"सुखमंगल सिंह की कविताएँ" मत निराश हो ------------------ न मांग किसी और से ऊषा की रश्मियां आप अपने आप में खुद प्रकाश कर ज...
मत निराश हो
------------------
न मांग किसी और से
ऊषा की रश्मियां
आप अपने आप में
खुद प्रकाश कर
जो हो न सका
उसके लिये मत निराश हो
जो हो सके
उसके लिये बस प्रयास कर
कवि हूँ मैं सरयू- तट का/ सुखमंगल सिंह (3)
--------------------------------------------------------------
तू कुछ कर जाये !
--------------
तू सुन्दर
तेरा दिल सुन्दर
तेरा मन सुन्दर हो जाए
तू कुछ कर जाये
प्रेम मुहब्बत की
अविरल धारा वर्षाये
तू वर्षाये
तू सुन्दर हो जाये |
कवि हूँ मैं सरय तट का /सुखमंगल सिंह (4)
-------------------------------------------------------
कविता :सौम्यता–संस्कार–युग बोध
---------------------------------------
कविता ,कवि की मनोरम वाणी में है देवत्व की प्रतिष्ठा
कविता ,सृष्टि का सौंदर्य और है सम्पूर्ण निष्ठा
अनु-परमाणु –विंदु- सिंधु ,अग्नि –वायु –अन्न –वस्त्र है कविता
मनुष्य है कविता, वृक्ष है कविता,शास्त्र कविता, शस्त्र कविता
छ्ंद-स्वच्छंद है कविता ,यत्र –तत्र –सर्वत्र गंध है कविता
आदिकाल से प्रीति-रीति का ,स्वीकृत अनुवंध है कविता
कविता, समय को समय की पहचान देती है
समय पड़ने पर,कविता मुरदों को भी जान देती है
काव्य-सृष्टि–सर्जक की, उत्कृष्टतम अभिव्यक्ति है कविता
टूटते –विखरते लोगों को,जोड़ने वाली शक्ति है कविता
कवि न मरता है , न किसी को मारता है
कवि,परिवार–समाज–देश-विश्व को तारता है
कविता ,वादों संकीर्ण घेरों को तोड़ देती है
एक अविरल प्रवाह बन,रसमयता से जोड़ देती है
‘कवि हूँ मैं सरयू तट का’ कालजयी–काव्य–परंपरा में शोध है
इसकी एक–एक पंक्ति में, सौम्यता –संस्कार और युगबोध है|
कवि हूँ मैं सरयू तट का /सुखमंगल सिंह (5)
--------------------------------------------------------------------
कवि हूँ मैं सरजू – तट का
---------------------------------
कवि हूँ मैं सरयू – तट का
समय चक्र के उलट – पलट का
मानव मर्यादा की खातिर
मेरी अयोध्या खड़ी हुई
कालचक्र के चक्कर से ही
विश्व की आँखें गड़ी हुई
हाल ये जाने है घट – घट का
हूँ कवि मैं सरयू – तट का
हुआ प्रादुर्भाव पृथु – अर्ति का
अंग – वंश - वेन भुजा- मंथन से
विदुर – मैत्रेय का हुआ संवाद
गन्धर्वों ने सुमधुर गान किया मन से
मन भर गया हर – पनघट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का /सुखमंगल सिंह (6)
-----------------------------------------------------
पृथु – अभिषेक आयोजन हुआ
अभिनंदन ,वेदमयी ब्राह्मणों ने किया
पृथ्वी- नदी – गौ-समुद्र – पर्वत – स्वर्ग
सबने अर्पण उपहार किया
उपहार मिला सब टटका – टटका
हूँ कवि मैं सरयू – तट का
गंधर्वों ने मिल किया गुणगान
सिद्धों ने पुष्पवर्षा से बढ़ाया मान
समवेत स्तुति ब्राह्मणों ने करके
दिया मुक्त मन से, समुचित ज्ञान
दिया ज्ञान सबने दस –दस का
कवि हूँ मैं सरयू तट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का /सुखमंगल सिंह(7)
------------------------------------------------------
सूर्यवंश का उगा सितारा
कुबेर - सिंहासन ब्रह्मा ले आये
धरा- गगन औ रिधि - सिधि गाये
सभी देवता मिल देखन आये
मगन हुआ मन घट-पनघट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का
मनमोहक हरियाली छाई
सकल अवध खुशहाली आई
राजा पृथु का आना सुन
ऋषियों की वाणी हर्षायी
प्यासे को जैसे, मिला हो मटका
कवि हूँ मैं सरयू तट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का /सुखमंगल सिंह(8)
-------------------------------------------------
दिया विश्वकर्मा ने सुंदर रथ
चंदा ने अश्व दिये अमृतमय
सुदृढ़ धनुष दिया अग्नि ने
सूर्य ने वाण दिये तेजोमय
शत्रु को करारा दे जो झटका
कवि हूँ मैं सरयू तट का
सुदर्शन चक्र दिया विष्णु ने
लक्ष्मी ने दी संपत्ति अपार
अम्बिका ने,चंद्राकार चिन्हों की ढाल
रूद्र ने दिये चंद्राकार तलवार
काम जो करे सरपट का
हूँ कवि मैं सरयू - तट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का /सुखमंगल सिंह(9)
------------------------------------------------------------
पृथ्वी ने योगमयी पादुकायें
आकाश ने नित्य पुष्प-मालाएँ
सातो समुद्र ने दिये शंख
पर्वत–नदियों ने हटाईं पथ बालायें
बना दिया पृथु को जीवट का
हूँ कवि मैं सरयू - तट का
जल-फुहिया जिससे प्रतिपल झरती
वरुण ने छत्र ,श्वेत चंद्र- सम
धर्म ने माला,वायु ने दो चंवर दिये
मुकुट इन्द्र ने,ब्रह्मा ने वेद-कवच का दम
सम्पूर्ण सृष्टि का माथा चटका
हूँ कवि मैं सरयू - तट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का /सुखमंगल सिंह(10)
--------------------------------------------------
सुन्दर वस्त्रों- अलंकारों से
हुए सुसज्जित श्री पृथु राज
स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान
आभा अग्नि सी, दिखे महाराज
पहुंचे सभी न कोई अटका
हूँ कवि मैं सरयू - तट का
सूत - माधव वन्दीजन गाने लगे
सिद्ध गन्धर्वादि नाचने - बजाने लगे
पृथु को मिली अंतर्ध्यान - शक्ति
महाराज को सभी बहलाने लगे
दे - दे करके लटकी - लटका
हूँ कवि मैं सरयू -तट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का /सुखमंगल सिंह(11)
