डॉ. कविता भट्ट - 1- मेरे हमकदम डिबिया में रखी फूल-वेणी कुछ याद दिलाती है; जो मिलन के क्षणों में केशों में मेरे लगाई थी तुमने। अब भी मह...
डॉ. कविता भट्ट
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1- मेरे हमकदम
डिबिया में रखी फूल-वेणी कुछ याद दिलाती है;
जो मिलन के क्षणों में केशों में मेरे लगाई थी तुमने।
अब भी महकती है उसी शिद्दत से, लहराती है-
घुँघराली एक लट- जो चेहरे से हटाई थी तुमने।
आज भी वही माला मेरे गले से लग मुस्काती है;
मुझे बड़े प्यार से निहारते हुए; पहनाई थी तुमने।
तुम्हारी आँखों में अपना अक्स देख लजाती है;
मेरी आँखों की हया जो धीरे से घटाई थी तुमने।
इन सबसे तुम्हें कुछ भी हासिल नहीं; बताती है-
मुझसे केवल शिकायत ; जो दी तन्हाई थी तुमने।
है मालूम, मेरे हमकदम! जो कली महकाती है;
इतिहास में दर्ज़ न होगी; जो खिलाई थी तुमने।
-0-mrs.kavitabhatt@gmail.com
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रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
2-हाइकु
1
पलकें चूमें
वातायन से झाँके
भोर किरन।
2
पुण्य सलिला
होगी जाह्नवी माना
तुम भी तो हो !
3
निर्मलमना!
रूप का हो सागर
भाव- ऋचा हो।
4
भाव-सृष्टि हो
सुधा -वृष्टि करती
मन में बसो !
5
प्राणों की लय
जीवन संगीत हो
मनमीत हो।
6
चन्दनमन
मलयानिल साँसें
अंक लिपटें।
7
नत पलकें
रूप पिए चाँदनी
चूम अलकें।
8
शीत पवन
रोम -रोम दहका
पाया चुम्बन ।
9
सागर पार
रुदन कर खोजे
यादों का द्वार।
10
गुम्फित तन
बीहड़ों में भटके
कोमल मन।
11
हिचकी आए
बिछुड़ा बरसों का
मीत बुलाए।
12
बर्छी -सी यादें
चुभ -चुभ जाएँ कि
रोने भी न दें।
13
रूप तुम्हारा
शुभ मुहूर्त जैसा
मन उकेरा।
14
सपना टूटा-
कहाँ गए प्रीतम
सूनी है शय्या।
15
क्रूर था मन
निरर्थक हो गए
पूजा-वन्दन ।
16
होने को भोर
ओ मेरे चितचोर
न जाओ अभी.
17
हौले से बोलो
सोया है मुसाफि़र
अर्से के बाद।
18
अश्रु थे अर्घ्य
उम्र भर चढ़ाए
माने न देव।
19
मन बेचैन
फूटेंगे कैसे फिर
सुधा- से बैन।
20
सुख देना था
अनुताप ही दिया
तुझे सम्मना ।
21
सिंचित करो
धरा-गगन प्यासे
कल्पान्त बीता।
22
हे भीगे नैनों !
अश्रुजल पिलादो
कि कण्ठ भीगे
23
हे मरुधर!
स्वप्न-जल ही सही
दो बूँद दे दो
24
हौसला बढ़ा
हाशिये पे जो लिखा-
बीज-मन्त्र था।
-0- rdkamboj49@gmail.com
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*तबरेज़ अहमद "अलीग*"
1.
" *कब तक मैं नेह निभाऊँगा* "
कब तक मैं नेह निभाऊँगा
कब तक अनुनेह दिखाऊँगा,
कुछ तुम भी बोलो हे साथी
मैं एक अकेला थक जाऊँगा !
बस एक तुम्ही हो सरस सरीखे
जिससे मैंने कवि-गुण सीखे,
अब तो तोड़ो मौन मधुरिमे
नहीं तो मैं भी रुक जाऊँगा !
कहने की न हिम्मत मुझमें
सहने का न साहस मुझमें,
तुम्ही कहो जो कुछ है कहना
तुमको मैं निसदिन गाऊँगा !
डरता हूँ मैं तेरे क्रोध से
कभी कभी पनपे पुरोध से,
पर अब शायद भीति नहीं है
इसीलिए कुछ कह पाऊँगा !
नहीं पता किस नेह नगर हूँ
नहीं पता किस गेह गगर हूँ
बस इतना ही जाना अब तक
तुमको पाकर इठलाऊँगा !
बोलो रमणीयम् सी रुप्पी
तोड़ दो आखिर अपनी चुप्पी
शायद साथ तुम्हारा पाकर
मैं भी थोड़ा खिल जाऊँगा !
नहीं कहा गर हृदय बात को
फिर पीछे मैं पछताऊँगा,
छोड़ जगत को एक दिन आखिर
तुम जाओगी मैं जाऊँगा !
आओ आओ साथ निभाओ
सुखमय जीवन का रस पाओ,
प्रेम सदा रसमय होता है
आओगे तो समझाऊँगा !
फिर क्या होगा पड़ा परीता
जीवन होगा जब सब रीता,
कर लो अंगीकार अंगने
मैं जीवन भर मुस्काऊँगा !
तुम जो आईं जीवन में तो
मैं ख़ुशियों से भर जाऊँगा,
लिखा विधि ने भाग्य जो होगा
वो सौभाग्य मैं पा जाऊँगा..!!
कर लो अंगीकार अंगने,
मैं जीवन भर मुस्काऊँगा,
प्रेम सदा रसमय होता है
आओगे तो समझाऊँगा..!!
2.
" *सुनो सखे सब स्वार्थ नहीं है*"
सुनो सखे सब स्वार्थ नहीं है
कुछ तो है परमार्थ यहाँ,
अपनों की ख़ुशियों की ख़ातिर
हारे हैं कुछ पार्थ यहाँ !
सुनो सखे सब स्वार्थ नहीं है
कुछ तो है परमार्थ यहाँ !
भ्रमवश तुमने सोचा कैसे
मन में आया लोचा कैसे,
मैं हूँ आया इस कानन में
साधने अपना स्वार्थ यहाँ !
सुनो सखे सब स्वार्थ नहीं है
कुछ तो है परमार्थ यहाँ !
