1. तुलसी चौरा 2. शहर 3. पूजा का पीर 4. शैशव का युवापन 5. कल था एक गाँव 6. इस सदी को --- 7. होली 8. होली 2 9...
1. तुलसी चौरा
2. शहर
3. पूजा का पीर
4. शैशव का युवापन
5. कल था एक गाँव
6. इस सदी को ---
7. होली
8. होली 2
9. गाँव की गली
10. परिभाषा
11. ईश्वर गणित है
12. अपार अब मैं हँसूं
13. चौराहा सा मन
14. नारी है नारायणी
15. "हिस्टीरिया"
16. पता शुद्ध जीवन का
17. जंगल-जिएँ
18. एकाकी एकलव्य----
1 तुलसी चौरा
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हुई सुबह तुलसी चौरे पर.
तुलसी के कोमल फुनगी को
रवि ने हल्के छुआ ,
हुआ मन चंचल, हुआ विहान.
अनुभूति ईश्वर का उपजा अंतर्मन में,
संस्कार पूजा का फैला इन नैनन में.
अधरों ने मन्त्रों को छुआ,
हुआ चेहरा कमल
आस्था बनी हमारा गान.
हाथ जुड़े तुलसी पौधे को
हुआ हाथ में शक्ति का संचार.
शीश झुका,
फिर पाया उन्नत गौरव का सुविचार.
लगा थिरकने सारा पल-छिन
आंगन का गोबर गहराया .
देहरी पर से
विजय-कामना लेकर पद-चिन्ह
काल-खण्ड का
नभ के नीचे तन लहराया.
शाम झुका तुलसी-चौरे पर
चौरे के सोंधी माटी पर
गंध हवा ने छुआ.
हुआ मन पल्लव
शीतल हुआ वितान.
लौटा चरण कर्म-भूमि से
कुरुक्षेत्र के ,
अंतर्निहित उष्णता शीतल
स्निग्ध श्रेय से .
दीया जलाया इस आंचल ने
घूंघट सरका
आओ मेरे प्राण.
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2 शहर
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शहर में मुझे तो शहर ढूंढे न मिला.
यहाँ था असभ्यताओं का सिलसिला.
गुनाहों के कब्र से निकलते लोग देखे.
उसीके यश में गाते,उछलते लोग देखे.
ठंढ़ी रात में पावों से पेट ढंके लोग देखे.
जूठन के लिए लड़ते –झगड़ते लोग देखे.
तड़पकर भूख से मृत,मैंने मेरा देह देखा.
मैं डरा किन्तु,डर को डरकर भी न फेंका.
टिकाये शव पे शहर को अपना पांव देखा.
मेरे अस्तित्व के शव को क्षत-विक्षत देखा.
इस शहर में दोस्तों,ऐसा भी मैंने ठौर देखा.
उजले वर्ण,मांसल जिस्म बिकते और देखा.
बिके लोगों के आस्था बिकते सौ बार देखा.
बिकते लोगों का है यह अजूबा संसार देखा.
प्रतिभा को जूते सिलते देखना है तो आइये.
अपनी परछाईं को यहाँ रोते–सिसकते पाइये.
गिद्ध की दृष्टि,स्यार की चालाकी,पशुवत हिंसा से लैस है यह.
स्वाभिमानी आत्माओं को देखकर तुरत खा जाता ‘तैश’है यह.
कुछ ग्रन्थ लिखकर क्षुद्रता व शुद्र्ता वे थोपते हैं.
शीर्ष पर टिकने-टिकाने वर्ण,जाति,धर्म को तौलते हैं.
जीवित रहने के नियम इस शहर में उसकी मर्जी।
मरेगा मृत्यु महल या फुटपाथ पर उसकी ही मर्जी.
मृत देह को भी कफन मांगते मेरे जैसे लोग देखे.
इस शहर की आत्मा है मृत, ऐसा कहते लोग देखे.
इसलिए
शहर जब सुनसान होगा
मैं आऊंगा तुझको ढूंढूंगा
तबतक के लिए दे दो रुखसत मुझे
इस बाबरे श्हर में अभी
पाना मुश्किल है मेरा जीवन तुझे।
किसी रंगीन सपने में खोया है यह॰
न जाने कैसा नशा करके सोया है यह।
सारी हस्ती यहाँ आपाधापी में है।
अंकित मानवता बंधी कापी में है।
यह हवा, यह गगन; सूर्य, तारे, शशि
निज ख्यालों में डूबे चले जा रहे
जो धरती जरा सुगबुगाए यहाँ
घास कटने लगे,पेड़ गिरने लगे
हो जाती हवा है ये जंगली यहाँ
इस जंगली हवा का नहीं अंत है
और रिश्ते भयावह करें क्या बयां
शहर जब सुनसान होगा
मैं आऊंगा तुझको ढूंढूंगा
तबतक के लिए दे दो रुखसत मुझे
दर्द से चीख़ते शहर में अभी
पाना मुश्किल है मेरा जीवन तुझे ।
रेल-पथ पर पड़ी लाश किसकी है यह!
यह मरा है जरा सुन तो,क्या-क्या कह!
छोडकर ग्रामांचल भागा था जब.
वह केवल नहीं सब अभागा था तब.
आसमाँ सूखी आँखों से रोता रहा.
अश्क में हर फसल को भिगोता रहा.
पानी था चाहिए, मेघ बरसा नहीं.
कैसे कह दें कि रोटी को तरसा नहीं.
जोरू को ले उड़ा यह शहर ऐसे कि
हर कदम पर रिश्ते बहुत से मिले.
पर,वही सह सकी न ऐसे रिश्तों के दर्द.
मौन रहकर वह शायद मिल लेता गले.
कुछ डिग्रियां कुछ कागज के, लेकर चले.
बिक गया किन्तु,बनिये के दुकान में.
आरजू इस तरह सारे सपने तथा,
हो दफन था गया इस श्मशान में.
शहर जब अनजान होगा,
मैं आऊंगा तुझको ढ़ूँढ़ूँगा
तबतक के लिए दे दो रुखसत मुझे
इस ढहते शहर में सचमुच अभी
पाना मुश्किल है मेरा जीवन तुझे.
हर दिशा मौन साधे चला जा रहा.
उसको एवम् वर्क में लगा जा रहा.
कोई इनको दिशा तो बता दे जरा.
मूढ़ सा संकल्प रास्ते में खड़ा.
सभ्यता के समय वह मसीहा सा था.
है उसने संवारा इसे लहू करके चुला.
आज मोड़े हुए मुँह कहाँ जा रहा!
आज अनुभव करे इनको कह तो जरा.
ये चौड़ी सडक,यह भव्य भवन.
किस पसीने को पीकर यूँ अकड़ा हुआ?
इनसे अनुनय-विनय है कहिये इन्हें.
आज वह हाथ बिल्कुल है जकड़ा हुआ.
हाथ करके बढ़ा ये उठावें हमें,
अपने रिश्ते का यह एक बड़ा फर्ज है.
अगर फर्ज अब ये समझ न सकें ,
कहिये इनको युगों का मेरा कर्ज है.