-------------------------------------------------------
गुणों- कर्मों का ,वंदीजनों ने गुणगान किया
महाराज ने सभी को,मुक्त भाव से दान दिया
मंत्री,पुरोहित,पुरवासी,सेवक का भी मान किया
चारो वर्णों का एक साथ आज्ञानुर्वा - सम्मान किया
नहीं गुंजाइश खटपट का
हूँ कवि मैं सरयू - तट का
पृथु बोले ! सुन स्तुति गान
जो कहता सुनें धर ध्यान
मैं अभी श्रेष्ठ कर्म- समर्थ नहीं
कि मेरा हो कीर्तिगान
कर्म -सुकर्म -भगत -जगत का
कवि हूँ मैं सरयू -तट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का /सुखमंगल सिंह(12)
-----------------------------------------------
यह सुन सूत आदि सब गायक
हर्षित हो ,मन ही मन नायक
कहें,आप देवव्रत नारायण
आप हैं गुणगान के लायक
प्राकट्य कलावतार हरि - घट का
कवि हूँ मैं सरयू - तट का
आपका भू - स्वर्ग - पाताल
दुष्टों को खा जाएगा काल
चमकेंगे जन - जन का भाल
सबके सब होंगे खुशहाल
भाग्य जागेगा, कूड़े करकट का
कवि हूँ मैं सरयू -तट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का/ सुखमंगल सिंह(13)
-----------------------------------------------
धर्ममार्ग में नित चलकर
निरपराधी को दंड न देंगे
सूर्य किरणें जहां तक होंगी
आपके यश-ध्वज फहरेंगे
विन्दु न कोई छल-कपट का
कवि हूँ मैं सरयू - तट का
शिव - अग्रज सनकादि मुनीश्वर
माथे चरणोद चढ़ाएंगे
स्वर्ण सिंहासन पर उन्हें आप
ससम्मान विठाएँगे
शब्द - अर्थ होगा, उद्भट का
कवि हूँ मैं सरयू - तट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का /सुखमंगल सिंह(14)
--------------------------------------------------
परब्रह्म का प्राप्ति मार्ग
श्री सनत कुमार बताएँगे
सरस्वती -उद्गम स्थल पर
अश्वमेध- यज्ञ कराएंगे
सीचे खेती, पानी पुरवट का
कवि हूँ मैं सरयू -तट का
अन्न- औषधि छिपा के पृथ्वी
सृष्टि में, रूप बदल कर डोले
प्रजा भूख, से हो गई व्याकुल
श्री मैत्रेय , विदुर से बोले
जीवन सभी का अटका – अटका
कवि हूँ मैं सरजू -तट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का /सुखमंगल सिंह(15)
-----------------------------------------------------
प्रजा करुण– क्रंदन सुन पृथु ने
शस्त्र उठा लिया हाथ में
पृथ्वी, गौ का रूप पकड़ कर
थर – थर – थर – थर लगी कांपने
पृथ्वी ने सर पाँव पे पटका
कवि हूँ मैं सरयू -तट का
गौ रुपी पृथ्वी ने आकर
विनीत भाव से नमन किया
आप जगत -उत्पत्ति – संहारक
विश्व - रचना का मन किया
मेरा हाल तो नटिनी - नट का
कवि हूँ मैं सरजू - तट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का /सुखमंगल सिंह(16)
------------------------------------------------
मेरी अन्न – औषधि सब
राक्षस मिलकर खा जाते थे
सही ढंग से जिन्हें था मिलना
अन्न – औषधि नहीं पाते थे
यह सब देख के माथा चटका
कवि हूँ मैं सरजू -तट का
जनमेजय – सगर - भगीरथ
आदि कई हुये समरथ
अयोध्या की आगे बढ़ी कहानी
आये चक्रवर्ती सम्राट श्री दशरथ
राज्य हुआ शुरू दशरथ का
कवि हूँ मैं सरयू – तट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का /सुखमंगल सिंह(17)
-------------------------------------------------
सरयू - गंगा दो बहनों का
हिमालय में उद्गम- स्थल है
काली नदी नाम धारण कर
बहुत दूर तक वही पहल है
घाघरा नाम कहावत का
कवि हूँ मैं सरजू - तट का
राम-लक्ष्मण– भरत– शत्रुघ्न
चारो पुत्रों नें जन्म लिया
चाँडीपुर ,चंद्रिका धाम जाकर
गुरुजनों से शिक्षा ग्रहण किया
ज्ञान मिला उनको घट –घट का
कवि हूँ मैं सरजू - तट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का /सुखमंगल सिंह(18)
----------------------------------------------------
गंगा– सरयू मिलन जहां पर
वहाँ खेलने जाते थे
और वहीं आखेट की विद्या
शृंगी ऋषि से पाते थे
नहीं रहा, कोई भी खटका
कवि हूँ मैं सरजू - तट का
विश्वामित्र- यज्ञ- रक्षा को
राम – लक्ष्मण हुये रवाना
ताड़का और सुबाहु जब मरा
खुशियों का न रहा ठिकाना
ध्यान जनकपुर– गंगा तट का
कवि हूँ मैं सरयू - तट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का / सुखमंगल सिंह (19)
-----------------------------------------------------
धनुष– यज्ञ के बाद जुड़ गये
सीताराम – सीताराम
सीता– हरण साधु बन किया
हुआ रावण का काम तमाम
कथा बन गई,राम– राम रट का
-कवि हूँ मैं सरयू - तट का
प्रादुर्भाव हुआ श्री विष्णु का
पृथु – समक्ष रखा प्रस्ताव
निन्यानबे यज्ञों के विध्वंसकर्ता
क्षमा इन्द्र को दो रख समभाव
अपराध क्षमा हो उस नटखट का
-कवि हूँ मैं सरयू तट का
----------------------------------------------------
कवि हूँ मैं सरयू –तट का / सुखमंगल सिंह(20)
----------------------------------------------------
निरखे नयन हुये रसाल
दिव्य आनंद सोहत भाल
नारद ऋषि का करतल ताल
दमकी छवि माथे विशाल
वृक्ष मुदित हुआ वैट का
-कवि हूँ मैं सरयू तट का
द्वापर में, दसरथ के लाल
औ त्रेता में नन्द गोपाल
बारह कला – मर्मज्ञ राम थे
सोलह कला के नन्द गोपाल
रामायण–महाभारत ज्यों टटका–टटका
-कवि हूँ मैं सरयू तट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का/सुखमंगल सिंह(21)
----------------------------------------------------
प्रभु की लीला‘’मंगल’ अपार
बोले राजन, अब करो ध्यान !
