।। ऊॅ नमः शिवायः।। ।।श्री।। ।। श्रीकृष्ण अक्षरी वर्णमाला -कृष्ण लीला।। हमारे प्रेरणा पुंज श्री जगन्नाथ प्रसाद जी श्रीवास्तव लेखक श्री गौरीशं...
।। ऊॅ नमः शिवायः।।
।।श्री।।
।। श्रीकृष्ण अक्षरी वर्णमाला-कृष्ण लीला।।
हमारे प्रेरणा पुंज
श्री जगन्नाथ प्रसाद जी श्रीवास्तव
लेखक
श्री गौरीशंकर श्रीवास्तव
वर्ष १९७२
निवासी-परसोन
पहली बार १००० प्रतियां
तहसील-खुरई, जिला सागर म.प्र
सर्वाधिकार लेखक द्वारा सुरक्षित
।।ऊँ नमः शिवायः।।
।।श्री कृष्ण अक्षरी।।
(कृष्ण लीला-दोहावली)
इसमें वर्णमाला के अनुसार ‘‘अ’’ से ‘‘ज्ञ’’ अक्षर तक ४४ दोहे श्री कृष्ण लीला का सारांश जन्म से लेकर क्षीरसागर गौ लोक तक जाने का वर्णन किया गया है। श्रीमद भागवत (सुखसागर) के आधार पर।
।।श्री कृष्ण अक्षरी वर्णमाला-कृष्ण लीला।।
दोहा- करहु कृपा करि वर बदन, विनय करूँ कर जोर।
कृष्ण अक्षरी लिखत हूँ, दीजो ज्ञान बटोर।।१।।
अ- अभय करो श्री कृष्ण जी, धरूँ तुम्हारा ध्यान।
लीला तुम वर्णन करूं, दीजे यह वरदान।।२।।
आ- आठ भाई पैदा हुए, छह को मारा कंस।
बलदाऊ अरू कृष्ण जी, हैं ईश्वर का अंश।।३।।
इ- इत मथुरा कारागार में, जन्में कृष्ण भगवान।
खुल गये कारागार के, तारे वज्र महान।।४।।
उ- उत गोकुल बाबा नंद के, माया लवो अवतार।
भई हरि की प्रेरणा, वसुदेव ने किया विचार।।५।।
ए- एक छबुलिया में सुला, लेकर भये अगवान।
पहुँचे यमुना नीर में चरण बढ़ाये भगवान।।६।।
ऐ- ऐसा अवसर पाय कर, घटे यमुना के नीर।
धरें शीष वसुदेव जी, पहुंच गए उस तीर।।७।।
ओ- ओट करे हैं शेष जी, रिमझिम बरसत नीर।
पहुंच यशोदा भवन में, सुला दये बे पीर।।८।।
औ- और वहाँ से उठाकर, माया लाये साथ।
दौड़ा आया कंस तब, माया दीन्हीं हाथ।।९।।
अं- अंग-अंग सब देखकर, पछाड़ दिया है कंस।
लात मार आसमान गई, वह देवी का अंश।।१०।।
अः- अः अः हँसती हुई, बोली देवी तुरन्त।
बैरी तेरा प्रगट हो गया, आया तेरा अंत।।११।।
क- कृष्ण कन्हैया कुन्जवन, कमलन की भरमार।
करते लीला निशि दिना, नये-नये खेल अपार।।१२।।
ख- खेल-खेल खिलवाड़ में, गेंद फेंक दइ जाय।
खेलत काली संग प्रभु, काली गोता खाय।।१३।।
ग- गरूड़ भय के कारणें, काली दह में वास।
रमणक द्वीप पठाय कर, मिटा दई है त्रास।।१४।।
घ- घर घर बाजे बज रहे, ब्रज घर होत आनंद।
जन्म दिवस घनश्याम को, मनावत बाबा नन्द।।१५।।
च- चपल नयन चित चोर हैं, चंचल है अति चाल।
चाल चलत चहुंओर हैं, संग में गोपी ग्वाल।।१६।।
छ- छनन-छनन पायल बजत, छन-छन घुंघरूं ताल।
छमक-ठुमक नाचत मिलत, गले में बहियाँ डाल।।१७।
ज- जल भरने जमुना सखी, जौ आवत अरू जात।
जुगल किशोर को जोहती, नजर प्रेम दरसात।।१८।।
झ- झूम-झूम कर चलत हैं, झुमका हलते कान।
झार-झार दीखत बदन, प्यारी है मुस्कान।।१९।।
ट- टोर शरम पितु मातु की, छोड़ पति घर द्वार।
वन्शी धुन सुन कर भगीं, गोपी किवरियां टार।।२०।।
ठ- ठुमकत-ठुमकत चलत हैं, ठुमक-ठुमक दे ताल।
ठिनक-ठिनक मांगत दही, कृष्ण यशोदा लाल।।२१।।
ड- डम डम डमरू बजावत, बाघम्बर पहने छाल।
