तलवार की धार बनाम महिला साहित्यकार डॉ. मधु संधु , पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष , हिन्दी विभाग , गुरु नानक देव विश्वविद्यालय , अमृतसर , पं...
तलवार की धार बनाम महिला साहित्यकार
डॉ. मधु संधु, पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष,
हिन्दी विभाग, गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर, पंजाब ।
महिला साहित्यकारों का रास्ता कभी भी सुगम नहीं रहा। उन्हें घर के भीतर और घर के बाहर ऐसी अनगिनत चुनौतियों, बाधाओं, दुविधाओं से दो-चार होना पड़ता है कि बाहरी तकलीफ़ें और भीतरी छटपटाहटें जीवन नासूर बना देती हैं। मध्ययुगीन राजरानी मीरा हो या प्रेमिका सुजान, फ़्रांस की सीमोन द बाउवा हो या पाकिस्तान की किश्वर नाहीद, पंजाबी साहित्यकार अमृता प्रीतम हो या दिलीप कौर टिवाणा, हिन्दी की चंद्र्किरण सौनरेक्सा हो, कृष्णा अग्निहोत्री या मेहरुनिसा परवेज़ अथवा प्रवासी महिला साहित्यकार- समस्याओं का चक्रव्यूह, मायाजाल उन्हें कैसे घेरे है, इसका आकलन उनके साहित्य और आत्मकथाओं से कर सकते हैं। जिस समाज में हम रहते हैं, वहां औरत होना ही अपराध है। औरत और वह भी साहित्यकार- परिवार तो उसे क्योंकर स्वीकारेगा और अगर वह अकेली है तो चरित्र संबंधी सर्टिफिकेट उसके हिस्से ही चीज नहीं। अकेली औरत अगर जीवन संघर्ष में उतरती है तो समाज की तिरछी निगाहें उसका पीछा करना नहीं छोड़ती।
पितृ सत्ताक में पुरुष एक अद्वितीय, अति आदरणीय प्राणी है। कुल की सरदारी उसे संभालनी है, इसलिए पुत्र जन्म पर मंगल मनाए जाते हैं और पुत्री जन्म पापों का फल तक कह दिया जाता है। ‘गाय मरे अभागे की, बेटी मरे सुभागे की’- कहावत आज भी बहुत कुछ सार्थक है। बेटे को पढ़ाई के लिए नगर, महानगर, विदेश भेजा जाता है और बेटियों के लिए नजदीकी स्कूल- कॉलेज का ही विकल्प रहता है। बेटे को हर तफरीह की इजाजत रहती है और बहू को मंदिर या मायके के लिए भी इजाजत लेनी पड़ती है। वह मात्र नाम की रानी- महारानी है, हाउस वाइफ़ की दिन-रात की मेहनत बेगार के खाते में ही जाती है। उसे स्पष्ट है कि वह तो कहीं नहीं है। यहाँ पति पहले स्थान पर, उसके माता-पिता सम्बन्धी दूसरे स्थान पर, मित्रादि तीसरे स्थान पर हैं ----और वह कहाँ है ? कृष्णा सोबती ‘ऐ लड़की’ में लिखती हैं- “लड़कियों को तैयार ही जानमारी के लिए किया जाता है- भाई पढ़ रहा है, जाओ दूध दे आओ। भाई सो रहा है, जाओ कंबल ओढा दो। जल्दी से भाई की थाली परस दो, उसे भूख लगी है। भाई खा चुका है, लो अब तुम खा लो।“[1]
जबकि सच्चाई यह है कि जीवन की चुनौतियों ने स्त्री को सुपर वुमन बना दिया है। एक ही समय में उसे कई कई मोर्चे संभालने होते हैं। एक ओर संस्कार, परिस्थितियाँ, रीति रिवाज हैं, उनसे बंधा घर परिवार है, नारी विषयक परंपरित अवधारणायेँ हैं, दोयम दर्जे वाली सोच है, दूसरी ओर तीव्र गति से बदलता समाज, जीवन, जीवन मूल्य और चुनौतियाँ हैं।