साधु और चरित्रवान
मानव होता श्रेष्ठ-महान
उसे न लगता अटका– झटका
कवि हूँ मैं सरयू तट का
जो जीवों से द्रोह न करते
सब दुखियों के दु:ख जो हरते
प्यार उसी को हम करते
उसी की खातिर जीते– मरते
मेरा घ्यान उसी पे लगता
कवि हूँ मैं सरयू तट का
कवि हूँ मैं सरयू –तट का / सुखमंगल सिंह(22)
ज्ञानवान की यही है पहचान
अविद्या-वासना– विरक्तवान
गौ की जो सेवा है करता
वही ज्ञानी होता धनवान
विवेकी पुरुष कहीं न भटका
कवि हूँ मैं सरयू तट का
श्रद्धावान आराधना रत
वर्णाश्रम में पल– बढ़ कर
चित्त शुद्ध उसका हो जाता
तत्व - ज्ञान वही पाता नर
इधर–उधर तनिक न भटका
कवि हूँ मैं सरयू– तट का
कवि हूँ मैं सरयू –तट का / सुखमंगल सिंह(23)
निर्गुण गुणों का पाकर आश्रय
आत्म शुद्ध, नहीं रहता भय
उसी का जीवन होता रसमय
उसी के जीवन मन होता लय
धरे वही पथ केवट का
कवि हूँ मैं सरयू – तट का
शरीर,ज्ञान,क्रिया और मन का
जिस पुरुष को ज्ञान होता
आत्मा से निर्लिप्त वो रहता
वही मोक्ष- पद योग्य होता
होता न ध्यान जिसे खटपट का
-कवि हूँ मैं सरयू – तट का
कवि हूँ मैं सरयू –तट का / सुखमंगल सिंह(24)
आवागमन को जो भूत हैं कहते
वे आत्मा को नहीं समझते
यहाँ - वहाँ हैं वही भटकते
जी नहीं पाते हैं वे डट के
उनका जीना अरवट– करवट का
कवि हूँ मैं सरयू – तट का
जिसके चित्त में समता रहती
मेरा वास वहीं पे रहता
मन और इंद्रिय जीतकर
राज लोक पर वही करता
माया- मोह को उसी ने पटका
कवि हूँ मैं सरयू – तट का
-------------------------------------------------------
कवि हूँ मैं सरयू –तट का / सुखमंगल सिंह(25)
सरयू रामप्रिया कहलातीं
—————————
पापनाशिनी हैं मां सरयू
असंख्य कल्पनायेँ संजो लहराती
मैदान में वह करनाली बन
सुन्दर-सुगम - पथ बनाती
हिमालय से निकलीं गंगा- सरयू
कवि हूँ मैं सरयू –तट का / सुखमंगल सिंह(26)
मां शारदा भी है नाम
उत्तराखण्ड नेपाल-सीमा में-
मां काली नदी है नाम
जान्हवी, राप्ती, आमी का नीर
घाघरा, गोंगरा नाम बताये
उनके सभी पाप धुल जायें
डुबकी सरयू में जो लगाये
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (27)
सरयू पथ संग- संग श्रीराम
ऋषि विश्वामित्र चले हैं
वाल्मीकि – वालकाण्ड बताने
शिक्षा देने को निकले हैं
ऋग्वेद ने भी किया गुणगान
मां सरयू वाकई महान
परंपरा में देविका कहाती
और रामप्रिया भी नाम
कवि हूँ मैं सरयू –तट का / सुखमंगल सिंह(28)
आओ आज मां सरयू का !
सब मिलकर गुणगान करें
श्री हनुमत-आज्ञा ले 'सुखमंगल'
शारदा - सरयू में स्नान करें
सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (29)
------------------------------------------
हे ! मां सरयू तुम्हें प्रणाम
बांचे वेद - शास्त्र हर द्वारे
धरा को लहर - लहर सँवारे
भक्ति -शक्ति का पाठ पढाके
मां सरयू हमें उबारे
तुझसे समृद्ध अयोध्या धाम
हे ! मां सरयू तुम्हें प्रणाम
तुझसे हर्षित हर कण- कण है
भजन में मेरा हर क्षण है
लहर से निकली तेरी ध्वनि ही
कविता - कला का निर्मल मन है
बड़ा बन गया छोटा नाम
हे ! मां सरयू तुम्हें प्रणाम
कवि हूँ मैं सरयू –तट का / सुखमंगल सिंह(30)
---------------------------------------------------------
श्री हनुमत की आज्ञा पाकर
तुझमें जो डुबकी लगाता
कई जन्मों के पाप धुल जाते
स्वर्ग में जाके जगह वो पाता
कहते हैं जिसे सुरधाम
हे ! मां सरयू तुम्हें प्रणाम
युद्ध - कला -पारंगत करके
धर्मराज का पाठ पढ़ाती
संत- हितों की रक्षा खातिर
तपसी-रूप के भेद बताती
चलती, सत्य का दामन थाम
हे ! मां सरयू तुम्हें प्रणाम
--------------------------------------------------
कवि हूँ मैं सरयू –तट का / सुखमंगल सिंह(31)
--------------------------------------------------
शिष्टता औ चारित्रिक - शुद्धता
आदर- विश्वास के भाव जगाती
राम- लखन-भरत - शत्रुघ्न को
प्रतिपल निरख-निरख इठलाती
भजती रहती सुबहो - शाम
हे ! मां सरयू तुम्हें प्रणाम
विनम्रता की, माला पहन के
विष्णु - पग - नख से निकली
सुवर्ण-मणि-मुक्ता-जड़ित अयोध्या
की ओर तूं निकल चली
देशो - दिशा तेरा गुणगान
हे ! मां सरयू तुम्हें प्रणाम
कवि हूँ मैं सरयू –तट का / सुखमंगल सिंह(32)
---------------------------------------------------
आओ ! आज माँ सरयू का
सब मिलकर गुणगान करें
श्री हनुमत - आज्ञा ले ’मंगल ‘