मुण्ड माल है गले में, यशोदा बता दो लाल।।२२।।
ढ- ढिंगधर आंगन लिपाकर, मुतियन चौक पुराय।
ढप-ढपला बजवाय कर, श्रीकृष्ण दये दिखलाय।।२३।
त- ताली दे दे नचे शिव, मन में अति हर्षाय।
तीन लोक के त्रलोकी, जग में जन्में आय।।२४।।
थ- थन गौ का मुख में दिये, देखों कृष्ण मुरार।
दूध पियत बगरत कछू, शोभा अति अपार।।२५।।
द- दांव पेंच से लड़े उत, कृष्ण और बलराम।
चान्डूर मुष्टिक मार फिर, शल तोसल काम तमाम।।२६
ध- धनुष टोर धरणी पटक, कंस को पटका जाय।
ऊपर से कूदे अपन, धरणी दयो धसाय।।२७।।
न- नाच गान सुर पुर भयो, सभी प्रजा हरषाय।
नमस्कार उग्रसेन कर, गद्दी दियो बिठाय।।२८।।
प- पहुँचे कारागार फिर, मातु पिता सह मेल।
मेरे सुख के कारणें, तुमने काटे जेल।।२९।।
फ- फड़क उठी दोनों भुजा, पकड़ गोद लये माय।
पाकर के दोई सुतन को, उर आनन्द न समाय।।३०।।
ब- बहु दिन में लीन्हीं खबर, लालन दोनों भाय।
छह भाई मारे कंस ने, देव उन्हें दिखलाय।।३१।।
भ- भुवन-भुवन देखत फिरे, मिले वरूण पहं जाय।
छेहु भाई लाकर दिये, देवकी कंठ लगाय।।३२।।
म- मंदिर-मंदिर जाय फिर, उद्धव जी के पास।
कुब्जा के घर जाय कर, पूरण कीन्हीं आस।।३३।।
य- यज्ञ रचायो युधिष्ठिर, जरासिंध बलवीर।
भीमसेन को साथ ले, मरवायो तन चीर।।३४।।
र- रथ हाँकों है पार्थ को, भारत दियो रचाय।
अर्जुन गीता ज्ञान दे, लड़े समर में जाय।।३५।।
ल- लड़त-लड़त जीते समर, हारे कौरव राय।
पाण्डव जीते युद्ध में, कौरव गये समाय।।३६।।
व- वतन पाये श्री युधिष्ठिर, गंधारी अति क्षोभ।
समझाया श्रीकृष्ण ने, छोड़ो मोह व लोभ।।३७।।
श- शासन अच्छा पाय कर, प्रजा हुवा सन्तोष।
शंख बजा धर्मराज का, नकुल शंख सूघोस।।३८।।
ष- षट कर्मन के करे से, जीव भोगता दुःख।
शत कर्मन के करे से, पाता है बहु सुख।।३९।।
स- सब विधि सब संसार ने, जानी है यह चाल।
धोखा अरू अन्याय में, होता ऐसा हाल।।४०।।
ह- हरि की ही धुन लग रही, हरि की ही करतूत।
मारे अन्यायी सबै, बड़े-बड़े अब धूत।।४१।।
क्ष- क्षीर सागर फिर गये प्रभु, कलियुग आया जान।
राज्य भोग पाण्डव गये, हिमालय किया पयान।।४२।।
त्र- त्रष्णा में पड़िये नहीं, त्रष्णा बुरी बलाय।
त्रष्णा के ही परे से, सबरो वंश नसाय।।४३।।
ज्ञ- ज्ञान बान जो होंय नर, पढ़ें सुनावें ताहि।
गौरीशंकर तरण को, चाहत सुर पुर राहि।।४४।।
कृष्ण अक्षरी यह रची, अपनी मति अनुसार।
भूल चूक जो हो कहीं, लीजो सभी सुधार।।४५।।
पढ़ो सुनो दोनों समय, अरू फुर्सत के साथ।
पाप कटे दुःख दूर हों, पढ़ें न जम के हाथ।।४६।।
-- आरती --
ऊँ जय श्री कृष्ण हरे।।
जय माधव मुकुन्द मधुसूदन मुरली अधर धरे।।
ऊँ जय श्री कृष्ण हरे।।
जय विपिन बिहारी कृष्ण मुरारी गोविन्द बनमाली।
जय ब्रज के कन्हैया रहिश रचैया नटवर भेष धरे।।
ऊँ जय श्री कृष्ण हरे।।
जय वृन्दावन जय कालिन्दी नाग नाथे काली।
जय मनमोहन जय गिरवर धर फण पर नृत्य करे।।
ऊँ जय श्री कृष्ण हरे।।
जय कुन्जबिहारी नर तन धारी जय लीला धारी।
जय घनश्याम, श्याम श्री श्यामा राधा कृष्ण हरे।।
ऊँ जय श्री कृष्ण हरे।।
