[मारवाड़ का हिंदी नाटक] यह चांडाल चौकड़ी, बड़ी अलाम है। लेखक - दिनेश चन्द्र पुरोहित पिछले खंड - खंड 1 | खंड 2 | खंड 3 | खंड 4 | खंड 5 | खं...
[मारवाड़ का हिंदी नाटक]
यह चांडाल चौकड़ी, बड़ी अलाम है।
लेखक - दिनेश चन्द्र पुरोहित
पिछले खंड -
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खंड ९, पुरानी मशीन के कल-पूर्जे
लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित
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[मंच रोशन होता है, जोधपुर स्टेशन का मंज़र सामने दिखाई देता है। प्लेटफोर्म पर लगी घड़ी आठ बजकर पैंतीस मिनट का वक़्त बता रही है। भले सुबह का वक़्त है, मगर गर्मी कम होने का नाम नहीं। रशीद भाई बैग थामे प्लेटफोर्म नंबर एक पर आते हैं, वहां से पुलिया पर नज़र डालते हैं। पुल पर रतनजी, अनिल बाबू, ओमजी, दयाल साहब वगैरा एम.एस.टी. होल्डर्स खड़े हैं। वे वहां खड़े-खड़े पाली जाने वाली गाड़ी का इंतज़ार कर रहे हैं। रशीद भाई इन लोगों को देखते ही, झट सीढ़ियां चढ़कर पुलिये पर आ जाते हैं। उन लोगों के पास आकर, वे रतनजी के पास खड़े हो जाते हैं। अब गर्मी नाक़ाबिले बर्दाश्त होती जा रही है, अब रतनजी कमीज़ के बटन खोलते हैं। फिर, वे कहते हैं]
रतनजी – [कमीज़ के बटन खोलते हुए, कहते हैं] – रसायनिक पाउडर से होली खेलते-खेलते, भिष्ठ मिल गए यार। ना तो घर के रहे, और ना घाट के रहे। अब तो मेरे भाई, पुरानी मशीन के कल-पूर्जे बनकर रह गए। क्या करें, यार ? अब तो भय्या, किसी काम के ना रहे।
[रशीद भाई सर से टोपी हटाकर, ज़ब्हा पर छाये पसीने के एक-एक कतरे को रुमाल से साफ़ करते हैं। फिर, वे कहते हैं]
रशीद भाई – [ज़ब्हा पर छाये पसीने को साफ़ करके, कहते हैं] – मर्ज़ बढ़ता जा रहा है, जनाब। अब क्या कहूं, आपको ? अब थोड़ी-थोड़ी देर में, उठ जाता है।
[पहलू में खड़े अनिल बाबू की एक आदत खोटी, हर वक़्त कुछ न कुछ दूअर्थी संवाद बोलने की। अब वे रशीद भाई की बात सुनते ही, झट बोल उठते हैं]
अनिल बाबू – रशीद भाई, इस उम्र में मत उठाओ यार। चाची को तक़लीफ़ होगी।
रशीद भाई – और किसको तक़लीफ़ होगी, मेरे भाई ? मेरा उठ गया, तब मुझे ही देखना होगा। या फिर तक़लीफ़ होगी, मेरे जीवन साथी को।
[रशीद भाई रहे, बीरबल की तरह हाज़िर-जवाबी। उनको अनिल बाबू क्या जवाब दे पाते ? तब बेचारे बात का मुद्दा बदलने के लिए, घड़ी देखते हुए कहते हैं]
अनिल बाबू – गाड़ी जाने का वक़्त हो रहा है, मगर मोहनजी नज़र क्यों नहीं आ रहे हैं ?
[मोहनजी को नहीं देखे, दो दिन बीत गए हैं। बुजुर्गों का कहना है, “एक काणे का दिल दूसरे काणे के बिना, नहीं लगता..चाहे पास में बैठने पर दोनों झगड़ा ही करते हों।” इसी कारण अब दयाल साहब का दिल, मोहनजी को देखे बिना नहीं लगता। इस कारण वे प्रवेश-द्वार पर, नज़रें गढ़ाये खड़े हैं।]
दयाल साहब – [अचानक प्रवेश-द्वार को देखते हुए, ज़ोर से कहते हैं] – वह आ रहा है, तुम्हारा मोहन लाल।
[सभी की निग़ाहें, प्रवेश द्वार पर गिरती है। वहां वे देखते हैं, “जी.आर.पी. का दस्ता कई आदमियों को हिरासत में लेकर आ रहा है, उन आदमियों में गोमिया दिखाई देता है। जिसके हाथों पर हथकड़ी लगी हुई है। वह चार क़दम आगे चलते मोहनजी को देखकर, उन्हें आवाज़ लगा बैठता है।]
गोमिया – [ज़ोर से चिल्लाता हुआ, मोहनजी को आवाज़ देता है] – ओ मोहनजी। मुझे आकर, बचाओ। [पुलिस के हवलदार की ओर देखते हुए कहता है] हुज़ूर। मैं गुनाहगार नहीं हूं। आपको भरोसा नहीं है तो, आप आगे चल रहे काली सफ़ारी पहने इन साहब से पूछ लीजिये। [मोहनजी की तरफ़ उंगली का इशारा करता है] हुज़ूर, वे मुझे जानते हैं।
[इतना कहकर, वह मोहनजी को एक बार और आवाज़ देता है। उसके बोलने से हवलदार का ध्यान भंग हो जाता है, जिस बीड़ी को वह फूंक रहा है..वह नीचे गिर जाती है। यह बीड़ी बण्डल की अंतिम बीड़ी थी, जिसका पूरा कश वह बेचारा ले नहीं पाया..और वह गिर गयी उसके चौंकने से। अब क्या करता बदनसीब हवलदार…? उसका नशा पूरा हुआ नहीं, और आख़िरी बीड़ी का हो गया सत्यानाश । अब बेचारे हवलदार को, बीड़ी का नया बण्डल ख़रीदना होगा। इस कारण वह ख़फा होकर, इस गोमिये के रुख़सारों पर जमा देता है...एक ज़ोर का झापड़। झापड़ जमाकर, वह कहता है]
हवलदार – [झापड़ जमाकर, कहता है] – चुप साला, तू है एक नंबर का तस्कर। मुझे बरगलाता है, इस शेर सिंह को ?
[गोमिया ज़ोर से किलियाता हुआ, एक बार और मोहनजी को आवाज़ देता है]
गोमिया – [किलियाता हुआ आवाज़ देता है] – ओ मोहनजी। आकर मुझे बचाओ, मेरे माई-बाप। अरे जनाब, इधर तशरीफ़ रखिये।
[मोहनजी एक नज़र डालते हैं, उस गोमिये पर..फिर वे जानकर भी अजनबी बन जाते हैं। फिर उसे नज़रअंदाज़ करते हुए वे पुलिए की सीढ़ियां चढ़ते हैं, मगर ऊपर के स्टेप उतर रहे आस करणजी इस मंज़र को देख लेते हैं। वे सीढ़ियां चढ़ रहे मोहनजी को रोककर, उन्हें कहते हैं]
आस करणजी – [मोहनजी से कहते हैं] – जवाब दीजिये, मोहनजी। आपका परिचित आदमी बरला रहा है, जाकर उसकी मदद कीजिये।
मोहनजी – किसका परिचित ? अरे जनाब, राह चलता कोई आदमी मुझे आवाज़ दे दे..तो क्या मैं उसका हितेषी बनकर पहुँच जाऊ उसके पास ? होशियार बने रहो, भा’सा। कल आप भी उसके कहने से उसके पास चले गए, तो पुलिस आपको भी हिरासत में ले सकती है।
[अक्समात किन्नरों का दल, पायल खनकाता हुआ पुलिए की सीढ़ियां चढ़ता दिखायी देता है। ये सारे किन्नर फ़टाफ़ट सीढ़ियां चढ़कर पहुँच जाते हैं, मोहनजी के पास। फिर उन्हें घेरकर, वे सभी तालियाँ पीटने लगते हैं। उनमें से चम्पाकली किन्नर मोहनजी के और नज़दीक आकर उनके गालों को सहलाता हुआ कहता है]
चम्पाकली – [उनके गालों को सहलाता हुआ कहता है] – अरे, सेठ मोहनजी। आपके जैसा सुन्दर आदमी इस ख़िलक़त में नहीं, मेरे सेठ। अब पहचान लीजिये, मुझे। निहार लो मुझे, अच्छी तरह से। मेरी जैसी ख़ूबसूरत मेहरारू आपको कहीं नहीं मिलेगी, मेरे सेठ। हाय रामा पीर, क्या कोमल गाल दिए हैं, मेरे सेठ को ?
मोहनजी – [हाथ से उसे दूर हटाकर, कहते हैं] – दूर हट रे, किन्नर। क्यों परेशान करता है, यार ? आख़िर, हम ठहरे पुरानी मशीन के कल-पूर्जे...अब क्या काम आ सकते हैं, तेरे ?
चम्पाकली – [लबों पर मुस्कान बिखेरता हुआ, कहता है] – फिर भी...
मोहनजी – [घबराकर, कहते हैं] – क्या जानता है रे, कढ़ी खायोड़ा..मेरे बारे में ?
चम्पाकली – अरे हुज़ूर, मैं जानता हूँ..आपकी रग-रग। के, कभी-कभी आप जैसी पुरानी मशीन के कल-पूर्जे भी फटा-फट ऐसे चलते हैं...बेचारे जवान छोरे भी आपके आगे..
मोहनजी – [अपना हाथ उसके लबों पर रखते हुए] – अरे यार चम्पाकली, अब भी चुप हो जा। देखता नहीं, ऊपर से आस करणजी नीचे चले आ रहे हैं..!. कहीं, उन्होंने तेरी बात सुन ली तो...
चम्पाकली – [उनका हाथ हटाकर, कहता है] – मैं किसी के बाप से नहीं डरती, समझे ? अभी आस करणजी टी.टी. बाबूजी को कह दूं, आपकी रोमांस की बात ? हाय मेरे सेठ, भूतिया नाडी की पाळ पर नंगे होकर कैसे नाच रहे थे, आप ? हाय, ऐसी पुरानी मशीन के कल-पूर्जे पर वारी जाऊं..!
मोहनजी – क्या बकता है, भंगार के खुरपे ?
चम्पाकली – वाह, वाह। कितना ख़ूबसूरत, और गठीला आपका बदन ? हाय मर मिटूं, आप पर..मेरे सेठ। [धीमे से कहता है] आ जाऊं रात को, आपके पास ?
[इसके बाद वह अलग से मोहनजी के कान में फुसफुसाता हुआ नज़र आता है]
चम्पाकली – [फुसफुसाते हुआ कहता है] – भूतिया नाडी की पाळ पर नंग-धड़ंग होकर प्यारी के बिछोह में, कालिया भूत बनकर कैसे नाचे थे आप ? कह दूं आस करणजी को, सारी भेद की बातें ? बोलो मेरे सेठ।
[मोहनजी झट-पट चम्पाकली के होंठों पर हाथ रखकर, उसका बोलना बंद कर देते हैं। फिर वे उसे, धीमे-धीमे कहते हैं]
मोहनजी – [धीमे-धीमे कहते हैं] – यार चम्पाकली तू तो यार, समझदार होकर ऐसी अध-गेली बातें करता जा रहा है ? यों क्या चौड़ी करता है, लोगों के बीच में ?
चम्पाकली – [उनका हाथ हटाते हुए कहता है] – चौड़ी तो अब करूंगी, मैं। मुझे किस बात की आती है, लाज़ ? मगर सेठ, तगड़ा नेग देते हो तो आपका काम बने।
[मोहनजी झट जेब से कड़का-कड़क दस का नोट निकालकर, चम्पाकली को थमाते हैं। रुपये पाकर भी, ये किन्नर वहां से हटते नहीं..तब आस करणजी स्टेप उतरकर नीचे आते हैं, और उन लोगों को वहां खड़े देखकर आस करणजी कहते हैं]
आस करणजी – आप लोगों को मिल गया नेग, अब आप सभी पधारो।
गुलाबो – [आस करणजी का रास्ता रोककर, उनके आगे खड़ा हो जाता है] – हाय हाय टीटी बाबूजी [ताली बजाता है] इस तरह, आपको जाने कौन देगा ? [एक बार और ताली बजाता है] जनाब आपका भला करे, एक दिन के लिए आप हमें भी बना दीजिये ना टीटी बाबू। रामसा पीर, आपकी तरक्की करेगा।
[मोहनजी की गैंग एक दिन चैकिंग पार्टी बनी थी, अब वह बात इस गुलाबे से गुप्त रही नहीं। अब बिचारे मोहनजी, अच्छे फंसे, इस हीज़ड़े के ज़ाल में। हीज़ड़ों के चंगुल से बचने के लिए आस करणजी को, एक हाथी छाप सौ का नोट उस निखेत गुलाबा को थमाना पड़ता है।
आस करणजी – [नोट थमाते हुए, कहते हैं] – गुलाबा तू जाने या मैं जानू, या जाने मोहनजी। बस यहाँ तक ही बात रहनी चाहिए, गुलाबा। मगर करूँ, क्या ? तेरी बड़ी खोटी आदत है, झट बात को चौड़ी करने की।
[इतना कहकर, मोहनजी झट-पट स्टेप्स उतर जाते हैं, और साथ में वे अपने कानों में उंगली भी डाल देते हैं..कारण यह है, उन्हें वहम हो जाता है...कहीं इन हीज़ड़ों का हंसी का किल्लोर सुनकर, सीढ़ियों पर उतरते-चढ़ते यात्री यहाँ खड़े होकर खिलका नहीं कर दे ? आस करणजी के चले जाने के बाद, प्लेटफोर्म पर देहली एक्सप्रेस आकर ख़ड़ी हो जाती है। मोहनजी अब पहुँच जाते हैं, अपने साथियों के पास। वहां अभी भी रासायनिक पाउडर से होली खेलने के मुद्दे पर, गुफ़्तगू चल रही है। अचानक रतनजी की निग़ाहें, मोहनजी पर गिरती है। वे झट अपने बोलने के भोंपू की दिशा बदलकर, मोहनजी की ओर कर देते हैं।
रतनजी – लीजिये जनाब, मोहनजी पधार गए हैं। अब आप इनसे पूछ लीजिये, मैं सच्च कह रहा हूं या झूठ ? ये मोहनजी ख़ुद भुगत-भोगी है। एक दिन इन्होंने उस पाउडर के हाथ लगाकर, अपनी जान जोख़िम में डाल दी। फिर इनका क्या हुआ, वह इनका दिल ही जानता है ? [मोहनजी से] साहब, मैं सच्च कह रहा हूं या झूठ ?
