1. जीने के पूर्व 2. तस्वीर – 3 3. आग 4. तुम 5. आदमी–3 6. खिलखिलाती आज इतनी यामिनी क्यों? 7. सूरज 8. अनुबंधित पीर 9. तथागत से--- 1...
1. जीने के पूर्व
2. तस्वीर – 3
3. आग
4. तुम
5. आदमी–3
6. खिलखिलाती आज इतनी यामिनी क्यों?
7. सूरज
8. अनुबंधित पीर
9. तथागत से---
10. जीवन
1----जीने के पूर्व
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मैंने पुस्तक पढ़ा‚
पुस्तक पढ़कर जिन्दगी जीना चाहा।
कोई सिद्धान्त‚कोई आदर्श
अपनाना चाहा।
जैसा लिखा वैसा जीना चाहा।
सारा कुछ साबित हुआ
सिर्फ शब्द या अक्षर।
सारे अर्थ बदले हुए।
न आगोश में लेने को आतुर गाँव।
न रोजी–रोजगार बाँटता शहर।
न चलने को कोई साफ सुथरी सड़क
या गली।
न सुस्ताने को सराय।
न मिला वायदे के मुताबिक
उबला हुआ पानी
न ही ठण्डी चाय।
पिरोकर हरफों को सूई में
जिन्दगी में टाँकना चहा।
बहुत डूबकर गहरे
इस समुद्र के
एक संज्ञा अपने लिए छाँकना चहा।
वक्त ने और भूख ने
युग के कच्छपी पीठ पर
टिकाकर मुझे जब मथा
अस्तित्व के अमृत के लिए।
इस मंथन के अग्नि दहन में
मेरे साथ रहा मेरा चिथड़ा शरीर मात्र
जल गयी सारी पुस्तकें
जाने किस मृत के लिए।
चौपड़ था सारा कुछ
कुरूक्षेत्र यदि धर्मक्षेत्र था तो
महाभारत जैसा महासमर क्यों?
2---तस्वीर – 3
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सुन्दर‚मनहर‚सुखकर‚प्यारा।
जब प्रभात ने पंख पसारा।
इस बतास में मन्द गँध का।
द्वार खुला जब पड़े बन्ध का।
हरी दूब पर कोमल शबनम।
लगा चमकने जब है चमचम।
उषाकाल के प्रथम चरण में।
चमका मुखड़ा सूर्य किरण मैं।
शान्त स्वच्छ निर्मल था कितना।
होता जलधि का नील जल जितना।
भोलापन ज्यों टपक रहा था।
मन दर्पण सा चमक रहा था।
मृदुता तनकर तन पर सिमटी।
ज्यों नव कोंपल तरू से लिपटी।
पंखुरी सा कोमल और निश्छल।
मानस शिशु का अविचल‚अविकल।
चित्रकार ने खींचा जो छवि।
लगता था शैशव का हो रवि।
दिन बीते क्षण‚रातें गुजरी।
ध्वस्त हुआ बहु‚बहु कुछ संवरी।
सब नवीन अब हुए पुरातन।
बदल गया सृीष्ट का तन‚मन।
विजय यात्रा में नर गुरूजन।
बहुत दूर तक बढ़ रहे क्षण–क्षण।
तभी अचानक एक दिवस को।
दृष्टि उठ गयी अति परवश हो।
रँग‚रेख से भरी गई जब।
औ' आकृति भी उभर गई जब।
कपट और छल टपक रहा था।
रँग गुनाह के चिपक रहा था।
साँस–साँस में महक रहा था।
गँध खूनी ही गमक रहा था।
धूर्त और धोखे की ज्वाला।
मन था उसका कितना काला।
आँखों में विध्वंस भरा था।
सिर्फ विनाश का अंश भरा था।
असुर वृति हर क्रिया–कलाप में।
काँप क्रोध जो रहा आप में।
रोम–रोम में जहर भरा था।
मन के व्योम में आग भरा था।
गँधा रहा था मानस उसका।
कुटिल‚काम‚मदमय हो जिसका।
देख गौर से चित्रकार जब।
चौंक गया था कुछ विचार जब।
मीन–मेष कर उसने देखा।
रँग–रँग को रेखा–रेखा।
भरे धुँध से‚धुँआ धूल से।
उभर उठा छवि दूर कूल से।
रेॐ यह तो शिशु का तन–मन है।
चन्दन चर्चित पूर्ण बदन है।
यह आकृति इतनी छलनामय?
देव‚हुआ क्या?किासका पराजय।
कौन हारकर मन मारे है?
तू या काल खेल हारे है?
नियतिॐया तू ही प्रपंची है?