कुसुमित वन और सुषमित मन का
कोना कोना मेरे तन का,
मुरझाया है आज न जाने
सुनकर ये व्यंग्यार्थ यहाँ !
सुनो सखे सब स्वार्थ नहीं है
कुछ तो है परमार्थ यहाँ !
शायद सीमाएँ लाँघी थी
कुछ तो अंतस् में घाघी थी,
तभी तो तुमने आज कहा यह
कुछ तो है अद्यार्थ यहाँ !
सुनो सखे सब स्वार्थ नहीं है
कुछ तो है परमार्थ यहाँ !
हम तो यायावर बंजारे
निकले हैं घर से बेचारे,
आ टपके इस विद्य भवन में
लेने विद्या आर्थ यहाँ !
सुनो सखे सब स्वार्थ नहीं है
कुछ तो है परमार्थ यहाँ !
तुम तो मुझको जान चुके थे
कुछ हद तक पहचान चुके थे,
फिर तुमने क्यों बोला हियवर
चुभता सा वाच्यार्थ यहाँ !
सुनो सखे सब स्वार्थ नहीं है
कुछ तो है परमार्थ यहाँ !
आज वही मैं फिर कहता हूँ
सारी उपमाएँ ढहता हूँ,
किंतु आज भी यह मत कहना
मेरा है वाक्यार्थ यहाँ !
सुनो सखे सब स्वार्थ नहीं है
कुछ तो है परमार्थ यहाँ !
कभी कभी आभास न होवे
जब भी ये मन आपा खोवे,
अर्थ वहीं गहरे दे जाते
छोटे से शब्दार्थ यहाँ !
सुनो सखे सब स्वार्थ नहीं है
कुछ तो है परमार्थ यहाँ !
सत्य वचन कहता शुभचिंतक
हम भी तेरे हैं हितचिंतक,
इसीलिए कह देते खुलकर
हम तेरे हित आर्थ यहाँ !
सुनो सखे सब स्वार्थ नहीं है
कुछ तो है परमार्थ यहाँ !
जितना चाहे अर्थ निकालो
शंका चाहे व्यर्थ निकालो,
चित्रित होता रहेगा प्रतिपल
चारु तेरा चरितार्थ यहाँ !
सुनो सखे सब स्वार्थ नहीं है
कुछ तो है परमार्थ यहाँ !
कुछ दिन और सहो शुभशंकर
मन से फेंक निकालो कंकर,
अभी नहीं कुछ पूर्ण हुआ है
मेरा अपना सार्थ यहाँ !
सुनो सखे सब स्वार्थ नहीं है
कुछ तो है परमार्थ यहाँ !
विनय वाक्य अंतिम है मेरा
तुमसे ही है सुबह सवेरा,
तुम जीवन की ज्योति ज्योतिते
तुम ही जीवन आर्थ यहाँ..!!
सुनो सखे सब स्वार्थ नहीं है
कुछ तो है प्रेमार्थ यहाँ..!!!!!!
बीएड प्रथम वर्ष, शिक्षा संकाय जामिया मिल्लिया इस्लामिया नई दिल्ली
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ब्रजेश त्रिवेदी
कस्तूरी कहत प्रेम करत मोरे पिया
काहे भगत तू ,मैं नित उर तोरे पिया
कहत सुनत तू मोहे निहारे
कस्तूरी कस्तूरी हिया पुकारे
मोहे निहारे काहे पुकारे है
मैं सुरभि तेरी ओ मोरे जिया
कस्तूरी कहत प्रेम करत मोरे पिया
काहे भगत तू ,मैं नित उर तोरे पिया
प्रेम की रीत चलत कस्तूरी
तोरे मन अँगना बसत कस्तूरी
प्रेम पथिक कहाँ मिलत है
सुवास मैं तोरी ओ मोरे हिया
कस्तूरी कहत प्रेम करत मोरे पिया
काहे भगत तू , मैं नित उर तोरे पिया
प्रेमन गालियां अति सकरी
राधा ज्यूँ किसन मन उतरी
प्रेम हिया तो बस इक रहत है
कस्तूरी बाती सारंग तू मोरे पिया
कस्तूरी कहत प्रेम करत मोरे पिया
काहे भगत तू ,मैं नित उर तोरे पिया
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अविनाश ब्यौहार
दीपावली के दोहे
***दीवाली के दोहे***
घर घर दीपक जल रहे, दीपों का त्यौहार।
छिपा हुआ है गुफा में, अब काला अँधियार।।
घर में गए विराज हैं, लक्ष्मी और गणेश।
धारण किया प्रकाश ने, फुलझड़ियों का वेश।।
आतिशबाजी के सजे, गलियों में बाजार।
मानव रहा खरीदता, भिन्न भिन्न उपहार।।
खील बताशे का लगे, लक्ष्मी जी को भोग।
पति घर पर त्यौहार में, होता दूर वियोग।।
झालर से हैं सज गए, बालकनी, छत, द्वार।
लोग बधाई दे रहे, बरस रहा है प्यार।।
दीवाली की आँख से, टपक रहा है नूर।
मुझको तो हर घर लगे, खुशियों से भरपूर।।
लिपे पुते घर द्वार अब, रौनक रहे बिखेर।
दीवाली की खुशी में, झूमा किया कनेर।।
गया दशहरा छोड़ अब, मन पर अपनी छाप।
खुशियाँ थोड़े दिन रहीं, बाकी दिन संताप।।
है दशहरे का मतलब, अच्छाई की जीत।
सीता जैसी वधु मिले, राम हुए मनमीत।।
हुई रामलीला मिला, हमको ये संदेश।
हनन करें हम जुल्म का, बदलेगा परिवेश।।
रावण होगा निशाचर, राम हुए प्रतिमान।
सद्चरित्र ने बना दिया, पुरुषोत्तम भगवान।।
जबलपुर म.प्र.