[मोहनजी कुछ नहीं कहते, तब रतनजी उनके और नज़दीक आकर कहते हैं]
रतनजी – बोलिए ना, साहब। उस दिन को याद कीजिये आप, जब पाली उतरकर आपने यह कहा ‘आज़ मुझे कलेक्टर साहब के दफ़्तर में, बैठक में भाग लेना है..इसलिए, आज़ मैं खारची नहीं जाऊंगा। क्योंकि, मेरी ड्यूटी कलेक्टर साहब के दफ़्तर में बोल रही है।
मोहनजी – फिर, क्या ?
रतनजी – फिर गाड़ी के चले जाने के बाद आपको याद आया, कि ‘आज़ तो मंगलवार है नहीं और बैठक रखी गयी है, मंगलवार के दिन। अब क्या करें, बेटी के बाप ? गाड़ी चली गयी, अब खारची वापस जा नहीं सकता।’
मोहनजी – फिर मैंने क्या कहा, रतनजी ?
रतनजी – आपने कहा ‘कुछ नहीं, आज़ तो पाली डिपो चलकर, गोदाम का अनाज चैक करके सरकारी काम निकाल लेंगे। काम करने के बाद, राजू साहब दे देंगे, उपस्थिति प्रमाण-पत्र।
[इस घटना को अब रतनजी विस्तार-पूर्वक बयान करते हैं, और उधर मोहनजी की आँखों के आगे इस घटना के तथ्य चित्र बनकर छाते जा रहे हैं। अब मोहनजी तंद्रा में लीन हो जाते हैं। मंच पर, अन्धेरा छा जाता है। थोड़ी देर बाद, मंच पर रौशनी फ़ैल जाती है। अब एफ़.सी.आई. दफ़्तर का मंज़र, सामने दिखाई देता है। मोहनजी, दयाल साहब के कमरे में दाख़िल होते दिखायी देते हैं। वहां दयाल साहब की कुर्सी ख़ाली है, इसे देखकर वे ख़ुश हो जाते हैं। फिर फटाक से उस कुर्सी पर बैठकर, टेबल पर रखी घंटी को बजाते हैं। घंटी सुनते ही चम्पला वाच मेन, उनके सामने हाज़िर होता है। चम्पले वाच मेन को सामने हाज़िर पाकर, वे आदेश दे डालते हैं।]
मोहनजी – देख रे, चम्पला कढ़ी खायोड़ा। आज़ मेरी ड्यूटी, इसी दफ़्तर में लगी हुई है। अब तू मुझे यह बता, के ‘कितनी तो है गेहूं की बोरिया, और कितना है मुर्गी दाना ?’
चम्पला – जनाब, पूरी रिपोर्ट दे दूंगा आपको। मगर पहले आप, इस कुर्सी से हट जाइये..यह कुर्सी हमारे साहब, दयाल साहब की है।
मोहनजी – इस कुर्सी पर कहीं नहीं लिखा हुआ है, के ‘यह कुर्सी दयाल साहब की है ?’ जानता नहीं, दयाल साहब और मैं एक ही रेंक के अधिकारी हैं। इसीलिए, मुझे इस कुर्सी पर बैठने का पूरा-पूरा हक़ है।
चम्पला – मेरी बात मान जाइये, जनाब। कहीं ऐसा न हो जाए, आपको परेशानी झेलनी पड़ जाय ? फिर आप पीपल के पान जैसा मुंह लिये, ठौड़-ठौड़ घुमते बुरे लगेंगे।
[मगर चम्पले की बात का कोई असर, मोहनजी पर होता दिखायी नहीं देता। इतने में, डस्ट ओपेरटर भाना रामसा कमरे में दाख़िल होते हैं। वे दोनों हाथों की उंगलियों से आँखें चौड़ी करके, आँखें फाड़ते हुए मोहनजी को देखते हुए आगे बढ़ते हैं। और साथ में, मोहनजी से यह भी कहते जा रहे हैं।]
भाना रामसा – [आँखें फाड़ते हुए, मोहनजी से कहते हैं] – आप कौन हैं, मालिक ? मुझे लगता है, आप कहीं मोहनजी तो नहीं हैं ?
मोहनजी – [गुस्से में कहते हैं] – तू कौन है रे, कढ़ी खायोड़ा ? क्यों आँखें फाड़कर, तू मुझे डरा रहा है ?
भाना रामसा – अब तो मुझे सौ फ़ीसदी भरोसा हो गया है, आप खारची वाले कढ़ी खायोड़ा मोहनजी ही हैं। [नज़दीक आकर कहते हैं] अब मालिक, आपकी क्या मनुआर करूँ ? [जेब से पोलीथीन की थैली बाहर निकालते हैं, उसमें से अफ़ीम की किरचियां बाहर निकालकर अपनी हथेली पर रखते हैं। फिर, हथेली मोहनजी के आगे करते हुए उनकी मनुआर करते हैं] लीजिये मालिक, भोले बाबा की प्रसादी।
मोहनजी - यह क्या है रे, काला-काला ? कहीं यह चीज़, बंदरों के खाने की तो नहीं है ?
भाना रामसा – बन्दर क्या जानता, अदरक का स्वाद ? जनाब इस चीज़ को, पारख़ी लोग ही परख़ सकते हैं। दूसरे आदमी में, कहां है इतनी योग्यता ? इस चीज़ के बाज़ार में भाव हैं, हज़ार रुपये प्रति तोला। आपको क्या कहूं, जनाब ? आपके लिए, इस भाव का क्या करना ? क्योंकि आप ख़ुद, कई हज़ारों रुपये ऊपर की चीज़ हैं।
मोहनजी – [ख़ुश होकर किरची उठाते हैं, फिर उसे अपने मुंह में रखते हैं] – मुझे तो यह चीज़, कोई शिलाजीत जैसी लगती है। सच्च कहा रे, तूने। वास्तव में इस चीज़ की पहचान पारख़ी लोग ही कर सकते हैं।
भाना रामसा – आप से ज़्यादा कौन इस चीज़ का पारख़ी हो सकता है, जनाब ? इसमें सारे विटामिन मिले हुए हैं, इसको लेने से घर वाली ख़ुश रहती है..घर में छायी अशांति मिट जाती है, और जो गोली आप मानसिक तनाव कम करने के लिए लेते हैं...फिर उस गोली को लेने की, कोई ज़रूरत नहीं।
मोहनजी – [हथेली से दो-तीन किरची उठाकर, अपने मुंह में डाल देते हैं] – और कोई गुण हो तो बता, पूरा विवरण दे दे एक बार।
भाना रामसा – इसके लेने के बाद, आप अरबी घोड़े की तरह दौड़ेंगे। जीते रहो, मालिक..आपने मेरी मनुआर अंगीकार करके मेरा मान बढ़ाया। आपके घुटने सलामत रहे, सौ साल ऊपर आपकी उम्र हो..हज़ारों साल, आपका यश इस ख़िलक़त में बना रहे। मगर..
मोहनजी – अगर-मगर कहना छोड़, साफ़-साफ़ कह “अब क्या कहना बाकी रह गया ?’
भाना रामसा – अरे जनाब, आपकी मनुआर करता-करता मैं यह कहना भूल गया, के ‘आपको बड़े साहब ‘राजू साहब’ ने याद किया है। आप जल्दी जाकर उनसे मिल लें, एक बार।’
मोहनजी – अरे कढ़ी खायोड़ा, यह बात मुझे तू आते ही बता देता। जाता हूं, अब तू जा गोदाम में..अभी वहां आकर, माल चैक करता हूं। तू जाकर तैयारी कर कढ़ी खायोड़ा, अब यहाँ बैठा मत रह।
[मोहनजी जाते हैं, उनके जाते ही दयाल साहब कमरे में दाख़िल होते हैं। इस वक़्त उनकी सांस धौकनी की तरह चल रही है। वे हाम्पते हुए, आकर अपनी कुर्सी पर बैठते हैं। भाना रामसा इनके नज़दीक आकर, कहते हैं]
भाना रामसा – [हाथ जोड़कर, कहते हैं] – बस मालिक, काम हो गया आपका। अब आप आराम से बिराज जाइये। आगे आपसे अर्ज़ है ‘कभी भी इस कुर्सी को ख़ाली छोड़कर कहीं जाइएगा मत। जनाब, यह माया कुर्सी की ही है।
[सांस अब सामान्य होने के बाद, दयाल साहब जेब से रुमाल निकालते हैं..फिर अपने ज़ब्हा पर छाये पसीने के, एक-एक कतरे को साफ़ करते हुए कहते हैं]
दयाल साहब – [ज़ब्हा पर छाये पसीने को साफ़ करते हुए कहते हैं] – क्या कहूं, भाना राम ? इस दफ़्तर में इतनी सारी पड़ी है कुर्सियां, मगर यह मोहन लाल आकर बैठेगा मेरी ही कुर्सी के ऊपर। सारा दिमाग़ ख़राब कर दिया, इस मोहन लाल ने। इधर यह डी.एम. मांगता है...
भाना रामसा – क्या मांगता है, जनाब ?
दयाल साहब – चावल की क्वालिटी-रिपोर्ट। अब तू बता, कैसे करूँ इस रिपोर्ट तैयार ? उधर जाता हूं, माल चैक करने..वहां यह मोहन लाल तैयार बैठा मिलता है। इधर इस कमबख़्त रतन सिंह को कहा, के ‘पोलिस का पाउडर डाल दे उसमें, मगर यह रतन सिंह सुनता ही नहीं ?’ आख़िर, अब मैं क्या करूँ ? कोई सुनता ही नहीं।
[रशीद भाई कमरे में आते हैं, इस वक़्त इनके मुंह पर नकाब लगी हुई है। इनको देखते ही भाना रामसा और चम्पला वहां से खिसक जाते हैं। इन दोनों को भय है, कहीं यह रशीद भाई बोरियों के ऊपर छिड़काव करने का काम इन्हें नहीं सौंप दे ? अब रशीद भाई दयाल साहब के काफ़ी नज़दीक आकर, उनके कान में फुसफुसाते हुए कुछ कहते हैं]
दयाल साहब – करने दे, इसे चैक। तेरे बाप का क्या गया ? मगर देख रशीद, मोहन लाल दिन भर क्या करता है ? उसकी सही-सही रिपोर्ट तू राजू साहब को ज़रुर दे देना। तूझे पता है, शाम को जाते वक़्त यह मोहन लाल राजू साहब से मांगेगा उपस्थिति प्रमाण-पत्र। अब जा रे, रशीद..काम कर अपना।
[रशीद भाई जाते हैं, और चम्पला चुगे हुए चावलों से भरी प्लेट लेकर आता है। चावलों को देखते ही काम बढ़ा हुआ जानकर, दयाल साहब उसे खारी-खारी नज़रों से देखते हैं। मंच पर, अँधेरा छा जाता है। थोड़ी देर बाद, मंच के ऊपर रौशनी फ़ैल जाती है। अनाज के गोदाम का मंज़र सामने आता है। गोदाम से सटा हुआ, स्टोर का कमरा है। जिसके बाहर, छोटी टेबल और दो कुर्सियां रखी है। टेबल पर चार्ज लिस्टें रखी हुई है, जिसके पास स्टोक-रजिस्टर और पेन भी रखा हुआ है। स्टोर रूम के बाहर दो कट्टे रखे हैं, जिनमें सफ़ेद डेल्टा पाउडर भरा हुआ है। इस पाउडर को पानी मिलाकर, घोल तैयार किया जाता है। फिर इस घोल का छिड़काव पम्प की मदद से अनाज की बोरियों के ऊपर किया जाता है। छिड़काव के वक़्त इस पाउडर के घोल की ठंडी-ठंडी लहरे पैदा होती है, जिसकी ज़्यादा गंध लेना स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है। क्योंकि, इससे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। बोरियों पर छिड़काव कर रहे रतनजी को मालुम होता है, अब घोल समाप्त हो गया है। वे इसकी सूचना पम्प मार रहे रशीद भाई को देते हैं। अब रशीद भाई झट पास रखे पानी से भरे दो घड़े, ख़ाली टंकी में उंडेल देते हैं। फिर डेल्टा का कट्टा खोलकर, दोनों हथेली [धोबा भरकर] से पाउडर लेकर टंकी में डालते हैं। फिर लकड़ी से घोल को हिलाकर, घोल तैयार करते हैं। घोल में पम्प रखकर, रशीद भाई पम्प मारना शुरू कर देते हैं। अब रतनजी फव्वारे से बोरियों पर छिड़काव करते हुए, रशीद भाई से कहते हैं।]
रतनजी – [छिड़काव करते हुए, कहते हैं] – ए रे, रशीद भाई। इस ज़हर से होली खेलना हमारे नसीब में लिखा है, मगर तू ध्यान रखना कोई इधर आ न जाए।
रशीद भाई – [पम्प मारते हुए, कहते हैं] – भाईजान आप फ़िक्र मत कीजिये, मैं एक को भी इधर आने नहीं दूंगा। मगर..
