तेजपाल सिंह ‘तेज’ के कुछ गीत -एक- कैसे कोई गीत लिखूँ मैं कैसे कोई गीत लिखूँ मैं ? धरती-धरती धूल उड़ी है, अम्बर-अम्बर जंग छिड़ी है, बारूदी...
तेजपाल सिंह ‘तेज’ के कुछ गीत
-एक-
कैसे कोई गीत लिखूँ मैं
कैसे कोई गीत लिखूँ मैं ?
धरती-धरती धूल उड़ी है,
अम्बर-अम्बर जंग छिड़ी है,
बारूदी गोलों की लय पर,
कैसे नव-संगीत लिखूँ मैं ?
कैसे कोई गीत लिखूँ मैं ?
संसद की बेदम छाती पर,
सत्ता की कलुषित पाती पर,
भ्रष्ट-तूलिका से जीवन में,
कैसे गीत-अगीत लिखूँ मैं ?
कैसे कोई गीत लिखूँ मैं ?
माँ के तार-तार आँचल पर,
आशाओं के दुर्लभ जल पर,
नए दौर के स्याह पटल पर,
कैसे जीत की रीत लिखूँ मैं ?
कैसे कोई गीत लिखूँ मैं ?
*****
-दो-
हम तुमको अपना कर बैठे
हम तुमको अपना कर बैठे,
महज़ तुम्हें माना ही नहीं,
तुम इतने निष्ठुर हो तुमने,
हमको अभी जाना ही नहीं ।
जब-जब आँखें चार हुईं,
तब-तब तुम मुस्काए तो ,
लेकिन आँखों की भाषा को,
तुमने कभी बाँचा ही नहीं ।
मुद्दत से मन मन्दिर में,
हम तुम्हें सजाए बैठे हैं,
लेकिन तुमने मेरे दिल में,
आज तलक झाँका ही नहीं ।
पीड़ा सह करके भी हम,
एक भरम बनाए बैठे हैं,
लेकिन तुमने प्रीत- रीत का,
मर्म तनिक जाना ही नहीं ।
बेशक मुझे खिलौना समझो,
लेकिन खुलकर खेलो तो,
पर तुम हो दौलत के हामी,
प्यार-व्यार जाना ही नहीं ।
*****
-तीन-
घायल मन का घायल पंछी
घायल मन का घायल पंछी,
कित आए कित जाए,
तू-तू मैं-मैं की दुनिया में, अपना किसे बनाए ?
रात ने पहना नकली चोला,
नकली चाँद-सितारे,
ऐसी आई बाढ़ नदी में,
टूट गए निर्बाध किनारे ।
न जाने कब वक्त की धारा, किसे कहाँ ले जाए ?
घायल मन का घायल पंछी,कित आए कित जाए ?
दिल ही टूट गया जब अपना
देखूँ तो क्या देखूँ दर्पण,
नए जमाने की बाहों में,
छोड़ दिया बस खुला समर्पण,
रोज बदलती रेखाओं से, अनुपम चित्र कहाँ बन पाए ?
घायल मन का घायल पंछी, कित आए कित जाए?।
दूर-दराजों से अब कोई हाथ
का झोला दे भी तो क्या,
उन्मुक्त जवानी को अब कोई,
नाम अनाम करे भी तो क्या
जीना हुआ तबाह अकेला, कौन कहाँ तक जाए ?
घायल मन का घायल पंछी, कित आए कित जाए ?
*****
-चार-
तोड़ अँधेरे की दीवारें
तोड़ अँधेरे की दीवारें,
आया नया सवेरा,
किरणों ने धरती पर आकर नव आलोक बिखेरा ।
अपने अंतर में भी आओ
प्रेम की ज्योति जलाएँ,
तोड़ रूढ़ियाँ, आदर्शों की
दुनिया नई बसाएं,
थाम हाथ में हाथ चलें सब, छोड़के तेरा—मेरा,
तोड़ अँधेरे की दीवारें, लो आया नया सवेरा।
नई बात है, नया दौर है,
थोड़ा-सा कुछ गा लें,
बीते कल की कटुताओं को,
आओ अब बिसरा दें,
खेतों के आँगन में डाला, हरियाली ने डेरा,
तोड़ अँधेरे की दीवारें, आया नया सवेरा ।
वन के पंछी फुदक-फुदक,
जीने का राग सुनाएं,
बैठ डालियों के झूले पर,
मनहर गीत सुनाएं,
दूर क्षितिज पर जा बैठा है, देखो! घोर अँधेरा,
तोड़ अँधेरे की दीवारें, आया नया सवेरा ।
*****
-पाँच-
आओ ! ऐसा देश बनाएँ
जहाँ मने निश-दिन दीवाली,
फैली हो चहु-दिश खुशहाली,
उपवन-उपवन हो हरियाली,
झूम रही हो बाली—बाली ।
गुन-गुन गीत मधुर सब गाएँ
आओ ! ऐसा देश बनाएँ ।
आँगन हो वासंती अनुपम,
प्रेम विभोर सुवासित शबनम,
चाँद सितारों का जमघट हो,
कण-कण में फूटा हो सरगम ।
सब मिलजुल कर नाचें-गाएँ ।
आओ ! ऐसा देश बनाएँ ।
भेदभाव का सूर्य अस्त हो,
जन-जन में उल्लास व्याप्त हो,
भ्रष्टाचार पनप नहीं पाए,
प्रेम-भाव का पथ प्रशस्त हो ।
ऐसी जीवन ज्योति जलाएँ ?