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शशांक मिश्र भारती
कुछ मुक्तक
01 :-
आज जिधर देखो उधर लोग वोट नीति पुष्ट कर रहे
नीति को गिरा गिरा स्तर राज को तन्दुरुस्त कर रहे
जिनके लिए आये जिन्होंने है चुना चिन्ता नहीं उनकी
बिजनेस यह है उनका अगली पीढ़ियां सन्तुष्ट कर रहे।।
02 :-
हम सैनिकों के शव यूंही कब तक गिनते जाएंगे।
आतंक और आतंकियों को कब सबक सिखलायेंगे।
देश कह रहा बहुत हो गया अब बचा है धैर्य नहीं
ये इनके आकाओं की छाती पर भी तिरंगा फहरायेंगे।।
03ः-
आस्तीन में पलें सांपों को जब तक न कुचला जायेगा
हम परीक्षायें कितनी दे लें परिणाम कभी न आयेगा।
बैठक चर्चायें बातें खूब हुईं और होती भी रहेंगी मित्रों
मां बाप पत्नी बहन भाई न रोये ऐसा दिन कब आयेगा।।
04ः-
हम सब साथ साथ पर सैनिकों के शव कब तक गिनते जायेंगे
वह दिन कब आयेगा जब इनकी छाती पर चढ़ तिरंगा फहरायेंगे।
देश कह रहा बहुत हो चुका अब धैर्य नहीं रख सकते हम हैं
शहादत की परीक्षायें अनेक दे लीं परिणाम लेकर कौन आयेंगे।।
05ः-
आज हिमालय बोल उठा है देश के दुश्मन और गद्दारों से
सावधान दुष्टों अभी भरत भूमि विहीन नहीं हैं राष्ट्र दुलारों से।
सैनिकों का सर्वस्व समर्पण देश के लिए सीमाओं पर खड़ा है
जिसने कल तक समझा कमजोर उसको दिया जवाब बड़ा है।।
06ः-
मत समझो हम गांधीवादी हैं हरकतों को सहते ही जायेंगे
नित करोगे आतंकी अलगाव और हिंसा हम न कह पायेंगे।
अब समय गया जो कबूतर उड़ाये जाते थे संवाद दुहराये
हमने ठाना हर हरकत पे सुभाष भगत बन सबक सिखायेंगे।।
संपादक देवसुधा हिन्दी सदन बड़ागांव शाहजहांपुर 242401 उ0प्र0
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डॉ सुशील शर्मा
सीता का संत्रास
बहुत सहे हैं दुःख मैंने कुछ तुमको सहने होंगे।
कुछ प्रश्नों के उत्तर श्री राम तुम्हें अब देने होंगे।
तोड़ धनुष शिव को जब तुमने मुझसे ब्याह रचाया था।
राजनंदनी बनने का सुख मैंने उस क्षण पाया था।
हम सब बहनें रानी बन कर जब कौसलपुर आईं थीं।
हमने अपने आँचल में वो सारी खुशियाँ पाईं थीं।
नहीं कभी थी राजलालसा न मन में अभिलाषा थी।
मांग राम सिन्दूर सजाने की मन में बस आशा थी।
कब सोचा था माँ कैकई के नस्तर अब सहने होंगें
कुछ प्रश्नों के उत्तर श्री राम तुम्हें अब देने होंगे।
राजा दशरथ बाध्य हुए क्यों कैकई के अरमानों से।
क्यों कौसल्या चुप बैठीं थीं अंतःपुर अफसानों से।
माना रघुवंशों के जीवन में वचन मान सबकुछ होता।
माना रघुवंशों के मन में प्रण प्राण बना सदा सोता।
नई नवेली दुल्हन आईं थीं कुछ अपने अरमान लिए।
कुछ खोने कुछ पाने कुछ अपनी पहचान लिए।
हा किसे पता उनको ये विरह बाण सहने होंगे।
कुछ प्रश्नों के उत्तर श्री राम तुम्हें अब देने होंगे।
राम अकेले वन को जाएँ और सीता भोगे राजविलास
ये कैसा निर्णय था प्रियवर रखो भी न तुम मुझको पास
जीवन भर हम साथ रहेंगे जब ये वचन दिया था गर।
मुझे छोड़ कर जाने का क्यों निर्णय लिया गया था फिर।
क्या तुम बिन सीता कौसल के अंतःपुर में रह पाती।
क्या दुनिया के तानों को वो जीवन में सह पाती।
कितनी आतुरता से सीता ने वल्क वस्त्र पहने होंगे।
कुछ प्रश्नों के उत्तर श्री राम तुम्हें अब देने होंगे।
किंचित मात्र न सोचा मन में मेरी क्या हालत होगी।
जो भोगेंगे राम कष्ट वो सीता की पीड़ा होगी।
आज अयोध्या सूनी सूनी आज अवधपुर खाली है।
इस उपवन को छोड़ चला अब देखो उसका माली है।
कर्तव्यों के कंटक पथ पर राम संग चली सीता।
मुस्काती अनुगामित बन कर चली भाग्य छली सीता।
अधरों पर मुस्कानों के संग पीड़ा के गहने होंगे।
कुछ प्रश्नों के उत्तर श्री राम तुम्हें अब देने होंगे।
स्वर्ण हिरण वो जिद थी मेरी वो तुमको लाना होगा
किसे पता था लाँघ लक्ष्मण रेखा सीता को जाना होगा।
स्त्री सुलभ उस आशा को काश रोक दिया तुमने होता।
तत्क्षण लोभ की भाषा को काश टोक दिया तुमने होता।
शूपर्णखा की नाक काटना रावण का प्रतिशोध बना
स्त्री का अपमान बन गया देखो कितना रक्त सना।
सीता हो या शूपर्णखा दर्द उसे सब सहने होंगे।
कुछ प्रश्नों के उत्तर श्री राम तुम्हें अब देने होंगे।
एक नागरिक की मंशा ने मन पर क्यों आघात किया।
अपनी प्रिय पवित्र सीता पर तुमने फिर क्यों घात किया।
क्यों मेरे चरित्र पर तुमने आज गड़ा ये शूल दिया।
बेसिर-पैर की बातों को क्यों इतना ज्यादा तूल दिया।
एक गर्भिणी माता को तुमने फिर वनवास दिया।
पूर्ण समर्पण के बदले में तुमने ये अविश्वास दिया।
क्या तुम उत्तर दोगे प्रियवर प्रश्न मेरे कुछ पैने होंगे।
