शोषण एक बड़े छायादार वृहदाकार पेड़ के समीप खड़ा दुबला-सा पतला पतला- सा सीधा-सा डरा-सा या , यों कहें कि; भूख से जुदा जुदा-सा दिखने ...
शोषण
एक बड़े छायादार
वृहदाकार
पेड़ के समीप खड़ा
दुबला-सा
पतला पतला- सा
सीधा-सा
डरा-सा
या , यों कहें कि;
भूख से जुदा जुदा-सा
दिखने वाला पेड़
कुछ नहीं कहता ?
बहुत कुछ कहता है !
वह कहता है कि
इस बड़े ने
अपने साम्राज्य विस्तार के लिए
छीना है
हमारे हिस्से का आकाश
प्रकाश ,
पाताल ,
हवा और पानी
मेरी जवानी
फिर भी ;
नहीं है मेरे पास
कोई सबूत
इसके खिलाफ ?
यह सिद्ध करने के लिए
कि , इसने किया है
मेरा शोषण।
मंच
तब तक मंच खाली था
कुर्सियॉ भी सजी थीं
फूलदान रखे थे
सामने दर्शकों के लिए भी
बैठने की व्यवस्था थी
प्रचार बहुत पहले से ही किया जा रहा था
आयोजक प्रयोग कर रहे थे
अपेक्षानुरुप भीड़ भी पहॅुची
एक से एक विव्दान पढ़े लिखे इंसान
वक्ता भविष्य की सोच रखने वाले उपस्थित थे
पर किसी ने भी बिन बुलाए
मंच पर बैठने की मर्यादा भंग नहीं की
कुछेक मन ही मन चाह रहे थे
लेकिन शर्म झिझक आड़े आ रहे थे।
मंच सुनसान हो रहा था
बिन दूल्हे की बारात की तरह
भीड़ भी उकता रही थी
कुछ घर के लिए उठने भी लग गये
तभी ,
मंच खाली देखकर
भीड़ से कुछेक निकले
बॉहे चढ़ाते हुए
असभ्य तरीके से आकर मंच संभाला
पदासीन हुए कुर्सियॉ धन्य हुई
और मंच सुशोभित हुआ
उकताई भीड़ शांत हुई
व्याख्यान बनवाये गये
संबोधन शुरु हुआ
उपस्थित लोगों को
दर्शक एवं श्रोता
कहा गया...
अनासक्ति
उस अदृश्य नियन्ता ने
पर्वत, कहीं समुद्र बनाया।
कहीं सम मैदान बनाकर
उस पर जन आबाद कराया।।
पर्वत ने पाया है नभ को
सागर ने पायी गहराई।
मानसून का चक्र चलाकर
उसने है विज्ञान सिखायी।।
पर्वत को मिलता जो जल है
सागर को लौटाता नदियों से।
पर्वत दिखलाता अनासक्ति
सागर वापस करता नीरद से।।
यह चक्र संतुलन अनायास
आपस का प्रेम सिखाता है।
अनासक्त संग्रह करने का
सात्विक भाव जगाता है।।
धरती -अम्बर
अम्बर ने ऑसू ढारे हैं
वसुन्धरा को ओझल पाकर।
प्रेमाश्रु चमके मोती बन
तृण उपर अरुणोदय पाकर।।
मोती लुट जायेंगे दिन में
समा लिया धरती ने उर में।
अम्बर भी स्तब्ध रह गया
रवि आ धमका उभय बीच में ।।
निशा आ गयी मिलन रहेगा
हम दोनों का होकर पूरा।
सोच रहे धरती व अम्बर
पर सदियों से अभी अधूरा।।
इसी आस में गुजर गईं हैं
सदियॉ कई हजार।
बसर कर रहीं उभय मध्य में
सृष्टि सनातन बारम्बार।।
अर्ध तुष्टि का मिलन शेष है
मिलवायेंगे उषा हिमेश।
सृजन करेंगे मिलकर दोनों
नई सुबह का नया दिनेश।।
जमीं मत होना!
बोना चाहता है वो विष-बेल
जमीं मत होना!
लगाना चाहता है आग छिड़क तेल
हवा मत होना!
काटना चाहता विश्वास का वो वृक्ष
कुदाल मत होना!