शारदा-सरयू में स्नान करे ं
प्रिय अयोध्या श्रीराम का धाम
हे माँ ! सरयू तुम्हें प्रणाम
श्री हनुमत रक्षा करें सदा
करें वास श्री भगत -हिरदय में
श्री रघुनाथ - कृपा ऐसी कि
प्रतिपल रहूँ राम के लय में
राममय रहूँ मैं सुबहो -शाम
हे माँ ! सरयू तुम्हें प्रणाम
कवि हूँ मैं सरयू –तट का/ सुखमंगल सिंह (33)
--------------------------------------------------
पुष्प संग पवन ,पवन संग चिड़िया
चह - चह - चह -चह-करें सदा
काम-क्रोध-मद-लोभ से मुक्त हो
रिद्धि- सिद्धि घर में भरे सदा
चाहे छाँह रहे या घाम
हे माँ ! सरयू तुम्हें प्रणाम
शिव संग शक्ति, शक्ति से किरपा
प्रतिपल हो , सुलभ आशीष
सभी का शुभ चाहता चले जो
रण में होता वही है बीस
नाम न होवे कभी अनाम
हे माँ ! सरयू तुम्हें प्रणाम
कवि हूँ मैं सरयू –तट का/ सुखमंगल सिंह (34)
भोले बाबा औघड़ दानी
सृष्टि में कोई नहीं है शानी
शिव-भक्तों से जो भी उलझे
हो जाती उसकी ख़तम कहानी
शिव-भक्ति मिले,विन मोल औ दाम
हे माँ ! सरयू तुम्हें प्रणाम
धर्म-कर्म-सद्भाव है जहां
शम्भु - रघुवर रहते वहां
कपट-दम्भ सब दूर है जिसके
उसके घर में कमी कहाँ
चाहे दक्षिण हो या बाम
हे माँ ! सरयू तुम्हें प्रणाम
कवि हूँ मैं सरयू –तट का/ सुखमंगल सिंह (35)
मां सरयू बहुत महान
यहां घूमते थके न राम
जिह्वा पर बस एक ही नाम
राम,राम,बस राम ही राम
तीनों लोक करे गुणगान
हे माँ ! सरयू तुम्हें प्रणाम
राम कथा सरयू के तीर
कहता-सुनता होता वीर
सुखमय उसका जीवन होता
वह होता धीर - गंभीर
पीता सदा वह राममय जाम
हे माँ ! सरयू तुम्हें प्रणाम
कवि हूँ मैं सरयू –तट का/ सुखमंगल सिंह (36)
मां गंगा -सरयू - सरस्वती
कल-कल करती बहती रहती
पापी हो या पुण्यात्मा
दुःख-पाप सब हरती रहती
दुःख-पाप हरना ही है काम
हे माँ ! सरयू तुम्हें प्रणाम
देवलोक जैसा मनमोहक
सरयू तीरे धरा है न्यारी
महिमा-गान की किरपा पाकर
जन-जन हो जाय सुखारी
परिक्रमा लगे कि चारो धाम
हे माँ ! सरयू तुम्हें प्रणाम
कवि हूँ मैं सरयू –तट का/ सुखमंगल सिंह (37)
कल-कल-कल-कल ध्वनि से
हरि हर का करती गुणगान
बहती जाती और बताती
भूत - भविष्य - वर्तमान
पाया मानव ज्ञान- विज्ञान
हे माँ ! सरयू तुम्हें प्रणाम
वाल्मीकि ने बालकाण्ड में
खूब किया है तेरा बखान
कालिदास ने रघुवंशम में
तुलसी -मांनस में गुणगान
तेरी महिमा, गुणों की खान
हे माँ ! सरयू तुम्हें प्रणाम
कवि हूँ मैं सरयू –तट का / सुखमंगल सिंह(38)
सगुण प्रभु -लीला जो जन गाये
देह - गेह सब निर्मल हो जाये
सारे भरम ,मिट जायेँ पल में
सभी पाप - संताप मिट जाये
राम- भक्ति है ललित ललाम
हे माँ ! सरयू तुम्हें प्रणाम
जो रघुवर-प्रेम-भक्ति में लीन
नहीं रह जाता वह दीन
उसकी पूंजी बढ़ती जाती
कोई नहीं पाता है छीन
सब कुछ मिल जाता विन दाम
हे माँ ! सरयू तुम्हें प्रणाम
कवि हूँ मैं सरयू –तट का / सुखमंगल सिंह(39)
"क्रीड़ा ललित ललाम की "
---------------------------
श्री राम -लक्ष्मण -जानकी
भरत -शत्रुघ्न हनुमान की
सदा हो जय श्री राम की
जय हो सदा श्रीराम की
नौ लाख वर्ष पहले
चौथा चरण था त्रेता युग का
उच्च रत्न संचित महलों में
जन्म भूमि रहा कलयुग का
बात है मान- सम्मान की
जय हो सदा श्रीराम की
इन्द्र की दूसरी अमरपुरी
राजभवन का रंग सुनहला
गगनचुम्बी सतखण्डे गृह में
विविध रत्नों का ढ़ेर था फैला
क्रीड़ा ललित ललाम की
जय हो सदा श्रीराम की
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (40)
ईसा शताब्दी शतक पूर्व
विक्रमादित्य ने मंदिर बनवाया
जन्मभूमि स्थान बताने
तीर्थराज प्रयाग स्वयं था आया
पुण्य फल चारों धाम की
जय हो सदा श्रीराम की
भारत में आ गये लुटेरे
जन्मभूमि को जमकर लूटा
लुटेरों ने सब शक्ति लगा दी
लेकिन मूर्ति, मन्दिर न टूटा
कहानी, शुरू हुई संग्राम की
जय हो सदा श्रीराम की
श्रीराममन्दिर तो बनना ही है
रोक नहीं पायेगा कोई
हर धर्म- सम्प्रदाय- पंथ का
राम बिना कल्याण ना होई
है आवाज, आम- आवाम की
जय हो सदा श्रीराम की |
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (41)
"अयोध्या, व्रह्मसृष्टि रजधानी "
---------------------------------
सुनो! सुनायें सुखमंगल
अयोध्या की तुम्हें कहानी
अमरपुरी बनी अयोध्या
व्रह्मसृष्टि की रजधानी
कैलाश पे प्रसन्न ,शिव - चित्त देख
पार्वती ने पूछा,अयोध्या- इतिहास
