।। ऊॅ नमः शिवायः।। ।।श्री।। ।। श्रीराम अक्षरी वर्णमाला रामायण।। लेखक श्री गौरीशंकर श्रीवास्तव निवासी -परसोन तहसील -ख...
।। ऊॅ नमः शिवायः।।
।।श्री।।
।। श्रीराम अक्षरी वर्णमाला रामायण।।
लेखक
श्री गौरीशंकर श्रीवास्तव
निवासी-परसोन
तहसील-खुरई, जिला सागर म.प्र.
हमारे प्रेरणा पुंज
श्री जगन्नाथ प्रसाद जी श्रीवास्तव
सर्वाधिकार लेखक द्वारा सुरक्षित
पहली बार १००० प्रतियां वर्ष १९७२
।। ऊं नमः शिवायः।।
।।श्री।।
।। श्रीराम अक्षरी वर्णमाला रामायण।।
दोहा- श्री गणपति को समर के गुरू को शीष नवाय।
राम अक्षरी लिखत हैं, शारद होव सहाय।।१।।
अ- अवधपुरी जनमन भयो, राम लियो अवतार।
अन्शन सह जन्मन लये, जन्मे भाई चार ।।२।।
आ- आज अवधपुर सुख भयो, आनन्द बड़ो अपार।
घर-घर होत बधाइयाँ, गावत मंगलाचार।।३।।
इ- इक दिन जन्में रामजी, दूजे लछमन भाय।
तीजे जन्मे भरत जी, चौथे शत्रुघ्न भाय।।४।।
उ- उत्तम कुल दशरथ पिता, माता हैं यह तीन।
कौशल्या, कैकेई कहो, और सुमित्रा तीन।।५।।
ए- एक मात दो सुत भये, लखन, शत्रुहन भाय।
एक-एक कौशल्या, कैकई, राम-भरत भये भाय।।६।।
ऐ- ऐसे चारों पुत्र के, नामकरण उपचार।
नगर बुलऊवा हो रहा, जुड़ आई सब नार।।७।।
ओ- ओट करत सब रानियाँ, नजर बचा नर नार।
मिल मिलकर सब सहेली, गातीं मंगलाचार।।८।।
औ- औगड़दानी आय कर, शिवजी बोले बैंन।
कौशल्या तुम सुतन को, बिन देखे नहीं चेन।।९।।
अं- अंग अंग सब देखकर, नाचे शिव हरषाय।
तीन लोक के त्रलौकी, दर्शन पाये आय।।१०।।
अः- अः अः हंसकर प्रभु, दीन्हा आंख सन्देश।
समझ इशारा तुरत ही, चलते भये महेश।।११।।
क- करते लीला बाल प्रभु, कौशल्या हरषात।
काग भुषुण्ड पीछे फिरत, जूठन प्रभु की खात।।१२।।
ख- खिलखिलात खिसयात हैं, खेलत खेल अपार।
संग सखा सब खेलते, अरू यह भाई चार ।।१३।।
ग- गिरत उठत फिर गिरपरत, तुतला कर बतयात।
कैंकई माता सुमित्रा, कौशल्या हरषात।।१४।।
घ- घर आँगन घुटनो चलत, बैठत माता गोद।
तुतला-तुतला बोलते, होता हास्य विनोद।।१५।।
च- चलन फिरन लागे सबै, हो गये कछु हुशयार।
उत मुनि विश्वामित्र ने, मन में किया विचार ।।१६।।
छ- छोड़ कुटी यह जाऊँ अब, दशरथ के दरबार।
राम-लक्ष्मण लायकर, राक्षस करूँ संहार ।।१७।।
ज- जाकर पहुँचे अवधपुर, गये दशरथ दरबार।
दशरथ ने प्रणाम कर, लये पास बैठार।।१८।।
झ- झुक-झुक कर कीन्हीं आरती, चरणन रक्खा ताज।
कुशल पूछ बोले वचन, मुनि आये किहि काज।।१९।।
ट- टारो नहिं मम वचन को, कहूँ राजन समझाय।
थोड़े दिन को दो हमें, राम-लखन दोई भाय।।२०।।
ठ- ठान-ठान बोले वचन, सुनो मुनि महाराज।