[इस गोदाम के सामने, कुछ ही क़दम आगे एक छायादार बबूल का वृक्ष है, जिसके तले भाना रामसा अफ़ीम की पिनक में लेटे हैं। इस बबूल के पास ही एक अस्थायी युरीनल है। जो छ: फुट की शिलाओं को, चारों ओर घेरकर बनाया गया है। अब मोहनजी राजू साहब से मुलाक़ात करके, इधर गोदाम की तरफ़ आते दिखायी दे रहे हैं। रतनजी और रशीद भाई छिड़काव के काम में व्यस्त हैं, इसलिए उनको इनके आगमन का कुछ पता नहीं। काम करते हुए, वे दोनों गुफ़्तगू करते जा रहे हैं।]
रतनजी – अगर-मगर मत बोल, काम की बात कर। बोल आगे, क्या कह रहा था ?
रशीद भाई – कह रहा था, अगर मोहनजी इधर आ गए..ख़ुदा की कसम मैं उन्हें रोक नहीं पाऊँगा।
[मोहनजी दबे पांव चले आते हैं, यहाँ। और रशीद भाई की कही बात भी सुन लेते हैं। वे यहाँ आते ही कुर्सी पर धम की आवाज़ करते, बैठ जाते हैं। बेचारी कुर्सी, इनके भारी वज़न से चरमरा जाती है। फिर जनाबे आली मोहनजी, कहते हैं]
मोहनजी – [बैठते हुए, कहते हैं] – ‘मोहनजी आ न जाए’ मत कहिये, मोहनजी तो आ गये..और धम करते बैठ गए, कढ़ी खायोड़ो। अब कहो हरामखोरों दिन-भर तुम लोगों ने किया किया ? [बबूल की ओर उंगली का इशारा करते हुए कहते हैं] उस अफ़ीमची के पास बैठकर अफ़ीम ठोकना आसान है, मगर काम करते हुए पसीना निकालना बहुत कठिन है।
[तभी उन्हें स्टोर के दरवाज़े के पास, रखे कट्टे दिखायी दे जाते हैं। अब वे कट्टे को खोलकर क्या देखते हैं, उसमें ? उसमें सफ़ेद उज़ला पाउडर भरा है, उसको देखते ही उनकी बांछे खिल जाती है। वे खुश होकर, कहते हैं]
मोहनजी – रशीद भाई, इस कट्टे में मुझे टेलकम पाउडर नज़र आ रहा है। इसको मैं अपने गालों पर मल दूंगा, तो मैं ज़्यादा ख़ूबसूरत हो जाऊंगा। वैसे तो मैं ख़ूबसूरत हूं ही, इसी कारण मुझे मेरे मां-बाप ने मेरा नाम रखा है मोहन। यानी लोगों को मोहित करने वाला..फुठरा यानी ख़ूबसूरत।
[इनकी बात सुनकर, बबूल की छांव में लेटे भाना रामसा उठकर बैठ जाते हैं। और, हंसते हुए अफ़ीम की पिनक में कहते हैं]
भाना रामसा – [हंसते हुए, कहते हैं] – लगा दे, लगा दे रे पाउडर, तेरे गालों पर। मुझे क्या करना, भाई ? तू नाचेगा, साला कुतिया का ताऊ बनकर। राती-लाल हो जायेगी, तेरी पिछली दुकान। फिर तू नाचता रहना, लक्खू बंदरी की तरह।
[मगर रशीद भाई ने “होडा-होड गोडा-फोड़” प्रवृति को दूर करके, मोहनजी को चेतावनी देते हुए कहते हैं]
रशीद भाई – साहब, इस पाउडर से दूर ही रहो। अगर हाथ लगा दिया, तो मालिक आप तक़लीफ़ पाओगे।
मोहनजी – तू मुझे मना करने वाला है, कौन ? अफ़सर का कर्तव्य है, पहले माल को चैक करना। अब अगर तू बाधा उत्पन्न करने आया, मेरे कार्य के बीच में..? सच्च कहता हूं, तूझे निलंबित ज़रूर करवा दूंगा।
[इनके मना करने के बाद भी, मोहनजी मानते नहीं। झट इसे मुफ़्त का माल समझकर, दोनों हाथो से पाउडर लेकर अपने गालों को मलना शुरू करते हैं। फिर क्या ? उनके गालों पर खुज़ली चलने लगती है। पाउडर से भरे हाथ अब जहां-जहां लगते हैं, वहां खाज़ शुरू हो जाती है। खुज़ाने के बाद उस ठौड़ पर, जलन अलग से होती है। यह जलन भी ऐसी है, बस वे हाय-तौबा मचाते हुए, बन्दर की तरह कूदते जा रहे हैं। इनकी यह हालत देखकर, भाना रामसा अपनी हंसी दबा नहीं पाते। फिर, वे ज़ोर के ठहाके लगाते हुए कहते हैं]
भाना रामसा – पहले ही कह दिया था, अफ़सरों। पहले आपका मुंह होगा लाल, और बाद में होगी पिछली दुकान राती लाल। बाद में कूदोगे आप, लक्खू बंदरी की तरह।
[मोहनजी के कूकारोल मचाने से, भाना रामसा का सारा नशा उड़न छू हो जाता है। अब वे नशे को, वापस लाना चाहते हैं। और, सोचते जा रहे हैं]
भाना रामसा – [सोचते जा रहे हैं] – रशीद भाई की जेब में आज़ सुबह आते ही अफ़ीम की पुड़िया रखवायी थी, अब इस पुड़िया की ज़रूरत आन पड़ी है..अब जाकर उनसे ले आता हूं। रामसा पीर आपकी जय हो, एक बार और बाबा भोले शंभू को प्रसाद चढ़ा देंगे। जय शिव शंकर।
[इतना सोचकर वे जा पहुंचे वहां, जहां खुज़ली व जलन के कारण मोहनजी कूद-फांद करते हुए कूकारोल मचाते जा रहे हैं। भाना रामसा पहुँचना चाहते हैं, रशीद भाई के पास। मगर बीच में अवरोध की तरह कूद-फांद मचा रहे मोहनजी, उनको रशीद भाई के निकट जाने नहीं देते। इसके अलावा वे, भाना रामसा को हाथ से धकेलकर परे हटा रहे हैं। भाना रामसा भी, कौनसे कमतर खिलाड़ी हैं ? निकट जाने के लिए, वे उनका हाथ पकड़कर, उन्हें दूर लेते हैं। इस तरह इनकी हथेलियों पर, आ जाता है डेल्टा पाउडर। अफ़ीम हाथ न आने पर वे त्रस्त होकर, बोख़ला जाते हैं। वे बोख़लाये हुए, कहते हैं]
भाना रामसा – [बोख़लाये हुए, कहते हैं] – अरे ला रे, रशीद भाई। अफ़ीम की पुड़िया दे दे यार।
रशीद भाई – [खीज़े हुए कहते हैं] – पुड़िया गयी तेल लेने, आप पड़े रहो उस बबूल की छायां में। नहीं पड़े रहो, तो यहाँ आकर छिड़काव कीजिये अनाज की बोरियों पर। या फिर इलाज़ कीजिये, कूदते-फांदते मोहनजी का। इसके बाद मैं दूंगा आपको, अफ़ीम की पुड़िया।
भाना रामसा – ऐसा है भी क्या ? क्यों उतावली करते जा रहे हैं, आप ? यार, छिड़काव कर देंगे आराम से.... आप कहो तो, एक दिन आपको भी छिड़क दूं ?
रतनजी – मज़ाक बहुत हो गयी, भाना रामसा। अब काम की बात कीजिये, जैसा रशीद भाई ने कहा है...वैसा ही, कीजिये। या तो आप कीजिये बोरियों पर छिड़काव, या फिर कीजिये मोहनजी का इलाज़। हम दोनों तो इस पाउडर से होली खेले हुए हैं, जो अब इनके लिए कुछ नहीं कर सकते। आप ही, कुछ कीजिये।
भाना रामसा – [आग्रह करते हुए] – पुड़िया दे दे, यार रशीद। मेरा नशा उड़ गया रे, अब तू नकटाई कर मत। मुझे वापस नशा लाना ज़रूरी है, देख मेरे घुटनों का दर्द वापस शुरू हो गया है। अब जल्दी कर, मेरे बाप।
मोहनजी – [किलियाते हुए, ज़ोर से कहते हैं] – जले रे, जले रे..! [कूदकर कहते हैं] खोजबलिया तूने मुझे जला डाला, पाउडर दिखाकर। अरे ओ कढ़ी खायोड़ो। कुछ तो करो रे, मेरा इलाज़। अरे रामा पीर इन कमबख़्तों को कुम्भीपाक नरक में डाल दो, मुझे जला डाला, इन दोज़ख के कीड़ो ने ?
[मोहनजी की ऐसी दशा देखकर, भाना रामसा अपनी हंसी दबा नहीं पाते हैं..अब, वे ज़ोर का ठहाका लगाकर हंसते हैं। फिर लबों पर मुस्कान लाकर, मोहनजी से कहते हैं]
भाना रामसा – [मुस्कराते हुए, कहते हैं] – चुपचाप बैठ जाओ, मोहनजी। मुझे हो रही है, लघु शंका। [छोटी उंगली दिखाते हुए कहते हैं] पहले मैं मूत कर आ जाऊं, फिर वापस आकर आपको खाज़ मिटने की गोली दूंगा।
[इतना कहकर भाना रामसा उस अस्थायी युरीनल में दाख़िल होते हैं। एक मिनट ही नहीं बीता होगा, बहाना रामसा को अन्दर दाख़िल हुए.... झट भाना रामसा पतलून की खुली चैन पकड़े युरीनल से वापस बाहर निकल पड़ते हैं..! भगवान जाने, भाना रामसा ने पाउडर लगे इन हाथों को कहां-कहां लगा डाले ? बेचारे क्या जानते, कि रशीद भाई से अफ़ीम लाने क्या गए ? मोहनजी के हाथों पर लगा पाउडर, अपने हाथों पर लगा आये । बस अब पंडितजी महाराज कूकारोल मचाते हुए, गोदाम की तरफ़ बढ़ने लगे। अब वे भी कूदते-कूदते इन लोगों के नज़दीक चले आते हैं। इधर कूद रहे हैं मोहनजी, और उधर कूद रहे हैं भाना रामसा। दोनों का भांगड़ा डांस, बड़ा गज़ब का..? डांस करते मोहनजी का हाथ कभी गालों पर चला जाता है, तो कभी कमर पर। उधर भाना रामसा पतलून के अन्दर हाथ डाले हुए ऐसे नाच रहे हैं। मानो वे नागा आदिवासियों की तरह, भांगड़ा की प्रस्तुति अलग ढंग से करने जा रहे हो ? इनका नाच देखकर, रशीद भाई और रतनजी, डग-डग हंसते जा रहे हैं। वे दोनों अपनी हंसी, दबा नहीं पा रहे हैं। आख़िर, बेचारे अपने मुंह पर हाथ रखे, मींई मींई नीबली की तरह धीमें-धीमें हंसते जा रहे हैं।]
भाना रामसा – [कूकारोल मचाते हुए, चिल्लाते हैं] – जल गया, जल गया रे। अफ़ीम दबाकर, अब कटिया तू मज़ा ले रहा है...नालायक।
मोहनजी – [भाना रामसा से, कहते हैं] – अब तू क्यों नाच रहा है, लक्खू बांदरी की तरह ? अब करें क्या, ठोकिरा ? अब तो दोनों की पिछली दुकान हो गयी, राती लाल खुज़ाते-खुज़ाते।
[इस तरह शरीर इनके वश में रहा नहीं, और इधर भौम पर चल रही लाल चींटियां अलग से चढ़ जाती है मोहनजी के बदन पर। बात यह रही, आज़ सुबह-सुबह गाड़ी में मोहनजी के सालाजी मिल गये। उन्होंने लूणी स्टेशन पर उनको खिला दिए, लूणी के रसगुल्ले। मुफ़्त के रसगुल्ले खाए जो कुछ बात नहीं, मगर आदत के मुताबिक़ उन्होंने अपने सफ़ारी कमीज़ पर क्यों गिराया रसगुल्ले का रस ? अब मोहनजी को, लाल चींटियों के काटने का आनंद लेना भी..उनकी एक, मज़बूरी बन गयी है। इनकी पिछली दुकान पर, इनका काटा जाना भी वाज़िब है। क्योंकि ये लाल चींटियां काली सफारी कमीज़ पर गिरे रस की सुगंध पाकर, बदन पर चढ़ती जा रही है। बदक़िस्मत से, उनकी कमर पर उनके लगा है बेल्ट..इस कारण यह चींटी-दल कमर से आगे जा नहीं पाता। फिर क्या ? वो चींटी-दल अपनी जान की परवाह किये बिना, उनकी पिछली दुकान की चमड़ी काटना शुरू कर देता है। रुख़सारों पर पाउडर मलने से उत्पन्न खुज़ली तो मिटी नहीं, और अब यह पिछली दुकान पर खुज़ली अलग से पैदा जाती है। इधर पसीने के कारण उनकी कमर पर भी खुज़ली होती है, उसे खुज़ाते-खुज़ाते उनकी पिछली दुकान पर खुज़ली तेज़ हो जाती है..तभी रुख़सारों [गालों] पर हो रही जलन, जान-लेवा हो जाती है। अब जनाब के जहां भी हाथ लगते हैं, वहां खुज़ली व जलन शुरू हो जाती है। इधर भाना रामसा की तो, और बुरी हालत हो गयी है। उनके बदन का कोई ऐसा हिस्सा न रहा..जहां खुज़ली शुरू नहीं हुई हो ? आख़िर बेचारे खुज़ाते-खुज़ाते, पतलून और कमीज़ खोलकर एक ओर फेंक देते हैं। और अब वे, चड्डे में अवतरित हो जाते हैं। भाना रामसा को, फ़र्क क्या पड़ता है ? वे तो वैसे ही बाबा ठहरे, उन्हें कहाँ मोह इन कपड़ो का ? आख़िर वे ठहरे, भोले बाबा शिव शंभू के भक्त। इधर मोहनजी को खुज़ाते खुज़ाते यह ध्यान नहीं रहता है, के “उनकी पतलून की चैन खुली पड़ी है।” अचानक उस खुली चैन पर, रतनजी की नज़र गिरती है। अब उनकी हंसी, ऐसी छूटती है..के, ‘बेचारे हँसना रोक नहीं पाते, और उनके पेट में दर्द अलग से पैदा हो जाता है।’
रतनजी – [मोहनजी की पतलून की खुली चेन देखते हुए, वे ज़ोर से कहते हैं] - डब्बा खुला है रे, रशीद भाई। डाल दे, डाल दे...!
