अब नहीं प्रासंगिक न कारगर कोई बिम्ब विधान उपमान बेकाबू होती जाती स्थितियों में ...
अब नहीं प्रासंगिक न कारगर
कोई बिम्ब विधान उपमान
बेकाबू होती जाती स्थितियों में
उनके निर्धारकों की मुंहझौंसियों में
बड़बोलों के ढोल पीटते मुस्टंडों की
जबरधौंसियों में
अपनी बोली बानी के
गंवईगीतों की सामूहिक कंठ स्वरलहरियों में
अब होगी अपनी कविताई
जंगल की पगडंडियों में
वैसा ही होगा अब स्वर कड़क बाँका
नाचे गायेगा कवित्त कबीरा
सरा रा रा स रा रा
सच अब चीखेगा चिल्लाएगा
तोड़कर गला
ढहायेगा झूठी कामयाबियों का किला
खोखले दावों की रेत फांकती नदियों में
पानी पीटती दलीलों की लाठियों से
हाँके जाते जनमत को अब नहीं भरमायेगा
कोई ठलुआ पसीनाखोर बादशाह
लफ़्फ़ाज़ कि कोई शहजादा
कोई विरासत की आह कराह
अपना आपा खोएगा नहीं अब गोवर्धन
कितना भी कोई गायेगा कीर्तन
भगवानों और खुदा के बंदों के नाम पर
अटकाए भटकायेगा
अबकी बार होगा भिनसार
कहाँ से कैसे
न रब से न राम से
न वेद से न वाम से
आकाश न पाताल से
फूटेगा प्रकाश
भूख की धरती प्यास की तलाश से
सड़क पर प्रसव करती मां की असहायता
मीलों पत्नी बच्चे का शव ढोते
पति पिता की विवशता,......
कितने कई आंतर कोनों से
आएगा बदलाव अबकी बार
जनकवि जन की बोली बानी में गायेगा
करमा देवारी फ़ाग बजायेगा
मांदल मंजीरा टिमकी
शुरुआत नये दिन की......
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समूह-गान
(एक जन,एक पेड़,चलो रोपो रे )
देवेंद्र कुमार पाठक
एक जन,एक पेड़,चलो रोपो रे,रोपो रे!
रोपो रे भैया,रोपो रे;रोपो रे भैया रोपो रे!
एक पेड़ रोपो दस पुत्रों का पुण्य मिले,
मिट्टी का क्षरण घटे,खग को आश्रय मिले;
रोको रे,रोको रे; गूंगे पेड़ों का वध रोको रे!
रोपो रे भैया,..................................
फ़ोकट के डॉक्टर नीम,वाट,पीपल,
जामुन,अशोक,बेल,निर्गुण्डी,कीकर;
सोचो रे,सोचो रे; सोचो रे भैया,सोचो रे!
रोपो रे भैया,...............................
पेड़ बढ़ें खीँच लायें मेघों से पानी,
पानी से सबकी खुशहाल जिंदगानी;
पोंछो रे,पोंछो रे; कुदरत के आँसू पोंछो रे!
रोपो रे भैया,.................................
कूक रही कोयल,पपीहा पुकारे,
नाचे मयूर और हाथी चिंघाड़े;
भोगो रे,भोगो रे; हरियाली के सुख भोगो रे!
रोपो रे भैया,....................................
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गीत-
पेड़ हितैषी हमारे
देवेंद्र कुमार पाठक
पेड़ हितैषी हमारे, ये सच क्यों हमने बिसारे?
काटे पेड़ उजाड़े जंगल,
हमनेअपना किया अमंगल;
जुल्म प्रदुषण गुजारे,ये सच क्यों हमने बिसारे?
दें सबको ईंधन,छत-छप्पर,
प्राणवायु देते ये स्वच्छ कर;
सबके प्राण-सहारे,ये सच क्यों हमने बिसारे?
लड़ें न किसी से,न देते गाली,
दुनिया को देते खुशहाली;
सबके मित्र हैं न्यारे,ये सच क्यों हमने बिसारे?
पत्थर सहते पर फल देते,
सबकी बीमारी हर लेते;
सब के तारनहारे,ये सच क्यों हमने बिसारे?
बदबू,धूल,धुआं के भक्षक,
उपजाऊ मिट्टी के रक्षक;
धरती के सुत प्यारे,ये सच क्यों हमने बिसारे?
वैन-वृक्षों की ये अभिलाषा,
कोई रहे न भूख-प्यासा;
पर नरपशुओं से हारे,ये सच क्यों हमने बिसारे?
कुदरत की हैं शान पेड़-वन,
इनसे ही कायम जगजीवन;
देते हैं सुख सारे, ये सच क्यों हमने बिसारे?
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साईंपुरम् कॉलोनी,रोशननगर, साइंस कालेज डाकघर ,कटनी,जिला -कटनी;म.प्र.
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परिचय-देवेन्द्र कुमार पाठक
म.प्र. के कटनी जिले के गांव भुड़सा में 27 अगस्त 1956 को एक किसान परिवार में जन्म.शिक्षा-M.A.B.T.C. हिंदी शिक्षक पद से 2017 में सेवानिवृत्त. नाट्य लेखन को छोड़ कमोबेश सभी विधाओं में लिखा ......'महरूम' तखल्लुस से गज़लें भी कहते हैं....................
. 2 उपन्यास, ( विधर्मी,अदना सा आदमी ) 4 कहानी संग्रह,( मुहिम, मरी खाल : आखिरी ताल,धरम धरे को दण्ड,चनसुरिया का सुख ) 1-1 व्यंग्य,ग़ज़ल और गीत-नवगीत संग्रह,( दिल का मामला है, दुनिया नहीं अँधेरी होगी, ओढ़ने को आस्मां है ) एक संग्रह 'केंद्र में नवगीत' का संपादन. ...... ' वागर्थ', 'नया ज्ञानोदय', 'अक्षरपर्व', ' 'अन्यथा', ,'वीणा', 'कथन', 'नवनीत', 'अवकाश' ', 'शिखर वार्ता', 'हंस', 'भास्कर' आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित.आकाशवाणी,दूरदर्शन से प्रसारित. 'दुष्यंतकुमार पुरस्कार','पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी पुरस्कार' आदि कई पुरस्कारों से सम्मानित....... कमोबेश समूचा लेखन गांव-कस्बे के पिछड़े,शोषित- उत्पीड़ितों,खेतिहर मजूर-किसानों के जीवन की व्यथा-विसंगतियों,संघर्षों-उम्मीदों और सामाजिक,आर्थिक समस्याओं पर केंद्रित......
सम्पर्क-1315,साईंपुरम् कॉलोनी,रोशननगर,साइंस कॉलेज डाकघर,कटनी,कटनी,483501,म.प्र. ; ईमेल-devendrakpathak.dp@gmail.com
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