आओ ! ऐसा देश बनाएँ
*****
-छह-
तुम्हें ढूँढने किस विधि जाऊँ
तुम्हें ढूँढने किस विधि जाऊँ ?
राह रोककर धूप खड़ी है,
दूर क्षितिज पर साँझ खड़ी है,
किस-किस से मैं आँख चुराऊँ ?
तुम्हें ढूँढने किस विधि जाऊँ ?
गए नदी में डूब किनारे,
बर्फ जमी है मन के द्वारे,
हिया खोलकर किसे दिखाऊँ ?
तुम्हें ढूँढने किस विधि जाऊँ ?
हुआ दर्द को तन-मन अर्पण,
देखूँ तो देखूँ क्या दर्पण,
किस विधि प्रीत की रीत निभाऊँ ?
तुम्हें ढूँढने किस विधि जाऊँ ?
*****
-सात-
सम्बन्धों का बंद पिटारा
सम्बन्धों का बंद पिटारा ,
एक न एक दिन खुल जाएगा ।
बोलो इतनी रात गए क्यों
आईं तुम मेरे अँगना,
क्या होता जो बज उठते
अनजाने में तेरे कँगना,
जाओ, लौट जाओ वरना तो
समय मचल जाएगा ।
सम्बन्धों का बंद पिटारा,
एक न एक दिन खुल जाएगा ।
..
अब छोड़ो भी आनाकानी ,
करो न सीनाजोरी,
सरे-राह पायल के घुँघरू
बज न उठे चोरा-चोरी,
वरना मानव तो क्या,
पाहन का अन्तर घुल जाएगा ।
सम्बन्धों का बन्द पिटारा,
एक न एक दिन खुल जाएगा ।
..
तुमको नहीं मुझे तो डर है,
रजनी के कालेपन से,
फागुन की रँगरलियों से,
सावन के क्वारेपन से,
ग़र मानसून आ धमका तो,
रँग-रूप धुल जाएगा ।
सम्बन्धों का बंद पिटारा,
एक न एक दिन खुल जाएगा ।
..
बदनामी सौ कोस चले है
सतकर्मों का नाम नहीं,
यूँ समझो दुनिया में जीना,
कोई छोटा काम नहीं,
सम्बन्धों में रंग भरो तो,
मार्ग मिलन का खुल जाएगा ।
सम्बन्धों का बंद पिटारा,
एक न एक दिन खुल जाएगा।
*****
-आठ-
चार हुए जुल्मत के पाँव
चार हुए जुल्मत के पाँव,
छीन लिए सब ठैया-ठाँव।
शहरों की हालत क्या कहना,
शहर हुए अब अपने गाँव।
गौरैया ने गाना छोड़ा,
छिटक गई पीपल की छाँव।
सूखे ताल-तलैया पोखर,
पप्पू कहाँ चलावे नाव।
खेतों को सत्ता ने रौंदा,
सरसों कहाँ पसारे पाँव।
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-नौ-
आज मैं अपने …..
आज मैं अपने गीत सँजो लूँ ।
आज आए पी अँगना मेरे,
बाहों में बाहें ले खेलूँ ।
बहुत रोई थी अब तक मैं,
आज तो सुख की साँसें ले लूँ ।
आवत शरम बताए कोई,
कैसे दिल की बातें खोलूँ ?
आस मिलन की लगी है कैसे,
घड़ियां इन्तजार की झेलूँ ।
है तेज उजारौ रैन कहाँ,
जो करके बन्द किवारें सो लूँ ।
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-दस-
छोड़ो जो दिन बीत गए।
छोड़ो जो दिन बीत गए।
छोड़ मुझे रस्ते में तन्हा,
अपने ही मनमीत गए ।
छोड़ो जो दिन बीत गए।
अश्क हुए यूँ पानी-पानी,
ख़्वाब सुनहरे रीत गए।
छोड़ो जो दिन बीत गए।
अर्थों की खींचा-तानी में,
रूठ सकल नवगीत गए ।
छोड़ो जो दिन बीत गए।
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तेजपाल सिंह तेज (जन्म 1949) की गजल, कविता, और विचार की कई किताबें प्रकाशित हैं- दृष्टिकोण, ट्रैफिक जाम है, गुजरा हूँ जिधर से, हादसों के दौर में व तूफाँ की ज़द में ( पाँच गजल संग्रह), बेताल दृष्टि, पुश्तैनी पीड़ा आदि (कविता संग्रह), रुन-झुन, खेल-खेल में आदि ( बालगीत), कहाँ गई वो दिल्ली वाली ( शब्द चित्र), पाँच निबन्ध संग्रह और अन्य। तेजपाल सिंह साप्ताहिक पत्र ग्रीन सत्ता के साहित्य संपादक और चर्चित पत्रिका अपेक्षा के उपसंपादक और अधिकार दर्पण नामक त्रैमासिक के संपादक रहे हैं। स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर इन दिनों आप स्वतंत्र लेखन में रत हैं। आपको हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार ( 1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से सम्मानित किया जा चुका है।
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