यावत् स्थास्यन्ति गिरय: सरितश्च महीतले।। तावद् रामायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यति। वा.रा. बाल. सर्ग ३-३६-३७ इस पृथ्वी पर जब तक नदियों व पर्वतों की...
यावत् स्थास्यन्ति गिरय: सरितश्च महीतले।।
तावद् रामायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यति।
वा.रा. बाल. सर्ग ३-३६-३७
इस पृथ्वी पर जब तक नदियों व पर्वतों की सत्ता रहेगी, तब तक संसार में रामायण कथा का प्रचार होता रहेगा। इस तरह भारत की कश्मीर से कन्याकुमारी तक की मिट्टी एवं हवा में श्रीरामकथा का प्रवाह निरन्तर सदियों तक प्रवाहित होता रहेगा। श्रीरामकथा से कश्मीर कैसे अछूता रह सकता था? अत: वहाँ भी श्रीरामकथा का १९वीं शताब्दी के बाद कश्मीरी साहित्य में काव्य सृजन की परम्परा का श्रीगणेश हो गया। कश्मीर में लगभग ७ रामायण लिखी गई है, जिनमें उल्लेखनीय है-
विष्णुप्रतापरामायण -पं. विश्वम्भरनाथ कौल १९१३ ई., शंकररामायण- पं. शंकर कौल सन् १८७० ई., आनंद रामावतार चरित- पं. आनंदराम राजदान सं. १८८० ई., शर्मारामायण- पं. नीलकंठ डब ग्राम १९१९-१९२७ आदि कई प्रकाशित रचनाएँ कश्मीरी भाषा में विद्यमान हैं।
कश्मीरी रामायण अर्थात् रामावतारचरित की रचना १८वीं शताब्दी के अंत में श्री दिवाकर प्रकाश भट्ट तथा कहीं-कहीं इनका नाम श्रीप्रकाशराम कूर्यग्रामी भी है, के द्वारा की गई। इनकी रामायण लिपिबद्ध होने से इनकी कश्मीर में बहुत ख्याति है। इनके बारे में ऐसा कहा जाता है कि श्री प्रकाशरामजी को जन्म से आश्चर्यजनक शब्द शक्ति और प्रबल स्मरण शक्ति इनकी उपास्य देवी भगवती त्रिपुर सुन्दरी की कृपा से प्राप्त थी। यह रामायण प्रथम बार १९१० ई. में फारसी में प्रकाशित हुई तदनन्तर ग्रियर्सन महोदय ने १९३० ई. में रोमनलिपि में प्रकाशित करवाया। इस रामावतारचरित में अधिकांश कथाप्रसंग महर्षि वाल्मीकिजी के रामायण के अनुसार वृतान्त है किन्तु इसमें बहुत सा परिवर्तन तथा परिवर्द्धन भी किया गया है। कहीं-कहीं इस रामायण में कई प्रसंगों में अध्यात्मरामायण का प्रभाव, भक्ति, ज्ञान और वैराग्य के प्रसंगों में झलक पड़ती है।
श्रीरामजी के बारे में जितना कुछ लिखा जाए, वह बहुत कम है। अत: हमें यह बात डॉ. सर मोहम्मद इकबाल के शब्दों में सदा स्मरण रखना चाहिए।
है राम के वजूद पै हिन्दोस्ताँ को नाज।
अहल ए नजर समझते उन्हें इमाम ए हिन्द।।
श्रीप्रकाशराम कूर्यग्रामी के रामावतारचरित (रामायण) की मूलकथा में कई प्रसंगों में परिवर्तन और परिवर्द्धन किए हैं, उनमें से कुछ प्रसंग अल्पज्ञात एवं दुर्लभ होने से दिए जा रहे।
सीताजी के कहने पर रावण द्वारा जटायु को पत्थर खिलाना।।