है सिमटता शहर फैलकर जा रहा.
मानवोचित क्रिया ठेलकर जा रहा.
शहर जब अणुबम से छितरायेगा.
मैं आऊंगा तुझको ढ़ूँढ़ूँगा
तबतक के लिए दे दो रुखसत मुझे
घृणा रोपते इस शहर में अभी
पाना मुश्किल है मेरा जीवन तुझे.
शायद सभ्यता है हो विकसित गई.
संस्कृति तथा हो परिमार्जित गई.
काले कौवे से कर्कश गला हो गया.
भगत बगुले की मानिंद नजर हो गया.
गिद्ध की दृष्टि से देखने है लगा.
लोमड़ी से धोखाधड़ी है मिला.
भेड़िये की तरह तन है गर्दन गया.
खूनी केहर से सीखा पैंतरा सब नया.
बिल्ली जैसे ही श्राप देता है यह.
पूरे घर का गला नाप देता है यह.
इस सभ्यता से अनभिज्ञ हम रह गये.
ऐसी संस्कृति से अनजान भी रह गये.
कल्पना कीजिये उस दिन की जरा.
रोयेगा सहानुभूति पायताने पड़ा.
प्रेम दुश्मनी के अर्थ में होगा प्रयुक्त.
शब्द सारे ही स्वार्थ से होगा संयुक्त.
शतरंज के मोहरे सा होगा चलन.
भृकुटी ताने हुए आदमी का मिलन.
नाग बनकर लगे लोग रहने यहाँ.
वन तो नागों का है हम जाएँ कहाँ?
वायदा क्या किया था सृष्टिकर्ता से हम.
हो जा रहे क्या-क्या कर्ता-धर्ता से हम.
शहर जब मरुस्थान होगा.
मैं आऊंगा तुझको ढ़ूँढ़ूँगा
तबतक के लिए दे दो रुखसत मुझे
सभी मूल्य खोते शहर में अभी
पाना मुश्किल है मेरा जीवन मुझे.
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3 पूजा का पीर
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तराशे हैं बहुत पत्थर बहुत ईश्वर बनाये हैं.
जिसे कहते हैं पूजा,थाल भी हमने सजाये हैं.
समझ आये न वैसे छंद हमने भी दुहराए हैं.
युगल कर जोड़ अपनी वेदना हमने सुनाये हैं.
बहुत से चिन्ह और संकेत हैं अपने लिए माना.
इन्हीं पाषाण को हमने मसीहा सा तथा जाना.
नियति कल हमारा पीर था, पीर अब भी है.
कल तकदीर थे आंसू यही तकदीर अब भी है.
किसी प्राचीन युग में हो प्रकट वरदान थे देते.
अगर शास्त्रोक्त सच्चे शब्द हमें प्रमाण तो देते.
बहुत से वर्ष,महीने,दिन किये हैं हमने भी विनती.
कहा की त्रुटि विनती में अत: कोई नहीं गिनती.
कभी अनुभूति ईश्वर का, कभी विध्वंस,सृष्टि का.
कभी जब तर्क पर तौला हुआ ये भरम दृष्टि का.
जनम का मृत्यु निश्चित है,मृत्यु का तुम कहा करते.
बड़ा सा धुंध फैलाकर सभी ईश्वर बना करते.
सभी भयभीत है भय से अनिश्चित क्योंकि सारा कल.
हर जीवन में ही शोषण है यही उसका बड़ा सम्बल.
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4 शैशव का युवापन
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जिसे होता रहा उपहास का अहसास,
उपेक्षित जो रहा हरपल,
अन्तर्मुखी होता गया मानव
हमेशा भीड़ से
पलायन को प्रस्तुत
वह रहा योद्धा.
कि जिसने यातना के हर पलों को
खुद जिया,और
यातना ही यातना देखा किया हर क्षण
ऋणात्मक रुख करेगा.
यदि वह पा सका अवसर
बगावत को उठेगा
विद्रोह को वह हवा देगा.
कहीं दु:ख से घिरे समुदाय में हो
पीड़ा झेलकर,सोखकर आंसू
विवशता में यदि बढ़कर बड़ा हो
सहेगा दु:ख,श्रमी होगा परन्तु,
आक्रोश उसके साथ पलता ही रहेगा
किन्तु,दया,करुणा,कृपा का पर्यायवाची
सहिष्णु होगा वह
और सत्य के संग्राम को जीवित करेगा.
यदि किसी राजकुल में आ गया तो
इंद्र की ही मानसिकता से सदा जलता रहेगा.
युद्ध में झोंका करेगा गुलामों की तरह
हर ही शाषित वर्ग को वह.
यदि 'जीवन के लिए' विद्रोह के ही बीच जन्मा
विरोधों से ही उसने हर्फ़ सीखे
हरेक मानवीय संग्राम को प्रस्तुत रहेगा.
समर ही जिन्दगी का अर्थ वह करता रहेगा.
यदि अर्थ के गणित और समीकरण
विरासत में मिलेगा,ज्ञात है तो
कायरों की तरह भागते संघर्ष से हर,
वह बाँटता जीवित रहेगा.
अगर पहचान कर्मफल से वह पाता रहा तो
भला नेता,पुरोधा,सुधारक,श्रेष्ठ होगा.
प्रशंसा ही यदि जाता किया हो
कि वह उठता है अथवा बैठता है
बुरे में एवम् भले में
डर है कि
अंतर कर सकेगा.
बढ़ावा जो कहीं पाता रहा हो
बड़े विश्वास से वह खड़ा होगा.
बढ़ेगी क्षमता हर संघर्ष की तब
नयापन कार्य हर में सदा प्रारंभ होगा.
यदि वह न्याय करना जानता है
उसे है ज्ञात कि अन्याय क्या है
बहुत नजदीक से बर्बाद होते और रोते व सिसकते
सत्य को देखा किया है.
जो पाता प्यार दुनिया में सभी से
पला यदि मित्रता के बीच है वह
यदि देखा किया उसने सदा कि
कैसे लोग लोगों को स्वीकृति दे गये हैं.
कि कैसे स्नेह को वह बांटते हैं
बांचते हैं,सांचते हैं
बड़ा इन्सान होगा.
आशय उसका महान होगा.
अंतर्राष्ट्रीयता की बातें कर सकेगा.
यदि अपराध करते देखते है
पला वह मुफ्तखोरी में सदा यह जानिए.
सिखाता है नहीं अपराध करना
यह गरीबी वह गरीबी
इतना तो बन्धु मानिये.
छिद्रान्वेषी लोग जो भी हो गये हैं
ईर्ष्या,द्वेष में पलते रहे हैं.
सराहेगा तो केवल एक केवल
सराहा ही गया जो जिन्दगी में.
अस्वीकृति के सिवा जो कुछ न पाया
उद्दण्डता के सिवा क्या जान सकता.
कि जिनके माँ-पिता हैं सौम्य,संस्कृत
सभ्य,परिष्कृत
अनुशासन-प्रिय सभी सन्तान होंगे.
वहाँ से सीखकर वह वैर आया
प्रशस्ति पा सका न
स्वीकृति पा सका न
अहम एवम् रहा हावी सदा ही.
