कवि परिचय कवि कुलवंत सिंह जन्म तिथि : 11 जनवरी जन्म स्थान : रूड़क़़ी उत्तरांचल प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षाःकरनैलगंज गोंडा(उ.प्र...
कवि परिचय
कवि कुलवंत सिंह
जन्म तिथि : 11 जनवरी
जन्म स्थान : रूड़क़़ी उत्तरांचल
प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षाःकरनैलगंज गोंडा(उ.प्र.)
उच्च शिक्षा :अभियांत्रिक़ी आई. आई.ट़ी. रूड़की
(रजत पदक एवं 3 अन्य पदक)
पुस्तकें प्रकाशित : 1 - निकुंज (काव्य संग्रह)
2 -- परमाणु एवं विकास (अनुवाद)
3 -- विज्ञान प्रश्न मंच
4 -- कण क्षेपण (प्रकाशनाधीन)
5 -- चिरंतन (प्रकाशनाधीन)
रचनाएं प्रकाशित : साहित्यिक पत्रिकाओ़ं परमाणु ऊर्जा विभाग़ राजभाषा विभाग़ केंद्र सरकार की `विभिन्न गृह पत्रिकाओ़ं वैज्ञानिक़़ विज्ञाऩ आविष्काऱ़ अंतरजाल पत्रिकाओं में अनेक साहित्यिक एवं वैज्ञानिक़ रचनाएं पुरस्कृत : काव्य़़ लेख़़ विज्ञान लेख़ों विभागीय हिंदी सेवाओं के लिए़ एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा पुरूस्कृत ।
1 । काव्य़ भूषण सम्मान -कवर्धा छत्तीसगढ
2। काव्य़ अभिव्यक्ति सम्मान 2007 गुना मप्र
3। भारत गौरव सम्मान -- ऋचा कटनी मप
4। राष्टीय प्रतिभा सम्मान - विश्व स्नेह समाज इलाहाबाद
5। बाबा अंबेडकर मेडल दिल्ली
6। विभागीय सम्मान
सेवाएं : ‘हिंदी विज्ञान साहित्य परिषद’ से 10 वर्षों से संबंधित व्यवस्थापक ‘वैज्ञानिक’ त्रैमासिक पत्रिका विज्ञान प्रश्न मंचों का परमाणु ऊर्जा विभाग एवं अन्य संस्थानों के लिए अखिल भारत स्तर पर आयोजन ,क्विज मास्टर
संप्रति : वैज्ञानिक अधिकाऱीपदार्थ संसाधन
प्रभाग़ भाभा परमाणु अनुसंधान केंद़्र मुंबर्ई400085
निवास : 2 ड़ी बद्रीनाथ़ अणु शक्तिनगऱ
मुंबई -- 400094
निकुंज
अनुक्रमणिका
1। आत्मज्ञान । 16
2। नमन । 17
3। माली । 19
4। जय जवान जय किसान जय विज्ञान 20
5। भारत । 22
6। राष्ट्र । 23
7। बलिदान । 24
8। शहीद । 25
9। अनेकता में एकता । 26
10। देश के दुश्मन ।। 27
11। स्वर्ण जयंती । 28
12। कलम । 31
13। परिवर्तन । 32
14। आदर्श । 33
15। मानव-जीवन ।। 34
16। खोना । 35
17। कल्पना । 36
18। विसंगतियां ।। 37
19। प्रेरणा । 38
20। दिशा । 39
21। लड़ाई । 40
22। जिंदगी । 41
23। नई दुनिया ।। 43
24। मैने देखा । 44
25। बापू फिर न आना इस देश में 47
26। संघर्ष । 49
27। मुआवजा । 52
28। रिश्ते । 54
29। अनुकंपा । 55
30। बचपन । 56
31। समाजसेवा । 57
32। प्रशस्ति पत्रा 58
33। युवावर्ग । 59
34। हिंदी । 60
35। दिशा विहीन समाज 61
36। होली आयी रे ।। 62
37। अल्ट्रासाउंड । 64
38। महाप्रदूषण । 65
39। परमाणु-ऊर्जा ।। 67
40। खुशहाली । 69
41। संगति । 71
42। बाल ह्यदय । 72
43। वजूद । 73
44। नारी । 74
45। संभव - असंभव ।। 75
46। अच्छाई और बुराई ।। 76
47। आत्मा और परमात्मा 77
48। मुस्कुराना । 78
49। निर्झर । 80
50। सूर्यास्त । 82
51। ईश । 83
52। नींद । 84
53। पहचान । 85
54। अंतिम सांसे । 86
55। निरूद्देश्य जीवन ।। 87
56। जीवन का लक्ष्य ।। 89
57। कौन । 90
58। अपनापन । 91
59। अंतर्मन । 92
60। ‘मैं’ और ‘तुम’ । 93
61। आज के युग में ।। 94
62। क्या ऐसा संभव? । 95
63। ऐसा भी होता है! । 97
64। शून्य : एक शाश्वत सत्य? । 98
65। जड़-मानव 99
66। आधुनिक हिंदी कविता । 101
67। कविता 105
68। टीस 107
69। अनंत प्रेम 108
70। रूहानी 109
71। प्रीत 110
72। पिया न आये 112
73। क्या हो तुम! 114
74। तुम पास तो आओ 115
75। प्रियतम 116
76। यौवन 118
77। दर्पण देख लिया होता! 119
निकुंज - 16
आत्मज्ञान
मिटाकर अहंकार
करो परोपकार
मिथ्या है संसार
सत्य है परमार्थ।
मिटाकर अंधकार
करो ज्योतिर्मय संसार
हो कीर्ति रश्मियाँ का विस्तार
जीवन है सेवार्थ।
मिटाकर विकार
अर्थ लोभ को नकार
हो जाओ ईश से एकाकार
हो तत्पर ज्ञानार्थ।
मिटाकर मन का मालिन्य
दिलों में प्रेम को निखार
करो सत्य को साकार
हो सेवा निःस्वार्थ।
निकुंज - 17
नमन
कोटि नमन हे भारत!
संस्कृति, वैभव परिपूर्ण
दर्शन, वेद, वेदांत....
आध्यात्म समाहित पूर्ण।
कोटि नमन हे भारत!
संतो, महापुरुषों की जन्मभूमि
राम, कृष्ण, चैतन्य, नानक....
जन्म, कर्म, धर्म, की मर्मभूमि।
कोटि नमन हे भारत!
प्राचीन साहित्य भंडार भरे
तुलसी, सूर, मीरा, कबीर....
जीवन, ज्ञान, प्रेम, सार भरे।
कोटि नमन हे भारत!
सरिताएं हैं देवतुल्य
गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, कावेरी....
पावन धरती उपजाऊ अमूल्य।
कोटि नमन हे भारत!
वीरों की रणभूमि
गुरू गोविंद, शिवाजी, राणा प्रताप....
सर्वत्र न्यौछावर भारतभूमि!
निकुंज - 18
कोटि नमन हे भारत!
बलिदानियों की भूमि
गांधी, भगत, सुभाष, आजाद
तात्या, टीपू, नाना, लक्ष्मी....
इस धरती पर जन्मे
पाया सुख सारा।
इसकी माटी तिलक हमारा
धन्य हुआ है जीवन हमारा।
निकुंज - 19
माली
बहुरंगी ये पुष्प खिलायें,
सुमन-सुरभि बिखरायें
पुष्पित हो हर कली इतराये
आओ ऐसा हिंदुस्तान बनायें।
माली बन इस कानन में तत्पर
मुस्कान बिखेरें हर कुसुम अधर
सौहार्द्र प्रेम एकता संजोये
पुष्पिर्तसुरभित हो हर उर।
मात्सर्य न उगने पाये
खर पतवार न पनपने पाये
चलो प्रेम का बिरवा सींचें
धरा चमन माली बन जायें।
निकुंज - 20
जय जवाऩ जय किसाऩ जय विज्ञान
जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान,
प्राणों की आहुति दे देते तत्पर सदा जवान
भारत की इस बलि बेदी पर कर में ले हथियार
अगणित अमर जवानों ने बिछा दिये हैं प्रान
आंच न आने दी भारत पर छोड़़ा सब संसार
साक्षी है इतिहास और जग करता सत्कार।
जय जवान, जय जवान, जय जवान।
नव संसाधन मिले, हरियाली छायी देश में
सहकारिता को बढ़ाया खुशहाली छायी देश में
अपनायी नई तकनीकें कृषि के देश में
खाद्यानों से परिपूर्ण भंडार भरे देश में
स्वावलंबी बने हम निर्यात भी करते हैं।
जय किसान, जय किसान, जय किसान।
विज्ञान में पीछे नहीं अग्रिम चुने देशों में
संभाव्य किया सब कुछ हमने जो मानव को प्राप्य
विखंडन कर परमाणु का असीमित ऊर्जा भंडार
आर्यभट्ट रोहिणी ऍप्पल इंसेट अंतरिक्ष में साकार
भयकंपित रखते शत्रु को नाग पृथ्वी आकाश।
जय विज्ञान, जय विज्ञान, जय विज्ञान।
निकुंज - 21
लेकिन क्या है कमी, जो भारत पिछड़ा देश!
करना आत्मचिंतन हमें देना बंद कर उपदेश
मुठ्ठीभर कुछ राजनेता न बदल सकते परिवेश
कोसना बंद करें उनको जब आये आवेश
हम लाखों बुद्धिजीवियों को वहन करना संदेश।
आज जरूरत हम सब की है पुकारे भारत-देश।
कोटि-कोटि जन तब होंगे साथ।
बढ़ेंगे आगे लिये फिर हाथों में हाथ।
निकुंज - 22
भारत
फूंकना है यदि देश में प्राण,
बनाना है यदि भारत महान
जीवन में सबके भरना होगा प्रकाश
मुट्ठी भर सबको देना होगा आकाश।
महलों की चाह नहीं सबको
एक छत तो देनी होगी सबको
दो वक्त की रोटी खाने को मिल जाये
इज्ज़त से इंसान जी पाये।
भिक्षा की नौबत न आये
रोजगार के अवसर बढ़ायें
ऐसे संसाधन तो जुटाने हमको
अग्रणी रखना यदि हमने भारत को।
मानवाधिकारों का हनन न हो
न्याय मिले समय पर सबको
कागज पर छपे मात्र शब्द न हों
यह भी सुनिश्चित करना हमको।
सुख सुविधा के पहुँचे सब साधन
जीवन में भारत के जन-जन
तभी निराला भारत होगा
शक्ति संपन्न भारत होगा।
निकुंज - 23
राष्ट्र
अखण्ड राष्ट्र,
प्रिपूर्ण राष्ट्र,
आत्म - गौरव,
संपूर्ण व्याप्त!
सत्य - पथ
निश्चल - अडिग
निश्छल - कर्म
निष्काम - भाव!
निर्मल - मन
पावन - विचार
उदार - हृदय
पर - उपकार!