[अब “डाल दे, डाल दे..” शब्द ज़ोर से गूंजते जा रहे हैं, जिससे इस आवाज़ से मोहनजी चौंक जाते है। मंच पर अन्धेरा छा जाता है, थोड़ी देर बाद मंच वापस रोशन होता है। जोधपुर रेलवे-स्टेशन का मंज़र वापस आता है, अभी-तक ये सभी एम.एस.टी. वाले उतरीय पुल पर ही खड़े हैं। मोहनजी कर्ण-भेदी आवाज़ सुनकर चौंक जाते हैं, और उनकी विचारों की श्रंखला टूट जाती है। और उनकी आँखों के आगे आ रहे वाकये के चितराम, आने बंद हो जाते हैं..जिससे मोहनजी चेतन होकर, सामने देखते हैं। सामने रतनजी ज़ोर से यह कहते हुए, दिखाई दे देते हैं]
रतनजी – [ज़ोर से कहते हैं] – डाल दे, डाल दे..! डाल दे मिर्ची बड़े, मेरे बैग में। मोहनजी मिर्ची बड़े, खाना नहीं चाहते।
मोहनजी – [चेतन होने के बाद, आखें मसलते हुए कहते हैं] – खाऊं क्यों नहीं ? मैं तो पूरा ही गिट जाऊंगा, कालिया भूत की तरह। आने दे, आने दे..मिर्ची बड़े आने दे।
रशीद भाई – [हंसी के ठहाके लगाते हुए, ज़ोर से कहते हैं] – मिर्ची बड़े है, कहाँ ? रतनजी ऊपर से दिखायी देते है सीधे, मगर है एक नंबर के ओटाळ। आप खड़े-खड़े झेरे खा रहे थे, आपकी ऊंघ मिटाने के लिए रतनजी ने “डाल दे, डाल दे..! मिर्ची बड़े, मेरे बैग में डाल दे...” का कथन, ज़ोर से बोला था।
रतनजी – आपको कहीं मिर्ची बड़े दिखायी दिए, क्या ?
[यह बात सुनते ही मोहनजी हो जाते हैं, सीरियस। फिर सीरियस होकर, कहते हैं]
मोहनजी – आप कुछ भी बोलो, मगर आप शब्द “डाल दे, डाल दे..” न बोले..तो अच्छा है।
रतनजी – क्यों जनाब, ऐसी क्या बात है ?
[सीटी की तेज़ आवाज़ सुनायी देती है, अहमदाबाद-मेहसाना जाने वाली लोकल गाड़ी प्लेटफोर्म नंबर दो पर आकर रुकती है। उसके आने से यात्रियों के बीच मची हाका-दड़बड़ की आवाज़ के आगे, किसी को कुछ सुनायी नहीं देता..जनाबे आली मोहनजी, क्या कह रहे है ? सभी पुलिया उतरकर, गाड़ी के पास चले जाते हैं। कई एम.एस.टी. होल्डर्स शयनान डब्बों में चले जाते हैं, मगर कई प्लेटफोर्म पर चहलक़दमी करते जा रहे हैं। इन लोगों का विचार है, गाड़ी के ठीक रवाना होते समय वे झट डब्बों में दाख़िल हो जायेंगे। इधर दीनजी डब्बे में दाख़िल होते हैं, दाख़िल होते ही उन्हें रतनजी की दी गयी हिदायत याद आ जाती है के “रेल गाड़ी में वहां बैठना चाहिए, जहां इमरजेंसी खिड़की लगी हो। ताकि आपदा के वक़्त झट बाहर निकलकर, हम अपनी जान बचा सकें।” इस हिदायत को याद रखते हुए, उन्होंने उस केबीन की सीटें रोक देते हैं, जहां इमरजेंसी खिड़की लगी है। सीटें रोकने के लिए उन्होंने कहीं बैग रख दिया, तो कहीं रजिस्टर तो कहीं अख़बार..इस तरह सीटें रोककर वे खिड़की वाली सीट पर खुद बैठ जाते हैं। रशीद भाई को मालुम है, अभी-तक गाड़ी में पंखें स्टार्ट नहीं हुए हैं। अत: वे प्लेटफोर्म पर रखे लोहे के बड़े काले रंग के बोक्स पर, बैठ जाते हैं। ताकि खुले में, वे ताज़ी हवा सेवन कर सके। बैठने के बाद, वे रतनजी और ओमजी को आवाज़ देकर अपने पास बुलाते कहते हैं।]
रशीद भाई – इधर आ जाइये। यह उठा हुआ दम ने, मुझे दुखी: कर डाला। ख़ुदा रहम, ऐसे स्लो-पोइजन से आने वाली मौत से तो अच्छा है..एक ही झटके में, ये प्राण बाहर निकल जाए। मगर, क्या करें रतनजी ? अपने हाथ में, कुछ नहीं है। ख़ाली हाथ आयें हैं, और ख़ाली हाथ जायेंगे।
रतनजी – मौत तो भगवान के हाथ में है, बस हम तो इंतज़ार कर रहे हैं कब भगवान के घर से बुलावा आ जाय ? किसको मालुम, यह मौत कब आ जाए ? मगर एक बात कह दूं, आपको। इस ज़िंदगी को स्टार्ट हुए, हो गए पूरे सतावन साल। अब आपको, एक अजीबोगरीब वाकया सुनाता हूं।
रशीद भाई – सुनाइये।
रतनजी – मेरे पड़ोसी की मां अपने पांवो से चलने में असमर्थ थी, सारे काम वह खटिया पर पड़ी पड़ी करती थी। कल उसकी सहेली आयी उससे मिलने, सारी रात न जाने उन्होंने आपस में क्या बातें की होगी ? और आज़ दोनों सहेलियां तड़के चार बजे, भगवान के घर चली गयी।
रशीद भाई – वाह भाई, वाह। यह तो, अल्लाह की क़रामत है। ऐसा लगता है, आपके पड़ोसी की मां अपनी सहेली का इंतिज़ार ही कर रही थी, वह आयी और भगवान के घर का बुलावा साथ ले आयी।
ओमजी – बस, यही बात है, के ‘बेमाता ने जो मौत के योग बनाए हैं..वे योग जब मिलेंगे तब ही हमारी मौत आयेगी।’ अभी-तक इस ज़िंदगी की गाड़ी को, भंगार में जाने का हुक्म नहीं मिले हैं। आख़िर, इस गाड़ी को कौन देगा सिंगनल ? यह तो जनाब, बेमाता जाने।
रतनजी – सिंगनल देगा कौन, ओमजी ? अब हमारी ज़रूरत क्या, हमारे घर वालों को ? आख़िर, हम तो हैं, पुरानी मशीन के कल-पूर्जे। इन घिसे हुए पूर्जों की, मार्किट में क्या क़ीमत ? वैसे तो जानते हैं हम, बाज़ार में पुराने कल-पूर्जों की बहुत क़द्र है। आज़कल के मेकेनिक अभियंता इन पुराने कल-पूर्जों की नक़ल तैयार कर, नयी मशीन बना लेते हैं। इस कारण पुराने कल-पूर्जों की मांग बढ़ती जा रही है, वैसे यह सरकार भी..
रशीद भाई – [बात काटते हुए, कहते हैं] – अरे जनाब, तब ही मैं कहता हूं यह सरकार पागल नहीं हैं..यह बहुत समझदार है, यारों। इस कारण, यह नए छोरों को नौकरी देती नहीं। बस, वह तो कर्मचारियों की सेवा-अवधि बढ़ाकर अपने जैसे पुराने कल-पूर्जों से काम चला रही है।
दीनजी – [खिड़की से मुंह बाहर झांककर, कहते हैं] – क्यों नहीं चलायेगी, जनाब ? आप जैसे कल-पूर्जे मुखासमत [विरोध] कर नहीं सकते, क्योंकि सेवा-निवृति के नज़दीक आने के बाद कोई कर्मचारी अपनी सर्विस बुक ख़राब करवाना नहीं चाहेगा।
ओमजी – सच कहा, दीनजी। जहां तक इस बदन में ताकत है, ये पुरानी मशीन के कल-पूर्जे चलते रहेंगे। अब क्या करें, जनाब ? चले, जितनी यह ज़िंदगी है। भगवान के घर से, जब कभी बुलावा आएगा..तब, हम एक मिनट भी नहीं रुकेंगे। बीते जितने पल अपने है, बस जनाब उसे सुखद बनाओ दीनजी।
दीनजी – करें भी, क्या ? मज़बूरी है, जनाब। इन पुरानी मशीनों के घिसे हुए कल-पूर्जों की घर में भी कहाँ है, क़द्र ? घर बैठ गए, तब दुल्हनें यही कहेगी ‘बा’सा खोड़ीला-खाम्पा है..बाहर ही नहीं जाते। पूरे दिन घर घर बैठे, खटिया तोड़ते है।
ओमजी – सच्च कहा, आपने। वास्तव में, यह है ज़िंदगी का सत्य। जब-तक ये हाथ-पांव चलते हैं, तब-तक चुप-चाप नौकरी करते रहेंगे। उसी में, हमारा भला है।
रतनजी – सेवानिवृत भी हो गए, तो क्या ? प्राइवेट जोब कर लेंगे कहीं, बस यही ज़िंदगी है। आख़िर, कौन फैलाएगा इन बच्चों के आगे हाथ ? साथियों, जो भी बुलाएगा पहले...हमारे जैसे पुरानी मशीन के घिसे हुए पूर्जे..बस, हम फटा-फट चले जायेंगे वहां नौकरी करने।
[प्लेटफोर्म पर लगी घड़ी में नौ बजकर, हो गए पंद्रह मिनट। अब दयाल साहब घड़ी देखकर आते हैं, फिर अपने साथियों के पास आकर कहते हैं]
दयाल साहब – गाड़ी के इंजन ने सीटी दे दी है, भाई लोगों। अब बैठ जाइये गाड़ी में, ना तो ये पुरानी मशीन के घिसे हुए पूर्जे जोधपुर में ही रह जायेगी। फिर कहना मत, कि ‘हमारी सी.एल. पर चाकू चला दिया।’
दीनजी –– अब बाहर क्यों खड़े हैं, भाइयों। अब बैठ जाइये गाड़ी में, लाइट आ गयी है..पंखें चालू हो गए हैं। अब आप लोगों का दम उठेगा नहीं, [खिड़की के अन्दर मुंह डालते हुए कहते हैं] आ जाइये..बिराज जाइये, अपनी सीटों पर।
[अब सभी अपनी-अपनी सीटों पर बैठ जाते हैं, धीरे-धीरे गाड़ी प्लेटफोर्म छोड़ देती है। ऐसा लगता है, आज़ मोहनजी का मूड ठीक नहीं है। वे पड़ोस वाले केबीन में अकेले बैठे हैं। इतने में उनके पास चले आते हैं, शर्माजी..वी.आई.पी. बैग को थामे। और सीधे आकर मोहनजी से सवाल दाग देते हैं]
शर्माजी – मोहनजी यार, यहाँ क्यों अकेले बैठे हो..पीपली जैसा मुंह लिए ? चलिए यार, आपके साथियों के पास चलकर बैठते हैं।
मोहनजी – बैठना तो मैं चाहता हूं, मगर करूँ क्या ? मेरे बैठते ही, या तो वे उठकर चले जाते हैं, नहीं तो वे मेरे जैसे सीधे आदमी को उड़ाने के लिये मुझसे मज़ाक करते रहते हैं।
शर्माजी – [हंसते-हंसते कहते हैं] – क्या आप पीपली के पान हो, या हो बोरटी के पान ? इनके उड़ाने से, आप उड़ जाओगे ? उठिए, और चलिए मेरे साथ। मैं चलकर देखता हूं, आपको कौन उड़ा सकता है।
[शर्माजी मोहनजी का हाथ पकड़कर, ले जाते हैं उनके साथियों के केबीन में। और इधर, आ जाता है भगत की कोठी का स्टेशन। इस पहले वाले केबीन में, भगत की कोठी से चढ़े यात्री आकर बैठ जाते हैं। अब इस तरह इस केबीन में, एक भी ख़ाली सीट नहीं रहती है। उधर अपने साथियों के केबीन में आकर, मोहनजी क्या देखते हैं ? कि, ‘ओमजी अपना बैग सिरायते रखकर, तख़्त पर लेटे हैं। रतनजी और दीनजी, आमने-सामने खिड़की वाली सीटों पर बैठे हैं। दीनजी जिस तख़्त [bench] पर बिराज़े हुए हैं, उसी तख़्त पर के.एल. काकू भी बैठे हैं। इनके सामने दयाल साहब बैठे हैं। अभी वे दतचित होकर अपनी डायरी देख रहे हैं..कि ‘आज़ दफ़्तर जाकर, उनको कौनसा काम निपटाना है ?’ बची हुई सीट पर, छंगाणी साहब सर के नीचे हाथ रखकर लेटे हैं।’ छंगाणी साहब लम्बे व दुबले आदमी है। वे बिजली घर के सेवानिवृत सहायक अभियंता है, जो अभी इसी बिजली-घर दफ़्तर में डेली वेजेज़ पर काम कर रहे हैं। इस कारण इनको, रोज़ पाली आना-जाना करना पड़ता है। कारण यह है, जिस दिन ये पाली जा नहीं पाते उस दिन का इनका वेतन काट लिया जाता है। इनके सर के पूरे बाल सफ़ेद हो चुके हैं, और ये जनाब इन बालों से मेल खाती उज़ली सफ़ेद ड्रेस पहना करते हैं। इनकी ड्रेस को देखकर ऐसा लगता है, मानो ड्रेस को धुलने के बाद, टीनापोल लगा दिया हो। सरकार इनको रिटायर कर चुकी है, मगर ये जनाब दिल और शरीर से सेवानिवृत कर्मचारी नहीं लगते। स्वास्थ्य के मामले में ये अभी भी, आज़ के जवानों को पीछे रखते हैं। जब रेल गाड़ी जोधपुर प्लेटफोर्म पर आती है, उस वक़्त ये चलती गाड़ी से नीचे उतरकर उतरीय पुल चढ़ जाते हैं। इनको अपनी घर वाली से बहुत प्रेम है, गाड़ी में बैठे-बैठे उनको याद करते रहते हैं। जब-कभी अपने साथियों से गुफ़्तगू करते हैं, उस वक़्त वे भागवान (पत्नि) का टोपिक बीच में ज़रूर डाल दिया करते हैं। भले उनका वहां जिक्र करने की, कोई ज़रूरत नहीं रही हो ? इनकी बातों में, होता भी क्या ? आज़ मेम साहब ने तुलसी ग्यारस का उपवास किया है, कल वे गंगश्यामजी के मंदिर गए थे तब पूर्णिमा के एकासना करने की कथा सुनी..अगली पूर्णिमा को वे ज़रूर, उजावणा की प्रसादी करने का विचार रखती है। इस तरह के टोपिक चलाकर वे भागवान की कथा बांचते रहते है, और अगले सुनने वालों से हूंकारा ज़रूर भरवाया करते हैं।]