सिर्फ कलाकार ही मंची है।
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3--- आग
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हाथ सेंक दे जो
सुलगा दे सिगरेट।
आग वह नहीं जो उगलता है जेठ।
जो तपिश बुझा दे
जलते तमाम मन का—
आग वह है जो
सुलगा दे स्याही मेरे तपन का।
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4----तुम
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ओस से धुली हुई‚फूल सी खिली हुई
कनक सा रँग सुन्दरि।
ओठ आग सा दहक‚आँख गीत सा महक
तन बदन पुलक रहा।
छलक रही सुगँध उस बतास में
छू चला जो लट‚कपोल छू चला।
अँग ज्यों तराश कर‚मन में तेरे प्यास भर
भर गगन का गान वो किलक रहा।
…… । । । … …
5----आदमी–3
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आसमान टुकड़ों में बँटा
और आदमी‚
आसमान हो गया।
कुछ सिक्के अँगूठे पर उछालकर
बेचना इसे
आसान हो गया।
आदमियत
ज्यों जानवरों ने चर लिए।
क्योंकि
'ऋणात्मक पुरूष'
आदमी में बहुत ज्यादा
प्राणवन हो गया।
कौन टूटा नहीं
प्रलोभनों के समक्ष
नीति कि नैतिकता‚श्रद्धा कि आस्था
शहर का पंचतत्व भी
और गाँव अनजान हो गया।
गणित शहरी हुआ जितना
आदमी के अंकों का मूल्य घटा।
और शून्य उसका मान हो गया।
शब्द–शास्त्र बिकाऊ हो गया
क्योंकि
सारा प्रबुद्ध वर्ग
इस बस्ती का
सस्ते में इन्सान हो गया।
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6----------खिलखिलाती आज इतनी यामिनी क्यों?
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खिलखिलाती आज इतनी यामिनी क्यों?
छेड़ने के पूर्व उठती सिहर इतनी रागिनी क्यों?
फुसफुसाकर तुम बुलाती इसलिए क्या?
शर्म में से डूबी हुई सी भाग जाती इसलिए क्या?
पास आते ये अधर जाते लजा हैं इसलिए क्या?
माँगता मधु प्रणय प्यासा इसलिए क्या?
जन्म से अनजान करते आत्म–अर्पण।
प्राण में हम प्राण का विह्वल समर्पण।
युग–युगान्तर से अलग एक रैखिक हो रहे हैं इसलिए क्या?
प्रणय का सिन्दूर तेरे माँग में भर प्रणय–याचना कर रहे हैं इसलिए क्या?
खिलखिलाती आज इतनी यामिनी क्यों?
हाँ चमकती आज इतनी यामिनी क्यों?
खिलखिलाती आज इतनी यामिनी क्यों?
आज अन्तर में छिटकती दामिनी क्यों?
दूर तक चेहरा तुम्हारा नजर आवे इसलिए क्या?
जिस्म दो पिघले‚मिले हो एक जाये इसलिए क्या?
सोचना क्या जिन्दगी दो पर‚ जियेंगे एक ही क्षण।
एक जीवन‚एक प्रण–मन एक ही निःश्वास पावन।
और तो निःशेष माटी ही रहा है‚वह रहेगा‚सोचना क्या?
प्रणय बन्धन टूट जाये पूर्व इसके मिट चुकें हम‚सोचना क्या?
खिलखिलाती आज इतनी यामिनी क्यों?
स्याह सी यह रात इतनी भावनी क्यों?
माँग में सिन्दूर रात्रि के भरेंगे इसलिए क्या?
चुम्बनों से तृप्त कर देंगे उसे हम इसलिए क्या?
तृप्त हिय से आज कर देंगे सुहागिन।
डँस सकेगी आज तो उसको न नागिन।
दानकर सर्वस्व तुमको आज तुमसे माँगते हैं इसलिए क्या?
पा हमें सौभाग्यशाली जो हुआ है आज हम सौभाग्य उनसे
माँगते हैं इसलिए क्या?
खिलखिलाती आज इतनी यामिनी क्यों?
यामिनी के इस प्रहर में चाँदनी क्यों?
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7--------सूरज
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सूरज और समाजवाद या साम्यवाद
साम्य हैं
इसलिए नहीं कि
वे शुरू होते हैं 'स' से।
होता सूरज साम्यवादी
अगर शुरू होता भी यह 'अ' से।
रौशनी तौलकर नहीं बाँटता सूरज
दावे और हिस्से के
झोपड़ी व महल के‚ क्योंकि
फर्क नहीं करता सूरज।
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8----अनुबंधित पीर
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पीहर में अनुबंधित पीर।
अनायुध
मन मेरा देता है बार–बार चीर।
तुलसी के चौरे पर
काल–खण्ड काँपता विरह का।
अनुमोदित पाहुन का
गँध लिए आता समीर।
पी घर में अनुरंजित पागल शरीर।
अनाकार अनुप्रासिक नृत्य से
देता है खींच ही
मिलन का आनुषंगिक
भाजित लकीर।
संध्या की देहरी पर
गोधूलि गाता है
फागुन के गीत।
अनुद्वेगित तन मेरा
साजन के मन जैसा
होता प्रतीत।
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9---तथागत से---
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आज तथागत इस भूमि पर
पुन: अवतरित हो जाओ.