अयोध्या शब्द का भेद है ख़ास
इसमें व्रहमा ,विष्णु,शिव –निवास
यहीं से मिलता सभी जीव को
कपड़ा,लत्ता, भोजन –पानी
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (42)
------------------------------------------------
दाएं भाग में सरयू जी के
बसी हुई है प्रिय ! अयोध्या
अयोध्या- महिमा के बखान की
सरस्वती में भी नहीं है क्षमता
अयोध्या है वैकुण्ठ- धाम की
इसका नहीं है कोई शानी
अमरपुरी है बनी अयोध्या
व्रह्मसृष्टि की रजधानी
मनु महाराज ने अपनी सृष्टि का
मुख्य कार्यालय इसे बनाया
परम मुक्ति- धाम अयोध्या में
प्रभु श्रीचरण प्रथमतः आया
इसे विष्णु का मस्तक कहते
सन्त,ऋषि औ मुनि ज्ञानी
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (43)
-------------------------------------------------
अमरपुरी बनी अयोध्या
व्रह्मसृष्टि की रजधानी
कोई शत्रु जीत न पाये
इसीलिए है नाम अयोध्या
विहार स्थल श्री सीता राम का
शक्ति यहां पे बनी थी शैब्या
सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की
जुड़ी, यहीं से अमर कहानी
अमरपुरी बनी अयोध्या
व्रह्मसृष्टि की रजधानी
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (44)
----------------------------------------------------
चक्रवर्ती दशरथ आँगन में
सुन्दर सीता- कूप है बना
इसमें नहा लेने मात्र से
पूरी होती सभी कामना
इस स्थान की ऐसी महिमा
भिक्षुक भी हो जाता दानी
अमरपुरी बनी अयोध्या
व्रह्मसृष्टि की रजधानी
व्रह्मा ,बुद्धि से ,विष्णु चक्र से
मैं त्रिशूल से करता इसकी रक्षा
श्रद्धा से जो आते ,सरयू में नहाते
सभी यहां पाते ज्ञान धन शिक्षा
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (45)
------------------------------------------------------
शिक्षित होकर सृष्टि में
बन जाता बड़ा ज्ञानी
अमरपुरी बनी अयोध्या
व्रह्मसृष्टि की रजधानी |
शब्दार्थ :- शैब्या - अयोध्या के, सूर्यवंशी अट्ठाईसवें
राजा हरिश्चंद्र की रानी
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (46)
---------------------------------------------------------
"क्षमा मांगने जाओ अयोध्या"
--------------------------------
पढ़-सुनकर, अब बतलाता हूँ
जो कुछ भी पाया हूँ जान
अपना स्वरूप यदि जानना चाहो
मना लो तुम रुद्र भगवान
चित्र एकाग्र कर मनन करो
जानो सनातन -ब्रह्म- ज्ञान
सुनो -सुनाओ और अपनाओ
यदि बनना है तुम्हें महान
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (47)
--------------------------------------------------
मनु- पौत्र नाभाग लौटा
ब्रह्मचर्य -अवधि करके पार
उसके भाई सब बांट लिए थे
उसके हिस्से का घर –द्वार
नाभाग, अंगिरस के पास गया
पाया रुद्र से,विनती करने का ज्ञान
यज्ञ- भूमि की शेष वस्तुएं
रुद्र ने कहा- ले लो अपना मान
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (48)
--------------------------------------------------
क्योंकि तू सत्यवादी है
तूँ अब न किसी से मांग
इतना कह नाभाग से
रुद्र हो गये आंतर्ध्यान
*
अयोध्या शासक राजर्षि अम्बरीष पर
मुनि दुर्वासा हुए थे लाल
और उन्होने जटा की लट से
निकाल फेका भयंकर काल
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (49)
--------------------------------------------------
काल देख राजर्षि अम्बरीष ने
किया मन से प्रभु का ध्यान
चक्र सुदर्शन ने जब दौड़ाया
भागे यहाँ वहाँ दुर्वासा
अंत में भाग के गये वैकुंठ
जब उनको हो गई निराशा
हाँफते-काँपते प्रभु चरणों में
आखिर वो गिर गये धड़ाम
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (50)
--------------------------------------------------
प्रभु बोले कि मुनिवर सुन लो
मैं रहता भक्त -आधीन
क्योंकि मेरा भक्त है होता
प्रतिपल भुवनेश्वर में लीन
क्षमा मांगने जाओ अयोध्या
अम्बरीष ही करेंगे रक्षा का काम |
पढ़-सुनकर, अब बतलाता हूँ
जो कुछ भी पाया हूँ जान
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (51)
राम ही राम ,राम ही राम /
हममें,तुममें ,सबमें राम
----------------------------
राम,लक्ष्मण ,भरत शत्रुघ्न
पले बढे हैं छाँव -धुप में
परब्रह्म ,पद कमल कोमल
एक नहीं हैं चार रूप में
तर जाता जो भजता नाम
राम ही राम, राम ही राम
