!! शुभ दीपपर्व !! हिमशिखरों से अविरल धारा, आपके आँगन में आ जाये खुशियों का वो प्यारा बादल, आपके आँगन में छा जाये माँ की ममता प्रेम पिता...
!! शुभ दीपपर्व !!
हिमशिखरों से अविरल धारा,
आपके आँगन में आ जाये
खुशियों का वो प्यारा बादल,
आपके आँगन में छा जाये
माँ की ममता प्रेम पिता का,
नित नित बहनें स्नेह लुटाएं
घर हो प्यारा मंदिर जैसा,
लक्ष्मी घर में वास बनाएं
संतति संपति सूरज बनके,
नया सवेरा हरदम लाये
दीप जले नवमित मिले,
ये दीवाली खुशियां लाये
02-
सपनों को पालें कहां तक
अपनों को संभाले कहां तक
जो मेरी रूह के हर हिस्से में बसा
आखिर उसको निकाले कहां तक
भूख ने उसके तोड़ दिए हैं दम को
फिर तो ढूंढे वह निवाले कहां तक
नफरतों के उन्मादी बस्ती में बसकर
इंसानियत आखिर संभाले कहां तक
इश्क में दिल से दिल जुड़ा करता है
लगेंगे मोहब्बत में ताले कहां तक
तेरे सोहबत में मुझे मिला है बहुत कुछ
हम दिखाएं पाँव के छाले कहाँ तक
03-
किसी का ख्याल यूं ही नहीं होता
किसी से सवाल यूं ही नहीं होता
उसने भी सपने सजाए होते हैं हजारों
किसी का दिल बेहाल यूं ही नहीं होता
सत्ता में रहकर वो लूटता है लोगों को
कोई नेता मालामाल यूं ही नहीं होता
मौसम का हिस्सा भी होता है फसल में
कोई किसान कंगाल यूं ही नहीं होता
बड़े नाजों से पाला जाता है उसको
वो बकरा हलाल यूं ही तो नहीं होता
04-
खुदा तेरी बस्ती में रोया बहुत
न पाया मगर मैंने खोया बहुत
वो पूरे हुए ना ख्वाब मेरे
जिन्हें धड़कनों सा संजोया बहुत
प्यार का हार मेरा बना ही नहीं
मैंने अश्कों के मोती पिरोया बहुत
दाग तेरी मोहब्बत का दामन पर था
वो धुला ही नहीं मैंने धोया बहुत
05-
वो लगा के हमपे... निशाना चुप रहे
ना देखा था करके...बहाना चुप रहे
मेरे क़त्ल से वो...बदनाम ना हो जाएं
हम खुद चाहतें हैं... जमाना चुप रहे
भला ऐसा ज़माने में...कभी हुआ है क्या
हीर तड़पती रहे और...दीवाना चुप रहे
हर दिन दुशासन...चीरहरण कर रहा
कोई जंघा बिठाने को.. प्रण कर रहा
मैंने मोहन बनने की...बात कही थी
पर ये कब कहा कि...कान्हा चुप रहे
06-
है मोहब्बत की हकीकत करने वाला हार गया
है मोहब्बत की नजाकत कोई नहीं है पार गया
जानों जान जाँ है लेती इश्क के मीठे चुम्बन से
है मोहब्बत की शराफत करने वाला मार गया
प्रेम की परिभाषा पर जिसने इश्क है कर डाला
है मोहब्बत की अदावत उसका है सरकार गया
जो खोया गोरी के गजरो जुल्फों कंगन काजल में
है मोहब्बत की है ये आदत सीने में तलवार गया
मित्रमंडली से छिपकर बंधगया किसी के पायल से
है मोहब्बत की ये दावत समझो कि अब यार गया
जिस प्रेमी ने प्रेम छोड़कर दूजे को दिल दे डाला
है मोहब्बत की बगावत उसका प्रेमी मार गया
07-
ढुंढते हो लगन गर तो, देखो उसके पांव में