करना वाहता है वो तुम्हारा भाग
सवाल मत होना!
उगाई है उसी ने कटीली झाड़ियॉ
खाद मत होना!
सिखाना चाहता है वो कोई दुर्नीति
शिष्य मत होना!
कोसी कैसे धारे धीर ?
कोसी किसको कोसे
बढ़ती जाती पीड़
टूट रही हैं सासें उसकी
दिन प्रति घटता नीर
जिनको पाला और पिलाया
सदियों सदियों
वक्षस्थल का नीर
वही हाथ अब खींच रहे हैं
हरित-वनों का चीर
बिछुड़ गया है बसा बसाया
चिड़ियाओं का नीड़
कोसी किसको कोसे
कौन बधाये धीर
कि उसकी बढ़ती जाती पीड़
पहले मॉ का भरा हुआ था
पूरा घर परिवार
जल जंगल संग बाग बगीचे
औषधियॉ भरमार
सूखा सूखा पावस बीता
रीत गया है शीत
आमद नहीं कहीं पानी की
कोसी हुई अधीर
कोसी किसको कोसे
कौन बधाये धीर
कि उसकी बढ़ती जाती पीड़
काकड़ और कुरंग अलोपित
जंगल , जंतु-विहीन
सायं होते तेंदुआ धमके
बच्चों को ले जाता छीन
दर्द हमारा देख के होती
कोसी खुद गमगीन
शीतल शीतल मंद हवाएं
पानी की तासीर
धीरे धीरे होती जाती
मरु जैसी तकदीर
कोसी किसको कोसे
कैसे धारे धीर
कि उसकी बढ़ती जाती पीड़
हल सुस्ताते खेती उजड़ी
इंतजार में ऑख उनींदी
उड़ती मिट्टी . . .
जैसे उड़े अबीर
कोसी कैसे धारे धीर
कि उसकी बढ़ती जाती पीड़
आओ कुछ वृक्षों को रोपें
मॉ कोसी के तीर
काम करें सुपुनीत
कोसी किसको कोसे
कौन बधाये धीर?
कि उसकी बढ़ती जाती पीड़ . . .।
और वे रो पड़ीं . . .
सूख रहे खेतों
प्यासे पक्षियों को देखकर
हवाऍ द्रवित हुयीं
बरसने की इच्छा जगी मन में
समुद्र से मिन्नतें की
परहित समझ
समुद्र ने जल दिया
दिल खोलकर
हवाऍ जलद हो गयीं
और निकल पड़ीं अपनी सफर पर
परोपकार की डगर पर
उनके पास संजीवनी थी
वे उड़ती रहीं
खेतों के उपर
सूखी नदियों के उपर
रेगिस्तानों के उपर
वे बरसना चाह रही थीं
साथ ही मनुहार भी
मन में जलद होने का अहंकार
अनजाने ही बढ़ गया था
किसी ने मनुहार नहीं की
रेगिस्तानों में था ही कौन?
न पर्वत
न जंगल
न पपीहे की कातर ध्वनि
न मेंढकों की टर्रटराहट . . .
वे बढ़ती रहीं
जरुरतों के उपर से
अहंकार ने हिमालय को भी
लॉघना चाहा
धृष्टता के लिए हिमालय की डाट पड़ी
और . . . और
वे रो पड़ीं . . .