अगर छेड़ी गयी हैं भावनाएं
दैहिक,देव-दत्त या कि भौतिक,आध्यात्मिक
तो होगी आस्था खण्डित तुरत ही.
जिसे अहसास होगा गहन पीड़ा मानवों के
कहीं गाँधी,कहीं गौतम,कहीं सुकरात होगा.
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6 कल था एक गाँव
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छोड़ चुका हूँ गाँव कि जब मुझे कोई ज्ञान न था.
इस शह-मात वाली दुनिया का कोई भान न था.
सब सीधे सच्चे मन वाले ,सब अच्छे, सब सुंदर थे.
सब विश्वासी,सब सहयोगी,सब करनी के धुरंधर थे.
मेरे छोटे समझ में इतना था विशाल एक दर्पण सा.
दिश रहित मैंने मन मन सबका होगा मेरे दर्पण सा.
इतने बीते वर्ष आज भी मन में कसक किन्तु, रहता.
बार-बार ही इन आँखों में,यादों में है मेरा मन क्षत सहता.
बार-बार ही इन आँखों में हाँ, वह सब सजीव है हो जाता.
वह पगडण्डी, वह लघु पोखर, वह नदी ,पहाड़ी,पनसोता.
वह खेत, चौर, गोचर, मैदान ,वह रेतीले टीले,खाई.
साकार चला आता समक्ष हर पल की कथा अरे! भाई.
जब चला तलाशने मैं इसका कारण तो मन दु:खित हुआ.
किस भविष्य के लिए गाँव को छोड़ा था मन भ्रमित हुआ.
कहाँ शांति, सुख-चैन कहाँ है, कहाँ कौन ऐश्वर्य बता.
इतने भौतिक सरंजाम का कितना,क्या,सौन्दर्य बता?
मन अशांत है,व्यथित,क्लांत सा,सब कुछ में कुछ कम है.
और कहो हर संपदा के बीच भी हाय! कहो कुछ तो गम है.
सरल,सरस,समरस,विशाल मन ,छल-प्रपंच से कोसों दूर.
आत्मीय अपनत्व लबालब , स्नेह, नेह से भरपूर.
वह कम क्या है,अनबूझा है और रहेगा तय जानो.
बिना वजह ही छूट गया सब,सुख न मिला भी सच जानो.
बहुत विशाल सपने दिखलाये ,इस अबोध छोटे मन को.
क्या-क्या दु:ख तकलीफ दिलाये ,व्यथा,घुटन छोटे तन को.
कितने अच्छे गाँव,गाँव के लोग लोग के बोल बोल के अर्थ अहो.
उनका करके त्याग,लिए हम भाग, दंड क्यों हो न कहो.
अंतर्मन विचलित बिलकुल है,जाने? क्या अवसाद भरा है.
जो छूटा अनमोल हैं कहते, जो पाया सब मोल भरा है.
यही कचोटता है इस मन को बार-बार मन लौट रहा है.
थका थका सा तन हो जाता अद्भुद सा कुछ कौंध रहा है.
सौ भौतिक यहाँ,शुन्य है गाँव में किन्तु,पर अशांत मन.
रखते विश्वास परस्पर किन्तु,चाहे हो जितना गंवई मन.
तथाकथित इस सभी शहर में अणु जैसे छितराते हैं ये.
बात-बात पर अर्थ-भरा आर्थिक और छटा दिखलाते हैं ये.
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8 होली
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चलो आज होली के पट खोल दें हम.
आओ कि द्वार, दिल के भी अब खोल दें हम.
चलो प्यार बांटें लोगों से हिलमिल.
ऋतु भर लुटाया है फूलों ने खिल-खिल.
चलो रंग लगायें नये साल को हम.
खुशनुमा भी बनाएं,नये साल को हम.
बड़े भाग से मिलता है ये होली दुबारा.
भले! वैर भूलो, ये है आग्रह क्या खारा?
बड़े वैरी रस्ते को रोके खड़ा है.
अजी! युद्ध, दूषण, प्रदुषण अड़ा है.
गला कट रहा है बहा खून जाता.
अगर वैर रखना तो इससे ही भ्राता.
यहाँ आदमियत के आँखों में आंसू.
जुटो आ चलें आज पोछें ये आंसू.
घृणा फैलती गंदगी की तरह है.
मची आपाधापी है क्यों? क्या वजह है.
चलें अपने अपने ही मन को टटोलें.
दिलों के सभी बन्धनों को भी खोलें.
इस होली को पूरे ही अर्थों से भर दें.
और पर्वों के सारे तदर्थों से भर दें.
अजी फाग गाएँ तो गीतों में मन हो.
इस जीवन के सारे ही एवम् तपन हो.
जाये तो कहते जाये कि हो ली
तुम्हारी ऐ! मानव, तुम्हारी मैं होली.
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9 होली 2
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चहुँदिश फैली चहल-पहल है
आनेवाली है होली.
मन की मस्ती,तन में गश्ती
लगा रही है रंगोली.
इन्द्रधनुष सी रंगी जा रही
गोरी की अंगिया, चोली.
मौसम युवा,जवानी ऋतु की
बाँट रहा है भर झोली.
बिना वजह अंगड़ाई तन में
नहीं लगाती है बोली.
फूलों के मुख रक्तिम-रक्तिम
गात में फैली है होली.
सबके अधरों पर गुम्फित है
फाग सुहाना मधुर अति.
रंग,रंगोली के रथ चढ़कर
होली लाये प्रीत सखि!
सुंदर स्मृति सम्बन्धों के
लेकर आये यह होली.
सुंदर हार्दिक संदेशों को
देकर जाये यह होली.
पर्वों में अति पावन होली
जीवन में पावनता लाये.
जीवन के सूखे कुण्डों में
जीवन-रस भरता जाये.
सिद्धि कर्मों में भर जाये
मन्त्रों के आवाहन का.
सारे स्याह मिटा जाये यह
जीव,जगत का जीवन का.
स्वर्णसिद्ध हमको कर जाये
हमको दे जाये उल्लास.
होली के अणु,परमाणु में
जीवन ही होवे अहसास.
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10 गाँव की गली
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गाँव की गली.
गुड़ की डली.
मैं शहर की छली.
अप्रिय सत्य में ढली.
दारिद्रय में हुई गली.
बिखरी गली-गली.
सूर्य किरण से जली.
चाँद की रौशनी से दहली.
प्रकृति के पास पली.
एकाकी जीवन का एकांत.
कोई हलचल नहीं
मेरे जीवन में सब कुछ शांत.
मेरा जीवन
हताश,निराश नितांत.
मन
अनिश्चितता से उद्भ्रान्त.
मेरी प्रकृति और मैं गाँव.
क्यों इतना ठिठका हुआ है
मेरा पांव!
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11 परिभाषा
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भूत- गया,बीता.
वर्तमान- पसीना-पसीना.
भविष्य- अनगढ़ घड़ा.
12 ईश्वर गणित है
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ईश्वर गणित है.
गणित, प्रारंभ और अंत से पूर्व का.