स्नेह - अनुज
संस्तुति - ज्येष्ठ
राष्ट्र - उत्थान
मानव - श्रेष्ठ!
आदर्श जीवन
कर्तव्य प्रेरणा
समान अधिकार
ज्ञान तृष्णा!
समाहित इन गुणों से जिस राष्ट्र के नागरिक,
गौरवान्वित वह राष्ट्र और अभ्युदय हो वह समाज।
निकुंज - 24
बलिदान
जो वीर सहर्ष बलिदान हुए
स्वतंत्रता था उद्देश्य।
उनकी याद मिटे ना दिल से
आओ बनायें ऐसा परिवेश।
स्वर्णाक्षरों में अंकित गाथा
व्यर्थ न हो उनकी अभिलाषा।
फिर ‘सोने की चिड़िया’ कहलाये
आओ जगायेँ हर दिल में आशा।
फ़र्ज वो अपना निभा गये
रक्त से सींचा उपवन को।
कर्ज उतारें हम उनका आज
पुष्पित करें हर सुमन को।
निकुंज - 25
शहीद
जो वीर हुए बलिदान,
था उद्देश्य उनका महान।
गले में फॉसी के हार, सीने पे खायी गोलियां,
मौत से ब्याह कर, उठी उनकी डोलियाँ।
वीर बांकुरों ने आजादी की ठानी थी,
छक्के छूटे, दुश्मन को मुंह की खानी थी।
स्वर्णाक्षरों में लिखा गया उनका बलिदान,
ऋणी हर भारतवासी, हृदय पटल अंकित सम्मान।
आजादी तो हमें प्यारी है, सहेज के रखना यारों,
शहीदों को इससे बढ़कर, नहीं श्रद्धांजली प्यारों।
व्यर्थ न हो उनका बलिदान,
कहना नहीं, बनाना है - ‘भारत महान’।
निकुंज - 26
अनेकता में एकता
अनेकता में एकता‚
यही हमारी विशेषता।
बसती है हर देशवासी में‚
एक ही राष्टी्रयता।
सदियों से जमाने ने
रौंदा इस अवनी को।
मिटा सका न फिर भी
कोई हस्ती अपनी को।
बात है कुछ हममें‚
अनेकता में एकता
हर भारतवासी में
यही है विशेषता।
गुजरात से अरुणाचल तक
कश्मीर से निकोबार तक
हम एक हैं --
अंतिम सांस तक!
निकुंज - 27
देश के दुश्मन
स्वतंत्रता सेनानी का वह बेटा था
जाने किस मिट्टी का बना था
एकला ही चल दिया वह
दीवानगी की राह पर।
कहने लगा ‘भ्रष्टाचार को मिटाना है
देश को मजबूत बनाना है।
एक सूत्र में फिर से पिरोना है
अखण्ड भारत को फिर आत्म-गौरव दिलाना है।’
लड़ता रहा दीवानगी की हद तक
लोग देख उसे हंसते जब-तब।
साथ देने न आया कोई उसका
लेकिन वह डटा रहा जिगर था उसका।
मगर वो अकेला ही था -
हार गया‚ सब कुछ गंवा कर भी!
इस ‘सिस्टम’ के आगे उसकी कुछ न चली‚
टूट कर बिखर गया‚ सजा अपनों से मिली।
बाप की लड़ाई थी गोरों से‚
जाने पहचाने उन दुश्मनों से।
अपने‚ पराये‚ अनजान हाथ‚
प्रत्यक्ष‚ परोक्ष सबका था साथ।
बेटे की लड़ाई थी अपनों से‚
अपने ही देश के दुश्मनों से।
भेड़ की खाल में छिपे भेड़िये‚
इनसे भला कैसे जीतिये?
निकुंज - 28
स्वर्ण जयंती
स्वतंत्रता के हुए पचास वर्ष
आज है हंसी-खुशी उल्लास हर्ष।
बलिदान हुए राष्ट्र पर जो सहर्ष
संभव हुआ देश का जिससे उत्कर्ष।
गौरवान्वित हम; करते हैं उनको नमन
सौंपा जिन्होंने हमको यह चमन।
गाँधी सुभाष टैगोर का यह सपन
स्वतंत्र भूमि पर हम लें जनम।
स्वतंत्रता के हुए पचास वर्ष‚
आज है हंसी-खुशी उल्लास हर्ष।
वीरों ने खेली थी अपने खून से होली
अर्पित है उनको हमारी श्रद्धांजली।
रग-रग में बसती थी जिनके स्वतंत्रता‚
ऐसे लाल-बाल-पाल को देश है नमन करता।
सन् 1919 बैसाखी में अमृतसर‚
रोम-रोम आज भी उठता है सिहर।
जालियांवाला बाग में क्रूर नर संहार
रो उठा था सारा देश अश्रुधार।
स्वतंत्रता के हुए पचास वर्ष‚
आज है हंसी-खुशी उल्लास हर्ष।
23 मार्च सन् एकतीस का दिवस‚
ब्रिटिश साम्राज्य को किया जिसने विवश।
निकुंज - 29
शहीद हुए सुखदेव‚ राजगुरू‚ भगत
अचंभित था ऐसे वीरों पर जगत।
अल्फ्रेड पार्क में शहीद हुए आजाद‚
कांप उठी थी परसत्ता सुन उसकी दहाड़।
जन-जन में दहक उठी क्रांति की ललकार‚
भारत छोड़़ो भारत छोड़़ो‚ थी हर कंठ की पुकार
स्वतंत्रता के हुए पचास वर्ष‚
आज है हंसी-खुशी उल्लास हर्ष।
नहीं पायी आजादी यूं ही हमने‚
लाखों हैं खोये माँं के लाल हमने।
सींचा है खून से उन्होंने माली बनके‚
इस बाग को रखना है हमने संहेज के।
उन्नति के पथ पर है आज देश अग्रसर‚
हुए हैं अनेक क्षेत्रों में हम आत्मनिर्भर।
परमाणु को विखंडित है किया हमने‚
अंतरिक्ष में उपग्रह स्थापित भी किया हमने।
स्वतंत्रता के हुए पचास वर्ष‚
आज है हंसी-खुशी उल्लास हर्ष।
दुर्भाग्य लेकिन‚ देश चल रहा किस राह‚
कैंसर भ्रष्टाचार का फैल रहा अथाह।
नेता हुए पथभ्रष्ट‚ डाकू‚ गुंडे‚ मवाली‚
जनता का पैसा लूट कर फैला रहे बदहाली।
नित नया घोटाला‚ यूरिया‚ हवाला‚ चारा‚
बोफोर्स‚ सबमैरीन‚ सेंट किट्स भूला जग सारा।
परतंत्र न रहे पर स्वतंत्र भी न हुए
विडंबना हमारी हम मूक दर्शक बने रहे।
निकुंज - 30
आओ करें आजाद देश को फिर से
आह्वान है दोस्तों हम मिलकर सरफिरे।
स्वतंत्रता के हुए पचास वर्ष‚
आज है हंसी-खुशी उल्लास हर्ष।
निकुंज - 31
कलम
धार कलम की पैनी होती
संभलकर उपयोग करें।
दृष्टि बदले, दिशा बदले
समाज को उत्प्रेरित करे।
साहित्य समाज का दर्पण है
किंतु यह दिखलाता राह।
तख्त पलटे, ताज पलटे
कलम दिखाये जब सत्य की चाह।
कलम को है पकड़ा जिसने,
पाया शक्ति से संचरित।
पुष्प खिलें, महक फैले
कलम से हों जब भाव प्रस्फुटित।
दिगभ्रमित हैं क्यों आज हम,
पथ से क्यों हैं भटक गये?
आओ, पंथ बनायें, प्राण जगायें
समाज को नयी दिशा दिखायें।
निकुंज - 32
परिवर्तन
परिवर्तन नियम संसार का,
समय के साथ बहुत बदल गया।
बचपन बीता, यौवन बीता,
बुढ़ापा दहलीज पर आ गया।
परिवर्तन को रोका किसने,
इसको रोक सका है कौन?
यह जीवन का अटल सत्य है -
जो समझे स्वीकारे मौन।
संतो ने जाना समझा,
अंगीकार किया महा प्रयाण।
ज्यों दधीचि ने कर्म-क्षेत्र में
सहस्र त्याग दिये थे प्राण।
लेकिन बदला वह सब कुछ,
जो अनमोल धरोहर थी।
धरा बदली? आकाश बदला?
सूरज बदला? चांद तारे बदले?
यदि नहीं, तो हमारे मूल्य क्यों बदले?
निकुंज - 33
आदर्श
आदर्श गुरू, आदर्श मंत्र,
आदर्श ही हो जीवन का आधार।
आदर्श धन, आदर्श चरित्र
आदर्श ही हों कर्म के आधार।
आदर्शों से है अस्तित्व,
आदर्शों से पहचान मनुष्य की।
आदर्शों से ही अमरत्व,
आदर्शों से ही गरिमा मनुष्य की।
आदर्श बनाते हैं कई,
पर चलता इन पर कोई।
जिसने भी यह पथ अपनाया,
अपने ही अंदर ईश पाया।
निकुंज - 34
मानवदृजीवन
संघर्षों का नाम ही जीवन,
फिर इससे घबराना क्यूँॅ?
नैतिक मूल्यों की नैया,
जीवन का आधार है ज्यूँॅ!
मूल्यों के संस्कार हैं जिसमें,
विश्व - शांति वो लायेगा।
कर्तव्य निष्ठा का भक्त है जो,
अवनति पतन मिटाएगा।
जीवन दर्शन से आप्लावित,
नैसर्गिक प्रेम जगायेगा।
सामाजिक मूल्यों को अपना,
भाई-चारा फैलायेगा।
हर मानव मन में है बसता,
जिसे ढ़ूंढ़ते बाहर हम।
हममें ही है छिपा कहीं वह,
बस अंतर्मन में झांके हम।
अनुभूति, भावना, कला, प्रेम
से ओत-प्रोत है हर मानव।
सुप्तावस्था में भाव किंतु, क्योंकि,
रोजी रोटी में खोया मानव।
निकुंज - 35
खोना
बहुत कुछ खो चुके हम,
अब और खोना गंवारा नहीं।
जीवन मूल्यों से गिर रहे हम,
नैतिक पतन भी हो, गंवारा नहीं।
संस्कारों से मुख मोड़ रहे हम,
बड़ों का निरादर हो यह गंवारा नहीं।
कर्तव्य निष्ठा से भाग रहे हम,
सत्कर्मों की होली जले, गंवारा नहीं।
स्वार्थ और लोलुपता में फंसे हम,
अपने पराये का भेद न कर सकें, गवारा नहीं।
सांस्कृतिक ह्रास सह चुके हम,
राष्ट्रीय विघटन हमें गंवारा नहीं।
देशभक्ति के बदले मायने देख चुके हम,
पराधीन हों पुनः, यह गवारा नहीं।
आओ खोना बंद करें हम,
देश के पुनर्निर्माण में जुटें।
खुशहाली बिखेरें चारों ओर
हर पुष्प पल्लवित हो, आये नित नयी भोर।
निकुंज - 36
कल्पना
आज जो यथार्थ है,
कल वो नहीं था।
मात्र कल्पना थी
एक स्वप्न था।
किसी ने कल्पना की थी।
और इस कल्पना को
साकार करने का प्रयास भी।
तभी तो वह सब कुछ आज यथार्थ है।
कल सुनहरा भविष्य
यथार्थ हो।
आज हमें कल्पना करनी!