पूरब और पश्चिम
मैं पूरब से बोल रहा हॅू
तू पश्चिम को देख रहा है।
मैं नमस्कार नित बोल रहा हॅू
तू तोपों को खोल रहा है ।
मैं धरती को मॉ कहता हॅू
तू इस पर कचरा करता है ।
मैं जग का मन सींच रहा हॅू
तू मुट्ठी को भींच रहा है।
मैं उगता सूरज देख रहा हॅू
तू अस्ताचल झॉक रहा है ।
मैं मंगल का बीज बो रहा
तू विस्फोटक फोड़ रहा है।
मैं त्याग युक्त उपभोग कर रहा
तू सबका हक छीन रहा है।
मैं प्र.ति सन्तुलन साध रहा हॅू
तू विद्युत को देख रहा है ।
मैं पूरब से बोल रहा हॅू
तू पश्चिम को देख रहा है।
पेड़ देश में
पेड़ देश में तिनका तिनका
देखो चटका जोड़ रही है ।
बने घोंसले में निवास कर
कितना मन सन्तोष रही है।।
दो गिलहरियॉ समय समय पर
शाखा- शाखा दौड़ रही हैं।
उतर पेड़ से दूर दूर तक
खेत मेंड़ पर टहल रही हैं।।
पेड़ देश का गान सुनाती
देखो कोयल कूक रही है।'
कूक-कूक कर सबके अंदर
भाव प्रेम के जगा रही है।।
जड़ प्रदेश से शिखर तलक
लगा चीटियों का है तॉता।
संघे शक्ति निहित होती है
यही समझ मन मेरे आता।।
इसी पेड़ की शाखाओं पर
बैठ बैठ कुछ काले कौवे।
'कॉव' 'कॉव' का शोर मचा कर
यदा तदा सबको तड़पाते।।
कठफोड़वा भी लगा हुआ है
तना छेदने में ही हरदम।
छेद छेद कर हुआ जा रहा
देखो भाई कितना बेदम ?
जड़ प्रदेश के किसी विवर में
कृष्ण -सर्प इस ताक में रहता।
चटका दाना चुगने जातीं
मैं नीड़ों से बच्चे खाता।।
स्टेशन पर रिक्शाचालक
पौष की सर्द भरी बर्फीली रात में
बरेली रेलवे -स्टेशन के बाहर
रिक्शे पर अधलेटे चालक
इंतजार कर रहे हैं
एक अदद सवारी की
जिससे प्राप्त किराये से
सुबह होते ही
मुखातिब हुआ जा सके
पाल्यों की फीस
दैनिक -खर्च
एवं दो जून की रोटी से
आगे से आती हुई सवारी देख
एक सोचता है ़ ़ ़
अबकी खाली नहीं जायेगी मेरी बारी . . .
वह उठता है
स्वागत की मुद्रा में
सामान पकड़ने को हाथ
बढ़ जाते हैं स्वयं
मोल-भाव होता है
तब तक आटोचालक
चिल्लाकर बुला लेता है
आधी दर पर
और , हाथ आयी सवारी
उसके सामने से
ऐसे चली जाती है जैसे
कोई उसकी रोटी को
हाथ से छीनकर
ले गया हो
और वह उदास होकर
अगली सवारी की
प्रतीक्षा में पुनः लेट जाता है
रिक्शे पर . . .
किसान हो या किराये की कोख
हे मजदूर किसानों !
तुम्हारे पसीने से सिंचकर
उगी हुईं फसलें
खेत- खलिहानों से निकलकर
बाजारों की रौनक बढ़ा रही हैं
नित उनके दाम
हो रहे बे- लगाम,
जिस पर होता हो -हल्ला
राजनीति
भाषणबाजी
गली ,मोहल्लों में होती नुक्कड़बाजी
दामों पर सरकारें बनती हैं
बिगड़ती हैं
चुनाव लड़ती हैं
और... तुम!
तुम तो उन्हें बेचकर
बरस चुके बादलों की तरह
हो गये हो खाली
कर्ज चुकाने में
हालत हो गई है माली
अब मूक द्रष्टा बन देख रहे हो
व्यापारी की कपटों को
महॅगाईं की लपटों को
जिन पर सिंक रही हैं
राजनीति की रोटियॉ
तुम्हारी तो सूख रहीं मांस-पेशियॉ
मै पूछता हॅू
महॅगाईं की कमाई में
तुम्हारा हिस्सा कहॉ है?
चर्चा में तुम्हारा किस्सा कहॉ है?
आखिर कब तक रहोगे सोते?
किराये की कोख की तरह
अनाज रहोगे बोते ?