कुछ प्रश्नों के उत्तर श्री राम तुम्हें अब देने होंगे।
लव कुश जैसे सुतों की माता राम की मैं अनुगामनी।
सत्य शपथ है राम तुम्हारी मैं गंगा सी पावनी।
स्त्री जीवन कठिन तपस्या अपमानों को सहती है।
कर्तव्यों के पथ पर चल कर अविरल निर्मल बहती है।
कर्तव्यों की बलिवेदी पर बीज सुखों के बोना है।
हे धरती माँ गोद तुम्हारी सीता सुता को सोना है।
सीता के संग सुख के पल श्री राम तुम्हें खोने होंगे।
कुछ प्रश्नों के उत्तर श्री राम तुम्हें अब देने होंगे।
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बापू
डॉ सुशील शर्मा
आँख पे चश्मा हाथ में लाठी
बापू तुम कितने हो सच्चे।
सदा तुम्हारे आदर्शों पर
चलते हैं हम भारत बच्चे।
करम चंद के घर तुम जन्मे
दो अक्टूबर दिवस पवित्र।
पुतली बाई की कोख से जन्मा
ये भारत का विश्वमित्र।
तन पर एक लगोंटी पहने
सत्य अहिंसा मार्ग बताया।
अपने हक की लड़ो लड़ाई
निडर बनो ये पाठ पढ़ाया।
अत्याचार के प्रतिकार में
नहीं तुम्हारी सानी है।
तेरे संकल्पों के आगे
नहीं चली मनमानी है।
दक्षिण अफ्रीका के समाज पर
रंगभेद का साया था।
रंगभेद के इस दानव को
तुमने मार भगाया था।
अंग्रेजों का कालकूट था
जलियांवाला नरसंहार।
गाँधी का असहयोग आंदोलन
बना जुल्म का फिर प्रतिकार।
अंग्रेजी चीजों का मिलकर
किया सभी ने बहिष्कार।
खादी और स्वदेशी नारे
बने स्वतंत्रता के हथियार।
स्वराज और नमक सत्याग्रह
गाँधी के हथियार थे।
अंग्रेजी शासन के ऊपर
ये हिंदुस्तानी वार थे।
दो टुकड़े भारत के देखो
सबके मन को अखरे थे।
हुआ स्वतंत्र राष्ट्र पर आखिर
गाँधी सपने बिखरे थे।
तभी एक गोली ने आकार
संत ह्रदय को छेद दिया
कोटि कोटि जन के सपनों को
पल भर में ही भेद दिया।
जाति धर्म की दीवारों को
गाँधी ने तोड़ गिराया था।
त्याग ,सत्य का मार्ग बता कर
ज्ञान का दीप जलाया था।
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गाँधी धीरे धीरे मर रहें हैं
(गाँधी जयंती पर विशेष )
डॉ सुशील शर्मा
गाँधी धीरे धीरे मर रहें हैं
हमारी सोच में
हमारे संस्कारों में
हमारे आचार व्यवहारों में
हमारे प्रतिकारों में
गाँधी धीरे धीरे मर रहें हैं।
गाँधी 1948 में नहीं मरे
जब एक आताताई की गोली
समा गई थी उनके ह्रदय में
वो गाँधी के मरने की शुरुआत थी
गाँधी कोई शरीर नहीं था
जो एक गोली से मर जाता
गाँधी एक विशाल विस्तृत आसमान है
जिसे हम सब मार रहें है हरदिन।
हम दो अक्टूबर को
गाँधी की प्रतिमाओं को पोंछते हैं
माल्यार्पण करते हैं
गांधीवाद ,सफाई ,अहिंसा पर
होते हैं खूब भाषण
शपथ भी ली जातीं हैं
और फिर रेप होते हैं
हत्याएँ होतीं हैं
राजनीति होती हैं
और हम तिल तिल कर
मारते जाते हैं गाँधी को।
अभी भी वक्त है
अंतिम सांसे ले रहे
गाँधी के आदर्शों को
अगर देना है संजीवनी
तो राष्ट्रनेताओं को छोड़नी होगी
स्वार्थपरक राजनीति
राष्ट्रविरोधी ताकतों के विरुद्ध
होना होगा एकजुट।
कटटरपंथियों को देनी होगी मात।
हमें ध्यान देना होगा
स्वच्छता,अहिंसा और सामुदायिक सेवा पर।
बनाये रखनी होगी सांप्रदायिक एकता।
अस्पृश्यता को करना होगा दूर।
मातृ शक्ति का करना होगा सशक्तिकरण।
जब कोई आम आदमी विकसित होता है
तो गाँधीजी उस विकास में जीवित होते हैं।
जब कोई दलित ऊँचाइयों पर जाता है
तब गांधीजी मुस्कुराते हैं।
जब हेमादास भारत के लिए पदक लाती है
गांधीजी विस्तृत होते हैं
गाँधीजी भले ही भारत में
रामराज्य का पूर्ण स्थापन नहीं कर सके।
भले ही वो मनुष्य को बुराइयों से दूर न कर सके।
किन्तु युगों युगों तक उनके विचार
प्रासंगिक रहेंगे।
गाँधी मानवता के प्रतीक हैं।
गाँधी श्रद्धा नहीं सन्दर्भ हैं।
गाँधी व्यक्ति नहीं भारत देश हैं।
गाँधी प्रेरणा नहीं आत्मा हैं।
सुनो
मत कत्ल करो अपनी आत्मा का
मत मारो गाँधी को।
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देवेन्द्र कुमार पाठक
पर्यावरण-संरक्षण (जनगीत)
कौनो कारन बतावा?
बड़ी ममतालु है कुदरत हमारी,
चेतन-अचेतन सबहीं कै महतारी;
सह रही प्रदूषण की मार जो, काहे कारन बतावा?
कुदरत है बेबस-लाचार जो, काहे कारन बतावा?
पढ़े-लिखे लोग कहैं उन्नति भई है,
उन्नति तो कम ज़्यादा दुर्गति भई है;
भोगत हैं हलकानी, भूमि,पवन, जल,पानी;
पर्यावरण बीमार जो, काहे कारन बतावा?
कुदरत को दुख दें हम सुख कइसे पाँवैं,
अपनी बरबादी हम समझ नहीं पावैं;
इक्कीसवीं समय-सदी,ज़हरीली नागिन-सी;
मूँड़े पर रही फुफकार जो, काहे कारन बतावा?
कुदरत न दी हमका ज़हन,समझ,बानी;
फेर काहे की कुदरत से छेड़खानी;
हद हमही तोड़ दिहेन, मरजादा छोड़ दिहेन;
जीयब कर लओ नागवार जो, काहे कारन बतावा?