होना प्रारंभ नहीं है.
नहीं होना अंत नहीं है.
होना और नहीं होना गणित है.
अत: होना और नहीं होना ईश्वर है.
गणित ने स्वयं की सृष्टि का आकार
ब्रह्म-सृष्टि से पूर्व गढ़ा.
फिर ब्रह्म बन रचना का मन बनाया.
प्रारूप तो गणित के कोख से जन्मा.
कर्म स्थापित करने गणित बना विश्वकर्मा.
गणना की व्युत्पत्ति हुआ ही होगा गणित-धर्मा.
तारों,नक्षत्रों,ग्रहों का आकार और परिभ्रमण.
उनके आपसी व्यवहार का एवम् गणन.
अनायास नहीं, गणित के रसायन में रहा होगा.
और रसायन के गणित ने भौतिकता गढ़ा होगा.
तब.
प्राण के हर कण तथा क्षण में जीवित है गणित.
इसलिए ईश्वर गणित है.
व्योम की धरती में गणित का अनन्त विस्तार है.
गणित के सूत्रों का खुद गणित ही सूत्रधार है.
प्राणी में प्राण करता है योग,वियोग,गुणन,विभाजन.
प्राण को प्राण देता है गणित और करने का प्रण.
स्पंदन है इस महत् ब्रह्माण्ड का चिरस्थायी मूल.
स्पंदन गणित के सूत्र से रहा है फल-फूल.
अभी जो कुछ वृहत् ब्रह्माण्ड में है दृश्य.
उससे अधिक ‘सत्य’ अबतक है अदृश्य.
उस अदृश्य में स्यात् फैला है स्पंदन.
उस स्पंदन में स्यात्
समाहित है ‘आग का स्फुरण’.(ऊर्जा)
स्फुरण, गणित का संकल्प करके धारण.
स्वयंभू हो,हो जनते हों परमाणवीय कण-विकण.
स्पंदन चुम्बकीय तरंगों का जनक.
चुम्बक गति करता है उत्पन्न.
सर्वदा और सर्वथा गतिशील है गति.
गति विद्युत कणों के प्रवाह की नियति.
गणित इसलिए पहला ईश्वर है पहला स्रष्टा.
रचना गणित का कोई षड्यंत्र तो नहीं
या षड्यंत्र का द्रष्टा.
क्योंकि सारा ही दृश्य जगत सर्वदा अस्थिर.
क्योंकि सारा ही दृश्य जगत कभी रहा नहीं अजर-अमर.
गणित विष्णु का सुदर्शन चक्र है और शिव का त्रिशूल.
सब कुछ नष्ट कर देते ये देवता,रहता है गणित का मूल.
रचना के कणों में योग है.
कणों के ध्वंस में वियोग.
होती है गुणन से ब्रह्म की रचना.
विभाजन भंग करता है रचना ही नहीं रचना का कोख.
सृष्टि में हर रचना का स्वरूप
गणित के गुणन से रचित.
कमल के पुष्प दल,विल्व पत्र का रूप.
गणित के ही नियमों से है खचित.
---------------विस्तृत होने को सज्ज.
13 अपार अब मैं हँसूं
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अगर मैं हंसा
अगर मैं हंसा जुड़ेंगे दरके पहाड़.
सूखी नदियों में आ जायेंगी बाढ़.
बेतहासा भागती हुई हवा जायेगी ठहर.
यह खन्डहर होगा एक युवा सजा-धजा शहर.
मेरा हंसना, मुझे स्वीकार करना है.
मैं पैदा हुआ हूँ बादलों की तरह आंसू बहाने?.
हँसी उधार दो अपार मैं हँसूं .
लकीर सा खिंचूं अनन्त में बिना विराम के.
धूप से डरूं नहीं न छाँह लील ले मुझे.
इसलिए उधार दो हँसी.
गोस्त खा गये तो क्या! प्राण शेष चर्म में.
चर्म है बिलख रहा उधार को तरस रहा.
मैं सुलग रहा अधिक अधिकार मांगने हँसी!
विद्रोह को रोक शांति मैं अभी परस रहा.
कठिन न राजद्रोह है अश्रु से न मोह है.
छिन गयी हँसी तुम्हारे छल से हार,टूट कर.
तुम कुटिल मैं सरल रख दिया हमें ठूंठ कर.
विद्रोह मेरा ध्वंस है करूंगा मैं अभी नहीं.
हँसी उधार दे तनिक मांगता सभी नहीं.
मैं हंसा तरंग बज उठा करेगा मौन में.
पुष्प-गुच्छ शांति से जान लेगा कौन मैं?
इस उदास भूमि में कोंपल भी फूट आयेंगे.
प्राणहीन ‘मान’ में सम्मान अटूट आयेंगे.
श्याम इस शरीर में श्याम कृष्ण का वास है.
श्रम उत्तप्त देह मेरा सो तेरा दीर्घ साँस है.
हर प्रहार ने मुझे पुकार कर पतित किया.
अधीर व्यग्र प्राण ने मुझे तभी दलित किया.
अनीर श्वेद था गिरा यही था श्रम का सिलसिला.
मेरा वजूद पिघल गया कठोर तप से यह मिला.
मन्दिरों के द्वार पर स्वर्ग के भीड़ में.
चुभो गया कोई मुझे नरक का नोंक रीढ़ में.
उत्तुंग उमंग में मेरा कहीं न नाम था लिखा.
कथांत में मुझे कुतर-कुतर गया टिका.
मैं प्रसन्न हाथ में रिक्तता मसल रहा.
सुधा के घट में मेरे भरा सदा गरल रहा.
क्रोध को दबा-दबा ढोंग जीने का किया.
वह अकाल मृत्यु मैंने अब जिया तब जिया.
हर रुदन पर सोचता कि आखिरी रुदन है यह.
पर,गये सब आंसू सूख आखिरी कथन है यह.
हँसी उधार दो अपार अब मैं हँसूं.
मेरी तेरी ग्लानि सब उतार दो
अपार अब मैं हँसूं.
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14 चौराहा सा मन
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चतुर्दिक चौराहा सा पसर गया है मन.
कहीं क्षोभ,क्लेश,क्रोध कहीं तिक्त उत्पीडन.
टूटे प्लास्टिक और चीगदी कागज,धातु के टुकड़े बीनती
औरतें,बच्चे और विक्षिप्त? बुजुर्ग पुरुष
पड़ोली के हाट से जरा हटकर.
इसमें मेरे हिस्से का अनचीन्हा अंश
कुरेदता है मुझे मेरा क्षोभ बनकर.
नाले के उपर पत्थरीले बेंच पर
भाड़े/मजदूरी पर चढ़ जाने की उम्मीद लिए
बेतरतीब जमे बेचैन लोग.
इसमें क्या! है और कितना!
मेरे द्वारा उत्पादित बेचैनी उनके आँखों से
मेरी आँखों में उतर
मेरे हृदय को उद्वेलित करता क्लेश का योग.
अस्त-व्यस्त आबादी का झोंका
सुबह-सुबह अपने अहसास में अहं खोजता
चौराहे पर
इर्ष्या से उपजे तनाव में भागता दौड़ता है.