सीताजी के हरण की बात (खबर) सुनकर जटायु सचेत हो गया तथा तत्काल वहाँ आ गया। उसने आते ही रावण से कहा कि- तेरी मौत आ गई है, जिसका कारण यह तेरा सीताहरण करने का पाप है। जटायु ने अत्यंत जोरदार आवाज में रावण से कहा कि- यह तुझे किस अंधकार ने घेर लिया है जो अपने घर को स्वयं ही अपने हाथों से इस कुकृत्य द्वारा भस्मीभूत कर रहा है। क्षण भर के लिए रावण तू रुक जा ताकि मैं तुझे इसका अंजाम बतलाऊँ। ऐसा कहकर जटायु ने अपने पर के धक्के से रावण को ऊपर आकाश में उछाल दिया। उसके उछाल दिए जाने से रावण जमीन पर गिर गया तथा उसकी हड्डियाँ टूट गई। जटायु रावण को पकड़कर पंजों से उसके शरीर को नोचने लगा और छल बल से उसके सिर काटने लगा। इतना होने के बाद रावण के सिर वापस साबूत बन जाते। रावण खूब जोर (ताकत) दिखाने लगा। तब रावण ने शमशीर (तलवार) उठाकर उस पर जोरदार वार करके चुपके से जटायु के पर काट डाले। फिर क्या हुआ-
पथर प्यव पर चंटिथ गव छुसनु छोरन। वन्यस क्याह रावुनस छुनु चोंट फोरना।।
देपुस सतायि कर वौन्य जिन्द छोरी। चै चंटिथस पर तभ्युक पादाश होरी।।
वौनुन सतायि वुन्य यैत्य बु मारथ। नतु हावुम अंमिस निशि मौकलनुच वथ।
अंनिन सखती तंमिस सतायि वोन हाल। अंमिस जानावरस किथु पाठ्य छुस काल।।
दोपुस तमिरथ मंथिथ दिलपल च्रुदांरिथ। यि छ्रुनि न्यंगुलिथ तु जानिन पतु लांरिध।।
रामावतारचरित (कश्मीरी रामायण) अरण्यकाण्ड १०९/११-१५
जटायु के पंख कटते ही वह भूमि पर गिर पड़ा, फिर भी उसने रावण का पीछा छोड़ा नहीं। रावण उसके समक्ष विवश हो गया। सीताजी ने रावण से कहा कि यह अब जीवित नहीं छोड़ेगा। तुमने इसके पंख काट दिए, अब यह तुमसे इसका प्रतिशोध लेकर रहेगा। तब रावण ने सीताजी से कहा- मैं तुम्हें अभी यहीं पर मार डालूँगा अन्यथा इससे मुक्त होने का उपाय बताओ। सीताजी पर रावण ने बहुत दबाव डाला तब सीताजी ने रावण को वह सारा तरीका बताया, जिससे जटायु का काल आ सकता था। सीताजी बोली- रक्त से सने हुए बड़े-बड़े पत्थरों को इसके ऊपर फेंक दो। जटायु उन्हें निगल जायेगा और इस प्रकार तुम्हारे पीछे नहीं लगेगा। तदनन्तर जब श्रीरामजी से यह सारा वृत्तान्त बतायेगा तब ही काल (मृत्यु) उसे मुंह दिखायेगा। जब तक यह श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन कर, उसे मेरी सारी बातें नहीं सुनायेगा। तब तक यह कभी मरेगा नहीं। रावण ने भी सीताजी के कहे अनुसार जटायु को रक्त से सने बड़े-बड़े पत्थर खाने को दिये जिन्हें खाकर जटायु भारी होकर धराशायी हो गया। रावण को भागने का अवसर मिल गया और वह सीताजी का अपहरण कर आकाश मार्ग से लंका की ओर चल पड़ा।
नल ने ही समुद्र पर पत्थर तैराकर सेतु क्यों बनाया?
नल ने ही समुद्र पर पत्थर तैराकर सेतु कैसे निर्मित किया? इस वृत्तान्त का रामावतारचरित में एक अलग कथा में युद्धकाण्ड के पद्यांश १ से २० तक में वर्णित है-
श्रीराम वरुण को मनाने लगे कि उन्हें इस पानी (सागर) से पार करने का कोई मार्ग किसी भी तरह दिखा दे। अनुनय-विनय करने के पश्चात् भी जब वरुण ने कुछ न सुना तो समुद्र के कण-कण जला डालने के उद्देश्य से समुद्र में श्रीराम तीर चलाने को तत्पर हुए। तभी वरुण प्रकट होकर श्रीराम की शरण में आ गए। यह देखकर श्रीराम ने समुद्र में तीर चलाना बंद कर उस तीर को उत्तराखण्ड की ओर चला दिया, इससे वहाँ सब कुछ जलकर नष्ट हो