धरती के बचे-खुचे हाड़ ना चिचोडें,
कुदरत से पाक़-साफ नेह-नात जोड़ें;
एक पेड़ रोपें, दस पूतों का पुण्य करें,
मूड़े है लदा करजभार जो, काहे कारन बतावा?
जंगल ना काटब, चिरई-चुनगुन ना मारब,
मूड़े धरा हत्यारी-पाप अब उतारब;
धुंध-धूर, घोर शोर, बढ़ा-चढ़ा ओर-छोर;
बढ़ रहीं बीमारी-बीमार जो, काहे कारन बतावा?
कहूँ परत सूखा, कहुँ बाढ़ बहुत आवै,
ज्ञानिउ-विज्ञानिउ के समझ नहीं आवै;
भई जुलम-ज़्यादती, धरती कराहती;
होइ जावै सब बंटाढार जो, काहे कारन बतावा?
जीवन कै बगिया को मरघट में बदळै,
कोप करै कुदरत मनमानी पर मचलै;
ढेर लगैं लाशन के, होड़ महानाशन के;
चौतरफा चीख-चीत्कार जो, काहे कारन बतावा?
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साईपुरम कॉलोनी, रोशननगर,कटनी;483501,म.प्र.
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पर्यावरण-संरक्षण गीत
धरम जीवन का निभावा!
देवेन्द्र कुमार पाठक
कुदरत की हरी-भरी कोंख न उजाड़ो,
पांवों पर अपने कुल्हाड़ी न मारो;
भू,वन,जल-संपदा बचावा.
धरम जीवन का निभावा!
सदियों से धरती की दौलत हम लूट रहे,
आनेवाले कल के सुख-साधन टूट रहे;
कल की दुर्गति से भय खावा.
धरम जीवन का निभावा!
कुदरत केअंश रूप हम सब इंसान हैं,
अपने दुष्कर्मों से बनते हैवान हैं;
मानवता अब न लजावा.
धरम जीवन का निभावा.
पहले हैम पेड़ों की पूजा जब करते,
पीछे तब क्यों उनकी हत्या हम करते?
गूँगे पेड़ों से छलावा.
धरम जीवन का निभावा?
अब ज़्यादा गहरे भू-खनन नहीं करना,
बंजर-बीहड़ धरती हरी-भरी करना.
मरुथल की कोख हरियावा.
धरम जीवन का निभावा.
काटो मत पेड़,फूल एक-दो ही तोड़ना,
नदियों में कचरा,नाली, लाशें न छोड़ना;
कचरे की होलिका जलावा.
धरम जीवन का निभावा!
पर्वत-वन,पशु-पक्षी, झील,नदी-झरने;
अपने ही हाथों बर्बाद नहीं करने;
एक जन, एक पेड़ अब लगावा.
धरम जीवन का निभावा!
कुदरत का क़हर कहाँ, कब,किस पर टूटे;
पता किसे, किसका,घर-गाँव, शहर छूटे?
कुदरत का क्रोध न बढ़ावा.
धरम जीवन का निभावा!
भूमि, हवा,पानी की कीमत पहचानिये,
पेड़-नदी,पशु-पक्षी को ईश्वर मानिये!
पर्यावरण अब बचावा.
धरम जीवन का निभावा!
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साईपुरम कॉलोनी, रोशननगर, कटनी;483501.म.प्र.
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अनिल कुमार
'लालच'
न जाने कितने रिश्तों को
लालच का दानव चबा गया
छोटे से स्वार्थ की खातिर
आदमी रिश्तों को भूला गया
भूल गया अपने वे दिन
दुख से भीगे रातों के क्रन्दन
जब अपनों के कन्धों पर
सिर रखकर पीड़ा खोया करता था
दर्द में जिनकी छाँव तले
कुछ पल तू चैन से सोया करता था
उन अपनों को आज
तू लालच का कोड़ा मार गया
केवल अपने स्वार्थ के लिए
उन रिश्तों को तू नकार गया
अब कभी जो तुझ पर
संकट का बादल छा जायेगा
तू रोयेगा चिल्लायेगा
तब सोच तू किसके दरवाजे पर
अपना दुखड़ा लेकर
लालच की झोली फैलायेगा
हे आदमी ! तू कपट भरा
लालच में उलझा
एकाकी था एकाकी ही रह जायेगा।
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'मौत की सत्ता'
मौत भी क्या गजब है ?
पूरा जीवन डराती है
और जब आती है
बिन बोले अपना फर्ज निभाती है
कितना भी बचना चाहो
चाहे जितना जोर लगाओ
पर मौत तो अपना काम कर ही जाती है
उसका ना कोई अपना है
ना कोई है पराया
मौत ने तो इस सारी धरती पर
अपना राज है सदियों से चलाया
ना कोई उससे जीता
ना मौत को है किसी ने हराया
मौत के इस कर्मकाण्ड़ से
यह भूलोक मृत्युलोक है कहलाया।
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सुधीर मौर्य
स्वप्न में स्वप्न मेरा पालती है -
स्वप्न में स्वप्न मेरा पालती है
मेरी आँखों में आकर झांकती हैं।
वो लड़की गाँव की उड़ती हवा सी
कभी चंचल कभी अल्हड़ जरा सी
उसकी देह पर तिफ्ली का मौसम
युगल आँखें किसी काली घटा सी
वो एक बहती हुई अचिरावती है
स्वप्न में स्वप्न मेरा पालती है
मेरी आँखों में आकर झांकती हैं।
उसकी बाते किसी नटखट के जैसे
उसकी पलके किसी नटखट के जैसे
उसके माथे पे सूरज का ठिकाना
बदन लचके किसी सलवट के जैसे
मेरे सर पर वो साया तानती है
स्वप्न में स्वप्न मेरा पालती है
मेरी आँखों में आकर झांकती हैं।
जी करे उसपे कोई गीत लिख दूँ
उसके पाँव पर संगीत लिख दूँ
जो उसकी रुसवाइयों का डर न हो
उसे हर जगह मनमीत लिख दूँ
कभी देवल कभी पद्मावती है
स्वप्न में स्वप्न मेरा पालती है
मेरी आँखों में आकर झांकती हैं।
अचिरावती - रावी नदी का पौरणिक नाम।
देवल - मध्यकालीन आनिहलवाड की राजकुमारी।
पद्मावती - चित्तौड़ की महरानी।
सुधीर मौर्य
ग्राम व पोस्ट - गंज जलालाबाद
जनपद - उन्नाव (उत्तर प्रदेश)
पिन - २०९८६९
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शंकर परगाई
कविता
1.पेड़ की व्यथा
वो जड़ो से
उखाड़ देना चाहते
जैसे उखाड़ते है वो
पेड़ो को /जंगलों को
एक न्याय के मंच में
नहीं माना गया
जंगल को जंगल
एक दिन
वो आदमी को
नहीं मानेंगे आदमी
एक दिन
नहीं माना जायेगा
आदमी
अपनी जाति धर्म का
तब क्या करोगे तुम
वो उस
उखाड़ देंगे
आदमी को
जड़ से
जैसे की उखाड़
देते है एक पेड़ को /जंगलों को
भला
विकास के अंधों को
पेड़ नहीं दिखता
न कोई जंगल
एक दिन
आदमी नहीं दिखेगा
जैसे प्रकृति नहीं दिखती
फिर कौन होगा
तुम्हारे साथ खड़ा
जब तुम नहीं हो
प्रकृति के साथ खड़े
इसलिए
व्यक्त करो
विरोध अपना
क्योंकि तुम कर सकते हो
पेड़ नहीं कर सकते
न ही जंगल !