इन असहिष्णु भीड़ के तनाव से
मेरा क्रोध अग्नि सा क्यों धधकता है.
इस चौराहे पर जहाँ राहें मिलती हैं
लोगों को साझा करने से अपने दु:ख.
मेरा योगदान जितना हो, है अप्रशंसनीय.
विभेद होना उनमें क्योंकि, सुरक्षित है मेरा होना.
अत: उत्पीडन के दंश देते हैं मुझे दु:ख.
यह चौराहा अवाक् सा देखता है सबको
मुझे,तुम्हें,उसे; सोचता हुआ-
हताश क्यों है इनकी आत्म-सत्ता!
ये खाली हाथ दौड़ने वालों की भीड़
कुरेदने वाला है क्यों अपने स्वप्न-स्वरूप
मधुर मधुमक्खी का छत्ता.
जद्दोजहद बहुत है सफर में
लहुलुहान होकर लौटना है इन्हें पर,
पराजित दिन जैसा दिन के अवसान पर.
उम्मीदों की अंत्येष्टि मदिरालय के फर्श पर
और आक्रोश पराजय का
गृह स्वामिनी या उसके बच्चों पर झुंझलाकर
शत्रुओं पर वज्राघात करता सा
करेगा रिक्त अपने क्रोध के उत्कर्ष पर.
यह चौराहा बन जाता है हाट
शब्दों के विनिमय में तिक्त
हर विनिमय में सस्तापन व ओछापन
लेन-देन हुज्जत और हठ की कठोरता से युक्त
मानवीय संवेदनाओं से रिक्त.
सबसे उपर रखा हुआ अर्थ
मेरे देह पर लदे वस्त्रों और
चेहेरे पर बेतरतीबी,बदहवासी से
मुझे तौलता है.
आँखों से आलस्य या चौकस
हिसाब कर
मेरी ओर उंडेलता है.
यह चौराहा बाजार का व्यक्तित्व ओढ़े
सरेआम बहुत सारे षड्यंत्र से घिरा है.
आदमी हमेशा यहाँ आदमी की नजरों से
इसलिए आंसू सा गिरा है.
इस चौराहे पर प्राय: पोस्टर चिपकते हैं
झंडे,बैनर लिए भीड़ जुटती है.
लुभावने वादों का अनमोल वचन सुनकर
इसके खोखलेपन से मन ही मन घुटती है.
भीड़ चौराहा है, इसलिए कि चौराहा
भीड़ के चरित्र का संवाहक है.
बहुत रफ्तार से सजता है दिन में
ब्याही परित्यक्ता सी पर होती है.
खन्डहर सा खामोश हो जाती है रात में
सुहाग के चिन्ह मिटाती है खुद,
और खुद रोती है.
चौराहे पर कवि का काव्य खड़ा रोता है.
उसे पता है इस चौराहे पर क्या क्या होता है.
वहां जूते सिलकर रोजी कमाने वाला मोची
ठेले पर फल,सब्जी बेचनेवाला विक्रेता
घूम-घूम कर कुछ भी बेचने वाला फेरीदार
लिफ्ट के लिए खड़ा बेरोजगार
चाय,पकौड़ी और नाश्ता वाली झोपड़ी से
मटमैली झांकती ऑंखें.
शांत मन से कुछ असंभाव्य का
संभव हो जाने की शिद्दत से सोचता है. (प्रबलता)
शहर का हर चौराहा रास्ता देता है.
उसे भी दे.
इस चौराहे का मन्दिर पड़ा रहता है सूना.
अचमत्कारिक या चमत्कारिक ढंग की
कथा है नहीं यहाँ.
देवता देखता रहता है
दीप,धुप,अगर,गंध और भोग कोई लाये.
पत्थर के मेरे शरीर पर चढाये.
मैं तब उसे बताउं शायद कि
चमत्कार मेरे तन में नहीं
उसके कर्म में है-
किसीको पता है नहीं यहाँ.
चौराहा का जीवन अहा! कितना जीवंत है
दिन के उजाले में दिनभर.
भागता,दौड़ता करता चुहल.
और रात में मुर्दा.
अपने शव पर आंसू बहाता
पड़ा हुआ अचल.
अप्रिय से हैं भीड़ और भीड़ का शोर.
लोग परेशान हैं बहुत ही पर,
यह चौराहा स्वयं में है विभोर.
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15 नारी है नारायणी
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जब परम व्योम में काल सुप्त;ऊर्जा जर्जर एवं जड़वत.
थी दिशा न कोई कहीं और तम गहन अमूर्त निश्चल शंकित.
रचना हेतु उन्मुख हुई थी नारी ही रच नारायण.
ध्वज धर सृष्टि का,नारी ही करती आई है पारायण.
वह निराकार साकार स्वरूप में प्रकृति है कही गई.
प्रकृति अर्थात प्रवृत्ति और वह इसमें प्रवृत यहीं हुई.
अगणित हैं देह धरे उसने संचालित करने सृष्टि यह.
हर शून्य भरा नारी ही ने व सृष्टि किया है अमृतमय.
सौन्दर्य,शौर्य का संमिश्रण,नारी है नर का नारायण.
वह सर्वरूप,वह सर्वशक्ति वह शस्त्र,शास्त्र करती धारण.
वह अखिल ब्रह्म की आदिशक्ति सृष्टि का सूत्र रच हुई प्रकट.
फ़िर बीज बीज का तंत्रजाल योजित,निर्मित किया अंडक्रोड़.
उस अंडक्रोड़ में अंतर्वर्ती वह बीज सृष्टि का प्रथम खंड.
उसका विकास लालन-पालन,शिक्षा-दीक्षा करना प्रचंड.
यह विश्व,विश्व का क्रिया-कलाप जिससे संचालित, है नारी.
जिसकी शक्ति से शक्तिमान यह जगत वही है यह नारी.
उस महान नारी-स्वरूप का आज करे सब पद वन्दन.
जीव-जगत,निर्जीव-जगत में है नारी तत्व का स्पंदन.
किन्तु,कभी नारी मन ने नर का है किया अपमान नहीं.
कहती आई वह नहीं स्वतंत्र, नर ही है उसका प्राण सही.
हे नर तुम मेरे पति,गति,पालक,संहारक,परमानन्द.
तेरा स्वरूप मेरा परमेश्वर, तुम रचते मेरा सर्वानन्द.
कहते हैं जब नारी प्रकट हुई कंचन-कान्ति सी प्रभामयी.
मुस्कान मंद,थे नयन प्रफुल्ल,वह कोटि सूर्य सी कान्तिमयी.
रत्नाभ आभरण,श्री अंग,रक्ताभ वेश,अरुणाभ पट्ट,दुर्गा स्वरूप.
सर्जन को प्रस्तुत हुई नारी, सर्वांग ही उनका शक्तिरूप.
यह नारी अजस्रा तन कोमल हो जाये जब-जब है कठोर.
अस्तित्व सृजन का तब होगा भूलुंठित व विध्वंस घोर.