महिला साहित्यकारों की समस्याओं की बात पर सबसे पहले पारिवारिक समस्याओं की बात करें तो साहित्यकार स्त्री को स्पेस चाहिए, एक अपना पठन कक्ष। पुरुष साहित्यकारों (मोहन राकेश) की तरह वह कहानी- उपन्यास लिखने के लिए परिवार बच्चे छोड़, टाइप राइटर पकड़ पहाड़ों पर या किसी दूर-दराज के अलग बसेरे में तो जा नहीं सकती। घरेलू और दफ़तरी कामों के बीच ही उन्हें अपने लिए स्पेस खोजनी होती है। (हाँ ! मन्नू भण्डारी ने ‘आपका बंटी’ लिखने के लिए या राजी सेठ ने ‘मार्था का देश’ लिखने के लिए घर परिवार से दूर एकांतवास अवश्य सँजोया था।) ऐसे में आत्मलीन पति और स्वार्थी बच्चे समस्या बन रहे हैं। ‘एक कहानी यह भी’ में मन्नू भण्डारी लिखती हैं- मैंने उन चीजों पर लिखा है जो या तो मेरे साथ हुई हैं या किसी भी तरह से मेरे अनुभव का हिस्सा रही हैं। ----“ हर कथाकार अपनी रचनाओं में भी दूसरों के बहाने से कहीं न कहीं अपनी ज़िंदगी के, अपने अनुभव के टुकड़े ही तो बिखेरता है।“ [2] उनकी ‘चश्में’[3] कहानी की मिसेज वर्मा साहित्यकार/ लेखिका हैं। वह पति को स्वरचित कहानी सुनाना चाहती है, लेकिन पति को इससे कोई सरोकार नहीं। पति अगर चश्मा लगाता है तो अपनी फाइलों में व्यस्त हो जाता है और अगर वह उसका चश्मा उतार दे तो अपनी प्रेमिका की यादों में खो जाता है। यानि पत्नी के साहित्यकार रूप के प्रति एकदम अनासक्त है। वे मानों गहरे पानी के क्षेत्र में बने दो द्वीप हैं। मन्नू का आत्मकथ्यांश ‘एक कहानी यह भी’ में वे साहित्यकार पति राजेन्द्र यादव की प्रेमिका मीता की आत्मदंशीय समस्या से लगातार जूझ रही है। कृष्णा अग्निहोत्री की कहानी ‘यह क्या जगह है दोस्तो’[4] की संगीतकार ऋतु के पास न पति है, न प्रेमी, न बच्चे। जानलेवा त्रासदी यह है कि यह विधवा संतान पीड़िता है। बच्चे उसके मूवी या टी. वी. देखने, संगीत सुनने, रियाज़ करने, रेडियो प्रोग्राम देने, फोन करने, किसी शादी-ब्याह में जाने पर प्रतिबंध लगा देते हैं। उसका साज बेच कम्प्यूटर खरीदना चाहते हैं। सीमोन द बउआ की पुस्तक ‘द सेकण्ड सेक्स’ का ‘स्त्री उपेक्षिता’ शीर्षक से अनुवाद करने वाली प्रभा खेतान ने भी ‘अन्या से अनन्या’[5] में अपनी जीवनगत समस्याओं का खुलकर चित्रण किया है। एक विवाहित पुरुष की दूसरी औरत- जिसके हिस्से में न घर था, न संतान, न विवाह, न पति। मारवाड़ी सम्पन्न परिवार की सफल बिजनेस विमेन और भावनात्मक समस्याओं के घेरे।
इन समस्याओं विद्रूपताओं से पुरुष साहित्यकार भी परिचित और उद्वेलित हैं। मोहन राकेश की मिस पॉल[6] में कलाकार मिस पॉल की समस्याएँ है। वह पेंटिंग बनाती है, संगीत में उसकी रूचि है, अंतर्मुखी है, संवेदनशील है, अविवाहित है, स्थूलकाय है, सूचना विभाग में नौकरी करती है। लेकिन दफ़तर के लोग उसे लेकर मेंढकों की तरह ऐसे टर्र-टर्र करते रहते हैं कि वह नौकरी छोड़ पहाड़ पर आ जाती है। एक कलाकार स्त्री- जिसे न शोहरत मिली, न दौलत, न मुहब्बत। दफ़तर के व्यंग्य और रणजीत की सूखी सहानुभूति से वह इतनी अकेली हो जाती है कि ऐसे लोगों से तो उसे अपना कुत्ता पिन्की अच्छा लगता है। परिवार उसके पास है नहीं और समाज से वह इतना कट चुकी है कि जीवन खाली डिब्बों सा टनटनाने लगता है।
