।
- -
77
77- नवगीत
बेचैन है
चाँद दूधिया।
निशानी दिया
रूमाल की।
यादें अधरों की
गाल की।।
देहरी पर
ख्वाब मूंगिया।
छूट गयी
ऊँटी की शाम।
पसीने से
तर बतर घाम।।
लग रहे हैं
दिवस ठूंठिया।
- -
78
78- नवगीत
कोलाहल में
दबी हुई है
सन्नाटे की चीख।
विपदा बैठी
फन काढे़।
हँसी ठठ्ठा
रोये दहाड़े।।
सूरज यों
कंगाल हुआ
मांगे किरनों की भीख।
गहमा गहमी
बाजारों में।
लोलुपता दिखती
नारों में।।
बिन चूके
कैलेंडर बदले
दिवस और तारीख।
- -
79
79- नवगीत
आड़ा है वक्त
वृक्ष को पत्ते
भारी लग रहे।
पंछी का कलरव
दहशत ने
लील लिया।
ऋतुओं का
चक्र हुआ
प्रदूषण ने कील लिया।।
भावनाओं को
चीरने वाली
आरी लग रहे।
खुरपी है,
गैंती है
और कुदाली है।
सन्निपात
होने से
वक्त सवाली है।।
उत्सव उमंग की
एवज में अब
ख़्वारी लग रहे।
- -
80
80- नवगीत
ग्राहक बना
जमूरा है
बाजार मदारी है।
इच्छाएं टंगी हुइंर्
शो केस में।
अब रावण फिरे
साधू के भेष में।।
हर महीने सिर पर
चढ़ती जाए
उधारी है।
मोलभाव करना
भी एक आर्ट है।
मकड़जाल हुआ
ये मेगामार्ट है।
माशा तोला
जो होता है
वो व्यापारी है।
- -
81
81- नवगीत
निराधार तथ्यों से
लबरेज याचिका।
मढ़ते आरोप
होती संघाते हैं।
मिर्च मसाला सी
भरी हुई बातें हैं।।
वकील हुए ऐसे
जैसे हो पाचिका।
मुद्दई निरापद
प्रतिवादी को
घंट है।
मुंसिफ का फर्मान
लगता
अंट शंट है।
इसलिये पिटीशन
लगती है पिशाचिका।
- -
82
82- नवगीत
हम अंगूठा
छाप हैं
वे हैं
बिल्कुल ठेठ।
देशी भाषा
में सम्मोहन।
होता है
इसका ही दोहन।।
पानी फिरा
उम्मीद पर
करे मटिया मेट।
शहरों में
चलती हैं कारें।
देहातों की
देह उघारें।।
लू लपट की
शर शैया
पड़ा हुआ
है जेठ।
- -
83
83- नवगीत
बर्तन भाड़े,
घर गिरवी,
कोर्ट खींचता खाल।
मिले प्रकरण
पर तारीखें।
घनचक्कर
यहीं से
सीखें।।
मुकदमेबाजी
हुई है अब
जी का जंजाल।
कोर्ट है
पुलिस है,
चोर है।
आपस में
जुड़ती डोर है।।
देख मंहगा न्याय
बूझे
विक्रम से बेताल।
- -
84
84- नवगीत
पाप पुण्य में
हाथापाई
गुत्थम गुत्था।
खयानत औ गिरहकटी
थाने की थाती।
सोहबत में फरेब के
नेकी फँस जाती।।
कोर्ट-कचहरी
में टेके
हर थाना मत्था।
रोड शो हुआ छोड़कर
ऊन का कालीन।
कहाँ गाँव की गैल
कहाँ राजपथ हसीन।
नेता पकडं़े
वोट के लिए
हल का हत्था।
- -
85
85- नवगीत
जन जीवन को
लील गया
आपदाओं का नाग।
अतिवृष्टि, बाढ़,
चक्रवात।
पिघल रही
मोमी रात।।
क्लेश के साबुन
से निकला
संतापों का झाग।
ख्वाहिशें सब
सील गइंर्।।
बल्ब से
कंदील गई।।
मौसम पे
तोतों ने की है
टिप्पणी बेलाग।
- -
86
86- नवगीत
घर पर पहचाने है
शीशम-सागौन।
महिमा है इनकी भी