राम लखन दूंगा नहीं, चाह मांग लो राज।।२१।।
ड- डर दिखला मुनि श्राप का, दो दोई बालक आज।
इनके जरिये ही मेरा, सफल होय सब काज।।२२।।
ढ- ढूँढ-ढूँढ सब राक्षस, करवाऊँ सँहार।
प्रण करके इस बात का, आया तेरे द्वार।।२३।।
त- तब वशिष्ट गुरू आ गये, समझाये उन राय।
तीन लोक के नाथ यह, जन्में तेरे आय।।२४।।
थ- थाम हृदय के शोक को, बोले दशरथ बेंन।
दोई पुत्र सौंपत तुम्हें, रखियो इन सुख चेंन।।२५।।
द- दशरथ सौंपे पुत्र दोई, गये मुनि के साथ।
दंडक वन की राक्षसी, ताड़का मारी नाथ।।२६।।
ध- धनुष यज्ञ को रचो है, जनक राज महराज।
दिये निमंत्रण सब जगह, दियो मुनि महाराज।।२७।।
न- नारी तारी अहिल्या, मारी अशुर समाज।
यज्ञ सफल कर मुनि को, गये जनक के राज।।२८।।
प- पहुँचे मुनि संग जनकपुर, राम लखन गये ग्राम।
पुर की शोभा देखकर, वापिस आये राम।।२९।।
फ- फूल लेन पूजन के हित, गये फुलवारी माहि।
सीता जी भी उस समय, आई बगिया माहि।।३०।।
ब- वचन कहे इक सखी ने, राम लखन दोई भाय।
बगिया में वह फिर रहे, चलो देखिये जाय।।३१।।
भ- भई देख विहवल सिया, पुरानी प्रीत लखाय।
दोनों नजरें एक भई, मन गया लुभ्याय।।३२।।
म- मंदिर देवी के गई, मन से पूजन कीन।
राम लखन भी फूल ले, मुनि को जाकर दीन।।३३।।
य- यज्ञ भूमि फिर जाय कर, धनुष राम दयो टोर।
चारहिं भाई विवाह भवो, ऊबे जनक की पौर।।३४।।
र- रावण सीता को हरी, मरो सभी परवार।
पवन पुत्र सुग्रीव की, वानर सेन अपार।।३५।।
ल- लंका राज्य विभीषण, फिर दीन्हों श्रीराम।
पवन पुत्र सुग्रीव सह, आये लखन सिया राम ।।३६।।
व- वापिस अवधपुर आयकर, मिले सकल परिवार।
भरत राम सों यों मिले, बोले आँसू ढार।।३७।।
श- शगुन समय गुरू पूंछकर, बैठो गादी माही।
जबसे तुम वन को गये, सूनी गादी ताहि।।३८।।
ष- षवर करी कुछ समय में, गुरू वशिष्ट गये आय।
राज गादी सामान सब, आरती लई सजाय।।३९।।
स- सब मिल कीन्हीं आरती, सिंहासन सियाराम।
तिलक वशिष्ठजी ने कियो, सारो अबसब काम।।४०।।
ह- हनुमत चौकी राम की, अपने मत्थे लीन।
सेवा में हाजर रहॅू, होऊँ न बदल मलीन।।४१।।
क्ष- क्षमा करो सब गल्तियाँ, जो जो जिसकी होय।
आप त्रलौकी नाथ प्रभु, तुम समान नहिं कोय।।४२।।
त्र- त्रष्णा त्रलोकी हरी, जिन त्रष्णा लौ होय।
त्रष्णा ही इस जगत में, बिरला छोड़े कोय।।४३।।
ज्ञ- ज्ञानदेव सब के हृदय, अज्ञानी जो होय।
बिरला ही इस जगत में, ज्ञानी ध्यानी कोय।।४४।।
राम अक्षरी रची यह, निज मति के अनुसार।
भूल चूक जो हो कहीं, सज्जन लियो समार।।४५।।
पढ़े-सुन जो जन इसे, सुबह व सायंकाल।
होवे नहिं वह बहु दुःखी, और न हो बेहाल।।४६।।