विविध भांति चिंतन कर जाना
तत्वदर्शी, ऋषियों ने माना
सत्य - धर्म का अलख जगाने
त्यागा राजपाट का बाना
मर्यादा की रक्षा ,पहला काम
राम ही राम, राम ही राम
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (52)
ऋषि-संतों-हित-रक्षा खातिर
तपसी - भेष धारण किये
धरा से राक्षस ख़त्म करेंगे
मन में यह संकल्प लिये
राक्षस मरे, गये सुरधाम
राम ही राम, राम ही राम
सादात अली- शुजाउद्दौला ने
अयोध्या-दक्षिण में जमाया डेरा
बनायी राजधानी लखनऊ में
हुआ शुरू बाबरी का फेरा
राम – विरोधी, किये संग्राम
राम ही राम, राम ही राम
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (53)
आज अयोध्या पर आफत भारी
काफी चिंतित हैं नर - नारी
पूरा देश अब यह चाहे
जल्दी निकले श्री राम सवारी
राम–विरोधियों का हो काम–तमान
राम ही राम, राम ही राम
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (54)
अयोध्या की याद आती है
----------------------------
अब सभी को अयोध्या की याद आती है
याद करने को और नहीं कुछ बाकी है
नाते जनम-जनम के, सब हो गये बेगाने
ऐसा लगे कि जैसे,सब सम्बन्धों की झांकी है
न किसी को आना है , न किसी को जाना है
आने और जाने में, बात बस जरा सी है
छोटी सोच से ऊपर,बड़ी सोच संग जो रहता
प्रकृति के संग जो चलता, उसे प्रकृति अपनाती है
मैं’सुखमंगल’ हूँ सभी का मैं मंगल चाहूँ
समझ लो यही मेरी सोच,मेरे जीवन की थाती है |
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (55)
राम हमारे राम तुम्हारे
-------------------------
शिव और ब्रह्मा जी भी
अयोध्या में खुश हो के पधारे
नारदादि ऋषियों समेत घूमे
डगर - डगर द्वारे –द्वारे
है मिथ्या जगत सारा
किन्तु सत्य हैं आप ही
आपसे पूरी सृष्टि प्रकाशित
सूर्य - चन्द्र भी आप ही
आपका दामन जो पकड़े वह
कभी भी नहीं जीवन में हारे
-राम हमारे ------
-------------------------------------------------
कवि हूँ मैं सरयू –तट का / सुखमंगल सिंह((56)
----------------------------------------------------
होता उसी का पुण्य उदित
सारे पाप होते उसी के नाश
रत्ती भर भी जिसके मन में
राम के प्रति होता विश्वास
रमे हुए हैं राम सभी में
राम हमारे राम तुम्हारे
कवि हूँ मैं सरयू –तट का / सुखमंगल सिंह(57 )
कोने - कोने ज्ञान भरें
------------------------------
हरियाली घर आंगन आये
दिल से आओ प्यार करें
गगन के पक्षी डाल डाल से
कलरव कर गुणगान करें |
कोयल की मीठी वाणी संग
कागा बैठा ध्यान करे
भीतर अभिलाषा लेकर मन में
कोने - कोने ज्ञान भरें |
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (58)
-----------------------------------------------
लछिमन चिड़िया 'मंगल ' गाए
गादी बैठे झाँक लगाए
लाल - गुलाबी, नीली -पीली
धानी मानी वसन बनाये |
मूल भूत पाषाण शिलायें
उठ खुदकर नाम लिखाएं
नहीं कहीं कोलाहल हो
हरियाली का जाल बिछायें |
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (59)
कथा – सार
------------
आज यहां मैं कथा – सार
मैं तुम्हें सुनाने आया हूँ
यहाँ शुकदेव– परीक्षित का
संवाद बताने आया हूँ
इंद्रिय शक्ति अगर चाहो तो
इन्द्र पूजन शुरू करो
ब्रह्म-तेज की चाह अगर हो
वृहस्पति- कृपा भरो
चाहें श्री लक्ष्मी को खुश करना
देवी माया का जप करना
तेज की हो चाह यदि तुममें
अग्नि प्रज्जवलित करके पूजना
---------------------------------------------------
कवि हूँ मैं सरयू तट का/ सुखमंगल सिंह (60)
तुम्हें वीर है बनना यदि
रुद्रों को खुश करते जाओ
धन पाने की हो जो लालसा
वसुओं के आराधक बन जाओ
अन्न कृपा तुम पर होगी ही
अदिति को यदि आप मनायेँ
हो स्वर्ग प्राप्ति की अभिलासा
अदिति पुत्रों का जप करें-करायें
राज़्य प्राप्ति के लिए सुनो !
विश्व देवों को तुम गुनो
प्रजा अनुकूल अगर चाहो तो
साध्य देवों को तुरन्त चुनो
------------------------------------------------------
कवि हूँ मैं सरयू – तट का / सुखमंगल सिंह (61)
-------------------------------------------------------
दीर्घ आयु की इच्छा वाले
अश्वनी कुमारों को न भूलना
अगर पुष्टि की तेरी कामना
पृथ्वी को है तुम्हें पूजना
प्रतिष्ठा की यदि चाह तुम्हारी
पृथ्वी - आकाश की पूजा न्यारी
अगर सौंदर्य तुम्हें है पाना
गन्धर्वो के पूजन पे दृष्टि हो सारी