कुछ कम नहीं।
इमारती लकड़ी है
बेदम नहीं।।
भोर उठी कर रही
नीम का दातौन।
होता है पेड़ से
स्वच्छ परिवेश।
मौसम बदलेगा
बार-बार भेष।।
सभी फूल फूले हैं
बिरला जासौन।
- -
87
87- नवगीत
पड़ता है अब
लू लपटों का
जमकर चाँटा।
सूरज
ज्वालामुखी है
किरने लावा।
पोखर ठोंके
कोर्ट में
जल का दावा।।
ताल हुए डबरे
गर्मी ने
ऐसा डाँटा।
छाँव भी
पेड़ों से
माँग रही पनाह।
मन के
आँगन में
घुसकर बैठी डाह।।
इसी वजह से
मौसम को
ऋतुओं में बाँटा।
- -
88
88- नवगीत
चल रहा
है दुखों
का काफिला।
खुशियाँ हैं
पानी का
बताशा।
अपरिचित
शहर में
क्या शनासा।।
राजधानी
खोने लगी
जिला।
चाँदनी
धूप सी
तपने लगी।
उजाले
की देह
कँपने लगी।।
राह में
बबूलों का
वन मिला।
- -
89
89- नवगीत
गुलमोहर मानो
स्वर्ग का फूल।
लबालब भरा
है पराग।
खुले मधुमक्खी
के भाग।।
मधुका का छत्ता
रहा है झूल।
धधके अंगार
सा रंग।
खिले हैं
मधुऋतु के अंग।।
फूलों की नदी
गंधों के कूल।
लाल हैं
और हैं पीले।
गाँव में
इनके कबीले।।
वैशाख जेठ
नहीं जाते भूल।।
- -
90
90- नवगीत
भट्टी की
धधक रही
आग हुआ मौसम।
हवाऐं हैं,
लपट है,
लू है।
गर्म तवे
सी तपती
भू है।।
ऋतुओं के
दामन पे
दाग हुआ मौसम।
प्यासे हैं
नदी और
झरने।
पेड़, पात,
फूल लगे
डरने।।
आग उगलता
रवि
घाघ हुआ मौसम।
चंद्रपुर गर्म
जम्मू ठंडा!
कुंआ पहने
तावीज गंडा।।
जिला, प्रदेश
और संभाग
हुआ मौसम।
- -
91
91- नवगीत
ऐनाकोंडा रातें,
होंगे दिन
कसाई।
उमंगे मन की
बासन धोतीं।
है शादमानी
अखियाँ रोती।।
अभिनंदन
के बदले में
है जग हँसाई।
मंगल क्षण
फूलों पर सोते।
खेद के झुरमुट
ब्यथा बोते।
चाँदनी और
अमावस में
न शनासाई।
घड़ियाल से
पानी में बैर।
भगवान से
मना रहे खैर।।
क्या करेंगे
बंदरों से
हम आशनाई।
- -
92
92- नवगीत
पेड़ की
शाखों पर
पीके हैं दिन!
हफ्ते-हफ्ते
हो गया महीना!
धूप का दिखा
वस्त्र बहुत झीना!!
छल, कपट,
भेदभाव
सीखे हैं दिन!
नैतिकता का
लोगों में अभाव!
नेकी का है
उजड़ा हुआ गाँव!!
गझिन-गझिन
बस्ती
अनीके हैं दिन!
है दुर्दिन का
मद्य पड़ा पीना!
टपक रहा है
बदन से पसीना!!
हल्ला के
बीच में
चीखें हैं दिन!
- -
93
93- नवगीत
घनी-घनी छाया
देते हैं पेड़!
पेड़ों से सुंदरता
वायु है शुद्ध!
मगन-मगन ध्यानरत
लगते हैं बुद्ध!!
नेह से निरखती
खेतों को मेड़!
भूमि के पुत्र हैं
इसलिए काटो मत!
सागर, मरूस्थल,
जंगल को
बाँटो मत!!
फूल की गंध रही
साँस को छेड़!
- -
94
94- नवगीत
बिल्ली के
भाग से है
छींका टूटा!
कूदें बल पर
खूँटे के!
मुंह में आगी
झूठे के!!
पड़ी फूट
घर में
बाहरी ने लूटा!
कोदों छाती
पर दलना!
और उल्टी
चाल चलना!!
