बिल्ली का खून - प्रांत-प्रांत की कहानियाँ - 6 - संकलन व अनुवाद - देवी नागरानी

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प्रांत -प्रांत की कहानियाँ (हिंदी-सिन्धी-अंग्रेजी व् अन्य भाषाओँ की कहानियों का अनुवाद) देवी नागरानी -- ईरानी कहानी बिल्ली का खून फरीदा राज़...

प्रांत-प्रांत की कहानियाँ

(हिंदी-सिन्धी-अंग्रेजी व् अन्य भाषाओँ की कहानियों का अनुवाद)

देवी नागरानी

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ईरानी कहानी

बिल्ली का खून

फरीदा राज़ी

अब मैं अपनी बिल्ली के बदन पर नज़र करती हूँ। कैसा सूख कर रह गया है? यह मुझे अच्छा लग रहा है, खुद को हल्का-हल्का महसूस कर रही हूँ। कोई खास बात नहीं, वह मर गई। हम दोनों को चैन पड़ा।

कब से वह अपाहिजों की तरह घिसट रही थी। उसकी म्याऊँ म्याऊँ से पता चलता था कि वह दुख झेल रही है मगर ज़ाहिर नहीं करती। उसकी घुटी घुटी पतली आवाज में फरियाद की कैफियत आ गई थी। वह सारा वक़्त किसी कोने में सिकुड़ी पड़ी रहती और मींची मींची आँखों से मेरी तरफ देखा करती थी। उसकी निगाहें.‘गुस्से में भरी टटोलती निगाहें’ मेरे हड्डियों के गोदे तक को जलाए डाल रही थीं। बिल्ली दिन-ब-दिन कमज़ोर होती जा रही थी। बाल उसके सूखे हुए बदन पर चिपक कर रह गए थे और उसके हुस्न का जलवा जाता रहा था। वही बिल्ली जो परछाई भी देख पाती तो चीते की तरह छलांग मारती और ऐसे गुर्राती कि मुझको खौफ़ आने लगता। अब ऐसी बेजान हो गई थी कि मैं उसे जितना भी छेड़ती, वह शिथिल पड़ी रहती या मेरी तरफ तवज्जु दिये बगैर उठ कर किसी और कोने में जाकर पड़ी रहती। उससे पहले वह मगन मस्त रहती थी, कालीन पर लंबी-लंबी लेट जाती, नर्म सफेद सीना उभार उभार कर बंद पंजों से मुझको नोचती थी। चाहती थी कि मैं उसको गुदगुदाऊँ, उसका सीना खुजाऊँ और वह गड़गड़ाहट शुरू कर दे, आँखें नशीली बनाकर मेरे पीछे पड़ जाती कि मैं उसके साथ खेलूँ। जब वह ठीक थी तो सोफे के एक किनारे फैल कर लेट जाती और खर्राटे भरा करती थी। उस ज़माने में उसके भरे भरे बदन पर फूले फूले बाल चमक मारते थे। उसके गोल मुंह और साफ-सुथरी मूछों से खुशी बरसती थी लेकिन अब उसे देख रही हूँ तो जी मतला रहा है। वह घुल कर रह गई थी, हर वक़्त रोती रहती थी। मैं उसे बहलाने के लाख जतन करती, कोई फायदा न होता। न जाने क्यों उसका दिल कुछ उदासीन सा होता जा रहा था। बस मुझे देख कर रह जाती थी, ‘न खाना-पीना, न घूमना-फिरना, न खेलना-कूदना’ कुछ भी याद न था।

यह सब गुज़रे साल बहार के मौसम में शुरू हुआ। कई दिन से एक सुरमई बिल्ला मुंडेर पर आकर म्याऊं म्याऊं किया करता था और मेरी बिल्ली के कान फड़कने लगते। बदन तन जाता और वह लपक कर खिड़की के पास पहुँच जाती। मैं दरवाजा बंद रखा करती थी कि कहीं ऐसा न हो वह बाहर निकल जाए फिर बच्चों के किलोल में विघ्न डाल दे और मेरे लिए मुसीबत खड़ी हो जाए। लेकिन एक दिन जो मैं घर लौटी तो वह गायब थी। मैंने हर मुमकिन जगह ढूंढा कहीं नहीं मिली। कई दिन बाद खिड़की के बाहर उसकी आवाज सुनाई दी, मैंने दरवाजा खोला तो वह छलांग मार कर अंदर आ गई और मुझ को नज़र अंदाज करती हुई सीधे रसोईघर में घुस गई। मालूम होता था बहुत भूखी है।