और प्रयत्न करना है -
इस कल्पना को
यथार्थ में बदलने की!!
निकुंज - 37
विसंगतियां
आदिकाल से रही हैं
समाज में विसंगतियां!
घबराओ नही और न सोचो
कि‚ बिगड़ी हमारी संस्कृतियां!
न बीज गलत, न बोना
न सींचने का परिवेश।
हर आदमी पैदा न हुआ
बनने को दरवेश।
अमिट हमारे मूल्य औ
अमिट हैं - संस्कार।
अपच होने से भी कभी
तन में आ जाता विकार
विकारों की दवा है खोजनी,
करना है समाज का उत्थान।
गिर पड़ चल सकते नहीं,
प्रगति पथ पर यदि बनना महान!
निकुंज - 38
प्रेरणा
तन में संचालित प्रेरणा,
मन में संचारित प्रेरणा,
भावों में प्रवाहित प्रेरणा,
उर में स्थापित प्रेरणा।
उद्देश्य असीम प्रेरणा,
मंजिल समीप प्रेरणा,
सुंदर साथ प्रेरणा,
आशा पास प्रेरणा।
शून्य उद्भाव प्रेरणा,
अनंत विस्तारित प्रेरणा,
धरा धैर्य प्रेरणा,
आकाश स्थायित्व प्रेरणा।
स्वप्न आभास प्रेरणा,
कर्म आधार प्रेरणा,
जीवन जीने की प्रेरणा,
कुछ कर जाने की प्रेरणा।
कुल की प्रेरणा,
कुल उत्थान,
‘कुलवंत’ की प्रेरणा,
राष्ट्र उत्थान।
निकुंज - 39
दिशा
नई पीढ़ी को दिशा दिखाना,
कर्तव्य हमारा है।
दुनिया सच की राह चले,
फर्ज़ हमें ही निभाना है।
सांस्कृतिक, नैतिक, जीवन-मूल्य
अनमोल धरोहर अपनी है।
मिली जो हमको पुरखों से
नववर्ग को दे जानी है।
भूले जो हम वशीभूत हो स्वार्थ के
अहित अपना ही कर जायेंगे।
दिशा हीन होगा समाज
नामों निशां मिट जायेंगे।
निकुंज - 40
लड़ाई
भाषा मजहब जात के नाम
ईर्ष्या द्वेष वैमनस्य हो काम
मक्का मदीना तीर्थ हो धाम।
लड़ना ही है क्या इंसान की फितरत?
बांग्ला द्राविण उर्दू हिंदी
मुस्लिम हिंदू इसाई यहूदी
सिया सुन्नी वहाबी विर्दी
लड़ना ही है क्या इंसान की फितरत?
ब्राह्मण-सूद्र-कायस्थ भेद भाव
कायम समाज पर नासूर घाव
संकीर्णता का करें परित्याग
लड़ना ही है क्या इंसान की फितरत?
क्यूँ न हम मिलकर लड़ें
उन दूरियों से जो करती अलग-
मानव को मानव से
स्वार्थ लोलुपता भ्रष्टाचार से
संत्रास गरीबी भुखमरी से
अशिक्षा अज्ञान अंधकार से
लड़ना ही है क्या इंसान की फितरत?
आओ हम सब मिलकर लड़ें
सामाजिक कुरीतियों से
प्राकृतिक आपदाओं से
नैराश्य के अंधेरे से
जीवन में भरें सबके प्रकाश।
निकुंज - 41
जिंदगी
जब मैं बालक था
मिट्टी पर विभिन्न आकृतियां-
बनाता और मिटाता था
तब शायद मेरे लिए -
‘जिंदगी -- बनाना और मिटाना थी’।
जब मैं किशोर हुआ‚
घर से भाग निकला‚
पेट की क्षुधा थी‚
रोटी की समस्या थी‚
भिक्षा माँगता‚ घर-घर भटकता
खाने को रोटी जब पा जाता -
सोचता‚ ‘क्या खोजना और पा जाना ही जिंदगी है?’
जब मैं युवा हुआ‚
भिक्षा में खाने को न मिलता
हाँ‚ सुनने को मिले-व्यंग्य‚ अपशब्द
जब मुझे भूखे सोना पड़ता
लाख कोशिशों के बावजूद कह उठता -
‘क्या बेकार कोशिश का नाम ही जिंदगी है?’
जब मैं होश में आया‚
पेट के लिए पापड़ बेले
सैकड़ों रोजगार अपनाए
कठिनाईयों से सामना हुआ
निकुंज - 42
अक्सर मैं बुदबुदा उठता -
‘क्या पग पग पर मुसीबतों का नाम ही जिंदगी है?’
लेकिन मैं प्रयत्नशील रहा‚
वर्षों पश्चात मैं सफल हुआ -
आज मेरे पास कोठी है‚ कार है‚
सैकड़़ों नौकर‚ सेवादार हैं।
विगत जीवन जब मैं भूल जाता हूँ‚
मुलायम गद्दे पर लेटे गुनगुना उठता हूँ -
‘जिंदगी कुछ नहीं‚ बस फूलों की सेज है!
निकुंज - 43
नई दुनिया
आओ खोजें इक नयी दुनिया को।
जिसमें तुम‚ तुम न रहो‚ मैं‚ मैं न रहूँ‚ बस हम रहें।
जिसमें न हो भ्रष्ट कोई‚ न भ्रष्टाचार रहे‚
रिश्वत‚ बेईमानी का न नामोनिशान रहे।
आओ खोजें अंधकार में चिराग को -
जिसे जलाकर हम प्रकाश करें‚
इस घनी-काली-रात का नाश करें‚
इक नवयुग का हम निर्माण करें।
आओ खोजें दुनिया में एक ईमानदार को‚
जो न भ्रष्ट‚ न बेईमान और न रिश्वतखोर हो‚
जो न चोर‚ न लुटेरा या पाकेटमार हो‚
यां जिसे इनमें से कुछ न होने का मलाल न हो।
आओ खोजें चीखते शोर में शांति को -
नदियों की कल-कल‚ पक्षियों के कलरव को‚
फूलों में सुगंध‚ गेहूँ में गुलाब को‚
आओ खोजें अपने आपमें इंसान को।
निकुंज - 44
मैने देखा
किसी अनिष्ट की
आशंका से भयकंपित!
मुठ्ठी में बंद किये
एक कागज का टुकड़ा
लम्बे-लम्बे डग भरता
कोई दीन हीन फटे हाल
चला जा रहा था -
‘मेडिकल स्टोर’ की ओर।
मैने देखा।
तभी पुलिसमैन एक
कहीं से आया
पहचान कर शिकार को
लपका उसकी ओर
बोला‚ ‚अबे उल्लू!
लम्बे-लम्बे डग भरता है
जो नियमों के प्रतिकूल है।
पथ शीघ्र तय करता है!
अगर कहीं कुचला गया
किसी सवारी के नीचे
तो क्रियाकर्म तेरा
कौन करेगा?
यह अपराध है
कानून का उल्लंघन है
मैं तेरा ‘चालान’ कर दूंगा‛।
निकुंज - 45
‘चालान’ शब्द सुनकर
दुखिया ने हाथ जोड़ दिये
पुलिसमैन के पांव पकड़ लिये।
कातर स्वर में बोला -
‚मेरी बूढ़ी माँ बीमार है‚
सख्त बीमार है।
उसका एकमात्र सहारा
यह पुत्र‚ यह अभागा
दवा लेने जा रहा है।
हाथ जोड़ता हूँ‚ पाँव पड़ता हूँ
मुझे द्दोड़ दे‚ तेरा उपकार होगा।‛
‚बचना चाहता है?
अच्द्दा चल द्दोड़ दूंगा!
मेरी दायीं हथेली पर खुजली हो रही है
उसको शांत कर दे‚
मेरा आशय समझा यां समझाऊँ तुझे।‛
तरेर कर आँखें पुलसिमैन बोला
‚समझ गया माई बाप‛
मुठ्ठी जोर से भींच कर बोला
‚लेकिन एक ही पाँच का नोट है‛
मुठ्ठी खोलकर दिखाते हुए बोला‚
‚अगर आपको दे दिया
तो... तो... दवा कहाँं से आयेगी?
मेरी माँ मुझसे न छिन जायेगी?
जिसे दवा की सख्त जरूरत है।‛
कहते हुए वह कांप रहा था‚
‚आज छोड़ दे मेरे भाई‚ मेरे खुदा
फिर कभी ले लेना -
निकुंज - 46
पाँच के बदले दस!
पाँव पड़ता हूँ तेरे‛।
लेकिन वह पुलिसमैन
उसकी बात कहाँ सुन रहा था?
वह तो जा चुका था -
अपने हाथ की खुजली शांत करके
उस दीन हीन फटे हाल से
मुड़ा-तुड़ा पाँच का नोट छीन के।
किसी अन्य शिकार की टोह में -
मैने देखा।
निकुंज - 47
बापू फिर न आना इस देश में
(मुंबई दंगों पर लिखी कविता)
बापू तू क्यूँ आया था इस देश में?
हम तो रक्त के प्यासे रहे हैं‚
सदियों से आपस में लड़ते रहे हैं‚
एक दूसरे का गला घोटते रहे हैं‚
अपने भाईयों का रक्त पीते रहे हैं‚
हमारे इस घोर अंधकारमय जीवन में
आशा की किरण बन के
बापू तू क्यूँ आया था इस देश में!
आज भी हम खून बहा रहे हैं -
देखो यह सड़कें‚ गलियां‚ चौराहे‚
खून से भिगो रहे हैं।
नदियां‚ नाले‚ तालाब‚
सब खून से भर रहे हैं।
सदा से हम जितने वहशी रहे हैं
आज उससे हम और आगे बढ़ गये हैं।
देखो बापू! बच्चों को भी हम
जिंदा आग में झोंक रहे हैं।
क्या ऐसी दरिंदगी देखी बापू!
हैवानियत भी सर छुपा रही है।
नर-कंकालों के देखो
हमने कितने ढ़ेर लगाये!
बापू‚ तुम कितने थे सरलमना
हम हिंसक पशुओं के बीच
तू क्यूँ आया था इस देश में?
हमने तो तुझको भी मार डाला!
निकुंज - 48
और क्या बचा इस देश में!
