।।श्री शिव अक्षरी वर्णमाला।। - श्री गौरीशंकर श्रीवास्तव

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।। ऊॅ नमः शिवायः।।

​​

।।श्री।।

​​

।।श्री शिव अक्षरी वर्णमाला।।

​​

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हमारे प्रेरणा पुंज

​​

श्री जगन्नाथ प्रसाद जी श्रीवास्तव

​​

लेखक

​​

श्री गौरीशंकर श्रीवास्तव

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​​

निवासी-परसोन

तहसील-खुरई, जिला सागर म.प्र.

​​

पहली बार १००० प्रतियां वर्ष १९७२

सर्वाधिकार लेखक द्वारा सुरक्षित

।।श्री।।

श्रीगणेशायः नमः

।।शिव अक्षरी वर्णमाला।।

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दोहा :- पहले गणपति ध्यानधर, दूजे शारदा माय।

शिव अक्षरी वर्णन करूँ, दोहों में अपनाय।।१।।

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- अविनाशी गणपति पिता, शिवशंकर श्री महेश।

त्रविधि मूर्ति में विद्वित, ब्रम्हा, विष्णु, महेश।।२।।

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- आदि अनादि कहत सब वेद पुराण अरू संत।

कल्प-कल्प बदलत नहीं, नहिं पावत कोई अन्त।।३।।

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- इनके नाम अनेक हैं, शिव हर रूद्र महेश।

महादेव शंकर कहत, ग्यारह रूद्र सुरेश।।४।।

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- ईश इन्हें ही कहत हैं, पुजते तीनों लोक।

शीश पूजत आकाश में, चरण पताली लोक।।५।।

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- उमा उमापति हृदय में, ध्यान धरो लो नाम।

रामेश्वर मृत्यु लोक में, लिंग पूजो श्रीराम ।।६।।

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- ऊपर जटों में ली गंगाजी, लटों से निकली धार।

जटा शंकरी नाम पड़ा है,पाप करत सब छार।।७।।

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- एक नेत्र दो से अधिक, तीन नेत्र त्रपुरार।

जब इनका यह नेत्र खुलत है, करत-जगत संहार।।८।

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- ऐसी तारी लगत है, सुनत नहीं कछु बैंन।

राम नाम में मगन रत, खोलत नाहीं नैंन।।९।।

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- ओम नमो नारायण, भजते हैं यह मंत्र।

सिद्ध होत शिवनाम से, जंत्र, मंत्र अरू तंत्र।।१०।।

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- औगढ़दानी नाम है, पियत धतूरा भंग।

भस्म रमायें अंग में, लिपटे रहत भुजंग।।११।।

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अं- अमृत छोड़ विष को पियो, नीलो हो गयो कंठ।

महिमा गाई रामकी, भयो नाम नीलकंठ ।।१२।।

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अः- अहाः अहाः सब हंसे हैं, जब देखी है बारात।

दूल्हा तो शिवजी बने, नन्दीगण हरषात ।।१३।।

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- काम देव ने प्रण करो, तारी देहुं खुलाह।

नेत्र तीसरो खोलकर, भस्म कियो है ताह ।।१४।।

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- खल बल पर गई है तभी, रति ने विनती कीन्ह।

बिना देह व्यापे सभी, हर ने आशिष दीन्ह ।।१५।।

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- गणपति जी पहरे खड़े, पार्वती के साथ।

शिवजी से लड़ने लगे, शिव ने काटा माथ ।।१६।।

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- घुसकर देखा गुफा में, उमा भजन लब लीन।

पूछन लागी तब उमा, बालक खों कहां कौन ।।१७।।

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- चलकर देखा है उमा, धड़ पड़ा वहाँ बिन माथ।

तुरतई बोली तब उमा, यह क्या किया है नाथ ।।१८।।

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- छमा करो सब गल्तियां, लावो गज का माथ।

रक्खो धड़ पर तुरन्त ही, जल्द जिलावो नाथ ।।१९।।

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- जटा शंकरी पाप नाशनी, शिर पर शोभित गंग।

भागीरथ लाये यहां, कुल तारन की उमंग ।।२०।।

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- झाड़ी भंग धतूर की, गांजा फूल कनैर।

शेर, गाय, नन्दी रहत, आपस में निहीं बैर ।।२१।।

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- टीका है त्रपुण्ड माथ पर, शोभा देत अपार।

