'ठक-ठक' बाबा दोपहर की उजास जब खिड़कियों तले फूटकर भीतर को आती थी, तो उनसे गर्मियों की धूप-छांव कुछ उदास हो जाती थी। तब दोपहर के भोजन...
'ठक-ठक' बाबा
दोपहर की उजास जब खिड़कियों तले फूटकर भीतर को आती थी, तो उनसे गर्मियों की धूप-छांव कुछ उदास हो जाती थी। तब दोपहर के भोजन मैं कुछ खा-गिरा कर उधम मचाते हम बालकों की टोली को अम्मा कुछ देर सुलाने के लिए बगल में लेट जाती थी।
खिड़की उदास। तलैया उदास। मरणासन्न उदासी को तोड़ती मक्खियों की भिनभिनाहट में गांव की बारादरियां हवाओं से लाचार होतीं।
दोपहर के समय गांव कुछ उकताया-सा धूप के ढलने का इंतजार करता, सुस्ताया होता था। बालकों के शोर से कुछ पल की निजात उस आम के पेड़ को भी मिल जाती थी जिसके तले मिट्टी के फर्श पर हमारी एड़ियों के निशान और गोटियों के फलक छपे होते थे। बड़े ददा वहीं कहीं अपनी गोटियों को अम्मा की नजर से छुपा कर रखते थे और गर्व से हमें दिखाते थे। (जैसे कि माँ को पता ही न हो!)
हमें शाम ढले का इंतजार औरों से ज्यादा होता था। कब धूप थोड़ा ढलके और सूरज महाराज अपनी नजरें तरेरे हुए आसमान से उतरें, तो हमें भी तलैया नसीब हो। शाम को खूंटे से छूटा बछड़ा जैसे मां के थनों पर मुंह मारने लपकता है, वैसे ही किवाड़ों से फूटती रोशनी के ढलते ही हम भी आम की छैया की तरफ लपकते।
लेकिन दोपहर का वह नीरस समय नींद के लिए नियत था। और नींद - जो हमारी आंखों से कोसों दूर अंतरिक्ष में कहीं चंपई-लाल-सफेद तानेबाने बुनती आंखों पर झपकती भी न थी। नींद - जिसकी सबसे ज्यादा दरकार अम्मा को होती थी, जो घर के कामकाज में भिनसरे से लगी थक कर निढाल पड़ना चाहती थी। इस समय उसे भी हम बच्चों को सुलाने के बहाने पलक झपकाने की फुर्सत मिलती थी। पर हमें सुलाकर खुद कब न जाने पलक झपकते गायब भी हो जाती, इसका पता भी न चलता। हाथ-पैर मारते बाल-ग्वालों को सुलाने का आखिरी चारा था - 'ठकठक बाबा'।
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वह पता नहीं कहां रहता था पर उस समय अचानक कहीं से भी हाजिर हो जाता था, ठीक हमारी पलंग के पास कहीं। अम्मा के आवाज लगाते ही फौरन दो बार 'ठक-ठक' कर अपनी उपस्थिति दर्ज करता था। आंख बंद न करने वाले शैतान बच्चों के लिए 'ठक-ठक' बाबा एक चेतावनी था। आंखें तो खिड़की से बाहर आम की डाली की सबसे ऊंची शाखाओं पर मंडराती चिड़ियों के खेल में अचानक 'ठक-ठक' बाबा की उपस्थिति पाकर झट से झँप जाती थी।
यह 'ठक-ठक' बाबा भी अजीब था। रात में पता नहीं क्यों नहीं आता था! दिन से इसे क्या बैर था!! जब आंखें झपकती ही न थी, ठीक तभी आकर हमें डराता था। उसके भय से फौरन आंखें कसकर मूंद लेनी पड़ती थी। रात का तो पता ही नहीं चलता था। कभी ओखली, कभी चक्की, कभी मुंडेर, तो कभी चूल्हे के पास बैठकर खेलते-खेलते बिना 'ठक-ठक' बाबा को बुलाये, कब आंख लग जाती। पर सुबह आंख हमेशा बिस्तर पर ही खुलती थी। यह जादू अजब था। रात का पता भले ही न चलता हो लेकिन आधी नींद में कई बार पैरों की थकी पिंडलियों और एड़ियों पर कोमल हथेलियों की गुदगुदाती मालिश-सी होती। सुबह तेल चुपड़ी एड़ियों पर हल्की सी ठसक महसूस होती। शायद 'ठक-ठक' बाबा की अम्मा आती होंगी रात को। बाबा भी शायद रात में ऐसे ही कहीं सो रहता होगा।
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लोरियां गाने वाली अनपढ़ माताएं अब पढ़-लिख गई हैं। उन्हें यह गंवारपन गंवारा नहीं। बच्चे अब पिता के कंधों पर नहीं खेलते, बल्कि आभासी दुनिया के काल्पनिक कीटों से खेलते हैं। बच्चों की कल्पनाओं के तीन-आयामी रंगीन चित्रों (3-D Animation film) ने आधुनिक विश्व के सार्वभौमिक बचपने का हर कोना खोज डाला है। अब कल्पनाओं के लिए बच ही क्या रहा? हम तो एक 'ठक-ठक' बाबा के नाम पर पूरा कल्पना लोक रच डालते थे।
पर क्या 'ठक-ठक' बाबा अब सच मे नहीं आता होगा? क्या वह मर गया है, या मर रहा है? क्या वह मां की लोरियों में साथ-साथ गुनगुनाते हुए आज भी अपनी अम्मा के गीतों को याद नहीं करता होगा? अब क्या मोबाइल की रोशनी से उसे चिढ़ होती होगी? कभी सोचता हूं, जिन्हें नींद न आने की शिकायत होती है, उन्हें क्या बचपन में किसी 'ठक-ठक' बाबा ने नहीं सुलाया होगा? या शायद इतना सुलाया होगा कि बड़ा होने पर आज भी बिना उसके नींद नहीं आती होगी।
किस्से कहानियों के गांव, पीपल की छांव, भूतों की ठांव, और उनपर चलने वाले बच्चों के पांव अब कहां पड़ते होंगे? क्या बचपना मर रहा है?