कहते हैं कि हर सफल पुरुष के पीछे एक स्त्री का हाथ होता है। इसके विपरीत हर लिखने वाली स्त्री एक पुरुष के वावजूद लिखती है। एक स्त्री के लिए कुछ भी वैयक्तिक लिखना कितना कठिन होता है, इसका ज्वलंत प्रमाण यह है कि इन लेखिकाओं ने साहित्य में एक नई विधा को जन्म दे दिया है- औपन्यासिक आत्मकथा- आत्मकथा को नई दृष्टि और तेवर देने वाली कृति। मैत्रेयी पुष्पा ने ‘कस्तूरी कुंडल बसे’[7] और ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ औपन्यासिक आत्मकथाएं हैं। इनमें स्त्री की मानसिक यातना, प्रताड़ना, अवहेलना का चित्रण अनेक स्थलों और संदर्भों में किया है। कस्तूरी को भाई आठ सौ में बेचता है। विधवा होने पर बहन का हल उठा ले जाता है। भांजी को मार बहन को पुन: बेचना चाहता है। नौकरीपेशा विधवा की बेटी जन्म लेते ही औरत बन जाती है। कभी संयोजिका का सबसे छोटा बेटा, कभी अलीगढ़ का बूढ़ा, कभी हैड क्लर्क सारस्वत, कभी प्रिन्सिपल बार बार उसे लड़की होने की सज़ा देते हैं। एक लड़की का लिखना समाज को कभी पसंद नहीं आता। खिड़की में बैठी किशोरी लाली (मैत्रेयी) औरतों पर कविता लिख दे तो उसे अंजाम भुगतने के लिए विवश किया जाता है। पति द्वारा दी गई प्रताड़नाएं भी कम नहीं हैं। पंजाबी में लिखने वाली और हिन्दी में भी पढ़ी जाने वाली अजीत कौर की ‘खानाबदोश’ भी नंगे पाँवों आग पर चलने का सफर लिए है।
लेखन के साथ प्रकाशन भी जुड़ा है। लेखन के प्रकाशन के बाद ही साहित्यकार संज्ञा मिलती है। महिला साहित्यकारों ने प्रकाशन से जुड़ी चुनौतियों को भी झेला है। उषा राजे सक्सेना की कहानी ‘दायरे’[8] की नायिका साहित्यिक रूचि की है। परिवार और समाज के दायरे उसके जीवन मूल्यों का अभिन्न अंग हैं। अपने अस्तित्व को सार्थकता देती वह काव्य सृजन के साथ जुड़ती है। अपनी रचनाएँ प्रकाशित करवाने के लिए वह अन्य पुरुष से मिलती और संवाद स्थापित करती है। प्रकाशक के विद्व व्यक्तित्व और विस्तृत ज्ञान से प्रभावित भी होती है जबकि प्रकाशक पुरुष के लिए उसकी देह महत्वपूर्ण है, वह मात्र मादा है। प्रकाशन संबंधी ऐसी समस्याओं को किसी न किसी रूप में चंद्रकिरण सोनरेकसा, कृष्णा अग्निहोत्री आदि लेखिकाओं ने झेला, समझा और सुलझाया है।
महिला साहित्यकार अपने चारों ओर फैली राजनीति और भ्रष्ट नेताओं की छल-कपट भरी मानसिकता से उत्पन्न समस्याओं से भला कैसे अछूती रह सकती थी। मन्नू भण्डारी ने पिता परिवार में राजनैतिक वातावरण और उसकी समस्याएँ देखी जानी थी। उनकी प्रथम कहानी ‘मैं हार गई[9]’ का चिंतन पक्ष इसी से जुड़ा है। सुभद्राकुमारी चौहान ने स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में जब ‘खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी’ गीत लिखा होगा तो निश्चय ही इस स्वतन्त्रता सेनानी ने ऐतिहासिक, वैयक्तिक और युगीन समस्याओं को एक साथ देखा, जिया, झेला, समझा, पहचाना होगा।