‘आदम-खून’ हमारे मुँह लग चुका है‚
अब इससे ही हमारी प्यास बुझती है‚
बहुत स्वाद है‚ इस रक्त में बापू!
पीने से चाहत और बढ़ जाती है।
भाषा‚ मजहब‚ जात के नाम
किसी भी नाम से कत्ल कराओ।
बापू‚ आदम का खून बहाने में‚
अब तो हम निपुण हो गये हैं।
कल तक तो हम शहरों में थे‚
अब गावों में भी काल बन छा गये हैं।
इधर देखो इंसानियत दम तोड़ रही है‚
उधर देखो मानवता की अर्थी उठ रही है।
अपने बंदों की करामात देख-
आज अल्लाह भी रो रहा है!
दासता से मुक्ति दिलाने
बापू‚ तू क्यूँ आया था इस देश में?
हम तो हमेशा से गुलाम रहे हैं‚
आज भी गुलाम हैं-हैवानियत के।
हममें से कुछ लोग नासमझ हैं-
तुमको इस देश में फिर बुला रहे हैं।
लेकिन बापू उनकी मत सुनना‚
फिर कभी न आना इस देश में।
बापू‚ फिर कभी न आना इस देश में।
निकुंज - 49
संघर्ष
‘रे पथिक! ये क्षण विश्राम का नहीं‚
जीवन का नाम आराम नहीं।
सचेत हर पल रहना तुझे‚
आघात-संघर्षों के-अनवरत सहना है तुझे।
अवरुद्ध पथ के कण्टक
अपने ही हाथों बीनने हैं‚ तुझे।
ये जो गहन अंधकार है
कालिमा रात की‚
इसमें स्वर्णिम उषा की
लाली भरनी है तुझे।
उठो स्व-पथ का निर्माण करो‚
जीवन-दीपक को ज्ञान-ज्योति प्रदान करो।’
‘नहीं! मैं अब कुछ नहीं कर सकता
मैं थक गया हूँ-चलते चलते‚
टूट गया हूँ-थपेड़े सहते सहते‚
मुझमे अब सामर्थ्य नहीं‚ कि
अवरुद्ध-पथ के कण्टक बीन सकूँ।
जीवन-दीपक को ज्ञान-ज्योति प्रदान कर सकूँ।
नहीं‚ मैं अब कुछ नहीं कर सकता।’
‘बटोही! क्यों हताश तुम क्यों हो निराश?
यह जीवन है -- एक कर्म क्षेत्र
निकुंज - 50
नई दुनिया देखने की यदि है ललक‚
तूफान भी सहने पड़ेंगे थपेड़े ही नही
खोजने होंगे नवीन अंतरिक्ष।
नया उत्साह नयी प्रेरणा
ऐसे संचरित रहना हर पल तुझे।
यही वह पथ जिस पर हैं -
प्रतीक्षारत रूपसी नवयौवनाएँ
अपने आँचल से तेरे पगों-
की धूल पोंछने को।
अपने कोमल हाथों से
तेरे चरणों के कण्टक निकालने को।
अपनी गोद में तेरे लहूलुहान
चरण समेट लेने को।
तेरी मंजिल-तेरी प्रेयसी‚
की बाहों में पहुँचाने को।
देख! तेरी मन्जिल
तेरी प्रेयसी बाहें फैलाए
खड़ी है आतुर‚ तुझे
अपने में समेट लेने को।’
‘हे सचेतक तुम कहाँ हो?
मेरा स्वीकार करो नमन!
हे पथ प्रदर्शक! तुम कहाँ हो?
मैं अब नया जोश‚ नयी स्फूर्ति
अनुभव कर रहा हूँ।
निकुंज - 51
नहीं चाहता अब विश्राम मैं‚
नहीं परवाह मुझे तूफानों की‚
न ही परवाह है कण्टकों की।
मिटा दूंगा भोर की लाली से
रात्रि की कालिमा को।
कर दूंगा आप्लावित
सर्वत्र ज्ञानालोक!
हे मेरे प्रेरणादायक!
स्वीकार करो नमन!
पुनः एक बार
पूर्व इसके कि करूँ मैं गमन।’
निकुंज - 52
मुआवजा
एक भूखा निकला घर से
रोटी की तलाश में‚
बीवी बच्चों का पेट भरने के ख्याल से‚
उसे किसी काम की तलाश थी।
खुद भूखे पेट रहकर
बच्चों को अधपेट खिलाने की चाह थी।
अर्ध-मूर्च्छित सा वह सड़क पार कर रहा था‚
कि रोटी के चक्कर में उसे चक्कर आ गया।
इससे पहले कि वह गिरता‚
एक कार ने उसे ठोकर मार गिरा दिया।
बेचारा वहीं ढ़ेर हो गया।
भाग्य को कोस रहा था‚
भाग्य ने उसे ही उठा लिया।
लोगों ने कार को घेर लिया‚
कार वाले को धर दबोचा।
उसे पुलिस के हवाले कर दिया।
मालूम पड़ा उस कार वाले के
आगे-पीछे कोई न था।
न पुलिस थी‚ न कोई नेता था‚
न वह रिश्वत खोर था न वह बेईमान था।
लोग अचम्भित थे-
‘फिर वह कार-वाला कैसे बन गया?’
निकुंज - 53
पुलिस रिश्वत लेकर उसे
छोडने से डर रही थी।
क्योंकि जनता अड़ गयी थी‚
उसे सजा दिलाने पर तुल गयी थी।
न्याय ने दिया उस पर कहर बरपा
जंजीरों में ला उसको जकड़ा।
तुम्हारा गुनाह तो स्वयं सिद्ध है‚
पूरी पब्लिक सबूत के तौर पर खड़ी है।
तुम्हारे लिए कोई गुंजाइश नहीं है।
फासी का फंदा ही तुम्हारी सजा है।
अब उसे अपनी गलती का अहसास हुआ
नेता या पुलिस को साथ न रखने का पछतावा हुआ।
उस भूखे की पत्नी को जब पता चला‚
दौड़ी आयी न्याय की गुहार में‚
नंग-धडंग बच्चों को साथ ले‚
बोली‚ ‚जज साहब न्याय कीजिए
हम गरीबों को भी न्याय दीजिए!
जाने वाला तो चला गया‚
अब इसकी जान मत लीजिए।
जैसे कारबाइड से भोपाल वालों को मुआवजा दिलाया‚
हमें भी कुछ राहत दीजिए‚
और इस मुआमले को रफा दफा कीजिए।‛
निकुंज - 54
रिश्ते
ज्यों ज्यों आगे बढ़ रहे हैं
हम छोटे होते जा रहे हैं।
बड़े-बूढ़ों की छाया भुला
अपना दायरा सीमित कर रहे हैं।
हर रिश्ते को भुला रहे हैं
रिश्तों में कुछ तो आड़े आ रहा है।
अपनेपन को कम कर रहे हैं
प्रिवार का दायरा सीमित कर रहे हैं।
क्या यही हमारी थाती है?
क्या इसी धरोहर पर मान हमें?
क्या यही हमारी भारतीय संस्कृति
जिस पर सदियों से अभिमान हमें?
कहाँ गयी वे भोली मुस्कानें?
हंसते चेहरे‚ खिलखिलाते ठहाके?
गावों की चौपालें‚ कस्बों के सम्मेलन‚
हंसी‚ खुशी‚ त्यौहारों के मौके?
कहाँ गयी माटी की सोंधी खुशबू?
बाल मंडली‚ झगड़े लड़कपन?
बड़े बुजुर्गों की बरगद छाया
रिश्तों का मधुरिम अपनापन?
निकुंज - 55
अनुकंपा
हे दुर्गे! (मानव पर) अनुकंपा कर दो!
प्राणहीन तन अनुप्राणित कर दो‚
सुषुप्त सद्विचार जागृत कर दो!
संकल्प दृढ़‚ साहस अदम्य‚
उदात्त‚ सद्भाव अंकुरित कर दो!
हो भारतीय संस्कृति‚ आस्था अंकुरित
जन-जन हृदय सुवासित कर दो!
हे दुर्गे! अनुकंपा कर दो!
जीवन आदर्श पुनर्स्थापित कर दो‚
रुधिर स्वाभिमान का संचरित कर दो!
सत्य‚ न्याय आत्मसात कर
इनकी रक्षा को जीना सिखला दो!
सद्विचार औ जीवन मूल्यों से
हृदय हर आप्लावित कर दो!
हे दुर्गे! अनुकंपा कर दो!
निकुंज - 56
बचपन
बढ़ते शहरों की भीड़ ने
सुख सुविधा की होड़ ने‚
जिंदगी की भाग दौड़ ने‚
बचपन छीन लिया है।
सुख समृध्दि के लोभ ने
ऐश्वर्य आराम के मोह ने‚
दिग्भ्रमित चकाचौंध ने‚
बच्चे का ममत्व छीन लिया है।
बचपन भटक रहा है
ममत्व को खोज रहा है‚
माँ के अंक बैठ
फिर झूलना चाह रहा है।
गोदी में लेट किलकारियां
मारना चाह रहा है।
परंतु आह! असंभव यह
माँ के आफिस का समय हो रहा है।
निकुंज - 57
समाजसेवा
समाजसेवा में तल्लीन
खुद को भुलाया
दूसरों के दुखों में गमगीन
अपना दुख देख न पाया।
दूसरों को हँसाने में व्यस्त‚
खुद हँसने का वक्त न पाया‚
दूसरों के आँसू पोंछते
अपने आँसू देख न पाया।
दूसरों को मंजिल का
रास्ता दिखाते रहे
भूल कर मंजिल अपनी
अवसर खोते रहे।
दूसरों की खुशियों में
अपनी खुशियां भूल गये‚
दूसरे फिर दूसरे थे‚
अपने भी दूर होते गये।
निकुंज - 58
प्रशस्ति पत्रा
एक अदद प्रशस्ति पत्र
बदल गयी परिभाषाएँ‚
सम्मान जिन्हें अपेक्षित
धूमिल होती उनकी आशाएँ।
लालायित पाने को पुरस्कार
जो न थे कभी हकदार‚
किये सम्मान पत्र दर किनार
जिनका न था कोई सरोकार।
पाने को प्रशस्ति पत्र
लगी हुई है होड़‚
कौन कितने बटोर सकता
‘पहुँच’ की है दौड़।
हो गयीं संदिग्ध आज
परिभाषाएँ सम्मान की‚
बने यह कागज के टुकड़े
बीती बातें अभिमान की।
चाह नहीं इन सबकी उसको
जो सच्चा‚ समाज सेवी इंसान‚
कर्म ही उसका प्रशस्ति पत्र है
कर्म ही उसका सम्मान।
निकुंज - 59
युवावर्ग
युवावर्ग समझता हमेशा
स्वयं को बुद्धिमान‚
उस पीढ़ी से
जिससे सीखा उसने सब ज्ञान।
ज्ञान‚ विज्ञान बहुत पाया
नया बहुत कुछ कर दिखाया‚
भौतिक सुख सुविधाएँ जुटाईं
विकास मार्ग भी प्रशस्त कराया
लेकिन जिंदगी के पाठ ऐसे हैं
जो बुजुगरें से ही समझने हैं‚
पढ़ाये जाते नहीं किसी शाला‚ प्रयोगशाला में
ये बड़ों से ही हमें सीखने हैं।
निकुंज - 60
हिंदी
उठो प्रेमियों हिंदी के
कहाँ चेतना लुप्त तुम्हारी?