[इस तरह, अब केबीन में मोहनजी और शर्माजी दाख़िल होते हैं। दाख़िल होकर साथियों से कहते हैं।]
शर्माजी – वाह, भी वाह। आप लोग मोहनजी को अकेला छोड़कर, इधर आकर कैसे बैठ गए ? लो देखो, मैं मोहनजी को राज़ी करके इधर लाया हूं..आपके पास बैठाने के लिए। [दीनजी से कहते हैं] खिसको दीनजी एक तरफ़।
दीनजी – [थोड़ी जगह बनाकर कहते हैं] – लीजिये बिराजिये, मोहनजी मालिक।
[मोहनजी बैठ जाते हैं दीनजी के पहलू में, धम करते। ना तो वे वे अपने दायीं तरफ़, न देखते हैं बायीं तरफ़। बस मन-भरा बोझ डाल देते हैं सीट पर। उनके इस तरह बैठने से काकू संभल नहीं पाते..बस, झट उनका सर टकरा जाता है मोहनजी के सर से। अब काकू आराम से बैठने के लिए, खिसकना चाहते हैं... दूसरी तरफ़। मगर वहां तो आकर बैठ गए हैं, शर्माजी...खोडीला नंबर एक। शर्माजी तो ऐसे बिराजे हैं, खोड़ीले खाम्पे की तरह..आराम से पालथी मारकर। फिर ऊपर से अपना वी.आई.पी. बैग खोलकर, अपने दफ़्तर की फाइलें बाहर निकलते हैं। फिर, आराम से दफ़्तर का काम करने बैठ जाते हैं। अब उनके लिए मोहनजी गए, भट्टी की भाड़ में...वे तो बैठे-बैठे आराम से, दफ़्तर का काम निपटाते जा रहे हैं। इनको बेचारे काकू की दुर्दशा का भी, कोई भान नहीं ? बेचारे काकू की स्थिति तो, चक्की के दो पाट के बीच में पिसे जा रहे अनाज की तरह हो गयी है। उन्हें एक तरफ़ दबा रहे हैं मोहनजी, और दूसरी तरफ़ दबाते जा रहे हैं शर्माजी ? इस कारण अब वे होंठों में ही, शर्माजी को गालियों के गुलदस्ते भेंट करते जा रहे हैं।]
के.एल.काकू – [होंठों में ही कहते हैं] – कैसा है, यह नालायक शर्माजी ? कमबख़्त, लेकर आ गया मोहनजी को। ख़ुद तो बैठ गया, फाइलें लेकर। और मुझको फंसा डाला बीच में..इधर माता के दीने मोहनजी दबाते जा रहे हैं मुझे, और दूसरी तरफ़ दबा रहा है मुझे यह ख़ुद। फिर, साला कमीना, बैठ गया यहाँ फाइलें लेकर ? नालायक, फिर तू दफ़्तर में करता क्या होगा ? साला करता होगा, परायी पंचायती ? भले इसके अलावा, करता क्या होगा ?
[इतने में मोहनजी देते हैं, एक धक्का..काकू को। और उधर गाड़ी रुक जाने से लगता है, एक और धक्का काकू को। अब ये दोहरे धक्के, काकू कैसे सहन कर पाते..? धक्का देकर, मोहनजी कहते हैं..]
मोहनजी – [काकू को धक्का देते हुए कहते हैं] – खिसको काकू, थोड़ा और आगे। अब मैं दोपहरी करूंगा।
[खाने की बात सुनते ही दयाल साहब झट उठ जाते हैं, और होंठों में ही कहते हैं]
दयाल साहब – [होंठों में ही कहते हैं] – अरे, सांई झूले लाल। इस जोधपुर शहर में या तो खंडे प्रसिद्ध है, या फिर प्रसिद्ध है मोहनजी जैसे खावण खंडे। अब यहाँ बैठे रहे तो मोहनजी ज़रूर कपड़े ख़राब तो करेंगे ही, और साथ में हमें भी ज़बरदस्ती देखना होगा इनका फूहड़ ढंग खाना खाने का।
[फिर क्या ? झट दयाल साहब उठकर, वहां से रुख़्सत हो जाते हैं..दूसरे केबीन में जाकर, ख़ाली सीट देखने। अब उनके जाने के बाद, तख़्त पर काफ़ी जगह हो गयी है। अत: छंगाणी साहब आराम से लेट जाते हैं। क्योंकि, अब इस तख़्त पर इनके अलावा ख़ाली रतनजी ही बैठे हैं। अब मोहनजी, दीनजी से कहते हैं]
मोहनजी – [दीनजी से कहते हैं] – यार भा’सा। क्या करें जनाब, खाना खाने की पूरी ठौड़ ही नहीं मिली..अब क्या करें, रामा पीर ?
दीनजी – जनाब, ऐसी बात है, तो आप खाना मत खाइए। जब पूरी सीट मिल जाए, आपको। तब, आप भोजन कर लेना।
[मगर मोहनजी क्यों मानेंगे, उनकी सलाह ? झट थोडा टेडा बैठकर, थोड़ी सी जगह पैदा कर लेते हैं। और वहां रख देते हैं, खाने का तीन खण वाला सट। अब उसको खोलकर, रोटियाँ और सब्जी वाले खण बाहर निकालते हैं..तभी दीनजी इनकी गंदी आदत को जानते हुए, झट उनसे कहते हैं]
दीनजी – रुक जाइये, मोहनजी। बैग से अख़बार निकालकर दे रहा हूं, आपको। अख़बार के पन्नों को टिफ़िन के खण के नीचे बिछा दीजिये, ताकि सीटें ख़राब नहीं होगी।
मोहनजी – आप धीरज रखिये, भा’सा। मैं सीटें ख़राब नहीं करूंगा, आप मुझ पर भरोसा रखिये।
[अब मोहनजी का अख़बार लेने का कोई सवाल नहीं, उन्होंने तो झट तीनों खण सीट पर रखकर भोजन करना शुरू कर दिया है। सब्जी की सौरम, फैलती है। पछीत पर सो रहे रशीद भाई की नींद खुल जाती है, यह सब्जियों की महक पाकर। फिर सब्जियों को देखकर, रशीद भाई चहक उठते हैं..]
रशीद भाई – वाह मोहनजी, वाह। क्या सब्जियां बनायी है, भाभीसा ने ? आलू, गोभी, मटर और टमाटर की मिक्स्ड सब्जी, देशी घी में तैयार की गयी रतालू की सब्जी..अरे भाई, क्या देसी घी से तर लज़ीज़ फुलके ? मोहनजी । खाने का आनंद आ जाएगा..आपको ।
[मोहनजी को कोई फ़र्क पड़ने वाला नहीं, रशीद भाई स्वादिष्ट भोजन की चाहे जितनी तारीफ़ कर डाले ? मगर वे इनको खाने का निमंत्रण, देने वाले नहीं। वे सब्जी में रोटी का निवाला डूबा-डूबाकर, निवालों को मुंह में डालते ही जा रहे हैं। उन्हें यह भी पता नहीं, कि ‘सब्जी के छींटे, उनके सफ़ारी सूट पर गिरते जा रहे हैं। सब्जी में डाला हुआ घी-तेल सीट पर गिरकर, सीट को गंदी करता जा रहा है। अब इधर गाड़ी की खरड़-ख़रड आवाज़ और छंगाणी साहब के खर्राटे, और फिर उधर मोहनजी के खाने की हलबलाहट की आवाज़...? अब ख़ुदा को ही मालुम, ये सभी आवाजें आपस में कैसे ताल-मेल बैठाती जा रही है ? थोड़ी देर में मोहनजी के भोजन का पहला दौर, किसी तरह पूरा हो जाता है। अब वे सट को बंद करके, बैग में रख देते हैं। फिर वे बैग से ठंडे पानी की बोतल निकालते हैं, और रतनजी से कहते हैं]
मोहनजी – रतनजी कढ़ी खायोड़ा, थोड़ा खिड़की से दूर हटो, मैं खिड़की से हाथ बाहर निकालकर अपने हाथ धो रहा हूं।
रतनजी – अरे साहब, मैंने कढ़ी की सब्जी खायी नहीं है, मगर अभी-अभी आपके मफ़लर और आपके कमीज़ ने रतालू की सब्जी ज़रूर खायी है। बात ऐसी है, अब मुझे आपका हुक्म ज़रूर मानना होगा...न मानूंगा तो जनाब, आप मेरे ऊपर जूठा पानी गिरा देंगे ? लीजिये, अभी दूर हटता हूं।
[खिड़की से बाहर हाथ निकालकर, मोहनजी हाथ धोते हैं। पानी के छींटो से बचने के लिये रतनजी और दीनजी भा’सा अपना मुंह झट दूर लेते हैं, दीनजी भा’सा के कुछ नहीं होता, मगर बेचारे रतनजी के अक्समात दूर हटने पर..उनकी कमीज़ की जेब से, डिबिया बाहर निकलकर नीचे गिर पड़ती है। ख़ुदा का मेहर ही समझो, बेचारे रतनजी पर। नीचे गिरने पर वह डिबिया खुली नहीं..न तो डिबिया के अन्दर रखा नक़ली दांत चिपकाने का मसाला बाहर निकलकर बिखर जाता। इस तरह बैठे-बैठे, बेचारे रतनजी का भारी नुक्सान हो जाता। यह बात ही कुछ ऐसी है, जब-तक डिबिया संभालकर उन्होंने अपने हाथ में न ले ली, तब-तक उनकी हालत ऐसी लगती है..जैसे उनकी जान हलक़ में आकर, फंस गयी हो ? फिर क्या ? फिर क्या ? वे झट उस डिबिया को सावधानी से रखते हैं, अपनी जेब में। अब डिबिया को जेब में डालते ही उनको ऐसा लगता है, मानो उनके बेज़ान बदन में जान आ गयी हो ? अब तो उनकी नाराज़गी का पहाड़, मोहनजी के ऊपर गिर पड़ता है। वे नाराज़गी से, मोहनजी से कहते हैं]
रतनजी – [गुस्से में कहते हैं] – यह क्या कर डाला, मोहनजी ? अभी नुक्सान हो जाता, जनाब। जानते नहीं, आप ? मुंह में डाली हुई बत्तीसी को चिपकाने के इस मसाले को मैं, करीब दो हज़ार रुपये ख़र्च करके लाया हूं।
दीनजी – [बात काटते हुए, कहते हैं] – मोहनजी। रतनजी के ऊपर मेहरबानी रखें, जनाब। आपके कारण ही, इनको बत्तीसी के पैसे ख़र्च करने पड़े। इनके दांत नहीं होने पर आप, ठोक जाते थे बाल गोपाल का प्रसाद।
मोहनजी - मैं तो अब भी ठोक जाऊंगा, आप सभी देखते रहना।
दीनजी – अब कैसे ठोकोगे, मोहनजी ? यह बत्तीसी इनके मुंह में, बराबर फिट हो गयी है। अब मुमकिन नहीं, आप इनका हिस्सा अरोग जाओ।
रतनजी – अब भले आप कुछ भी कहो, यार ? बस, अब बातें रह गयी। पहले आप लोग कहते थे, ‘ये क्या खायेंगे ? ये है, एक दंता।’ बस मालिक, अब आप कोई बुरी नज़र मत लगाना।
रशीद भाई – रतनजी, मैं आपके लिए मौलवी साहब से एक इमाम जामीन मांगकर ले आ आऊंगा। उसको पहनने के बाद किसी की बुरी नज़र आपको लगेगी नहीं। मगर जनाब, मोहनजी को छोड़कर।
दीनजी – जी हां, रशीद भाई आप सौ फीसदी सत्य कह रहे हैं। अपने बुजुर्ग भी कहते हैं, अघोरी की नज़र से रहना दूर। वहां तो जनाब, यह इमाम जामीन भी असर नहीं करता।
ओमजी – मोहनजी सब कुछ खा सकते हैं, अघोरी की तरह। कुछ भी खिला दो, इनको.. मगर खिलाना होगा आपको...केवल मुफ़्त में। इसलिए कहते हैं, इनको...अघोर मलसा।
मोहनजी – [टोपिक बदलने का प्रयास करते हैं] – मुझे लगी है प्यास, और आप लोग मज़ाक करते जा रहे हैं मुझसे ? क्यों प्यासा मार रहे हो, मुझे...बेटी के बाप ? जल्दी थमा दीजिये, पानी की बोतल।
[कोई अपनी बोतल उनको देता नज़र आता नहीं, तब दुखी होकर वे रामा पीर को पुकारते हैं]
मोहनजी – [दुःख के मारे, बोल पड़ते हैं] - ए, मेरे रामा पीर। इन लोगों ने मुझे यहाँ बुला तो लिया, अब मुझे प्यासा रखकर मेरी जान निकाल रहे हैं।
[आख़िर, पानी बचने के चक्कर में वे वे अपनी पानी की बोतल बैग में रखते हैं। फिर, कहते हैं।]
मोहनजी – [कातर सुर में कहते हैं] – क्या करूँ, यहाँ तो कोई ऐसा दीनदार मौजूद नहीं...जो अपनी बोतल से मुझे पानी पिला दे। वक़्त ख़राब है, पानी की बचत तो अब करनी होगी मुझे...थोड़ा सा पानी बचा है, मेरी बोतल में..इस बोतल को बैग में रख देता हूँ...यह पानी, बाद में काम आयेगा।
रतनजी – फिर, अभी किससे काम चलाओगे, मोहनजी ?