गया। तदनन्तर वरुण ने एक कथा के माध्यम से समुद्र पर सेतु निर्माण का मार्ग बताया। वरुण ने कहा- बहुत पहले एक धोबी रहा करता था, जो ऋषियों, जोगियों, संन्यासियों आदि के वस्त्र धोया करता था। वहाँ उस वन में एक वानर रहता था, जिसका नाम नल था। धोबी को देखकर उसको क्रोध और ईर्ष्या होती थी, क्योंकि वह उसके वस्त्र नहीं धोता था। नल ने धोबी से कहा कि मेरे वस्त्र भी तुम धोया करो। यदि तुम मेरे वस्त्र धो नहीं सकते तो कम से कम ओढ़ने के लिए कुछ धुले हुए कपड़े तो दे दिया करो। यदि तुमने ऐसा मेरा कहा नहीं माना तो तेरे इस धुलाई के पत्थर को पानी में डाल दूँगा और तुझे यह कपड़े धोने का पत्थर प्रलयपर्यन्त नहीं मिल सकेगा। इस तरह नल से धोबी त्रस्त हो गया। तब वह धोबी एक ऋषि के पास जाकर उसने अपना दुखडा उन्हें सुनाया। यह सुनकर ऋषि ने नल को शाप दिया कि वह जो भी पत्थर नदी (पानी) में फेंक देगा तो वह जल पर नाव की तरह तैरने लगेगा। वरुण ने श्रीराम से कहा-
सदाशिवु छुय न रैशय सुन्द वाक फेरन।
यि कैह पानिस अन्दर छ्रुन तम्यति ईरन।।
सु छुय वुनिकयन दिवन लशकरि अन्दर छ्रौह।
करान खदमुत सु चांनी रात तु दौह।।
रामावतार कश्मीरी रामायण युद्धकाण्ड १४-१५
हे सदाशिव राम। ऋषि का शाप कभी असत्य (बदलता) नहीं है। यह वही नल इस समय आपके लश्कर (सेना) में विद्यमान है और आपकी दिनरात खिदमत करता है। यह सुनकर श्रीरामचन्द्रजी अत्यधिक प्रसन्न हो गए और सेना को समुद्र के किनारे ले गए। श्रीराम ने यह मुनादी (आज्ञा) दी कि समुद्र पर सेतु निर्माण के लिए सभी नल को सहयोग दें और तभी वानर सेना हाथों में पत्थर ले आई। नल पत्थरों को पानी में डालने लगा और इस तरह लंका तक सेतु बन गया, जिसे अब तक कोई बना नहीं सका था।
रावण के चित्र के कारण सीता को त्यागना
श्रीराम खुद ज्ञाता और सर्वज्ञ थे, किन्तु नियति के चक्र के कारणों से वे भी बच न सकें। यथा-
तंमिस सताथि मा ओसुस लौकुट जाम। तमी क्याह कोर तमिस वर मंदिन्यन शाम।।
स्यठाह ओसुसै गोमुत सूतायि हुन्द वार। लोबुन यैलि दस्तगाह प्यव तस कौठयन पोर।।
रशक ओनुसस बुछिव तस क्याह यि वोनुनस। प्रंगस खरिन तु तल्य किन्य चाह खोनुनस।।
च्रु मा छख जाँहति कोमा म्यान्य बोजन। पुनन्य आसिथ व्यंदान हय ध्रुरब में दशमन।।
प्रुछय पेज्य किन्य गछ्यम लीखिथ मै हावुन। बसूरथ ओस क्युथ हयुव दशिरावुन।।
रामावतार लव-कुश काण्ड ननद की जलन १६ से २० कश्मीरी रामायण
ऐसा कहते हैं कि सीताजी की एक छोटी ननद थी। उस ननद ने सीताजी की भरी दुपहरी को अन्धेरी शाम में बदल डाला। उस ननद का सीताजी के प्रति खूब बैर था। वह सीताजी के सुख-वैभव को देखकर मन ही मन में कुढ़ती थी। समय की मार कहे या नियति का विधान? ऐसा हुआ मानो तख्त पर चढ़ाकर नीचे उसके लिये खंदक खोद डाली। ननद एक दिन सीताजी से बोली कि तुमने आज तक उसकी कोई बात नहीं मानी तथा वह उसे सदा अपना शत्रु मानती रही। ननद ने कहा कि आज मैं कुछ चाहती हूँ तुम सच सच लिखकर मुझे बताओ। वह दशमुख रावण सूरत से भला कैसा था?