वो कहाँ विराम करता,धूप या फिर छांव में
करमहीन होगा तो वो, छांव ढुंढन जायेगा
अन्यथा अंगताप वो, उस ताप में सुखायेगा
कर्म करने का इरादा,करता काबिलदार है
स्वार्थ सहसा पूर्ण हो, ये सोचता लाचार है
निडर पथपे जो चलेगा मंजिलों को पायेगा
डरने वाला अंत में कर मीज के पछतायेगा
स्वयं मनसागर में जो,बड़वाग्नि पैदा कर रहा
मत सोच उसको तू कभी हालात से है डर रहा
ऐसा मानव ही तो जग के शर्त पर है जी रहा
कल्पना में डूबकर वो सत्य को है सी रहा
झूठा चादर तानकर सच ना छुपाया जायेगा
क्या भला गुब्बारे को जल में डुबाया जायेगा
चीख के चिल्ला के तू सच को दबाले चारदीन
कर्म बेबुनियाद है तो वो टिकेगा चार दीन
क्या कभी बातों से ही तुम पार सागर कर गए
क्या कभी कहने से ही तेरे सारे दुश्मन मर गए
ना हुआ ऐसा कभी और ना ही होने वाला है
ग़र कल्पना में जी रहा तो सोच रोने वाला है
08-
कौन कहता है मैं वफादार हूँ
कौन कहता है कि मैं गद्दार हूँ
सब हो रहा है मेरे इशारों पर
मगर कैसे कहूं मैं गुनहगार हूँ
चोरी डकैती छिनैती फिरौती
मैं सबसे वाकिब हवलदार हूँ
माशूका को बुलाया था मिलने
ज़िस्म नोचने वाला मैं यार हूँ
कल मिलने हवेली पर आये थे
जिनकी फाइलों में मैं फरार हूँ
दुश्मन तो मुझसे सहमा हुआ था
हाँ मैं हुआ अपनों का शिकार हूँ
अपने नेताओं के लालच में फँसा
हाँ कहता कि मैं मौन सरकार हूँ
09-(गीतिका छंद)
जिन्दगी से मिले गर तो ,आरजू ना कीजिये
मौत मिलहीं आप से तो, जुस्तजू ना कीजिये
साथी मिलहीं पथ में तो ,रूबरू हो लीजिये
पर पथिक जितै ही उससे,गुफ्तगू तो कीजिये
क्या हुआ जोहि मौत संग, वो बहारें आ गईं
तुझको पल भर को सही,खुद से तो मिला गईं
जिंदगी में ना कभी भी,खुशियों की फ़िजा रहीं
मौत सम्मुख थी खड़ी , हृदय तो हर्षा गईं
10-मेरा शब्दों से रिश्ता
सूर्य का किरन से, पुष्प का चमन से
वृक्ष का पवन से, सैन्य का वतन से
धरा का गगन से, काम का यौवन से
नीति का नियम से,प्रीति का मिलन से
ताप का तपन से, याद का अगन से
हृदय का धड़कन से,नेह का लगन से
नींद का शयन से, अश्रु का नयन से
राही का गमन से, भाई का बहन से
श्रृंगार का दुल्हन से, इंतजार का तड़पन से
सिहरन का छुवन से, अश्रु का चुअन से
जिस तरह का होता है, रिश्ता
उसी तरह है ,मेरा शब्दों से रिश्ता
11- रूठा हो कोई
जैसे वृक्ष से रूठ गये हों
उसकी शाखें,उसकी पत्तियां
उसकी जड़ें, उसकी टहनियां
और वृक्ष सूखे हुए दरख्तों में बदला जैसे
हो तन्हा घर, कोई तन्हा शहर
गमगीन राही और तन्हा सफर
फिर वृक्ष धराशायी हुआ जैसे
नींव के हटते ही महल
पेड़ के कटते ही जंगल
आज वो जगह वीरान है जैसे
शक से हो जाते हैं रिश्ते
कर्ज को चुकातीं हैं किश्तें
इसलिए संभालो मुझे...रूठो मत!
- नाथ गोरखपुरी
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