ज्ञान भक्ति अंकुर जमे, ताके ही मन माहि।
गौरीशंकर को सही, प्रभु दर्शन की चाह।।४७।।
विक्रम संवद बीस सो, छब्बीस आगे होय।
जेष्ठ शुक्ल तिथि दोज है, सूर्यवार है सोय।।४८।।
मध्यप्रदेश सागर जिला, पोस्ट परसोन ग्राम।
श्रीवास्तव कौम है, गौरीशंकर नाम।।४९।।
हरे राम, हरे राम, राम-राम हरे-हरे।
हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण हरे-हरे।।
।। जा पर कृपा रामजी की होई,
तापर कृपा करें सब कोई।।
-आरती-
आरती जय श्री राम सिया की।
रतन सिंहासन ब्राजे राम सिय,
शोभित झांकी बाँकी।
आरती जय श्री राम सिया की।
दांये भरत जी बांये लक्ष्मण
शोभा है अति नीकी।
आरती जय श्री राम सिया की।
पीछे चंवर ढुरावत शत्रुघ्न,
हनुमत सेवा चरण की।
आरती जय श्री राम सिया की।
गौरीशंकर आस लगी
प्रभु तुमरे दर्शन की।
आरती जय श्री राम सिया की।
।। ऊं नमः शिवायः।।
लेखक परिचय
श्री गौरीशंकर श्रीवास्तव का जन्म २० अगस्त १९०७ को ग्राम परसोन, तहसील खुरई, जिला-सागर मध्यप्रदेश में हुआ। इनके तीन बेटे, तीन बेटियां हुईं। सभी का विद्याध्ययन, विवाह संस्कार कराया और अच्छी जीविकोपार्जन से जोड़ा।
लेखन की प्रेरणा इन्हें अपने पिता श्री जगन्नाथ प्रसाद जी श्रीवास्तव से मिली। सन् १९७२ में पुस्तक तैयार की। १२ दिसम्बर १९९९ को ९३ वर्ष की आयु में रात्रि लगभग १० बजे खुरई में देवलोक गमन हुआ।
मेरे पिता वैद्यक एवं ज्योतिष शास्त्र के अद्भुत ज्ञाता थे। यह व्यवहार में जितने सादगी से भरपूर थे, विचारों में उतने ही उच्च थे। वे किसी प्रकार की बुराई की भावना से न तो कभी समझौता करते और न ऐसी सलाह देते। वे स्वभाव से समुद्र की तरह गंभीर और संकल्प में हिमालय की तरह अडिग थे।
श्री रघुवीर सहाय श्रीवास्तव
एवं
श्रीमती राधा देवी श्रीवास्तव
संकलनकर्ता एवं मार्गदर्शक
।। ऊं नमः शिवायः।।
प्रकाशक के विचार
हमारा देश भारत कृषि प्रधान तथा प्राकृतिक सौन्दर्य से समृद्ध देश है। देश में रहने वाले अनेक धर्म, जाति, विचारों तथा पुरानी परंपराओं को मानने वाले हैं। हमारा प्रयास यह होना चाहिए कि देश में कोई भी गरीब न रहे, कोई भी बेरोजगार न रहे, जिस दिन गरीब-अमीर की खाई देश से समाप्त हो जाएगी, उस दिन हमारा राष्ट्र समृद्धशाली देशों में गिना जाएगा और इसका गौरव देश की युवा पीढ़ी को होगा।
गीता में योगेश्वर कृष्ण कहते हैं कि जो सभी प्राणियों में किसी से द्वेष नहीं करता, जो मित्रता करता है, जो दया पूर्ण है, जो अभिमान रहित है, जो सुख या दुःख से विचलित नहीं होता, जो क्षमा करने वाला है, जो निरंतर संतुष्ट रहता है, जो धीर है, सहनशील है, दृढ़ विश्वासी है, जिसने अपने आपको वश में कर लिया है, जो वचन का पक्का है, जो अपने मन तथा बुद्धि को मेरे अर्पण कर देता है। निःसंदेह इस प्रकार का व्यक्ति मुझे प्रिय है।