2.
जब भी
उखाड़ा गया
काटा गया है एक पेड़
साथ में
नष्ट की गयी है
एक सभ्यता !
3.
वो काटेंगे
हम
फिर रोप देंगे
एक पेड़
जिसकी जड़े
काटी गयी
हमने उसकी टहनियाँ
रोप दी !
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सचिन राणा हीरो
"माथा चूम आता हूं ""
इश्क़ में पावनता की जन्नत कुछ ऐसे घूम आता हूं,,
महबूब को भर कर बांहों में, मैं माथा चूम आता हूं,,
उनको पाने की जिद केवल इतनी थी,,
उनके करीब आकर के उनकी सांसे गिरने थी,,
उनको छूकर ही केवल मैं खुद को भूल जाता हूं,,
महबूब को भर कर बाहों में, मैं माथा चूम आता हूं,,
यौवन से कोई बेर नहीं पर हवस की कोई प्यास नहीं है,,
रूह से उनकी इश्क़ हुआ है, जिस्म की कोई आस नहीं है,,
उन के बदन को छू कर केवल मैं पारस बन जाता हूँ,,
इश्क़ में पावनता की जन्नत कुछ ऐसे घूम आता हूं ,,
महबूब को भर कर बांहों में, मैं माथा चूम आता हूं ,,
कुछ हासिल करना ही केवल सच्चा प्यार नहीं होता ,,
सात फेरों का मतलब ही दुल्हन का श्रृंगार नहीं होता ,,
बिना सिंदूर ही उसकी मांग को वचनों से भर आता हूँ ,,
इश्क़ में पावनता की जन्नत कुछ ऐसे घूम आता हूं ,,
महबूब को भर कर बांहों में, मैं माथा चूम आता हूं ,,
--
"" दुनिया शक करती है "
लाख समझाया उसको पर वो कंहा समझती है,,,
वो हंसकर बात करती है तो ये दुनिया शक करती है,,
तारीफ करूं उसकी आंखों की या फिर रपट लिखाऊं थाने में,,
उसकी आंखें कत्ल मेरा कई कई बार करती है,,
वो हंसकर बात करती है तो ये दुनिया शक करती हैं,,
वो तो हंस कर चली जाती है मैं तन्हा बिखर जाता हूं,,
वो ख्वाबों को दे जाती है मैं पागल सो भी ना पाता हूं,,
एक हंसी से कैसे मेरी नींदें हराम करती हैं,,
वो हंसकर बात करती है तो ये दुनिया शक करती है,,
मेरे घर के सामने से नहीं रस्ता है उसके घर का,,
फिर भी जाने को अपने घर मेरा रस्ता प्लान करती है,,
दिख जाऊं दरवाजे पर अगर तो घबरा जाती है,,
तब मुस्कुराके बस वो नजरों से सलाम करती है,,
लाख समझाया उसे पर वो कहां समझती है,,
वो हंसकर बात करती है तो ये दुनिया शक करती है,,
सचिन राणा हीरो
कवि व गीतकार
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अविनाश तिवारी
#आओ माता
माता आओ मेरे अंगना
माता मेरी बुला रही है।
मेरी माता जगजननी को
मैया कहके झुला रही है।
मां में देखूं स्वरूप तुम्हारा
बहन में ममता पाई है
हर नारी में जगदम्बा की
मूरत एक समाई है।
घूम रहे हैं महिषासुर
चौकों में बाज़ारों में
मानवता को तार करते
जिल्लत के ठेकेदारों में
द्रौपदी का चीरहरण मां
रोज करता दुःशासन है
कृष्ण नहीं है कोई यहां अब
दुर्योधन का धृष्ट वाचन है।।I
आओ माते रूप धरो अब
धरा मधु कैटभ से मुक्त करो
रक्त बीज से व्यभिचारियों को
पुण्य धरा से विमुक्त करो।।
जगमग ज्योति जले भारत में
समरसता सद्भाव रहे
श्रद्धा भक्ति में डूबे रहे
मन में नव उत्साह रहे।।
भारत वर्ष अखण्ड रहे
धरा अन्नपूर्णा युक्त रहे
प्रेम दीप जले चहुँ ओर
धन्य धान्य भरपूर रहे।।
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
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खान मनजीत भावडिया मजीद
हमने मारी औरतें
हमने मारी औरतें
अलग-अलग माध्यमों से
अलग-अलग तरीकों से
अस्त्रों से
पत्थरों से
आग से
हाथ से
पछाड़ से
हमने मारी औरतें
सरे राह मारी
सरे बाजार मारी
भर उत्सव मारी औरतें
ताकि भय खाएं
सर ना उठाएं
सती किया
उत्सव भर दिया आग में
जल कर मरने को
जौहर कर दिया
हमने दहेज में मारी
गर्भ में मारी
बलात्कृत -करके
नोंच नोंच कर
फिर-फिर मारी औरतें
मौत को वीभत्स करके मारी
ताकि सुन ले औरत
कानून तुम्हें बचा ले जितना भी
हम निकाल लेंगे नई कोई लम्पटता
किसी दिन पूछ लेगी औरत
कि क्यों मार रहे हो सदियों से हमें
तो क्या कहोगे तुम?