जय श्री नंदलाला, दीनदयाला जय गिरवर धारी।
जय गोपीवल्लभ जय मुरलीधर भक्तन कष्ट हरे।।
ऊँ जय श्री कृष्ण हरे।।
जय हरिमय संसार त्रलोकी जय जय जय स्वामी।
जय त्रभुवन पति प्रभु अन्तरयामी अनेकों रूप धरें।।
ऊँ जय श्री कृष्ण हरे।।
जय गोपाल कंश बधकारी बारम्बार नमामी।
गौरीशंकर शरणागत है तुम्हरे चरण पकरे।।
ऊँ जय श्री कृष्ण हरे।।
जो जो जन यह लीला गावे, अरू आरति प्रभु की।
सुख से जन्म बितावें, कोटिन कष्ट हरे।।
ऊँ जय श्री कृष्ण हरे।।
:::: प्रभाती ::::
जागिये गुपाल लाल भोर भये प्यारे।
मैया पुकार रहीं, उठो लाल प्यारे,
उठो कृष्ण प्यारे।।
जागिये गुपाल लाल भोर भये प्यारे।
गौयें रँभाय रहीं, बछला रँभाय रहे,
दे रहे इशारे, बंद खोलो हमारे।।
जागिये गुपाल लाल भोर भये प्यारे।
मनसुका पुकार रहा, ग्वाल-बाल पुकार रहे,
खड़े हैं द्वारे,
उठो मित्र प्यारे, खेल रचो सारे।।
जागिये गुपाल लाल भोर भये प्यारे।
राधा जी जगाय रहीं, गोपियां पुकार रहीं।
उठो प्राण प्यारे, रहश रच्यो प्यारे।।
जागिये गुपाल लाल भोर भये प्यारे।
दीन दुखी पुकार रहे, दीन बन्धु प्यारे,
उठो बन्शी बारे।
दुःख हरो सारे।।
जागिये गुपाल लाल भोर भये प्यारे।
गौरीशंकर शरण आया, चरण तिहारे, खड़ा है द्वारे,
दर्शन देव प्यारे।।
जागिये गुपाल लाल भोर भये प्यारे।
।। ऊं नमः शिवायः।।
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लेखक परिचय
श्री गौरीशंकर श्रीवास्तव का जन्म २० अगस्त १९०७ को ग्राम परसोन, तहसील खुरई, जिला-सागर मध्यप्रदेश में हुआ। इनके तीन बेटे, तीन बेटियां हुईं। सभी का विद्याध्ययन, विवाह संस्कार कराया और अच्छी जीविकोपार्जन से जोड़ा।
लेखन की प्रेरणा इन्हें अपने पिता श्री जगन्नाथ प्रसाद जी श्रीवास्तव से मिली। सन् १९७२ में पुस्तक तैयार की। १२ दिसम्बर १९९९ को ९३ वर्ष की आयु में रात्रि लगभग १० बजे खुरई में देवलोक गमन हुआ।
मेरे पिता वैद्यक एवं ज्योतिष शास्त्र के अद्भुत ज्ञाता थे। यह व्यवहार में जितने सादगी से भरपूर थे, विचारों में उतने ही उच्च थे। वे किसी प्रकार की बुराई की भावना से न तो कभी समझौता करते और न ऐसी सलाह देते। वे स्वभाव से समुद्र की तरह गंभीर और संकल्प में हिमालय की तरह अडिग थे।
श्री रघुवीर सहाय श्रीवास्तव
एवं
श्रीमती राधा देवी श्रीवास्तव
संकलनकर्ता एवं मार्गदर्शक
।। ऊं नमः शिवायः।।
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प्रकाशक के विचार
हमारा देश भारत कृषि प्रधान तथा प्राकृतिक सौन्दर्य से समृद्ध देश है। देश में रहने वाले अनेक धर्म, जाति, विचारों तथा पुरानी परंपराओं को मानने वाले हैं। हमारा प्रयास यह होना चाहिए कि देश में कोई भी गरीब न रहे, कोई भी बेरोजगार न रहे, जिस दिन गरीब-अमीर की खाई देश से समाप्त हो जाएगी, उस दिन हमारा राष्ट्र समृद्धशाली देशों में गिना जाएगा और इसका गौरव देश की युवा पीढ़ी को होगा।