गले बीच मुण्डो की माला, पार्वती हैं नार ।। २२।।

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- ठसक दिखा त्रपुरा लड़ा दीना उसको मार।

त्रपुरारी तब नाम पड़ा है, जानत सब संसार ।। २३।।

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- डम डम डमरू बजावत, ताण्डव करते नाच।

डांकनी साँकनी गारी गॉवत, नाचत भूत पिशाच ।।२४।

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- ढाल त्रिशूल डमरू लियें, भाला अरू तलवार।

वीर भद्र संग में चलत, मारत दुष्ट अपार ।।२५।।

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- तारी जब शिव की लगी, सती की सन्मुख कौन।

माता की आसन दई, भये भजन में लीन ।। २६।।

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- थर थर कॉपी हैं सती, शिवजी तज दयो मोय।

सीता रूप मैंने धरो, जान लियो शिव सोय ।। २७।।

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- देवन में महादेव हैं, होते जल्द प्रशन्य।

जो नित सुमरत है इन्हें, उन सबको है धन्य ।।२८।।

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- ध्यान धरत शिव राम का, राम धरत शिव ध्यान।

अन्त में अन्तर है नहीं, कहते वेद पुरान ।।२९।।

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- नाग लपेटे बदन में, बिच्छु बर्र अलान्ग।

मुर्दा की तन भस्म रमायें, पीवत गांजा भंग ।।३०।।

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- पार्वती गिरजापति, उमापति महादेव।

गौरीशंकर हर शिवशंकर, हर हर हर महादेव।।३१।।

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- फूल कनैर, धत्तूर का, नित्य चढ़ावे मोय।

फल चढ़ावे प्यारो वही, नाम राम फल होय।।३२।।

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- बेल पत्र पर राम लिख, श्रावण भादों माह।

जल चढ़ावें वैसाख में, मन इच्छा फल पाह।।३३।।

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- भोला शंकर सब कहत, बं बं भोलानाथ।

नन्दी पर भ्रमण करत, ले गिरजा को साथ ।। ३४।।

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- मंत्र जंत्र सिद्धी करत, मन मन्दिर महादेव।

जपत निरन्तर जो सदा, मनवांछित फल लेव।।३५।।

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- यज्ञ दक्षपत ने कियो, दयो न हर को भाग।

सती यज्ञ देखन गई, लगा लई तन आग।।३६।।

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- रार मचाई भद्रगण, कीना यज्ञ विध्वंश।

खबर परी महादेव को, चढ़ आई बहुखुन्श।।३७।।

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- लट पटकी है भूमि पर, वीर भद्र प्रगटाय।

चले हैं शिवजी संग ले, पहुँचे यज्ञ पर जाय ।।३८।।

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- वहाँ सती जल चुकी थीं, शिव को क्रोध अपार।

दक्ष प्रजापति सिर कटा, यज्ञ कुण्ड दयो डार।।३९।।

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- शिव का क्रोध न सह सकत, मच गयो हा हा कार।

सब देवन जुड़ विनय की, शिव शान्ति लई धार।।४०।।

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- षट कर्मों का फल मिला, शती किया अयमान।

बुकरा शीष लगाय कर सफल यज्ञ भयो जान ।।४१।।

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- सब मिलकर स्तुति करी, शिवजी गये कैलाश।

सती जन्म लयो हिमाचल, उमा भवानी खाश ।।४२।।

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- हर्ष भयो तब हिमांचल, उत्सव करो अपार।

पार्वती के नाम से, जग में भयो प्रचार।।४३।।

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क्ष- क्षमा करो सब गल्तियां, जो जो जिसकी होय।

क्षमा बड़न को उचित है, वेद वतावत सोय।।४४।।

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त्र- त्रलोकी इनको कहत, चार माह पाताल।

चार-चार मृत स्वर्ग में, सदा रहत यह हाल।।४५।।

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ज्ञ- ज्ञानी ध्यानी कहत हैं शिवजी को सब कोय।

गौरीशंकर शरण है ज्ञान लखादो मोय ।। ४६।।

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गुरू बिन ज्ञान मिले नहीं, गुरू बनाऊं महेश।

राम नाम का ज्ञान जिमि, उमा दिया उपदेश ।।४७।।

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शिव अक्षरी नित पढ़े जो हृदय में उपजै ज्ञान।