समस्त विश्व को आज दिखा दो
है भाषा हिंदी उन्नति की।
किसी कोने में पड़ी उपेक्षित‚
हम देख रहे उसकी दुर्दशा।
पूर्व स्वतंत्रता देखी थी जो
कहाँ गयी वह अभिलाषा?
गर्दन पर हिंदी के‚ अंग्रेजी का
कसता जा रहा दानवी शिकंजा!
हम देख रहे असहाय‚
क्यूँ न हमें आती लज्जा?
हो गये निर्लज्ज आज हम
कायर भी कहलायेंगे!
यदि मूक दर्शक बने रहे हम
औ हिंदी को बिसरायेंगे।
स्वर्णाक्षरों में अंकित होगी(?)
गौरव गाथा गायेंगे!
हिंदी प्रेमियों की वास्तविकता
जब इतिहास लिखे जाएंगे!
निकुंज - 61
दिशा विहीन समाज
दिशा विहीन समाज
भ्रष्टदृपथ अग्रसर
जीवनदृमूल्य वंचित
सत्य स्थापन दुष्कर।
असत्य व्याप्त चतुर्दिश
अन्याय अशेष परिलक्षित
सरल-सरस-सुंदर-विलोप
मानवता क्षत-विक्षित।
मानव बदला‚ बदला समाज
बदली प्राथमिकताएँ
सम्मान सफलता अलंकरण
पुरस्कार योग्यता की परिभाषाएँ।
लुप्त-चिंतन लोभ-व्याप्त
तुच्छ मानसिकता परिवेष ह्रास
असत्य को आवरण यथार्थ को प्रमाण
प्रदूषित विचार विस्तारित अविश्वास।
जगाओ समाज को झिंझोड़ कर
करो अत्यावश्यक नवचेतन का संचार
उपजाओ अनुभूति सहृदय संवेदना
करो स्फूर्ति स्तुति स्नेह विस्तार।
मानव हृदय हो पूज्य प्रतिमा
फलित संघर्ष‚ प्रयत्न‚ प्रतिभा
सार्थक जन्म हो जीवंत प्राण
पल्लवित हो हर हृदय में भारतीयता।
निकुंज - 62
होली आयी रे!
झनन-झनन नाचो रे‚ खुशियाँ मनाओ रे‚
आज होली फिर से आयी रे!
गुलाल की बहार है‚ रंगों की फुहार है‚
चारों ओर छायी मस्त बहार है।
गलियों में फैला इंद्रधनुषी रंग है‚
बच्चे बूढ़े औ जवां‚ सबमें आज उमंग है।
झनन-झनन नाचो रे खुशियाँ मनाओ रे‚
आज होली फिर से आयी रे!
फागुनी हवाओं में दुनिया रंगी है‚
चेहरों पे सबके आज उल्लास और हंसी है।
ढोलक की थाप पे थिरके हैं कदम
अब तक थे दूर देखो बने हैं हमदम।
झनन-झनन नाचो रे खुशियाँ मनाओ रे‚
आज होली फिर से आयी रे!
गोरी के गाल पे लाल गुलाल है‚
पिया अंग लग-लग हुई मालामाल है।
अंखियन से तक-तक मारे पिचकारी है‚
संवरिया ने डाला रंग भीगी आज चोली है।
झनन-झनन नाचो रे खुशियाँ मनाओ रे‚
आज होली फिर से आयी रे!
निकुंज - 63
बैर भाव भूले सब एक ही पहचान है‚
टेसू के रंगों में रंगा जहान है।
धरती नाचे‚ अंबर नाचे‚ भंग की तरंग है‚
जीवन में सबके आज रंग ही रंग है।
झनन-झनन नाचो रे खुशियाँ मनाओ रे‚
आज होली फिर से आयी रे!
निकुंज - 64
अल्ट्रासाउंड
विज्ञान का अन्वेषण
अति विचित्र खोज
अल्ट्रासाउंड्स!
आवाज से परे
ऐसी आवाजें
जो आवाज नहीं करतीं!
खामोशी से जाकर
चुपचाप टकराकर
लौट आती हैं!
दृष्य पटल पर
निर्मित करती बिंब
उसका जिससे टकराकर आतीं!
हमारी सामाजिक रूढ़ियाँ
संकुचित दृष्टिकोण
करतीं दुरुपयोग इस निकाय का!
पहचानकर भ्रूण
पंगु मानसिकतादृगिराकर गर्भ
करती हत्या कन्या भ्रूण की!
निकुंज - 65
महाप्रदूषण
प्रलय की ले आँधी
आया विकराल
महाकाल
महाप्रदूषण!
आततायी मानव
निज स्वार्थ हेतु
फैलाया दावानल-
महाप्रदूषण!
वसुधा‚ वायु‚ व्योम
सिंधु‚ सरिताएँ‚ सरोवर
संदूषित करता सब
महाप्रदूषण!
पर्वत‚ पय‚ पादप‚ प्रकृति
सुषमा‚ सृष्टि‚ वन‚ वनस्पति
लील रहा सब कुछ
महाप्रदूषण!
पशु‚ पक्षी‚ जीव‚ जलचर
संत्रस्त‚ आतंकित‚ भयाक्रांत
नित्य प्रति विस्तारित
महाप्रदूषण!
निकुंज - 66
मानव फँसा चक्रजाल में
रक्त‚ प्राण‚ बीज को
संदूषित करता
महाप्रदूषण!
नाना छद्म वेश
कर धारण
नर को प्रताड़ित करता
महाप्रदूषण!
निकुंज - 67
परमाणु-ऊर्जा
अति सूक्ष्म परमाणु
असीमित ऊर्जा भंडार
साध इनकी शक्ति
सृजनात्मकता अपार!
कलुषित मन विचार
दे रूप इसे विकराल‚
यह वो ब्रह्मास्त्र है --
जिससे धरा बने पाताल!
अणुओं का यह महाभूत
कल्पित नहीं यथार्थ है‚
गर बोतल से निकला
सृष्टि का विनाश है!
हिरोशिमा तो अल्पांश था
अणु अस्त्र भंडार का
परमाणु अस्त्रागार है --
सौ सौ धरा के नाश का!
संभल मानव
अभी समय है‚
विध्वंस तांडव से पूर्व
निद्रा अपनी पूर्ण कर ले!
निकुंज - 68
इस अग्नि बीज को
एकत्र करना बंद कर‚
पूर्व इसमें भस्म हो
धरा मानव इतिहास बन ले!
निकुंज - 69
खुशहाली
अंधेरों को रोशनी दो‚ रोशन हो ये जग सारा‚
दिलों को प्रेम दो‚ प्यार से छलके जग सारा।
मिटा दो अज्ञान को‚ ज्ञान से दमके जग सारा‚
अस्त्र-शस्त्र सब नष्ट कर दो‚ अमन से रहे जग सारा।
मिटा दो दुश्मनी को‚ दोस्त हो अपना जग सारा‚
फूल खिलाओ हर दिल में‚ खुशबू से महके जग सारा।
हर बुराई को मिटा दो‚ खुशियों से चहके जग सारा‚
आओ खेलें मिलकर होली‚ रंगों से भीगे जग सारा।
अंधेरों को रोशनी दो‚ रोशन हो ये जग सारा‚
दिलों को प्रेम दो‚ प्यार से छलके जग सारा।
उपजाओ अन्न इतना‚ क्षुधा शांत हो खाये जग सारा‚
नदियाँ नहरें बाँध बनाएँ‚ निर्मल जल पाये जग सारा।
वृक्ष लगाएँ चारों ओर‚ हरियाली से भरे जग सारा‚
खेत खलिहान सींचें‚ बालियों से लहराये जग सारा।
घर-घर में मधुरता हो‚ खुशियों से बहके जग सारा‚
धन-धान्य की कमी न हो‚ दीवाली मनाए जग सारा।
अंधेरों को रोशनी दो‚ रोशन हो ये जग सारा‚
दिलों को प्रेम दो‚ प्यार से छलके जग सारा।
रिमझिम बरसें बादल‚ सतरंगी हो ये जग सारा‚
मिट्टी की सोंधी खुशबू हो‚ झूमने लगे जग सारा।
कलरव करते पक्षी हों‚ कोयल सा कुहके जग सारा‚
निसर्ग का संगीत हो‚ सरगम पे थिरके जग सारा।
निकुंज - 70
मदमाती बयार हो‚ उन्मत्त हो नाचे ये जग सारा
ढोलक की थाप हो‚ बैसाखी मनाए जग सारा।
अंधेरों को रोशनी दो‚ रोशन हो ये जग सारा‚
दिलों को प्रेम दो‚ प्यार से छलके जग सारा।
सत्कर्मों के पुष्प खिलाएँ‚ बन उपवन महके जग सारा‚
कर्म हमारे ऐसे हों‚ नाज करे जिस पर जग सारा।
निकुंज - 71
संगति
अरुणोदय! फैली हैं रश्मियाँ,
ताम्रवर्णी शोभित नभ।
अठखेलियां करता रवि,
श्वेत-किरण-पुंज कनकाभ।
तपता सूर्य दिन में,
रंग बदले, नीला हो गगन।
संध्या को सूर्यास्त-किरणें,
रंग बदले पल-छिन गगन।
रात्रि में जब सूर्यास्त हो जाता
आकाश हो जाता काला।
संगति का होता असर
कितना ही हो विस्तृत क्षितिज।
निकुंज - 72
बालदृह्यदय
शिशु की कोई भाषा न होती,
मौन-मूक बोले बहुत कुछ।
देख हृदय आल्हादित होता,
उसकी मुस्कान अनूठी कुछ-कुछ।
चेहरे पर फैली मासूमियत,
आँखों में चंचलता।
पल में रूठे, पल में माने,
इतराता, इठलाता।
काश! हृदय मानव भी होता,
बालक सा अठखीला।
पल में हँसता, पल में गाता,
पल में छैल छबीला।
न होता मन में वैर भाव,
न ईर्ष्या और विद्वेष।
सुखी होता संसार और
मानव कहलाता दरवेश।
निकुंज - 73
वजूद
पूछता इंसान अपने आपसे!
क्या वजूद उसका
इस संसार में?
क्यों वह आया यहाँ
यां फिर लाया गया है?
क्या मंजिल है उसकी
सफर कौन सा तय करना?
जन्म से मरण के बीच
क्या किसी सत्य को खोजना?
पूछता इंसान अपने आपसे!