वह दुबली हो गई थी और उसका बोलना-चालना भी बंद सा हो गया। हर चीज के इर्द-गिर्द घूमती, और जो पाती खा लेती और किसी कोने में पड़ी सो रहती। कुछ दिन तक मुझसे खिंची खिंची रही लेकिन धीरे धीरे उसकी पुरानी आदतें लौट आयीं। अब वह मुझसे कभी कभार खेलने लगी, सुबह-सुबह मेरे बिस्तर पर आ जाती और मेरे चेहरे पर आहिस्ता-आहिसा मुट्ठी मार कर मुझे जगाती।

एक दिन फिर उस सुरमई बिल्ले की आवाज़ सुनाई दी। मेरी बिल्ली की आँखें चमकने लगी, बाल खड़े हो गए। उसने अंगड़ाई सी ली और अपनी जगह पर चक्कर काटने लगी। फिर दोनों ने खिड़की के शीशे के आर पार से खेलना शुरु किया। सुरमयी बिल्ले की सब्ज़ पीली आँखें चमक रही थीं, उसके फूले फूले नर्म बाल थे और छोटा सा गोल मुंह भला लगता था। दोनों देर तक अपने खेल में मस्त, एक दूसरे को घूरते, मियाऊं मियाऊं करते गुर्राते रहे, फिर थक कर खिड़की के करीब पड़े रहे और आहिस्ता आहिस्ता दुमें हिलाने लगे। आखिर मेरी बिल्ली से न रहा गया। धीरे धीरे चलती हुई मेरे पास आई कूदकर मेरी गोद में बैठ गई, और चापलूसी शुरू कर दी। उसकी जो अदाएं मुझे पसंद थी सब उसने दिखाई। सर मेरी गर्दन से रगड़ा, आँखें मींच कर जमीन पर लोटें लगाईं लेकिन मैं ज़रा भी न पसीजी, क्योंकि मैं समझ रही थी वह क्या चाहती है। मैंने उसके सीने पर हाथ रख दिया। अचानक वह उछल कर पीछे हट गई और मेरे सामने खड़े होकर फुंकारने लगी।

सुरमई बिल्ला देर तक खिड़की के पीछे म्याऊं म्याऊं करता रहा, आखिर वहाँ से चला गया। लेकिन मेरी बिल्ली सुबह तक खिड़की के सामने बैठी रही। मैंने सोचा कोई बात नहीं कुछ दिन में भूल भाल जाएगी और वह भी अपने घर लौट जाएगा। लेकिन एक रात जब मैं घर आई तो देखा सुरमई बिल्ला खिड़की के पीछे बैठा था और दोनों एक दूसरे को देख रहे हैं। मुझे ताव आ गया, डपट कर उसकी तरफ लपकी और वह भाग गया। मेरी बिल्ली ने नाच नाच कर म्याऊं-म्याऊं करना शुरू कर दिया, फिर पंजों से दरवाज़ा खुरचने लगी। मैं उसे छोड़ कर अपने काम में लग गई। कई दिन तक मैंने निगरानी रखी कि दरवाजा बंद रहे और वह भागने न पाए। मेरी यही मर्जी थी, वह मेरी बिल्ली थी।