आज पाप का
घड़ा है
भरकर फूटा!
- -
95
95- नवगीत
लपटें करतीं
लू का टोना!
पेड़ों ने
सिर है
मुंडवाए!
और जंगल
भिक्षु
हो जाए!!
पतझर में
छाया का गौना!
कुऐं, बावड़ी,
पोखर सूखे!
बागों के
स्वभाव हैं रूखे!!
नदिया है
रेत का बिछौना!!
- -
96
96- नवगीत
चलती रही
है जिंदगी
बैसाखी में।
सड़कों की
छाती पर
ट्रेफिक दौड़ा।
धोखाधड़ी की
फ़ितरत हुई पोढ़ा।।
आपदा शंकालु
चैन है
फ़राख़ी में।
अब संबंधों
की नाव
डोलती है।
औ खामोशी
फिजाँ में
घोलती है।।
अदब से ज्यादा
हर्ष है
गुस्ताखी में।
आदिम काल
जेहन में
चलने लगा।
एक जंगल
उर स्थल में
जलने लगा।।
कितना सुकून
है उड़ते
वन पाँखी में।
- -
97
97- नवगीत
तप्त धरा की
प्यास बुझाने
बादल आए।
झरनों में
जल का
संचार हुआ।
हों कोंपल
अषाढ़ की
यही दुआ।।
दादुर ने
झींगुर ने
मेघ मल्हार गाए।
छोटी-छोटी बातें
तूल बनी।
बोंड़ी जब
निकली तो
फूल बनी।।
अब हरियाली
पत्ते-पत्ते
में अँखुआए।
- -
98
98- नवगीत
इधर वक्त
हुआ सैलानी।
घाटी, पर्वत
झील देख।
शोरगुल लगता
है मेख।
फूटती गूंगे
की बानी।
मंहगा किराया
भाड़ा।
प्रमोद में
आता आड़ा।।
पर्यटन में
मरती नानी।
- -
99
99- नवगीत
बात कुछ नहीं
और मामला
पकड़ रहा
है तूल।
इनकी बोल
रही तूती।
चमचे चाट
रहे जूती।।
टोह मिली तो
चिंता में
और आशा में
गए झूंल
कुछ तो
तोड़े हैं तूफान।
चारा डाल
फूंके कान।।
अब यही
गनीमत समझो
कि पुजने
लगा है मूल।
- -
100
100- नवगीत
भरे समुद्र में
घोंघा प्यासा।
कब से
रहे हैं
खाक छान।
भूख में
गूलर भी
पकवान।।
टेढ़ी खीर है
देना झाँसा।
लोग बाँधते
झूठ के
पुल।
टोले में
हैं खिलते
गुल।।
बुरे चलन का
पलटा पाँसा।
- -
101
101- नवगीत
उनका तन
गंधों से
भरा लिबास।
हुआ है
मृगनयनी
का प्यार।
अंग से
झरते हैं
कचनार।।
होता उनके
होने का
आभास।
होना है
मुदित-मुदित
सा मन।
देहों में
उतरे
चंदन वन।।
तुममे दिखा
जुन्हाई का
उजास!
- -
102
102- नवगीत
नौ सौ चूहे
खा बिल्ली
हज को चली।
कह-कह
के घिस
गई ज़बान।
अब आगे
बस रखना
मान।।
है भागते
भूत की
लंगोटी भली।
बेईमानी का
खुला है
भरम।
अपनी करनी
पर कर
जरा शरम।
लाख-लाख
शुक्र है खुदा का
बला टली।
- -
103
103- नवगीत
पर उग जाए
नाकामी के।
रद्द उड़ान
परिंदों की।
बदरंगी है
रिंदों की।।
दिन बहुरे होंगे
खामी के।
चुगद हुए
तम का वितान।
जुल्म पोसता
है जहान।।
लगते कलंक
बदनामी के।
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104
104- नवगीत
ऋतु पावस की
आ गया रक्षा बन्धन!
सुवास घुली है
बहती पुरवाई में।
राखी बाँधी
मौसम की
कलाई में।।
सावन करता
बारिश से
अभिनन्दन!