इतनी महान नारी सारी उपलब्धि पुरुष को दे आई.
इसलिए नार नारायणी है स्तुति करें दें अचवाई.(आचमन)
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17 "हिस्टीरिया"
( विषय:दहेज)
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गुफाओं से अँधेरा दहशतगर्दों जैसा निकल आया था.
फैलकर और धरती में मेरे आस को निगल आया था.
चांदनी सर्द से डरी,सहमी एक आगोश की तलाश में
चाँद मुझे क्या सहलाता,कहता, खुद दहल आया था.
गहराती ठंढी रात में मेरे बदन के शिराओं में था वो आग
जो सूरज के क्रोड़ में हाईड्रोजन से गल, पिघल आया था.
उस नीरव निविड़ अंधकार में नींद शत्रु सा चिढ़ाता था.
किसी ब्याह का धुन मेरे झुमकेहीन कानों में बजाता था.
तारों से भरी रात में रात का सौन्दर्य रुक्ष सा ही था.
मेरे गली में वह दीवाना नहीं आवारा सा टहल आया था.
रात की ख़ामोशी में चुभन सूच्याग्रों पर स्थित लौह का
भट्ठियों में बदन तपाकर मुझे चुभाने फिसल आया था.
सपनों में अस्थिर हो रहा था मन चेतन और अचेतन
नहीं आते आजकल राजकुमारों के सपने,कल आया था.
शीत हवाओं के भाग्य में समुद्र के खारेपन का चिह्न था.
मेरे में इन्हीं हवाओं के टुकड़ों का दखल संभल आया था.
मैं गडमड हो गयी सी लगती हूँ हे! जगतजननी माते!
आदिशक्ति स्त्री को बनाने आज नहीं,कोई कल आया था?
स्त्रियों की भंगिमाओं में पराजय और परास्त हावी था.
घर और घर से बाहर उपेक्षाओं का दंश हर पल आया था.
सृष्टि के प्रारंभ की कथा सुनाये कोई शिव,विष्णु या ब्रह्म.
स्त्री प्रारंभ का हिस्सा थी या कोख?अंत का प्रारंभ बन आया था.
मैं गर्भ से गर्व के साथ निकली गौरव को नये आयाम तक उठाने.
यहाँ तो बंदिशों के अंबार थे जुगत लगाये लोगों से ठन आया था.
गंगा के जल में रात्रि के इस मध्य प्रहर में मैं आत्म-मुग्धा नहीं.
मेरे जीवन का प्रश्न मैं खुद को पूछने और समझाने आई हूँ,माँ.
मेरा अस्तित्त्व इन बालू कणों की तरह सिमटकर बिखरा क्यों है?
इस तलाश के अंत के अर्थशास्त्र का इतिहास बताने आई हूँ मैं माँ.
उस अभियान्त्रिक कॅालेज के चहारदीवारों से उछलकर आती है रौशनी.
और इसके उत्तरीय छोर पर गंगा में टिमटिमाने आई हूँ उतर मैं माँ.
आहा! कितने सुहाने थे स्वप्न,मेरी तरह बड़ी होती माँ तेरे आंचल में.
पक्षियों के स्वरों सा मधुर तितलियों से रँग,मेरी आँखों में उतरता हुआ.
न माँऐं होती हैं न पिता सर्वदा सहेजने तुझे,कठोर होता आया है वक्त सदा.
पाठ में मन लगा,काम में दिल,एक जुदा जिन्दगी तेरे लिए हो रहा है युवा.
तुमने जितना कहा मैंने उतना सुना उतना भी जिया उस तरह से जिया.
तेरे आँखों की रौशनी में फ़िक्र थी मेरे लिए मुझे सुघड़ बनाने की जिद सा.
तुम्हारे गुस्से में भय था,मेरे आहत भविष्य का,भय मेरे आगत भविष्य का.
तुम्हें बनाना था बेटी को कोमल इस माँ धरा सा और परुष पुरुष सा.
तुमने मुझे विश्वास दिया है धैर्य,सहनशीलता और संभावनाओं पर भरोसा.
जीवन का संघर्ष जब चलेगा तुमने कहा कि सब हार जाएँ पर,"मैं नहीं".
अँधेरा जब दिशाओं को खतम कर दे हवाएं मेरे वजूद को झकझोरने लगें.
मैं रहूंगी अडिग तुझसे सीखा है माँ तेरी सीखों को बौना करूंगी मैं नहीं.
रात के इस मध्य प्रहर में गंगा का पावन शीतल जल मुझे चिढ़ाता है.
मेरे शैशव से मेरे युवा होने के सारे पल प्रश्न बन मेरा हृदय दुखाता है.
बेटियों को अनन्त काल से शायद ब्याह के सुंदर सपने बांटती हैं माँऐं.
करती हैं तैयार हर कोने से उसे,अब यह तथ्य मेरी माँ मुझे रुलाता है.
देवताओं को श्रद्धा सहित पूजा है मैंने और समर्पित हो माँगा है मैंने.
वरदान नहीं साम्राज्ञी का माँगा या दैत्यों सी अमरता,माँगा है सिर्फ वर.
इस तरह सज्ज होके युवा हो गयी,अर्थ ने शिक्षा के मेरे राह रोक लिए
इसलिए सुलभ सस्ते संस्थानों में पढ़ी और स्नातक तक तो लिया कर.
माँ तुम्हें तो ज्ञात है मेरी छठी इन्द्रिय और सूझबुझ के सारे किस्से.
कहीं से मैं न तो हूँ न लगती हूँ असामान्य लड़की कहो तो माँ तुम.
गंगा कितनी भाव-विभोर होकर बहती है यहाँ और है स्वच्छ तथा निर्मल.
मेरा मन अशान्त, विह्वल और रुआंसा क्यों है क्या जानती हो माँ तुम.
मेरे युवा होने पर कोई समारोह रचता समाज और स्वयंवर का देता हक.
तुम लगाये रखती शर्त कि जिसे वरमाला डलेगा मिलेंगे लाखों के उपहार.
इस गंगा में मेरा देह तपता नहीं, कोई पर्व कोई त्यौहार जाता रचाया.
शहनाइयों के गूंजते स्वर और मचल-मचल जाती गंगा की सारी लहरें.
मंगल गीत गाती औरतों की युवा गतिविधियाँ अल्हड़ता जाती मचा सा.
मेरे युवापन से मेरे पिता के वात्सल्य में जन्मी तकलीफें मेरे ब्याह की थी.
तकलीफें वात्सल्य से बड़ी होने लगीं और इसकी आंच तेरे आंचल तक आई.
तेरा प्यार निरीह हो गया था माँ, तेरे रुआंसे हाथों का स्पर्श याद है मुझे.
माँ अहसास था अपने व्यवस्थित संसार में कितनी थी खलबली मच आई.
ब्याह जीवन का आवश्यक प्रसंग है,कम से कम इन्सान के जीवन में तो.
इन्सान खुद के जीवन को पीढ़ियों में जीने की ललक रखता आया है इसलिए.
युद्ध और विसंगतियों से बचने इन्सान ने बनाये समूह और उसके विधान.