झाँकता अपने अंदर,
महसूस करता रिक्तता,
न मिलता जवाब उसे,
सारी संभावनाओं को टटोलता!
पूछता इंसान अपने आपसे!
मंदिर, गिरजा, गुरूद्वारे में,
साधु, संत, महात्माओं में,
खोजता उस सत्य को,
किसने पाया उस परम सत्य को?
पूछता इंसान अपने आपसे!
निकुंज - 74
नारी
मानव पर ऋण -
नारी का।
नारी!
जिसने माँ बन -
जन्म दिया मानव को।
ईश्वर पर ऋण -
नारी का।
ईश्वर!
जिसने जन्म लिया हर बार
एक माँ की कोख से।
प्रकृति पर ऋण -
नारी का।
प्रकृति!
जिसने सौंपा यह महान उद्देश्य
नारी के हाथ।
निकुंज - 75
संभव - असंभव
असंभव है संभव!
गर तुमने है ठानी।
सोचा है तुमने -
क्या पाना तुमको?
चिंतन किया है यदि -
कैसे है पाना?
पाओगे अवश्य -
यदि सोचोगे!
चिंतन करोगे!
मनन करोगे!
प्रयत्न से क्या नहीं मिलता?
ढ़़ूंढ़ो तो भगवान भी मिल जाता है!
असंभव को संभव
करना तुम्हे ही!
जुट जाओ -
सतत प्रयत्न से,
वो सब कुछ पाने को
जो सोचा तुमने!
और पाओगे तुम।
संभव है, असंभव भी!
निकुंज - 76
अच्छाई और बुराई
जो अच्छाइयां हैं तुममें
सर्वत्र बिखेर दो।
महका दो -
गुलाब की तरह!
जो पाये -
अपना ले।
महक मिले जिसे -
बहक जाये!
बस अच्छाइयां बिखराये।
जो बुराइयां हैं तुममें -
उन्हें समेट लो।
दबा दो -
कफन में!
सुला दो -
चिर निद्रा में!
न उठने पायें
न दिखने पायें
न दूसरों को बहका पायें।
निकुंज - 77
आत्मा और परमात्मा
हर इंसान में बसती है एक आत्मा।
पहचान लो - वह आत्मा ही है परमात्मा!
वह जब महके -
सबको खुशबू दे!
जब वह चमके -
सबको रोशनी दे!
जब वह चहके -
सबको मुस्कान दे!
बनकर अवलम्ब -
सबको मनोबल दे!
दीन हीन के -
दुखों को हर ले!
तपती दोपहरी में -
पथिक को छाया दे!
प्यासे को जल
भूखे को खाना दे!
सत्य की रक्षा -
हो जिसका धर्म
रुग्ण की सेवा -
हो जिसका कर्म!
पहचान लो -
कर्म ये हैं जिस आत्मा के
वह आत्मा ही है परमात्मा!
जिस मानव में बसती यह आत्मा
वह मानव ही है परमात्मा!
निकुंज - 78
मुस्कुराना
मैं मुस्कुराना भूल गया।
किये प्रयत्न बहुत पर विफल हुए
तरस गया देखना -
अपना मुस्कुराता चेहरा।
ढ़ूंढ़ने लगा आसपास -
कि पढ़ने की कोशिश में
शायद मिल जाये -
कोई मुस्कुराता चेहरा।
जीवन से लड़ते
गांभीर्य ढ़ोते-ढ़ोते
मुस्कुराना भूल गया -
शायद इंसानी चेहरा।
काफी प्रयत्नों पश्चात
मैं खुश हुआ -
हंसी सुनाई दी जा पहुँचा
समीप -- जहां था वह प्रसन्न चेहरा।
किंतु वह हंसी फीकी थी
बनावटी - जैसे हो अभिनेता!
दिखावटी - जैसे कोई प्रतियोगिता!
हैरान मैं फिर लगा ढ़ूंढ़ने चेहरा।
निकुंज - 79
तभी अचम्भा हुआ - कैसा सम्मोहन!
सामने थी निश्छल मुस्कान -
पावन पुनीत मासूम सी
हृदय में समाया चेहरा।
अरे! एक बालक नन्हा
मेरे सामने था खड़ा।
याद आया बचपन अपना -
मुस्कुरा उठा मेरा अपना चेहरा।
निकुंज - 80
निर्झर
जीवन को न बांधिये
नियमों से
उसूलों से।
जीवन तो इत्र है;
इसको दीजिये -
महकने!
स्वच्छंद-विहग-उड़ान
गगन में दीजिए -
विचरने।
नीड़ में लौटेगा संध्या बेला
स्वयं ही -
लगेगा चहकने!
बांधने की कोशिश में
लगेगा यह
तड़पने।
अपराध होगा जकड़ना
लगेगा तपिस से -
दहकने!
मानवता का होगा कल्याण
दीजिए -
राह खोजने।
सत्य की खोज को
निकुंज - 81
स्व पथ का -
निर्माण करने!
चांद तारों की तरह लगेगा
आकाश में
चमकने।
जग को देगा प्रकाश
दीजिए - जन्म धर्म कर्म का
मर्म पहचानने!
निकुंज - 82
सूर्यास्त
डूबते सूर्य को देखा!
सुर्ख लाल
रक्त आभा।
जैसेदृजैसे डूबता -
और रक्तिम
होता जाता।
शायद अहसास दिलाता-
अपनी
उपस्थिति का।
डूबते-डूबते भी
रश्मियां
बिखराता जाता।
महापुरुषों सा
कुछ दे कर जाता।
निकुंज - 83
ईश
यत्र मानव तत्र मानव
लक्ष मानव कोटि मानव
धरा पर बसते कितने ही मानव।
मानव फिर भी अकेला -
नितांत अकेला!
मानव ने खोजा ईश्वर!
अगम‚ अगोचर निराकार‚
अलख‚ अपार‚ निर्विकार‚
हृदय ने किया साकार।
मानव अब एकाकी नही
ईश्वर के साथ एकाकार!
निकुंज - 84
नींद
माँ मुझे नींद दे दे।
बालपन की प्रीत दे दे।
अंतराल बीता सोये‚
गोद में रख के सर
पलकों को भीगने दे।
माँ‚ मुझे नींद दे दे।
गीत के वो मधुर बोल‚
अधरों से पुनः गुनगुना के
मेरे ख्वाबों को सजा दे।
माँ‚ मुझे नींद दे दे।
दुनियां को भुला के‚
सपनों में आज
मुझे खो जाने दे।
माँ‚ मुझे नींद दे दे।
थपकियाँ दे-दे के तू‚
गा के वो लोरियां
अपने इस लाल को सुला दे।
माँ‚ मुझे नींद दे दे।
इस जग से बचा के‚
वात्सल्य के आँचल में छिपाके
गहरी नींद में सुला दे।
माँ‚ मुझे नींद दे दे।
निकुंज - 85
पहचान
तपती दोपहरी
ये वीरान गलियाँ‚
पेड़ों से झड़ते सूखे पत्ते‚
गर्म लू के थपेड़े
कचोट जाते हैं ये सब
अकेले में कहीं मुझे।
इन वीरानियों में कहीं -
भटक जाता हूँ मैं
और अपने व्यक्तित्व का
अहसास खो बैठता हूँ मैं!
गलियां अनदेखी लगती हैं
और चेहरे अनचीन्हे‚
निःशब्द‚ निःश्वास।
घूर कर देखता हूँ व्यर्थ
शायद पहचानने
की कोशिश में!
अंतर्मन में मेरे एक
टीस सी उठती है -
आह! क्या हो गया है
यह आज मुझे?
निकुंज - 86
अंतिम सांसे
निःशब्द
रात्रि की नीरवता
स्याह काले अपने दामन में
लपेटे हुए है -
एक टीस।
खो गया है ब्रम्हांड का
समस्त प्रकाश‚
रात्रि के आगोश में
सो गया है - थककर
शायद हारकर।
और अपनी विजय की
कुटिल मुस्कान लिए
रात्रि अपने अंधकारमय साम्राज्य
की गहनता में
वृद्धि कर रही है।
जिंदगी कदाचित जिसमें अपनी
अंतिम घुटन भरी
सांसें ले रही है।
निकुंज - 87
निरूद्देश्य जीवन
काया-क्षीण मलिन-मुख
पिचके गाल धँसी आँखें।
किटकिटा रहे दंत पीत
वस्त्र हो रहे तार-तार।
नीर टपका रहे चक्षु
अस्थि पिंजर था वह भिक्षु।
भूख ने हालत उसकी
बेजार बना रखी थी।
एक मात्र अवलम्ब-लाठी
भी उसकी कांप रही थी।
भिक्षापात्र हस्त में उसके
जिसमें थे कुछ छोटे सिक्के।
यह निरूद्देश्य जीवन -
किंतु लालसा जीने की!
आवाज लगाती‚ ‘माई!‚
भगवान भला करेगा।
आँखों से झांकती एक आशा‚
भिक्षापात्र सम्मुख आ जाता।
कोई कुछ डाल था देता‚
और कोई दुत्कार था देता।
आश्रय स्थल-किसी द्वार की चौखट‚
कोई चबूतरा या मंदिर की सीढ़ियां।
निकुंज - 88
और टांगे सिकोड़े उकड़ूं लेटे
रात भर शीत लहर से ठिठुरना।
ऐसे में यदि कोई सूंघता
श्वान भी पास आ जाता
सटकर दोनों झपकी लेते
गर्मी का अहसास थे पाते।
यह निरूद्देश्य जीवन!
किंतु लालसा जीने की।
नवदिवस-भोर-स्वर्णिम उषा
लाती है संदेश नया -
‘भूलो कल संवारो आज‚
बजाओ नया जीवन का साज।’
किंतु प्रत्येक नव दिवस
उसे कर देता बेबस।
लेकर आता-अपमान दुत्कार
और अकुलाहट भूख की।
इसके साथ ही आती
पाले की एक और सर्द रात
जिसे सोचकर उसे
सिहरन होने लगती
और उसकी हड्डियां
चटखने लगतीं।
निकुंज - 89
जीवन का लक्ष्य
नियमों में जीना चाहते थे‚
बेदाग रहना चाहते थे‚
बंध कर इन्हीं में रह गये‚
क्या था लक्ष्य-भूल गये?
कालिख से बचना चाहते थे‚
धूप में रहना चाहते थे‚
सच-झूठ के फेरे में पड़ गये‚
जीवन का लक्ष्य भूल गये?
कोई उंगली न उठे उन पर‚
इसी खयाल में पड़ गये।
जीवन को जीना तो अलग
जीवन क्या है? भूल गये!
निकुंज - 90
कौन
जीवन एक है
प्रश्न अनेक हैं
दुनिया चल रही है‚
चलती रहेगी यूँ ही।
इन प्रश्नों को लेकिन सुलझायेगा कौन?
प्रश्न एक है
समाधान अनेक हैं
दुनिया व्यस्त है‚
अपने आप में मस्त है।
उचित समाधान लेकिन बताएगा कौन?