सीता के सामने रावण के स्वरूप को जानने के लिए उसने उन्हें विवश कर दिया। सीताजी ननद की मन की इच्छा न जान सकी। अंत में उसके मनुहार पर सीताजी ने रावण की सूरत बनाकर ननद को दिखाकर कहा- देख कैसे नरकवासी रावण जहर खा रहा है। ननद उस रेखाचित्र को अपने भाई श्रीराम के पास ले गई और उन्हें इसे दिखाया। ननद ने श्रीराम से कहा कि सीता रोज इस चित्र को देखकर रोती है- विलाप करती है। उसकी आँखों से खून के आँसुओं की धारा बहती है। यदि वह जान जाय कि उसका यह रावण का रेखाचित्र मैंने चुरा लिया है तो वह मुझे मार डालेगी, ऐसी डाकिन है। बस फिर क्या था विधि-विधान के अनुसार श्रीराम ने लक्ष्मण द्वारा उन्हें वन में छोड़ आने की आज्ञा दे दी। लक्ष्मणजी को भी विवश होकर श्रीराम की आज्ञा मन मारकर पालन करना पड़ी। यही कथा प्रसंग आनंदरामायण में कैकेयी द्वारा सीताजी से रावण की आकृति पूछना और सीता का दीवार पर केवल रावण के अंगूठे का आकार बताना तथा सीताजी के चली जाने पर कैकेयी द्वारा रावण के अंगूठे के अनुरूप रावण के सारे शरीर का चित्र बनाया तथा श्रीराम के पूछने पर कैकेयी ने सीताजी द्वारा चित्र बनाया बताया गया तथा कैकेयी श्रीसीताजी को श्रीराम द्वारा परित्याग का कारण बनी। यह सब विस्तृत वर्णन आनन्दरामायण में जन्मकाण्ड के तृतीय सर्ग में श्लोक १ से ८८ तक अत्यन्त ही विस्तार से प्राप्त होता है।
रामावतार में लव-कुश जन्म कथा प्रसंग
सीताजी द्वारा एक पुत्र का जन्म हुआ, सुनकर वाल्मीकिजी ने उस राजपुत्र का नाम लव रखा। रामावतार में ऐसा वर्णित है कि जब सीताजी वन में जंगली शाक (कंदमूल) ढूंढ-ढूंढ कर लाती और अपने पुत्र को ऋषि के सामने रख देती। एक दिन सीताजी सोचने लगी कि उसके वन में चले जाने के बाद वह नन्हा बालक उसे अवश्य ढूंढता होगा, रोता होगा तथा ऋषि का ध्यान भंग हो जाता होगा। अत: एक दिन वह उस बालक को उठाकर वन में अपने साथ ले गई। ऋषि बड़ी ही सजगतापूर्वक उस बालक के रोने व उसकी क्रियाकलापों को देखने के अभ्यस्त हो गए थे। उस दिन उन्होंने अपनी आदत के अनुरूप जब बालक की आवाज न सुनी तो वहाँ नजर उठाकर देखा तो बालक नहीं था। उन्हें बड़ा अफसोस हुआ कि कोई उस बालक को उठाकर ले गया है। शायद कोई जंगली जानवर भी हो सकता है। सीता के आने पर वह विलाप करेगी, मैं उसे क्या जवाब दूँगा। उसी समय उन्होंने कुश (दर्भ) की एक सींक को हाथों में उठाकर बड़ी ही सावधानी से उन्होंने ईश्वर से यह आशीर्वाद मांगा कि हे सदाशिव! दर्भ का वैसा ही बालक बने जैसा लव था, जैसा कि नीचे पद्यांश में वर्णित है-
मेजिन आंही वनुनि लोग ही सदाशव।
गंछिन यथ दरबि बालुख युथ तमिस लव।।
वनिन लीला शरन सोपुन दयस कुन।
दरबि बालुख प्रज़लवुन पोदु सोपुन।।
रामावतारचरित कश्मीरी रामायण लव कुश काण्ड ३५
ईश्वर की शरण में जाकर उन्होंने हृदय से प्रार्थना की और तभी उस दर्भ (कुश) से प्रज्वलित होता हुआ एक बालक उत्पन्न हो गया। तब उसे ऋषि ने अच्छी तरह सुला दिया और कहते हैं कि तभी सीताजी स्नान कर तथा हाथों में कंदमूल लिये वन से वापस आ गई। वहाँ उसने एक और वैसा ही बालक देखा तो आँखों को मलते हुए कहने लगी कि यह मेरी आँखों का दूसरा तारा कहाँ से पैदा हो गया। ऋषि पहले से ही शंकित थे अत: उन दोनों पर दृष्टि डालकर मुस्कराते हुए कहने लगे- इसे भगवान की इच्छा जानों और उसके कार्य को देखते जाओ। उन्होंने सीताजी से कहा कि तुम इन दोनों में कोई भेदभाव मत जानों। अब ये दो नहीं एक ही हैं। इसे देवगति समझकर रहस्य की बात को मन में छिपाकर रखना। सीताजी ने भी महर्षि वाल्मीकिजी के कथानुसार दोनों का पालन पोषण बिना भेदभाव से किया।
लव-कुश के जन्म की ऐसी ही विस्तृत कथा प्रसंग विस्तार के साथ आनंदरामायण के जन्मकाण्ड के चतुर्थ सर्ग में कुछ परिवर्तन के साथ वर्णित है। उन्होंने कुश को ज्येष्ठ पुत्र और लव को छोटा पुत्र बताया है। अंत में श्रीरामकथा की व्यापकता के बारे में गोस्वामी तुलसीदासजी ने जो कहा वह सदा स्मरण रखना चाहिए।
हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता।
रामचन्द्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए।।
श्रीरामचरित मानस बाल. १३९-३
----
डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
'मानसश्री’, मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर
सीनि. एमआईजी-१०३, व्यास नगर,
ऋषिनगर विस्तार, उज्जैन (म.प्र.)
Email : drnarendrakmehta@gmail.com
COMMENTS