हम कहेंगे
कि हम मारेंगे
मारते रहेंगे,
जीतने के उपक्रम में
हम यही कर सकते हैं
मार कर जीतेंगे
या जीतने के लिए मारेंगे
जीतना क्या है
कभी यह पूछ ले औरत
तब क्या कहोगे??
तब हम कहेंगे
चुप कर
मार देंगे नही तो!
खान मनजीत भावडिया मजीद
गांव भावड तहसील गोहाना जिला सोनीपत
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छाया अग्रवाल
अपना समुन्दर
न जाने कौन सी रग को
तोड़ दिया है तुमने
कि अब प्यास जगती ही नहीं है
लाख चाहतों का सफर
याद दिला दूँ इस मन को
और उन लम्हों को सटा लूँ
करीब से
जहाँ बंधनों को तोड़ कर मैं
अविरल सी बही थी
हर पत्थर को गिराती, समझाती
बस चली जा रही थी
नयन अभिराम
टिके थे तुझ पर
मगर तुम वहाँ थे ही नहीं
मैं सूख कर रेतीली सी होती गयी
जहाँ तुम्हारे पाँव जलने लगे
और तुम फिर तलाशने लगे
बहती हुई नदी
जिसे तुम सुखा कर रेतीली बना सको
या जीत सको
अपनी भटकी हुई पिपासा
मैं रेतीली होकर तड़पती रहूँ
ये न कर सकूँगी
अब नव अंकुर फूटेंगे
तृप्त कर देंगे
पीड़ा के रक्त खण्ड़ों को
तब मैं बन जाऊँगी
जीवन दायिनी उन अंकुरों की
फिर से बहेगा निर्मल प्रवाह
इस बार मैं छोड़ दूँगी
पिछले पथरीले रास्तों को
और जीत लूँगी
अपना समुन्दर
छाया अग्रवाल
बरेली
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चंचलिका
" हौसला बुलंद कर "
हे मानव !
तू हताश न हो...
किस्मत से हारकर
तू क्यों औंधे मुँह पड़ा है.....
उठ, कमज़ोर मन को
वक्त के खुरदुरे हाथों से सहला ....
बेबसी के आँसू न बहा
आँखें पोंछकर दुनिया को देख ....
तू ही अकेला हताश नहीं
और भी अनेक ग़म से घिरे लोग हैं यहाँ .....
तेरा जीवन ही
उत्सर्ग है कर्म के लिए....
व्यर्थ में समय को बर्बाद न कर
खुद पर भरोसा रख , प्यार कर खुद से ......
समय का पहिया घूमेगा
कर्म की गति बढ़ेगी.....
तू एक दिन सफल होगा ....
तेरा निरर्थक जीवन सार्थक बनेगा.....
निर्भीक और निडर बन
सच्चाई , ईमान की राह पर तू चलाचल..
हौसला बुलंद रख
अर्जुन की तरह अपना लक्ष्य भेद कर......
एक दिन , अनंत ब्रह्मांड के प्रकोष्ठ में
तुझे एक यथार्थ मानव का सम्मान मिलेगा...
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सिद्धार्थ संचोरी
*मैं और मेरी परछाई*
सफर ए मंजिल एक सी थी,
मैं पीछे और वो मुझसे आगे थी।
मुड़ कर देखा उसने एक दफा,
वो हडबडाई शायद गलतफहमी थी ।
कोशिश में मेरी मैं मशगूल,
और वो इससे भी हैरान थी।
एक पहर में दोनों साथ।,
उसे क्या पता मेरी मजबूरी थी।
लो अब कहा खत्म ये बात थी,
एक और सफर में फिर वो साथ थी।
ना कोई गलतफहमी ना मजबूरी,
इस बार हर बात साफ थी।
सफर ए मंजिल एक सी थी,
पर एक की जीत और एक की हार थी।
कोशिश में मेरी मैं मशगूल,
इसी बात से वो हताश थी।
वो हार गई तभी तो मैं जीत गया,
क्योंकि वो मेरी परछाई थी।।
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सुनील कुमार
।। विजयदशमी मनाएंगे ।।
*************************
हर साल की तरह इस साल भी
रावण का पुतला जलाएंगे
बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व मनाएंगे ।
पर क्या इस तरह हम
अपने भीतर के रावण को मार पाएंगे
बुराइयों और समस्याओं को दफन कर पाएंगे।
क्या मात्र रावण का पुतला जलाने से
हमारी असुरी प्रवृत्तियां खत्म हो जाएंगी
घटनाएं अपहरण-हत्या- बलात्कार की रुक जाएंगी।
त्रेता युग के एक दशानन को तो
मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने खत्म कर दिया था
पर कलयुग में तो हमारे सामने
समस्या रूपी दशाननों की फौज है ।
क्या मात्र पुतला जलाकर हम
इन दशाननों को खत्म कर पाएंगे या
इनसे मुक्ति का कोई और रास्ता निकाल पाएंगे ।
विजयदशमी पर्व की
खुशियां मनाने से पहले
हमें सोचना होगा
रावण दहन का तरीका
कोई नया खोजना होगा ।
तभी देश के विकास और समृद्धि में बाधक
समस्याओं और बुराइयों रूपी आधुनिक
दशाननों को हम खत्म कर पाएंगे
वरना वही पुराने तरीके से
इस साल भी रावण का पुतला जलाएंगे
और विजयदशमी की झूठी खुशियां मनाएंगे
पर आधुनिक दशाननों की फौज से
मुक्ति कभी न पाएंगे।
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प्रस्तुति- सुनील कुमार
पता- ग्राम फुटहा कुआं
निकट पुलिस लाइन
जिला- बहराइच,उत्तर प्रदेश।
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बिलगेसाहब
दिल को किसी की आस नहीं है
आँखोँ में किसी की की प्यास नहीं है
ए दौर है तनहाइयों का दौर,
खुद के सिवा कोई साथ नहीं है
अपनों ने ही मुझे बर्बाद कर दिया
गैरों का इसमें कोई हाथ नहीं है
सारे ग़मों को सुलाकर सो जाऊँ
नसीब में वो सुकूँ की रात नहीं है
गलती मेरी थी जो मैंने प्यार किया
खैर अब किसी से शिकायत नहीं है
कोई तुझे चाहे कोई तुझे भी प्यार करे
'बिलगे' शायद तुझमें वो बात नहीं है..!