क्रोध, प्रतिशोध एक ऐसा मानसिक ज्वर है जो मन की समस्त शक्तियों को भस्म कर डालता है। बुरा मानना एक तरह का मानसिक रोग है जो दया और सहृदयता के स्वस्थ प्रवाह को अवरूद्ध कर देता है।
क्षमा से पांच लाभ हैं :-
१. स्नेह की प्राप्ति का सुख
२. मेलजोल की वृद्धि का सुख
३. सुखी और शान्त रहने का सुख
४. क्रोध और अहंकार पर विजय पाने का सुख
५. दूसरों से नम्र व्यवहार प्राप्त करने का सुख
परमपिता परमेश्वर की असीम अनुकंपा से रचित पुस्तक का लाभ उठायें। यही पूर्वजों द्वारा लिखित, संग्रहित पुस्तक को पुनः प्रकाशित कराने का उद्देश्य है।
- रघुवीर सहॉय श्रीवास्तव
।। ऊं नमः शिवायः।।
पिता का पत्र पुत्र के नाम
चि. श्री रघुवीर सहाय खुश रहो।
हमारा स्वभाव सब पर एक-सा है। हमने अपने शत्रुओं से बदला न लेकर मित्रता ही अपनाई और अपनी उमर में सरकारी नौकरी में भी किसी को गाली तक नहीं दी। क्रोध तक किसी पर नहीं किया व सब पर एक ही भाव रखा, न ज्यादा किसी से मेल न ज्यादा मनमुटाव। जीवन इसी तरह बीता सब आदमियों ने हमको माना, हमारी सेवा की।
हमारी जन्मपत्री तुमने पढ़ी होगी, वह बिल्कुल सही उतर रही है। हमारा जन्म सूर्यलोक से आकर हुआ है और वहीं जाना है यह और तुम्हारा अवतार हमारे पिता का है। यह बिल्कुल सत्य समझो, क्योंकि जब जो जाता है उसके मन में जैसी भावना होती है वह वही योनी पाता है, इससे उनका हमारे ऊपर बहुत प्रेम था, हमारी ही ओली में उनने प्राण त्याग किये थे और फिर हमको बहुत सपना देते रहे।
गौदान उनपर की थी, भट्ट जी को हमको सपना दिया था सो हमने नन्हें लम्बरदार से अच्छी गाय दूध वाली तुरत की व्यायी हुई, भट्टजी को दे दी थी। फिर स्वप्न देकर वह आये। हमको व तुम्हारी माँ को स्वप्न दिया कि हम तीर्थों को गये थे, अब आ गये हैं। नौ माह बाद तुम्हारा जन्म हुआ। यह झूठ नहीं समझना और तुममें वहीं लक्षण भी हैं, वैदक ज्योतिष वह जानते थे, क्रोध भी कम करते थे।
द : गौरीशंकर
वंदन
विविधता में एकता
‘‘अनेक पंथ हैं, अनेक सम्प्रदाय,
अनेक मत हैं, अनेक मार्ग,
परंतु दयालु कैसे बनें
यह जानना आवश्यक है,
क्योंकि दुःखी संसार को
दया की आवश्यकता है।’’
रघुवीर सहाय श्रीवास्तव
प्रकाशन सहायक : आशीष श्रीवास्तव
कृष्ण सहाय श्रीवास्तव (उच्च न्यायालय अधिवक्ता)
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