तथा यह लालसा इन्सान के जीवन में मधुरता और जीवंतता लाये इसलिए.
पर,हमारे छोटे संसार में मेरे ब्याह का प्रसंग कठिन व कठोर बन गया माँ.
हमारे पास चुनाव का कोई विकल्प नहीं होता माँ,बस पट जाने की प्रार्थना.
इस प्रार्थना को हारकर लौटे पिता के सूखे,विवर्ण चेहरे पर हँसी को रोता देखा.
माँ,मुझे मेरे जन्म पर पहली बार झुंझलाहट हुई और हुई क्रोध पीड़ा व यातना.
मैं पहली बार अपने आप में सिमटकर बिना आंसुओं के रोई,ख़ुद पर तरसी.
खुद से आग्रह किया कि ऐ उमा! तुम कसम लो कि तुम विवाह नहीं करोगी.
मेरे विद्रोह के पास साहस नहीं था मेरे तथ्य अतार्किक लगे थे होने मुझे ही.
यूँ पराजित होना न पुस्तकों में है न ग्रन्थों में,उमा! यह दृढ़ता कहाँ से लोगी.
क्या है मतलब? जीवन का इस पृथ्वी पर पनपना,बड़ा होना,समाप्त हो जाना.
उम्र के हर पड़ाव पर शरीर के विकास की अंतरात्मा के विभिन्न मायने होना.
कभी लालसा से सराबोर कहीं लिप्सा पर अनियन्त्र कहीं अहम् का वृहत् होना.
जीवन का ‘विवेक’ छोड़ कर हट जाना,लुभावने शब्दों पर जीवन का मुग्ध होना.
गंगा में लहरें उठ रही हैं मेरे देह से टकराकर नष्ट होते हुए मुझे उकसा रही हैं.
और गहरे में चल,बड़ा सकूं है वहां कहती हुई, सारा उथल-पुथल थम जायेगा.
मैं गंगा हूँ कितने! पाप धुले है मुझमें पर,पवित्र हूँ मैं, आ तू भी पवित्र हो जा.
जिन तत्वों से जीवन बना है वह सारे उहापोहों को उसमें समर्पित कर जायगा.
जीवन जो रचा गया उसमें जो प्राण है उसके आदिम इच्छाओं में भूख प्रथम है.
सभ्यता ने और संस्कृति ने इस भूख को विकृत कर दिया है स्वाद को निर्ल्लज.
सितारों के प्रतिबिम्ब गंगा के जल पर कम्पित हो रचते हैं मन में सौन्दर्य बोध.
किन्तु,मन मेरा अस्थिर,असंतुलित,विह्वल है इतना ऐ!माँ,आत्मघात को हूँ सज्ज.
आत्मघात का प्रबंधन पीड़ा दायक है,प्रबंधन से ज्यादा इसे अंजाम तक ले जाना.
मेरा आक्रोश किसलिए है मेरा ब्याहा न जाना या मेरे पिता का दहेज न दे पाना.
आक्रोश उबलता तो है किन्तु,मैं इस आक्रोश में इसका सौन्दर्य ढ़ूढ़ूंगी मेरी माँ .
गंगा के इस जल राशि में आक्रोश का सौन्दर्य,बड़ा है जल में खड़े हो निहारना.
गाँधी के आक्रोश के सौन्दर्य ने एक महान साम्राज्य को घुटनों पर दिया है ला.
प्रभु, मेरे आक्रोश का सौन्दर्य बेटियों को दिला पाये गरिमा बेटियों को बेटी का.
आकाश से धुंध नीचे उतर रहा है और सारा अस्तित्व पृथ्वी का हो रहा धुंधला है.
इस धुंध जैसा ही मेरा भविष्य हो गया लगता गाढ़ा,चिपचिपा,काला और गन्दला है.
मेरे आगे के रस्ते बौने होकर ठिठुर गये हैं, सारे लक्ष्य धराशायी हैं मृत सा.
तथा इस पड़ाव से आगे की मंजिल मेरे मन में ही विपन्न है मेरे अमृत सा.
मेरा मन्दिर था उसपर स्वर्णाभ कलश और मन्दिर के अंदर मेरा प्रसन्न देवता.
दहेज के आवरण ने मेरा सारा कुछ नग्न कर दिया है, मुझे भी क्यों? दे बता.
व्यर्थ पथारूढ़ होने और दिशाहीन पथ पर चलने का अहसास बड़ा दर्दीला है माँ.
क्या! यह मेरा बड़ा पूर्ण विराम मेरे आगे यूँ ही आ गया है जिद्दी बन रोकने माँ.
मेरे हाथों के मन इतने अशक्त हो गये हैं कि हटा नहीं पा रहे इस चिन्ह को.
प्रतीत होता है मेरे होने की उपयोगिता नियति की नजर में गया है भिन्न हो.
यह समाप्त है तथा मैं प्रभु-रूप उस योद्धा का संधानित चुक गया सा वाण हूँ.
यह सोचने की बाध्यता है मेरे पास कि अब आत्महत्या कर लौटा उसे प्राण दूँ.
हिस्टीरिया का दौरा नहीं है यह माँ, मेरा विद्रोह का साक्षात्कार है प्रबुद्धता से.
पाषाणकालीन पद्धति से निकल सभ्यता की व्यवस्था का युद्ध मानवीय शुद्धता से.
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18 पता शुद्ध जीवन का
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चला तो था मैं पूछने उसका पता.
राह में मोह,भ्रम.लिप्सा था नंगा खड़ा.
रुक गया मैं भी तमाशबीनों की तरह.
व्याकरण सारे जीवन के गया गड़बड़ा.
तब गणित खोलकर बांचने मैं लगा.
अंक को किन्तु,अक्षर बना न सका.
सूत्र को रौंद-रौंद पतला करता रहा.
मैं बना न सका मिट्टी को पर,घडा.
सूर,तुलसी को पूछा है क्या जिन्दगी?
जो इंगित किया कबीर का था पढ़ा.
मोक्ष के लिए मृत्यु अनिवार्य है.
मोक्ष ने भी कहा कृष्ण ने था कहा.
मन में कुंठा लिए,तन में एवम् तपन.
इंद्र के द्वार देखता दुखित हो चला.
भोग के मोह से भाग्य के जाल में.
सारे जीवन के तन्तु पिघल-गल गया.
कितना! बेताब था,युद्ध को मेरा मन.
शस्त्र सारे गिने पर,भटकता रह गया.
कृष्ण को ढूंढता,कुरुक्षेत्र खोजता.
मन कितना रुंआसा था होता रहा.
कोख से खाली सब हैं जनमते रहे.
वसीयत कुछ को क्यों सब थमाता रहा.
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19 जंगल-जिएँ
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मेघ पहाड़ों पर टिका, आसमान पर चाँद.
वन-विहीन इस प्रान्त में ढ़ूंढ़ रहा है छांव.
वन उजाड़कर चला गया, वन का ठीकेदार.
विरह,क्षुधा,दुःख दे गया वनवासी के द्वार.
वन की बाला का सजन चला गया परदेस.
विरहन भू को पूजती हो वन का श्री गणेश.