-बिलगेसाहब(madhukar bilge)
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सन्तोष मिश्र
मोबाइल और बच्चों की smile
देख मोबाइल बाबा का ,बच्चे करते हैं smile.
उछल कूद से, इन्हें बचाना ,तो मोबाइल दे दो while.
मोबाइल जब हाथ हो इनके, तब देखो इनकी style.
ढूंढ़ खोजकर तुम्हें दिखाते,तुम्हारी ही profile .
बच्चे,मन के होते सच्चे , मोबाइल से करते enjoy.
कम्प्यूटर युग के बच्चों का अब, मोबाइल सबसे अच्छा toy
मोबाइल में मस्त ये बच्चे लड़की हो या हो boy.
मोबाइल प्रयोग से मना करो ,तो पूछेंगे फिर why.
बड़े बुजुर्ग कुछ समझ सके न पर बच्चे होते है expert.
मोबाइल के अन्दर घुस जाते ,रहते सदा alert.
सच मानों तो मोबाइल ही , होता बच्चों का heart.
मोबाइल दे दो बच्चों को यदि ,फिर हाथ लगे न उसकीdirt.
मोबाइल के इस चलन में ,इनके भविष्य का matter.
विद्यार्थी यह कम होते हैं ,ज्यादा होते ये chatter.
--
मानवीय अवगुण
मानव और दानव का फर्क ,कहॉ अब मिलता है ।
अब तो केवल स्वार्थ हेतु, मानव का जीवन पलता है ।
मानव से तो है पशु ,पक्षी ,भी श्रेष्ठ।
ईश्वर , क्यों मानव की ,श्रेणी को रखा है ज्येष्ठ ?
दो हाथ दिए है ईश्वर ने ,निरीह जीव की रक्षा को ,
फिर क्यों करते घोर क्रूरता , वध करके उनको खाने को?
मानव की उगली यदि कटती है ,दर्द सहा नहीं है जाता ?
गर्दन काट के खाने में क्यों ,तुम्हें मजा है आता।
तुम्हें दिया है ईश्वर ने, दर्द बताने को जुबान ,
शर्म नहीं क्यों तुमको आती ,करते ईश्वर का अपमान ।
जिसका तन तुम सारा खाते, क्या एक उगली अपनी, दे सकते हो?
सबल बनाया ईश्वर तुमको ,फिर भी उससे नहीं डरते हो ।
एक भूखे की रोटी खाकर क्यों चैन तुम्हें है मिलता ।
जब भ्रकुटी टेढ़ी होती ऊपर वाले की ,सिंहासन है हिलता ।
मानव बनकर यदि आए हो, हर जीवों पर दया करो ।
हर दीन दुखी पर दया करो , अपने से दुर्बल को क्षमा करो ।
दया धर्म का पाठ पढ़ाओ , झूठे धन पर मत इतराओ ।
छोड़ रहा जो मानवता को ,बरबस उसको भी समझाओ ।
यदि मानवता जीवित हो जाए , रामराजमय होगी धरती।
परम स्नेह का बेल फैला दो, अगली पीढ़ी करे न गल्ती ।
सन्तोष मिश्र--ग्राम व पो.खरसेडवा,जिला फतेहपुर.212641
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अविनाश दुबे
रातभर शरारत की है
नींद न जो आई मुझको
ऐसी वारदात हर रात की है
नींद न जो आई मुझको
मैंने खुद से बात की है
जो देखती रही अंगड़ाई मुझको
वजह न जाने किस कयामत की है
जो पूछती रही तन्हाई मुझको
ऐसी वारदात हर रात की है
नींद न जो आई मुझको
करवट बदलते रहना जैसे आदत सियासत की है
झूठ के रोशनदान से झांकती रही सच्चाई मुझको
ऐसी वारदात हर रात की है
नींद न जो आई मुझको
बेचैनी बेबसी लगती है
आंखों में कुछ कमी सी लगती है
बहुत कोशिश करता हूँ सोने की,
पर फिर भी सोने न दे यार की रुसवाई मुझको
ऐसी वारदात हर रात की है
नींद न जो आई मुझको
बताना भी चाहूँ छिपाना भी चाहूँ
चाहूँ खुद को मिटाना भी चाहूँ
मैं क्या था मैं क्या नहीं जो लोग समझ रहे हरजाई मुझको
ऐसी वारदात हर रात की है
नींद न जो आई मुझको
_अविनाश दुबे ।
गोदिंया महाराष्ट्र
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रीझे"देवनाथ"
बुढापा है, जीवन की विदाई बेला
अधूरे स्वप्न, अगणित यादों का मेला
अनुभव के खजानों से भरा
वर्तमान से खीझता,भविष्य से डरा
अपलक शून्य में निहारना
यादों की चादर को प्रतिपल झाड़ना
बच्चों सी मासूमियत का नाम
बचपन के पुनरागमन का सूचक
जिनकी भावनाओं का नित्य अनादर होता है
सूखी आंखों से अश्रु बह न सके
पर नित अंतर्मन रोता है!!
बुजुर्ग के वचन कभी मिथ्या नहीं होते
श्राप हो या आशीष,समय पर अवश्य फलित होते
माना कि बूढ़े वृक्ष से मीठे फल न मिल पाते
पर उनके स्नेहिल छांव तले
सुखद शीतलता तो पाते!!!
रीझे"देवनाथ"
टेंगनाबासा(छुरा)
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प्रतीक कुमार
मेरा बेहतरीन कल
मैं बेहतर कल बनाऊंगा।
इस दुनिया को दिखाऊंगा।।
नहीं रुकूंगा अपने पथ पर,
और मैं नहीं थकूंगा।
कदम- से-कदम मिलाकर,
मैं बढ़ता चला जाऊंगा।
मैं बेहतर कल बनाऊंगा..........
नहीं देखूंगा किसी को पथ में,
वह मुझे क्या कहता हैं?
उन सभी को अनदेखा करके,
मैं अपना कदम बढ़ाऊंगा।
मैं बेहतर कल बनाऊंगा..........
हार नहीं मानूंगा तब तक,
जब तक लक्ष्य दिखाई देगा।
विश्वास के साथ संघर्ष करके,
मैं अपना लक्ष्य पाऊंगा।
मैं बेहतर कल बनाऊंगा।
इस दुनिया को दिखाऊंगा।।
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