नहीं।
बचपना बच्चों में नहीं बल्कि उनके मां-बाप में मरा है। बच्चों में तो बचपना अब पैदा ही कहां होने दिया जाता है! पीपल या आम की छांव अब मिलती किसे है? सीधे मोबाइल मिल जाते हैं। 'ठक-ठक' बाबा ऐसे नहीं मरा करते।
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आज बरसों बाद सोचकर खुद पर हंसी आती है। फिर दूसरे ही पल सोचने बैठ जाता हूँ कि अब वह 'ठक-ठक' बाबा क्या सच मे नहीं आता होगा! कहां रह गया होगा?
लेकिन एक दिन अचानक वह अपने आप प्रकट हो गया। दरअसल मैंने ही उसे बुलाया था। एक दिन अचानक नरम तौलिए से उतरकर रुई के फाहे सा कोमल मेरा बचपना, मेरी गोद में उतराया था और कहानी सुनाने की ज़िद ठाने था। दो कहानियों के बाद अपने खाली खजाने से निपटने का वही सदियों पुराना अस्त्र मेरे पास था। जिसे हजारों वर्ष पहले पर्वत की किसी गुफा में मेरे किसी आदिम पुरखे ने ही शायद आग और पहिये से भी पहले खोज निकाला था। मैंने उसे पुकारा "ठकठक बाबाS!" और वह झट हाजिर हो गया। उसी पुराने तेवर के साथ। और बचपने ने झट से पलकें मूंद लीं।
नन्ही पलकों के पर्दे में धीरे धीरे ढीली पड़ती हल्की नीलिमा युक्त आंखों की चटख पुतलियों में भयभरी जिज्ञासा कैसे गहन निद्रा तक ढलती गई, इसे देखने का सुकून मेरे 'ठक-ठक' बाबा को भी मेरे बचपन में ऐसे ही मिला होगा।
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इसलिये मुझे लगता है, 'ठक-ठक' बाबा हर जगह हर देश में है। जहां कहीं भी माएँ अपने बच्चों को प्यार से, दुलार से, अब भी सुलाती हैं। वहां वह तुरंत हाजिर हो जाता है। शायद उसे भी अपनी अम्मा की तलाश है । वह भी शायद किंवदंतियों का कोई रूठा बालक है, जो अपनी शैतानियों से अपनी मां को हैरान-परेशान किये रखता होगा। शायद इसीलिए अनंत काल तक न सो सकने वाली सजा झेल रहा है। उसे हर माता में अपनी अम्मा की खोज रहती होगी।
मेरा बचपन इन्हीं कथाओं में पगा है। मैंने साधारण चीजों को असाधारण होते देखा है। पलक झपकते ही जीवित वस्तुओं को किम्वदंती हो जाते देखा है। मेरे मन का भूला बालक आज भी रूठता है। पर अब वह जल्दी से मनता भी तो नहीं।
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यकीन मानिए। दुनिया बदली हो, सदियां बदल जाए, और लोकाचार भले ही अलग-अलग मुल्कों में अलग अलग हों। 'ठक-ठक' बाबा नहीं बदलते। नाम भले कुछ हो। कहीं झोलीबाबा, कहीं पोटलीबाबा, कहीं नीमवाले बाबा, कहीं भूरेबाबा तो कहीं झक सफेद दाढ़ी और लाल कपड़ों वाले संता हों। 'ठक-ठक' बाबा कभी नहीं मरा करते। उनकी आंखों के आगे कितनी पीढ़ियां बचपन से जवानी और जवानी से बुढ़ापे में कदम रखती चली गईं। पर वे अब भी हर कहीं मौजूद हैं।
वैसे आपके यहां 'ठक-ठक' बाबा को क्या कहकर बुलाते हैं?
मिहिर
(नोट - उक्त लेख में लेखक के आत्मवृत्तात्मक प्रसंग ढूंढना व्यर्थ का उपक्रम होगा। यह मात्र एक ललित निबंध है)
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