“व्यथा बड़ी परदेस गये का भूमि,तुम तो जानो.
हो समर्थ हे मैया भूमि, दो रोटी तो दे पाओ.
कोयल उड़ा आकाश में, खोज रहा है ठांव.
थककर गिरने के पहले,उगो वृक्ष का गाँव.
महुए का वन खो गया,वनवासी का प्राण.
करता यह मदमत्त था,था पिघलाता ‘पाषाण’.
पुष्प,कंद,फल,मूल का यूँ उजड़ गया संसार.
स्नेह,प्रेम,रस,गंध,प्रीत का हो गया बंटाढार.
हाँ,वसंत आता सखि,काम किन्तु निष्प्राण.
क्योंकि,हवा के धनुष पर नहीं पुष्प का वाण.
पत्थर चुभता पांव को,आंख को नग्न पहाड़.
हे सखि,दुःख की क्या कहूँ,जल हुआ जैसे ताड़.
दुखती कमर घड़ा भरा, उठते ही नहीं पैर.
जाने जल को क्या हुआ चुका रहा क्या वैर!
सूरज तीखा हो गया,पथ,बिन-छाँह अथाह.
चले सुबह ही मरद,बरद;गाँव न पहुंचे आह!
हवा शीतल गदहे का है सिंग बन गया.
श्रम का वैरी था श्रम का सखा बन गया.
राह पर राही बिन छाँह है बेहाल सखी.
खग नीड़ जो बनाये तो किस पर सखी.
बरगद की लोगों ने धूनी उड़ा दी,है पीपल कटा.
महुआ,सखुआ,पलास,आम,शीशम कटा.
उगता तृण था जहाँ कंकड़,पत्थर उगा.
झाड़ी,झंखाड़,पौधा,लता लापता.
जीव-जन्तु विह्वल भूखा,प्यासा विकल.
नदियाँ सूखी हैं बालू का मन भी विकल.
नयन जोडकर खड़ी रही षोडशी घर के द्वार.
वन-विहीन पथ दे गया उसे विरह उपहार.
कागा जो कहीं डाकता पुलकित होता गात.
पर,वह बैठे कहो कहाँ?कहीं न वृक्ष न गाछ.
हाँ जंगल भयावह, वह अपनों का भय है.
इस बंजर का भय तो ‘परायों’ का भय है.
पेड़ निष्प्राण हुआ निपट निपात भी.
ठूंठ अब रह गया था खूबसूरत कभी.
चुंथ गया नुंच गया गात इसका सखी.
असमय वृद्ध हुआ, भर झुर्रियों से सखी.
सभ्यता का वहन इन वनों ने किया.
पाला-पोसा तथा सम्मान इसने किया.
मान तोड़े अब गये प्राण तोडा अब गया.
जंगलों का शान छिन्न-भिन्न अब हो गया.
जिए जितने हैं पल,वृक्ष के अंक में पास जंगल रहा.
साँस लेते हुए, छोड़ते भी तथा वन का सम्बल रहा.
पेड़ संस्कार था,जीवनाधार था,खेल-कूद का अपना साथी सखी.
गीत में था रचा,छंद में था बसा;देह के गंध में एवं रस सा रसी!
वृक्ष की संस्कृति भारतीय संस्कृति भारतीय सभ्यता.
त्याग,सेवा से अभिभूत तपस्वी संस्कृति,दार्शनिक सभ्यता.
वृक्ष को पूजती कौन जाति कहाँ! बस हमीं हैं, हमीं हैं.
जीवनाधार उपजो,फूलो-फलो;स्वर्ग है जो कहीं तो यहीं है,यहीं है.
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20 एकाकी एकलव्य
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रात्रि के निविड़ अंधकार में
वन के एकांत छोर में
वृक्ष की एक सद्यः युवा हुए डाल पर
खुद से विनोद करता
अंगूठे के जख्म सहलाता हुआ
तम से प्रकाश की
भयभीत आकांक्षा पैदा करता हुआ मन में
अकेला एकलव्य.
शिखर की यात्रा का अंत करके
शून्य पर आकर ठहरा एकलव्य.
आहत अस्तित्व से जूझते हुए
आँखों के अश्रुओं को
निगलता एकलव्य.
रात्रि के हर प्रहर में
घटना क्रम को याद करता
उस विलक्षण क्षण को
अस्वीकार करने पर आमदा
उद्यत होता रहा.
योद्धा के स्वप्न से टूटकर
आखेटक मात्र हो जाने की नियति
अस्वीकार करने को चाहता एकलव्य.
एक लक्ष्य से च्युत हुआ सा
खुद का खुद विरोध करता एकलव्य.
खुद ही खुद पर झुंझलाता एकलव्य.
परिश्रम और औद्योगिता में
स्वयं को तलाशता एकलव्य.
प्रतिभा को पहचान हेतु
सम्राज्यवादियों के संरक्षण की अनिवार्यता को
प्रश्नों से घेरता एकलव्य.
‘स्यात् महानता की लालसा से
अंतर्मन था लिप्त मेरा’
गहरे मन से सोचता हुआ एकलव्य.
घटना को क्रमशः स्मरण करता
उस अधम क्षण के छल को
सत्येतर मानता एकलव्य.
नैतिक पतन की पराकाष्ठा के
अनैतिक वर्ग समूह को
विपन्न वर्ग की
दृढ़ता,कठोरता,कर्मठता व सरलता का धर्म
नहीं कर सकता परास्त,
ऐसा सोचता एकलव्य.
मेरा समर्पण महानता की मेरी लालसा का
निंदनीय अधोपतन था-
ऐसा मानता एकलव्य.
राज के लोभ व शासन की
विलासी आकांक्षा ने
एक बड़े बुद्धिशील,विनम्र,श्रमी वर्ग को
बनाया किया है भृत्य
ऐसा देखता एकलव्य.
अंगूठे का मेरा विच्छेदन
गुरु के लिए मेरा आत्म-समर्पण नहीं
घेरकर करना था मेरा मान-मर्दन.
वनों,घाटियों,चोटियों,
कन्दराओं,गुफाओं में बिखरे
एकलव्यों को आखेटक से योद्धा बनना है.
मेरे एकांत की इस पीड़ा को
तुम्हारे मन के अस्तित्व में मुझे
प्रेषित करना है.
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अरुण कुमार प्रसाद
शिक्षा--- ग्रेजुएट (मेकैनिकल इंजीनियरिंग)/स्नातक,यांत्रिक अभियांत्रिकी
सेवा- कोल इण्डिया लिमिटेड में प्राय: ३४ वर्षों तक विभिन्न पदों पर कार्यरत रहा हूँ.
वर्तमान-सेवा निवृत
साहित्यिक गतिविधि- लिखता हूँ जितना, प्रकाशित नहीं हूँ.१९६० से जब मैं सातवीं का छात्र था तब से लिखने की प्रक्रिया है. मेरे पास सैकड़ों रचनाएँ हैं. यदा कदा विभिन्न पत्र, पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ हूँ.
अरुण कुमार प्रसाद
Arun Kumar Prasad
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