गीता में योगेश्वर कृष्ण कहते हैं कि जो सभी प्राणियों में किसी से द्वेष नहीं करता, जो मित्रता करता है, जो दया पूर्ण है, जो अभिमान रहित है, जो सुख या दुःख से विचलित नहीं होता, जो क्षमा करने वाला है, जो निरंतर संतुष्ट रहता है, जो धीर है, सहनशील है, दृढ़ विश्वासी है, जिसने अपने आपको वश में कर लिया है, जो वचन का पक्का है, जो अपने मन तथा बुद्धि को मेरे अर्पण कर देता है। निःसंदेह इस प्रकार का व्यक्ति मुझे प्रिय है।
क्रोध, प्रतिशोध एक ऐसा मानसिक ज्वर है जो मन की समस्त शक्तियों को भस्म कर डालता है। बुरा मानना एक तरह का मानसिक रोग है जो दया और सहृदयता के स्वस्थ प्रवाह को अवरूद्ध कर देता है। क्षमा से पांच लाभ हैं :-
१. स्नेह की प्राप्ति का सुख
२. मेलजोल की वृद्धि का सुख
३. सुखी और शान्त रहने का सुख
४. क्रोध और अहंकार पर विजय पाने का सुख
५. दूसरों से नम्र व्यवहार प्राप्त करने का सुख
परमपिता परमेश्वर की असीम अनुकंपा से रचित पुस्तक का लाभ उठायें। यही पूर्वजों द्वारा लिखित, संग्रहित पुस्तक को पुनः प्रकाशित कराने का उद्देश्य है।
- रघुवीर सहॉय श्रीवास्तव
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।। ऊं नमः शिवायः।।
पिता का पत्र पुत्र के नाम
चि. श्री रघुवीर सहाय खुश रहो।
हमारा स्वभाव सब पर एक-सा है। हमने अपने शत्रुओं से बदला न लेकर मित्रता ही अपनाई और अपनी उमर में सरकारी नौकरी में भी किसी को गाली तक नहीं दी। क्रोध तक किसी पर नहीं किया व सब पर एक ही भाव रखा, न ज्यादा किसी से मेल न ज्यादा मनमुटाव। जीवन इसी तरह बीता सब आदमियों ने हमको माना, हमारी सेवा की।
हमारी जन्मपत्री तुमने पढ़ी होगी, वह बिल्कुल सही उतर रही है। हमारा जन्म सूर्यलोक से आकर हुआ है और वहीं जाना है यह और तुम्हारा अवतार हमारे पिता का है। यह बिल्कुल सत्य समझो, क्योंकि जब जो जाता है उसके मन में जैसी भावना होती है वह वही योनी पाता है, इससे उनका हमारे ऊपर बहुत प्रेम था, हमारी ही ओली में उनने प्राण त्याग किये थे और फिर हमको बहुत सपना देते रहे।
गौदान उनपर की थी, भट्ट जी को हमको सपना दिया था सो हमने नन्हें लम्बरदार से अच्छी गाय दूध वाली तुरत की व्यायी हुई, भट्टजी को दे दी थी। फिर स्वप्न देकर वह आये। हमको व तुम्हारी माँ को स्वप्न दिया कि हम तीर्थों को गये थे, अब आ गये हैं। नौ माह बाद तुम्हारा जन्म हुआ। यह झूठ नहीं समझना और तुममें वहीं लक्षण भी हैं, वैदक ज्योतिष वह जानते थे, क्रोध भी कम करते थे।
द : गौरीशंकर
।। बार-बार कहूं बारम्बारा, चक्र सुदर्शन है रखवारा।।
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वंदन
विविधता में एकता
‘‘अनेक पंथ हैं, अनेक सम्प्रदाय,
अनेक मत हैं, अनेक मार्ग,
परंतु दयालु कैसे बनें
यह जानना आवश्यक है, क्योंकि
दुःखी संसार को
दया की आवश्यकता है।’’
रघुवीर सहाय श्रीवास्तव
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प्रकाशन सहायक : आशीष श्रीवास्तव
कृष्ण सहाय श्रीवास्तव (उच्च न्यायालय अधिवक्ता)
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