एक दिन फिर शाम के वक़्त सुरमई बिल्ला अहाते में नजर आया। मैं गुस्से में आ गई, लकड़ी उठाकर मैंने अहाते में उसको पीटा और मार मार कर बाहर निकाल दिया। वापस आई तो मेरी बिल्ली चीते की तरह मेरा रास्ता रोक कर खड़ी थी। मैं जिधर भी मुड़ती वह उछलकर उधर आ जाती। वह बुरी तरह भड़की हुई थी, उसकी अंगार बरसाती आँखें फैलकर दुगनी हो गई थी, सिकुड़ा हुआ मुंह भयानक हो रहा था। मैंने उसे ठंडा करने की सभी तरकीबें आज़मा लीं, लेकिन वह अपने आपे में नहीं थी। आखिर वह मुझ पर झपट पड़ी, मेरी गर्दन से लिपट कर उसने अपने नुकीले दांत मेरे चेहरे में उतार दिए। मेरी सांस रुकी जा रही थी, मैं खौफ़-ज़दा होकर चीखने लगी, यहाँ तक कि किसी ने मेरी मदद को आकर उसे हटाया। मैंने बुरे हाल कमरे के अंदर घुसकर दरवाजा बंद कर लिया। मेरी बिल्ली ने बगावत कर दी थी मेरे खिलाफ और मेरे जुल्म के खिलाफ!

सुबह तक वह बाहर निकलने के लिए रोती रही, फिर भी मैंने उसे निकलने का मौका नहीं दिया। उसके बाद वह हर रोज़ रात-रात भर खिड़की से लगी बैठी रहती, मगर सुरमई बिल्ले का कहीं पता न था। मैंने उसके लिए बेहतरीन खाने तैयार किए, जो जो उसे भाता था सब दिया, लेकिन उसने किसी चीज को हाथ नहीं लगाया। मैं उसके जितने लाड़ करती उतनी ही वह जिद्दी और चिड़चड़ी होती गई। मैंने उसे खुली छूट दे दी कि जिन जगहों पर उसकी पांव धरने की जुर्रत नहीं होती थी, वहाँ जाकर सोए। लेकिन वह दिन-ब-दिन निढाल होती जा रही थी।

एक दिन पड़ोस के कोठे पर किसी बिल्ले की आवाज सुनकर वही मेरी बिल्ली जो मुश्किल से खुद को एक कमरे से दूसरे कमरे तक घसीट कर ले जाती थी, जिसके अंदर कुछ नहीं रह गया था, अचानक इस तरह छलांग मारकर खिड़की से बाहर कूदी की टांग तोड़ बैठी, और फरियादियों की तरह गली में रोने लगी। मैं उसे घर में उठा लाई। बहुत दिन में जाकर वह ठीक हुई लेकिन लंगड़ाने लगी। मेरी हर कोशिश बेकार थी, वह बदल चुकी थी और अब मेरा भी हौसला जवाब देने लगा। उसकी सिसकियों, उसकी चीखों, उसकी शिकस्ता हाली ने मेरे नाक में दम कर रखा था। उसका एक कोने में मरे हुए चूहे की तरह पड़े रहना मुझे चिड़चिड़ा किये जा रहा था। मैं समझती थी, अच्छी तरह समझती थी कि वह दुख झेल रही है और घुलती जा रही है। मैं जब भी उसके करीब जाती तो उसकी आँखें पथरा कर मुँदने लगती, कुछ देर तक वह सर उठाती, पलकें झुकाती फिर गर्दन झुकाकर वहीं सो जाती।

कल एक बिल्ले की आवाज सुनाई दी। मैंने खिड़की खोल दी ताकि उसका जी चाहे तो बाहर चली जाए। उसने सर उठाया, कान हिलाये, मूछें सीधी कीं और खिड़की की तरफ देखा। फिर उसकी थकी थकी बुझती हुई निगाहें मुझ पर जम गईं। उसने कई बार फरियाद के अंदाज़ में म्याऊं म्याऊं की आवाज निकाली, दांत कटकटाए और दुबारा सो गई और आज मैंने उसको मार डाला।

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रचनाकार: बिल्ली का खून - प्रांत-प्रांत की कहानियाँ - 6 - संकलन व अनुवाद - देवी नागरानी
बिल्ली का खून - प्रांत-प्रांत की कहानियाँ - 6 - संकलन व अनुवाद - देवी नागरानी
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