सन्तति सम्पत्ति सब मिले, आदर अरू सनमान ।।४८।।

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शिव अक्षरी यह लिखी, निज मति के अनुसार।

भूल चूक जो हों कहीं, लीज सभी सम्हार।।४८।।

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शुक्ल पक्ष अक्षय तिथि, माह कहो वैसाख।

सम्वद बीस सो तीस है, रस लीन्हा यह चाख।।४९।।

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--:: आरती ::--

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ऊँ जै भोले शिवशंकर।

कहते वेद पुराण भजो सब हर हर ।।ऊँ।।

ऊँ जै भोले शिवशंकर।

चतुर्भुजी है रूप तुम्हारा पहने हों बाघम्बर।

शिर पर जटा जटों में गंगा वं वं वं शिवशंकर ।।ऊँ।।

ऊँ जै भोले शिवशंकर।

नीलकण्ठ है नाम तुम्हारा गले में सर्प भयंकर।

मुर्दा भस्म रमाये अंग पर लिपटे हैं सब विषधर ।।ऊँ।।

ऊँ जै भोले शिवशंकर।

हाथ लिये त्रशूल व डमरू बालि जाऊँ शोभा पर।

देख देख इस शोभा को डरता है गौरीशंकर ।।ऊँ।।

ऊँ जै भोले शिवशंकर।

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--वन्दना--

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वन्दौ शिव शंकर कैलाशी।

शिर पर संग चन्द्र माथे पर त्रशूल पर बसत है काशी

शहरों की शोभा को तजकर भये मरघट के बासी

वन्दौ शिव शंकर कैलाशी।

कल्प कल्पान्तर जन्म मरण नहिं हौ प्रभु अविनाशी।

भावई भेंट सकत तुम शिवजी काटत यम की फांसी ।

वन्दौ शिव शंकर कैलाशी।

गौरीशंकर तुम्हें मनावत मन में भई हुलासी।

मन में बस कर छोड़ न देना नहिंतर हॅू हैं हांसी

वन्दौ शिवशंकर कैलाशी।।

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।। ऊं नमः शिवायः।।

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लेखक परिचय

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श्री गौरीशंकर श्रीवास्तव का जन्म २० अगस्त १९०७ को ग्राम परसोन, तहसील खुरई, जिला-सागर मध्यप्रदेश में हुआ। इनके तीन बेटे, तीन बेटियां हुईं। सभी का विद्याध्ययन, विवाह संस्कार कराया और अच्छी जीविकोपार्जन से जोड़ा।

लेखन की प्रेरणा इन्हें अपने पिता श्री जगन्नाथ प्रसाद जी श्रीवास्तव से मिली। सन् १९७२ में पुस्तक तैयार की। १२ दिसम्बर १९९९ को ९३ वर्ष की आयु में रात्रि लगभग १० बजे खुरई में देवलोक गमन हुआ।

मेरे पिता वैद्यक एवं ज्योतिष शास्त्र के अद्भुत ज्ञाता थे। यह व्यवहार में जितने सादगी से भरपूर थे, विचारों में उतने ही उच्च थे। वे किसी प्रकार की बुराई की भावना से न तो कभी समझौता करते और न ऐसी सलाह देते। वे स्वभाव से समुद्र की तरह गंभीर और संकल्प में हिमालय की तरह अडिग थे।

श्री रघुवीर सहाय श्रीवास्तव

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एवं

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श्रीमती राधा देवी श्रीवास्तव

संकलनकर्ता एवं मार्गदर्शक

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।। ऊं नमः शिवायः।।

प्रकाशक के विचार

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हमारा देश भारत कृषि प्रधान तथा प्राकृतिक सौन्दर्य से समृद्ध देश है। देश में रहने वाले अनेक धर्म, जाति, विचारों तथा पुरानी परंपराओं को मानने वाले हैं। हमारा प्रयास यह होना चाहिए कि देश में कोई भी गरीब न रहे, कोई भी बेरोजगार न रहे, जिस दिन गरीब-अमीर की खाई देश से समाप्त हो जाएगी, उस दिन हमारा राष्ट्र समृद्धशाली देशों में गिना जाएगा और इसका गौरव देश की युवा पीढ़ी को होगा।