समाधान एक है‚
सत्य भी एक है‚
उद्देश्य एक है‚
राह भी एक ह‚ै
लेकिन इस राह पर चल कर दिखलायेगा कौन?
निकुंज - 91
अपनापन
एक छोटी सी मुस्कुराहट
भी दिल जीत लेती है।
मुस्कुरा कर तो देखो!
वार्तालाप एक अजनबी को
भी अपना बना देती है।
बात कर के तो देखो!
बड़ा बन माफ करने से
दूरियां मिट जाती हैं।
माफ कर के तो देखो!
गिले-शिकवे भुलाने से
प्यार ही पनपना है।
गले लगा के तो देखो!
निकुंज - 92
अंतर्मन
इंसान किसी की
जब करता आलोचना
परिभाषित करता उसको
या करता उसकी अवमानना।
भूल जाता है वह -
किसी और का नहीं
बखान कर रहा है वह -
अपनी ही मानसिकता का।
दे रहा है वह परिचय
अपनी ही लघुता का
पहचान करा रहा है -
अपने ही अंतर्मन का!
निकुंज - 93
‘मैं’ और ‘तुम’
‘मैं’ और ‘तुम’ दो नहीं हैं
ध्यान देना‚ एक हैं।
‘मैं’ और ‘तुम’ से ही बना यह घर‚
‘मैं’ और ‘तुम’ से ही सजा यह घर।
गौर से देखो-यह घर नहीं‚
सजाया था जो-यह स्वप्न वही।
प्रयत्न कर देख लो -
इस घर को तोड़ कर देख लो।
असंभव है अलग करना -
‘मैं’ को ‘तुम’ से या ‘तुम’ को ‘मैं’ से
क्योंकि ‘मैं’ और ‘तुम’ दो नहीं‚
ध्यान देना‚ ‘एक’ हैं।
निकुंज - 94
आज के युग में
एक ‘सच्चे इंसान’ को-
आसान है परिभाषित करना
आज के युग में -
उसे ‘पागल’ कह दो!
एक ‘ईमानदार’ को
आसान है ढूंढ़ना‚
आज के युग में -
लाखों में एक गिन लो!
एक ‘बेबाक’ को
आसान है चुप कराना‚
आज के युग में -
उस पर झूठे केस चला दो!
एक सरल इंसान को
आसान है खोजना‚
आज के युग में -
उसे किताबों में पढ़ लो!
निकुंज - 95
क्या ऐसा संभव?
सब धर्मों में श्रेष्ठ
मानवता-धर्म।
क्यों न बने इसके मुरीद!
मिटा बाकी सब धर्म!
क्या ऐसा है संभव?
सब कर्मों में श्रेष्ठ
पर-उपकार।
आओ छोड़ें निरर्थक सब
जिनमें न हो परोपकार!
क्या ऐसा है संभव?
आओ बनाएं मानव को
एक धरा संतान।
मिटा कर सब सीमाओं को
केवल एक राष्ट्र!
क्या ऐसा है संभव?
आओ मिटाएं दुख को
गरीबी को बेहाली को।
वसुधा उपजाती इतना‚
खिला पाएँ हम सब को!
क्या ऐसा है संभव?
निकुंज - 96
सब जन्मों में श्रेष्ठ
है मानव जन्म।
बार बार मिलता
नहीं मानव जन्म।
इस सत्य को आत्मसात कर लें
क्या ऐसा है संभव?
जो पााया है जन्म श्रेष्ठ
मानव तुझे कुछ कर जाना।
हो स्पष्ट लक्ष्य तुम्हारा
लक्ष्य की ओर बढ़ते जाना।
उस लक्ष्य को हम जान लें
क्या ऐसा है संभव?
मानव कल्याण हो सर्वोपरि
तुम्हारे लक्ष्य का आधार।
यही सत्य जीवन का मर्म
वरना धर्म कर्म सब निराधार।
यही आदर्श शिरोधार्य करें
क्या ऐसा है संभव?
निकुंज - 97
ऐसा भी होता है!
एक मुखौटा बनावटी -
ओढ़ना पड़ता है।
जब तब इंसान को
झूठ बोलना पड़ता है।
एक झूठ छिपाने को
सौ झूठ बोलना पड़ता है।
न चाहते हुए भी इंसान को
हँंसने का नाटक करना पड़ता है।
रुदन को छिपा हृदय में
औरों संग खिलखिलाना पड़ता है।
जो नहीं चाहता इंसान
ऐसा बहुत कुछ करना पड़ता है।
मजबूर है क्या इतना इंसान
सत्य को भी छिपाना पड़ता है?
इंसान को इंसान से
वास्तविकता को छिपाना पड़ता है।
रिश्ते नातों की भूल अहमियत
झूठा नाता भी जोड़ना पड़ता है।
अपने अंदर इंसानियत न पा
खुद से शर्मिंदा होना पड़ता ह़ै।
निकुंज - 98
शून्य : एक शाश्वत सत्य?
शून्य में झांका?
देखा!
क्या है उसके अंदर?
शून्य सिर्फ शून्य नही है!
शून्य है -
उद्गम सृष्टि का।
शून्य है -
अंतरिक्ष
जो विस्तारित है
अंतहीन अनंत
शून्य है -
स्रोत अनंत का।
शून्य
जिससे उद्भव
खगोल ब्रम्हांड
नक्षत्र ग्रह तारामंडल।
शून्य से उद्भासित
सब कुछ
शून्य में ही
विलय सब का।
क्या शून्य ही
एक सत्य -
शाश्वत सत्य?
निकुंज - 99
जड़-मानव
कुछ भी चेतन नहीं
सब जड़ है
यह धरा यह आकाश
यह सृष्टि यह प्राणी
यहाँ तक कि मानव भी।
बस गूंजता शोर है
कारखानों की चिल्लाहट
गाड़ियों की पों पों
मशीनों की खड़खड़ाहट है
चारों ओर वायु-ध्वनि-जल प्रदूषण है।
मानव बन गया मशीन है
कारखानों में‚ फैक्ट्रियों में‚
सड़कों पर‚ चौराहों पर
हर तरफ मानव-मशीने हैं
सब जड़ है अचेतन है।
भाव और संवेदना क्या
दर्द भी महसूस नहीं होता
धन‚ वैभव‚ औद्योगिक प्रसार
क्रूरता‚ आतंक‚ शत्रु संहार
इसी शून्य में अरबों मानव-मशीनें।
निकुंज - 100
बारूद के भंडार
अणु शस्त्रागार
विषैली गैसों के अनुप्रयोग
दूषित समुद्र‚ धरती‚ आकाश
इसी में जड़-बुद्धि अचेत-मानव।
निकुंज - 101
आधुनिक हिंदी कविता
आधुनिक हिंदी कविता की
दुर्गति पर होकर दुखी
महादेवी वर्मा जी ने -
सम्मेलन आयोजित करवाया‚
अन्य छायावादी कवियों को
ससम्मान बुलवाया।
भारतेन्दु एवं द्विवेदी युग के
कवियों को भी आमंत्रण
सादर भिजवाया।
प्रगतिवादी युग-कवियों को
सप्रेम देवी ने बुलवाया।
और इस संगोष्ठी के उद्घाटन
के लिए भारतेन्दु जी से आग्रह किया।
हरिश्चंद्र जी ने जिसे
द्विवेदी जी पर टाल दिया -
जिसका सभी कवियों ने
करतल ध्वनि से स्वागत किया।
महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने
औपचारिकताएं निभाते हुए
‚कविता क्या है‛ से शुरू किया -
‚छन्द-बध्द और पद्ययुक्त कविता‚
भावों की होती जिसमें सरसता।
भाषा की समृद्धि एवं सौंदर्यानुभूति
आनंदयुक्त एवं रसानुभूति।
निकुंज - 102
लय युक्त‚ अलंकृत‚ रसमय कविता
कहाँ गयी संदेश वाहिनी कविता?‛
भारतेन्दु जी ने दिल की
पीड़ा कुछ यूं जतायी -
‚निज भाषा की पीड़ा अबहूँ दिल माँ चुभत है।
इन आधुनिक कवियन की‚ चेतना भयी लुपत है।‛
मैथिली शरण गुप्त तब बने प्रस्तोता -
अंतर का आह्वान वेग से बाहर आया -
‚आधुनिक कवि की कविताएँ!
खेल रहीं जन मानस से‚
उठती क्षुब्ध सी अहा!
क्यों नहीं यह नर सत्ता‛।
प्रसाद जी ने दृष्टि गड़ा‚
दिल की व्यथा कह सुनायी -
‚चौंक उठी है कविता आज -
कवि के कवित्व पर!
जिसे मुक्त वह छोड़ रहा‚
और वह फिसल रही।
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से
स्वयं कविता पुकारती
हे कवि कहाँ हो‚ हे कवि कहाँ हो?‛
निराला जी ने कविता को टूटते बताया-
‚यह टूटती कविता!
देखा मैने आधुनिक कवि के हाथों
यह टूटती कविता!
सड़कों पर‚ चौराहों पर‚
निकुंज - 103
कवि सम्मेलनों में टूटती कविता।‛
स्वार्थ एवं धनलोलुपता के पाटों
में पिसती हुई कविता‛।
प्रकृति के सुकुमार कवि ने
प्रकट किये उद्गार यूँ -
‚आधुनिक कवि को देखा?
वह कविता जिसमें‚ उद्गार नहीं‚
रस‚ छंद‚ लय‚ अलंकार नहीं‚
संदेश नहीं‚ प्रकृति से प्यार नहीं‚
अनुभूति नहीं‚ चिंतन भाव नहीं।
ऐसे कवि को देखा?
राम नरेश त्रिपाठी जी ने
कविता को परिभाषित किया -
‚सच्ची कविता वही है‚ जिससे
तृप्ति कवि की पूर्ण हो।
जन मानस को आधार बनाये‚
और उसी की प्रेरक हो।
कवि होता है युग प्रवर्तक‚
कविता उसकी प्रेरणा।
किंतु आधुनिक कवि का
इनसे आँखें फेरना।‛
कवि की अभिलाषा बतलायी
माखनलाल चतुर्वेदी जी ने -
‚चाह नहीं होती कवि को पारितोषिक की‚
चाह नहीं होती कवि को प्रसिद्धि की‚
बस यही अभिलाषा होती -
निकुंज - 104
सुगन्धियुक्त‚ पूर्ण विकसित‚ पुष्परूपी
देवि सरस्वती को अर्पित हों कविताएं उसकी।‛
बच्चन जी भी क्यों चुप रहते -
‚पूर्व लिखने के कवि‚
कविता की पहचान कर ले!
पुस्तकों में नहीं छापी गयी
पहचान इसकी।
न आती कविता औरों की जबानी।
पूर्व बनने के कवि
कवित्व की पहचान कर ले।‛
चौंक उठा मैं।
झकझोर कर उठाया किसी ने।
संगोष्ठी न आयोजित थी कहीं‚
बड़बड़ा रहा था केवल मैं।
लेटा हुआ सोचने लगा मैं -
महादेवी जी ने वास्तव में
इसका आयोजन किया था!