घर-घर डाकिया
बाँट रहा
है चिट्ठी।
परदेश में भाई
यादें खटमिट्ठी।।
लगने लगे ठहाके
गायब क्रन्दन।
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105
105- नवगीत
रोई आँगन
में बरसात।
भीगी बिल्ली सी
रात डरी।
पावस की बातें
हरी-हरी।।
अंदेशों में
जागी प्रात।
बारिश का
कहर हुआ
तड़के।
मेघा गरजे
बिजली कड़के।।
बूँदों की
बाँटे खैरात।
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106
106- नवगीत
सावन में है
पंद्रह अगस्त।
आसमान में
मेह है।
वतन हमारा
गेह है।।
खयानत में
क्या बंदोबस्त।
होती जाल-
साजी है।
डींग औ
लफ्फाजी है।।
अगरचे देश
हैं तंगदस्त!
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107
107- नवगीत
फैला जंगल
शुतुरमुर्ग है।
घात लगाए
हुए चीता।
यानि जीवन
का घट रीता।।
अहिंसा का
ढहता दुर्ग है।
जन्म लेना
इक लाचारी।
गोश्तखोरी
सब पर भारी।।
माँस नोचता
रहा गुर्ग है!
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108
108- नवगीत
फूट रहे आज
बाँस में करैल।
झर रहे
झरनें रोते हैं शैल।।
पेड़ हुए उदास
चुपचाप खड़े।
पथरीली राहें
चट्टान अड़े।।
सींगें फँसा
हुंकारते हैं बैल।
सन्नाटे उग
रहे हैं शूल से।
फुनगी लड़ने
लगी है मूल से।।
पुरवा पछुआ भी
हुइंर् हैं दगैल।
आज टोली में
हो गया तनाव।
बच्चे भी भूल गए
आव भाव।।
रक्त का पिपासु
होता है ज़ैल।
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109
109- नवगीत
ज़िदगी ज्यों ज्यों
चढे़ सोपान।
उमर अपने
खोलती है कान।।
आठों पहर
संकट में घिरे।
कालिमा के हैं
अब दिन फिरे।।
ले उड़ा पल छिन
दुखों का यान।
दिन, सप्ताह,
महीने उदास।
नकुल साँप के
हुए हैं खास।।
है बदहवास
कोयल की तान।
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110
110- नवगीत
देव असुर हो जाएं
ऐसा हुआ समाज।
न्यायालय में
न्याय बिका।
दुर्दिन नें है
भाग्य लिखा।।
मचल रहे सड़कों पर
रजवाड़ों के राज।
मन्दिर में
भगवान नहीं।
वेदों में अब
ज्ञान नहीं।।
वर्तमान है गोया
हुआ कोढ़ में खाज।
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111
111- नवगीत
उनको वारिस
नहीं मानता
अब पटवारी है।
पहले शपथ
पत्र बनवाएं।
उन पर कुछ
स्टाम्प लगाएं।।
कोई गवाह बताए
वल्दियत
तुम्हारी है।
लिए जरीब
खेत मे घूमे।
चोर सिपाही
झपटे झूमे।।
नेकनियत के आगे
रिश्वत भी
हारी है।
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112
112- नवगीत
सर्प से विषैले हैं
कोर्ट के मुकदमें।
न जाने कब से ये
लंबित हैं वाद।
जीवन में वादी के
घुलता विषाद।।
कहा सुनी होती है
हम अपने हद में।
मछली की
किस्मत में
रहा तैरना।
कटे फटे घाव में
हाँथ फेरना।।
दिन रहे हमेशा हैं
रातों की जद में।
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113
113- नवगीत
हिंदी सुघड़
सलोनी है।
इसमें
लालित्य भरा।
मीठा
साहित्य भरा।।
हिंदी हुई
मघोनी है।
है संस्कृति
का गहना।
निर्झरिणी
सा बहना।।
बोल चाल में
नोनी है।
अरबी-तुर्की-
फारसी।
है भाषा में
आरसी।।
उर्दू बिना
अलोनी है।
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114
114- नवगीत
पूरा विश्व
सिमट गया
कंप्यूटर लेप टाप में।
ई मेल है,
पेनड्राइव है।
खुल्लम खुल्ला
अब ब्राइब है।।
औन पौन मिलतीं
चीजें फेयर प्राइस
शाप में।
इंटरनेट का
गूगल भेजा।
दुनिया का
संज्ञान सहेजा।।
कोई लाभ नहीं
दुर्गा सप्तशती
के जाप में।
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