मोहनजी – मज़बूरी है, अभी तो भाई लोगों की बोतलें, ख़ाली करता रहूँगा।
[अचानक के.एल.काकू को लगती है प्यास, वे सेवाभावी रशीद भाई से पानी की बोतल माँगते हैं। मगर, यह क्या ? रशीद भाई तो निकले, एक नंबर के चतुर। झट वे ओमजी के बैग से बोतल निकालकर, उसे काकू को थमा देते हैं। काकू ठहरे, क़ायदे वाले आदमी..इसलिए वे ऊपर से पानी पीकर, मोहनजी को बोतल थमा देते हैं। मगर, यह क्या ? इस समय ओमजी को कहाँ आ रही है, नींद ? क्योंकि, यहाँ सोने के लिए पर्याप्त जगह तो है नहीं..फिर, बेचारे करते क्या ? लोगों को दिखाने के लिए, नींद लेने का नाटक ही करेंगे...और, क्या ? उनकी बोतल मोहनजी के पास चली जाय, यह ओमजी को गवारा नहीं। वे झट मोहनजी से बोतल छीनकर, वापस अपने बैग में डाल लेते हैं। इसके बाद, वे टोचराई करते हुए कहते हैं]
ओमजी – मोहनजी। ख़ुद की बोतल, बैग में पड़ी दूध दे रही है ? पानी पीना हो तो तो ख़ुद की बोतल निकालते क्यों नहीं, बैग से ? लोगों का पानी पीना लगता है, अमृत..और साथ में, उनकी बोतलों को [धीरे से, बोलते हैं] मुंह लगाकर, जूठी अलग से कर देते हो ?
[अपने साथियों की ऐसी ओछी बातें सुनकर, मोहनजी का दिल दर्द से भर जाता है। इधर गाड़ी की खरड़ खरड़ आवाज़, और उधर छंगाणी साहब के खर्राटों की आवाज़..अब, कैसे आती है नींद..? यहाँ ना तो सोने की ठौड़, और ना लोगों का मोह ? मोहनजी जनाब झिल गए हैं, बेचारे ? अब मोहनजी जायें, तो कहाँ जायें ? पहले वाले केबीन की सारी सीटें भर गयी है। अब वे अपने दिल में, शर्माजी को भर-पेट गालियां देते हैं। जिसने आराम से बैठे जनाबे आली मोहनजी को, इस केबीन में लाकर बैठा दिया..ख़ाली, उनको परेशान करने के लिये। अब यह शर्माजी नाम का खडूसिया, लेकर बैठ गया है अपने दफ़्तर की फाइलें। और देख नहीं रहा है, मोहनजी को। बेचारे क्या-क्या तक़लीफ़, उठाते जा रहे हैं ? ऐसा लगता है, अब इसने नहीं बोलने की कसम खा रखी है ? मोहनजी के दिल में शर्माजी के प्रति नफ़रत भर जाती है, उनके दिल से यह एक ही आवाज़ निकल रही है, के “यह साला शर्मा नहीं, निशरमा है..माता का दीना।” आख़िर दुखी होकर वे बैग उठाते है, इनके उठते ही सभी साथियों की नज़र इनके पिछवाड़े पर गिरती है। अब सभी साथियों को मालुम हो जाता है, रोज़ लोगों को तेल की चिकनाई वाली सीटों पर बैठाकर उनकी पतलून ख़राब करने वाले मोहनजी आज़ पूरे झिल गए हैं। उनका वापस उसी जगह पर बैठ जाना, जहां बैठकर उन्होंने अभी खाना खाया है..! बदक़िस्मत से वे, उस तेल की चिकनाई वाली सीट को साफ़ करना भूल गए थे। और बिना ध्यान दिए, वे वापस वहीँ बैठ गए हैं। अब सभी उनका पिछवाड़ा देखकर, हंसते हैं। रतनजी से बिना डाइलोग बोले रहा नहीं जाता, वे हंसते हुए डाइलोग बोल देते हैं]
रतनजी – [हंसते हुए कहते हैं] – आख़िर, आज़ पहाड़ के नीचे ऊंट आ गया है।
[ऊंचे क़द के छंगाणी साहब की नींद उड़ गयी है, इन लोगों के हंसने से। रतनजी का बोला गया डायलोग, अब वे अपने ऊपर ले लेते हैं। जैसे ही उनके कानों में रतनजी के शब्द गिरते हैं..वे चौंकते हुए कहते हैं]
छंगाणी साहब – भाई मैं लंबा ज़रूर हूं, मगर आप मुझे ऊंट मत समझो। जानते हो ? ऊंट की गाबड़ [गरदन] बहुत लम्बी होती है, मगर बाढ़ने [काटने] के लिए नहीं होती। आप लोगों में, किसी भाई को मेरे पास बैठना है तो..आकर बिराज जाइये। मगर, आप इस तरह मोसा [ताना] मत बोला करें। आप लोगों से हाथ जोड़कर अर्ज़ है, आप सीधे आकर बिराज जाइये, यहाँ।
[इतना कहने के बाद छंगाणी साहब को मेम साहब याद आ जाते हैं, फिर क्या ? झट उठकर बैठ जाते हैं, और उनका क़िस्सा बयान करते हैं]
छंगाणी साहब – लीजिये जनाब, एक क़िस्सा बयान करता हूं। एक दिन मेरे मेम साहब बोले, कि...
रशीद भाई – [पछीत [ऊपर वाली बर्थ से] से उतरकर, कहते हैं] – बस, बस..! आपकी मेम साहब का पुराण बाद में सुनेंगे, अब लूणी स्टेशन आ गया है। अब आप चाय-वाय पाते हो तो, बात कीजिये।
[इन्जन सीटी देता है, गाड़ी की रफ़्तार कम हो जाती है। गाड़ी प्लेटफोर्म पर आकर, रुकती है। अब वेंडरों की आवाजें प्लेटफोर्म पर गूंज़ती जा रही है, इधर पुड़ी-सब्जी बेचने वाले वेंडर डब्बों की खिड़कियों के पास से गुज़रते जा रहे हैं। अब कभी चाय की थड़ी वाले की आवाज़ गूंज़ती है “चायेऽऽ ऊनी ऊनी चाय, मसाले वाली चाय।” तब कभी पुड़ी वाले शर्माजी की आवाज़ गूंज़ती है “अंईऽऽऽ पुड़ी-सब्जी दस रुपये पाव, साथ में ले लो दाणा मेथी का अचार..ओय पुड़ी खायके।” इनकी आवाजें सुनकर, मोहनजी उठकर डब्बे के दरवाज़े के पास चले आते हैं। अब वे बाहर प्लेटफोर्म पर निग़ाह डालते हैं, वहां उन्हें चाय लाने वाला छोरा हुकम सिंह दिखायी दे जाता है। अब वे उसे आवाज़ देकर, अपने पास बुलाते हैं। आवाज़ सुनकर, हुक्म सिंह हुक्म बजाने हेतु आता है निकट।]
हुकम सिंह – [चाय से भरा सिकोरा थमाते हुए, कहता है] – लीजिये जनाब, आपकी मनपसंद एम.एस.टी.कट चाय। हुज़ूर दो दिन के, चाय के पैसे बकाया है। अब दे दीजिये, जनाब। नहीं तो, कल सेठ चाय देगा नहीं।
मोहनजी – पैसे कहाँ भागकर जाते हैं, भले आदमी ? आदमी की ज़बान का भरोसा, नहीं है रे कढ़ी खायोड़ा ?
हुकम सिंह – जनाब आदमी का भरोसा कर सकता हूं, मगर आपका नहीं। जनाब, आप तो..
[बाहर प्लेटफोर्म पर चाय पी रहे दयाल साहब, राजू साहब और शर्माजी के कानों में हुकम सिंह की आवाज़ सुनायी देती है। यह बात सुनकर, वे इनको टका-टक देखते जाते हैं। मगर कुबदी शर्माजी, बिना डाइलोग बोले कैसे रह पाते ?]
शर्माजी – [हुकम सिंह से कहते हैं] – बन्ना हुकम सिंहसा। मोहनजी आदमी नहीं है, और पुरुष भी नहीं है। मगर, महापुरुष ज़रूर है। तूने शत प्रतिशत सही बात कही है।
[शर्माजी के कोमेंट्स सुनते ही, राजू साहब और दयाल साहब ज़ोर से ठहाका लगाकर हंसते हैं। के.एल.काकू मुंह पर रुमाल दबाकर, मींई मींई नीम्बली की तरह हंसते जा रहे हैं। अब मोहनजी सोचने को बाध्य हो जाते हैं, के ‘अगर मैं यहाँ खड़ा रहा तो, ये लोग ज़रूर मेरी इज़्ज़त की बखिया उधेड़ देंगे, फिर, क्या ? हुकम सिंह जैसे पराये आदमियों के सामने मेरी क्या इज़्ज़त बनी रहेगी ?’ फिर, क्या ? मोहनजी झट जेब से कड़का-कड़क दस का नोट बाहर निकालकर, हुकम सिंह को थमा देते हैं। फिर, वे उससे कहते हैं]
मोहनजी – [नोट थमाते हुए कहते हैं] – ले भाई दस का नोट, हिसाब कल करेंगे। अब तू धीरज रखना, कढ़ी खायोड़ा।
हुकम सिंह – [नोट लेकर, अपनी जेब में रखता है] – हजूरे आलिया, मैं कढ़ी की सब्जी खाकर नहीं आया हूं। मगर देसी घी में बनी ऐसी लापसी, ठोककर आया हूँ...जिसके आगे यह आपकी कढ़ी भी कुछ नहीं है, जनाब। अब रुख़्सत दीजिये, चलता हूं। [जाता है]
[इंजन सीटी देता हैं, यात्री डब्बों में आकर अपनी सीटों पर बैठ जाते हैं। अब गाड़ी लूणी स्टेशन छोड़ चुकी है। और उसने, अपनी तेज़ रफ़्तार बना ली है। अब बूट पोलिश करने वाले छोरों का दल, डब्बे में दाख़िल होता दिखाई देता है। इन छोरों में अजिया, अनवर, बबलू, तनवीर और शहजाद, बातें करते हुए आगे बढ़ रहे हैं।]
शहजाद – [होंठों में ही, बड़बड़ाता हुआ चलता है] – सारी कमाई तुम लोग कर लोगे, नासपीटों.. अरे, मेरा भी ध्यान रखा करो। सालों, मैं यहीं हूं। [केबीन में घुसता हुआ गीत गाता है] ‘धीरे से जाना ओ खटमल। धीरे से जाना केबीन में।’
अजिया – [बीच में अपनी टांग फंसाकर शहजाद को रोकता है, फिर कहता है] – हम तो हैं, खटमल। आ इधर, पहले चूस लेता हूं तेरा खून।
बबलू – [अजिया की टांग दूर लेता हुआ, कहता है] – चूस लेना यार पहले इस मानव को कुछ कमाने तो दे। आज़ इसकी कमाई से पाली में देखेंगे, फिल्म ‘बूट-पोलिश।’
अनवर – [सीटों पर बैठे एम.एस.टी. वालों को देखकर, कहता है] – अब इनसे क्या करें, कमाई ? यार, यहां तो एम.एस.टी. वाले भरे पड़े हैं। और पीछे जाते हैं तो बैठे हैं, टी.टी.ई। ये टी.टी. लोग तो, मुफ़्त में करायेंगे बूट पोलिश। मगर ये भले इंसान तीन की जगह दो-दो रुपये, बूट पोलिश करवाकर देते हैं।
छंगाणी साहब – [बूट पोलिश करने वाले छोरों को देखकर, कहते हैं] – मरो मत रे, दो-दो रुपये के लिए। आ जाओ इधर, मुझे मेरे बूटों की मरम्मत भी करवानी है...और, पोलिश भी।
अजिया - [बबलू के कान में कहता है] – यार, मुर्गा फंस गया। अब बता, इसे हलाल करेगा कौन ? तू या मैं ?
[छंगाणी साहब अपने बूट खोलते हैं। ये बूट तो ऐसे लगते हैं, मानो ‘ये बाबा आदम के ज़माने के हों ? बीसों पैबंद लगे हुए, बस इस तरह छंगाणी साहब इन बूटों पर मेहरबानी करके..पैबंद लगवा-लगवाकर, इन बूटों की उम्र बढ़ाते जा रहे हैं।]
रशीद भाई – साहब, मुझे तो ये जूते लगते हैं....