या वे भी देख रहीं थीं
स्वप्न! मेरी तरह?
स्वर्ग में?
निकुंज - 105
कविता
सरल-सरस-भाषा,
सरिता सा प्रवाह,
भाव समेटे अनेक,
दर्द छुपाए अनेक!
होती वह कविता।
बदली घुमड़ बरसे,
रिमझिम बारिश की फुहार,
समाये अपने में,
ज्यों दिल का गुबार!
होती वह कविता।
पढ़े जो कोई उसको,
खुद को पाये उसमें,
महसूस करे दर्द,
भाव एैसे व्यक्त हुए!
होती वह कविता।
निहित हो संदेश,
सम्मिलित हो विवेक,
दर्पण बने समाज का,
सुषुप्त जगाए चेतना!
होती वह कविता।
निकुंज - 106
पाठक और श्रोता के
मर्म को करे स्पर्श
श्याम ही नही श्वेत केशों को
प्रदान करे हर्ष
अधरों पर स्मित हास उर में वेदना!
होती वह कविता।
निकुंज - 107
टीस
देखता हूँ टकटकी लगाए मैं आसमां की तरफ‚
खोजता हूँ मिल जाए‚ कहीं एक बादल का टुकड़ा‚
जो उड़ता हुआ आ जाए‚ मेरे खेतों की तरफ‚
औ उमड़-घुमड़ बरसाये पाानी की रिमझिम धारा।
सूनी आँखे चमक उठें‚ बदली के आगमन पर
मयूर मन मेरा नाच उठे‚ क्षितिज पर बदली देख कर।
मेरे खेत की प्यासी मिट्टी‚ असिंचित‚ करे इंतजार‚
जल की बूंदों की‚ हो कर बेकरार।
उमड़-घुमड़ करती बदली‚ कभी कर्ण भेदी तुमुलनाद‚
कभी बदली का वक्ष-वसन चीरती बिजली का आल्हाद‚
मन में उठती आशंका‚ आज कहीं सौदामिनी गिरेगी!
शंका पर डंका बजता‚ मेरे खेतों की प्यास बुझेगी।
गरजे लेकिन बरसे नहीं‚ उड़े बदली संदेश लिये‚
पुलकित मन हो उदास पुकारे-लौट आ स्वातीदृबूंद पिये
सूनी आँखों देखता दूर तक‚ बदली को ओझल होते
और चिरप्रतीक्षित आकांक्षा को दिवा स्वप्न सा टूटते।
इक टीस सी उठती मन में -
‘बदली क्यों रूठी मुझसे!
क्या प्यार मेरा अपूर्ण था
याँ उसे लगाव किसी गैर से?’
निकुंज - 108
अनंत प्रेम
सागर सिकता में लिपटी‚
किसी चित्रकार की कला हो तुम!
हवा को आँचल बनाये लहराती‚
किसी गीत का सरगम हो तुम!
निचुड़ते घनकेश बादलों से‚
किसी कवि की सुंदर प्रेरणा हो तुम!
कोकिल कण्ठ मलिका‚
किसी साज का सुर हो तुम!
चांद तारों से जड़ी‚
किसी शिल्पी की उत्कृष्ट कृति हो तुम!
अनुपम सौंदर्य को समेटे‚
मेरे अनंत प्रेम का स्रोत हो तुम!
निकुंज - 109
रूहानी
हवा के हल्के - हल्के झोंके
दरवाजे पर धीमी - धीमी
दस्तक सी देते हैं‚
मानों मेरा प्यार मुझे
जगा रहा है -
कान में हौले-हौले फुसफुसा के।
बंद किवाड़ के पटों को‚
मैं खोलता हूँ - आहिस्ता आहिस्ता‚
तन मन से लिपट जाती है‚
समा जाती है ये हवा‚ मानो -
चिरकाल का विछोह‚
आज खत्म हुआ है।
मेरा अंग-अंग भर उठता है‚
रूहानी ताजगी से!
निकुंज - 110
प्रीत
हे अनिंद्य सुंदरी
तुम्हारी चितवन से
मेरे हृदयदृवीणा के तार
झंकृत हो उठे हैं।
इन्हें तुम सुर दे दो!
अब तक अलापते अनर्गल
इस वीणा के तार
आज मचल उठे हैं‚
तुम्हारे वाद्य प्रवीण सुकोमल
हाथों की चंचल उंगलियों
के स्पर्श को।
इन्हें तुम राग दे दो!
हे अनिंद्य सुंदरी
जब से तुम्हे देखा
मेरा कवि मन मचल उठा है
वह कविता भूल गया है।
उसे तुम गीत दे दो!
तुम्हारी निर्दोष चितवन
बयार‚ नीर‚ उर्वरा हुई‚
प्रेमदृप्रौध बन चुका है
प्रस्फुटित हो बीज वह।
इसे तुम सींच दो!
निकुंज - 111
तुम्हारे प्रेम में आकण्ठ डूबा
यह दिल मदमत्त
सर्वस्व समर्पण को उन्मत्त।
इसे तुम प्रीत दे दो!
निकुंज - 112
पिया न आये
सांझ घिर आयी‚
आलोक भी छिप रहा‚
संध्या की अस्तोन्मुख किरनें
भावातिरेक में -
अश्रु निर्झर बह चले।
कि‚ पिया न आये!
बैलों की ग्रीवा में सजी
घण्टिया भी बज उठीं‚
कि धूल भरे वसन लिये
मनमोहन लौट पड़े।
पच्छम में यह हलचल कैसी
धरा से नभ तक धूल कैसी?
गोधूलि बेला में झींगुर गान मध्य
चरवाहे भी लौट पड़े।
खग गगन में चहक रहे‚
नीड़-की ओर उड़ान भर रहे
रीता मन मेरा कंपित होये
कि‚ पिया न आये!
घिर आयी निशि‚
तम हुआ चहुँ ओर
निकुंज - 113
द्वार-द्वार दीप जल उठे‚
जगमग-जगमग कर उठे।
मंदिर के घंटे घड़ियाल बज उठे‚
आरती का हुआ समय‚
ढोल-मंजीरे बज उठे‚
स्तुतियों के स्वर सज उठे।
निशा का गहराता अंधेरा
तम में ड़ूबा मन मेरा
रह-रह उद्विग्न हो उठे -
कि‚ पिया न आये!
चंद्र-किरण-हीन-तिमिर
दीप सब खो गये
रजनी का मध्य प्रहर
तात सब सो गये।
जग में निःस्वर शांति व्याप्त
हतभागिनी मैं‚ पाऊँ संताप‚
नयन मेरे मुझे रुलाएँ‚
कि‚ पिया न आये!
निकुंज - 114
क्या हो तुम!
जाने तुम क्या हो -
पुर्वा बयार हो‚
नदिया की धार हो‚
या ज्योत्सना का प्यार हो तुम!
संगीत का साज हो‚
वीणा की तान हो‚
या गीत का भाव हो तुम!
कस्तूरी की महक हो‚
ऋतु बसंत हो‚
या आकाश दिगदिगंत हो तुम!
सुधा का प्याला हो‚
छलकता यौवन की हाला हो‚
या हवा का गीत हो तुम!
जाने तुम क्या हो -
शोख कली हो‚
गुलाब की पंखुड़ी हो‚
या सावन की झड़ी हो तुम!
निकुंज - 115
तुम पास तो आओ
तुम पास तो आओ जरा‚
दिल उदास है आज‚
अंधेरों में घिरा है‚
एक दीप तो जला जाओ।
नयनों में चंचलता नहीं‚
अधरों पे मुस्कान नहीं‚
जीवन में बहार नहीं‚
कोई फूल तो खिला जाओ।
तन में प्राण नहीं‚
मन में भाव नहीं‚
सांसों में महक नहीं‚
देहगंध बिखरा जाओ।
पावों में गति नहीं‚
हाथों में हलचल नहीं‚
हृदय में धड़कन नहीं‚
आकर सीने से लग जाओ।
निकुंज - 116
प्रियतम
रातभर सोयी नहीं‚
सपनों में खोयी रही‚
निर्निमेष प्रियतम के ख्यालों
संग मैं खोयी रही।
लावण्यमय मोहित रूप को
रातभर निरखती रही‚
सरल‚ सहज‚ सलोने मीत
को अर्पित होती रही।
मधु यौवन रस
मदिरा सा पिलाते रहे‚
प्राण-हृदय मेरे
मुझे नींद से जगाते रहे।
मनभावन प्रियतम
सपनों में आते रहे‚
पलकों से सौंदर्य मद
नयनों का पिलाते रहे।
कपोलों की लालिमा
चुम्बनों से चुराते रहे‚
अधरों पर अरुणाई
अधरों से सजाते रहे।
निकुंज - 117
उद्वेलित यौवन भार
आलिंगन में बलखाते रहे‚
पावन स्निग्ध मधुर प्यार
सारी रात छलकाते रहे।
तन पर मेरे चाँदनी से
सोलह सिंगार करते रहे‚
मनभावन प्रियतम
सपनों में आते रहे।
निकुंज - 118
यौवन
सोने की थाली में यदि
मैं चाँदनी भर पाऊँ‚
प्रेम रूप पर तेरे गोरी‚
भर-भर हाथ लुटाऊँ।
हवा में घुल पाऊँ यदि
तेरी साँसों में बस जाऊँं‚
धड़कन हृदय की‚
वक्ष के स्पंदन मैं बन जाऊँ।
अलसाया सा यौवन तेरा‚
अंग-अंग में तरुणाई‚
भर लूँ मैं बाहें फैला‚
बनकर तेरी ही अंगड़ाई।
चंदन बन यदि तन से लिपटूँ
महकूँ कुआँरे बदन सा
मदिरा बन मैं छलकूँ
अलसाये नयनों से प्रीत सा।
स्वच्छंद-सुवासित-अलकों में
वेणी बन गुंथ जाऊँ‚
बन नागिन सी लहराती चोटी
कटि-स्पर्श सुख पाऊँ।
अरुण अधर कोमल-कपोल
बन चंद्र किरन चूम पाऊँ‚
सेज मखमली बन
तेरे तन से लिपट जाऊँ।
निकुंज - 119
दर्पण देख लिया होता!
न कदर की तूने मेरी
कोई बात नहीं‚
मेरे प्यार को आज़मा के
देख लिया होता!
मेरे प्यार के आमंत्रण को
हंसी में तूने उड़ाया‚
न जाना था ‘प्यार क्या है?’
हमसे पूछ लिया होता!
कभी आँखों में झाँक कर
देख लिया होता‚
या दिल में उतर कर
महसूस किया होता!
धड़कनों से मेरी
तूने पूछ लिया होता‚
या दर्पण में खुद को
कभी देख लिया होता!
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