दलित महिला साहित्यकार कौशल्या बैसंत्री के संदर्भ में बात करें तो दलित स्त्री की समस्याएँ और संघर्ष कहीं बढ़ जाते हैं, दुगुने हो जाते। उनकी ‘ ‘दोहरा अभिशाप’[10] उन अनगिनत समस्याओं का आकलन है, जिनसे स्त्री पल-पल दो-चार होती है। यह वह समाज है जहां लड़कियों की शिक्षा को विलास और दुश्चरित्र से जोड़ा जाता है। साईकल चलाना ईर्ष्या और उपहास का कारण है। देह व्यापार में धकेलने के लिए प्रयासरत मेयो अस्पताल के दरबान जैसे लोग हैं। दलित नेता भी यौन शोषण को लालायित हैं। पति पुरुष का दुर्व्यवहार और पैसे-पैसे की निगाहबानी की समस्या हर ओर से घेरे है।
बोल्ड लिखना तो महिला साहित्यकारों को और भी भारी पड़ता रहा है। इस्मत चुगताई अपनी ‘लिहाफ’[11] कहानी के लिए कई तरह के अदालती झमेलों में फंसी रही। कृष्णा सोबती को ‘यारों के यार’[12] की भाषा में आए गाली गलौच, बाज़ारीपन, ‘मैस्कुलिन रिदम’ के लिए बहुत कुछ झेलना पड़ा। मन्नू की ‘यही सच है’ में आए कानपुर और कलकत्ता के प्रेमियों को उनके जीवन से जोड़ने की दुराग्रही बातें भी हुई। अमृता प्रीतम की ‘रसीदी टिकिट’[13] ने भी साहित्य जगत में हलचल मचा दी, उन्हें आरोपों से घेर लिया। कहते हैं – ‘दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना।‘ शायद इसी लिए पाकिस्तान की नारीवादी साहित्यकार किश्वर नाहीद ने अपनी आत्मकथा का नाम ही ‘बुरी औरत की कहानी’[14] रखा।
अपने जीवन की समस्याओं का खुलकर चित्रण करना महिला साहित्यकारों के किए तलवार की धार पर चलने या आग का दरिया लांघने से कम नहीं रहा है। घर और बाहर, सृजन और प्रकाशन, परिवार और समाज, अर्थ और राजनीति की ढेरों समस्याओं में से गुजरना, संतुलन बैठाना कभी कोई खाला जी का घर नहीं होता। आत्मकथाएँ और साहित्य- दोनों हमें स्त्री साहित्यकारों/ कलाकारों की समस्याओं से रू-ब-रू भी करवाते हैं और पुरुष तथा समाज को कटघरे में भी खड़ा करते हैं। एक सच्चाई यह भी है कि आज लेखिकाएँ हाशिये पर नहीं मुख्य धारा में हैं। कभी महिलाएं भी लिखती थी और आज साहित्य लेखन बता रहा है कि महिलाएं ही लिख रही हैं।
संदर्भ:
[1] कृष्णा सोबती, ऐ लड़की, दिल्ली, राजकमल, 2001, पृ. 91
[2] मन्नू भण्डारी, एक कहानी यह भी, राधाकृष्ण, दिल्ली, पृ. 19
[3] वही, तीन निगाहों की एक तस्वीर, श्रमजीवी, इलाहाबाद, 1959
[4] कृष्णा अग्निहोत्री, यह क्या जगह है दोस्तो, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली-जयपुर, 2007
[5] प्रभा खेतान, अनया से अनन्या,
[6] मोहन राकेश, एक एक दुनिया, राधाकृष्ण, दिल्ली, 1969
[7] मैत्रेयी पुष्पा, कस्तूरी कुंडल बसै, राजकमल,दिल्ली, 2002
[8] उषा राजे सक्सेना, दायरे, ज्ञान गंगा, दिल्ली, 2002
[9] मन्नू भण्डारी, मैं हार गई, सितम्बर 2001
[10] कौशल्या बैसंत्री, दोहरा अभिशाप, परमेश्वरी प्रकाशन, दिल्ली, 2012
[11] इस्मत चुगताई, लिहाफ, हंस, अगस्त, 2003
[12] कृष्णा सोबती, यारों के यार; तिन पहाड़, राज कमाल, 1968
[13] अमृता प्रीतम, रसीदी टिकिट, किताब घर, दिल्ली, 2011
[14] किश्वर नाहिद, Bad Woman’s STORY, आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रैस, यू एस ए, 2010
madhu_sd19@yahoo.co.in
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