उपदेशों की पुनर्व्याख्या,पुनर्स्थापित
मानव मन में कर जाओ.
सौ सुख तुमने त्यागे प्रभुवर!
मानवता व मानव हेतु.
त्याग रहे अब इसे मनुज ही
भौतिक सुख,दैहिक सुख हेतु.
जितनी दूषित हुई हवा है,
हो गये उतने दूषित मन हैं.
पुन: स्वच्छ कर देना इनको
आज तथागत फिर से आओ.
जितनी गंगा मैली हो गयी
उतनी हिंसा परम धर्म हो गई प्रभु है.
अब विमूढ़ सब सोच हो गये
मानवता से खंडित आस्था
और अहिंसा से स्खलित मन.
आज अत: इस भू पर तथागत
पुन: अवतरित हो जाओ.
त्याग की गरिमा,धर्म का गौरव
इस युग में अपमानित होकर
राजनीति के, स्वार्थ सिद्धि के
दरवाजे पर
हर सुख व अहंकार की
तुष्टि हेतु
पटक रहा है माथा देखो
कितना व्याकुल,विह्वल होकर.
जबतक प्रलय नहीं हो जाता
जीवन और जगत की सत्ता,
मानव व मानवीय अनुभूति,
एवम् ईश्वर का अहसास
सबल रहे हाँ प्रबल रहे.
आज तथागत इसे अक्षुण्ण
रखने हेतु ही
त्यागो चिर निद्रा की मुद्रा
और रूप साकार ग्रहण कर
इस धरती पर आ जाओ.
आज तथागत इस भूमि पर
पुन: अवतरित हो जाओ.
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अरुण कुमार प्रसाद
10---जीवन
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हम जीवितों के
शरीर के सूक्ष्मातिसूक्ष्म
अंश का
आकार ग्रहण कर
हमारे जैसा
निर्मित होने की ललक
मृत व्योम से
जीवित ब्रम्हाँड का उदय
जीवन की गरिमा से अभिभूत।
बाकी जो भी होता है घटित
इस साकार स्पन्दन के साथ
वह उसका
भाग्य‚प्रारब्ध
कर्म‚धर्म
संस्कार‚शुचिता
संस्कृति‚सभ्यता
देवत्व‚दानवत्व
इंसान‚शैतान के
अबूझ गाथाओं का
अपरिभाषित सम्मिश्रण।
भुलावे में हम कहते हैं जीवन।
समझ लेते तो
अत्याज्य मरण।
सूक्ष्म से स्थूलाकार
और फिर
निविडः अंधकार से
उज्जवल प्रकाश की यात्रा
रक्षा के लिए युद्ध
क्षुधा या प्यास के लिए
कर्म या झपट्टा
एकैक की भयावहता से
समय की एकातंता को
भग्न कर
सामाजिक संगति हेतु
प्रयाण की आतुरता
यौनिक उत्तेजना के
चरम के
पागलपन का
मैथुनिक सम्पन्नता
शारीरिक संरचना
अथवा
वर्ण की अभिशप्तता हेतु
त्राण की क्रिया
आक्रोश का विनष्टिकरण
करने की सदिच्छा
अथवा
सौन्दर्य के दर्प में
अट्टहास कर
ब्रह्मांड आलोड़ित
कर देने की जुर्रत
व्यापारिक व्यवहार या
व्यवाहारिक व्यापार का
सुगबुगाता सच
भविष्य की भयावहता से
सशंकित मन–प्राण
मष्तिष्क के सूक्ष्म तन्तुओं का
अव्यवस्थित व्यवस्था
इन सारे पर हावी होने की
अदम्य लालसा से भरा
मन और तन का
युद्ध–क्षेत्र में
प्रायोगिक प्रवेश
है जीवन।
——
अरुण कुमार प्रसाद
शिक्षा--- ग्रेजुएट (मेकैनिकल इंजीनियरिंग)/स्नातक,यांत्रिक अभियांत्रिकी
सेवा- कोल इण्डिया लिमिटेड में प्राय: ३४ वर्षों तक विभिन्न पदों पर कार्यरत रहा हूँ.
वर्तमान-सेवा निवृत
साहित्यिक गतिविधि- लिखता हूँ जितना, प्रकाशित नहीं हूँ.१९६० से जब मैं सातवीं का छात्र था तब से लिखने की प्रक्रिया है. मेरे पास सैकड़ों रचनाएँ हैं. यदा कदा विभिन्न पत्र, पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ हूँ.
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