छंगाणी साहब – [बात काटते हुए कहते हैं] – ज़्यादा पुराने नहीं है रे, रशीद भाई। पिछले दस साल पहले शादी की सालगिरह मनाई थी, तब ससुराल से ये बूट मुझे भेंट में मिले थे। ससुराल का माल है, भाई। अब यों कैसे फेंक दे, इनको ? मेम साहब को नाराज़ करना है, क्या ?
[छोरे नज़दीक आकर बैठ जाते हैं, आँगन पर। फिर एक-एक छोरा बूट को हाथ में लेकर, जांच करता हैं। उनको जांच करते देख, छंगाणी साहब अपने पुराने ओहदे का रौब ग़ालिब करते हुए कहते हैं]
छंगाणी साहब – [रौब ग़ालिब करते हुए, कहते हैं] – देखो रे, छोरों। पूरी उम्र मैंने इंजीनियरिंग की नोकरी सरकारी महकमों में की है। वहां दफ़्तरों में यह क़ायदा था, पहले एस्टीमेट तैयार कराने का। फिर क्या ? ठोकिरों, तुम सभी बैठकर बनाओ एस्टीमेट..! तुम सभी छोरे अपनी अलग-अलग रेट बताओ, बूटों की मरम्मत और पोलिश करने के क्या लोगे ?
अजिया – आप यह क्या कह रहे हैं, हुज़ूर ? सात-आठ रुपयों के लिए, आप हमसे एस्टीमेट लेंगे ?
छंगाणी साहब – भाई, आख़िर क़ायदे की बात है। जो छोरा कम पैसा बताएगा, उसको बूट तैयार करने का आर्डर मिल जाएगा और क्या ? बात तो भाई, है क़ायदे की।
रतनजी – [कुबदी दिमाग़ चलाते हुए, कहते हैं] - साहब, एस्टीमेट लेने के पहले अपने कमीशन के रुपये अलग रखवा लेना..फिर ये छोरे, कमीशन के रुपये देने वाले नहीं। आपके गृह मंत्री मेम साहब को मरम्मत के रुपये ज़्यादा बताकर, कमीशन की राशि का पान ठोक जाना।
ओमजी – [हंसते हुए कहते हैं] – शत प्रतिशत सही बोला है, रतनजी ने। सरकारी महकमों में, कमीशन लेने-देने का रसूख़ होता है। यार रतनजी। आप तो टेंडर खोलने का पूरा काम, इनसे करवा लीजिये। आप छंगाणी साहब जैसे भले आदमी की मदद करेंगे..तो रामा पीर, आपका भला करेगा।
[इनकी बातें सुनकर, छोरे हंसने लगे। यह मामला ठहरा, ख़ाली आठ या दस रुपये का..और इंजिनियर साहब खोलने बैठ गए, टेंडर ? छोरे उठकर रुख़्सत हो जाते हैं, और साथ में जाते हुए कह देते हैं]
अनवर – [रुख़्सत होते हुए कहते हैं] – ये साहब काम करवाने वाले नहीं, क्योंकि यहां तो तिलों में तेल नहीं।
बबलू – [रुख़्सत होता हुआ, कहता है] – सच्च कहा रे, तूने। ये साहब है, या मक्खीचूस ? अब यहाँ से चलना ही, अच्छा है।
[मगर बेचारा अजिया जा नहीं पाता, वह यहीं खड़ा रह जाता है। क्योंकि आज़, उसकी बोवनी हुई नहीं है। बस इसी आशा में यहीं बैठा रह जाता है, शायद छंगाणी साहब थोड़ा ऊपर नीचे रेट बताते हुए ओर्डर दे दे ? अब वह आशामुखी बना हुआ, साहब से कहता है]
अजिया – साहब, पोलिश कर दूं क्या ?
[मगर, यहां तो पैसा कमाना अजिये के हाथ में नहीं...”मैं लाडे की भुवा” बने रशीद भाई, मूसल चंद की तरह बीच में लपक पड़ते हैं]
रशीद भाई – पोलिश कर देगा क्या, वह भी हमारे अन्जिनियर साहब की ?
रतनजी – [हंसते हुए, कहते हैं] – कर दे, यार। साहब को मत छोड़। ये है भी, काले। तेरा तो फ़ायदा ही फ़ायदा, तेरी पोलिश ज़्यादा ख़र्च होगी नहीं..काफी बचत हो जायेगी, तेरी। रोकड़े पैसे मिल जायेंगे, और साहब का क्या ? इनके काले रंग पर, थोड़ी चमक और आ जायेगी। सौदा अच्छा है, ‘सोना में सुहागा।’
[कल देर रात को ओमजी ने देखी थी, बाबा रामसा पीर की फिल्म। अब उनकी पलकें नींद के कारण भारी हो रही है, धीरे-धीरे बैठे-बैठे झपकी लेते दिखायी देते हैं। इधर अजिया सोच रहा है, “मज़ाकों से पेट भरा नहीं जाता, यहाँ तो सब नज़र आ रहे “पुरानी मशीन के कल-पूर्जे”..जो पैसे खर्च करने वाले नहीं। यहाँ रुका रहा तो, इनकी बकवास सुनते-सुनते मैं धंधा करना भी भूल जाऊंगा।” यह सोचकर अजिये ने एक हाथ में बूट पोलिश की थैली, और दूसरे हाथ में ब्रूस थाम लिया है। अब बेचारा अजिया उठता है, और करता है जाने की तैयारी। उसको ब्रुस हाथ में लिए देख, बेचारे छंगाणी साहब घबरा जाते हैं। और उन्हें आशंका हो जाती है, ‘कहीं यह छोरा, उनका मुंह काला करने तो नहीं आ रहा है ?’
छंगाणी साहब – [दूर हटते हुए, चिल्लाकर कहते हैं] – क्या कर रहा है, ठोकिरा ? मुंह काला करेगा, क्या ?
अजिया – [हंसता हुआ, कहता है] – साहब, आज़कल पोलिश बहुत महंगी आती है। मुझे यह क़ीमती पोलिश, ख़राब नहीं करनी है जी।
[ब्रूस थैली में डालकर, अजिया ने तो रवाना होने की तैयारी कर ली है। मगर छंगाणी साहब के बूटों की मरम्मत करवाने का जो सिलसिला चला है, उसकी हाका-दड़बड़ ने ओमजी को नींद से उठा दिया है। बड़ी मुश्किल से यह नींद आयी, और इस करम-ठोक अजिये के कारण यह नींद चली गयी ? अब वे क्रोधित होकर, अजिये को फटकारते हैं।]
ओमजी – [अजिये को, गुस्से में कहते हैं] – दूर हट, कमबख्त। मेरी नींद उड़ा दी। सुनहरे स्वप्न आ रहे थे, और तूने फंसा दी फाडी।
[अब वे अजिये को ठोकने के लिए, पांव से चप्पल बाहर निकालकर उसे हाथ में लेते हैं। मगर जैसे ही वे उसे ठोकने के लिए उठते हैं, और उधर अजिया उनका यह रूप देखकर झटपट हो जाता है नौ दो ग्यारह। अब रतनजी को सूझती है, कुबद। वे चुप-चाप बैठ कैसे सकते थे ? आख़िर, वे ठहरे चांडाल-चौकड़ी के सम्मानित सदस्य। फाटक से रशीद भाई को गूंगे-बहरो की भाषा में इशारा करते हैं, और उसके बाद वे छंगाणी साहब से कहते हैं]
रतनजी – देखो छंगाणी साहब। मुझे और रशीद भाई को, केवल बाटा के ही बूट पसंद है। [रशीद भाई से हुँकारा भरवाते हुए, कहते हैं] ए रे, रशीद भाई। तीन-चार साल तक काम लेने के बाद, इन बूटों को ख़राब होते तूने देखा क्या ?
[रतनजी आँख मारकर, रशीद भाई को इशारा करते हैं]
रशीद भाई – जी हां, बाटा के ही बूट खरीदने चाहिए। हम लोगों को जब भी बूट खरीदने होते हैं, तब हम बाटा के ही बूट ख़रीदते हैं।
रतनजी - मगर, एक बात सीक्रेट है..
छंगाणी साहब – हमसे क्या छुपाना ? हम तो ठहरे, आपके गाड़ी के साथी।
रशीद भाई – बात यह है, बूट तो हम लोग एक बार ही ख़रीदते हैं...मगर, हर साल दफ़्तर में बूट ख़रीदने का बिल ज़रूर प्रस्तुत कर देते हैं। इस तरह हर साल बिल पारित करवाकर, पैसे उठा लेते हैं।
[यह क्या ? दीनजी उनके प्लान में बन जाते हैं, कबाब में हड्डी। बस, फिर क्या ? बीच में बोल पड़ते हैं..]
दीनजी – वाह भाई, वाह। ऐसे कैसे हो सकता है, रशीद भाई ? आप बूट लाते ही नहीं, और रुपये कैसे उठा लेते हैं ? आपके दफ़्तर में कहीं, अंधेर नगरी, और चौपट राजा का राज है ?
रतनजी – देखो भा’सा। हमारे दफ़्तर में हर कर्मचारी को, ६०० रुपये का बज़ट जूते ख़रीदने के लिए मिलता है। इस कारण हम, जूते का बिल लाकर दफ़्तर में जमा करवा देते हैं..और जूते के पैसे उठा लेते हैं।
रशीद भाई – [छंगाणी साहब की तरफ़ देखते हुए कहते हैं] – छंगाणी साहब, आप यों क्यों नहीं करते ? बाटा के बूट ख़रीदकर, आप उसका बिल हमें दे दें। फिर बिल उठने पर, हम और आप पैसे आपस में बांट लेंगे। इस तरह, अपुन दोनों को फ़ायदा।
रतनजी – देखिये जनाब, यह बूटों की जोड़ी आती है छ: सौ रुपये में। हम लोग इसका भुगतान उठाकर, आपको दे देंगे सौ रुपये और शेष ५०० रुपये हम रख लेंगे। इस तरह आपको फ़ायदा ही होगा, आपको जू्ते पड़ेंगे..
छंगाणी साहब – अरे मेरे बाप, यह क्या कह रहे हो रतनजी ? मेरे खोपड़े पर मारना नहीं, मेरे भाई । मैंने कौनसी ग़लती की है ?
रतनजी – [हंसी का ठहाका लगाकर, कहते हैं] – अरे जनाब, आपकी जूतों से पिटाई नहीं होगी..बल्कि, आपके लिए जूतों की कीमत होगी ५०० रुपये। क्योंकि, सौ रुपये आपको मिल गए हैं।
छंगाणी साहब – [हंसते हुए, कहते हैं] – ठोकिरा। बिना पैसे दिए, कैसे कह रहे हो...के, मुझे रुपये मिल गए ? अच्छा हुआ, यहाँ मेम साहब है नहीं..होती तो मेरे जेब-ख़र्च में सौ रुपये की कटौती हो जाती।
रतनजी – मज़ाक मत करो, छंगाणी साहब। हमने, उदाहरण के तौर पर कहा है।
छंगाणी साहब – तब ठीक है जनाब, वैसे भी मेम साहब ने भी कह दिया है, नए बूट ला दीजिये। अब मेरे पीहर वाले के भरोसे रहना नहीं, क्योंकि अब मेरे भतीजे की इतनी औकात नहीं..आपको चांदी के जूते मारने की। अरे नहीं जनाब, जूते दिलाने की।
रतनजी – काकीसा कहती है, सत्य बात। अब आप, जूते खाय ही लो। अरे सा, राम राम। मेरी तो ज़बान चूक गयी….मैं कहता था, जूते ख़रीद ही लो।
छंगाणी साहब – जूते खा लूँगा..अरे नहीं, जनाब। ज़रा, ज़बान फिसल गयी। कह रहा था, के जूते ख़रीदकर ला दूंगा जनाब। मगर, आप लोगों का सहयोग रहा तो..! मेम साहब को भले, बाटा के ही जूते पसंद है। बस आपने जैसे कहा अभी, वैसे ही बस..
रतनजी – [मुस्कराते हुए, कहते हैं] – बस बस, क्या कहते हो जनाब ? क्या बस में बैठाकर, आप हमें तीर्थ करवाने के लिए ले जा रहे हैं...?
छंगाणी साहब – बस में ले जाने का धंधा मेरा नहीं है, हुज़ूर। मेम साहब के भतीजे है ना ? उनकी मासी सासजी के जेठजी के सालाजी हैं, ना..वे बस ले जाने का धंधा करते हैं। आप कह दें तो, मैं उनके पास से टिकट ला देता हूं ? एक टिकट का लेंगे, लगे-टगे दस हज़ार रुपये। चार धाम की यात्रा करवा देंगे, बड़े आराम से।
रतनजी – छंगाणी साहब ना तो हमें जाना है, तीर्थ यात्रा पर। और ना आपकी बांची हुई पड़ में, किसी का रिश्ता करवाना है। अब आप अपने काम की बात पर, आ जाइये। बात ऐसी है है छंगाणी साहब, ऐसे तो आपको बाटा के बूट ख़रीदने ही है..बस, फिर क्या ? बूट ख़रीदकर उस दुकान से ला दीजिये छ: सौ रुपये का बिल...फिर, लाकर दे दीजिये..हमें। और, करना क्या है..आपको ?
छंगाणी साहब – [राज़ी होकर कहते हैं] – फिर..?
रतनजी – मैं आपको देता हूं, सौ रुपये रोकड़ा। आपका काम सलट जाएगा, और मेरा भी काम बन जाएगा। [होंठों में ही] फिर आप मांगोगे सौ रुपये, तब मैं दूंगा आपको दो-दो रुपये प्रति दिन, इस तरह भले और करना कंजूसी। फिर आपको मालुम होगा कि, आपका पाला पड़ा है..हम बदमाशों की ‘अलाम चांडाल-चौकड़ी से’.....