पत्नी प्राप्ति की खातिर तुम
करो उर्वसी- अप्सरा की पूजा
सभी का स्वामी बनना चाहो
ब्रह्मा के अतिरिक्त कोई न दूजा
कवि हूँ मैं सरयू –तट का / सुखमंगल सिंह (62)
यश की कामना अगर तुम्हारी
यज्ञ पुरुष का ध्यान धरो
और खजाना पाना चाहो
वरुण देव का मान करो
यदि ध्यान विद्या प्राप्ति पर
शिव - शिव का ध्यान लगावे
पति -पत्नी परस्पर प्रेम पावे
माँ पार्वती की पूजा कर आवे
धर्म -उपार्जन के लिए हे नर
विष्णु भगवान् की पूजा कर
बाधाओं पर पड़ोगे भारी
मरुद्गणों का हो आभारी
कवि हूँ मैं सरयू –तट का / सुखमंगल सिंह (63)
हो राज्य कायम, रखने का ध्यान
तो मनवंतर के अधिपति का रख मान
अभिचारक के लिए तू नर
निऋतिक का मान न तूँ कर
यदि भोगों खातिर तेरा सफर
चन्द्रमा की उपासना कर
निष्काम प्राप्ति की खातिर ध्यान
बस परम पुरुष नारायण पर
सभी थपेड़े दूर भगाओ
श्री नारायण की स्तुति गाओ
संवाद शुकदेव - परीक्षित
पढ़ो – पढ़ाओ और सुनाओ
कवि हूँ मैं सरयू – तट का /सुखमंगल सिंह(64)
----------------------------------------------------
“अयोध्या –आक्रमण”
---------------------------
अनेक आक्रमण - आपत्तियों से
रामजन्म मंदिर बचा रहा
मंदिर तोड़,मस्जिद बनाने को
जलालशाह ने कजल अब्बास से कहा
जड़ जमाने को भारत में इस्लाम की
जय हो सदा श्रीराम की
*
बाबर और राणा सांगा में
युद्ध हुआ था घमासान
भागा बाबर आया अयोध्या
जलालशाह को रक्षक मान
चिंता थी बाबर के सम्मान की
जय हो सदा श्रीराम की
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (65)
*
दुआयें लेकर बाबर फिर से
फतेहपुर सीकरी जा पहुंचा
राणा सांगा को करके पराजित
जलालशाह से मिलने आ पहुंचा
मस्जिद बनाने की जलाल ने बाबर से मांग की
जय हो सदा श्रीराम की
सन 1675 में था मन्दिर शेष भगवान
औरंगजेब ने गिरवा के दिया शीश पैगंबर मस्जिद नाम
झेला अयोध्या ने इसके पहले जिन-जिन के आक्रमण जान
आक्रमणकारी हूण,बौद्ध ,शक,और मुसलमान
मन्दिर तोड़ने की शुरू हुई मीरवांकी की तैयारी
सबसे पहले उसमें मारे गये,वहाँ के चार पुजारी
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (66)
बाबा श्यामानंद - शिष्यों ने की इस तरह गद्दारी
आ गई तभी से अयोध्या पर ,जैसे आफत भारी
कई तोपों से विशाल राम मन्दिर तोड़ा गया
हिन्दू महात्माओं की सलाह से दीवार जोड़ा गया
एक लाख चौहत्तर हजार लाशें हिंदुओं की गिरीं
मीरवांकी सफल हो गया ,मन्दिर-हिंदूतत्व की किरकिरी
राम-मन्दिर तोड़ मस्जिद बनाने का मीरवांकी को सौपके काम
दिल्ली चला गया बाबर ,यहाँ शुरू हुआ भारी संग्राम,
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (67)
“मानव कुल मेँ जन्म ”
मैं कोई विद्वान नहीं ,
विद्वता का पाठ पढ़ाऊँ !
मैं कोई अज्ञानी नहीं ,
अज्ञानियों मेँ अज्ञानी कहाऊँ ||
सिंहों मेँ शानी नहीं ,
ज्ञानियों मेँ ज्ञानी नहीं |
मेरे देह – गेह मेँ,
अशांति बैठी भी नहीं||
मैं ध्रुव नहीं ,
जो बन गमन करूँ !
मैं राम नहीं कि,
राक्षसों का वध करूँ ||
मैं कृष्ण भी नहीं ज्यों ,
गोपियों को वंशी सुनाऊँ |
वृन्दावन मेँ उनके संग
रास लीला रचाऊ||
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (68)
महाराजा पृथु नहीं ,
मेरी पृथ्वी स्तुति करे |
मैं ऋषि सनकादि नहीं ,
महाराज पृथु सो उपदेश दूँ ||
महाराज पुरंजन नहीं ,
शिकार खेलने से रानी कुपित होगी |
मैं राजर्षिभरत भी नहीं ,
कि मृग योनि को पाऊँगा ||
और ऋषि अंगि0 पुत्र कहाऊँ
व्राहम्न कुल जन्म पाऊंगा |
मैं इन्द्र भी नहीं ,
ब्रह्म हत्या ले बिताऊँ ||
मैं चित्रकेतु भी नहीं ,
कि विश पान करूँ !
वामन भगवान भी नहीं ,
तीन पग मे ब्रह्मांड नापूँ ||
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (69)
मैं योग माया भी नहीं ,
कंस बध की भविष्यवाणी करूँ |
अधसुर- प्रलम्बासुर नहीं ,
कि उद्धार की सोचूँ ||
सुदर्शन – श्ंखचूर्ण नहीं ,
जो उद्धार को सोचूँ |
मैं अक्रूर जी नहीं ,
ब्रज यात्रा पर जाऊँ||
श्री कृष्ण की स्तुति में
ही अपने को लगाऊँ|
उद्धव जी की व्रजयात्रा –
का वर्णन लोगों को सुनाऊँ ||
और ऋषि अंगि0 पुत्र कहाऊँ
व्राहम्न कुल जन्म पाऊंगा |
मैं इन्द्र भी नहीं ,
ब्रह्म हत्या ले बिताऊँ ||
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (70)
मैं चित्रकेतु भी नहीं ,
कि विश पान करूँ !