आदतें इनकी
आदतें इनकी पुरानी हैं यही
जीतने पर थूरना व
हारने पर हूसना
पीठ पीछे तोड़ना व
सामने से जोड़ना
बैठ के वे बॅट रहे हैं
धूल से भी रस्सियॉ
चाहते हैं शीर्ष सब दिन
या हाथ हों फिर बग्गियॉ
यदि पहॅुच से दूर हों
तब फेंकते हैं फब्तियॉ
मैं नही ंतो भॉड़ में जायें
सभी ये कुर्सियॉ
चाहते हैं धूप भी निकले
हमीं से पॅूछ कर
रोक देंगे अन्यथा
ये धुंध कोई छोड़कर ।
आओ चलें करें मतदान
लोकतंत्र का मंदिर रचने
उसमें देव प्रतिष्ठा करने।
जिससे हो सबका कल्यान
आओ चलें करें मतदान।।
अपना प्रतिनिधि सेवक चुनने
बहुतों में से योग्य परखने।
देशोन्नति का धरके ध्यान
आओ चलें करें मतदान।।
आज कार्य अवकाशित कर दें
आती नींद तिलांजलि दे दें।
हर कठिनाईं का एक निदान
आओ चलें करें मतदान।।
मतदाता ही राष्ट्र-विधाता
मतकेन्द्र स्वयं ही जाता।
निज कर्त्तव्यों ले संज्ञान
आओ चलें करें मतदान।।
चूक गये यदि इस दिन भाई!
मत देना फिर कभी दुहाई।
' मत ' तेरा अमूल्य वरदान
आओ चलें करें मतदान।।
जाति धर्म से उपर उठकर
लोकतंत्र का पर्व समझ कर
मिल कर करें राष्ट्र-निर्माण
आओ चलें करें मतदान।।
प्रजातंत्र का उपवन सींचे
शान्ति मिलेगी उसके नीचे।
नित फूले-फले बढ़े उद्यान
आओ चलें करें मतदान।।
बेचारी गालियॉ
एक विघटनकारी ने
एक उपद्रवी ने
एक आतंकवादी ने
एक फकीर को
एक महात्मा को
एक धर्मात्मा को
जमकर गाली दी।
वह फकीर
वह महात्मा
वह धर्मात्मा
कुछ नहीं बोला
क्यों कि वह शरीर नहीं था।
दुष्ट जब गालियॉ दे रहा था
तब उसके अन्दर की
शर्म. हया. लज्जा
लजाकर भाग खडी हुयीं
वे स्त्रियॉ जो थीं।
इस प्रकार अपनी भड़ांस
निकालने के पश्चात्
शांत हुआ वह उपद्रवी
विजयी मुद्रा में
आदम-कद दर्पण का
समर्थन चाहा और
खड़ा हो गया उसके सम्मुख
गालियॉ उसके मुख पर चस्पा थीं।
दर्पण से पूछा -
ऐसा कैसे हो सकता है?
उत्तर मिला
मैं झूठ नहीं बोलता
तुम्हारी गालियॉ
उस महात्मा ने नहीं ली
बेचारी गालियॉ ...!
कहॉ जातीं
अनजान जगह?
तुम उनके जन्मदाता थे
तुम्हारे साथ लौट आयीं।
गाजर घास
गाजर घास उग रही है
हर जगह
बे-रोक टोक
निरोग
अनाहूत अनपेक्षित
यह बढ़ रही है नित
पीकर धरती का घृत
यह उग रही है
सड़कों के किनारे
रेल -पटरियों के किनारे
जहॉ पहिये नहीं जाते
यह उग रही है
हर उस खेत
जहॉ किसान
हल नहीं चलाते
यह उग रही है हर उस द्वार
जहॉ हम झाड़ू नहीं घूमाते
यह उग रही है
रस भरी तृणों को दबाकर
यह उग रही है
पोषक फसलों को हराकर
उनका हक मारकर
सहिष्णु घासें
निरीह घासें
उदार फसलें
नहीं कर पातीं
इनका विरोध
कहते हैं यह
अमरीका से है आगत
नहीं किया था
किसी ने भी स्वागत
फिर भी यह बढ़ी जा रही हैं
बे-शर्म, बे-झिझक
परायी धरती पर भी
होकर निडर
स्थानीय को दबाकर
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मोती प्रसाद साहू
जन्म -03 मई 1963 वाराणसी
शिक्षा - परास्नातक (हिंदी एवं संस्कृत)
सम्प्रति -अध्यापन उत्तराखण्ड
पत्राचार-
राजकीय इण्टर कालेज हवालबाग-अल्मोड़ा 263636 उ0ख0
संपर्क -
ई0 मेल-motiprasadsahu@gmail.com
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