गीता में योगेश्वर कृष्ण कहते हैं कि जो सभी प्राणियों में किसी से द्वेष नहीं करता, जो मित्रता करता है, जो दया पूर्ण है, जो अभिमान रहित है, जो सुख या दुःख से विचलित नहीं होता, जो क्षमा करने वाला है, जो निरंतर संतुष्ट रहता है, जो धीर है, सहनशील है, दृढ़ विश्वासी है, जिसने अपने आपको वश में कर लिया है, जो वचन का पक्का है, जो अपने मन तथा बुद्धि को मेरे अर्पण कर देता है। निःसंदेह इस प्रकार का व्यक्ति मुझे प्रिय है।

क्रोध, प्रतिशोध एक ऐसा मानसिक ज्वर है जो मन की समस्त शक्तियों को भस्म कर डालता है। बुरा मानना एक तरह का मानसिक रोग है जो दया और सहृदयता के स्वस्थ प्रवाह को अवरूद्ध कर देता है। क्षमा से पांच लाभ हैं :-

. स्नेह की प्राप्ति का सुख

. मेलजोल की वृद्धि का सुख

. सुखी और शान्त रहने का सुख

. क्रोध और अहंकार पर विजय पाने का सुख

. दूसरों से नम्र व्यवहार प्राप्त करने का सुख

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परमपिता परमेश्वर की असीम अनुकंपा से रचित पुस्तक का लाभ उठायें। यही पूर्वजों द्वारा लिखित, संग्रहित पुस्तक को पुनः प्रकाशित कराने का उद्देश्य है।

- रघुवीर सहॉय श्रीवास्तव

।। ऊं नमः शिवायः।।

पिता का पत्र पुत्र के नाम

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चि. श्री रघुवीर सहाय खुश रहो।

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हमारा स्वभाव सब पर एक-सा है। हमने अपने शत्रुओं से बदला न लेकर मित्रता ही अपनाई और अपनी उमर में सरकारी नौकरी में भी किसी को गाली तक नहीं दी। क्रोध तक किसी पर नहीं किया व सब पर एक ही भाव रखा, न ज्यादा किसी से मेल न ज्यादा मनमुटाव। जीवन इसी तरह बीता सब आदमियों ने हमको माना, हमारी सेवा की।

हमारी जन्मपत्री तुमने पढ़ी होगी, वह बिल्कुल सही उतर रही है। हमारा जन्म सूर्यलोक से आकर हुआ है और वहीं जाना है यह और तुम्हारा अवतार हमारे पिता का है। यह बिल्कुल सत्य समझो, क्योंकि जब जो जाता है उसके मन में जैसी भावना होती है वह वही योनी पाता है, इससे उनका हमारे ऊपर बहुत प्रेम था, हमारी ही ओली में उनने प्राण त्याग किये थे और फिर हमको बहुत सपना देते रहे।

गौदान उनपर की थी, भट्ट जी को हमको सपना दिया था सो हमने नन्हें लम्बरदार से अच्छी गाय दूध वाली तुरत की व्यायी हुई, भट्टजी को दे दी थी। फिर स्वप्न देकर वह आये। हमको व तुम्हारी माँ को स्वप्न दिया कि हम तीर्थों को गये थे, अब आ गये हैं। नौ माह बाद तुम्हारा जन्म हुआ। यह झूठ नहीं समझना और तुममें वहीं लक्षण भी हैं, वैदक ज्योतिष वह जानते थे, क्रोध भी कम करते थे।

​​

: गौरीशंकर

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।। जय-जय शिवशंकर कांटा लगे न कंकर।।

यंत्र एवं राशियों के मंत्र प्राप्त करने के लिए सम्पर्क करेंः- ९८९३४१०८४०

घ्वंदनघ्

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विविधता में एकता

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‘‘अनेक पंथ हैं, अनेक सम्प्रदाय,

अनेक मत हैं, अनेक मार्ग,

परंतु दयालु कैसे बनें

यह जानना आवश्यक है, क्योंकि

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दुःखी संसार को

दया की आवश्यकता है।’’

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रघुवीर सहाय श्रीवास्तव


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प्रकाशन सहायक : आशीष श्रीवास्तव

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कृष्ण सहाय श्रीवास्तव (उच्च न्यायालय अधिवक्ता)

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रचनाकार: ।।श्री शिव अक्षरी वर्णमाला।। - श्री गौरीशंकर श्रीवास्तव
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