वामन भगवान भी नहीं ,
तीन पग मे ब्रह्मांड नापूँ ||
मैं योग माया भी नहीं ,
कंस बध की भविष्यवाणी करूँ |
अधसुर- प्रलम्बासुर नहीं ,
कि उद्धार की सोचूँ ||
सुदर्शन - श्ंखचूर्ण नहीं ,
जो उद्धार को सोचूँ |
मैं अक्रूर जी नहीं ,
ब्रज यात्रा पर जाऊँ||
श्री कृष्ण की स्तुति में
ही अपने को लगाऊँ|
उद्धव जी की व्रजयात्रा -
का वर्णन लोगों को सुनाऊँ ||
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (71)
आप हीरे की अंगीठी जलाइये
------------------------------
हीरे की अंगीठी जलाइए
कोयले को भूल जाइये
रोटियां कोयले पे पकती रहीं
हीरे पे आप पका दिखाइये
मुझसे कहा कि आ जाइए
आ गया हूँ काम बताइये
मन का मैल कभी धोया नहीं
सड़को पे आप झाड़ू लगाइये
सुखमंगल है हर आदमी के साथ
आदमी को आदमी के पास लाइये
'मंगल ' भावना सद्भावना के साथ
आदमी को पहले आदमी बनाइये
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (72)
अभियान नवगीत
------------------------
बांधे सर पे मस्त पगड़िया
राह कठिन हो,चलना साथी
दुराचार ख़तम करने अब
उतार चलो काँधे की गाँती
आन ,बान और शान हमारे
अच्छे- सच्चे हैं वनवासी
दिलों - दिलों को दर्द बताने
महफिल - महफिल खड़ी उदासी
आँखें भर - भर उठती हैं
मां जब अपनी कहर सुनाती
बांधे सर पे मस्त पगड़िया
राह कठिन हो,चलना साथी
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (73)
----------------------------------------------------------
जोते - बोये ,कोड़े -सींचे
धरती में अपना खून -पसीना
फसलें हरी भरी लहरायें
हर्षित हुआ कृषक का सीना
सभी घरों में पेट को भरते
बेटे ,पोते, नतिनी -नाती
बांधे सर पे मस्त पगड़िया
राह कठिन हो,चलना साथी
घर- आँगन का नन्हा बच्चा
नाचे ,झूमे और इठलाये
वहीं ,किसान का बेटा ,सीमा पर
हंसते - हंसते गोली खाये
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (74)
-------------------------------------------------
संबंधों की स्मृतियों संग
आँखें खुली -खुली रह जातीं
बांधे सर पे मस्त पगड़िया
कठिन राह पे चलना साथी |
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (75)
---------------------------------------------------
करवा चौथ
----------------------
भूखे रहकर निर्जला स्त्रियाँ रखतीं है ब्रत,
भारत को देख इसी लिये सब रहते हत प्रध |
वी. डी. ओ. कालिंग से तोड़ते अपना ब्रत,
प्रियतम को पाकर प्यारी भी हो गई हकवत |
निराजल ब्रत रहकर भूखे दिन बिताये शक्त,
कृपा प्रभु हो गोल्ड मेडल ले आये भक्त |
भारत यूं ही नहीं संस्कृति पर भरता है दंभ,
सभ्यता संस्कृति संस्कार उसका है अवलम्ब |
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (76 )
---------------------------------------------------
परम्परा और प्यार का प्रतीक करवा चौथ,
देश -परदेश मन बहलने लगा करवा चौथ |
गुनगुना रहा है गीत- संगीत रात का चाँद,
चुडिया- कंगना सजने लगी है करवा चौथ |
बीती रात को ही प्यार समझाने लगा चाँद,
सुहाग सुहावन सुखद दीप जलाने लगा चाँद |
चांदनी रात में प्रेमी-पिया मिलाने लगा चाँद,
भूखे -प्यासे को 'मंगल' प्यार लुटाने लगा चाँद ||
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (77)
"चाह नहीं”
मेरी चाह नही इसकी ,
बड़ा व्यक्तित्व कहाऊं !
चौबीस घंटे की धुन में ,
पाथर बन पूजा जाऊं !
सर्दी - गर्मी बरसातों में ,
छतरी एक न पाऊं !
प्रभुता की भले नहीं ,
मैं ,लघुता के गीत सुनाऊँ |
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (78)
पीना - पिलाना
सिल गये हों होठ तो भी गनगुनाना चाहिए
रोना-धोना भूल कर मुस्कराना चाहिए ।
विद्रोही की ज्वाला भड़क उट्ठी है क्या ?
खुद समझ कर बाद में सबको बताना चाहिए ।
बस्तियों में फिर चरागों को जलाने वास्ते
महलों के दीपक कभी भी ना बुझाना चाहिए ।
अम्नो-अमन की नदियां अवच्छ हों बहें,
और वही जल पीना औ' पिलाना चाहिए ।।
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (79)
"ऐसा जतन करें "
------------------
चूल्हा - चौका रोटी पानी /
घर -घर यही कहानी/
भूखा पेट कोई मिल जाये /
आओ उसे भरें
हरी - भरी हो सबकी बगिया /
ऐसा जतन करें |
गाँव ,गली ,चौबारे गूंजे /
तुलसी औ कबीर की बानी /
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (80)
चूल्हा चौका रोटी पानी। ........
हर चौखट दरवाजे गायें /
शुभ- शुभ मंगल गीत /
शत्रु अगर कोई दिख जाये /
वह भी बन जाये मन मीत |
बूढ़ा मन महसूस करे कि /
आई लौट के पुनः जवानी /
चूल्हा - चौका रोटी - पानी ||
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (82)
" अपनी अंजुरी में भर भर "
--------------------------------
तीतर के झुंड पर /
फेंकना न कोई पत्थर /
प्रीति का सन्देश भेजा /
हर गली हर गाँव को /
धुप उतरी हो कड़ी तो /
कोशिशों से छाँव दो |
कल ये नव गीत मुखर हो /
हर चौकट आँगन में घर घर /
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (83)
तीतरों के झुंड पर.........
धैर्य और साहस के बूते /
हर विपत्ति को दूर भगायें /
हो उल्लास भरा मन प्रतिपल /
आलस्य फटकने कभी न पाये |
सब को खातिर खुशियां बाटें /
हम अपनी अंजुरी में भर भर ||
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (84)
मेरे मन जपना
आज भगवान मेरे मंदिर में बसना
हरे राम ,हरे कृष्ण ,बोल मन रटना |
राम जी के प्रेम में सीता दीवानी
सीता के हाथों में गजरा निशानी |
गजरा - पहिराके सीता ने कर लिया अपना
हरे राम, हरे कृष्ण, बोल मन रटना |
श्री कृष्ण जी के प्रेम में, मीरा दीवानी
मीरा के हाथों में वीणा निशानी |
वीणा बजाक- मीरा ने बना लिया अपना
हरे राम , हरे कृष्ण , बोल मन रटना |
राम - प्रेम में थी सबरी भी दीवानी
सबरी के हाथों में वेर निशानी |
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (85)
बेर खिला- सबरी ने लिया अपना
हरे राम , हरे कृष्ण , बोल मन रटना |
राम -राम भेजने से, दिल ना चुराना
इस जीवन का कोई ना ठिकाना
यह जीवन है सूखी लकड़ी
अग्नि लगे से जलि जाना
यह जीवन है कागज़ की नइया
लहरों के बहाव में बहि जाना
हवा लगे इसे उड़ि जाना
इस जीवन का कोई ना ठिकाना
यह जीवन है माटी का खिलौना
पानी में गलि जाना
-सुखमंगल सिंह
कवि हूं मैं सरयू-तट का / सुखमंगल सिंह (86)
Sukhmangal Singh
आदरणीय श्रीमान,
जवाब देंहटाएंरवि रतलामी जी
रचनाकार ,
मे मेरी स्वरचित एयचना
प्रकाशित किया
हार्दिक आभार