छंगाणी साहब – बड़ी मेहरबानी होगी, आपकी। इस रविवार को ही मैं ले आऊंगा, बाटा के बूट। फिर देखना जनाब, पांच मिनट में पहुंच जाऊंगा स्टेशन से अपने घर। फिर मेम साहब...
[अब रोहट स्टेशन निकल गया है, रशीद भाई को अब हो गया है बाबा का हुक्म। वे तो झट बैग से साबुन की टिकिया लेकर चले जाते हैं, पाख़ाना। इधर नए जूते आने की आशा में, छंगाणी साहब कल्पना के समुन्द्र में गौते खाते जा रहे हैं। अब उनकी पलकें, भारी होती जाती है। वे बैठे-बैठे, सुनहरे स्वप्न में खो जाते हैं। स्वप्न में वे, अपने-आपको छैल बगीचे में पाते हैं। उनके बदन पर सफ़ेद सफ़ारी सूट पहना हुआ है, और पांवों में बाटा कंपनी के नए बूट पहने हुए है। इनकी भागवान झूले झूल रही है, और साथ में वह अपने पति छंगाणी साहब को याद करती हुई गीत गा रही है]
मेम साहब – [गीत गाती हुई, झूला झूल रही है] – “भंवर बागा में आइज्योजी, म्हने आवे थोरी ओलू..थे आइज्योजी।”
[छंगाणी साहब छुपते-छुपते आते हैं, फिर चुपचाप उनके पीछे जाकर अपने दोनों हाथों से उनकी आँखें बंद कर लेते हैं।]
मेम साहब – भगवन, आ गए ? आज़ जल्दी कैसे आये..
छंगाणी साहब – [आँखों से हाथ हटाते हैं, फिर कहते हैं] – भागवान, लो देखो मैं क्या लाया ?
[मेम साहब की निग़ाह गिरती है, उनके बाटा कंपनी के नए बूटों पर। फिर क्या ? मेम साहब तड़कती है, दामिनी की तरह। गुस्से से चिल्लाकर, कहती है]
मेम साहब – [गुस्से में चिल्लाकर, कहती है] – किससे पूछकर लाये, ये बाटा के बूट ? इस तरह पैसे उड़ाओगे, तो हो जाओगे कंगाल।
छंगाणी साहब – [भयग्रस्त होकर कहते हैं] – नाराज़ मत हो, भागवान। मैं मुफ..मुफ़्त में लाया..लाया...
[इधर इनके कंधे पर भारी दबाव महसूस होता है, वे चमकते हैं। उनके चौंकते ही, आ रहा सपना चकनाचूर हो जाता हैं। और वे ख़्यालों की दुनिया से, बाहर निकल आते हैं। अब वे आंखें मसलकर सामने देखते है, सामने उन्हें मोहनजी खड़े दिखायी देते हैं। जो उनका कंधा दबाते हुए, कह रहे हैं]
मोहनजी – [कंधा दबाते हुए, कहते हैं] - यह क्या ? मैं बेचारा कब से मांग रहा हूं पेन, और भा’सा आप कहते जा रहे हैं “मुफ़्त में लाया..मुफ़्त में लाया” ? तब दे दीजिये ना, आपका मुफ़्त का पेन। मुझे करना था फ़ोन, और इधर दयाल साहब कढ़ी खायोड़ा का मोबाइल काम कर नहीं रहा..ठीकरा लेकर आ गए, कमबख़्त ?
[ऊंघ से उठे छंगाणी साहब टकटकी लगाकर मोहनजी को देखते हैं, इस तरह मेणे की तरह देख रहे छंगाणी साहब को मोहनजी कहते हैं]
मोहनजी – अब मुझे उस आदमी के मोबाइल नंबर दयाल साहब से लेने होंगे, इसलिए आपके पास पेन माँगने आया हूं। [उनका कंधा झंझोड़ते हुए] क्यों मेणे की तरह, मुझे देखते जा रहे हैं ? दीजिये ना, आपका मुफ़तिया पेन।
[आब-आब होते हुए छंगाणी साहब, जेब से ‘यूज़ एंड थ्रो’ वाला पेन निकालकर उन्हें थमा देते हैं..जिसे वे अपने दफ़्तर से उठा लाये थे। तभी इंजन की सीटी सुनायी देती है, छंगाणी साहब खिड़की के बाहर झांकते हैं..उन्हें ऐसा लगता है, कि ‘गुमटी तो पीछे रह गयी है’। इसका आभास पाते ही, वे चमकते हैं..]
छंगाणी साहब – [भौंचके होकर, कहते हैं] – अरे तापी बावड़ी वाले बालाजी, यह क्या हो गया ? पीर दुल्ले शाह हाल्ट निकल गया..? (हाथ जोड़कर) ए मेरे श्याम धणी, यह क्या कर डाला..आपने ? मुझे मालुम ही न पड़ा ? अब...
[मोहनजी चले जाते हैं, मगर इधर रशीद भाई केबीन में दाख़िल होते हैं। उन्होंने छंगाणी साहब का बोला गया जुमला, सुन लिया है। इस कारण छंगाणी साहब को, मोसा बोलने में वे पीछे नहीं रहते]
रशीद भाई – [बैग में साबुन की टिकिया डालते हुए, कहते हैं] – ओ छंगाणी साहब। आप तो लेते रहो, आराम से खर्राटे। अब, पीर दुल्लेशाह तो क्या ? पाली स्टेशन भले निकल जाएगा, और आप ऊंघ लेते-लेते पहुँच जाओगे खारची। देखो, मैं तो निपटकर आ गया, अब आप जाकर लघु-शंका से निवृत होकर आ जाइये। वापस आकर आप, पाली उतरने की तैयारी कर लीजिये।
[मोहनजी को छोड़कर सभी अपना बैग लिए, डब्बे के दरवाज़े के पास आ जाते हैं। अब मोहनजी को याद आता है कि, उन्हें जल्द जाकर दयाल साहब से मोबाइल नंबर लेने हैं । इसलिए, वे भी दयाल साहब के पास आकर खड़े हो जाते हैं। इंजन सीटी देता है, पाली की कृषि-मंडी और आवासन मंडल की कोलोनियां भी पीछे रह जाती है। अब मोहनजी, दयाल से कहते हैं]
मोहनजी – पाली आ गया है, जनाब। मगर मेरे पास कोई मेसेज नहीं, कि ”डी.एम. साहब कब आयेंगे ?’ ज़रूरत मुझे आज़ ही हुई है, मगर आपका मोबाइल हो गया ख़राब ? कुछ नहीं जनाब, आप काम लेते रहना इस ठीकरे को। अभी पाली स्टेशन पर महेश मिलेगा, तब मैं उससे पूरी जानकारी ले लूंगा।
[इतना कहकर, मोहनजी झट जाकर पास वाली खिड़की के पास खड़े हो जाते हैं।]
दयाल साहब – [मुस्कराते हुए कहते हैं] – कुतिया का ताऊ, साला पूरा डफोल निकला। इतना भी नहीं समझता, चैनल नहीं पकड़ रहा है अभी..खाक़ मोबाइल चलेगा ?
[पाली स्टेशन का प्लेटफोर्म आता दिखाई देता है, गाड़ी की रफ़्तार कम हो जाती है। भाऊ की केन्टीन के बाहर महेश और जस करणजी को खड़े देखकर, मोहनजी खिड़की से मुंह बाहर निकालकर ज़ोर से आवाज़ देते हैं]
मोहनजी – [महेश को आवाज़ देते हुए, ज़ोर से कहते हैं] – ए रे महेश कढ़ी खायोड़ा। वहीं खड़े रहना, मैं आ रहा हूं तेरे पास।
[यह महेश है, खारची डिपो का मुलाज़िम। जो पाली से रोज़ का आना-जाना करता है। ये जस करणजी है, डस्ट ओपेरटर पाली डिपो के। गाड़ी नहीं आने तक, ये यहाँ खड़े-खड़े चाय पीते रहते हैं। गाड़ी जाने के बाद, आकर खड़े हो जाते हैं, क्रोसिंग फाटक के पास। वहां स्कूटर पर आते भाना रामसा से लिफ्ट लेकर, वे दफ़्तर चले जाते हैं। अब गाड़ी रुक गयी है, सभी नीचे उतरते हैं। मोहनजी झट तेज़ चलते हुए, भाऊ की केन्टीन की तरफ़ क़दम बढ़ाते हैं। और साथ में वे, महेश को भी पुकारते जाते हैं।
मोहनजी – [महेश को आवाज़ देते हुए जाते हैं] – ए रे महेश, कढ़ी खायोड़ा। आ रहा हूं मैं, वहीं खड़े रहना।
[चलते-चलते रतनजी, जस करणजी की तरफ़ उंगली से इशारा करते हुए..रशीद भाई से कहते हैं।]
रतनजी – [जस करणजी की तरफ़, उंगली से इशारा करते हुए कहते हैं] – ये जस करणजी, यहाँ आकर क्यों खड़े हो गए ? अकेले खड़े-खड़े जनाब, चाय पीते जा रहे हैं ?
ओमजी – अरे यार रतनजी अपुन लोगों की याद आती है, इसलिए यहाँ पधारे हैं..! असल में याद आती है, अपुन लोगों की नहीं...अपुन लोगों के खाने के टिफ़िन की।
रशीद भाई – अरे जनाब, ये ऐसे आदमी है..जो रोटियाँ गिटेंगे अपनी। और खाने के बाद कहेंगे बिल्ली की तरह कि “ये कैसी सब्जी बनायी काकीसा ने, काकीसा की मां की..[गाली की पर्ची निकालते हैं] ?” अब, करें क्या ? अपनी रोटियाँ खाकर, देंगे भी अपुन को गालियाँ। कैसे-कैसे आदमी है, इस ख़िलक़त में ?
दीनजी – रशीद भाई, क्यों खिलाते हो रोटियाँ ? रोटियाँ की जगह, खिला दिया करो गालियां।
[द्रुत चाल चलते हुए मोहनजी पहुँच जाते हैं, महेश और जस करणजी के पास। पीछे-पीछे रतनजी, ओमजी, दीनजी और रशीद भाई भी पहुँच जाते हैं..भाऊ की केंटीन के पास। उनके आते ही, महेश उनसे कहता है]
महेश – अरे गज़ब हो गया, दो दिनों बाद आज़ मोहनजी के दीदार हुए हैं। [मोहनजी से कहते हैं] जनाबे आली, आपके जाने के बाद हमारे डी.एम. साहब ने तशरीफ़ रखी। आपको वहां न पाकर, साहब आपसे बहुत नाराज़ होकर गए हैं। साथ में यह कहकर भी गए है कि, ‘मोहन लाल को आते ही कहना, मुझे फ़ोन करें।’
मोहनजी – ऐसे वक़्त आपको फ़ोन करना चाहिए था, मुझे। अगर आप फ़ोन करते, तो मैं ज़रूर उनसे मुलाक़ात कर लेता ?
महेश – अरे भाईजान कैसे लगाता आपको फ़ोन, कभी आपने सही नंबर दिए क्या ?
[जस करणजी नज़दीक आकर, मोहनजी से कहते हैं]
जस करणजी – आपका जो होना था, वह हो गया। अब जाकर अपने इन साथियों को बचाओ। यह आपका बाप डी.एम., पाली डिपो में आ गया है। और इस ठोकिरे ने रशीद भाई, रतनजी और ओमजी के हाज़री कोलम में लाइन खींच दी है। मैंने उनको बहुत समझाया के “गाड़ी लेट है, इसलिए वे लोग वक़्त पर नहीं आ पाये। अब वे, आने वाले ही हैं।”
मोहनजी – अब तू आगे बोल, आगे उन्होंने क्या कहा ?
जस करणजी – इतना कहा और मेरा बाप बिफ़र गया, और फिर बोला तड़ाक से...कि, “ये लोग रोज़ का आना-जाना करते हैं, अब इन सबको लगा देते हैं अजमेर..फिर देखता हूं, कैसे करते हैं अप-डाउन ?”
[गाड़ी रवाना होने का वक़्त हो जाता है, इंजन सीटी देता है। महेश और मोहनजी दौड़ते-भागते, अपने डब्बे में दाख़िल होते हैं। गाड़ी रवाना हो जाती है, थोड़ी देर में ही वह नज़रों से ओझल हो जाती है। अब जस करणजी चाय का अंतिम घूँट लेकर, रतनजी, रशीद भाई और ओमजी से कहते हैं]
जस करणजी – खड़े क्या हो, मेरे बाप ? अब चलिए, दयाल साहब कभी पटरियां पार करके दफ़्तर पहुँच चुके होंगे। [ख़ाली कप काउंटर पर रखते हैं]
रतनजी – [रोवणकाळी (रोनी) आवाज़ में कहते हैं] – ये अफ़सर, करते क्या हैं ? निचोड़े हुए को, और निचोड़ते हैं। मगर अब हम लोगों में कहाँ रहा, रस ? जनाब, हम तो पुरानी मशीन के कल-पूर्जे हैं।
[थोड़ी देर बाद, प्लेटफोर्म पर खड़े दीनजी क्या देखते हैं ? रतनजी, रशीद भाई और ओमजी, पांव घसीटते-घसीटते दफ़्तर की ओर जा रहें हैं। उनको देखकर, दीनजी के मुख से स्वत: यह जुमला निकल जाता है]
दीनजी – [उनको जाते देखकर, कहते हैं] – लीजिये, ये पुरानी मशीन के कल-पूर्जे अब भी चल रहे है। अरे भगवान, अभी-तक इनमें जान बाकी है। (जस करणजी की ओर देखते हुए, कहते हैं) भाई जस करणजी, अभी-तक इनमें ज़रूर थोड़ा-बहुत रस बचा होगा। दफ़्तर पहुंचते ही, यह कमबख़्त डी.एम. निचोड़ लेगा इन्हें।
[थोड़ी देर बाद, मंच पर अन्धेरा फ़ैल जाता है।]
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